सोमवार, 30 जून 2014

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इतिहास में रद्दोबदल की कोशिशें - मोहन गुरुस्वामी

(नई दुनिया, 30 जून 2014, से साभार)

.... चार्ल्स एलेन अपनी किताब - ’अशोका: द सर्च फार इण्डियाज लास्ट एम्परर’ में बताते हैं कि उन्हें किस तरह से भारत के इस महानतम् सम्राट और उनके जीवन से जुड़ी नटकीय घटनाओं के बारे में मालूमात हासिल करने के लिए इतिहास में झांक कर पड़ताल करना पड़ी थी। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जो सम्राट अशोक आज भारत की पहचान के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, मात्र दो सदी पूर्व तक हम उन्हें पूरी तरह से भुला चुके थे? हमें जेम्स प्रिंसेप का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता पाई और हमें अशोक से फिर से परिचित कराया। ....
...... हावर्ड मेडिकल स्कूल में जेनेटिक्स के प्राध्यापक डेविड रीच हाल ही में 25 विभिन्न भारतीय जनसमूहों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि इन सभी समूहों में दो विभिन्न समूहों के आनुवांशिक मिश्रण के साक्ष्य पाये गये हैं। ये दो समूह - एनसेस्ट्रल नार्थ इण्डियन्स (ए. एन. आई.) और एनसेस्ट्रल साऊथ इण्डियन्स (ए. एस. आई.)  हैं। ए. एन. आई. का नाता मध्य और मध्य पूर्व एशिया, कॉकेशिया, और यूरोपियन समुदायों से रहा था तो ए. एस. आई. मुख्यतः भारतीय उपमहाद्वीप के रहवासी थे। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन दोनों के बीच मेलजोल की शुरुआत 4200 साल पहले हुई थी। तब तक सिंधु घाटी सभ्यता का पतन शुरू हो चुका था। ....
..... विमर्श का विषय यह होना चाहिए कि इतिहास किस तरह का हो? जाहिर है तथ्यों को नहीं बदला जा सकता। आर्यों और द्रविड़ों दोनो को ही भारत का मूल निवासी बताया जाता है। लेकिन बलूचिस्तान के चंद कबायलियों द्वारा बोली जाने वाली हुब्रई भाषा के बारे में क्या, जिसे भाषाशास्त्रियों द्वारा द्रविड़ भाषा बताया जाता है? दुनिया भर के भाषाशास्त्रियों के इस निष्कर्ष के बारे में क्या कि सभी आधुनिक इण्डो-यूरोपियन भाषाएँ नोस्ट्रेटिक नामक एक ही पुराभाषा से उपजी हैं, जिसका उद्गम मध्य उशिया में हुआ था? ....
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रविवार, 22 जून 2014

समीक्षा

संस्कारधानी के उभरते हुए समीक्षक.आलोचक श्री यशवंत मेश्राम ने कुबेर की 2003 में प्रकाशित काव्य संग्रह "भूखमापी यंत्र"  की समीक्षा की है। प्रस्तुत है एक अंश -

जब करोड़ों हाथ बेरोजगार हों तो मशीनों की दानवीय भुजाएँ क्यों? मशीनों की दानवीय भुजाओं से आने वाली तथाकथित बेहतरी आखिर किसके लिए होगी? यदि यही ग्लोबलाइजेशन है तो ग्लोबलाइजेशन की इस दुनिया में करोड़ों बेरोजगार हाथ इसमें दब क्यों रहे हैं? पर संभावनाएँ हैं, मानवीय संवेदनाओं की संभावनाएँ; और यही संभावनाएँ आशा और आस्था के आधार हैं।
कुबेर जी की कविताएँ बंद  कमरों में सेमीनार की कविताएँ नहीं है। ये खुले आसमान के नीचे पावस की बूँदों के संग घुलकर सतरंगी इन्द्रधनुषीय संरचना बनाती हुई रचनाएँ हैं। इनमें आस्था और आशाएँ हैं तो कमजोरियों और नादानियों का शव परीक्षण भी है। चेतावनियाँ भी है, आत्म-प्रेक्षण भी हैं -

अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उŸार-आधुनिक हो गए हैं।

अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।

पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।

कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं। (पृ 73)

शुक्रवार, 13 जून 2014

आलेख

कबीर  बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि हैं

 कबीर विचार मंच राजनांदगाँव द्वारा ठा. प्यारेलाल सिंह नगर पालिक उच्चतर माध्यमिक शाला राजनांदगाँव में  आयोजि कबीर प्राकट्य दिवस (13 जून 2014)के अवसर पर व्यक्त विचार


अदरणीय सज्जनों,

आज इस विचार मंच पर कबीर और उसके कृतित्व तथा, उसके व्यक्तित्व पर चर्चाएँ हो रही हैं। एक विद्वान ने ऐसे ही प्रसंग पर कहा है - ’’आपने छोटे छोटे दीयों से कहा है, सूरज के विषय में लिखने के लिये। आपने नन्हीं-नन्हीं बूंदों से कहा है, सागर के विषय में लिखने के लिये। क्या ये संभव है?’’ मेरा भी यही मानना है, परंतु कुछ नहीं कहने या नहीं लिखने से, कुछ कहना या कुछ लिखना उचित ही होगा। उपस्थित समस्त श्रोताओं और वक्ताओं को मैं सादर नमन करता हूँ।

आजकल ’संत समागम’ और ’सतसंग’ जैसे आयोजनों की संख्या पहले की तुलना में बहुत बढ़ गये हैं। श्रोता भी इसी अनुपात में बढ़े हैं। ऐसे सारे आयोजनों का लक्ष्य सद्वृत्तियों का विकास और दुष्प्रवृत्तियों का शमन करना होता है। इसके बावजूद समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं।

ऐसे आयोजनों में प्रवचनकर्ता शब्दों की व्याख्या करने के लिए पूरी तरह से स्वच्छन्द होते हैं। ऐसे ही एक आयोजन की बात है, - प्रवचनकर्ता ने ’कपि श्रेष्ठ हनुमान जी प्रभु राम के भक्तों में सबसे ऊँचे हैं।’ इस वाक्य के प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अक्षर की विशद् व्याख्या करते हुए कह रहे थे - ’कपि’! के ’क’ माने कष्ट, ’प’ माने पाप और ’इ’ माने इति; अर्थात मनुष्य के सारे कष्टों और पापों का नाश करने वाला।’ पंडाल बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा। मुझे लगा, पंडाल का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा है।

’भक्त’ शब्द को अनावृत्त करते हुए उन्होंने कहा - ’भ’ माने भागने वाला, ’क’ माने कमर कसकर और ’त’ माने पूरी ताकत से। अर्थात भगवान के कामों में कमर कसकर पूरी ताकत से भागने वाला।’ पंडाल पुनः बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा।

