शुक्रवार, 30 जून 2017

आलेख

sansmaran
मोर स्कूल के गुरूजी: खुमान सर
यशवंत


समझ-समझ के बात हे, कतको मन काव्य-साहित्य-संगीत ल आनंद के जिनिस समझथें। त ’’गायन म निःशब्द लयात्मकता या लयबद्धता अउ नाद के विविध गुणमन के समन्वय होथे, अउ कतको। गायन म एक-एक कण्ठ स्वर के पहिचान हो जाथे। गायन म साहित्य या काव्य के आनंद ह घलो अभिन्न रूप ले जुड़े हे।’’1 पक्का होथे के लोककला के जम्मों विधा म कला के संगेसंग साहित्य तत्व घला हावे। एकर खोज शोधार्थी मन ल करनच् परही। भारतीय चैसठ कला म भाषा ज्ञान, विद्या, गायन, वादन, नर्तन, नाट्य, आलेखन विशेष महत्व के हावे के येकर बगैर लोक संस्कृति परंपरा ह कायम नइ हो सकय जइसे जुड़ा बिना नांगर ह नइ चल सकय। मतलब लोक के ललित विधा मन ले साहित्य के भिन्न विधामन आगी म तप के प्रगट होय हे, जेमा गायन, वादन, नाट्य, नृत्य ल लेके लोक सांस्कृतिक मंच के आज अड़बड़ेच् विस्तार होय हे; जेमा लोक के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक अउ सांस्कृतिक दृश्य ह चटक चंदेनी असन सुघ्घर दिखत हे। जइसे संझा बेरा के सुकवा हर रेंगहार ल अपन अंजोर म वोकर ठिकाना तक पहुँचा देथे। समाज के मनखेमन ल उचित दिशा म रेंगायबर रस्ता बतइया कुछेक लोककला संस्थामन के नाव ह अइसन हावे - 1. चंदैनी गोंदा, 2. सोनहा बिहान, 3. लोक नाट्य (नाचा-रहस), 4. पंथी नृत्य मंडली, 5. छत्तीसगढ़ देहाती कला मंडल। गाँव-गाँव म अउ कतरो हें।

समाज ल उचित रस्ता देखाय के उदिम करइया लोककला मंच म अव्वल हे - चंदैनी गोंदा। चंदैनी गोंदा म दू शब्द हें- चंदैनी $ गोंदा, जिहाँ - चंदैनी = तारा, चाँदनी, चंदैनी नाव के मछरी घला होथे (तारा मछली या ैजंतपिेी); अउ गोंदा = गोंदा फूल, मित्रता के भाव, मितान बदना।
सूरदास के प्रसिद्ध दोहा हावय -
विधना यह जिय जान के, सेषहिं दिये न कान।
धरा मेरु सब डोलते, तानसेन की तान।।

ये दोहा ल तानसेन के गायन के खातिर कहे गे हे। ग्वालियर के शासक मुहम्मद शाह आदिल, जउन हर 1549 ई. ले 1556 ई. तक ग्वालियर म राज करिन; ल तानसेन हर अपन गुरू मानय। आदिल के अरथ होथे न्यायिक। अबुल फज़ल ह अपन आइने अकबरी म लिखे हें - ’’तानसेन ह ग्वालियर के रहवइया रिहिस अउ अइसन गवइया पाछू एक हजार बरिस म भारतवर्ष म नइ होइस।’’2 तानसेन ल संगीत के क्रियापक्ष-शास्त्रपक्ष के उत्तम ज्ञान रिहिस हे। एकरेबर एन आगस्टस विलार्ड ह केहे हाबे - ’तानसेन के हिंदुस्तानी संगीत ल ऐतिहासिक क्रम म बरस-बरस तक ले नइ भुलाय सकन।’ माने तानसेन ह गायन के कला ल अपन चेलामन अउ चेला के चेलामन ल सौंपिस, जइसे दाई ह बेटा-बहू के मउर सौंपथे; जे ह जिनगी ल कभू साधारण दशा में तोड़ेच् नहीं। त तानसेन ह संगीत कला अउ गायन कला ल आगू बढ़ाय के उत्तम नायक आय।

लोक रहय कि परलोक, गायन विधा ह बड़ सुघ्घर विधा परंपरा आय। गाय के रंभाना ल सुनके बछरू ह दउड़त अपन दाई तीर ओध जाथे। गायन म ध्वनि, आकार, सपर्श, रंग, गंध, रूप अउ रस के बिलौना मथनी होथे जेकर ले लेवना अउ घीव के स्वाद आथेच्। गायन म नाद के बहुत-बहुत गुन होथे। सब ह एकमयी रहिथय। मतलब इही एकमयी म गायक के अउ बजनिया के क्रमशः सुर अउ ताल-माल के लय म अभिन्न होय के घलो अलग-अलग सुनाथे। जेहर एकता-समता, बंधुत्व के नदिया के धार बरोबर हावय। ध्वनि ले शब्उ अउ शब्द ले वाक्य .... अउ अइसने तालमेल ले कवितामन के रचना होथे। इही वाक्य ल संगीबद्ध करके गायन के प्रयास म गायक अउ वादकमन प्रयत्नशील रहिथे। मतलब साहित्य के गद्य-पद्य रचना के साहित्यिक विधामन ल प्रमुख रूप म कविता (गीत, प्रगीत आदि) अउ नाटक एकांकी ल संगीतबद्ध, स्वरबद्ध करे के, सुन के, देख के अलगेच् बात आघू आथे। मात्र आनंदेच् नइ आय। याने रसिकमन के घलो जरूरत होथे। अइसने रसिक हें खुमान सावजी। गुरुवर खुमान साव सर। गुरुवर कन्हैया लाल श्रीवास्तवजी, जब्बार खाँ जी, अउ भारत सर जी ले अलग हटके।

तानसेन के एकठन प्रसंग हावे - ग्वालियर के घटना हरे। एकझन सन्यासी ह खाध म एकतारा ओरमा के आवत रहय। गरमी अउ पियास ले वोहर बाय-ब्याकुल रहय। तभे वोला एकझन रेंगहार आवत दिखिस। सन्यासी ह वोला पूछिस - ’भइया! इहाँ पानी कतेकरा मिलही?’ रेंगहार ह एक डहर अंगरी के इसारा करिस अउ संगेसंग यहू किहिस - ’ये डहर थोरिक दुरिहा म एकठन फुलवारी हे। विहिंचे तुँहला पानी मिल सकथे। फेर ......।’ ’फेर भइया, फेर का?’ एकतारावाले बाबा हर पूछिस। ’बाबा! वो फुलवारी म एक ठन बघवा रहिथे। येकर सेती उहाँ जाना उचित नइ हे।’ अइसे कहिके वो रेंगहार ह चल दिस। सन्यासी हर सोचे लगिस - ’ग्वालियर, अउ वहू म फुलवारी म बघवा? येमा जरूर कोनों रहस्य हे। तब तो उहाँ जायेच् बर पड़ही।’ सन्यासी हर फुलवारी कोती चलदिस। नजीक जाय म सहिच् म वोला बघवा के गरजना सुनाई देय लगिस। सन्यासी ह लहुटे के बिचार करे लगिस। तभे कुछ सोच के वो ह रुक गे। बघवा के गरजना ह एक डहर ले अउ सरलग आवत रहय। सन्यासी ह वो बघवा ल देखेबर आगू बढ़िस। सन्यासी बाबा ह देखिस - एकठन झाला म एकझन दस-बारा साल के लइका हर बघवा के गरजना करत रहय। सन्यासी बाबा ह देखके चकरित खा गे। पूछे म वो लइकाहर बताइस - ये डहर कोनों आ के फूलफुलवारी के नुकसान झन करे, कहिके मंय ह ये उदिम करथंव बाबा। लइका के प्रतिभा ल देख के सन्यासी बाबा ल अपार खुशी होइस। वो सन्यासी बाबा ह अउ कोन्हों नइ रिहिस, वो समय के महान संगीतज्ञ हरिदास रिहिस; अउ वो लइका के नाव रिहिस - तनसुख। इही तनसुख ह आगू चल के बाबा हरिदस के संगत म महान गायक तानसेन के नाम ले प्रसिद्ध होइस।

