बुधवार, 28 सितंबर 2016

समीक्षा

29 सितंबर 2016 नई दुनिया के अंक में ’’फीस के चक्कर में बची एम. बी. बी. एस. की 86 सरकारी सीट निजी काॅलेजों के हवाले’’ शीर्षक से छत्तीसगढ़ियों के लिए एक निराशा जनक समाचार प्रकाशित हुआ है। 

’मंगलवार रात समाप्त हुई सेकंड राउंड काउंसिलिंग के बाद निजी मेडिकल काॅलेजों में सरकारी कोटा की बची 86 एम. बी. बी. एस. सीटें मैनेजमेंट कोटा में तब्दील हो गईं। अब इन सीटों को ’नीट’ के जरिये भरा जायेगा।’

छत्तीसगढ़ के उम्मीदवारों के पास डाॅक्टर बनने के लिए इन कालेजों द्वारा तय की जानेवाली फीस अदा करने के लिए धन नहीं था, इसीलिए सरकारी कोटे की ये सीटें नहीं भरी जा सकीं। छत्तीसगढ़ की सरकार ने यह सब हो जाने दिया। सरकार को अपने अहोभागी बनने के लिए शायद यही उचित लगा होगा। 

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

'वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ और चुनौतियाँ’ विषय पर छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल में 23 एवं 24 सितंबर 2016 को संगोष्ठी का आयेजन किया गया। संगोष्ठी में सहभागिता करते हुए मेरे द्वारा आलेख वाचन किया गया जो इस प्रकार है -


आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा लेना परीक्षा देने से अधिक चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि परीक्षार्थी अधिकार संपन्न हैं और परीक्षक सीमाओं से बंधा हुआ तथा चुनौतियों से घिरा हुआ है। छत्तीसगढ़ माध्य. शिक्षा मंडल जैसी संविधानिक संस्थाओं के लिए यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब यह राज्य की जनआकाक्षाओं के साथ जुड़ी हो, राज्य के लाखों बच्चों के भविष्य के साथ जुड़ी हो और अनेक चुनौतियों के साथ सीमाएँ भी तय कर दी गई हों क्योंकि व्यवस्था का अंग होने के नाते यह हमारी ही जिम्मेदारी है और हम अपनी जवाबदेही से इन्कार नहीं कर सकते। तमाम सीमाओं में बंधकर भी परीक्षा और मूल्यांकन से संबंधित सभी तरह की चुनौतियों को हमें स्वीकार करना ही होगा। सीमाएँ और चुनौतियाँ हमारे लिए परीक्षा की तरह हैं जो हमारी क्षमताओं, योग्यताओं और अनुभवों  का मूल्यांकन करती है। सफलता के अलाव हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।
एक जनप्रचलित कहानी जो इस चर्चा के परिप्रेक्ष्य में मुझे प्रासंगिक लगती है, इस प्रकार है - 

अकबर ने बीरबल की चतुराई और बुद्धि को जाँचने के लिए उसे एक चुनौती दिया। एक बकरे को छः महीने तक पालना है। चारा-पानी में कटौती नहीं की जा सकती। छः महीने बाद बकरे को लौटाना होगा। परंतु शर्त यह है कि बकरे का वजन छः महीने पूर्व के वजन से जरा भी अधिक नहीं होना चाहिए। बीरबल ने चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और बादशाह की शर्तों को पूरा कर दिखाया। कहानीकार कहता है - इसके लिए बीरबल ने दो पृथक कक्षोंवाला बड़ा सा एक पिंजरा बनवाया। एक में उन्होंने बकरे को रखा और दूसरे में एक शेर को।

बीरबल का आत्मविश्वास, उसकी चतुराई और उसकी बुद्धि जब तक हमारे पास नहीं होगी, आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन की सीमाओं और चुनौतियों से हम नहीं निपट सकते। 
 Dr. S.K. Pandey
The V.C., Pt. R.S.U.Raipur
As Chief Guest
Kuber Singh Sahu

सीमाएँ जो हमें बाँधती है चार तरह की हैं -
1. पाठ्यक्रम,
2. ब्लूपिंट,
3. पाठयक्रम में विषयवस्तु के साथ संलग्न अभ्यास के प्रश्न तथा
4. परीक्षा संचालन हेतु बनाये गये विभिन्न नियम व निर्देश।
ये हमारे द्वारा ही तय किये गये मानक हैं।
चुनौतियाँ अनेक हैं परन्तु दो प्रमुख चुनौतियों की मैं चर्चा करना चाहूँगा -

1. समय सीमा में गुणवत्तापूर्ण, निष्पक्ष, निर्विवाद तथा पारदर्शी, तरीके से परीक्षाएँ आयोजित करना, उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्याकन करना तथा परिणामों की घोषणा करना।

2. बेहतर परीक्षा परिणामों का नैतिक दबाव। बेहतर परीक्षा परिणामों के लिए नैतिक रूप से शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक, छात्र तथा पालक; सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल भी शिक्षा व्यवस्था के एक अंग के रूप में स्थापित संस्था है इसलिए अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ उसे उठाना ही पड़ेगा।
उपर्युक्त सीमाओं और चुनौतियों पर कल के दोनों सत्रों में विद्वान वक्ताओं तथा हमारे अनुभवी मित्रों के द्वारा विस्तारपूर्वक चर्चा की गई। प्रथम सत्र के मुख्यअतिथि आदरणीय प्रो. एस के पाण्डेय, कुलपति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर ने इस विषय पर अपने संक्षिप्त पर सारगर्भित उद्बोधन में हमें कुछ मूल्यवान व महत्वपूर्ण सुझाव दिया है जो इस प्रकार है -

1. परीक्षा के लिए ऐसा वातावरण बनाया जाय जो छात्रों के मन से परीक्षा के भय को दूर करने में सहायक हो। बच्चे परीक्षा और उसकी चुनौतियों को भी अध्यापन कार्य की तरह सहज रूप में सवीकार कर सके। बच्चों में इस तरह की क्षमताओं का विकास और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए हमें प्रयास करने होंगे।