मेरा मानना है, शब्दों के इस तरह की व्याख्या  से न तो सद्वृत्तियों का विकास होगा और न ही दुष्प्रवृत्तियों का शमन। मेरा अनुभव कहता है, इस तरह के आयोजनों का मूल और केन्द्रीय लक्ष्य मनुष्य को संत और सतसंगी बनाना होता है, या सारांश में कहें तो मनुष्य को तथाकथित धार्मिक बनाना होता है। और भी बहुत सारे आयोजन होते हैं जहाँ मनुष्य को तथाकथित रूप से धार्मिक बनाए जाने के अनेकानेक प्रयास होते हैं, बनाये जाते हैं। हिन्दू बनाए जाते हैं, मुसलमान बनाए जाते हैं या ऐसे ही कुछ और हैं, जो बनाए जाते हैं। ऐसे ही कुछ और बनाए जाने के लिए हमारे पास विकल्पों की कोई कमी नहीं है। मैंने ऐसे सारे विकल्पों की पड़ताल की है, और दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन सभी विकल्पों में मनुष्य बनने-बनाने का विकल्प मुझे कहीं दिखाई नहीं देता है। हम भी ऐसे आयोजनों के लिए जब घर से निकलते हैं तो पूर्ण संकल्प के साथ निकलते हैं कि आज वहाँ जाकर हमें कुछ और बनना है। संकल्प का यह क्षण बड़ा क्रांतिक होता है। क्योंकि जिस क्षण कुछ और बनने का हम संकल्प कर रहे होते है, मनुष्य के अलावा भी कुछ और बनने के लिये हम ठान चुके होते हैं, उसी क्षण हम अपनी नैसर्गिक पहचान को, ईश्वर प्रदत्त पहचान को त्याग रहे होते हैं, ईश्वरीय विधान के विपरीत जा रहे होते हैं। उस क्षण हम अपनी विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, अपना विवेक, प्रेम और करुणा जैसी तमाम अनमोल मानवीय अच्छाइयों को घर की दीवालों में लगी खूँटियों पर लटका रहे होते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात है, इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी ऐसे आयोजनों में आकर जब हम बैठते हैं, हम विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की साक्षात मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। ध्यान रहे, मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। मैं बहुत विनम्रता पूर्वक स्पष्ट कर देना चाहता हू कि मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई लेनादेन नहीं है। मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई संवाद नहीं करना है, क्योंकि कोई अगर चाहे भी तो मूर्तियों से संवाद संभव ही नहीं है। संवाद केवल मनुष्यों के साथ ही संभव है। मुझे ऐसे आयोजनों की चाह होती है जहाँ जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का उद्यम होता हो, जहाँ बैठे तमाम लोगों के अंदर विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की नैसर्गिक अविरल धारा प्रवाहित हो रही हो और जिससे संवाद किया जा सके। कबीर ने अपने जीवन में ऐसा ही उद्यम किया था। उन्होंने जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया था, इसीलिए मुझे कबीर पर श्रद्धा है और मैं उसका अनुयायी हूँ।

अदरणीय सज्जनों, तथागत ने अपने भिक्खुओं से कहा था -
’’कुल्लुपमं देसेस्सामि वो भिक्खवे,
 धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।’’
(’’हे भिक्खुओं! यह धर्म छोटी सी नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं है।’’)  (मज्झिम निकाय)

मैं बहुत साफ शब्दों में स्वीकार करता हूँ कि मैं तथागत के इसी उपदेश का पालन करता हँू और उन सभी लोगों के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अप्रासंगिक हूँ जो पार उतरने के बाद भी धर्म को सिर पर ढोते हुए चलते हैं। पेशे से मैं शिक्षक हूँ पर साहित्य का विद्यार्थी हूँ, जाहिर है, मैं साहित्य से बंबंधित बातें ही करूँगा। मनुष्य, मनुष्यता और समाज के हित की बातें ही करूँगा। कबीर के इस मंच पर मुझे यही बातें प्रासंगिक लगती हैं। ये बातें मुझे इसलिए भी प्रासंगिक लगती हैं क्योंकि कबीर न तो घोषित संत थे और न ही घोषित धर्माचार्य। कबीर धर्म को ढोने वालों में से नहीं थे; कबीर धर्म को जीने वालों में से थे। कबीर जन्म से, कर्म से, अंदर और बाहर से, हर तरह से केवल और केवल मनुष्य थे। वे मानवता और मानवकल्याण की बातें करते थे। कबीर ने जन्मजात मनुष्य को संत या प्रचलित अर्थों में धार्मिक बनाने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने उसे केवल कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया है। कबीर मनुष्य और समाज की तमाम तरह की बुराइयों को साफ करना चाहते थे। धर्म के नाम पर हो रहे तमाम तरह के पाखंण्डों और कर्मकाण्डों को, समाज में फैली हुई रूढ़ियों को समाप्त कर वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहाँ प्रत्येक मनुष्य केवल मनुष्य हो। कबीर मानव और मानव समाज की समीक्षा करने वाले अद्वितीय, सर्वयुगीन, महान् समीक्षक-साहित्यकार थे, सत्य के प्रवक्ता थे। वे महामानव थे।

आदरणीय सज्जनों, अभी मैंने संत, सतसंगी और साहित्यकार जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों के बारे में चर्चा भी करूँगा। शब्द की शक्तियाँ और सामथ्र्य बहुत सीमित होते हैं, कई ऐसे क्षण आते हैं जिन्हें व्यक्त करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते हैं; या फिर जो शब्द हमारे पास होते हैं वो पर्याप्त नहीं होते हैं। शब्द की प्रकृति यायावरी होती है। यायावरों के साथ देश और समाज की सीमा को पार करते हुए ये कहीं भी पहुँच जाते हैं। वहाँ की भाषा में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि उसकी पहचान कर पाना कठिन हो जाता है। ’राशन’ शब्द जनमानस में इस कदर रच-बस गया है कि यदि मैं कहूँ कि यह अंग्रेजी भाषा का शब्द है तो आप मेरा विरोध करेंगे। ’कबीर’ शब्द अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - महान। ’साहब’ शब्द भी अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - ’ईश्वर’। कबीर की महानता कभी अस्वीकार्य नहीं हो सकती; परंतु हमारी प्रवृत्ति है, जिस पर हम श्रद्धा करते हैं, जिसकी पर हमें आस्था होती है, उसे हम ईश्वर मान लेते हैं। जिस महामानव ने ताउम्र समाज को मानवता का पाठ पढ़या उसे हमने मानव मानने से इन्कार कर दिया। सदियों-सदियों के बाद ही कोई मनुष्य, मनुष्य बन पाता है। सदियों-सदियों के बाद कबीर जैसा कोई महामानव पैदा होता है। हमने एक महामानव को मानव मानने से इन्कार कर दिया, उसे हमने ईश्वर बना दिया। कठिनाइयाँ यहीं से शुरू होती हैं, शब्दों के द्वारा मनुष्य की तो व्याख्या की जा सकती, परंतु ईश्वर की नहीं। शब्दों के द्वारा मनुष्य के बारे जानकारियाँ और सूचनाएँ (प्रचलित अर्थों में ज्ञान) बटोरी जा सकती हैं, परंतु इससे हम ईश्वर की व्याख्या कैसे करें, वह तो शब्दातीत है, शब्द की सामथ्र्य से परे है। एक महामानव के रूप में तो कबीर पर कुछ कहा भी जा सकता है, कबीर को समझा भी जा सकता है; परंतु साहब कबीर को जानने के लिए शब्दों का सहारा लेना मूर्खता और बेईमानी के सिवा और कुछ भी नहीं है। ईश्वर को शब्दों के द्वारा नहीं, अनुभूतियों के द्वारा ही जाना औा समझा जा सकता है। कबीर को जानने के लिए यदि हम शब्दों का सहारा लेते हैं तो उसे हमें मनुष्य मानना पड़ेगा, और यदि कबीर ईश्वर है (जैसा कि हमारी मान्यता है) तो हमें शब्दों की सारी कसरतों- मशक्कतों को छोड़कर अपने अंतःकरण के कण-कण को प्रेमरस से सिक्त करना पड़ेंगा। ’मैं’ को भूलकर, छोड़कर, प्रेम की गली से गुजरान पड़ेगा। तभी हम साहब कबीर की अनुभूति कर सकते हैं। कबीर के ही शब्दों में -
’जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।’

ओशो साहित्य में एक बोध कथा मैंने बहुत बार पढ़ी है। नमक के दो पुतले थे। एक पुतला धर्म और अध्यात्म का बड़ा ज्ञाता था। वह बहुत चालाक और तार्किक था। वह तर्कों के द्वारा अपनी बातें मनवा लेता था। पहले पुतले के इन्हीं गुणों के कारण दूसरा पुतला उस पर श्रद्धा करने लगा था। समुद्र के बारे में जानने की उनकी प्रबल इच्छाएँ थी। अक्सर वे दोनों समुद्र किनारे बैठकर समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई के बारे में चर्चा किया करते थे। समुद्र की गहराई और विशालता को नापने की तरकीबें सोचा करते थे। एक दिन दोनों ने तय किया कि इसके लिए तो हमें समुद्र में ही उतरना पड़ेगा। पहले ने, जो तार्किक था, दूसरे से कहा कि समुद्र में उतरने के बड़े खतरे हो सकते हैं। हममें से किसी एक को ही समुद्र में उतरना चाहिए। आसन्न खतरे के समय एक को किनारे पर ही मदद के लिय तैयार रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि समुद्र में पहले तुम उतरो। तार्किक व्यक्ति के अंदर संकल्प शक्ति का अभाव होता है क्येंकि वह हमेशा संदेह और असमंजस से भरा होता है। समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई को जानने की, दूसरे पुतले का संकल्प पक्का था। उसने उसी क्षण समुद्र में छलांग लगा दिया। पहला पुतला उसके लौटकर आने की प्रतीक्षा करता रहा पर वह लौटकर नहीं आया। वह लौटकर आता भी कैसे? क्योंकि छलांग लगाते ही वह तो समुद्र के साथ वह एकाकार हो गया था, स्वयं समुद्र हो गया था।