अइसने खुमान सर के घला एकठन प्रसंग हे, जेकर ले प्रेरित होके वोमन अपन जिनगी ल लोकसंगीत बर समर्पित कर  दिन। खुमान सर ह बताथें कि - मंय ह एक दिन खेत गेंव। उहाँ एक झन कमेलिन ह काम करत-करत ’चल-चल-चल मेरे साथी, वो मेरे हाथी’, गीत ल सुघ्धर अकन मन लगा के गावत रहय। मंय ह सोच म पढ़ गेंव कि गाँव के अनपढ़, खेत कमइया माइलोगिन, जउन ल सुवा-ददरिया गाना चाहिए, वो ह अपन संस्कृति ल कइसे भुलागे अउ फिल्मी गीत गाय के शुरू कर दिस? विही दिन मंय ह परन करेंव कि हमर छत्तीसगढ़ी लोकगीत मन के संग कुछ अइसे काम करे जाय कि गाँव के मनखेमन फिल्मी गीत सरिख फिर से वोला खेत-खार म गाय-गुनगुनाय के शुरू कर देवंय।

खुमान सर ह अपन संकल्प ल पूरा करे म कतका सफल होइन, येकर बखान करे के जरूरत नइ हे। 2015 के भारत सरकार के ’संगीत अउ नाटक अकादमी’ पुरस्कार ह येकर प्रमाण हे।

कतको झन मन खुमान सर के बनाय गीत मन ल फिल्मी गीत के धुनमन के छत्तीसगढ़ी संस्करण कहिके उँकर आलोचना करथें। मोला उँकर आलोचना म दम नइ लगय। काबर कि प्रकृति के नकल करना तो मनखे के सुभाव होथे। फिल्मी दुनियावालेमन ह खुद भारतीय लोकगीत, लोकसंगीत के चोरी करके अपार लोकप्रियता अउ धन कमाय हें अउ आजो कमावत हें। तभो ले फिल्मी दुनिया के कलाकारमन ह आम जनता ले अलग-बिलग अउ हट के होथें। जबकि लोकगीतमन ह लोक ल अपन स्थानीयता ले, जमीन ले जोड़ के राखे रहिथे। ’’कलाकार मन समाज ले कटे मनखे नइ होवंय चाहे वोमन ये भ्रम म विश्वास करत रहंय कि कला अउ कलाकारमन के अपनेच् दुनिया होथे।’’3 लोककलाकारमन समाज ले कइसे जुड़े रहिथें, खुमान सर ह येकर उदाहरण आवंय। फिल्मी दुनियावालामन ह लोकगीत अउ लोकसंगीत ल विकृत करके वोला कहाँ ले कहाँ पहुँचा दिन हे, येला हर संगीत प्रेमी ह जानथे। फेर लोकगीत अउ लोकसंगीत ले जुड़े कलाकारमन ह फिल्म संगीत के धुनमन ल नइ बिगाड़ें, बल्कि लोकसंगीत के रस म पाग के वोला अउ निखार देथें। येकर बर ’मोर संग चलव रे’, ’पता देजा रे पता ले जा रे गाड़ीवाला’ अउ कतरो गीतमन के उदाहरण दिये जा सकथे। खुमान सर के बनाय गीतमन म उँकर कल्पनाशीलता अउ सृजनात्मक प्रतिभा के मौलिकता देखे जा सकथे। खुमान सर ह अपन छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति ल गजब के जोड़ के राखे हावंय। लोककलाकार के कला के लोक म पकड़ अपन संस्कृति के कारण संभव हो पाथे। येला हम मौलिक कला कहिबो।

चंदैनी गोंदा के स्वरसाधना म लोक के व्यावहारिक पक्ष हे जेमा लोक-सौन्दर्यबोध होथे। लोक स्वतंत्रता ह बाधित नइ होवय। खुमान सर के संगीत कला के आलोचना ल कोनों संगीत मर्मज्ञ होही तउने ह कर सकथे, संगीत सौंदर्य ल फरिहा सकथे। फेर सामान्य समीक्षक ह लोकतंत्री होथे। अइसन समीक्षकमन के दृष्टि तर्ककला, अनुशासन ले रंजित होथे। येकरेसेती रमेश कुंतल मेघ ह केहे हे - ’समीक्षा संस्कृति के तर्कशास्त्र हावे।’ अउ चंदैनी गोंदा संस्कृति? जड़ता ले मुक्ति पाय के हे। मतलब खुमान सर ह लोककला के लोकतंत्रीकरण करथें। येकरे बर विक्टर ह्यूगो ह केहे हे - ’’संगीत ह अइसन भावनामन ल आवाज देथे जउन ल केहे नइ जा सकय अउ दिलचस्प ये हावय कि वोमन ल केहे बिना रहे भी नइ जा सकय। ये ढंग ले जिहाँ कलम ह चुप हो जाथे, संगीत ह विहिंचे ले शुरू होथे।’’ खुमान सर के संगीत सौन्दर्य ह अइसने हे।

दुख के बात हे, छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के केठन विद्यालय हावंय, जिहाँ छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत ल नवा-नवा रूप दे के जन-जन म बगाराय के उदिम हो सके? लोक संगीत म समावत फूहड़ता ल रोके जा सके? ’’संगीत कोनो घला देश अउ समाज के, सैकड़ों बरस के सौंदर्यबोध ले निर्मित, विकसित अउ परिस्कृत होथे। वोहर कलाकारमन के अनथक स्वरसाधना हावे जेकर संबंध जीवन के व्यावहारिक पक्ष ले घलो हे।’’4 खुमान सर जी के स्वर साधना म दैवीय वरदान कतका हे, पता नहीं, फेर इहाँ उँकर मेहनत, साधना अउ तपस्या ह साफ-साफ दिखथे।

पहिली मंय ह खुमान सर जी ल अलग हट के एक शिक्षक के रूप म देखेंव अउ जानेंव। अउ सर रिहिन। जब्बार सर ह धीरे-धीरे बोलइया, मारेबर स्लेटपट्टी ल बड़ जोर ले उठावंय फेर हथेली म गिरय त जनावय तको नहीं। विद्यार्थी मन ह सजा पा के घला गदगद्। गणित पढ़इया कन्हैया लाल सर ह, जेकर आघू के चारों दांत ह नइ रहय, सरल ल सलल कहय। सुन के हम विद्याार्थीमन के हँसी छूट जाय। फेर जउन लइका ह गणित ल नइ समझ सकय वोला वोहर अपन छड़ी के जोर म बेंदरा असन नचा डरंय। बाँकी छात्रमन कलेचुप। त कन्हैया सर के आशीरवचन ह शुरू हो जातिस - डामर, सड़कछाप, जोक्कर, डामिस, बदमाश .......। ये शब्दमन ल सुन के हम बाँकी छात्रमन के हँसी के फव्वारा छूट जावय। अउ भारत सर! वोला देख के लइकामन के - सर मंय, सर मंय ....शुरू हा जावय। कोनों छात्र ह वोला नइ घेपय। कभू-कभू भारत सर अबड़ गुस्सा जावय। वोकर गुस्सा ह आसमान म चढ़ जावय। फेर सजा देयबर छात्र तीर म जाय के बाद वोकर गुस्सा ह तुरते शून्य डिग्री म उतर जावय।

जब्बारसर, कन्हैया सर अउ भारत सर ले एकदम उल्टा रहय खुमान सर। खुमान सर के रौबदार चेहरा ल देख के सब छात्रमन कलेचुप हो जावंय। एक बार सातवीं कक्षा के परीक्षा लेयबर वोमन कक्षा म प्रवेश करिन। का विषय के परीक्षा रिहिस, मोला सुरता नइ हे। दुनों हाथमन ल बगल म दबाके, नरी ल तिरछा करके, तिरछा नजर ले देखत जब वो ह कक्षा म फेरा लगाय तब छा़त्रमन के सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाय। मंय समझथंव, खुमान सर के ये अदा के नकल अउ अभिनय कोनों अच्छा से अच्छा कलाकार मन घला नइ कर सकहीं। खुमान सर के ये अदा के कोनों तोड़ नइ हे। जइसे - उंकर बनाय येदे गाना के कोनों तोड़ नइ हे -
’वाह रे मोर पड़की मैना, तोर कजरेली नैना
मिरगिन कस रेंगना तोरे नैना।
तोरे नैना मारे वो चोखी बाण, हाय रे तोर नैना।’