2. हमारे द्वारा ली जानेवाली परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में मूल अंतर है। प्रतियोगी परीक्षाएँ यद्यपि चयन परीक्षाएँ कही जाती हैं, परन्तु उसकी प्रकृति छाँटनेवाली या रिजेक्ट करनेवाली होती है। कुछ ही अभ्यर्थी उत्तीर्ण हो पाते हैं, अधिकांश अनुत्तीर्ण अर्थात रिजेक्ट कर दिये जाते हैं। हमारी परीक्षा की प्रवृत्ति अनुत्तीर्ण करने की नहीं बल्कि उत्तीर्ण करने की होती है। हमारा उद्देश्य किसी बच्चे को छाँटकर उसे शि़क्षा से दूर करना या वंचित करना नहीं हो सकता। 

विद्वान साथी श्री दीपक सिंह ठाकुर, प्राचार्य शा. उ. मा. शाला टेड़ेसरा तथा विषय संयोजक हिन्दी द्वारा अपने लिखित वक्तव्य में चर्चा के लिए निर्धारित विषय ’आज के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा एवं मूल्यांकन: सीमाएँ एवं चुनौतियाँ’ के लगभग सभी पक्षों को स्पर्श करते हुए इस संबंध में; अपने अध्यापन तकनीक में शिक्षकों को व्यावसायिक वृत्ति अपनाये जाने तथा बोर्ड को समय-समय पर ब्लूप्रिंट में संशोधन करने जैसे कुछ और भी महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये। इन सुझावों को सदन का समर्थन भी प्रप्त हुआ। श्री ठाकुर को इसके लिए बधाई दिया जाना चाहिए।

डाॅ. फ्रांसिस मैडम अपने पावर प्वाईट प्रेजेन्टेशन में चर्चा के लिए निर्धारित विषय से दूर जाती हुई प्रतीत हुई। इसके अलावा अन्य सभी साथियों के द्वारा अपने वक्तव्य में ’प्रश्नों की मौलिकता’ विषय पर विचार व्यक्त करते हुए लगभग एक ही बात को दुहराया गया कि भाषा अथवा वाक्य संरचना में परिवर्तन करके किसी भी प्रचलित प्रश्न को मौलिक रूप दिया जा सकता है। यह सुझाव उपयोगी कम और हास्यास्पद अधिक लगी। यह एक आम और प्रचलित तकनीक है। बच्चों में इस तकनीक के लिए एक जुमला प्रचलित है - प्रश्न को घुमा-फिराकर पूछा गया है।    संयोजकों-आयोजको द्वारा शायद वक्ताओं को चितन हेतु पर्याप्त समय नहीं दिया गया होगा अथवा उन्हें उनके लिए निर्घारित विषय की अवधारण स्पष्ट नहीं की गई होगी। 

फिर भी इस दो दिवसीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए विद्योचत विभाग बधाई का पात्र है क्योंकि राज्य स्तर पर इस तरह का आयोजन होना ही अपने आप में एक महत्वपूर्ण और बड़ी घटना है। एक सार्थक पहल है।
धन्यवाद।
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दिनांक - 24. 09. 2016

कुबेर सिंह साहू
व्याखाता
शास. उ. मा. शाला
कन्हारपुरी, राजनांदगाँव
मो. 9407685557

बुधवार, 21 सितंबर 2016

कविता

सच होती एक उक्ति


ईश्वर और अल्लाह एक नहीं थे
उन्हें एक करने के लिए एक उक्ति गढ़ी गई
’ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान’
और यही उक्ति
मेंरे उपर्युक्त कथन का प्रमाण है।

अपनी और अपने शास्त्रों की आलोचनाएँ,
अविश्वास और टिप्पणियाँ कोई मनुष्य करे
यह छूट न कभी ईश्वर ने दिया है
और न अल्लाह ने।

फिर भी मैं निर्भीक होकर
ईश्वर की आलोचनाएँ कर सकता था
ईश्वर के अस्तित्व को नकार सकता था
परन्तु
अल्लाह के बारे में
ऐसा न अब सोच सकता हूँ
न पहले कभी सोच सकता था

’ईश्वर अल्लाह तेरो नाम ...’
यह किसी आशावादी की उक्ति होगी
अथवा किसी हताशावादी की
और मैं -
न तो आशावादी हूँ
और न हताशावादी
यथार्थ जो दिखाता है उसे मानता हूँ
इसीलिए इस उक्ति को सिरे से नकारता हूँ।

पर अब, यह उक्ति सचमुच
सच होती दिखती है
निःसंदेह, ईश्वर और अल्लाह
एक होते दिखते हैं
क्योंकि अब तो
ईश्वर के संबंध में भी कुछ कहते हुए
गले पर असंख्य तलवार
लटकते हुए दिखते हैं।

फतवों और तलवारों के बाद भी,
ईश्वर और अल्लाह,
और ऐसे सभी तत्वों को मैं नकारता हूँ
क्योंकि ये मुझे महज
एक काल्पनिक दृश्य लगते हैं।
और, कल्पना के केवल एक ईश्वर और
एक अल्लाह को क्यों माना जाय?
जबकि मानने के लिए मुझे अपने चारों ओर
घिसटते-रपटते चलते, रोते-बिलखते
असंख्य, आदमी ही आदमी नजर आते हैं।
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रविवार, 18 सितंबर 2016

व्यंग्य

संबंधसुधारक और उसकी कोटयाँ


संबंध जोड़ने के काम की तरह ही संबंध सुधारना भी यहाँ पवित्र कार्य माना जाता है। यहाँ बिगड़े हुए संबंधों को सुधारने की बात नहीं कह रहा हूँ, भूले-बिसरे संबंधों अथवा संबंधों के अतिसांकरी प्रेम गली से चलकर नये संबंध जोड़़नेवालों की बात कह रहा हूँ। अपना लोक और परलोक सुधारने की चाह में अनेक लोग संबंधों के उलझे हुए सूत्रों को सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे दिव्य व्यक्तित्वों को संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। संबंध सुधारने का अंतिम लक्ष्य संबंधजोड़ना ही होता है।

यहाँ जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, अपने बीच किसी तरह के संबंधो की तलाश में जुट जाते हैं। तलाश का यह क्रम क्षेत्र, भाषा, जाति से शुरू होती है और अंत में रिश्तेदारी में आकर समाप्त होती है। इस काम के लिए आजकल राजनीति अधिक उपजाऊ जमीनें मुहैया करा रही है। यहाँ इसे फैशन का दर्जा मिला हुआ है। यात्रा आदि के समय ऐसा बहुतायत में होता है। सूत्रों की लझने अक्सर सुधर ही जाती है; कोई न कोई सूत्र हाथ लग ही जाता है। सूत्र न जुड़ने की स्थिति में मिताई बदने की रामायणकालीन परंपरा तो है ही। 