कबीर को जानने वाला कबीर में ही विलीन हो जाता है। कबीर को जानने के लिए हमें कबीर में ही विलीन होना पड़ेगा। परन्तु हम सब तो किनारे बैठे हुए पुतले है। कबीर के बारे में केवल शब्दों का आडंबर ही रच सकते हैं।
आदरणीय सज्जनों, पिछले नवंबर या दिसंबर की बात है। हमारे एक रिश्तेदार के घर बहुत बड़ा धार्मिक आयोजन हुआ था। कथा वाचन के लिए बाहर के किसी प्रसिद्ध मठ से बहुत बड़े आचार्य को बुलाया गया था। साथ में उनके साजिंदे भी थे। गीत-भजन और संगीत में सभी दक्ष थे; भक्तिरस और कथारस में खुद भी डूब जाते और श्रोताओं को भी बहा ले जाते थे। रिश्तेदारी निभाने के लिए एक दिन मैं भी वहाँ उपस्थित हुआ था। आचार्य जी की भाषा बहुत मीठी थी। उन्होंने संत की मजेदार परिभाषा बताई; कहा कि - ’संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। मीठा खाने का मतलब हैं मीठा सुनना।’

पूरा पंडाल तालियों की ताल से भर गया था।

मीठा बोलने वालों के संबंध में मेरा अनुभव अलग है। स्कूल के पाठ्यक्रम में ’परीक्षा’ नामक एक पाठ है। इसके लेखक ने कहा हैं कि - ’कपटी लोग बहुधा मिष्ठभाषी होते हैं।’ मेरा अनुभव भी यही कहता है। आचार्य जी की बातेें मुझे अटपटी लगीं। परंतु वहाँ पर, जहाँ निन्यान्बे लोग सहमत थे, सौवाँ, अर्थात मैं अकेला विरोध करने की स्थिति में नहीं था। कथासत्र की समाप्ति के बाद उचित अवसर मिलने पर मैंने आचार्य जी से कहा - ’’आचार्य जी, आपने संत की बहुत बढ़िया परिभाषा बताई। संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। भाषण करते वक्त हमारे देश के तमाम नेतागण भी बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं; बेचारे, सभी संत ही तो होते हैं।’’

जहाँ तक मुझे जानकारी है, कबीर की मान्यता सत्य और कड़वी बातों के लिए है। संत की कड़ुवी बातें भी हितकर होती। संत समाज के चिकित्सक होते हैं। कबीर समाज के चिकित्सक थे, वे समाज की तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करना चाहते थे।

 डाॅ. सी. एल. प्रभात एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने एक लेख में आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण के राम-भरत मिलाप प्रसंग का उल्लेख किया है। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र का सृजन किया है। राम को वनवास से लौटा लाने के लिए भरत के साथ वे भी गये थे। जावालि ने राम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।
(यदि भूमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति,
तद्यात प्रसवतां श्राद्ध न तत् पश्यनं भवतः।
अयोध्याकाण्ड 108/15)

इसी लेख में डाॅ. प्रभात ने केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) की भी चर्चा की है। दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’

इसी तरह सरहपाद कहते हैं -
जइ णग्गाविअ होई, मुत्ति ता सुणह सिआलज।
लोभ उपाडण अत्थि सिद्धि, त जुवइ-णिअम्बह।
पिच्छी गहणे दिट्ठ भोक्ख, त मोरह चमरह।
उंछ-होअणें होई जाण, ता करिह तुरंगह।
’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कांटे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’

आदरणीय  सज्जनों, कबीर इन्हीं बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि है। आज हम न तो ेबाल्मिीकि के रामायण के बारे में ही जानते हैं और न ही केशकम्बली और सरहपाद को ही जानते हैं। कारण सिर्फ एक ही है, शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वाले परजीवी शोषकों ने बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचारों की हत्या कर दी है, क्योंकि इनके विचार कर्मकाण्डियों के शोषण कर्म में बाधक थे। बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचार जनता को मुक्ति की ओर ले जाने वाले विचार थे। शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वालों ने कबीर के  विचारों की हत्या करने के भी बहुतेरे प्रयास किये हैं; अब भी कर रहे हैं। परन्तु ऐसा कर पाना क्या संभव हो सकेगा। अल्लामा इकबाल के शब्दों में - ’’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा।’’

आदरणीय सज्जनों, कोई धर्म बुरा नहीं होता, पर यह भी सत्य है कि दुनिया में अधिकांश उपद्रव धर्म के नाम पर ही हुए  हैं, कयोंकि इसी से कर्मकाण्यिों का हित सधता है। जनता को सम्मोहित करके उसे शोषित करने में उन्हें सुविधा हो जाती है। कबीर ने उम्रभर धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्डों और कर्मकाण्डों का विरोध किया। पाखण्डियों और कर्मकाण्डियों को लताड़ा है। आज इस मंच से मैं समस्त कबीर पंथियों से पूछना चाहता हूँ कि धार्मिक कर्मकाण्डों और धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखण्डों से क्या हम मुक्त हो सके हैं?

आदरणीय सज्जनों, आजकल धर्म, सम्प्रदाय और पंथों की कई नई धाराएँ प्रवाहित होने लगी है। संयोगवश एक दिन ऐसे ही किसी धारा से जुड़े हुए एक साधक की बैठक में मेरा जाना हो गया। साधक महोदय प्रभुनाम की प्याला पीकर मदमस्त बैठे थे। वहाँ की मौन और शांत वातावरण मुझे अच्छा लग रहा था। तभी बिना किसी भूमिका के साधक महोदय ने मुझसे प्रश्न कर दिया - ’’मृत्यु क्या है? इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?’’

इस प्रश्न से मेरा चैकना स्वभाविक था। परन्तु संयत होते हुए मैंने कहा - ’’मृत्यु क्या हैै, मैं नहीं जानता, इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि आज तक मैं कभी मरा नहीं हूँ। जहाँ तक मुत्यु के संबंध में मेरे विचार की बात है, बड़ा स्पष्ट है, इस दुनिया में मृत्यु से अधिक अटल सत्य मुझे और कुछ नजर नहीं आता। यद्यपि मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है, फिर भी सुनी सुनाई और पढ़ी हुई जानकारी के आधार पर इस विषय पर मैं घंटों भाषण बाजी कर सकता हूँ। हम दोनों इस पर घंटों बहस कर सकते हैं। परन्तु बाहरी जानकारी के आधार पर स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करते हुए मुझे शर्म आती है। इस काम में मुझे महाधूर्तता, चालाकी, बेईमानी और पाखण्ड की गंध आती है। मुझे क्षमा करें।’’

आदरणीय सज्जनों, जन्म से मृत्यु तक की अवधि जीवन है। जीवन का अनुभव हमें होना चाहिये। जीवन का ज्ञान हमें होना चाहिए। जीवन के बारे मंे हमें बहस और चर्चाएँ करनी चाहिए। जीवन की शुरूआत जीवन से ही होती है और मरने से पहले हम अपने पीछे जीवन की पौध छोड़ जाते हैं। जीवन सृष्टि के विकासक्रम की एक कड़ी है। इसी विकासक्रम  के हम भी एक कड़ी हैं। दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अपने हिस्से की इस कड़ी को हमने कितना मजबूत और कितना सुंदर बना पाया है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। कबीर ने जीवन भर इसी की चर्चा की है। कबीर ने जीवन भर जीवन की ही चर्चा की है, कबीर ने हमें जीने और जीवन को सुंदर बनाने के सुंदर सूत्र दिए हैं। कबीर मृत्यु का भय दिखाने वालों में से नहीं थे, वह तो जीवन के आनंद की सहायता से मृत्यु पर विजय पाने वालों में से थे। वे मृत्युंजय थे। तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना, जान की बाजी लगाना है। परन्तु कबीर ने ऐसा कर दिखाया। एक मृत्युंजय ही ऐसा कर सकता है। कबीर मृत्यंुजय थे।