होही क ये गाना के कोनों तोड़? हाँ! तब मंय ह उत्तर पेपर म बोल-बोल के लिखत रहंव। खुमान सर ह एक-दू घाँव मोला बरजिस कि बोल-बोल के झन लिख। फेर रटन पद्धति ले रटल चीज ल बिना बोले लिखना मोर बस म नइ रिहिस। सातवीं कक्षा के तेरह साल के लइका के कतका बुघ, कइसे चुप रहितिस? वो ह तो अपन उत्तर लिखे म मगन रहय। खुमान सर ल गुस्सा आ गिस होही। वोकर तिरछा गरदन अउ तिरछा नजरवाले अदा के जेवनी हाथ के उल्टा झापड़ मोर गल म परिस। मोला अपन सातों जनम के सातों नानी मन के सुरता आ गे। वो समय खुमान सर के रौबदार, कड़कदार, सामंती- जमींदारवाले व्यक्तित्व ल देख के हम सब बिक्कट डरन। फेर आज जब कभू-कभू वोकर से मिलथंव तब मोला उँकर रौबदार, कड़कदार, सामंती-जमींदारवाले व्यक्तित्व के खाल्हे म प्रेम, मया, करुणा अउ दुलार के निर्मल झरना बोहावत दिखथे,  गुप्त सरसती कस। इही झरना के सुंदर धार ह, अउ ये धार के झरझर-कलकल के मधुर आवाज ह, तब ले अब तक उँकर गीत-संगीत म घला सरलग बोहावत आवत हे। छत्तीसगढ़ के लाखों सुनइया-गवइया के मन-मस्तिष्क ल शीतल करत आवत हे। जइसे -
लहर मारे लहर बुंदियाँ सगरो जमाना गोरी झाम डारे।
झुमर झामें मन मंदरिहा सगरो जमाना राजा नाच माते।

छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति म व्यावहारिक संस्कृति-संगीत के नवजागरण के पुरोधा, खुमान सर ल प्रणाम, ये शब्द मन ले -
जे तलक चंदैनी गोंदा दिखथे,
मेला-संस्कृति लोक चंदैनी दिखथे।

उत्ताधुर्रा चलत हंव कहय,
जम्मों कोती खुशबू गुदैनी दिखथे।

बिना चोंट कइसे हिरदे जख्मी होही,
चंदैनी गोंदा के चोंट-बान महमावतैनी दिखथे।

नइ सिराय ताउम्र जिनगी के सफर,
’साव-स्वर’ पड़ीस धरती म भुँइया चलैनी दिखथे।

अनेक रात के ठहरइ म का शिकायत,
स्वर-मुसाफिर ल समय थोरकैनी दिखथे।

मोती के रिहिस ’साव-स्वर’ के तमन्ना,
उदास दिल बर गोंदा-चंदैनी खुशमैनी दिखथे।
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संदर्भ:-
1. डाॅ. हिमांशु विश्वरूप, डाॅ. वीणा विश्वरूप - लक्षणगीतमन के विलक्षण विश्व, कला सौरभ, चतुर्दश अंक 2012, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, पृ.12।
2. प्रो. राधेश्याम जायसवाल - कलावंत अउ नायक तानसेन, कला सोैरभ, विश्वविद्यालय शोध पत्रिका, चतुर्दश अंक 2012, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, पृ.12।
3. वही।
4. भारतखंडे - पलुस्कर: शास्त्रीय संगीत का लोकतंत्रीकरण - रमाकांत श्रीवास्तव, अकार, अंक 46, संपादक - प्रियवंद, दिसंबर 16 - मार्च 17, पृ. 41।
5. वही, पृ. 32।
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पता:-
शंकरपुर, वार्ड 10, गली नं. 04
राजनांदगाँव (छ.ग.) 491441

बुधवार, 28 जून 2017

कविता

फिल्म - च च च (1964)
गीतकार - मक़दू़म मोइनुद्दीन
संगीतकार - इक़बाल कु़रैशी
गायक - आशा भोंसले, मोहम्मद रफी

इक चमेली के मंडवे तले
मयक़दे से ज़रा, दूर उस मोड़ पर
दो बदन प्यार की आग में जल गये

प्यार हर्फ-ए-वफा, प्यार उनका खु़दा,
प्यार उनकी चिता ......
दो बदन प्यार की आग में जल गये
इक चमेली के मंडवे तले

ओस में भीगते, चांदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताजा रूह, ताजा दम, फूल पिछले पहर
ठंडी-ठंडी सुबक रौ चमन की हवा
सर्फ-ए-मातम हुई, सर्फ-ए-मातम हुई, सर्फ-ए-मातम हुई
काली-काली लटों से लिपट, गर्म रूखसार पर
एक पल के लिए रुक गई
दो बदन प्यार की आग में जल गये
इक चमेली के मंडवे तले


हमने देखा उन्हें, दिन में और रात में, नूर-ओ-जुल्मात में
मस्जिादों के मीनारों ने देखा उन्हें
मंदिरों की किंवाड़ों ने देखा उन्हें
मयक़दे की दराड़ों ने देखा उन्हें, देखा उन्हें, देखा उन्हें
दो बदन प्यार की आग में जल गये
इक चमेली के मंडवे तले


ये बता चारागर, तेरी ज़म्बील में
नुस्ख-ए-कीमिया-ए -मोहब्बत भी है
कुछ इलाज-ओ-मुदवा-ए-उल्फत भी है
दो बदन प्यार की आग में जल गये
इक चमेली के मंडवे तले
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सोमवार, 26 जून 2017

व्यंग्य

व्यंग्य

सरकारी नमक


स्कूल के दिनों में अध्यापक ने मुहावरों के बारे में बताया था। तब कुछ समझ में नहीं आई थी। नमक और मिर्च से संबंधित कुछ मुहावरों, जैसे - नमक खाना, नमक हराम, जले में नमक छिड़कना, नमक-मिर्च लगाकर बताना, मिर्ची लगना आदि के अलावा कुछ याद नहीं रहा। नमक और मिर्च दैनिक उपयोग की चीजें हैं, इसी कारण ये मुहावरे याद रह गये होंगे। सोचता था - नमक तो सभी खाते हैं, मिर्ची तो सबको लगती है, नमक-मिर्च के बगैर खाने का कैसा स्वाद। पर किसी-किसी को ही क्यों लगती है मिर्ची? यह भी कोई बात हुई?

टी. व्ही. पर आनेवाले एक विज्ञापन से जाना कि नमकवाले टूथपेस्ट से दातों की बीमारियाँ ठीक हो जाती है। दर्द से राहत मिल जाती हैं। तो फिर जल जाने पर नमक छिड़कने से छालों और जख्मों के जलन और दर्द भी ठीक हो जाते होंगे। पर ऐसा होता है? कोई ऐसा भी करता है? 

समय के सााथ-साथ समझ भी कुछ-कुछ बढ़ती गई और इन मुहावरों के अर्थ भी कुछ-कुछ समझ में आते गये। इनके अर्थ जैसे-जैसे समझ में आते गये, मुझे अपनी समझ और बुद्धि पर तरस भी आने लगी। 

कुछ साल पहले की बात है। संयोग से शास्त्रीजी से मित्रता हो गई। भगवान भला करे। शास्त्रीजी की वजह से इन मुहावरों के अर्थ स्पष्ट हो पाये हैं। 

नमक के हिसाब से दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं - खिलानेवाले अर्थात नमकदार लोग और खानेवाले अर्थात नमकदीन लोग; या - नमक छिड़कनेवाले लोग और जले हुए जख्मी लोग जिनके जख्मों पर इसे छिड़का जाता है। मिर्च के हिसाब से भी दुनिया में दो तरह के ही लोग होते है - लगानेवाले और जिसे लगाया गया हो, झल्लाये हुए लोग। नमकदार लोग जब भी घर से निकलते हैं, नमक के पैकेट की बोरी लेकर ही निकलते हैं, जिस गली से गुजरते हैं, वहाँ के नमकदीनों को नमक बाँटते चलते हैं। 