संबंधों की अनन्यता इस देश के लोगों की खास सामाजि विशेषता है। इसी विशेषता के गिट्टी, सिमेंट के रेतीले गारे के रसीलेपन से यहाँ के लोगों के सरस चरित्रों का निर्माण होता है। आपस के संबंधसूत्रों को खोजने, उसके उलझावों को सुलझाने और उसके किसी अनपेक्षित सिरे में खुद को टांक लेने में यहाँ के लोग माहिर होते हैं। संबंधसुधार का यह कार्य समाजसुधार की तरह ही एक महान मानवीय कार्य है। यह एक महत्वपूर्ण शोधकार्य भी है। इस तरह के शोधकार्यों का सहारा अवतारों को भी लेना पड़ा है। सुग्रीव, विभीषण और हनुमानजी के साथ मधुर संबंध बनाये बिना रावण की ऐसीतैसी करना मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए संभव नहीं था। 

एक दिन जब मैं चौक में पान का रसास्वादन करते हुए एक मित्र की प्रतिक्षा कर रहा था, मेरे पास भला-सा दिखनेवाला एक संबंधसुधारक आया। आते ही वह मेरा चरणस्पर्श करने लगा। यहाँ की चरणस्पर्श करनेवाली पवित्र परंपरा मुझे असहज कर देती है। पर मेरे प्रति उसके द्वारा व्यक्त की जा रही अनन्यश्रद्धा ने मुझे अपनी असहजता पर पर्दा डालने के लिए विवश कर दिया। चरण स्पर्श के रूप में श्रद्धा अर्पण के बाद कुछ देर तक वह अपनी मोहनी मूरत की नुमाईश करता हुआ मेरे सामने गद्गद् भाव से खड़ा रहा। पर्दे से आवृत्त मेरी असहजता को उसने बहुत जल्दी भांप लिया। तुरंत उसे नोचते हुए उसने कहा - ’’लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं।’’

 उसकी इस पर्दानुचाई ने मुझे और भी असहज कर दिया। अपनी असहजताजनित दुनियाभर के दीनभावों से निर्मित महासागर में डूबते-अकबकाते हुए मैंने कहा - ’’माफ करना! इस मामले में मैं निहायत ही अयोग्य व्यक्ति हूँ।’’

मेरे चेहरे पर पड़ी असहजता के पर्दे को तो वह पहले ही तार-तार कर चुका था, अब मेरी दीनता पर व्यंग्य प्रहार करते हुए उसने कहा - ’’स्वाभाविक है, दिन में आपको कितने ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलना पड़ता होगा, कितनों को याद रख पायेंगे आप।’’

’नाविक के तीर’ की कोटि के उसके इस कथन ने मुझे बुरी तरह घायल कर दिया। उसके ’महत्वपूर्ण व्यक्तियों’ वाली उक्ति का इस संदर्भ में मैं क्या अर्थ निकालता; यह कि - ’सामने खड़े इस महत्वपूर्ण व्यक्ति को विस्मृत करने के अपराध में मुझे जहर खा लेना चाहिए या कि महत्वपूर्णों को याद रखने और इस जैसे साधारणों को विस्मृत कर जाने की घोर अनैतिक आचरण का प्रायश्चित करने के लिए मुझे फंदे पर झूल जाना चाहिए।’ सच्चाई यह है कि जिन गिने-चुने व्यक्तियों को मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ वे मुझसे मिलने भला क्यों आने लगे; और दूसरी ओर, स्वयं को महत्वपूर्ण माननेवाले महामानवों-महामनाओं से मिलने की मुझे कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। मिलने-मिलाने वाले मित्रों का मेरा दायरा बहुत छोटा है। उन्हें विस्मृत कर पाना संभव नहीं है।


मुझे व्यवहारिक रूप से पराजितकर विजयगर्व से वह झूमने लगा। बात आगे बढाते हुए उसने कहा - ’’माफ कीजिएगा, भोलापुर में आपका कोई रिश्तेदार रहता है?’’

इस चौक में चाय, जलपान और पान की असमाप्त स्थितिवाली सुविधाएँ एकमुश्त उपलब्ध हैं। अब तक वह इन सारी सुविधाओं का आनंद ले चुका था। उसके अपनत्वपूर्ण, सभ्य, सुसंस्कृत और नैतिक व्यवहार के प्रति समझदारी जताते हुए मेरी जेब निरंतर आत्मसमर्पित हुई जा रही थी। जेब की इस दुष्टता के कारण मुझे उस पर और उस व्यक्ति पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। परन्तु किसी भले व्यक्ति पर, और वह भी सार्वजनिक जगह पर क्रोध प्रदर्शित करना सर्वथा गर्हित कार्य होता। मुझे इस क्रोध का शमन करना पड़ा। इस कोशिश में मेरा विवेक जाता रहा। मैंने कहा - ’’भोलापुर में तो नहीं पर भलापुर में जरूर रहता हैं। भलापुर, वहीं पर ही है। भोलापुर-भलापुर। ’क’ उसका नाम है। रिश्ते में भतीजा लगता है। पिछली गर्मी में वह मुझसेे मिलने मेरे घर आया था। शायद आप उन्हीं के साथ थे।’’

इस मामले में वह शातिर निकला और एक बार फिर मुझे परास्त कर गया। उन्होंने मेरे झूठ को तुरंत पकड़ लिया। बगलें झांककर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा - ’’झमा कीजियेगा, पहचानने में मुझसे शायद भूल हुई है। भोलापुर वाले ’क’ भाई साहब के, सूरजपुरवाले साले ’ख’ के, चन्द्रपुरवाले मामा ’ग’ के, बड़े लड़के ’घ’ का मैं दोस्त हूँ। भोलापुर में एक शादी में ’क’ भाई साहब ने आपकी तरह ही दिखनेवाले किसी सज्ज्न से परिचय कराया था। भाई साहब ने उनका नाम शायद कुबेर बताया था। मैंने आपको वही कुबेर अंकल समझ लिया था। वे लेखक है। बड़े भले और सज्जन आदमी हैं। आपका समय बर्बाद किया इसका मुझे खेद है।’’

