गुरुवार, 19 नवंबर 2015

आलेख

 भारत को भारतीय लोगों ने जीतकर अंग्रेजों को सौंप दिया।

(डाॅ. तुलसी राम की आत्मकथा के दूसरे भाग माणिकर्णिका के अंश)


’’  ....... भारतीय समाज के बारे में माक्र्स एंगेल्स ने 1853 तथा 1858 के बीच कई लेख लिखे। मूलतः जाति से संबंधित कार्ल माक्र्स के विचार अधूरे रह गए, अन्यथा हमारे लिए वे युगान्तरकारी सिद्ध हुए होते।

माक्र्स बुद्ध को नहीं जानते थे। यदि ऐसा होता, तो वे जाति व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ लिख जाते। फिर भी उन्होंने जो कुछ लिखा है, उससे बहुत सीख ली जा सकती है। माक्र्स भारत के विकास में जाति व्यवस्था को सबसे बड़ी बाधा मानते थे। उन्होंने भारत में धर्मांधता तथा मिथकों की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया है। माक्र्स ने जगन्नाथ यात्रा के दौरान रथ के पहिये के नीचे कूदकर आत्महत्या करने वालों का भी जिक्र किया है। इन आत्महत्याकर्ताओं का विश्वास था कि ऐसा कारने से वे सीधे स्वर्ग चले जायेंगे। माक्र्स ने जगन्नाथ मंदिर से संबद्ध धार्मिक वेश्यावृत्ति का भी जिक्र किया है। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि भारत को भारतीय लोगों ने जीतकर अंग्रेजों को सौंप दिया। ..........।’’ (पृ. 171-172)


शनिवार, 14 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

बोलो यार, कुछ तो

एक दिन मैं शहर जा रहा था। सडक के किनारे तीस-बत्तीस साल का एक युवक खड़ा था। उसे मैंने दूर से ही देख लिया था। उसकी शारीरिक भाषा और हरकतों से मुझे अनुमान हो गया था कि उसे लिफ्ट चाहिए थी। शायद वह कम पढ़ा-लिखा था। लिफ्ट के लिए अंगूठा दिखाना उसे नहीं आता था। झेंपते हुए उसने अपने कंधे के समानांतर अपना बाँया हाथ आगे बढ़ाकर और उसे लहरा कर मुझे रुकने का संकेत दिया। उसके सामने जैसे ही मैंने बाइक रोकी, बैठने के लिए वह लपका। मैंने तुरंत उसे ऐसा करने से रोक दिया। अपनी बाइक पीछे की ओर ठेलकर मैंने स्वयं को उसके सामने लाया। उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया। उसके चेहरे पर मुझे निराशा, अपमान और शर्म के सम्मिलित भाव तैरते नजर आये।

उसने पूछा - ’’कहाँ जा रहे हो?’’

मैंने कहा - ’’जहन्नुम। अगर मेरे साथ चलना है तो अपना परिचय तुम्हें बताना पड़ेगा और मेरी शर्तें भी मानी होगी।’’


उसने अपना परिचय बताया और शर्तें पूछी।


मैंने कहा - ’’चुपचाप नहीं बैठोगे। पूरे समय कुछ न कुछ बोलते रहोगे।’’ 


उसने कहा - ’’मुझे बोलना नहीं आता। आप पढ़े-लिखे हो, आपको बोलना आता होगा। आप बोलना, मैं हामी भरता रहूँगा।’’

मैंने कहा - ’’एक कवि ने कहा है - ’मरा हुआ आदमी नहीं बोलता, नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’ क्या तुम मर चुके हो? या मरना चाहते हो?’’

वह चेथी खुजलाने लगा।

मैंने कहा - ’’जरूरत पड़ने पर गूँगा भी चिल्लाकर अपना विरोध दर्ज करता है। क्या तुम्हें चिल्लान भी नहीं आता।’’

उसने कहा - ’’बेमतलब चिल्लाने पर लोग पागल समझेंगे, नहीं?’’