आजकल की सरकारें नमकदार लोगों की सरकारें होती हैं। ये नमकदीनों को नमक खिला-खिलाकर खुश रखती हैं। नमक स्वाद से भरपूर हो, इसका असर दीर्घकालिक हो, इस बात का वे भरपूर ध्यान रखती हैं, ताकि खानेवालों पर इसका असर दीर्घकाल तक बनी रहे और काई नमकहरमी न कर सके। इस काम के लिए सरकारें नमकदीनों के मन में विश्वास पैदा करती हैं। अपनी नमक की गुणवत्ता का खूब प्रचार करती हैं। कहती हैं - ’हे नमकदीन भाइयों और बहनों! यह नमक बड़ी उच्च गुणवत्तायुक्त नमक है। इसका उत्पादन उच्च तकनीकवाले आधुनिक संयंत्रों में किया जाता है। उच्च मानकों पर इसकी गुणवत्ता का परीक्षण किया जाता है। इनके पैकेट्स और बोरी पर टेस्टेड, ओ. के. का प्रमाणपत्र चस्पा किया जाता है। इतना हो जाने के बाद ही इसे वितरण के लिए बाहर लाया जाता है।’ 

नमक बाँटने का काम पिछली सरकारें भी बड़ी संख्या में करती हैं। परंतु नमक गुणवत्तायुक्त नहीं रहती होगी। नमकदीनों को नहीं लग पाती होगी और वे हार जाती हैं। तब वे माथा पीट-पीटकर नमकदीनों को लानते भेजती हैं। ’साले सब नमकहराम निकले। किसी को नमक नहीं लगी।’ 

वर्तमान सरकारें चतुर, चैकन्नी और दिमागदार सरकारें होती हैं। पिछली सरकारवाली चूक वे नहीं करती। उच्च मानकोंवाली, उच्च गुणवत्तावाली, परीक्षित, टेस्टेड, ओ. के. प्रमाणपत्रवाली नमक ही बाँटती हैं। ऐसे नमक बाँटकर वर्तमान सरकारें एक तीर से दो निशाना साधती हैं। नमकदीनों को उपकृत तो करती ही हैं, पिछली सरकारों के जले में नमक छिड़कने का काम भी कर लेती हैं। 

सरकार की इस नमक में कुछ विलक्षण गुण होतें हैं - नमकदार लोग इसे बाँटकर और नमकदीन लोग इसे खाकर अपनी-अपनी नमक, और चेतना खो देते हैं। दोनों ही अवचेतन की अवस्था में चले जाते हैं। दोनों ही विचारशून्य हो जाते हैं। अच्छे-बुरे की पहचान की ताकत खो देते हैं। हमेशा नमक के इशारों पर नाचते रहते हैं। स्वयं को नमकदार समझने लगते हैं और आजीवन इसी भ्रम में जीते रहते हैं। इस भ्रम के कारण दुनिया का हर व्यक्ति इन्हें नमकहराम दिखने लगता है। ये जहाँ-तहाँ लोगों की नमकहरामी का रोना रोते फिरते रहते हैं। मरी हुई चेतना के कारण खाये हुए नमक की इन्हें याद नहीं रहती। 

नमक बाँटना और नमक खाना सामाजिक कृत्य भी है। नमक बाँटे बिना और नमक खाये बिना समाज नहीं चलता। हर आदमी कभी नमकदार तो कभी नमकदीन की भूमिका निभाता रहता है। समाज का यह नमक सरकारी नमक से भिन्न होता है। इससे चेतना मरती नहीं, विकसित होती है। विश्वास बनता है।

शास्त्रीजी सरकारी कोटि के व्यक्ति हैं। सरकार में नहीं हैं, पर उनकी अपनी सत्ता और सरकार है। सरकारी नमक बनाने की उनकी खुद की कंपनी है। वे यही नमक बाँटते और खाते हैं। सामाजिक नमक को भूलकर भी हाथ नहीं लगाते हैं। लिहाजा दुनिया उन्हें नमकहराम, विरोधी और दुश्मन नजर आती है।
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मंगलवार, 20 जून 2017

आलेख - भाषा एवं व्याकरण

’अनेक’ और ’अनेकों’ तथा ’मैं’ और ’हम’


अनेक विद्वान ’अनेकों शब्द के प्रयोग को गलत मानते हैं। तर्क यह है कि ’अनेक’ शब्द स्वयं बहुवचन शब्द है। बहुवचन का पुनः बहुवचन ’अनेकों कैसे हो सकता है।
’कई’ और ’बहुत’ भी ऐसे ही शब्द हैं। ये भी बहुवचन शब्द हैं। पर कई बार ’कई’ के बदले ’कइयों’ और ’बहुत’ के बदले ’बहुतों’ का प्रयोग किया जाता है। कइयों और बहुतों के प्रयोग को कोई गलत नहीं मानता। क्यों?
जैसे -
1. कई लोग झूठ बोलते हैं।
2. बहुत लोग झूठ बोलते हैं।
3. मैंने कई लोगों को झूठ बोलते देखा है।
4. मैंने बहुत लोगों को झूठ बोलते देखा है।
5. मैंने कईयों को झूठ बोलते देखा है।
6. मैंने बहुतों को झूठ बोलते देखा है।
आम तौर पर वाक्य क्रमांक 5 और 6 का प्रयोग हम करते हैं और इसमें हमें कोई गलती नजर नहीं आती।
क्या यहाँ पर ’कइयों’ और ’बहुतों’ का प्रयोग गलत है?

’सब’ और ’लोग’ शब्द भी बहुवचन शब्द हैं। और ’सबों’ तथा लोगों शब्द का भी प्रयोग प्रचलित है। इन शब्दों पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। तब अनेकों शब्द पर आपत्ति क्यों?

निम्न वाक्यों पर विचार कीजिए -
1. मैंने अनेक लोगों को झूठ बोलते देखा है।
2. मैंने अनेकों को झूठ बोलते देखा है।
क्या यहाँ वाक्य क्र. 2 में ’अनेकों’ शब्द का प्रयोग गलत है?

’मैं’ और ’हम’

अब ’मैं’ और ’हम’ सर्वनाम (सर्व अर्थात सब नामों के बदले प्रयुक्त शब्द सर्वनाम कहलाता है।) पर विचार करें। ’हम’ बहुवचन है ’मैं’ का। क्या ऐसा मानना सही है? दुनिया में हर व्यक्ति अपने नाम के बदले (अर्थात स्वयं के लिए) ’मैं’ का प्रयोग करता है। दुनिया में हर व्यक्ति अकेला है। दुनिया में किसी के समान और कोई दूसरा नहीं होता। तब ’मैं’ का बहुवचन कैसे संभव है? वास्तव में ’हम’ बहुत सारे ’मैंओं’ का समुच्चय है।
तब क्या बहुत सारे ’अनेक’ का समुच्चय ’अनेकों’ नहीं हो सकता?
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सोमवार, 19 जून 2017

उपन्यास के अंश

(अवइया छत्तीसगढ़ी उपन्यास  के अंश)

