गुरुवार, 18 सितंबर 2014

समीक्षा

 भाषा संरचना से परे जाकर कोई अपनी बात नहीं कह सकता

श्री यशवंत मेंश्राम संस्कारधानी (राजनांदगाँव) के उदीयमान और प्रतिभासम्पन्न समालोचक हैं। उन्होंने श्री कुबेर की कविता संग्रह ’उजाले की नीयत’ की समीक्षा करते हुए कहा है - 

भाषा में उसकी संरचना का ही अर्थ होता है। अनुभव से विचार आते हैं। भाषा संरचना से परे जाकर कोई अपनी बात नहीं कह सकता। लेखन में विकल्पों का मनमाना उपयोग नहीं हो सकता। भाषा भाव एक ही भाव को जन्म नहीं देता। भाषा के असीमित विकल्पों में से कुछ ही मत्वपूर्ण होते हैं। कवि की संवेदनाएँ उसी महत्वपूर्ण विकल्प-संरचना से युक्त होकर अपनी शैली में व्यक्त होता है और महत्वपूर्ण भाषिक संरचना का निर्माण करता है। कुबेर ने लिखा है -

और
इन सबने खेल ली है अपनी-अपनी पारियाँ
अब आपकी पारी है
अँगारा अभी ठंडा नहीं हुआ है
बाकी अभी चिंगारी है
इसे हवा दो,
इसे हवा दो,
इसे हवा दो। (पृ. 44)

 यहाँ गहरी संरचना और शैली 1 हवा दो,  2 हवा दो, 3 हवा दो, में है। ’बाकी अभी चिंगारी है’ में संकेत है। आपकी जुदाई कभी भी हो सकती है, आपकी पिटाई और खात्माई भी कभी भी हो सकती है। भाषा में मुहावरेदार शाब्दिक संरचना की वजह से यह संभव हो सका है।

जैसे सम्मान, संबंध, व्यवहार और परिवार
आचार और विचार
उसने होम कर दिया। (पृ. 46)

गलत को आदर्श मानने की रूढ़ियों में सब कुछ जायज है। सभी रास्ते सही हैं, चाहे षडयंत्र हो चाहे अत्याचार। सब तरह से, सब कुछ, समाज से राजनीति तक, लड़ाई लड़ी। सब कुछ लुटाकर और सब कुछ लूटकर उन्होंने अपनी पहचान बनाई।

उसने बनाया स्वयं को
एक योद्धा से एक विजेता
अ-वेत्ता वेत्ता
और प्रात कर ली सत्ता। (पृ. 47)
अब वह समाज का मुखिया बन चुका है। योद्धा लड़ता है और उसका एकमात्र लक्ष्य होता है - सबको पराजित कर विजेता बनना। वह विजेता बन जाता है, अपने हाथों से अपनी विजय पताका लहराता है सत्ता पर काबिज हो जाता है।

क्योंकि बहुत सारे लोग,
जो न तो मनुष्य की तरह होते हैं
जो न तो हँसते हैं न रोते हैं
और न संघर्ष करते हैं
या तो षडयंत्र करते हैं, या सोते हैं
नशे में होते हैं या शासन करते हैं (पृ. 47-48)

भीड़ से अलग होकर, भीड़ का नियंता बनकर फिर क्या? भीड़ जनता की होती है; मनुष्यों की होती है। वह विजेता है, असाधारण है, इसीलिये वह मनुष्य से ऊपर है? तब तो जरूर वह अकेला है। अकेला सदैव भयभीत रहता है, आक्रांत रहता है। यह हिटलर ’अमीबा’ है? या अमीबा से संबंधित कोई और? रचना की महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति संरचना भौतिकता से अभौतिकता में शैली, शब्द, शब्द हुँकार में पहचान बनाती है।

जैसे सृष्टि का प्रथम
और संभवतः अंतिम एक कोशीय आदिम जीव -’अमीबा’।
क्या वह अब आदमी से अमीबा बन गया है? (पृ. 48)

जिस प्रकार अमीबा सारी जैविक क्रियाएँ एक ही कोश में कर लेता है, सत्ताधारक के लिए भी ऐसा कर पाना क्या संभव है? क्या वह समाजेत्तर प्राणी हो सकता है?
’अमीबा’ कविता की मुहावरेदार शैली के कारण भाषा में अधिक संपे्रषणीय बन पाई है और इसी से कविता की सार्थकता सार्थक हो सकी है। इससे कवि ने अपने सामाजिक संदर्भों को भी व्यक्त करने में सफलता पाई हैं। यही सूत्र संग्रह की अन्य कविताओं में भी मिलती है। एक अन्य कविता को लें -