’’पर मरा हुआ तो नहीं, न?’’ मैंने कहा।

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शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

आलेख

सहिष्णुता-असहिष्णुता

सहिष्णुता-असहिष्णुता पर आजकल बहस चल रही है। मेरा मानना है, हमारा सवर्ण-मुखी समाज कभी भी सहिष्णु नहीं रहा है। जाति और धर्म हमारे बीच असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में आज भी अपने पुराने पारम्परिक रूप में मौजूद है। मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के ’जूठन’ प्रथम के अंतिम पृष्ठ के अंशों को उद्धृत करना चाहूँगा -

’’तरह-तरह के मिथक रचे गए - वीरता के, आदर्शों के। कुल मिलकर क्या परिणाम निकले? पराजित, निराश, निर्धन, अज्ञानता, संकीर्णता, कूपमण्डूकता, धार्मिक जड़ता, पुरोहितवाद के चंगुल में फंसा, कर्मकांड में उलझा समाज, जो टुकड़ों में बँटकर कभी यूनानियों से हारा, कभी शकों से। कभी हूणों से, कभी अफगानों से, कभी मुगलों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों से हारा, फिर भी अपनी वीरता और महानता के नाम पर कमजोरों और असहायों को पीटते रहे। घर जलाते रहे। औरतों को अपमानित कर उनकी इज्जत से खेलते रहे। आत्मश्लाघा में डूबकर सच्चाई से मुँह मोड़ लेना, इतिहास से सबक न लेना, आखिर किस राष्ट्र के निर्माण की कल्पना है?

वक्त बदला है। लेकिन कहीं कुछ है जो सहज नहीं होने देता है। कई विद्वानों से जानना चाहा कि सवर्णों के मन में दलितों, शूद्रों के लिए इतनी घृणा क्यों है? पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को पूजने वाला हिंदू दलितों के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है? आज ’जाति’ एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण घटक है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित हैं तो सब कुछ ठीक रहता है, ’जाति’ मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है। फुसफुसाहटें, दलित होने की पीड़ा चाकू की तरह नस-नस में उतर जाती है। गरीबी, अशिक्षा, छिन्न-भिन्न दारूण जिंदगी, दरवाजे के बाहर खड़े रहने की पीड़ा भला अभिजात्य गुणों से संपन्न सवर्ण हिंदू कैसे जान पायेंगे?

’जाति’ ही मेरी पहचान क्यों? कई मित्र मेरी रचनाओं में मेरे लाउडनेस, एरोगैंट हो जाने की ओर इशारा करते हैं। उनका इशारा होता है कि मैं संकीर्ण दायरे में कैद हूँ। साहित्यिक अभिव्यक्ति को व्यापक अर्थों में ग्रहण करना चाहिए। संकीर्णता से बाहर आना चाहिए। यानी मेरा दलित होना और किसी विषय पर अपने परिवेश, अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार दृष्टिकोण बनान एरोगैंट हो जाना है, क्योंकि मैं उनकी नजरों में सिर्फ एस. सी. हूँ, दरवाजे के बाहर खड़े रहनेवाला।’’

अभी मैंने सुना - एक सवर्ण छात्रा ने जूठन पढ़ने के पश्चात् अपने अभिभावक से पूछा - ’क्या हमारे पूर्वज ऐसे थे?’

वर्तमान पीढ़ी का यह नजरिया हमें आश्वस्त करता है कि सामाजिक असहिष्णुता की अकाट्य-अटूट और नियामक भूमिका में मौजूद जाति और धर्म की दीवारें एक दिन जरूर टूटेगी; धीरे-धीरे ही सही। ओमप्रकाश वाल्मीकि, डाॅ. तुलसी राम और डाॅ. सुशीला टाकभौरे जेसे विद्वानों-विदुषियों की आत्मकथाएँ इस प्रक्रिया को गति देने वाली प्रेरक रचनाएँ हैं और इसीलिए ये पवित्र भी हैं।
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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

लघु कथाएँ

मिलते बहुत हैं; जो भी मिला, उसे सहेज लिया

एक मित्र हैं। राह चलते अक्सर उन्हें सिक्के, नोट, या मूल्यवान वस्तुएँ मिल जाया करती हैं। (यह रहस्य उन्होंने तब जाहिर किया था जब हम दोनों साथ-साथ कहीं जा रहे थे या कहीं से आ रहे थे और रास्ते में उन्हें सौ रूपये का एक नोट मिल गया था।)