ख्याति

डोकरी दाई के चूंदीमन ह अब फुड़हर के रूईंकस झक् पंडरी हो गे हे। कनिहा ह नव गे हे। सत्तर ले उप्पर के हो गे होही तभी ले न अक्कल ह खंगे हे न गत्तर ह। गोटानी धरके दिनभर एती ले ओती किंजरत रहिथे। तरिया ले नहा के आ जाथे। नहा के आतेसाठ बटकीभर बासी निकाल के बइठ जाथे। बासी खा के अरोसी-परोसीमन घर घूमफिर के आ जाथे। अभीच्-अभी वो ह नंदगहिन घर कोती ले घूम के आय हे। सुतहूँ कहिके अपन खोली म खुसरिस हे, फेर नींद आय तब न। नतनिन के आरो लिस, आरो नइ मिलिस। मुँह ल मुरकेट के मनेमन किहिस - आगी लगे आज के लोग-लइका मन के पढ़ई-लिखई ल। जब देखबे तब, किताबेच् म मुड़ी गड़ाय रहीं। का मिलथे ते? किताब ह छुटही तहाँ ले दिनभर मुबाइल ल कोचकत रहिहीं। कोजनी का भराय रहिथे मुबाइल म ते। थोरिक देर थिरा के नतनिन ल हुँत कराइस - ’’अइ, सुनथस बेटी। ए ... खियाती।’’ 
नतनिन के कोनों आरो नइ मिलिस। डोकरी ह घुसिया के फेर चिल्लाइस - ’’ए ... खियाती ... , कान म पोनी गोंज के कते करा खुसरे हस रे रोगही। तोर रोना पर जातिस ते। नरी पिरा गे।’’
नतनिन ह अपन खोली म पढ़त रहय। डोकरी दाई के चिल्लई म पढ़ई ले धियान ह उचट गे। घुसिया के उत्ता-धुर्रा निकलिस। चिल्ला के किहिस - ’’का हो गे डोकरी? काबर बाँय-बाँय करत हस? बता?’’
डोकरी दाई ह घला अगियाबेताल हो गे। किहिस - ’’अई, हमला का हो गे हे रे बेंदरी। डोकरी कहिथस। कते करा हम डोकरी हो गे हन। डोकरी पोंसे हस हमला। डोकरी तो तंय होवत हस। कोन जाने तोर बिहाव ल कब करहीं ते? सरी उम्मर ह पहावत हे। थोरको अक्कल नइ हे तोर दाई-ददा मन ल। कब टारबे मुँहू ल इहाँ ले तंय। बुढ़तकाल म कते डौका मिलही तोला ते?’’ कहत-कहत डोकरी के सुर ह मद्धिम होगे। किहिस - ’’तोर उम्मर म हम दू झन लइका के महतारी बन गे रेहेन। दुनो ल गँवा डरेंव बेटी।’’ कहत-कहत डोकरी दाई के आँसू बोहाय लगिस। अँचरा म आँसू ल पोंछ के कहिथे - ’’गोठियाय के मन करथे बेटी, तोर संग नइ गोठियाहूँ त अउ काकर संग गोठियाहूँ, खियाती।’’
’’देख, देख! फेर खियाती कहत हस। खियाती-खियाती झन कहेकर हमला। हमर वइसने नाम हे का? डोकरी कहीं के।’’
’’अई! अउ का नाव हे तोर या? तोर दाई-ददा मन जइसन तोर नाव धरे हे, तइसने हम कहत हन दाई। खियाती, कहिके।’’
’’खियाती नहीं डोकरी, ख्याति, ख्याति। ख्याति, नइ कहि सकस का?’’
’’खाती, खाती केहेस वो?’’
ख्याति ह माथा ठोकत कहिथे - ’’हे भगवान! मरत ले नइ सीख सकस तंय ह, ख्याति केहे बर।’’ 
’’वइसने तो कहत हंव रे, ललबेंदरी। बेझवाथस काबर। हम का करबोन। तोर नावे ह टेड़गा-पेचका हे तेला?’’
’’हाँ, मोर नाम ह टेड़गा-पेचका हे। अउ तोर नाम ह बने हे? सुकारो?’’
’’सुकरार के जनम धरे रेहेन, तउन पाय के हमर सुकारो नाव धरिन। तोरे जइसे। सनीचरहिन नइ ते।’’
’’का सनीचरहिन?’’
’’अइ! सनीच्चर के जनम धरे हस, तउने पाय के तो सनीचरहिन कस हो गे हस रे, तोला गाड़ंव ते।’’
’’बस, बस! रहन दे। गड़ियाय के लाइक तो तंय ह हो गे हस। काबर चिल्लात रेहेस, तेला बता।’’ 
’’अइ, का करत रेहेस या?’’
’’पढ़त रेहेन।’’
’’का पढ़थस या रात-दिन?’’
’’बायलाॅजी।’’
डोकरी दाई ला ठट्ठा सूझिस। किहिस - ’’अइ, बइला ल पढ़थस वो? गोल्लर ल कब पढ़बे रे?’’
’’देख, तोर खंगे मत रहय डोकरी। सोझ-सोझ, बने-बने गोठियाय कर।’’
’’अइ! काबर गुसियाथस या। का कहि डरेन तोला। पढ ़के मास्टरिन बनबे का .., कहिके पूछथंव बेटी।’’
’’मास्टरिन नइ बनन, डाॅक्टर बनबोन।’’
’’डागदर बनबे! नरस बाई कस या?’’
’’हे भगवान! काबर बलाय हस तउन ल बोल न। मोर पास टाइम नइ हे। नर्स ह नर्स होथे, डाॅक्टर हा डाॅक्टर। समझे?’’
’’अई! नइ समझबो रे। निच्चट अड़ही-भोकवी समझथस हमला। बड़े-बड़े हस्पताल मन म बड़े-बड़े बीमारी के इलाज करथें, चीराबोंगा़ करके अजार ल निकालथें, तउन ल डागदर कहिथे।’’
ख्याति ह हाँस के डोकरी दाई के अक्कल ल सराहिस। बिस्कुट ल लुका के धरे रहय तउन ल डोकरी दाई के हाथ म धरा के किहिस - ’’पास हो गेस डोकरी। ये ले तोर इनाम। खियाती, खियाती कहिके काबर चिल्लाथस तउन ल महूँ जानथंव। अब जावंव?’’
नतनिन के मया ल देख के डोकरी दाई के आँखी ह फेर छलक गे। नतनिन ल छाती म ओधा के गजब आसीस दिस। किहिस - ’’तंय ह चल देबे, तहाँ ले कोन ह मोर सोर करही बेटी। सोच के मनेमन रोथंव वो।’’
’’तंय फिकर झन कर दाई! तोर जाय के पहिली मंय ह कहूँ नइ जावंव।’’
’’तब तंय ह मोर मरना ल खोजथस वो। अइ, डागदर बन जाबे तब तंय ह मोला बचाबे नइ या? बने मन लगा के पढ़ अउ झप ले डागदर बन।’’ डोकरी दाई ह ख्याति के मुड़ी म हाथ ल मढ़ा के आसीस दिस।
डोकरी दाई के मया-दुलार पा के ख्याति गदगद् हो गे। डोकरी दााई के पाँव पर के किहिस - ’’अब जावंव।’’
’’ले जा अउ मन लगा के पढ़। अउ सुनथस या, आज का खजानी मंगाय हस, तोर पापा ल?ं’’
डोकरी दाई के लालच ल देख के ख्याति ह अपन माथा ल धरलिस। किहिस - ’’हे भगवान, खाई-खजानी छोड़ के तोला अउ कुछू नइ समझे का वो। जावत हंव। बाय, बाय।’’
डोकरी दाई ह किहिस - ’’टार रे गड़उनी, तोर आंय-बांय ल।’’
डोकरी दाई ल कुड़कत देख के ख्याति ल हाँसी आ गे अउ हाँसत-हाँसत वो ह अपन खोली कोती चल दिस।
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शनिवार, 17 जून 2017

व्यंग्य

सरकार


बुद्धिजीवियों की एक विचारशाला चल रही थी। विचार का विषय था - सरकार। सरकार शब्द की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए एक विद्वान कह रहे थे, ’’सरकार शब्द की उत्पत्ति सरकाट शब्द से हुई है। प्राचीन समय में कुछ शक्तिशाली लोग भय पैदा करके समाज में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। भूमि सहित जीवन-यापन के सभी तरह के संसाधनों पर ये अपना स्वमित्व कायम कर लेना चाहते थे। इसके लिए वे निर्ममतापूर्वक अपने विरोधियों का सर काट देते थे। लोग अपने सर को कटने से बचाने के लिए ऐसे शक्तिशाली लोगों का आधिपत्य स्वीकार कर लेते थे। इस तरह समाज में अपना प्रभुत्व कायम करनेवाले शक्तिशाली लोगों के एक नये वर्ग का उदय हुआ। यह प्रभु वर्ग कहलाया और समाज पर शासन करने लगा। सर काटकर शासन करनेवाले इस वर्ग को लोग ’सरकाट’ कहने लगे। कालांतर में 'ट’ ध्वनि का उच्चारण ’र’ की तरह होने लगा और सरकाट का नया रूप सामने आया ’सरकार’। सरकाट अथवा सरकार शब्द मृत्यु का भय पैदा करनेवाला कठोर शब्द था। चूँकि प्रभु वर्ग शासन करनेवाला अथवा राज करनेवाला वर्ग था अतः जल्द ही सरकाट शब्द की जगह अपेक्षाकृत कोमल भावोंवाला शासक अथवा राजा शब्द प्रचलित होने लगा। धीरे-धीरे सरकाट शब्द निष्क्रिय होकर प्रचलन से बाहर हो गया।

आधुनिक युग में, जबसे लोग सभ्य समाज की अवधारण पालकर जीने लगे हैं, शासक अथवा राजा शब्द से उन्हें गुलामी की बू आने लगी है और उन्होंने पुनः सरकार शब्द को पुनर्जीवित कर लिया है। सरकार शब्द मूलतः सरकाट शब्द है, यह बात आज के लोगों को मालूम नहीं है। आज की सरकार चलानेवाला वर्ग तब का सर काँटनेवाला प्रभु वर्ग ही है; यह भी आज के लोगों को पता नहीं है। परंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लोगों का सर काँटने की सरकार की आदिम प्रवृत्ति आज भी उसके अवचेतन में कहीं न कहीं छिपी हुई है। जब कभी भी सरकार को अपनी प्रभुता संकट में दिखलाई देती है, वह अपना असली, आदिम, रंग-रूप दिखा देती है।’’

