गुरुवार, 20 अगस्त 2015

व्यंग्य

व्यंग्य

एक गुणवत्तायुक्त मित्र की महिमा


मित्रों के मामले में मैं अभागा हूँ। मेरी मित्रमंडली सीमित है। मेरी मित्रमंडली सीमित जरूर है पर उच्चगुणवत्ता वाले मित्रों से भरीपूरी है।

एक मित्र हैं, गुणों की खान हैं। उनके गुणों की गुणवत्ता और ज्ञान की विविधता बहुत व्यापक है। उनके जुबान पर चैबीसों घंटे और सातों दिन सरस्वती साक्षात विराजित रहती हैं। उनके इस जुबान को बनाने वाले ने बड़ी सूझबूझ और अतिरिक्त विशेषताओं के साथ बनाया होगा। सतत् काम करने के लिए लगातार और अधिक पावर सप्लाई की जरूरत को ध्यान में रखते हुए इसके लिए उसमें कभी डिस्चार्ज न होने वाली स्पेशल बैटरी लगायी होगी। लिहाजा यह बिना थके और बिना लड़खड़ाये सदा कैंची की तरह चलती रहती है। बड़े विद्वान और सिद्धपुरूष हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, राजनीतिशस्त्र आदि दशाधिक विषयों में उन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल किया है। शासकीय सेवा में हैं। इनका जन्म उच्चकुल में हुआ है। साहित्य इन्हें विरासत में मिली है। जाहिर है, ये जन्मजात कवि हैं। ये स्वयं को कबीर की परंपरा के कवि मानते हैं। कबीर का स्वभाव कैसा रहा होगा, मैं नहीं जानता; परन्तु ये बड़े मुँहफट हैं। अपनी मुँहफटता को वे कबीर की परंपरा मानते हैं। देशभर में घूम-घूमकर मंचों पर कविता पाठ करते हैं। इससे भी ये अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं। जहाँ भी जाते हैं, अच्छी तरह जम जाते हैं।

जमने और जमाने का चोली-दामन का साथ है। आज के जमाने में जमने के लिए जमाने की कला में दक्षता जरूरी है। कहना नहीं होगा, इस कला में ये माहिर हैं। वक्त पड़ने पर गधे की भी आरती उतार लेने में और दण्डवत हो जाने में ये कोई बुराई नहीं समझते हैं। इनके जमने के जमाने में मैं गधा भी उनके अग्रजतुल्य और वंदनीय था; लिहाजा कई बार उन्होंने मुझ गधे की भी आरती उतारी है।

आजकल लोगों के पास नजरें जरूर होती हैं पर नजरिया नहीं होते। विचार तो जैसे ऐतिहासिक चीज हो गई है और अब केवल फाॅजिल के रूप में मिलती है। आजकल लोगों के पास नजरिया के बदले केवल नजरों के बदलने वाले नंबर और विचार के बदलें स्वार्थ और समयानुकूल परिवर्तनशील व्यवहार ही होते हैं। जमने के बाद लोगों की नजरों के नंबर और उनके व्यवहार बदल जाते हैं। इनके भी बदल गये होंगे। पहले वे 'भाई साहब’ कहकर संबोधित करते थे, विनम्रता पूर्वक ’निवेदन’ करते थे। अब वे ’ऐ! कुबेर’ कहकर सीधा ’आदेश’ देते हैं। वक्त बेवक्त अच्छी-अच्छी मजाक भी कर लेते हैं। ऐसा ही मजाक करते हुए एक दिन उन्होंने कहा - ’’.............. (एक स्थानीय गाली) आज कौन सा कपड़ा पहन लिया है?’’

गाली खाकर मुखे क्रोध तो बहुत आया पर मैंने इसे निष्क्रिय कर लिया; यह सोचकर कि मेरा यह मित्र अब पहले जैसा लल्लू-चप्पू नहीं रह गया है, प्रभुता संपन्न हो गया है। हमारा इतिहास गवाह है, यहाँ आज तक कोई भी, किसी भी प्रभु का, कुछ भी उखाड़ नहीं सका है। बाबा जी ने कहा है - ’समरथ को नहीं दोष गुसाईं’। कबीर दास ने भी कहा है, -
’आवत गाली एक है, उलटत होत अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।।’

गाली के बदले गाली देने से गालियों की श्रृँखला लंबी होती चली जाती है और कलह का कारण बनती है। कलह पैदा करके मैं अपने इस उच्च गुणवत्तायुक्त मित्र को खोना नहीं खहता था। और फिर मजाक में कही गई बात का भी कहीं कोई बुरा मानता है?