किसी कवि की एक पंक्ति की बड़ी अद्भुत कविता है जो इस प्रकार है, -

’’जिंदा आदमी सोचता है, बोलता है;
नहीं सोचने,
नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’’

यह कविता अद्भुत इसलिए है कि हजारों-हजारों पृष्ठ के अनगिनत ग्रंथों ने जिस जीवन और मृत्यु के रहस्यों को आज तक उद्धाटित और परिभाषित नहीं कर पाया, उसी जीवन और मृत्यु के रहस्यों को इस एक पंक्ति की कविता ने बहुत सरल शब्दों में व्यक्त कर दिया है। ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि इस कविता में कवि का अनुभव छिपा हुआ है। जो अनुभव से आता है वही ज्ञान है।
कबीर परम ज्ञानी थे।

मैं आपका आभारी हूँ, आपने मेरी बाते सुनी। धन्यवाद।
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कुबेर

मंगलवार, 10 जून 2014

आलेख

लोक साहित्य में लोक प्रतिरोध के स्वर

यह लोककथा छत्तीसगढ़ में कही जाती है।

एक राजा था। (लोक में बड़ा जमीदार भी राजा ही होता है।) नौकरों या सेवकों की नियुक्ति वह अपने शर्तों पर करता था। उसी राज्य में दो भाई रहते थे। वे बहुत गरीब थे। बड़ा भाई बहुत भोला और सीधा-सादा था। लोग उसे सिधवा कहते थे। छोटा भाई बुद्धिमान और चतुर था। वह खड़बाज के नाम से प्रसिद्ध था। बड़ा भाई सिधवा राजा के यहाँ नौकर हो गया। नियुक्ति के समय राजा की शर्तों में ये शर्तें भी थी -

’सुबह-शाम केवल एक-एक पत्तल में, जो पाँच पत्तों का बना होगा, भोजन दिया जायगा। भोजन की मात्रा उतनी ही होगी जितना पत्तल में आ सके। शर्तों का उल्लंघन करने पर या नियत अवधि से पूर्व नौकरी छोड़ने पर चेथी का मांस देना होगा।’

लोक कथाकार कहते हैं - सिधवा को भोजन परोसने के लिए राजा बबूल की पत्तियों से पत्तल बनवाता था। काम बेहिसाब लिया जाता था। जल्द ही बड़ा भाई सिधवा निर्बल और बीमार हो गया। जान है तो जहान है; उसने चेथी का मांस देकर अपनी जान बचई।

सिधवा किसी तरह घर लौटा। खड़बाज ने बड़े भाई की दुर्गति देखी। राजा के इस अन्याय, छल और धूर्ततापूर्ण व्यवहार के कारण उसका खून खौलने लगा। उसके दिल में प्रतिशोध की आग दहकने लगी। उसे जल्द ही मौका भी मिल गया, जब राजा ने मुनादी कराई कि महल के लिए एक नौकर की सख्त जरूरत है।

राजा ने फिर वही शर्तें रखी जो सिधवा के समय रखी गई थी। खड़बाज ने कहा - महाराज! मेरी भी शर्त है। पत्तल मैंे अपनी इच्छानुसार बनाऊँगा और भोजन मेरी रूचि का होना चाहिए। राजा को नौकर की सख्त जरूरत थी। उसने शर्तें मान ली।

 भोजन के लिए खड़बाज ने पुराइन के पाँच पत्तों को जोड़कर एक पत्तल बनाया। पुराइन का पत्ता अपने आप में ही एक पत्तल के आकार का होता है। पाँच पत्तों को जोड़कर बनाये गए उस पत्तल का आकार बहुत बड़ा था। उसने पत्तल भरकर भोजन लिया। जितना खा सकता था खाया, बाकी को जनवरों के आगे डाल दिया। इससे किसी शर्त का उल्लंघन नहीं होता था, अतः राजा इसका विरोध नहीं कर सका। शर्त में काम के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया था; अतः खड़बाज हर काम अपनी मर्जी से करता था। भरपेट खाता और चैन की नींद सोता था। खड़बाज की हरकतों से राजा को कई तरह से नुकसान होने लगी। राजा अब और अधिक नुकसान सहने की स्थिति में नहीं था लेकिन वह कर भी क्या सकता था? खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब अपने चेथी का मांस देना था।

खड़बाज की हरकतों से राजा को अपार जन-धन की हानि होती है। उसकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान धूमिल होता है। पर खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब था अपने चेथी का मांस देना। राजा के लिए ऐसा करना संभव न था।

राजा अब खड़बाज के नाम से थर्राने लगा था। अंततः वह रानी सहित गुप्त रूप से अपनी बेटी के घर पलायन करने की योजना बनाता है। खड़बाज को राजा की योजना का पता चल जाता है और वह उस झांपी के अंदर छिपकर बैठ जाता है जिसे रानी ने यात्रा के लिए जरूरी सामानों के साथ तैयार किया था।

बेटी के घर पहुँचकर भी खड़बाज की हरकते जारी रहती हैं। अंत में बेटी की समझाइश पर राजा अपने चेथी का मांस देकर खड़बाज से छुटकारा पाता है।
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इस लोककथा में राजा को सताने और उसका नुकसान करने के लिए खड़बाज कई तरह के मनोरंजक और हास्यास्पद काम करताहै। बहुत सी हरकतें जुगुप्सा पैदा करने वाली भी होती है। उनकी हरकतों से खूब हास्य पैदा होता है। राजा की बेबसता और उनका मानमर्दन होने से श्रोताओं की आत्मतुष्टि होती है। उनका खूब मनोरंजन होता है। खड़बाज श्रोताओं की कल्पना का नायक बन जाता है। लोक कथाकार अपनी कल्पना से इन हरकतों का सृजन करता है। इस समय खड़बाज स्वयं लोक कथाकार के अंदर साकार हो उठता है और दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है।

यह लोककथा केवल हास्य और मनोरंजन के लिए ही नहीं रची गई होगी। इसकी रचना शोषण और अपमान से ग्रस्त किसी खड़बाज ने ही शोषकों के विरूद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया होगा। समाज के ऐसे सारे खड़बाज अपनी परिथितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होते हैं। विकल्पहीन खड़बाजों के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वे इसी का आश्रय लेते है। यही लोक का प्रतिरोध है, लोक प्रतिरोध के स्वर हैं। लोक प्रतिरोध के लिए लोकसाहित्य में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककथाएँ (लोकसाहित्य) शोषकों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककथाओं का श्रवण अथवा कथन करते समय स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। ऐसे लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए इसमें निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। यही लोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तोैर पर ऐसे लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, असकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार नहीं तो और कया है? जरूर इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव नहीं है।

आदरणीय विज्ञजन! इसी तरह का कोई और लोक साहित्य आपके पास, आपके आस-पास भी उपलब्ध हागा। साकेत साहित्य परिषद् सुरगी आपसे विनम्र अनुरोध करता है कि इसका संकलन कर आप हमें निम्न पते पर प्रेषित करें। इसका प्रकाशन ’साकेत स्मारिका 2015’ (संभवतः फरवरी-मार्च 2015) में किया जायेगा।

रचना इस पते पर भेजें -  kubersinghsahu@gmail.com

’साकेत स्मारिका’ पूर्णतः अव्यवसायिक पत्रिका है अतः इसकी प्रकाशित प्रति के अलावा अन्य पारिश्रमिक देना संभव नहीं होगा।

निवेदक
कुबेर
संरक्षक, साकेत साहित्य परिषद् सुरगी, जिला - राजनांदगाँव.
 