इस बार ’भले और सज्जन कुबेर अंकल’ का हवाला देकर उसने मेरे अंदर छिपे हुए बुरे और दुर्जन कुबेर को नंगा कर दिया था। अपनी बुरई और दुर्जनता को स्वीकार कर लेने में ही मुझे अपनी भलाई दिखी। मैंने कहा - ’’आपने मुझे अधूरा पहचाना। पहचानने में आपसे गलती तो हुई है, पर यह कोई गंभीर और बड़ी गलती नहीं है। इसे गलती नहीं, यहाँ के लोगों का आम चरित्र माना जाना चाहिए। ऐसा हम सबसे होता है। यहाँ के लोग न तो स्वयं को पूरी तरह अनावृत्त ही करते हैं और न ही हम किसी को पूरी तरह पहचान ही पाते हैं। आपके भले और सज्जन कुबेर अंकल की तरह दिखनेवाला मैं भी कुबेर नाम ही धारण करता हूँ। लेखन-रोग भी है मुझे। परंतु आप देख ही रहे हैं, आपके उस कुबेर अंकल की भलाई और सज्जनता ने आपको धोखा दिया है।’’

अब की बार उन्होंने हें..हें...हें.... का मधुर स्वर निकाला। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा बनाया, नमस्कार किया और चला गया।  

एसे लोगों को सामाजिक संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए। परन्तु संबंधसुधार का यह काम इनके लिए समाजसुधार का काम नहीं, व्यवसाय-विस्तार का काम होता है। आँखों से काजल चुरा लेना अर्थात् जेबें समर्पित करवा लेना इनके लिए बाएँ हाथ का खेल होता है। भाई का दोस्त बनकर बहिन को, बाप का दोस्त बनकर बेटी को और पति का दोस्त बनकर पत्नी को उड़ा ले जाने में ये बड़े माहिर होते हैं।


बाजारों से गुजरते समय अक्सर आइए भाई साहब, आइए सर   की मनुहारें हमें उलझा देती हैं। एक बार इसी तरह की एक अत्यंत आत्मिक मनुहार ने मुझे लुट जाने पर विवश कर दिया। यद्यपि रुकते ही मैंने उस युवा दुकानदार से साफ-साफ कह दिया था कि मुझे इस समय कुछ भी खरीदना नहीं है। मुझसे कुछ काम हो तो कहिए।

उन्होंने पूछा - ’’कोई बात नहीं सर! आइए। बैठिए। आप साहू जी हैं न?’’

इस शहर में दस आम लोगों के प्रत्येक समूह में छः-सात लोग साहू ही होते हैं। उनकी इस चालाकी को मैं समझता था परंतु मामला जाति से संबंधित था, इसलिए झूठ बोलने का न तो वहाँ कोई अवसर था और न ही कोई औचित्य। उसके अनुमान पर मैंने स्वीकृति की मुहर लगा दी।

संबंधों के उलझे सूत्रों को सुलझाते हुए उन्होने पूछा - ’’आप भोलापुर रहते हैं न?’’
’’हाँ।’’
वहाँ लंबा-लंबा सा, गोरा-नारा सा, एक आदमी रहता था, अच्छा सा उनका नाम था। क्या था  ... ।
’’क प्रसाद।’’
’’हाँ, हाँ। क प्रसाद। आप उन्हें जानते थे?’’
’’हाँ।’’
’’बड़े भले, सच्चे और सज्जन आदमी थे। हमारे परमानेंट ग्राहक थे। उनके साथ उनका पंद्रह-सत्रह साल का बेट भी आया करता था।’’

मैंने उनके आशय को समझते हुए कहा - ’’पंद्रह-सत्रह साल का वह लड़का मैं ही हुआ करता था।’’
’’देखा, मेरा अनुमान कितना सही निकला। आपका नाम क्या हैं?
’’झ प्रसाद।’’
’’आप क्या करते हैं, शिक्षक हैं?’’
’’हाँ।’’

वह तीर में तुक्का आजमाये जा रहा था। मैं भी लगातार साफ झूठ बोले जा रहा था। पर दुकानदारी सजानेवालों को जैसा होना चाहिए, वह उससे भी अधिक, सवा सेर निकला। उनकी आँखें कह रही थी - बेटा! आपके झूठ-सच से मुझे क्या लेना-देना; मुझे तो दुकानदारी करना है। और उसने अपनी दुकानदारी कर भी ली। 

(आप सोचते होंगे, यह कैसा लेखक है, जो झूठ बोलता है। लेखकों को तो कम से कम ईमानदार होना चाहिए। आपकी यह सोच आम सोच के दायरे में है इसलिए इसे गलत नहीं कहा जा सकता। इस शहर में एक तथाकथित बड़े साहित्यकार रहते हैं - विभूति प्रसाद ’भसेड़ू’ जी; बहुत शातिराना अंदाज में झूठ बोलते है और बात-बात में कहते हैं - ’झूठ और झूठ बोलने वालों से मुझे सख्त नफरत होती है’। पर मुझे न तो झूठ से घृणा होती है और न हीं झूठ बोलनेवालों से नफरत। यहाँ तो अवतारों को भी झूठ बोलना पड़ा है। झूठ बोलना आदमी का स्वभाव है। झूठ न बोलनेवाला या तो पशु होता है, या महामानव। परंतु झूठ न बोलने का दावा करनेवाला आदमी न तो पशु होता है, और न ही महामानव। वह इन सभी से परे होता है।) 

ऐसा उन सभी जगहों पर होता है जहाँ विक्रेता-क्रेता की संभावना हो। कार्यालय भी इसमें शामिल हैं; जहाँ कानून-कायदों और ईमानों की खरीद-फरोख्त होती है।

