बुधवार, 13 सितंबर 2017

व्यंग्य

हिंदी-हिन्दी

हमारे एक मित्र है, दूसरों की हिंदी का बेरहमीपूर्वक मजाक बनाते रहते हैं। एक दिन उनसे मिलना हुआ। मनोरंजन के रंग में थे। कहने लगे - ’भाई! थोड़ा जल्दी आना था यार। बहुत मजा आ रहा था।’’
’’क्या हो रहा था सर।’’
’’मनमौजी लाल जी आये थे।’’
’’कौन? शर्मा जी’’
’’सर्मा जी नहीं यार, सुक्ला जी।’’
’’अच्छा, अच्छा! ब्राह्मण पारावाले शुक्ला जी?’’
’’अरे! बाम्हन पारावाले नहीं भाई! स्रीवास्तो पारावाले। ... नहीं समझे, अरे वही - यल, यम, यन, यस, वाला। कुछ समझे?’’
’’अच्छा, अच्छा! वह था?’’
’’...... और सुनाओ, क्या चल रहा है। कुछ लिखना-पढ़ना हो रहा है?’’
’’हाँ सर, हो रहा है। पर बहुत दिनों से सुनना नहीं हुआ है।’’
’’अरे, तो सुना देते हैं न। सुनिये। कल ही लिखा है -

’सुर्ख लाल गाल, जर्द स्याह काले बाल हैं।
वादियों की घाटियों में खिले फूल लाल हैं।
घन मेघ गरजन गहन निशा तम अंधकार है।
लालिमा में कालिमा का कुलिश वज्र प्रहार है।’
क्यों, कैसी है?’’

इस कविता की भाषा से प्रभावित नहीं होता, इतनी ताकत मुझमें नहीं थी। उन्हीं के रंग में रंगते हुए मैंने कहा - ’’वाह! मजा आ गया, सर। क्या बेहतर उम्दा शब्दों का चयन चुनाव किया है आपने - सुर्ख लाल, जर्द स्याह काले, वादियों की घाटियों, घन मेघ, तम अंधकार, कुलिश वज्र। वाकई मजा आ गया।’’
’’कविता में वजन लाने के लिए जरूरी है, बंधु। अरे हाँ, जरूरी शब्द से दिमाग में ध्यान आया, एक अवार्ड पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में जाना है। चलता हूँ। फिर मिलेंगे।’’

अब तक उनके इन बेहद वजनी शब्दों के प्रहारों से मैं बुरी तरह आहत हो चुका था। कुछ राहत मिल पाती इससे पहले प्यारेलाल जी टपक गये। बोले - ’’गुरू, क्या बात है? उखड़े-उखड़े लग रहे हो?’’
’’सच कह रहे हो यार। एक महान उखाड़ू मिल गया था। उखाड़कर रख दिया भाई ने। क्या करें। आप सुनाइए, कैसे हैं?’’
’’अरे यहीं कहीं रेडीमेट कपड़े की दुकान ....... ’’
’’रेडीमेट कि रेडीमेड।’’
’’सचमुच उखड़े हुए हो यार। अरे एक ही बात है - रेडीमेट बोलो या रेडीमेड।’’
’’वाह।’’
’’अरे, आप तो हर शब्दों के पीछे पड़ जाते हो।’’
फिर टोकने जा रहा था - हर शब्दों, कि हर शब्द। पर और उखड़ने से बचना चाहता था। चुप रहा।
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रविवार, 10 सितंबर 2017

आलेख

मैं तुम लोगों से दूर हूँ 

                             - गजानन माधव मुक्तिबोध -
कुछ टिप्पणियाँ:-
गजानन माधव मुक्तिबोध की यह रचना समकलीन कविता की विशेषताओं और समकालीन कविता में निहित काव्य सौंदर्य की दृष्टि से आदर्श कविता है। यह कविता छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के 12वीं हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल है। कुछ अध्यापकों को इस कविता के अध्यापन में मुश्कििलें आ सकती है। यहाँ कुछ संकेत सूत्र रूप में दिये जा रहे हैं जो इस कविता को समझने में सहायक हो सकते हैं।  
(गजानन माधव मुक्तिबोध की इस कविता में शोषित और शोषक के बीच के वर्गीय असमानता; शोषितों के शोषित होने का कारण क्या है, शोषक शोषण करने में सफल कैसे हो जाता है; शोषक का जीवन सफल क्यों होता है, शोषित अपने जीवन में असफल क्यों रह जाता है, मजदूरों की दुख भरी दुनिया कैसी होती है; दुनिया से बुराइयाँ क्यों नहीं मिटती, आदि तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है।)