शनिवार, 7 जून 2014

आलेख

महापंडित राहुल सांकृत्यायन  

(विभिन्न श्रोतों से संकलित)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का बचपन का नाम केदार नाथ पाण्डेय था। इनका जन्म 09 अप्रेल 1893 को ग्राम - कनैला, जिला आजमगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ था। अनके पिता का नाम गोवर्धन पाण्डेय, था जो धार्मिक प्रवृत्ति का  छोटा किसान था। माता का नाम कुलवंती था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण नाना श्री रामशरण पाठक तथा नानी ने इनका लालन-पालन किया था।

राहुल जी का विवाह बचपन में ही कर दिया गया था। यह विवाह राहुल जी के जीवन की एक संक्रान्तिक घटना थी जिसकी प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही घर छोड़ दिया। घर से भाग कर ये एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण ये वहाँ भी टिक नही पाये। चैदह वर्ष की अवस्था में ये कलकत्ता भाग आए। उन्होंने, अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेशधारी सन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने (लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में इण्डोलाॅजी के प्राध्यापक, 1937-38 तथा 1947-48) संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान लोला येलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ।

1923 से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने लद्दाख, किन्नौर तथा कश्मीर सहित भारत के विभिन्न राज्यों की यत्राएँ की। नेपाल, तिब्बत, श्री लंका, इरान, चीन, १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया तथा 1937 में सोवियत संघ की यात्राएँ की। बौद्ध भिक्खु के रूप में उन्होंने चार बार तिब्बत की यात्राएँ की। वहाँ से उन्होंने भारतीय दर्शन से संबंधित संस्कृत व पालि भाषा के अनेक बहुमूल्य ग्रंथों की पाण्डुलिपियों को बाइस खच्चरों में लादकर भारत लाया। वे जहाँ भी गये, वहाँ के जनजीवन से घुलमिलकर वहाँ की भाषाएँ सीखी और वहाँ की संस्कृति, दर्शन इतिहास और साहित्य का अध्ययन किया। इसी प्रकार वे अपने लेखन के लिए सामग्रियाँ जुटाते रहे और निरंतर लिखते रहे।

संस्कृत, हिन्दी, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश भोजपुरी, उर्दू, परसियन, अरबी, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, सिंहली फ्रेंच, तथा रसियन सहित छत्तीस भाषाओं के वे ज्ञाता थे। हिन्दी से उन्हे विशेष अनुराग था। उन्हीं के शब्दों में ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।‘‘

महापण्डित के अनुसार हिन्दी साहित्य का इतिहास 750 ई. से शुरू हाता है। इस काल को वे ’सिद्ध-सामंत काल’ कहते हैं। उनके अनुसार - ’’इसका (हिन्दी का) साहित्य 750 इसवी से शुरू होता है, और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं, इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है।’’

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा 1963 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

सन् 1910 में घर छोड़ने के पश्चात वे पुनः सन् 1943 में ही अपने ननिहाल पन्दहा लौटे। वस्तुतः बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। वे 1950 में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षांे बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे जहाँ 14 अप्रैल 1963 को मधुमेह के कारण उनका देहांत हो गया।

डाॅ. नामवर सिंह कहते हैं - ’’राहुल की सबसे बड़ी विशेषता है, संस्कृत के पंडित होते हुए, ब्राह्मण होते हुए अपने ब्राह्मणत्व का अतिक्रमण किया। सनातनी होते हुए हुए भी उस वैदिक परंपरा का अतिक्रमण किया। बौद्ध होते हुए उसने सिद्धों, नाथों की परंपरा का अतिक्रमण किया। ..... राहुल पण्डित केवल बुझी हुई लुकाठी नहीं थे, वे चिंगारी थे।’’

’मेरी जीवन यात्रा’ की शुरूआत में राहुल सांकृत्यायन ने बुद्ध के उपदेश का उल्लेख करते हुए लिखा है -

कुल्लुपमं देसेस्सरमि वो भिक्खे, 
धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।

’’हे भिक्खुओं! यह धर्म नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं।’’

इसी उपदेश का वे अनुशरण करते रहे।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित छोटी-बड़ी ग्रंथों की संख्या लगभग 150 है जो 50,000 पृष्ठों में मुद्रित है। अनेक ग्रंथ अभी भी अप्रकाशित हैं। ’मध्य एशिया का इतिहास’ जो 5000 पृष्ठों का है तथा दो भागों में प्रकाशित है, उनकी सबसे बड़ी कृति है। इस कृति के लिए उन्होंने 20 वर्षों तक परीश्रम करके सामग्री जुटाया। उनकी सर्वाधिक चर्चित कृति ’वोल्गा से गंगा’ है। यह 20 कहानियों का संग्रह है। कहानियों में प्रागैतिहासिक काल से लेकर 1942 तक के मानव सभ्यता के आठ हजार सालों के विस्तृत फलक की घटनाओं को लिया गया है। ’कनैला की कथा’  उनकी जन्म भूमि कनैला गाँव के इतिहास और घटनाओं से संबंधित कहानियों का संग्रह है। इस संग्रह की ’त्रिवेणी’ नामक कहानी में कनैला के इतिहास का वर्णन है। सरयूपार, गोरखपुर जिला में मल्लव नामक गाँव था। यहाँ के ब्राह्मण मल्लविद्या में दक्ष होते थे और शायद इसी कारण वे मालव कहलाए। मालव ब्राह्मणों ने कनैला के मूल निवासियों को पराजित कर उन्हें गुलाम बनाया और स्वयं मालिक बन बैठे। पराजित मूल निवासी आज भी वहाँ दलित के रूप में निवास करते हैं।

डाॅ. नामवर सिंह के अनुसार - ’मध्य एशिया का इतिहास’, ’वोल्गा से गंगा’ तथा ’कनैला की कथा’ इन तीनों का अध्ययन करके  महापंडित राहुल सांकृत्यायन की समस्त कृतित्व के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
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शुक्रवार, 6 जून 2014

आलेख

 कबीर और हम

अदरणीय सज्जनों,

आज इस विचार मंच पर कबीर और उसके कृतित्व तथा, उसके व्यक्तित्व पर चर्चाएँ हो रही हैं। एक विद्वान ने ऐसे ही प्रसंग पर कहा है - ’’आपने छोटे छोटे दीयों से कहा है, सूरज के विषय में लिखने के लिये। आपने नन्हीं-नन्हीं बूंदों से कहा है, सागर के विषय में लिखने के लिये। क्या ये संभव है?’’ मेरा भी यही मानना है, परंतु कुछ नहीं कहने या नहीं लिखने से, कुछ कहना या कुछ लिखना उचित ही होगा। उपस्थित समस्त श्रोताओं और वक्ताओं को मैं सादर नमन करता हूँ।

आजकल ’संत समागम’ और ’सतसंग’ जैसे आयोजनों की संख्या पहले की तुलना में बहुत बढ़ गये हैं। श्रोता भी इसी अनुपात में बढ़े हैं। ऐसे सारे आयोजनों का लक्ष्य सद्वृत्तियों का विकास और दुष्प्रवृत्तियों का शमन करना होता है। इसके बावजूद समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं।

ऐसे आयोजनों में प्रवचनकर्ता शब्दों की व्याख्या करने के लिए पूरी तरह से स्वच्छन्द होते हैं। ऐसे ही एक आयोजन की बात है, - प्रवचनकर्ता ने ’कपि श्रेष्ठ हनुमान जी प्रभु राम के भक्तों में सबसे ऊँचे हैं।’ इस वाक्य के प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अक्षर की विशद् व्याख्या करते हुए कह रहे थे - ’कपि’! के ’क’ माने कष्ट, ’प’ माने पाप और ’इ’ माने इति; अर्थात मनुष्य के सारे कष्टों और पापों का नाश करने वाला।’ पंडाल बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा। मुझे लगा, पंडाल का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा है।

’भक्त’ शब्द को अनावृत्त करते हुए उन्होंने कहा - ’भ’ माने भागने वाला, ’क’ माने कमर कसकर और ’त’ माने पूरी ताकत से। अर्थात भगवान के कामों में कमर कसकर पूरी ताकत से भागने वाला।’ पंडाल पुनः बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा।