संत कवियों के उपदेशों को मानकर नपुंसकता ओढ़ लेने की हमारी परंपरा बड़ी पुरानी है। परंपराओं को निभाने में हम लोग बड़े कर्तव्यनिष्ठ हैं। हमारी महान् धार्मिकता का यही एकमात्र आधार है। इस आधार को तोड़कर मैं इस पवित्र भूमि को अधर्म के रसातल में डुबाने का दुःसाहस भला कैसे कर सकता था? पापकर्म में भी कोई पड़ना चाहता है क्या? मेरा पारंपरिक ज्ञान अपनी इस महान उपलब्धि पर परम आनंदित है। परन्तु मेरी बुद्धि और मेरा विवेकजन्य ज्ञान आज भी इसकी वजह से मुझे सोने नहीं देते।
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kuber

बुधवार, 5 अगस्त 2015

व्यंग्य

स्टेच्यू आफ क्राइम


एक कानूनी लाल हैं, इनसे मेरी बचपन से जान-पहचान है।

’इनसे मेरी बचपन से जान-पहचान है’ ऐसा मैं पूरी तरह होश में और अच्छी तरह सोच-समझकर कह रहा हूँ। कानूनी लाल पहले मेरा हमप्याला-हमनिवाला हुआ करता था। उनकी रूचि कानून में थी। उन्होंने अपने लिए कानून का व्यवसाय चुना। इस व्यवसाय में अब वे दोनों हाथों से पैसा और प्रतिष्ठा बटोर रहे हैं। और शायद ’पैसा और प्रतिष्ठा’; इन्हीं दोनों के बहकावे के कारण अब मैं उनके केवल जान-पहचान वालों की लिस्ट तक सिमट कर रह गया हूँ।

एक प्रसिद्ध कवि हैं जो पत्नी पर बड़ी अच्छी कविता कहते हैं। कविता कुछ इस प्रकार है -
’पहले वह चन्द्रमुखी लगती थी
फिर सूरजमुखी 
और अब ज्वालामुखी लगती हैं।’
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इसी तर्ज पर कानूनी लाल के बारे में मैंने यह कविता बनाई है -

’मन मिला, मनमीत बना वह,
मान मिला, बस मीत रह गया वह,
अब धन पाकर धनमीत बन गया है,
दुनिया की इस रीत-नीत में,
गया-मिला के इस खेल में,
दया-मया अब, कहीं रह गया है?
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एक अवकाश के दिन, जब उनके सारे ग्राहक सुलट गये, मैंने उसके ग्राहकी कक्ष में जबरन प्रवेश किया। बचपन से अभ्यास है, एक-दूसरे की गंध पहचानने में हम लोग माहिर हो चुके हैं। फाइल से नजरें हटाये बिना ही उन्होंने प्रश्न किया - ’’कैसे आये हो?’’

’’चलकर।’’

’’क्यों?’’

’’तेरा माथा फोड़ने।’’

’’यह अपराध कर्म है। और कोई काम नहीं है?’’

’’सोचा था तेरा भेजा खाऊँगा। पर अब इरादा बदल गया है। बेस्वाद चीज भला कोई कैसे खा सकता है?’’

फिर काफी देर तक उन्होंने और कोई सवाल नहीं किया। इनकी फीस प्रति सवाल के दर से तय होती है, सोचा होगा, कहीं यह मुझ पर ही लागू न हो जाय; लिहाजा वह फाइलों में खोया रहा।

मैं उसके दहिनी ओर रखी, तराजू धारिणी, गांधारी जैसे दिखने वाली धातु की सुंदर प्रतिमा को देखने लगा। मित्र महोदय को उकसाने के लिए मैंने कहा - ’’वाह! कितना आकर्षक है। कितना दिव्य है। आँखों पर पट्टी बाँधकर तराजू का खेल दिखा रही है।’’

’’शर्म नहीं आती, न्याय की देवी के लिए ऐसी बातें कहते हुए।’’

’’शर्म कैसी, अपने-पराये की पहचान तो आवाज से भी हो जाती है। आँखों पर पट्टी बाँध लेने से क्या होता है?’’