इन्हें व्यावसायिक संबंधसुधाराको की श्रेणी में रखा जाना चहिए।


राजनीति में मंत्रियों की सरकारी विदेश यात्राओं के समय दोनों देशों के बीच संबंधशोध और संबंधसुधार का काम यात्रा के एजेंडे में सबसे ऊपर होता है। रवाना होने के महीनों पहले माननीय मंत्री सहित उनका पूरा मंत्रालय संबंधित देश के साथ सदियों पुराने एतिहासिक तथ्यों पर शोधकार्य में जुट जाता होगा। तब न तो पूर्व-पश्चिम का भेद आड़े आता है और न ही वाम-दक्षिण का वाद-विचार। तब माहौल में सर्वत्र केवल अवसरवाद की ही गंध आती रहती है। आज बच्चन साहब होते तो उनकी मधुशाला में एक रुबाई और जुड़ जाती - ’वाम-दक्षिण भेद कराती, संबंध जोड़ती मधुशाला।’ इन्हें राजनीतिक संबंधसुधारक कहा जाना उचित होगा।

संबंधसूत्र हाथ लगने की कोई संभावना न हो तो नये सिरे से संबंधों की शुरुआत करने की कोशिशें होने लगती है। तलवे चाँटना, शहद से भी मीठे आवाज में कूँ .. कुँ .. करना, आज्ञापालन, जलपान, बार-रेस्टोरेंट की यात्राएँ, तोहफे, छोटे-मोटे पराक्रमों का भी बढ़-चढ़कर वर्णन आदि का प्रयोग होने लगे तो आप फौरन समझ जाते हैं कि ऐसा करनेवाला आपसे मधुर संबंध जोड़ने की व्यग्रता में उग्र अभिलाषी हुआ जा रहा है। यह दुम हिलाने वाले कुत्ते की तरह का आचरण आजकल सर्वाधिक चलन में है। यह एक विलक्षण कला है और राजनीति तथा कला के सभी क्षेत्रों में इसे बेशर्मीपूर्वक और बेधड़क आजमाया जा रहा है।

इस तरह के संबंधसुधारकों को कलावादी संबंधसुधारक कहा जाना चाहिए।


संबंधसुधारकों की मुझे और भी अनेक कोटियाँ नजर आती हैं। इन्हें मैं आपके अभ्यासार्थ छोड़ देना चाहता हूँ। अपर्युक्त चारों प्रकारों को समझ लेने के बाद बाकी का अनुमान लगना आपके लिए जरा भी कठिन नहीं होगा।
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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

कविता

वे बँटना नहीं जानते


समय में, सहूलियत में,
कल्पना और असलियत में
सब जगह, सब में,
लोग अपना हिस्सा तलाशते हैं।

समय को, समाज को
कल को, अब और आज को
कल्पनाओं और हकीकतों को
ईश्वर और अकीदतों को
संपत्ति की तरह हिस्सों में
तोड़कर-काँटकर बाँटते हैं।

हिस्सा बहुरूपिया होता है
अनेक-अनेक संभावित रूपों में
छद्म सुखों और सार्वत्रिक दुखों में
जैसे - स्वार्थ और सुविधा,
ये बहुप्रयोगित, बहुप्रचलित रूप होते हैं
हमारी पारंपरिक प्रतिष्ठा और समृद्धि के -
सर्वाधिक स्वाभाविक और अनुरूप होते हैं।

जिनको हम बाँटना चाहते हैं, वे बँटना जानते हैं?
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रविवार, 4 सितंबर 2016

व्यंग्य

दमदार लोगों का देश


दमदार लोगों के इस देश को डरपोक और घोंचू लोगों का देश बतानेवाले बांगड़ुओं के लिए सौ-सौ लानतें। 

यहाँ पुलिस से ज्यादा दम अपराधियों में होता है। कहते हैं - दम है तो पकड़ के बता। सरकारी रकम डकारनेवालों के दम का कहीं कोई तोड़ नहीं। कहते हैं - जिसके ...... में दम है, पकड़ ले। बच्चे और जवान सरकारी संपत्तियों को तोड़-फोड़कर आपना दम दिखाते हैं। गरीब और मजदूर पच्चीस-पचास की रोजी कमाकर भी दमदारी से अपनी गृहस्थी खीच ले जाते हैं।

मुझे मिलनेवाले लोग तो अक्सर दमदार हाते हैं। मित्र भी, सहमर्की भी, परिचित भी और अपरिचित भी। इनमें से कुछ तो सार्वत्रिक-दमदार होते हैं। ये चाहे उपस्थित रहें, न रहें; इनके दम का प्रभाव सदा और सर्वत्र मौजूद रहता है।

उस दिन चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस ने तीन की सवारी वाले एक मोटर सायकिल को पकड़ लिया। तीनों नवयुवक थे; अभी-अभी बालिग हुए थे। नवयुवक थे तो मर्जी के मालिक भी थे, चाहे जितने लोंगों की सवारी कर लें। नवयुवक थे तो भीड़ के अंदर भी अच्छी-खासी स्पीड में चल सकते थे। नवयुवक थे तो ड्राइविंग लायसेंस क्या खाक होगी उनके पास। पर थे दमदार। समझदार भी थे, जुर्माना देना स्वीकार था, पुलिसवाले से उलझना नहीं। पुलसवाले को रसीद बुक निकालते देखकर उन्होंने भी अपना बटुवा निकाल लिया।

पुलिसवाला अनुभवी था, पर उन नवयुवकों को समझदार समझने के फेर में उनका अनुभव गच्चा खा गया। बिना परिचय पूछे उसने जुर्माने की रसीद बना डाली। आदत थी, अन्य विवरण दर्ज करने के बाद नाम-पता पूछने की; सो वैसा ही किया।

युवक ने अपना नाम बताया - ’’क कुमार।’’

नाम सुनते ही पुलिसवाले के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। पूछा - ’’कुमार साहब के लड़के हो?’’
’’जी।’’

’जी’ सुनते ही पुलिसवाले के माथे पर गंगा-जमुना बहने लगी। पसीना पोछते हुए उसने बड़े प्यार से कहा - ’’बेटा! आपने यह पहले क्यों नहीं बताया?’’

जिस प्यार से उसने इनसे यह सवाल पूछा था उतने प्यार से कभी अपने बेटे से भी नहीं पूछा होगा।
उतने ही प्यार से क कुमार ने छक्का जड़ा - ’’आपने पूछा कहाँ अंकल?’’