मेरा मानना है, शब्दों के इस तरह की व्याख्या  से न तो सद्वृत्तियों का विकास होगा और न ही दुष्प्रवृत्तियों का शमन। मेरा अनुभव कहता है, इस तरह के आयोजनों का मूल और केन्द्रीय लक्ष्य मनुष्य को संत और सतसंगी बनाना होता है, या सारांश में कहें तो मनुष्य को तथाकथित धार्मिक बनाना होता है। और भी बहुत सारे आयोजन होते हैं जहाँ मनुष्य को तथाकथित रूप से धार्मिक बनाए जाने के अनेकानेक प्रयास होते हैं, बनाये जाते हैं। हिन्दू बनाए जाते हैं, मुसलमान बनाए जाते हैं या ऐसे ही कुछ और हैं, जो बनाए जाते हैं। ऐसे ही कुछ और बनाए जाने के लिए हमारे पास विकल्पों की कोई कमी नहीं है। मैंने ऐसे सारे विकल्पों की पड़ताल की है, और दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन सभी विकल्पों में मनुष्य बनने-बनाने का विकल्प मुझे कहीं दिखाई नहीं देता है। हम भी ऐसे आयोजनों के लिए जब घर से निकलते हैं तो पूर्ण संकल्प के साथ निकलते हैं कि आज वहाँ जाकर हमें कुछ और बनना है। संकल्प का यह क्षण बड़ा क्रांतिक होता है। क्योंकि जिस क्षण कुछ और बनने का हम संकल्प कर रहे होते है, मनुष्य के अलावा भी कुछ और बनने के लिये हम ठान चुके होते हैं, उसी क्षण हम अपनी नैसर्गिक पहचान को, ईश्वर प्रदत्त पहचान को त्याग रहे होते हैं, ईश्वरीय विधान के विपरीत जा रहे होते हैं। उस क्षण हम अपनी विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, अपना विवेक, प्रेम और करुणा जैसी तमाम अनमोल मानवीय अच्छाइयों को घर की दीवालों में लगी खूँटियों पर लटका रहे होते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात है, इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी ऐसे आयोजनों में आकर जब हम बैठते हैं, हम विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की साक्षात मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। ध्यान रहे, मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। मैं बहुत विनम्रता पूर्वक स्पष्ट कर देना चाहता हू कि मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई लेनादेन नहीं है। मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई संवाद नहीं करना है, क्योंकि कोई अगर चाहे भी तो मूर्तियों से संवाद संभव ही नहीं है। संवाद केवल मनुष्यों के साथ ही संभव है। मुझे ऐसे आयोजनों की चाह होती है जहाँ जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का उद्यम होता हो, जहाँ बैठे तमाम लोगों के अंदर विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की नैसर्गिक अविरल धारा प्रवाहित हो रही हो और जिससे संवाद किया जा सके। कबीर ने अपने जीवन में ऐसा ही उद्यम किया था। उन्होंने जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया था, इसीलिए मुझे कबीर पर श्रद्धा है और मैं उसका अनुयायी हूँ।

अदरणीय सज्जनों, तथागत ने अपने भिक्खुओं से कहा था -

’’कुल्लुपमं देसेस्सामि वो भिक्खवे,
 धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।’’
(’’हे भिक्खुओं! यह धर्म छोटी सी नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं है।’’)  

मैं बहुत साफ शब्दों में स्वीकार करता हूँ कि मैं तथागत के इसी उपदेश का पालन करता हँू और उन सभी लोगों के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अप्रासंगिक हूँ जो पार उतरने के बाद भी धर्म को सिर पर ढोते हुए चलते हैं। पेशे से मैं शिक्षक हूँ पर साहित्य का विद्यार्थी हूँ, जाहिर है, मैं साहित्य से बंबंधित बातें ही करूँगा। मनुष्य, मनुष्यता और समाज के हित की बातें ही करूँगा। कबीर के इस मंच पर मुझे यही बातें प्रासंगिक लगती हैं। ये बातें मुझे इसलिए भी प्रासंगिक लगती हैं क्योंकि कबीर न तो घोषित संत थे और न ही घोषित धर्माचार्य। कबीर धर्म को ढोने वालों में से नहीं थे; कबीर धर्म को जीने वालों में से थे। कबीर जन्म से, कर्म से, अंदर और बाहर से, हर तरह से केवल और केवल मनुष्य थे। वे मानवता और मानवकल्याण की बातें करते थे। कबीर ने जन्मजात मनुष्य को संत या प्रचलित अर्थों में धार्मिक बनाने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंनेे उसे केवल कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया है। कबीर मनुष्य और समाज की तमाम तरह की बुराइयों को साफ करना चाहते थे। धर्म के नाम पर हो रहे तमाम तरह के पाखंण्डों और कर्मकाण्डों को, समाज में फैली हुई रूढ़ियों को समाप्त कर वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहाँ प्रत्येक मनुष्य केवल मनुष्य हो। कबीर मानव और मानव समाज की समीक्षा करने वाले अद्वितीय, सर्वयुगीन, महान् समीक्षक-साहित्यकार थे, सत्य के प्रवक्ता थे। वे महामानव थे।

आदरणीय सज्जनों, अभी मैंने संत, सतसंगी और साहित्यकार जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों के बारे में चर्चा भी करूँगा। शब्द की शक्तियाँ और सामथ्र्य बहुत सीमित होते हैं, कई ऐसे क्षण आते हैं जिन्हें व्यक्त करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते हैं; या फिर जो शब्द हमारे पास होते हैं वो पर्याप्त नहीं होते हैं। शब्द की प्रकृति यायावरी होती है। यायावरों के साथ देश और समाज की सीमा को पार करते हुए ये कहीं भी पहुँच जाते हैं। वहाँ की भाषा में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि उसकी पहचान कर पाना कठिन हो जाता है। ’राशन’ शब्द जनमानस में इस कदर रच-बस गया है कि यदि मैं कहूँ कि यह अंग्रेजी भाषा का शब्द है तो आप मेरा विरोध करेंगे। ’कबीर’ शब्द अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - महान। ’साहब’ शब्द भी अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - ’ईश्वर’। कबीर की महानता कभी अस्वीकार्य नहीं हो सकती; परंतु हमारी प्रवृत्ति है, जिस पर हम श्रद्धा करते हैं, जिसकी पर हमें आस्था होती है, उसे हम ईश्वर मान लेते हैं। जिस महामानव ने ताउम्र समाज को मानवता का पाठ पढ़या उसे हमने मानव मानने से इन्कार कर दिया। सदियों-सदियों के बाद ही कोई मनुष्य, मनुष्य बन पाता है। सदियों-सदियों के बाद कबीर जैसा कोई महामानव पैदा होता है। हमने एक महामानव को मानव मानने से इन्कार कर दिया, उसे हमने ईश्वर बना दिया। कठिनाइयाँ यहीं से शुरू होती हैं, शब्दों के द्वारा मनुष्य की तो व्याख्या की जा सकती, परंतु ईश्वर की नहीं। शब्दों के द्वारा मनुष्य के बारे जानकारियाँ और सूचनाएँ (प्रचलित अर्थों में ज्ञान) बटोरी जा सकती हैं, परंतु इससे हम ईश्वर की व्याख्या कैसे करें, वह तो शब्दातीत है, शब्द की सामथ्र्य से परे है। एक महामानव के रूप में तो कबीर पर कुछ कहा भी जा सकता है, कबीर को समझा भी जा सकता है; परंतु साहब कबीर को जानने के लिए शब्दों का सहारा लेना मूर्खता और बेईमानी के सिवा और कुछ भी नहीं है। ईश्वर को शब्दों के द्वारा नहीं, अनुभूतियों के द्वारा ही जाना औा समझा जा सकता है। कबीर को जानने के लिए यदि हम शब्दों का सहारा लेते हैं तो उसे हमें मनुष्य मानना पड़ेगा, और यदि कबीर ईश्वर है (जैसा कि हमारी मान्यता है) तो हमें शब्दों की सारी कसरतों- मशक्कतों को छोड़कर अपने अंतःकरण के कण-कण को प्रेमरस से सिक्त करना पड़ेंगा। ’मैं’ को भूलकर, छोड़कर, प्रेम की गली से गुजरान पड़ेगा। तभी हम साहब कबीर की अनुभूति कर सकते हैं। कबीर के ही शब्दों में -
’जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।’