पहले विद्वान के इस वक्तव्य को विचारशाला में उपस्थित लागों का जोरदार समर्थन मिला। वक्तव्य की समाप्ति पर विचारशाला तालियों की गड़गड़ाहट से भर गयी। परंतु इस वक्तव्य को सुन-सुनकर विचारशाला में उपस्थित अन्य विद्वान वक्ताओं को अपच होने लगी थी। इनके पेट और दिमाग दोनों, भीतर ही भीतर कुड़मुड़ा रहे थे। उनकी खट्टी डकारों से इस तरह के शब्द निकल रहे थे - ’साला! सबको मूर्ख समझ रहा है। सरकार शब्द की उत्पत्ति सरकाट शब्द से हुई है। वाह! वाह भई वाह!’ पर उन लोगों की यह कुड़मुड़ाहट श्रोताओं की प्रचंड करतल ध्वनि की विकराल ऊर्जा कीे ताप से जलकर राख में परिवर्तित हुई जा रही थी। वे चाहकर भी इस वक्तव्य का खण्डन-मण्डन नहीं कर पा रहे थे। इस पर श्रोताओं के समर्थन की मुहर जो लग चुकी थी। मजबूरी में उन्हें भी ताली बजाकर इस वक्तव्य का समर्थन करना पड़ रहा था। 

अब दूसरे नंबर के वक्ता को माइक पर आमंत्रित किया गया। उसने बोलना शुरू किया - ’’मित्रों! सरकार शब्द की उत्पत्ति के संबंध में अभी हमारे विद्वान वक्ता ने जो अनुसंधानपरक विचार प्रस्तुत किया है वह सर्वथा नवीन और मौलिक है (किसी ग्रंथ में इसका संदर्भ ढूँढने का प्रयास न करें।)। सरकार शब्द की उत्पत्ति के संबंध में एक अवधारणा और प्रचलित है। यह नितांत भाषा वैज्ञानिक अवधारणा है। इस अवधारणा के अनुसार सरकार शब्द ’सरक’ और ’अर’, नामक दो क्रिया शब्दों के योग से बना है (सरक + अर = सरकार)। ’सरक’ का अर्थ होता है - सरकना या घसीटकर चलना (साँप के समान पादहीन जंतुओं का चलना), सामनेवाले को उसकी जगह से हटाकर स्वयं स्थापित हो जाने की प्रक्रिया, आदि आदि। ’अर’ का अर्थ होता है - अडना, अड़ाना, अटकाना, आदि आदि। जो सरक-सरककर, अटक-अटककर, कभी अटका-अटकाकर, कभी अड़कर और कभी अड़ाकर (टांग आदि) चलती हो, वह सरकार है।  सरकारों के चाल-चलन और उनकी प्रवृत्तियों में क्या इन अर्थों की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ दिखलाई नहीं पड़ती?’’

विचारशाला एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर गई। देर तक गूँजनेवाली यह गड़गड़ाहट कह रही थी - पड़ती है, जरूर दिखलाई पड़ती है। 

परंतु इस वक्तव्य को सुनकर विचारशाला में उपस्थित विद्वान वक्ताओं की दिमागी अपच अब आफरा में तब्दील होने लगी थी। अन्य वक्ताओं को माइक पर बुलाने का क्रम शुरू हुआ। अब तक ये सभी आफरा के शिकार हो चुके थे। अपना शोधपत्र प्रस्तुत करते हुए एक ने कहा - ’’मित्रों! सरकार शब्द की उत्पत्ति न तो ’सरकाट’ शब्द से हुई है और न ही ’सरक’ और ’अर’ में संधि होने से यह बना है। यह तो ’साकार’ शब्द से बना है। आप जानते ही हैं, भाषा के शब्दों को इस्तेमाल करने की लोक की अपनी शैली और तौर-तरीके होते हैं। लोक में प्रचलित होकर भाषा के बहुत सारे शब्द अपना रूप बदल लेते हैं। संस्कृत से पालि की उत्पत्ति ऐसे ही हुई है। लोक व्यवहार में आकर साकार शब्द ने भी अपना रूप बदल लिया और परिणाम स्वरूप ’सरकार’ शब्द की उत्पत्ति हुई। ’सरकार’ शब्द ’साकार’ शब्द का ही लोक प्रचलित रूप है। लोक की इच्छाओं और आकांक्षओं को जो साकार करे, वही सरकार है।’’ 

कार्याशाला पुनः तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठी। परंतु इस वक्तव्य से बैठे हुए वक्ताओं की आफरा असहनीय स्थिति में पहुँच गयी और खट्टी डकारों के गोले दनादन फूटने लगे। एक विद्वान वक्ता, जो अभी तक अपनी पारी की प्रतीक्षा में बैठा-बैठा बेचैन हो रहा था, एकाएक आक्रामक हो गया। मंच को उसने अपने आधिकार में ले लिया और माइक पर अपनी आफरा के गोलों का जबरदस्त विस्फोट कऱने लगा।  कहने लगा - ’’बकवास! सरासर बकवास। मित्रों! यह न भूलें कि यह विद्वानों की कार्यशाला है। यहाँ मनगढंत और हवाई बातें नहीं चलनेवाली। सरकार शब्द को सरकाट शब्द से पैदा करवानेवाले हमारे विद्वान मित्र कृपया बताएँ कि ऐसा किस ग्रंथ में लिखा हुआ है। यही बातें मैं उन मित्रों से भी पूछना चाहता हूँ जिन्होंने, सरक + अर और साकार शब्द का सिजेरियन डिलीवरी करवाकर सरकार शब्द को बर्थ सर्टीफिकेट दिलवाने का प्रयास किया है। मैं कहता हूँ, ये व्याख्याएँ गलत ही नहीं, मूखर्तापूर्ण भी हैं। सरकार शब्द की उत्पत्ति या तो ’सर’ में ’कार’ प्रत्यय लगने हुई है; जैसे ’बलात’ में ’कार’ प्रत्यय लगने से ’बलात्कार’ शब्द की उत्पत्ति होती है। या ’कार’ में ’सर’ उपसर्ग लगने से हुई है; जैसे ’कार’ में ’बे’ उपसर्ग लगने से ’बेकार’ शब्द की उत्पत्ति होती है। अथवा ’सर’ नामक उपसर्ग और ’कार’ नामक प्रत्यय, दोनों के एकाकार होने से सरकार शब्द की उत्पत्ति हुई है। .....

इस आक्रामक वक्ता की बातें पूरी हो पाती इसके पहले ही बैठे हुए सारे विद्वान और वक्तागण ’यक चतुर नार करके सिंगार ......’ गाने की तर्ज पर वाक्युद्ध पर उतारू हो गये। विद्वानों के इस वाक्युद्ध का श्रोतागण जमकर आनंद लेने लगे। मंत्रमुग्ध होकर वे जबरदस्त ढंग से तालियाँ और कुर्सियाँ पीटने लगे। विचारशाला तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूँजती रही। 

आयोजक महोदय ने विचारशाला को सुपर हिट घोषित किया। उपस्थित लोगों का आभर माना और सभा को समाप्त घोषित किया। बाहर आते हुए एक श्रोता कह रहा था - ’’क्या गुरू! मजा आ गया यार। फिल्म देखने जानेवाला था। साला पैसा भी जाता और इतना मजा भी नहीं आता।’’
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आलेख