वह रसीद बुक से पंखा करके अपने चेहरे के पसीने को सुखाने की कोशिश करता था। पसीना था कि सूखने का नाम ही नहीं लेता था। काफी देर तक यही कोशिश होती रही। बीच-बीच मेें उनके श्रीहीन मुख से दारूण दुख से भींगा हुआ पश्चातापवाला यह वाक्य निकल पड़ता - ’’बताना था न बेटा।’’

युवक नोट को आगे बढ़ते हुए कहता - ’’प्लीज, जल्दी कीजिए न अंकल। हाॅस्पिटल जाना है, फ्रेण्ड से मिलने। गेट बंद हो जायेगा।’’

पता नहीं, आगे क्या हुआ। इस ट्रेजिडी-काॅमेडी को देखकर मुझे एंगर हो रहा था। वहाँ से हटना ही उचित लगा।
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इस एतिहासिक चौक पर कभी देशभक्तों की सभाएँ और वक्तव्य हुआ करते थे। आजकल यहाँ राजनीतिक दल के कार्यकर्ता विरोधी दल के मंत्री और नेताओं के पुतले फूँकते हैं। अपने मरे हुए नेताओं और साथियों को श्रद्धांजलि देने के लिए मोमबत्तियाँ जलाते हैं। यही कारण है कि लोग आजकल इस चैक को श्मशान चौक कहने लगे हैं। लोगों का मानना है - इस ऐतिहासिक चौक पर दम दिखानेवाले लोग बहुत जल्दी राष्ट्रीय गौरव मान लिये जाते हैं। इसीलिए, आजकल राष्ट्रीय गौरव की अभिलाषी स्थानीय दमदार प्रतिभाएँ इस चौक का उपयोग दम दिखाने के लिए करने लगे हैं।

कुछ दिन पहले यहाँ एक खानदानी-दमदार का दम देखने को मिला। नौकरीवाली अवस्था के दिनों की उल्टीगिनती गिननेवाले दो दोस्त च चंद और ज चंद आपस में बातें कर रहे थे। च चंद ने ज चंद से कहा -
’’अबे, तूने अब तक सर्विस ज्वाइन नहीं की?’’

’’साला बांगड़ू, समझता क्या है। ये देख, पावती।’’

’’पर तेरे को कभी ड्यूटी पर जाते नहीं देखा।’’

’’काम दमदारी से करने का। नहीं जाता - तो साला कौन क्या उखाड़ लेगा?’’

’’अबे, नई-नई नौकरी है न।’’

’’अबे, दम होना चाहिए। नौकरी करेंगे तो दमदारी से करेंगे। सरकारी नौकरी है, किसी बनिये की नहीं। किसके.......दम है जो मेरी नौकरी उखाड़ सके।’’

एक परिचित ने उस दमदार के बारे में बताया - ’ये दमदारों के खानदान की नयी हाइब्रिड दमदार फसल हैं। नौकरी मिलते ही इनके अंदर अचानक दम विस्फोट हो गया है।’
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हर कार्यालय में कोई एक, मातहत-दमदार जरूर होता है। बाॅस का मुखौटा जितना खुर्राट होता है, उसका मातहत-दमदार उतना ही अधिक दमदार होता है। एक दमदार बाबू हैं, झ चंद। हरदम बाॅस का दम निकालने की ताक में रहते हैं। अबतक जितने भी बाॅस आये, उन्होंने सबको बेदम करके बिदा किया।

समझदार बाॅस ऐसे मातहतों से लोहा न लेकर उनका लोहा मन लेता है। वर्तमान बाॅस समझदार हैं। उन्होंने ऐसा ही किया है। पहले ही दिन अपना दम झ चंद के श्रीचरणों में सर्मित कर आया है। झ चंद के सामने अपनी कुर्सी पर बैठने में भी वे अपराध महसूस करते हैं। बाँकी मातहतों पर दम गालिब करके इस अपराध भावना पर पर्दा डालने का प्रयास करते रहते हैं। उन्होंने सबको साफ-साफ कह दिया है - ’’झ चंद की झाड़ की जड़े बड़ी गहरी हैं। उसे हिला पाने का दम मुझमें नहीं है। आप लोग हिला सको तो हिला लो।’’
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यह देश डिप्लोमाधारी-दमदार नामक विशाल और विचित्र प्राणियों के लिए जग जाहिर है। रामहनित बाली के ये वंशज माने जाते हैं। इनके शरीर में बाली के गुणसूत्र पाये जाते हैं। बाली को मिला बरदान आनुवांशिक रूप से इन्हें प्राप्त होता है। आप जानते ही हैं, दुश्मन का आधा दम बाली के शरीर में शिफ्ट हो जाता था।

इन विशाल और विचित्र प्राणियों का काम जनता के लिए नहरें, बांध, पुल, सड़कें और इमारतें बनाना है। ये साइट पर जाते जरूर होंगे पर किसी को दिखाई नहीं देते हैं। लोगों का मानना है कि इनका शरीर पारदर्शी होता है, इसीलिए ऐसा होता है। जब-जब ये साइट पर जाते हैं, बाली को मिला वरदान आनुवांशक प्रभाव के कारण प्रभावशील हो जाता है। बनने वाले नहरों, बांधों, पुलों, सड़कों और इमारतों का आधा दम इनके शरीर में शिफ्ट हो जाता है। बनती हुई चीजें बनते तक मरणासन्न स्थिति में पहुँच जाते हैं। उद्घाटन और लोकार्पण तक जीवित दिखाने के लिए इन्हें वेंटिलेटर पर रख जाता है।

यहाँ की भव्य कोठियों में दमदारों की और भी अनेक कोटियाँ पाई जाती हैं। देश की जनता इन सभी दमदारों को अच्छी तरह पहचानती है। लिखने की जरूरत नहीं थी। पर दरअसल, आजकल मैं भी खुंद को दमदार मानने लगा हूँ। लोग मुझे बांगड़ू दमदार कहने लगे हैं। दमदारी दिखाने के लिए ही यह सब लिखना पड़ा है।
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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

व्यंग्य

’नो अपील, नो वकील’ घोषणापत्र


चौथे मोर्चे की संभावना, संरचना व संरक्षण पर विचार-विमर्श करने के लिए राजधानी में एक कार्यशाला का आयोजन किया गया है। इस कार्यशाला में देशभर के चुनिंदा चोर, तस्कर, ठग, जालसाज और धोखेबाज एकत्रित हुए हैं। कार्यशाला का आयोजन ’अदेतमस’ नामक संगठन ने किया है। ’अदेतमस’ न तो ’तमसो म ज्योतिर्गमय’ का आधुनिक भाष्य है और न ही भीष्म साहनी के उपन्यास ’तमस’ का नवीन संस्करण या उसका दूसरा भाग। यह एक एन. जी. ओ. है जिसका शब्द विस्तार है - ’अखिल देशीय तस्कर तथा माफिया संगठन’।

