रविवार, 23 जून 2013

संपत अउ मुसवा

उतेरा एसो गजब घटके रहय। माड़ी-माड़ी भर लाखड़ी, घमघम ले फूले रहय। मेड़ मन म राहेर ह घला सन्नाय रहय। फर मन अभी पोखाय नइ रहय, फेर बेंदरा मन के मारे बंाचय तब।
फुलबासन ह सुक्सा खातिर लाखड़ी भाजी लुए बर खार कोती जावत रहय। मेड़ के घटके राहेर के बीच चिन्हारी नइ आवत रहय। हरियर लुगरा, हरियरेच पोलखा, राहेर के रंग म रंग गे रहय।
 राहेरेच जइसे वोकर जवानी ह घला सन्नाय रहय।
फुलबासन, जथा नाम, तथा गुन। फूल कस सुंदर चेहरा। पातर, दुब्बर सरीर। कनिहा के आवत ले बेनी झूलत हे, जउन म लाल फीता गुंथाय हे। महमहाती तेल, क्रीम अउ पावडर लगा के जब गली खोर म निकलथे, चारों मुड़ा ह आमा बगीचा कस महमहाय लगथे। करिया करिया आंखी, कुंदरू चानी कस पातर पातर ओंठ, भरे पूरे छाती, देखइया के लार चुचवा जाथे। सात आठ बछर हो गे हे ये गांव म बिहा के आय, फेर लोग लइका एको झन नइ होय हे। वोकर घर वाला सुंदरू वोला अघातेच मया करथे। अपन आप ल भागमानी समझथे कि गांव भर ले जादा सुंदर बाई हे वोकर।
सुंदरू बारो महीना सहर म हमाली करे बर जाथे। भिनसरहच सायकिल धर के निकल जाथे। दिन भर खटथे। आठ नौ बजे रात के लहुटथे। घाम पानी म दिनभर कमाथे। पाइ-पाइ जोड़थे। एक कप चहा भले नइ पीही फेर फुलबासन के फरमाइस ल जरूर पूरा करथे।
फूलबासन जतका सुंदर हे, वोतकेच मटमटही अउ फूलकझेलक घला हे। फैसन म रत्ती भर के कमी नइ होना चाही। मुंहबाड़िन अतेक कि गांव के कोनों वोकर संग नइ पूर सकय। फेर वाह जी सुंदरू। बाई्र के कोनों किसम के तकलीफ ल देख नइ सकय।
फुलबासन के मोहनी म सुंदरू ह तो मोहाएच हे, गांव भर के बुढ़वा जवान मन घला मोहाय हें। फुलबासन के सुभाव घला फूलेच सरीख हे। फूल ह भला कते भंवरा ल मना करथे? सब बर रस छलकत रहिथे।
मुड़ी म खाली टुकनी बोहे, राहेर मेड़ म मठरत-मठरत, ददरिया झोरत, एती ले फुलबासन जावत रहय। ओती ले मुसमुसात मुसवा राम आवत रहय। बीच मेड़ म ओरभेटठा हो गे।
मुसवा राम बढ़ावल नाम आय। वोकर असली नाम हाबे भुलवा राम। आदत सुभाव हे मुसवा सरीख। जेकर नही तेकर कोठी म बिला कर करके धान फोले म माहिर। ताकइया ह ताकते रहि जाथे, मुसवा राम ककरो सपड़ म नइ आवय। गांव के नामी डाक्टर। गुल्लूकोस, पदीना अउ दराक्छस (ग्लूकोज, पोदीना और द्राक्षासव )म सब किसम के बीमारी ल ठीक कर डारथे। लाख मर्ज के एके दवा। जउन बीमारी ह ये दवा मन म बने नइ होवय, तउन ह पक्का बाहरी हवा होथे। कोनो सोधे बरे के कारू नारू। तब? झाड़-फूंक, तेला-बाती बर घला उस्ताद हे। दारू-कुकरी के जुगाड़ होनच हे।
मुसवा राम म अतकेच खूबी होतिस तब तो। वो आय पक्का गम्मतिहा। नाचा-पेखा म जोक्कड़ बन के परी मन संग जब बेलबेलाथे, देखइया मन म चिहुर उड़ जाथे। पेट रमंज रमंज के हांसथें। समझ लेव हीरो नं. वन। असल जिंदगी म घला वो ह वइसनेच हे। वोकर बात सुन सुन के कतरो जती-सती रहंय, मोहा जाथें।
फुलबासन ददरिया झोरे म मस्त रहय। मुसवा राम के गम ल नइ पाइस। फेर मुसवा राम मुसवच आय। दुरिहाच ले वो ह फुलबासन ल ओरख डारे रहय। जान सुन के गउखन बने रहय। ओरभेट्ठा करे के ताक म तो सबर दिन के रहय। गांव नता म फुलबासन ह मुसवा राम ल कुरा ससुर मानथे। कट खाय रहिगे। आसते ले खखार के मुसवा राम ह आगू म खड़े हो गे। रद्दा बंद। फुलबासन ह हड़बड़ा गे। एती मुंड़ के गिरत चरिहा ल संभाले के उदिम करिस, त ओती छाती के अंचरा ह कनिहा म झूल गे। सरम के मारे वोकर मुंहू-कान ह ललिया हे।
बारा घठैंादा के पानी पियइआ मुसवा राम, फेर लहर-लहर लहरा मारत, अथाह गहिरी, अइसन घाट वो ह कभू नइ देखे रिहिस। देखिस त देखते रहि गे। जनम के बेलबेलहा, फेर चेत सुरता अइसे हराइस के सब भुला गे।
फुलबासन ह वोकर ले का कम हे? भांप गे कि मुसवा राम ह बिला ले बाहिर निकले बर अकबकावत हे फेर रद्दा नइ पावत हे। थोरिक देर अउ अकबकावन दिस तब अपन अंचरा ल सोझियावत किहिस -’’टार हो बड़का, खांसो खखारो घला नहीं।’’
मुसवा राम अब अपन होस म आ गे रहय। कहिथे -’’ये ले, छोटकी के बात। काला टेंकाय हाबन भइ, तेला टारबोन। तुम्हीं बताव।’’
मुसवा ह कहिथे -’’हमर देवता ह नइ रुसाय। तुंहरे ह रुसाय होही। कहू त मनाय बर नरिहर धर के संझा बेरा आ जाहूं।’