दुनिया में
कहते हैं दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला विकसित
और दूसरा विकासशील
इसे यूँ भी कह सकते हैं
दुनिया में दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला नोट वाले
और दूसरा पेट वाले।

नोट वालों के पास न पेट है न दिल है
उनके पास है एक अदद दिमाग -
कंप्यूटर वाला
और है दुनिया के सारे सुख।
और पेट वालों के पास होते हैं
केवल ऐंठती हुई,
कुलबुलाती हुई अंतड़ियाँ
जिसमें ठूँस-ठूँस कर भरे होते हैं
दुनिया के सारे भूख।

यहाँ संकेतक से विभेद बताए गए हैं। संकेत निम्न हैं -
पेट वाले - शोषित,जानवर, बालक, खाने के दाने-दाने के लिए तरसने वले।
नोट वाले - शोषक साहूकार, ऋणदाता, धनपति, सांसद, करोड़पति, आदि। समतल भाषा-संरचना में गहरी अर्थ संरचना है। कौन कहता है, समतल-सपाट भाषा में कला नहीं होती है? शैली-कला-शब्द-संस्कृति में पेटवाले-नोटवाले का प्रयोग इस कविता की भाषिक संरना-सौन्दर्य में चार-चांद लगा रही है। समकालीन साहित्य की यही विशेषता इसे खास बनाती है। मुहावरेदार भाषा की भी यही खासियत है। कुबेर जी इसमें दक्ष हैं।
उपरोक्त कविता में भाषा का निष्पादन (च्मतवितउंदबम) हो रहा है। ’नोट वाले-पेट वाले’ की गहराई का भीतरी दृश्य महत्वपूर्ण है। पेट की खातिर ईज्जत डावाडोल होती है। नोट वाला खरीद भी लेता है। और तब क्या बिकने वाली, खरीददार को किसी कुत्ते से कम नहीं समझती होगी? सतह संरचना में भाषा और व्याकरण है। सतह के भीतर की संरचना में आर्थिक कुचक्र की परख-परक विचारों की सतत श्रृँखला है जो समकालीन सामाजिक संरचना की देन है। एक और कविता देखते हैं -
गरीबी की रेखा हमने खींच ली
बहुत अच्छा हुआ
उन्हें उनकी औकात बताते-बताते
हमने अपनी औकात बता दी। (पृ. 83)

वर्तमान 2014 लोकसभा के चुनावों में यह हुआ। औकात बताने वालों को औकात का पता चला गया, उनकी स्वयं की भी और जनता की भी। गरीबी-रेखा खींची क्यों? पैमाना कया था? गहराई का अर्थ है, पहले अमीरी की रेखा तय की जावे। औकात देखें देशी-विदेशी कंपनियों की। पर भीड़तंत्रधारी को कौन समझाए? तंत्र को यंत्र बना देते हैं।
कुबेर जी का मुहावरेदार और मुक्त छंद में लिखा काव्य मुहावरों लदा, बोझिल तो बिलकुल भी नहीं है, या तो सधा है या साध गया है। साधो! साधु! अर्थ को जान जाइये। कविता की व्याख्या, अर्थ-व्यंजना सब सध जायेगी। सुनो भाई साधो का भजन नहीं करो, जो माधो का सकर्म है।
कुबेर की कविता भविष्य के प्रति आस्था जगाने वाली कविता है। प्रकृति की गति सदैव बेहतरी और सुन्दरता की और होती है; कुबेर इसी सूत्र को थामें आगे की ओर बढ़ते है। भविष्य का प्रत्येक झण भूत से बेहतर होता ही है -

आओ !
तलाशें, भविष्य के गर्भ में छिपे
संभावनाओं के अँकुरों को
जो एक कतरा छाँव बनेगा
तपती दुपहरी में झुलसते
पसीनों से तरबतर
अनगिनत मेहनतकशों के लिए।

आओ !
खोलें, भविष्य के गर्भ में बंद
संभावनाओं के दरवाजों को
जिसके पार होगा विस्तृत कर्म क्षेत्र
अनगिनत बेकाम हाथों के लिए।
आओ !
मुक्त करें, भविष्य की सींखचों में कैद
संभावनाओं के सूरज को
जो, नंग-धड़ंग, चिथड़ों में लिपटे
मौसम की मार सहते,
और
घोर तमस से डरे-सहमें घरों के अंदर
लायेगा एक नई सुबह।