चौथा मोर्चा बनाने के पीछे इनके बनानेवालों के पास एकदम ठोस और वाजिब तर्क है। उनका मानना है कि तीसरा मोर्चा सदा से राहु और शनि की तिरछी नजरों का शिकार रहा है। इसीलिए बनने से पहले यह टूटने लगता है।

यही कारण है कि देश में अब तक तीसरा मोर्चा बनाने और चलाने वाले पारंपरिक और अनुभवी राजनेताओं को इस कार्यशाला में आमंत्रित नहीं किया गया है। इस कार्यशाला में आये हुए तमाम चोरों, ठगों, तस्करों, जालसाजों और धोखेबाजों की दृष्टि में ये सारे लोग निकम्मे और भ्रष्ट हो चुके हैं। देश सेवा की भावना इनमें अब रही नहीं है। इन लोगों का मानना है कि अब आगे इन्हें पाले रखने की कोई जरूरत नहीं है। इनके गले में बंधी हुई तमाम तरह की पट्टियाँ अब निकाल लेनी चाहिए। देश की जनता अब जब हमें ही पूरी तरह से बर्दास्त करने के लिए प्रशिक्षित और अभ्यस्त हो चुकी है तो इन निकम्मों पर निवेश करते रहने से क्या फायदा?


इस बात पर सभी डेलिगेट्स एकमत थे। सबने एक स्वर में कहा - ’’हम चोरों, तस्करों, ठगों, जालसाजों और धोखेबाजों के बारे में लोग अच्छी तरह से जानते हैं। वे जानते हैं कि काम के प्रति निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी जैसे विलुप्त भाव केवल हमारी ही बिरादरी में पाई जाती है। राजनीति, प्रशासन और अन्य क्षेत्र में ये मात्र नारा बनकर रह गये हैं। राजनीति और प्रशासन के क्षेत्र में अब हमें इन विलुप्त भावों को पुनर्जागृत करना होगा। इस शुभ कार्य को सरकाने के लिए हमें कुछ नया तरीका अपनाना होगा। सबसे पहले हम अपने आप को राजनीतिज्ञ नहीं कहेंगे। इसके बदले हमसब राजसेवक शब्द को अपनायेंगे। आगे हमें राजसेवक कहकर ही संबोधित किया जाये।’’ तालियों से मंडप गूँज उठी।   

विचार-विमर्श का दौर तो शुरू हो ही चुका था अब गहन विचार मंथन का दौर शुरू हुआ।

’’तीसरे मोर्चे की हालत हमने देख लिया है। देश में अब चौथे मोर्चे का गठन होना चाहिए। देशहित में यह बहुत जरूरी है।’’ विचार-विमर्श करनेवाले राजसेवकों में से एक ने संकल्प प्रस्तुत किया।

’’और यदि मोर्चा एकबार गंठ जाय तो कम से कम अगले आम चुनाव तक गठा रहे, इसका भी पुख्ता इंतिजाम होना चाहिए। देशहित में यह और भी बहुत-बहुत जरूरी है।’’ दूसरे ने इस संकल्प को मजबूती प्रदान करते हुए कहा।

एक अन्य ने प्रस्ताव रखा - ’’हमारा उद्देश्य देश की जनता
को, उनको होनेवाले विभिन्न नुकसानों और तकलीफों के लिए राहत और राहत सामग्री मुहैया कराना है; इसलिए इस चौथे मोर्चे का नाम होना चाहिए - ’राष्ट्रीय राहत पार्टी’ अर्थात ’रारापा’।’’ सबने इसका भी ध्वनिमत से समर्थन किया।

’’रारापा’ चूँकि अदेतमस की ही एक इकाई है अतः इसका ध्येय वाक्य होगा - ’निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी’। एक अन्य राजसेवक ने सुझाव प्रस्तुत किया। इसे भी ध्वनिमत से स्वीकार कर लिया गया।

मोर्चे के अध्यक्ष पद व अन्य पद के लिए किसी तरह की बकझक नहीं हुई। सबसे बड़े माफिया डाॅन को सर्वसम्मति से मोर्चे का अध्यक्ष स्वीकार कर लिया गया। संचालन कर रहे राजसेवक द्वारा अध्यक्ष महोदय से कार्यशाला समापन की अनुमति लिया ही जा रहा था कि एक राजसेवक ने जान की बख्शीश पाकर अध्यक्ष महोदय से निवेदन किया - ’’भाई! वैसे तो आपकी इच्छा ही मोर्चे का संविधान माना जायेगा। पर लोगों को दिखाने के लिए इसे छपवाना भी जरूरी है, भाई।’’

इस राजसेवक की सलाह से अध्यक्ष महोदय काफी खुश हुए। उन्होंने उसे अपना सलाहकार बना लिया। कहा - ’’अबे बांगड़ू! इतना अच्छा आइडिया तेरे दिमाग में आया कहाँ से? और कुछ छपवाना हो तो वह भी बता डाल। पर ध्यान से सुन। देश का प्रधान सेवक हमी को बनने का है। उस समय कोई सलाह दिया तो हम साला तेरे भेजे को ऊपर वाले के पास भेज देगा। समझा कि नहीं?’’