ओशो साहित्य में एक बोध कथा मैंने बहुत बार पढ़ी है। नमक के दो पुतले थे। एक पुतला धर्म और अध्यात्म का बड़ा ज्ञाता था। वह बहुत चालाक और तार्किक था। वह तर्कों के द्वारा अपनी बातें मनवा लेता था। पहले पुतले के इन्हीं गुणों के कारण दूसरा पुतला उस पर श्रद्धा करने लगा था। समुद्र के बारे में जानने की उनकी प्रबल इच्छाएँ थी। अक्सर वे दोनों समुद्र किनारे बैठकर समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई के बारे में चर्चा किया करते थे। समुद्र की गहराई और विशालता को नापने की तरकीबें सोचा करते थे। एक दिन दोनों ने तय किया कि इसके लिए तो हमें समुद्र में ही उतरना पड़ेगा। पहले ने, जो तार्किक था, दूसरे से कहा कि समुद्र में उतरने के बड़े खतरे हो सकते हैं। हममें से किसी एक को ही समुद्र में उतरना चाहिए। आसन्न खतरे के समय एक को किनारे पर ही मदद के लिय तैयार रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि समुद्र में पहले तुम उतरो। तार्किक व्यक्ति के अंदर संकल्प शक्ति का अभाव होता है क्येंकि वह हमेशा संदेह और असमंजस से भरा होता है। समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई को जानने की, दूसरे पुतले का संकल्प पक्का था। उसने उसी क्षण समुद्र में छलांग लगा दिया। पहला पुतला उसके लौटकर आने की प्रतीक्षा करता रहा पर वह लौटकर नहीं आया। वह लौटकर आता भी कैसे? क्योंकि छलांग लगाते ही वह तो समुद्र के साथ वह एकाकार हो गया था, स्वयं समुद्र हो गया था।

कबीर को जानने वाला कबीर में ही विलीन हो जाता है। कबीर को जानने के लिए हमें कबीर में ही विलीन होना पड़ेगा। परन्तु हम सब तो किनारे बैठे हुए पुतले है। कबीर के बारे में केवल शब्दों का आडंबर ही रच सकते हैं।
आदरणीय सज्जनों, पिछले नवंबर या दिसंबर की बात है। हमारे एक रिश्तेदार के घर बहुत बड़ा धार्मिक आयोजन हुआ था। कथा वाचन के लिए बाहर के किसी प्रसिद्ध मठ से बहुत बड़े आचार्य को बुलाया गया था। साथ में उनके साजिंदे भी थे। गीत-भजन और संगीत में सभी दक्ष थे; भक्तिरस और कथारस में खुद भी डूब जाते और श्रोताओं को भी बहा ले जाते थे। रिश्तेदारी निभाने के लिए एक दिन मैं भी वहाँ उपस्थित हुआ था। आचार्य जी की भाषा बहुत मीठी थी। उन्होंने संत की मजेदार परिभाषा बताई; कहा कि - ’संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। मीठा खाने का मतलब हैं मीठा सुनना।’

पूरा पंडाल तालियों की ताल से भर गया था।

मीठा बोलने वालों के संबंध में मेरा अनुभव अलग है। स्कूल के पाठ्यक्रम में ’परीक्षा’ नामक एक पाठ है। इसके लेखक ने कहा हैं कि - ’कपटी लोग बहुधा मिष्ठभाषी होते हैं।’ मेरा अनुभव भी यही कहता है। आचार्य जी की बाते  मुझे अटपटी लगीं। परंतु वहाँ पर, जहाँ निन्यान्बे लोग सहमत थे, सौवाँ, अर्थात मैं अकेला विरोध करने की स्थिति में नहीं था। कथासत्र की समाप्ति के बाद उचित अवसर मिलने पर मैंने आचार्य जी से कहा - ’’आचार्य जी, आपने संत की बहुत बढ़िया परिभाषा बताई। संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। भाषण करते वक्त हमारे देश के तमाम नेतागण भी बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं; बेचारे, सभी संत ही तो होते हैं।’’

जहाँ तक मुझे जानकारी है, कबीर की मान्यता सत्य और कड़वी बातों के लिए है। संत की कड़ुवी बातें भी हितकर होती। संत समाज के चिकित्सक होते हैं। कबीर समाज के चिकित्सक थे, वे समाज की तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करना चाहते थे।

 डाॅ. सी. एल. प्रभात एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने एक लेख में आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण के राम-भरत मिलाप प्रसंग का उल्लेख किया है। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र का सृजन किया है। राम को वनवास से लौटा लाने के लिए भरत के साथ वे भी गये थे। जावालि ने राम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।
(यदि भूमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति,
तद्यात प्रसवतां श्राद्ध न तत् पश्यनं भवतः।
अयोध्याकाण्ड 108/15)

इसी लेख में डाॅ. प्रभात ने केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) की भी चर्चा की है। दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’

इसी तरह सरहपाद कहते हैं -

जइ णग्गाविअ होई, मुत्ति ता सुणह सिआलज।
लोभ उपाडण अत्थि सिद्धि, त जुवइ-णिअम्बह।
पिच्छी गहणे दिट्ठ भोक्ख, त मोरह चमरह।
उंछ-होअणें होई जाण, ता करिह तुरंगह।

’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कांटे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’

अदरणीय सज्जनों, कबीर इन्हीं बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि है। आज हम न तो ेबाल्मिीकि के रामायण के बारे में ही जानते हैं और न ही केशकम्बली और सरहपाद को ही जानते हैं। कारण सिर्फ एक ही है, शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वाले परजीवी शोषकों ने बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचारों की हत्या कर दी है, क्योंकि इनके विचार कर्मकाण्डियों के शोषण कर्म में बाधक थे। बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचार जनता को मुक्ति की ओर ले जाने वाले विचार थे। शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वालों ने कबीर के  विचारों की हत्या करने के भी बहुतेरे प्रयास किये हैं; अब भी कर रहे हैं। परन्तु ऐसा कर पाना क्या संभव हो सकेगा। अल्लामा इकबाल के शब्दों में - ’’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा।’’

आदरणीय सज्जनों, कोई धर्म बुरा नहीं होता, पर यह भी सत्य है कि दुनिया में अधिकांश उपद्रव धर्म के नाम पर ही हुए  हैं, कयोंकि इसी से कर्मकाण्डियों का हित सधता है। जनता को सम्मोहित करके उसे शोषित करने में उन्हें सुविधा हो जाती है। कबीर ने उम्रभर धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्डों और कर्मकाण्डों का विरोध किया। पाखण्डियों और कर्मकाण्डियों को लताड़ा है। आज इस मंच से मैं समस्त कबीर पंथियों से पूछना चाहता हूँ कि धार्मिक कर्मकाण्डों और धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखण्डों से क्या हम मुक्त हो सके हैं?
आदरणीय सज्जनों, आजकल धर्म, सम्प्रदाय और पंथों की कई नई धाराएँ प्रवाहित होने लगी है। संयोगवश एक दिन ऐसे ही किसी धारा से जुड़े हुए एक साधक की बैठक में मेरा जाना हो गया। साधक महोदय प्रभुनाम की प्याला पीकर मदमस्त बैठे थे। वहाँ की मौन और शांत वातावरण मुझे अच्छा लग रहा था। तभी बिना किसी भूमिका के साधक महोदय ने मुझसे प्रश्न कर दिया - ’’मृत्यु क्या है? इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?’’