इस हद तक मेरा सौभाग्य मुझ पर कभी मेहरबाँ नहीं हुआ है। परन्तु अपनी किस्मत पर न तो मुझे कभी अफसोस हुआ और न हीं मित्र की किस्मत से ईश्र्या हुई।

हमारी नजरें वहीं केन्द्रित हो जाती हैं जिस विषय-वस्तु पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। और उस विषय-वस्तु को हम उठा लेते हैं। मुझे लिखने के लिए विषय की तलाश होती है। मेरी नजरें उसे तलाश लेती हैं और उसे मैं चुनकर रख लेता हूँ।

जिस गाँव में मैं और यह मित्र पदस्थ थे उस गाँव के मुखिया से एक बार हम मिलने गये थे। एक व्यक्ति जो दिखने में किसी भीखमंगे की तरह दिख रहा था, लाठी टेकते मैदान से गुजर रहा था। मुखिया ने बताया - ’’गुरूजी! उस आदमी को देख रहे हो?’’

हम लोग उस अदमी की ओर देखने लगे। उनकी क्रियाकलापों को कुछ देर देख्ते रहे। वह रास्ते में पड़े हुए कागज के कुछ टुकड़ों को उठाकर अपनी जेब में रख लेता था। मैंने पूछा - ’’क्या यह विक्षिप्त है?’’

’’नहीं। अजीब और असाधारण है। कुछ काम नहीं करता, पर रहता ठाठ से है।’’ मुखिया ने कहा - ’’मैंने एक बार इनसे पूछा था, इन रद्दी कागजों का क्या करते हो? उनका जवाब था, कागज के जिन टुकड़ों को मैं उठाता हूँ, जो तुम्हे रद्दी दिखते हैं, दरअसल वे नोट होते हैं। है न अजीब और असाधारण। आदमी?’’

 हमें ताज्जुब हुआ।

कुछ समय बाद पता चला कि आपराधिक गतिविधयों में संलिप्तता के आरोप में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है।
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बुधवार, 11 नवंबर 2015

व्यंग्य,

पश्चाताप की एक कहानी पढ़ लें?

एक जंगल था। वहाँ राजा का चुनाव हो रहा था। जंगल में एक सियार रहता था। वह वहाँ का राजा बनना चाहता था। परंतु यह आसान नहीं था। जंगल के जानवर-मतदाता सियार जैसे बदनाम प्राणी को भला अपना राजा कैसे चुन लेते?

सियार निराश नहीं हुआ। वह बहुत चालाक, धूर्त, लालची और धोखेबाज था। अपनी इन क्षमताओं पर उसे बड़ा अभिमान था। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने आराध्य गुरू की खूब सेवा की। गुरू ने प्रसन्न होकर कहा - तुम्हारी इच्छाएँ मैं जानता हूँ। इस वन प्रदेश का राजा बनने के सारे गुण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं। मैं भी चाहता हूँ कि तुम यहाँ का राजा बनों। तुम ही मेरे सर्वाधिक प्रिय शिष्य हो। परन्तु तुम्हारे पास न तो शेर के समान दहाड़ है और न ही रूप और शरीर। मैं तुम्हें इन दोनों ही चीजें देना चाहता हूँ, पर विवश हूँ। दोनों में से मैं तुम्हें एक ही दे सकता हूँ, वह भी सशर्त। बोलो क्या चाहिए?