’’प्रतीकात्मक बातें हैं, तेरे समझ में नहीं आयेगी। .... बकबक बंद कर ...।’’

’’जब न्याय की देवी की प्रतिमा है, तो अपराध के देवता की भी प्रतिमा होनी चाहिए। पलड़ा तभी तो सम की स्थित पर आयेगा। यह तो अपराधियों के प्रति अन्याय है। इस तथ्य में तुम्हें पक्षधरता नजर नहीं आती?’’

कानूनी लाल ने कहा - ’’यह बात हमारे संज्ञान में है। न्याय की देवी के दूसरे पक्ष की प्रतिमा, ’स्टेच्यू आफ क्राइम’, जन्द ही बना लिया जायेगा। काम युद्धगति से चल रहा है। इस बाबत अखबारों में हम जल्द ही टेण्डर प्रकाशित करवाने वाले हैं। पर टेण्डर का मसविदा तैयार करने में बड़ी समस्या आ रही है।’’

’’रावण और कंस जैसे दुर्दान्त छवियों के रहते कैसी अलझन?’’

’’उलझन है। धर्मनिरपेक्षता भी कोई चीज होती है न?

’’गब्बर को जिन्दा कर लो। ताजा छवि चाहिए तो डी कंपनी से सलाह ले लो।’’

’’तू समझेगा नहीं। अब तक ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ नहीं बन बन पाने का कारण इसकी लोकप्रियता और इसका महत्व है। लोगों को जब से पता चला कि न्याय की देवी के दूसरे पक्ष की प्रतिमा ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ बनाना प्रस्तावित है तब से बड़ा विवाद पैदा हो गया है। अपराध जगत से जुड़े तमाम तरह के लोगों की आस्थाएँ एकाएक जागृत हो गई हैं। अपराध के प्रति आस्था का एकाएक विस्फोट हो गया है। देश भर के विभिन्न क्षेत्रों से, अपराध कर्म में संलग्न अनेक लोगों और संगठनों की ओर से, बड़ी मात्रा में अर्जियाँ मिल रही हैं। सर्वाधिक अर्जियाँ देश के पार्लियामेंट और असेंबलियों की ओर से आ रही हैं। माननीय आवेदकों का दावा है कि ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ का रंग-रूप और हुलिया केवल उन्हीं की तरह होनी चाहिए।’’

’’तो क्या ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ का रंग-रूप और हुलिया तय हो गया है?’’

’’मिस्टर! समझने की कोशिश करो। मामला इतना आसान नहीं है। इसीलिए इसे सुलझाने के लिए समस्त माननीयों के निर्देश पर सर्व समस्या निवारक,  ’शोध-सलाहकार कमेटी’ का गठन किया गया है।’’

मैंने जिज्ञासावश पूछा - ’’मित्र! हमारे देश में कमेटियों को रिपोर्ट पेश करने में बड़ी दिक्कतें होती हैं। रिपोर्ट पेश हो पायेगी इसकी कुछ संभावना बनती है?’’

’’मिस्टर! मामला इतना आसान नहीं है। उम्मीद थी कि छः सप्ताह में रिपोर्ट आ जायेगा। आज छः साल हो गये हैं। मामला और उलझता जा रहा है। कहा नहीं जा सकता कि रिपोर्ट कब तक पेश हो पायेगा।’’

’’क्या आम जनता की राय भी ली जायेगी?’’

’’लिया जायेगा भाई! जरूर लिया जायेगा। कमेटी का रिपोर्ट तो आ जाने दीजिए। इसका रंग-रूप और हुलिया तो तय हो जाने दीजिए। बनने में देरी नहीं होगी। वर्षों से, प्राचीन और बहुमूल्य मूर्तियों की तस्करी में संलग्न, तजुर्बा प्राप्त अनेक संगठनों ने इसके निर्माण के लिए टेण्डर भेजना शुरू कर दिया है। इस कार्य को जनहितकारी और पवित्र मानते हुए सबने इसे मुफ्त में बनाने और वितरित करने का प्रस्ताव भेजा है।’’

मैंने कहा - ’’वाह! हमारे देश की महान सांस्कृतिक विरासत का इससे अधिक उत्कृष्ठ नमूना और क्या हो सकता है?’’