1.
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
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पद में प्रतीक योजनाएँ इस प्रकार हैं -
शब्द   - प्रतीक
मैं - दलित, शोषित और सर्वहारावर्ग  
तुम - सवर्ण, पूंजीपति, और शोषक वर्ग
दूर होना - जाति, वर्ग आदि विभिन्न स्तरों पर असमानता 
प्रेरणा - जीवनस्तर में भिन्नता, शैक्षणिक, वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि स्तर में भिन्नता
विष - अनुपयोगी, मूल्यहीन, त्याज्य, अस्पृस्य वस्तुएँ, 
अन्न - आजीविका का आधार
भावार्थ संकेत:-  इस पद में शोषित और शोषकवर्ग के मध्य असमानता का वर्णन किया गया है। असमानता की चरम स्थिति की विकटता को चित्रित करने के लिए यहाँ जिस भाषा व प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
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2.
मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किंतु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिंबित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
सबके सामने और अकेले में।
(मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में)
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पद में प्रतीक योजनाएँ -
शब्द                 - प्रतीक
असंग स्थिति - असंगठित होने की स्थिति
चलता-फिरता साथ - (मुहावरा) अस्थायी साथ होना, दिखावे मात्र के लिए एक साथ होना (काम की अवधि में)
साहचर्य का हाथ - आजीविका के लिए सहारा
तुम्हारे द्वारा गर्हित - मजदूरी मालिक तय करता है, और बात-बात में मजदूरों को अपमानित करता है 
बिंबित हैं, पुरस्कृत - दुखी और लाचार मजदूर इसी स्थिति को आपनी नियति मान बैठा है
सतत आघात - सतत् शोषण और अपमान
सामने और अकेले में - हर जगह और हर स्थिति में
रक्त भरे महाकाव्य - दुखों और अपमानों से भरा हुआ जीवन
पन्ने उड़ते है - दुख, अपमान और लाचारी में ही जीवन का अंत
झमेला         - संघर्ष
भावार्थ संकेत:- इस पद में शोषितों के असंगठित अवस्था को ही शोषण और अपमान का कारण बताया गया है।
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3.
असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किंतु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
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इस पद में प्रतीक योजनाएँ -
शब्द                 - प्रतीक
असफलता - गरीबी
धूल-कचरा ओढ़ना - अपमान, दुख और गरीबी से ग्रस्त होना
सफलता         - धन, सता, मान, प्रतीष्ठा आदि अर्जित करना
चक्करदार जीनों - पेचीदा और अनैतिक रास्ते
सीधी-सादी पटरी - सीधा-सरल जीवन
भावार्थ संकेत:-  इस पद में बताया गया है कि धनार्जन व धनसंचयन के लिए शोषक  सभी अनैतिक तरीके अपनाते हैं लेकिन मजदूर ऐसा छल करना नहीं जानता इसलिए वह असफल रह जाता है।
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4.
फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
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पद में प्रतीक योजनाएँ इस प्रकार हैं -
शब्द                 -  प्रतीक
दुनिया साफ करने - दुनिया से असमानता और बुराइयों को दूर करने
मेहतर         - बुराइयों से लड़नेवाला कोई महामानव 
भावार्थ संकेत:- इस पद में शोषितों और मजदूरों की कमजोरियों को उजागर किया गया है जो अपने दुखों के निवारण के लिए स्वयं कुछ नहीं करना चाहते, और इसके लिए किसी महामानव की प्रतीक्षा करते बैठे हैं।
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5.
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।
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भावार्थ संकेत:- उपरोक्त पद से संबंधित।
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6.
रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुखों का क्रम है
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इस पद में प्रतीक योजनाएँ इस प्रकार हैं -
शब्द                                 - प्रतीक
रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों - संपन्नता का प्रतीक 
शून्यों में                         - अभावों में
न्यूनों की पीड़ा                         - अभावजन्य पीड़ा
रहितों की व्रीड़ा                         - वंचित होने पर निराशा का भाव
भावार्थ संकेत:- इस पद में शोषित शोषकों से लड़ने में अपनी अक्षमता पर निराश होकर अपनी वर्तमान दशा को अपनी नियति मानने पर विवश है। ऐसे में उनके मन में दार्शनिक भाव जाग्रत होते हैं।
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7.
मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुरजे सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।
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भावार्थ संकेत:- इस पद में ’मैं’, अपनी पहचान उजागर करते हुए अपनी वर्तमान स्थिति का वर्णन करता है।
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