सियार की चतुर बुद्धि ने कहा - रूप बनाने के लिए बाजार में मुखौटों की कमी है क्या? शेर की दहाड़ ही मांग ले।

गुरू ने उसे उसकी इच्छा के अनुसार शेर की दहाड़ का वरदान देते हुए कहा - और शर्त भी सुन लो। मेरे इस मंदिर में प्रतिदिन सुबह-शाम की आरती होती है, उसके चढ़ावे का प्रबंध तुम्हें ही करना होगा। माह के अंत में हाजिरी देना अनिवार्य होगा। ध्यान रहे! शर्त का उलंघन करने पर वरदान स्वतः निष्प्रभावी हो जायेगा।

राजा बनकर सियार बड़ा प्रसन्न है। गुरू की खूब सेवा करता है। सेवा के बदले खूब मेवा झड़कता है। सभाओं में कभी-कभी वह दहाड़ भी लेता है। परन्तु रात-दिन उसे अपने मुखौटे की चिंता बनी रहती है। उसे गलतफहमी है कि इस जंगल के जानवर-मतदाता उसकी असलियत के बारे में नहीं जानते हैं। परन्तु सच्चाई कभी छुपती भी है?
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सोमवार, 9 नवंबर 2015

व्यंग्य

एक अश्लील कथा


कथा इस प्रकार है -

इस देश में कभी एक महान उपदेशक हुआ था। वह परम ज्ञानी, प्रकाण्ड विद्वान और प्रखर चिंतक था। गाँव-गाँव घूमकर लोगों को उपदेश देना उसका व्यवसाय था। लोग उसे ईश्वर की भांति पूजत थे।

उपदेशक महोदय पिछले कुछ दिनों से इस उपदेश पर वह बड़ा जोर देने लगा था - ’सज्जनों! शास्त्रों में लिखा है - पशुओं के साथ मैथुन कभी नहीं करना चाहिए। यह महापाप है। ऐसा करने वालों को घोर नरक का भागी बनना पड़ता है।’

उपदेशक महोदय का एक सेवक था जो हमेशा उनके साथ बना रहता था। उसे इस नये उपदेश से बड़ी उलझन होने लगी थी। वह सोचता था - सज्जन व्यक्ति ऐस कृत्य भला क्यों करेगा। और ऐसा कृत्य करने वाला सज्जन कैसे होगा?

पिछले कुछ दिनों से ही उपदेशक महोदय अपनी नयी-नवेली घोड़ी पर सवार होकर रोज प्रातःकाल जंगल की ओर सैर करने निकल पड़ता था और बड़ी देर बाद लौटता था। एक दिन वह सेवक छिपकर उसके पीछे हो लिया।

निर्जन, घने जंगल के बीच एक नदी बहती थी। उपदेशक महोदय अपनी नयी-नवेली घोड़ी को नदी के बीचोंबीच, जहाँ घुटनों तक पानी था ले गया और उसके साथ मैथुन करने लगा। सेवक ने यह देख लिया।

उपदेशक महोदय सदा सेवक की अवहेलना किया करता था। आज सेवक के पास अवसर था, उपदेशक महोदय को नीचा दिखाने का। उपदेश हेतु जब वह सज-धजकर मंच की ओर जाने के लिए तैयार हुआ तब सेवक ने कहा - ’’प्रभु! आपके उस उपदेश का रहस्य मैंने आज सुबह-सुबह नदी पर समझ लिया है, सोचता हूँ, लोगों को भी अवगत करा दूँ।’’

सुनकर उपदेशक महोदय पलभर के लिए विचलित हुए परन्तु तुरंत ही स्थितप्रज्ञों की तरह संयत होकर कहने लगा - ’’मूर्ख! जरूर बताओ। परन्तु शास्त्रों में इसके आगे यह भी लिखा है, सुनते जाओ - ’अगर यह कृत्य सूर्योदय के समय निर्जन वन में किसी नदी के बीच, घुटने भर जल में खड़े होकर किया जाय तो मन को असीम शांति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।’ तू मेरा प्रिय शिष्य है इसलिए इस रहस्य को बता रहा हूँ अन्यथा शास्त्रों में इस अंश को प्रकट करने के लिए निषेध किया गया है। शास्त्रों में निषिद्ध बातों का उलंघन करने से पाप लगता है।’’

पुण्य प्राप्ति की लालसा में और पाप से बचने के लिए सेवक ने आज तक इस महात्मय का उल्लेख किसी से नहीं किया।

मुझे लगता है, उपदेशों से लबालब तमाम तरह के ग्रंथ ऐसे ही उपदेशकों के द्वारा लिखे गये होंगे। और यह भी, सारे उपदेशक इन्हीं उपदेशक महोदय के ही वंशज होंगे।
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