मित्र ने आगे की योजना को अनावृत्त करते हुए कहा - ’’प्रस्तावित ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ के अनावरण की शुभ तिथि किस महान अपराधी के जीवन के किस महान कारनामें से संबंधित होगा, इस पर भी गहन मंथन चल रहा है। ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ के अनावरण कार्यक्रम के मंच पर कौन-कौन हस्तियाँ विराजित होंगी, मुख्य अतिथि कौन होगा, कमेटी को इस संबंध में भी रोजाना हजारों आवेदन प्राप्त हो रहे हैं।’’

मुझे समझते देर नहीं लगी। रोजाना हजारों की तादाद में प्राप्त होने वाले इन आवेदनों से निपटना इतना आसान नहीं है। मैंने मित्र को सुझाव देते हुए कहा - ’’इस मामले में आपको देश की गुप्तचर संस्थाओं और गृह विभाग के आला अधिकारियों से सलाह लेना चाहिए। उनके अनुभवों और दस्तावेजों से आपका काम आसान हो सकता है।’’

मित्र ने आनंद विभोर होते हुए कहा - ’’हमने लिया है। गृहमंत्रालय से जवाब भी आ गया है। जवाब उचित और हमारी आशाओं के अनुरूप ही है। उन्होंने लिखा है - ’आपका मिशन पवित्र और जनहितकारी है। यह न्याय की मूल अवधारण के अनुकूल है। हम आपकी पूरी सहायता करेंगे। पर हमें खेद है, अब तक हमारे पास न तो ’स्टेच्यू आफ क्राइम’ के लायक कोई उचित छवि ही अपलब्ध है और न ही इसके अनावरण तिथि के लायक अब तक कोई बड़ी आपराधिक घटना ही घटित हुई है। भविष्य में यदि इस स्तर की कोई घटना घटित होती है तो हम आपकी मदद जरूर करेंगे। तब तक प्रतीक्षा करें और अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करें।’ तो मित्र! अब तो इसी की प्रतीक्षा है।’’

मित्र की बातें हृदय को छू गईं। सारा देश उस महान तिथि की प्रतीक्षा कर रहा है। आइये हम सब भी उस संभावित महान घटना की प्रतीक्षा करें और उसके जल्द से जल्द घटित हो जाने के लिए ईश्वर से कामना करें।
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मंगलवार, 4 अगस्त 2015

चित्र कथा


अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित मेरी छठवीं किताब ’माइक्रो कविता और दसवाँ रस’ व्यंग्य संग्रह
पृष्ठ 160, मूल्य रू. 200/

अनुवाद

 (रस्किन बाण्ड की कहानी का छत्तीसगढ़ी अनुवाद)

मास्टरजी

रस्किन बाण्ड
(छत्तीसगढ़ी अनुवाद - कुबेर)

जब मंय ह अमृतसर एक्सप्रेस के अगोरा म प्लेटफारम म किंजरत रेहेंव तभे मंय ह हथकड़ी लगे खुशाल मारस्टरजी ल पुलिसवाले के संग देखेव।

मंय ह वोला पहली घांव म पहिचान नइ सकेंव - भुरवा दाढ़ी-चूँद़ी वाले सभ्य पेटलू अउ वइसनेच् अक्खड़, मजाकिया स्वभाव वाले। वो तो जब मंय ह वोकर अउ नजीक पहुँचेव, आमने-सामने होइस तब पहिचानेव, अरे! ये ह तो हमर स्कूल जमाना के हिन्दी मास्टर हरे।

नजीक जाके मंय ह खड़े होगेंव अउ वोला एकटक देखे लगेंव। पहिचाने के कोशिश म आँखी लिबलिबावत वहू ह मोला एकटक देखे लगिस। आखिरी बार बीस साल पहिली कक्षा म वोला श्यामपट के नजीक टहलत देखे रेहेंव। अउ अब इहाँ, वइसनेच् टहलत, पुलिस वाले के संग बंधाय देखत हंव। ’’नमस्कार .... नमस्कार सर।’’ पब्लिक स्कूल के अपन आदत मुताबिक वइसनेच् हकलात-हकलात मंय ह केहेंव। (स्कूल म सिखाय जाथे कि समय अउ परिस्थिति कइसनो होय, आप ल अपन गुरू के हमेशा आदर करना चाही।)

खुशाल सर के चेहरा म खुशी अउ चमक आ गे, किहिस - ’’आखिर तंय मोला पहिचानिच डरेस, मोर बच्चा, तोर से दुबारा मिल के बड़ नीक लागिस।’’