भाषा और उसकी शुद्धता


1. शिष्ट और शालीन भाषा भी मारक और विचारोत्तेजक होती है। अतः भाषा में शिष्टता और शालीनता, का पालन तो होना ही चाहिए, चाहे कोई स्वान्तः सुखाय के लिए ही क्यों न लिखे। भाषा की शुद्धता अलग चीज है, इसका संबंध व्याकरण के नियमों से है। भाषा लोक द्वारा सृजित होती है। कालांतर में लोक द्वारा व्यव्हृत संस्कृत, शिष्ट समाज द्वारा व्यव्हृत संस्कृत से भिन्न रही होगी जो निश्चित रूप से अशुद्ध रही होगी, जिसका संकेत आपने भी अपने प्रश्न में किया है, लेकिन लोक व्यव्हृत इसी अशुद्ध संस्कृत से पालि और प्राकृतों का निर्माण हुआ और प्राकृतों से आज की उत्तर भारत की तमाम बोलियाँ और भाषाएँ अस्तित्व में आईं। भाषा के अशुद्ध प्रयोग से ही नई भाषाओं का सृजन होता है लेकिन यह काम लोक पर छोड़ देना चाहिए। साहित्य की जिन विधाओं में विभिन्न प्रकार के पात्र होते वहाँ पात्रों के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए भाषा की अशुद्धता उचित है परंतु किसी भी साहित्यिक की भाषा शुद्ध ही होनी चाहिए। भाषा की शुद्धता भाषा की संप्रेषणीयता को प्रभावित करती है। 
2. साहित्यकार या लेखक केवल स्वान्तः सुखाय के लिए ही साहित्य नहीं रचता। ऐसा कथन लेखक की चतुराई के अलावा और कुछ नहीं है।
3. संसार की क्लिष्ट भाषाओं में से हिंदी भी एक है। सामान्यजन की बात छोड़ दीजिए बहुत सारे लेखकों और कवियों (जिनमें मैं शामिल हूँ) की भाषाओं में, राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं की भाषाओं में, ढेरों व्याकरणिक अशुद्धियाँ होती हैं। लेखकों-कवियों की इन व्याकरणिक अशुद्धियों से किसी नयी भाषा का सृजन नहीं होनेवाली है। भाषा का सृजन करना कभी भी साहित्य का उद्देश्य नहीं होता। यह तो लोक और समाज का काम है।
4. भाषाई शुद्धता का आशय केवल व्याकरणिक शुद्धता से होनी चाहिए। आपका कहना पूर्णतः उचित है। भाषाई शुद्धता के नाम पर हिन्दी के प्रचलित शब्दों को भाषा के आधार पर छाँट-छाँटकर अलग कर दे तो अंत में हिंदी के पास कुछ बचनेवाला नहीं है। किसी विदेशी भाषा के शब्दों के प्रयोग से भाषा कभी भी अशुद्ध नहीं होती है।
5. अंत में भाषा की प्रवृत्तियों पर भी गौर कर लेना चाहिए कि आखिर भाषा क्या है - 
1. भाषा की अवधारणा विस्तृत है। इसे परिभाषित करना कठिन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा उच्चरित रूढ़ ध्वनि संकेतों की एक व्यवस्थित प्रणाली है। भाषा ’भाष्’ धातु से बनी है जिसका अर्थ होता है ’बोलना’। इससे मनुष्य अपने भावों और विचारों का परस्पर विनिमय करता है। मनुष्येत्तर प्राणी भी ध्वनि उच्चरित करते हैं, परन्तु वहाँ विचारों का अभाव होता है। भाषाविज्ञान में केवल मनुष्य की भाषा का संदर्भ लिया जाता है। शारीरिक, सांकेतिक अथवा कूट भाषा भी होती है परन्तु यह भी भाषाविज्ञान का विषय नहीं है।
2. भाषा माध्यम नहीं है।
यह अवधारणा बनी हुई है कि भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। विचार करें, आपको शाला जाना है। आपके पास शाला तक पहुँचने के लिए कई माध्यम हो सकते हैं जैसे - बस, टैक्सी, आटो, रिक्शा, मोटर सायकिल, सायकिल, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, पैदल आदि। माध्यम के विकल्प हो सकते हैं। यदि आप सामथ्र्य-हीन हों तो ये सभी विकल्प बेकार हैं। सोचें - भाषा का क्या विकल्प है? यदि बोलने की शक्ति आप में न हो तो क्या आप जीवित कहे जा सकते हैं?
3. भाषा एक चेतना है। 
जन्म लेते ही बच्चा यदि न रोए तो? 
मृत्यु का क्षण आते समय आपकी भाषा का क्या होता है?
4. भाषा एक व्यवस्था है।
भाषा एक व्यवस्था है इसीलिए इसकी ध्वनियाँ रूढ़ होती हैं। हिन्दी में जिस द्रव्य को हम पानी कहते हैं, उसे ही संस्कृत में जल, अंग्रेजी में वाटर और उर्दू में आब क्यांे कहा जाता है?
5. भाषा व्यक्तित्व होती है। 
भाषा हमारे व्यक्तित्व को व्यक्त करती है।
6. भाषा एक प्रतीक है।
7. भाषा एक अर्जित संपत्ति है। इसका निर्माण मनुष्य ने किया है।
8. मनुष्येत्तर प्राणियों के पास भी भाषा होती है पर वे सभ्य नहीं बन सके क्योंकि उनकी भाषा सहजात होती हैं, न कि निर्मित। मनुष्य की भाषा सृजित है। इसमें निरंतर विकास होता है। इसमें सृजनात्मक क्षमता होती है, इसीलिए मनुष्य में सभ्यता का विकास हुआ।
9. भाषा में सृजनात्मक क्षमता होती है। इससे ज्ञान का सृजन का, सभ्यता और संस्कृति का सृजन होता है।
10. इससे ज्ञान का, सभ्यता और संस्कृति का सृजन होता है। अतः यह एक वांग्मय है।
11. भाषा न तो कभी पूरी होती है और न ही यह कभी अधूरी होती है। इसमें प्रवाह होता है। यह निरंतर विकसित, परिवर्धित और संशोधित होती रहती है।
12. अंक भी भाषा की संपत्ति है। 
13. भाषा पुनर्सृजन का साधन है।
भाषा केवल अनुकरण के द्वारा नहीं सीखी जाती। यह पुनर्सृजन की प्रवृत्ति के द्वारा सीखी जाती है अतः यह पुनर्सृजन का साधन है।
14. भाषा सीखी नहीं जाती, रटी नहीं जाती, अर्जित की जाती है। 
प्रत्येक की अर्जन क्षमता भिन्न-भिन्न होती है इसीलिए सबकी भाषायी योग्यता भी भिन्न-भिन्न होती है।
इसका क्रम इस प्रकार होता है:- 
अधिगम (प्राप्ति) अथवा शिक्षण - अर्जन - सीखना।
(Teaching - Acqaring - Learing)
अर्जन करने और सीखने में अंतर -
अर्जन स्वायत्त और अनौपचारिक होता है।
सीखना औपचारिक।
15. अर्जन और सृजन क्षमता के अभाव में भाषा नहीं सीखी जा सकती।
16. मातृभाषा सीखना अन्य भाषा सीखने से अधिक कठिन होता है, क्योंकि इससे तीन चीजें एक साथ अर्जित की जाती हैं, एक साथ तीन चीजों का विकास होता है:-
अ. भाषिक विकास
ब. सामाजिक (सांस्कृतिक) विकास
स. संज्ञानात्मक विकास
ये तीनों चीजें केवल मातृभाषा में ही संभव होती है।
अन्य भाषा सीखते हुए हम केवल भाषा सीखते हैं।
17. भाषा के बारे में जानना और भाषा को व्यवहृत करना, दोनों भिन्न-भिन्न बातें हैं।
18. भाषा जल और जमीन के साथ मिलकर शोषण भी करती है।
19. शब्द को ब्रह्म कहा गया है।
शब्द (भाषा) आपका निर्माण करते हैं इसलिए यह ब्रह्म है।

20. भाषा और लिपि का कोई संबंध नहीं है। कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है और दुनिया की सभी भाषाएँ किसी एक ही लिपि में लिखी जा सकती हैं।
21. दुनिया की कोई भी भाषा जैसी लिखी जाती है, वैसी ही पढ़ी नहीं जाती।
22. व्यक्ति में एक जन्मजात भाषिक क्षमता होती है।
23. भाषा एक नियम संचालित अमूर्त तंत्र के रूप में होती है।
दुनिया की सारी भाषाओं की संरचना में समानता पाई जाती है. जैसे - ध्वनियों की संख्या 25 से 80 तक होती हैं।
- व्यंजन (Consonent) और स्वर (vocalic) ध्वनियों का समान पैटर्न पाया जाता है जिसे CVCV पैटर्न कहते है।
24. भाषा का अस्तित्व और विकास समाज के बाहर संभव नहीं है।
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बुधवार, 14 जून 2017