फुलबासन कुछू नइ बोलिस। मुच ले हांस दिस। कनखही देखत, कनिहा ल मटकावत, मुसवा राम ल रगड़त आगू बढ़ गे। मुसवा राम ह पथरा कस मुरती जिहां के तिहां ठाढ़े रहिगे।
तीन चार खेत के दुरिहा म संपत महराज के खेत हे। वहू ह चरवाहा-बनिहार मन संग ढेंखरा कंटवाय बर आय रहय। फुलबासन अउ मुसवा राम ल राहेर झुंझकुर ले निकलत देख डारथे। का गुलाझांझरी होइस होही, समझे म वोला देर नइ लगिस। मने मन कहिथे -’’आज तोला देखहूं रे मुसवा, कइसे बोचकबे ते।’’
संपत महराज के चरित्तर के का बखान करंव। पुरखा मन गांव के जमींदार रिहिन। ये गांव म उंखरे राज चलय। परिवार बाढ़त गिस, जमीन खिरत गिस। कका-बबा, भाई-भतीजा मन पढ़-                लिख के डाक्टर, इंजीनियर बन गे हें। नेतागिरी म तो इंखर मन के खंबा गड़ेच हे। सब झन सहर म जा के बस गे हावंय। संपत महराज गांवेच म अटके पड़े हे। पढ़इ- लिखइ म चेत नइ करिस। छोट-मोट नौकरी करे म इज्जत जातिस। सहर म दाल नइ गलिस तब इहां अपन रौब झाड़त रहिथे। जनम के अंखफुट्टा। ऊपर छांवा तो गांव भर ल नाता गोता मानथे, फेर मतलब के सधत ले।
मुसवा राम ह नांगनाथ आय, त संपत महराज ह सांपनाथ हरे।
फुलबासन के न तो सास-ससुर संग बनिस, न देरानी-जेठानी संग। पठोनी आय छै महिना घला नइ पूरिस, सुंदरू ल अइसे पाठ पढ़ाइस कि चुल्हा चक्की सब अलग हो गे। घर दुवार धला अलग हो गे।
सुंदरू ह गजब रात के लहुटथे। नरिहर चढ़इया मन इही बेरा के अगोरा करत रहिथें।
बियारी के बेरा रिहिस। निझमहा देख के मुसवा राम ह फुलबासन देबी के मंदिर म नरिहर चढ़ाय बर पहुंच गे। मुहाटी बंद रहय। जइसने खोले के उदिम करिस, अपने अपन खुल गे। संपत महराज ह तोलगी भीरत सुटुर सुटुर निकलत रहय। दुनों के दुनों हड़बड़ा गें। संपत महराज ह कहिथे -’’अरे मुसवा, तहूं आय हस? हाथ-गोड़ के पीरा म बिचारी ह गजब कांखत हे। फूंुके बर बलाय रिहिस। फूंकत ले गजब जम्हाय हंव। बैरासू धरे होही। तोरे ह काट करे त करे। जा तहूं फूंक देबे। अबड़ तकलीफ म हे बिचारी ह।
मुसवा राम सुट ले बिला म खुसर गे।