वोकर से हाथ मिलाय बर मंय ह हाथ बढ़ायेंव, मंय ह ये भुलागेंव कि वोकर जेवनी हाथ ल पुलिसवाले ह अपन डेरी हाथ म चमचमा के धरे हे। लौंग अउ दालचीनी के मद्धिम खुशबू आइस अउ मोला वो दिन के सुरता आ गिस कि कइसे वो ह अइसनेच् खुशबू उड़ात, आ के मोर डेस्क तीर खड़े हो जाय, जब हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद करत समय मोर व्याकुलता ल वो ह देखय।

1948 म जब वो ह स्कूल से जुड़िस, देश के बँटवारा होय जादा दिन नइ होय रिहिस। तब उहाँ हिन्दी के कोनो गुरूजी नइ रहिन। हमला खाली उर्दू अउ फ्रेंच भाषा पढ़ाय जाय। अउ जइसने सुराज आइस, हिन्दी ल अनिवार्य कर देय गिस, मोर अवस्था तब सोलह साल के रिहिस, अउ ये नवा विषय संग मोला जूझे बर पड़ गे। जब खुशाल सर ह स्कूल म आइस (एक स्थानीय अधिकारी के सिफारिस म) तब उहाँ अइसे कोनों नइ रिहिन जउन हिन्दी जानत रिहिस होही, जउन ह एक शिक्षक के रूप म खुशाल सर के योग्यता के परीक्षा ले सकतिस। अउ विही खुशाल सर ह आज फेर मोर सामने खड़े हे, अंतर केवल अतका हे कि ये समय वो ह कानून के हिरासत म हे।  

जब रेलगाड़ी आइस, मंय ह अपन ये दुख ले उबर चुके रेहेंव। प्लेटफारम खड़े हर आदमी ह डब्बा के दरवाजा कोती दउड़े लगिन। जब देखेंव कि वो पुलिसवाला ह भीड़ ल कोनियावत अपनबर रस्ता बनावत जावत हे, मंय ह वोकर पीछू धर लेयेंव।

अउ वोकर परिणाम ये होइस कि वो तीसरा दर्जा के डब्बा म अपन बर जघा बना सकेंव। खुशाल सर के आघू मोला सीट मिल गे। वोला हथकड़ी लगे रहय, जम्मों यात्रीमन वोला घूर-घूर के देखत रहंय, तभो ले अइसे नइ जनाय कि वोला रत्तीभर अपमान या लाज-शरम लगत रिहिस होही। बल्कि वो पुलिसवाला ह जरूर दुखी अउ बीमार दिखत रहय।

रेलगाड़ी ह जइसे चले लगिस, मंय ह खुशाल सर ल एक ठन पराठा खाय के आग्रह करेंव, जउन ल फिरोजपुर के मालकिन ह जोरे रिहिस। वो ह झट स्वीकार कर लिस। मंय ह पुलिस वाले से घला आग्रह करेंव, वोकरो मुँहू ह पनछियाय रहय, फेर सरकारी ड्यूटी के लिहाज के सेती वो ह मना कर दिस।

’’येमन आप ल काबर पकड़े हें सर?’’ मंय पूछेंव। ’’बहुत गंभीर मामला हे का?’’

’’कुछ नइ हे,’’ खुशाल सर ह किहिस ’’चिंता के कोनो बात नइ हे, जल्दी छूट जाहंव।’’

’’पर आप करे का हव?’’

खुशाल सर ह आगू झुक गे अउ बड़ बिसवास के साथ किहिस, ’’येमा शरम के कोनों बात नइ हे। सुकरात जइसे महान गुरू ह घला कानूनी पचड़ा म पड़े रिहिस।’’

’’आपके मतलब ये तो नइ हे कि ... आपे के कोनो चेला ह .... आपके शिकायत करे हे।’’

’’मोर कोनों शिष्य मन काबर मोर शिकायत करहीं?’’ खुशाल सर ह रोसिया के किहिस, ’’वो कुछ फोकटूचंद रिहिन हें .... उंकरे करनी आय।’’ वो ह मोर चेहरा म घबराहट देखिस होही, अउ ये निर्णय करिस कि आखरी बात ल बता देय जाय - ’’बिलकुल साधारण बात आय, नकली प्रमाणपत्र के।’’

मंय ह केहेंव, ’’ओह!’’ मोर मुँहू ओसक गे। पब्लिक स्कूल के छात्रमन अपन गलत निष्कर्ष ल माने म कोनों देरी नइ करंय ....