व्यंग्य

व्यंग्य

सरकार


बुद्धिजीवियों की एक विचारशाला चल रही थी। विचार का विषय था - सरकार। 

सरकार शब्द की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए एक विद्वान कह रहे थे, ’’सरकार शब्द की उत्पत्ति सरकाट शब्द से हुई है। प्राचीन समय में कुछ शक्तिशाली लोग भय पैदा करके समाज में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। भूमि सहित जीवन-यापन के सभी तरह के संसाधनों पर ये अपना स्वमित्व कायम कर लेना चाहते थे। इसके लिए वे निर्ममतापूर्वक अपने विरोधियों का सर काट देते थे। लोग अपने सर को कटने से बचाने के लिए ऐसे शक्तिशाली लोगों का आधिपत्य स्वीकार कर लेते थे। इस तरह समाज में अपना प्रभुत्व कायम करनेवाले शक्तिशाली लोगों के एक प्रभु वर्ग का उदय हुआ। यह प्रभु वर्ग कहलाया और समाज पर शासन करने लगा। सर काटकर शासन करनेवाले इस वर्ग को लोग ’सरकाट’ कहने लगे। कालांतर में ’ट’ ध्वनि का उच्चारण ’र’ की तरह होने लगा और सरकाट का नया रूप सामने आया ’सरकार’। सरकाट अथवा सरकार शब्द मृत्यु का भय पैदा करनेवाला कठोर शब्द था। चूकि प्रभु वर्ग शासन करनेवाला अथवा राज करनेवाला वर्ग था अतः जल्द ही सरकाट शब्द की जगह अपेक्षाकृत कोमल भावोंवाला शासक अथवा राजा शब्द प्रचलित होने लगा। धीरे-धीरे सरकाट शब्द निष्क्रिय होकर प्रचलन से बाहर हो गया।

आधुनिक युग में, जबसे लोग सभ्य समाज की अवधारण पालकर जीने लगे हैं, शासक अथवा राजा शब्द से उन्हें गुलामी की बू आने लगी है और उन्होंने पुनः सरकार शब्द को पुनर्जीवित कर लिया है। सरकार शब्द मूलतः सरकाट शब्द है, यह बात आज के लोगों को मालूम नहीं है। आज की सरकार चलानेवाला वर्ग तब का सर काँटनेवाला प्रभु वर्ग ही है; यह भी आज के लोगों को पता नहीं है। परंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लोगों का सर काँटने की सरकार की आदिम प्रवृत्ति आज भी उसके अवचेतन में कहीं न कहीं छिपी हुई है। जब कभी भी सरकार को अपनी प्रभुता संकट में दिखलाई देती है, वह अपना असली, आदिम, रंग-रूप दिखा देती है।’’

सोमवार, 5 जून 2017

व्यंग्य

परंपरा निभाने का दौर

इस कहानी को आज रात मैंने ख्वाब में देखा है। 

एक व्यक्ति को कुछ ताकतवर लोग जानवर की तरह पीटे जा रहे थे। पास ही जानवरों से भरा एक ट्रक खड़ा था। मार खानेवाला व्यक्ति मदद के लिए हृदयविदारक गुहारें लगा रहा था। परंतु उसकी मदद करनेवाला वहाँ कोई नहीं था। वह बार-बार पानी-पानी की करुण पुकार किये जा रहा था। परंतु पानी वहाँ किसी के पास नहीं था। उसे पानी देनेवाला वहाँ कोई नहीं था। 

आसपास तमाशबीनों की भीड़ जुट गई थी। इस भीड़ में कानून का एक रखवाला भी था जो बाद में मौका देखकर वहाँ से खिसक गया था। 

मारनेवाले बहुत थे और मार खानेवाला एक। मार खानेवाला व्यक्ति अब जमीन में गिरकर तड़पने लगा था। उसके मुँह और कानों से खून रिस-रिसकर सड़क पर फैलता जा रहा था। 

तभी एक चमत्कार हुआ। पता नहीं आसमान में कहाँ से और कैसे घने बादलों का झुण्ड आकर सूरज को ढंक लिया था। एक बिजली कौंधी थी और यह आवाज गूँजने लगी थी -’’ठहरो! खुदा के बंदों, ठहरो। इसे यूँ न मारो।’’

’’यह गो वंश का हत्यारा है। पापी है। इसे हम नहीं छोड़ेंगे।’’ मारनेवालों में से किसी ने उस आवाज का प्रतिकार किया।

’’पाप-पुण्य का फैसला मैं करता हूँ। हर इन्सान को मैं उसके कर्म के अनुसार फल देता हूँ। इन्सान की हत्या करना सबसे बड़ा पाप है। इस पाप से बचो।’’ आसमान को चीरते हुए फिर वही आवाज आई।

’’कौन है बे। साला! नाटक करता है। सामने आकर बात क्यों नहीं करता।’’ मारनेवालों में से किसी ने फिर उस आवाज देनेवाले को ललकारा। फिर तड़पते हुए उस व्यक्ति के मर्म स्थान पर एक घातक प्रहार किया।

इस प्रहार को तड़पनेवाला व्यक्ति सह नहीं सका और ठंडा पड़ गया।

फिर परंपरा निभाने का दौर शुरू हुआ। एक बिजली चमकी और जोरदार बारिश होने लगी। आसमान जैसे छाती पीट-पीटकर रो रहा था।
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शुक्रवार, 2 जून 2017

व्यंग्य

जाको राखे साईंयाँ


चोचं जी भगवान के बड़े भक्त हैं।  धर्म संबंधी बातों, यथा - आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, जीवन-मृत्यु जैसे विषयों के लिए उनके पास बहुत समय होता है। इस तरह की चर्चाओं में वे अक्सर कक्षाओं का बहिष्कार भी करते रहते हैं। ’जाको राखे साईंयाँ मार सके न कोय’ की उक्ति बात-बात में दोहराते रहते हैं।

उस दिन लंच का समय था और वे ईश्वर के संबंध में दिव्य बातें बता रहे थे। ईश्वर के स्वरूप और स्वर्ग के बारे में मेरे मन में बहुत दिनों से एक उलझन थी। चोचं जी जैसा दिव्य व्यक्ति ही इसको सुलझा सकते थे। मैंने कहा - ’’स्वर्ग नामक जिस लोक में ईश्वर निवास करते हैं वहाँ ईश्वर, लक्ष्मी और शेषनाग के अलावा और कोई निवास नहीं करता। शेषनाग तो ठहरे नंग-धड़ंग। परंतु ईश्वर और लक्ष्मी के सारे वस्त्र, और सारे आभूषण, और सारे आयुध पृथ्वीवाले ही प्रतीत होते हैं। वहाँ इन चीजों का उत्पादन नहीं होता क्या? मुझे तो ऐसे स्वर्ग की कोई आकांक्षा नहीं होती, जहाँ कोई काम-घाम नहीं होता।’’ 

चोचं जी विचलित हो गये। कहा - ’’पाप-पुण्य से कुछ डरा करो यार। ईश्वर के बारे में बेसिर-पैर की बातें करते हो।’’

’’डरता हूँ भाई! बहुत डरता हूँ। न मैं ईश्वर की जाति-बिरादरीवाला हूँ और न ही वे मेरे मित्र-संबंधी हैं। आपकी तरह अपनी हैसियत कहाँ?’’   
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व्यंग्य

मरकर लौटे हुए लोग


एक दिन चोचं जी ने अचानक मेरी ओर एक प्रश्न उछाल दिया। ’’मृत्यु क्या है?’’

इस असामयिक प्रश्न ने मुझे उलझन में डाल दिया। कुछ देर तक कोई उत्तर नहीं सूझा। परंतु जल्द ही संयत होते हुए मैंने कहा - ’’भाई! मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है। काल्पनिक और झूठी बातें कैसे कहूँ।’’

’’क्या मतलब? मृत्यु के संबंध में ग्रंथों में जो लिखा है, वह झूठा है? संत लोग जो बताते हैं वे सब काल्पनिक हैं?’’ चोचं जी ने धमकाते हुए कहा।

मैंने कहा - ’’नहीं तो। दरअसल मृत्यु के बारे में जानकारी देनेवाले सारे लोग मरकर लौटे हुए लोग हैं। इन मरे हुए लोगों को ईश्वर ने विशेष रूप से अपना अनुभव बताने के लिए यहाँ भेजा हुआ है।’’
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