जब करोड़ों हाथ बेरोजगार हों तो मशीनों की दानवीय भुजाएँ क्यों? मशीनों की दानवीय भुजाओं से आने वाली तथाकथित बेहतरी आखिर किसके लिए होगी? यदि यही ग्लोबलाइजेशन है तो ग्लोबलाइजेशन की इस दुनिया में करोड़ों बेरोजगार हाथ इसमें दब क्यों रहे हैं? पर संभावनाएँ हैं, मानवीय संवेदनाओं की संभावनाएँ; और यही संभावनाएँ आशा और आस्था के आधार हैं।
कुबेर जी की कविताएँ बंद कमरांे में सेमीनार की कविताएँ नहीं है। ये खुले आसमान के नीचे पावस की बूँदों के संग घुलकर सतरंगी इन्द्रधनुषीय संरचना  बनाती हुई रचनाएँ हैं। इनमें आस्था और आशाएँ हैं तो कमजोरियों और नादानियों का शव परीक्षण भी है। चेतावनियाँ भी है, आत्म-प्रेक्षण भी हैं -

अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उŸार-आधुनिक हो गए हैं।

अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।

पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।

कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं। (पृ 73)

उनके विचारों की ऊर्जा और आभा चारों दिशाओं में प्रकीर्णित होती स्पष्ट दिखाई देती हैं। कुबेर को विश्वास है कि अंतःकरण यदि शुद्ध हो और नीयत  साफ हों तो दुनिया को बेहतर बनाने के लिए किसी वाद की आवश्यकता नहीं है -
टूटों को जोड़ने के लिए
आवश्यकता नहीं किसी वाद
या किसी तंत्र की
स्वच्छता केवल मानव मन की। (पृ 68)
कुबेर की कविताओं के केन्द्र में केवल मनुष्य है, मानवता है और इसकी अभिव्क्ति के लिए उन्होंने अपने काव्य में जिस समतुल्य भाषा की संरचना की है; उसी से उनकी विशिष्ट शैली की संरचना भी होती है। कुबेर की भाषिक संरचना में अनगिनत ऐसे शूद्र-शब्द समाहित हैं जिन्हें काव्यशास्त्र ने आज तक या तो छुआ ही नहीं है, अथवा जिन्हें उसने तिरस्कृत कर रखा है। अनेक मृत-शब्दों को भी कुबेर ने पुनर्जीवित किया है। कुबेर जी ने इन भूले-बिसरे, तिरस्कृत और मृत शब्दों को न सिर्फ प्रचलित-पुनर्जीवित किया है, बल्कि उनकी परंपरागत अर्थ के अलावा भी नये-नये अर्थव्यंजनाओं के द्वारा उन्हें प्रतिष्ठित किया है। आवश्यकता पड़ने पर अर्थ अभिव्यंजना, उसकी अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता को सुगम बनाने के लिय कुबेर जी नये-नये मुहावरों का सृजन भी करते चलते हैं। त्रिभुज, समानांतर  रेखाएँ, अमीबा, प्रमेय, सूत्र, समीकरण, उस्तरा, ऐसे ही कुछ शब्द हैं। उनके द्वारा सृजित नये मुहावरों में - भूखमापी यंत्र, सड़क शिराएँ, हँसने रोने की मनाही, अँधों बहरों और गूँगों की गवाही, हस्ताक्षर हैं जिस पर पूंजीवाद के, शाकाहारी घोषण पत्र, समाजवाद का डंडा, धर्म अलग-अलग हवाओं के, रूढ़ियों का सैलाब, बुद्धिजीवी के लबादे ओढ़ना, मुखौटों का अट्टहास होना, बंदूक की नाल होना, एक कोशीय जीव होना, शब्दों में मिलावट करना आदि, आदि हैं।
भूखमापी यंत्र की कविताएँ लोकधर्मी परंपरा में हैं। भले ही काव्यकार अपने क्षेत्र से है, भारतीय नागरिकता में भारत से है, और जिन्होंने राष्ट्रीय समस्याओं को उठाकर अप्रस्तुत को प्रस्तुत किया है।    मनुष्य के अंदर की सुप्त संवेदनाओं को गहरे तक झिंझोड़ा है।

यशवंत मेश्राम
उजाले की नीयत कविता संग्रह की समीक्षा का एक अंश
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