’’वो तो हमने पहले से समझ लिया है भाई। हमारा एक ही काम होगा - आपको देश का प्रधानसेवक बनाना। इसके लिए तैयारी फुल है भाई। वोटिंग के दिन देश की जनता को हम ऐसा दारू पिलायेगा, ऐसा दारू पिलायेगा कि सबको खाली आपिच का फोटू दिखाई देगा भाई। पर एक बात और भाई! हमको अपना घोषणापत्र भी तो छपवाना पड़ेगा न भाई।’’

’’हाँ, हाँ, वोइच् हम भी कह रहा था। घोषणापत्र। पर साला बांगड़ू, ये बात तेरे भेजे में आई कैसे? ठहर, हमारे भेजे में भी कोई बात आ रही है। बोले तो संविधान और घोषणापत्र, ये दो-दो चिट्ठियाँ अलग-अलग छपवाने से क्या फायदा। जनता का पैसा बर्बाद नहीं करने का साला। दोनों को एक में मिलाकर छापने का। समझे।’’

’’वाह भाई! क्या झक्कास आइडिया आया है आपके भेजे में भाई। अभी से जनता की इतनी फिक्र। तब तो हमारी सरकार बाक्स आफिस पर जरूर हिट होगी भाई।’’

’’बाक्स आफिस पर? नाटक नहीं करने का साला, बांगड़ू! जो-जो हम बोलेगा, उसको जल्दी-जल्दी लिखने का। और आज ही छपवाने का। समझे।’’

’’समझा भाई! बोले तो, आज ही छापेगा। आगे बोलो भाई।’’

’’लिख, सबसे पहले लिख - ’निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी’। इन बातों का पालन नहीं करनेवालों का भेजा तुरंत ऊपरवाले की ओर पार्सल कर दिया जायेगा।’’

’’लिख लिया भाई।’’

’’अब लिख। वो क्या कहते है, अबे! बाबा साहब वाला, ...

’’संविधान भाई?’’

’’हाँ, हाँ, वोइच्, संविधान। सबसे पहले उसिच को ठीक-ठाक करने का। अभी हम जो कुछ लिखवा रहा है, उसको उसके ऊपर में जोड़ने का और इसीसे काम चलाने का। इससे काम न चले तभीच् उसको खोलने का। समझे।’’

’’समझा भाई! आगे बोलो भाई।’’

’’दूसरा बड़ा लफड़ा मंत्री बनने का होता है। इसलिए मंत्री का पद मंत्रालय और विभाग के बड़े बाबुओं को दे  देने का।’’

’’बड़े बाबू बोले तो, सचिव न भाई।’’

’’हाँ, हाँ, साला वोइच्, बोलने का। समझा।’’

’’समझा भाई! आगे बोलो भाई।’’

’’हम खुद देश का प्रधानसेवक बनने का। और जीतनेवाले सभी राजसेवकों को उनके-अपने एरिया का प्रधानसेवक बनाने का। समझे क्या?’’

’’समझा ना भाई! क्या स्कीम लेकर आया भाई, सबके सब प्रधान सेवक। आगे बोलो भाई।’’

’’साला बांगड़ू, नाटक नहीं करने का। ठीक से सुनने का, और ठिकिच लिखने का। अगला लफड़ा साला लोगों को जल्दी और सही न्याय दिलाने का होता। इसको दुरुस्त करने का। इसके लिए ’नो अपील, नो वकील’ स्कीम लागू करने का। देश भर के कोर्ट को खतम करने का। जज लोगों को हटाने का। जिला जज का काम एरिया के प्रधानसेवकों को करने का। देश के बड़े जज का काम हमको करने का। पांच साल से कम सजावाला केस पुलिस में ही निपटाने का। पांच से दस सालवाला केस एरिया के प्रधानसेवकों को निपटाने का। दस से बीस सालवाला केस देश के प्रधानसेवक को, बोले तो, हमको निपटाने का। फांसीवाला केस राष्ट्रपति को निपटाने का। जजों और वकीलों को इन लोगों का सलाहकार बनाने का। समझे।’’

’’समझा भाई! क्या झांसू स्कीम लेकर आया भाई, फटाफट केस निपटेगा। आगे बोलो भाई।’’

’’अगला लफड़ा देश की जनता को हर तरह की समस्या से राहत दिलाने का। बोले तो, घूसखोरी, बेईमानी, भ्रस्टाचार, मिलावट, मंहगाई, और बेरोजगारी से छुटटी दिलाने का। इसकेलिए इन सब कामों को वैध बनाने का। अच्छा हेल्थ, और अच्छा एजुकेशन भी एक भारी लफड़ा होने का। खराब सड़को की परेशानी से भी लोगों को राहत दिलाने का। आने-जाने में भीड़ और ट्रैफिक जाम से भी राहत दिलाने का। इसकेलिए प्रत्येक मद का एक लाख के हिसाब से दस-दस लाख रूपयों की राहत सभी लोगों को सालाना देने का। इसकेलिए देश के सभी लोगों को मल्टीपरपस स्मार्टकार्ड देने का। लेनेवाले और देनेवाले, दोनों का जिस्ट्रेशन करने का। इससे किसके स्मार्टकार्ड से किसने कितना लिया, इसका हिसाब सरकार के पास रहने का। समझे क्या?’’

’’समझा ना भाई! क्या धांसू स्कीम लेकर आया भाई, फटाफट प्राब्लम निपटने का। आगे बोलो भाई।’’

’’साला बांगड़ू! असली लफड़ा तो अभी जस का तस रहने का।’’

’’वो क्या भाई?’’

’’असली लफड़ा - रोड, पुल और बिल्डिंग का एबोरशन हो जाने का। बोले तो, इनका खाली कागजों में बनने का। बनते-बनते चक्कर खाकर गिरने का है। बनते ही खराब होने का है। समझा।’’

’’समझने का भाई।’’

’’हमने सोचा है, इससे निपटने के लिए इनके असली लागत मूल्य की पांच गुनी रकम सेंक्सन करने का। एक हिस्सा इंजिनियर के लिए, एक एरिया के प्रधानसेवक के लिए, एक हमारे लिए, एक ठेकेदार के लिए और अंतिमवाला बनवाने के लिए। समझा।’’

’’समझा भाई! क्या स्टीमेट बनाया भाई। अब एकदम मजबूतीवाली  सड़कें, पुल और बिल्डिगें बनेगी भाई। आगे बोलो भाई।’’

’’सबकी खोपड़ी में बंदूक टिकाकर तेरे को रखने का। कहीं कोई गड़बड़ी हुई तो तेरे भेजे का पार्सल बनाकर ऊपरवाले के पास भेजने का। समझा।’’

’’समझा भाई। आगे बोलो भाई।’’

’’अब चुप भी हो जा, साला बांगड़ू। जादा भेजा नहीं चाटने का। आज की मिटिंग डिसमिस करने का। समझे।’’
’’समझा भाई। आज की मिटिंग डिसमिस भाई।’’

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