शनिवार, 19 मई 2018

कविता

(आम भारतीय परिवार के जीवनमूल्यों को अनावृत्त करती केदारनाथ सिंह की एक कविता)

नमक 


एक शाम शहर से गुजरते हुए नमक ने सोचा -
’मैं क्यों नमक हूँ’
और जब कुछ नहीं सूझा 
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में

घर सुदर था, जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में, और ठीक समय पर
जब सज गई मेज, और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इंतिजार कर रही हो

कि ठीक उसी समय
पुरुष, जो सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला - ’दाल फीकी है’

’फीकी है’, स्त्री ने आश्चर्य से पूछा

’हाँ, फीकी है - 
मैं कहता हूँ दाल फीकी है’ 
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा

अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक-दूसरे को ताकते हुए

फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी से उठ गये सब

न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका जरूर है
सब सोच रहे थे -
लेकिन वह क्या है?
000 केदारनाथ सिंह



शुक्रवार, 18 मई 2018

भाषा और व्याकरण

भाषा की प्रकृति


भाषा की प्रकृति विलक्षण है। यह स्वयं में सत्तासंपन्न होती है। यद्यपि यह समाज की निर्मिति है इसके बावजूद यह समाज और व्यक्ति का निर्माण करती है और उनकी योग्यताओं और चेतना के स्तरों को निर्धारित करती है, व्यक्त करती है। शायद इसीलिए कहा गया है - बंद मुट्ठी लाख की, खुल जाये तो खाक की। भाषा प्रवाहमान होती है अतः यह नित नया रूप भी धारण करती रहती है। इस प्रक्रिया में इसके शब्दों के पारंपरिक अर्थ भी बदलते रहते हैं। बहुत सारे शब्द प्रचलन से बाहर होकर विलुप्त भी हो जाते हैं। यह भाषा के शब्दों की मृत्यु है। बहुत सारी भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं और बहुत सारी भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं। इसके बहुत से कारक हो सकते हैं परंतु कुछ कारक ऐसे हें जिससे लगता है कि भाषा की हत्या हो रही है। इसके विपरीत, भाषाविज्ञानियों के अनुसार - भाषा परंपराओं के साथ मिलकर शोषण भी करती है। तो क्या भाषाएँ हत्या भी करती हैं? कहना न होगा कि भाषा का अपना बहुआयामी व्यक्तित्व भी होता है। इस मायने में यह स्यवं में किसी नागरिक से कम नहीं है। - kuber

बुधवार, 16 मई 2018

समीक्षा

विज्ञान और नींद- केदारनाथ सिंह 

विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है 

’विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है’, यह कथन, (मान्यता, निष्पत्ति अथवा निष्कर्ष - कौन सा शब्द सटीक बैठेगा, समझ नहीं पा रहा हूँ।) प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का है, जो उनकी कविता - विज्ञान औद नींद’ से लिया गया है। पूरी कविता इस प्रकार है -

विज्ञान और नींद

जब ट्रेन पर चढ़ता हूँ
तो विज्ञान को धन्यवाद देता हूँ
वैज्ञानिक को भी

जब उतरता हूँ वायुयान से
तो ढेरों धन्यवाद देता हूँ विज्ञान को
और थोड़ा-सा ईश्वर को भी

पर जब बिस्तर पर जाता हूँ
और रोशनी में नहीं आती नींद
तो बत्ती बुझाता हूँ और सो जाता हूँ

विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है।
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कविता पढ़कर मन में कुछ सवाल तैर जाते हैं, मसलन -
जिस अंधेरे में अच्छी नींद आती है, वह अंधेरा क्या विज्ञान का अंधेरा है?
जिस उजाले में अच्छी नींद नहीं आती है, वह उजाला क्या विज्ञान का उजाला है?
विज्ञान का अंधेरा क्या है और विज्ञान का उजाला क्या?
अंधेरे और उजाले का संबंध क्या केवल विज्ञान से है?
अंधेरे और उजाले का संबंध क्या ज्ञान से भी नहीं है?
विज्ञान की तरक्की और वैज्ञानिक सोच विकसित होने से पहले अंधेरा था और अजाला भी। तब भी तो लोग बत्ती बुझाकर, अंधेरे में ही सोते रहे होंगे। नींद और अंधेरे का संबंध तो विज्ञान की तरक्की के पहले से है।

एक संक्षिप्त टिप्पणी

केदारनाथ सिंह की इस कविता ’विज्ञान और नींद’ के प्रथम दो पदों का भावार्थ स्पष्ट है। तीसरे पद का भावार्थ इस प्रकार होना चाहिए -

समकालीन कविताओं में विचार सर्वोपरि होते हैं। समकालीन कविताएँ न सिर्फ व्यवस्था का पतिपक्षी होती हैं अपितु रूढ़ परंपराओं का अतिक्रमण भी करती हैं। कवि अपने विचारों को प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से व्यक्त करता है। ये प्रतीक कभी बड़े स्पष्ट होते हैं तो कभी बेहद संश्लिष्ट। इस कविता में भी ’विज्ञान’, ’नींद’, ’अंधेरा’ और ’उजाला’ प्रतीकात्मक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ ’अंधेरे’ और ’उजाले’ शब्द के पारंपरिक प्रतीकात्मक अर्थ ’अज्ञान’ और ’ज्ञान’ का अतिक्रमण हुआ है और इनके भावार्थों का विस्तार हुआ है। (संपूर्ण ब्रह्माण्ड स्वयंभू है और अपनी व्यवस्थाओं के तहत अपने ही नियमों और सिद्धतों का पालन करते हुए अपने संरचनात्मक अस्तित्व में विद्यमान है। ब्रह्माण्ड की व्यवस्थाएँ उसके नियम और सिद्धांत ही विज्ञान है। विज्ञान कभी अनुपस्थित नहीं रहा अपितु मनुष्य को ही इसकी जानकारी नहीं थी। जानकारी के अभाव में मनुष्य के लिए यह रहस्य बना रहा। अब तक इस रहस्य के अंश मात्र को ही समझा जा सका है।) विज्ञान का ’प्रकाश’ अपने विस्तारित अर्थ में ब्रह्माण्ड के रहस्यों का उद्घाटन है। यह उद्घाटन सदैव ही मनुष्य की  पारंपरिक मान्यताओं और आस्थाओं पर प्रहार करता रहा है। मनुष्य अपनी पारंपरिक मान्यताओं और आस्थाओं को खण्डित होते देख तिलमिलाता है। इस प्रहार, और तिलमिलाहट से उसे नींद कैसे आयेगी? अच्छी नींद के लिए वह विज्ञान के द्वारा उद्घाटित रहस्यों की सच्चाई को नकारता है। नकारता भी है और जीभरकर उसे कोसता भी है। इस प्रकार विज्ञान को नकारना ही अपने विस्तारित अर्थ में विज्ञान का ’अंधेरा’ है जो सोने के लिए, अच्छी नींद के लिए जरूरी है। विज्ञान हमें जगाता है और हमारी पारंपरिक मान्यताएँ और आस्थाएँ हमें जागने से रोकती हैं, सुलाती हैं।
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