’’आपके प्रमाणपत्र, सर!’’

’’बिलकुल नहीं। मोर प्रमाणपत्र संग कोनों गलत बात नइ होय हे - मंय ह वो मन ला 1946 म लाहौर म छपवाय रेहेंव।’’ ’’उम्र के संग समझदारी आथे, मंय ह ध्यान देयेंव, ’वो प्रकरण म,  जिंकर ...........   ?’’

’’काबर, मेट्रिक के वो प्रमाणपत्र ल, वो बेचारा मूर्खमन ल, जउनमन अपन मेहनत के बल म कभी पास होइच् नइ सकतिन, ये साल भर मंय ह  बांटत फिरे हंव, अब समझ म आइस।’’

’’आपके मतलब ये कि आप वोमन ल अपन खुद के प्रमाणपत्र ल दे देव।’’

’’बिलकुल सही। अउ यदि वोमा छपाई के ढेर सारा गलती नइ होतिस, कोनों नइ जानतिन। आजकल आप ल खोजे म अच्छा छापाखाना नइ मिलय, यही तो मुसीबत हे ... ये ह जनसेवा आय .... मोर बच्चू, मंय ह उम्मीद करथंव कि आप ये बात ला स्वीकार करहू ...... ये ह कोनों उचित बात नोहे कि छोटे-मोटे परीक्षा देय खातिर घेरीबेरी कोनों लइका मन ल मजबूर करे जाय ... ध्यान रख, मंय ह कोनों ल अपन प्रमाणपत्र ल नइ देय हंव। वो मन ह मोर तीर तभे आथें जब दू-तीन घांव फेल हो जाथें।’’

’’अउ मंय ह समझथंव, आपमन येकर कीमत लेवत होहू।’’

’’उंकरेमन ले जउनमन दे सकथें। कोनों कीमत तय नइ हे। जो भी वोमन मोला देना पसंद करथें। ये बाबत मंय ह कभू लालच नइ करेंव, अउ तंय ह जानथस, मंय ह निर्दयी नइ हंव   ......।’’

ये बात ह बिलकुल सही आय। मोगा के लहलहात खेतमन ल गाड़ी के खिड़की ले झांकत मंय ह सोचेंव अउ अपन हिन्दी के अर्धवार्षिक परीक्षा के घटना ल याद करेंव जब प्रश्नपत्र ल खाली टकबांध के देखत भर रेहेंव, काबर कि वोमा के कोनों प्रश्न के उत्तर लिखे के मोर म योग्यता नइ रिहिस। खुशहाल सर ह धीरे से मोर कना आइस, मोर डेस्क म निहरिस, वोकर सांस के खुशबू ह मोर ऊपर छा गे। किहिस - ’’लिख बेटा टकटकी बांध के का देखत हस?’’

’’नइ लिख सकंव सर!’’ मंय ह केहेंव, ’’बहुत कठिन प्रश्न हें।’’

’’बिलकुल चिंता मत कर,’’ वो ह फुसफुसा के किहिस - ’’कुछ तो कर। येला जस के तस उतार दे, उतार दे।’’

समय बिताय बर, मंय ह वइसनेच् करेंव। प्रश्नपत्र के एक-एक शब्द ल जस के तस उतार देंव। अउ पखवाड़ा भर बाद, जब परिणाम घोषित होइस, मोला पता चलिस, मंय ह पास हो गे रेहेंव।

’’लेकिन सर’’, जब मय खुशाल सर ल अकेला पायेंव, हकलात-हकलात केहेंव, ’’सर! मंय ह तो उत्तर लिखेच् नइ रेहेंव, गद्यांशमन के अनुवाद मंय करेच् नइ सकेंव। प्रश्न मन ल जस के तस उतारे भर रेहेंव।’’

’’येकरे बर तो मंय ह तोला पासिंग नंबर देय हंव’’, वो ह अविचलित भाव से किहिस, ’’तोर लिखावट ह बहुत सुंदर हे। बेटा! यदि तंय ह हिन्दी सीख लेबे, बहुत बढ़िया गद्य लिख लेबे।’’