इस प्रश्न से मेरा चैकना स्वभाविक था। परन्तु संयत होते हुए मैंने कहा - ’’मृत्यु क्या है, मैं नहीं जानता, इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि आज तक मैं कभी मरा नहीं हूँ। जहाँ तक मुत्यु के संबंध में मेरे विचार की बात है, बड़ा स्पष्ट है, इस दुनिया में मृत्यु से अधिक अटल सत्य मुझे और कुछ नजर नहीं आता। यद्यपि मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है, फिर भी सुनी सुनाई और पढ़ी हुई जानकारी के आधार पर इस विषय पर मैं घंटों भाषण बाजी कर सकता हॅँू। हम दोनों इस पर घंटों बहस कर सकते हैं। परन्तु बाहरी जानकारी के आधार पर स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करते हुए मुझे शर्म आती है। इस काम में मुझे महाधूर्तता, चालाकी, बेईमानी और पाखण्ड की गंध आती है। मुझे क्षमा करें।’’

आदरणीय सज्जनों, जन्म से मृत्यु तक की अवधि जीवन है। जीवन का अनुभव हमें होना चाहिये। जीवन का ज्ञान हमें होना चाहिए। जीवन के बारे मंे हमें बहस और चर्चाएँ करनी चाहिए। जीवन की शुरूआत जीवन से ही होती है और मरने से पहले हम अपने पीछे जीवन की पौध छोड़ जाते हैं। जीवन सृष्टि के विकासक्रम की एक कड़ी है। इसी विकासक्रम  के हम भी एक कड़ी हैं। दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अपने हिस्से की इस कड़ी को हमने कितना मजबूत और कितना सुंदर बना पाया है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। कबीर ने जीवन भर इसी की चर्चा की है। कबीर ने जीवन भर जीवन की ही चर्चा की है, कबीर ने हमें जीने और जीवन को सुंदर बनाने के सुंदर सूत्र दिए हैं। कबीर मृत्यु का भय दिखाने वालों में से नहीं थे, वह तो जीवन के आनंद की सहायता से मृत्यु पर विजय पाने वालों में से थे। वे मृत्युंजय थे। तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना, जान की बाजी लगाना है। परन्तु कबीर ने ऐसा कर दिखाया। एक मृत्युंजय ही ऐसा कर सकता है। कबीर मृत्यंुजय थे।

किसी कवि की एक पंक्ति की बड़ी अद्भुत कविता है जो इस प्रकार है, -
’’जिंदा आदमी सोचता है, बोलता है;
नहीं सोचने,
नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’’

यह कविता अद्भुत इसलिए है कि हजारों-हजारों पृष्ठ के अनगिनत ग्रंथों ने जिस जीवन और मृत्यु के रहस्यों को आज तक उद्धाटित और परिभाषित नहीं कर पाया, उसी जीवन और मृत्यु के रहस्यों को इस एक पंक्ति की कविता ने बहुत सरल शब्दों में व्यक्त कर दिया है। ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि इस कविता में कवि का अनुभव छिपा हुआ है। जो अनुभव से आता है वही ज्ञान है।
कबीर परम ज्ञानी थे।

मैं आपका आभारी हूँ, आपने मेरी बाते सुनी। धन्यवाद।
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कुबेर








































मंगलवार, 3 जून 2014

आलेख

कबीर की परम्परा

डाॅ. सी. एल. प्रभात एक सिद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने एक लेख में आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण के राम-भरत मिलाप प्रसंग का उल्लेख किया है। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र का सृजन किया है। राम को वनवास से लौटा लाने के लिए भरत के साथ वे भी गये थे। जावालि ने राम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी। (यदि भूमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति/तद्यात प्रसवतां श्राद्ध न तत् पश्यनं भवतः, अयोध्याकाण्ड 108/15)

इसी लेख में डाॅ. प्रभात ने केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) की चर्चा की है। दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’ इसी तरह सरहपाद कहते हैं - ’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कांटे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’

कबीर इन्हीं बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि है। आज हम न तो बाल्मिीकि के रामायण के बारे में ही जानते हैं और न ही केशकम्बली और सरहपाद को ही जानते हैं। कारण सिर्फ एक ही है, शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वाले परजीवी शोषकों ने बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचारों की हत्या कर दी है, क्योंकि इनके विचार कर्मकाण्डियों के शोषण कर्म में बाधक थे। इनके विचार जनता को मुक्ति की ओर ले जाने वाले विचार थे। शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वालों ने कबीर के भी विचारों की हत्या करने के कम प्रयास नहीं किये हैं; और अब भी कर रहे हैं। परन्तु ऐसा कर पाना क्या संभव हो सकेगा। अल्लामा इकबाल के शब्दों में - ’’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा।’’  
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kuber


रविवार, 1 जून 2014

समीक्षा

 ’मुर्दहिया’

(डाॅ. तुलसी राम पं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्वान प्राध्यापक हैं। आपने ’अंगोला का मुक्ति संघर्ष’, ’पर्सिया टू ईरान’ जैसी अनेक ग्रंथों की रचना की है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई हैं। आपने ’अश्वघोष’ नामक साहित्यिक-सामाजिक पत्रिका का संपादन भी किया है। ’मुर्दहिया’ आपकी आत्मकथा है। ’मुर्दहिया’ शून्य से शिखर तक पहुँचने के लिए किये गये आपके महान् संघर्षों की महागाथा है। ’मुर्दहिया’ न केवल धरमपुर और उसके आसपास के गाँवों की, बल्कि 1950 ई. से 1964 ई. तक के कालखण्ड का, जाति-वर्ण व्यवस्था, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से ग्रसित भारतीय समाज की एक कड़ुवी परंतु प्रमाणिक सच्चाई और प्रमाणिक दस्तावेज भी है। ’मुर्दहिया’ संघर्षरत् अनेकानेक दलित और वंचित छात्र-छात्राओं के लिए प्रेरणाश्रोत भी है। प्रस्तुत है, डाॅ. तुलसी राम की आत्मकथा ’मुर्दहिया’, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2010, के कुछ अंश।)

........ दौलताबाद के बाद वाला पश्चिमी गाँव विश्वविख्यात बौद्ध तथा कम्युनिस्ट विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन का गाँव कनैला था। इन्हीं सीवानों से घिरे हमारे धरमपुर गाँव के सबसे उत्तर में अहीर बहुल बस्ती थी जसमें एक कुम्हार, एक घर नोनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोंड़ (भड़भूजा) का था। बीच में बभनौटी (ब्राह्मण टोला) तथा तमाम गाँव की परंपरा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गाँव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए हमेशा गाँव के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था। अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गाँव में इन्हीं महामारियों-आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दलित बस्ती में पैदा हुए थे। ...... (पृष्ठ 41)

........ गरीबी के चलते दलित बच्चे प्रायः दो मुट्ठी दाना लाते थे जिसे वे छिपा-छिपाकर खाते थे। मेरी तरह कुछ बच्चे ’लाटा’ लाते थे। जौ के सत्तू में महुए कीे फूल, जिसे गोदा कहते थे, को सुखाकर थोड़ा गुड़ डालकर सान लिया जाता था। इसे लाटा कहते थे। ..... किन्तु लाटा खाना एक तरह से दरिद्रता का प्रतीक था। इसलिए मैं अक्सर लाटा अंगोछे में बांधे स्कूल के पास वाले नाले के किनारे एकांत में चला जाता था, जहाँ अनेक कब्रें थी। वहीं एक खेत की मेड़ पर बैठकर लाटा खाने के बाद नाले का दो-चार घूँट पानी पीकर स्कूल आ जाता था। ..... (पृष्ठ 57)
 
...... संयोगवश हमारी कक्षा में कोई मुसलमान छात्र नहीं था। इसका कारण साफ था कि इस काॅलेज से मुसलमान बहुत डरते थे, इसलिए कोई इसमें पढ़ने नहीं आता था। उस समय आजमगढ़ शहर में शिबली नेशनल काॅलेज बहुत मशहूर था, जिसमें मुसलमानों के साथ बड़ी संख्या में हिन्दू छात्र भी पढ़ाई करते थे। यह काॅलेज मुस्लिम प्रबंधन के तहत था, किन्तु वहाँ अत्यंत धर्मनिरपेक्ष वातावरण हुआ करता था। अतः आजमगढ़ शहर में आकर पढ़ने वाले सारे मुस्लिम छात्र शिबली नेशनल काॅलेज में चले जाते थे। जहाँ तक डी.ए.वी. का सवाल है, शीघ्र ही मुझे पता चल गया कि यह काॅलेज साम्प्रदायिक तत्वों का गढ़ था। काॅलेज के प्रिंसिपल छबील चंद्र श्रीवास्तव भी आर.एस.एस. से जुड़े थे। इस काॅलेज के लगभग सारे अध्यापक आर.एस.एस. से ही जुड़े थे। ..... पृष्ठ 167