अउ वो झण ल याद करत-करत, मोर हृदय ह मोर वो डोकरा गुरूजी के प्रति श्रद्धा भाव से भर गे। मंय ह झुकेंव, अपन हाथ मन ल वोकर पैर म रख देंव, अउ केहेंव, ’’सर! यदि ये मन आप ल दोषी पाहीं, जादा सजा नइ दे पाहीं। अउ जब आप छूटहू, यदि दिल्ली या फिरोजपुर म रहना होही, मोर ऊपर कृपा करहू। आप देखतेच् हव, अब तक मंय ह हिन्दी म भकला हंव, आप मन मोला ट्यूशन पढ़ा देतेव। आप ल कुछ दे के मोला अघात खुशी होही ...... ।’’

खुशाल सर ह अपन मुड़ी ल पीछू डहर झटकार के जोर से हाँसिस अउ वोकर हाँसी म पूरा डब्बा ह हाल गिस।
’’तोला हिन्दी पढ़ाहूँ!’’ वो ह चिल्लाइस ’’मोर प्रिय बच्चा, तोला ये विचार कइसे आइस कि आज तक मोला कुछ हिन्दी आथे?’’

’’लेकिन सर ..... यदि आप ल हिन्दी नइ आय, तब सालभर आप स्कूल म हमला काला पढ़ाव?’’

’’पंजाबी!’’ वो ह चिल्ला के किहिस, सुन के जम्मों आदमी अपन सीट ले उछल गें। ’’शुद्ध पंजाबी! पर हिन्दी अउ पंजाबी के अंतर ल तुम कइसे समझतेव?’’
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रविवार, 2 अगस्त 2015

 From recently published  'MICRO KAVITA AUR DASAVAN RAS  YANGYA SANGRAHA' For mor please visit to my blog - storybykuber.blogspot.com

संत

मरहा राम आजकल धार्मिक व्यक्ति हो गया है। गाँव में उत्तर वाले किसी पहुँचे हुए संत का प्रवचन चल रहा था। नियम-व्रत का पालन करते हुए पिछले पाँच दिनों से वह सत्संग-लाभ ले रहा है। वह संत जी के वचनों को हृदय में बसाता भी है और बुद्धि से तौलता भी है। खाली समय में वह संत जी के पास जाकर बैठ जाता है, अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करने के लिए।

संतों का लक्षण बताते हुए प्रवचनकार संत जी आज ही  अपने प्रवचन में कह रहे थे - ’’संत वह है जो मीठा खाता है और मीठा बोलता है। मीठा खाने का मतलब मीठा सुनना।’’

संत जी की बातों ने मरहा राम के हृदय को छू लिया। उसने कहा - ’’भगवन! संतों के बारे में आप ठीक ही कहते हैं। नेता जी जब भी आते हैं, मीठा-मीठा ही बोलते हैं।’’
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शनिवार, 1 अगस्त 2015

मेरी सद्यप्रकाशित व्यंग्य रचना ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ से

गुण

अन्य मुहल्लों की तरह हमारे मुहल्ले में भी बहुत सारे कुत्ते रहते हैं। पर जिन दो कुत्तों की यह कहानी है, वे अन्य कुत्तों से बिलकुल भिन्न हैं। वे परम मित्र हैं। उनकी मित्रता इतनी प्रगाढ़ है कि मुहल्ले वाले उनकी दोस्ती की कसमें तक खाते हैं। अपने बच्चों को नसीहत देते वक्त उनकी मिसालें देते हैं।

आज तक इन कुत्तों को न तो किसी ने आपस में लड़ते देखा है, और न ही एक दूसरे पर गुर्राते सुना है। लेकिन मजाल है कि दूसरे इलाके का कोई अवांछित कुत्ता उनके इलाके में प्रवेश कर जाय।
मुहल्ले के ये सच्चे और ईमानदार पहरेदार हैं।

एक दिन दोनों मित्र-कुत्ते गलियों की पहरेदारी करते घूम रहे थे। उनकी दोस्ती परखने की गरज से मैंने उनके सामने दो रोटियाँ डाल दी। मेरा अनुमान था कि वे एक-एक रोटी आपस में बांट लेंगे। पर यह क्या? गजब हो गया। रोटियाँ जिसके कब्जे में आई वह उसी की हो गई।

दूसरे नें अपना हिस्सा मांगा।

अब तो दोनों में मरने-मारने की लड़ाई छिड़ गई। पहले वाला जैसे कह रहा हो - ’’हरामखोर, कुत्ते की औलाद, खुद को आदमी समझने लगा है? कुत्ते भी कभी बाट कर खाते हैं?’’

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कुबेर