रविवार, 22 जुलाई 2018

आलेख




इसे 28 जुलाई 2016 को पोस्ट किया गया था। आपके अवलोकनार्थ पुुनः।
 

’ठाकुर का कुआँ’ की ’गंगी’ बहनजी तथा ’दुखी’ की ’सद्गति’


कहा जाता है, महाभारत के रचयिता ’वेदव्यास’ के पास दिव्यदृष्टि थी इसीलिए महाभारत रचते वक्त वे महाभारत युद्ध के उत्तर और पूर्व की घटनाओं को देख-सुन सके। युद्ध के समय की श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद, पितामह-युधिष्ठिर संवाद और अन्य संवादों को सुन सके, घटनाओं को देख सके।

दृष्टि का संबंध देखने से है, घटनाओं को वे निसंदेह देखे होंगे। संवादों को भी तो उन्होंने सुना; अतः मेरी मूढमति कहती है कि इस महान ऋषि-कवि के पास केवल दिव्यदृष्टि ही नहीं दिव्यश्रवण भी रहे होंगे। श्रीमद्भागवतगीता के चतुर्थ अध्याय के 13वें श्लोक में उन्होंने भगवान से यह कहते देखा-सुना था -

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्ययम्।।
’’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णोंका समूह, गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।।13।।’’
(गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा सं. 2071 में प्रकाशित श्रीमद्भागवतगीता के 211 वें पुनर्मुद्रि अंक के चतुर्थ अध्याय (पष्ष्ठ 67) में 13वाँ श्लोक)

श्लोक में केवल ’चातुर्वण्र्यं’ का उल्लेख है; परन्तु उसके नीचे दिये गये अर्थ में अर्थकार द्वारा ’चातुर्वण्र्यं’ का विस्तार ’ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र’ के रूप में किया गया है। वर्णविभाजन रामायणकाल में भी और उससे पूर्व भी था। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ’चातुर्वण्र्यं’ के साथ ’सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।’

वर्णविभाजन संपूर्ण सृष्टि में कहीं और है भी या नहीं कोई नहीं जानता। परन्तु सभी जानते हैं कि इस प्रकार का वर्णविभाजन भारत के अलावा इस पृथ्वी में और कहीं नहीं है। तो क्या ’अविनाशी परमेश्वर’ की दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि का अर्थ केवल भारत ही है?

दिव्यदृष्टि और दिव्यश्रवण केवल दिव्यपुरुषों से संबंधित प्रसंगों को दिखाता और सुनाता होगा; गरीबों, दलितों की दुर्दशाएँ, आवाजें इससें कैसे देखी-सुनी जा सकती थी?

मेरी मूढमति एक बात और कहती है - दिव्यदृष्टि का आविष्कार केवल वेदव्यास के लिए ही नहीं किया गया होगा। इस पर वेदव्यास का ही एकाधिकार नहीं हो सकता; कवियों और लेखकों का यह एक सामान्य गुणधर्म है। हमारे युग के जनता के महान लेखक प्रेमचंद के पास भी दिव्यदृष्टि थी। प्रेमचंद की दिव्यदृष्टि वेदव्यास की दिव्यदृष्टि की तुलना में अधिक उन्नत, अधिक व्यापक, अधिक कार्यक्षम, और नीर-क्षीर विवेकी अर्थात आज की वैज्ञानिक भाषा में कहें तो उनकी डाटा एनालिसिस क्षमता अधिक, तर्कसंगत और विश्वसनीय लगती है। प्रमाण के तौर पर उनकी कहानी ’ठाकुर का कुआँ’ और ’सद्गति’ का पाठ किया जा सकता है।

’ठाकुर का कुआँ’ में गंगी का पति जोखू कई दिनों से बीमार है। ’’जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी। गंगी से बोला - यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है!’’

गाँव में दो ही कुएँ हैं - एक पर खूँखर ठाकुर का और दूसरे पर सूदखोर साहू का स्वामित्व है। इन कुओं का पानी ’’सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।’’

तीसरा जहाँ से ’’गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था।’’

तथाकथित ये सवर्ण और उच्चवर्णीय लोग कितने पुण्यात्मा, कितने ईमानदार और कितने सद्चरित्र हैं, इसे गंगी बखूबी जानती है। ’’गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!’’

गंगी का मन और उसकी आत्मा विद्रोही हैं परन्तु इस विद्रोह को कार्यरूप देना उसके लिए संभव नहीं है। वह जानती है - दुनिया में उनके लिए मानवता और न्याय कहीं नहीं है। कुएँ वाले ये सारे लोग बड़े निर्दयी और क्रूर हैं। ’’कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी।’’

हिम्मत करके वह ठाकुर के कुएँ पर पानी लेने पहुँचती है। परन्तु वह अच्छी तरह जानती है, इस भयावह अंधेरी रात में ठाकुर साहब के घर का दरवाजा खुल जाने का क्या मतलब होता है - ’’शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।’’

गंगी ने जान बचाकर खाली हाथ ’’घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।’’

जोखू जानता है - इज्जत खोकर, ठाकुर के चाबुकों की मार खाकर मरने की पीडा़ और यातना से मैला-गंदा पानी पीकर मर जाना बेहतर है। 

’सद्गति’ में इस वर्णव्यवस्था और इसके द्वारा स्थापित धर्म पर गहरी आस्था रखने वाले ’’दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।’’ धर्म और परंपराओं पर इतनी गहरी आस्था रखने वाले दुखी के लाश की यदि यही दुर्गति होना तय हो तो फिर ऐसे धर्म को ओढ़े रहने से क्या फायदा। जिस ईश्वर ने समाज को चार वर्णों में बाँटकर सामाजिक असमानता और शोषण की आधारशिला रखी, उस ईश्वर के शरणागत होने के क्या फायदे।

पानी जीवन है। इसका अर्थ आत्मसम्मान भी होता है और इस पर दलितों का कोई अधिकार नहीं है। जल रूपी जीवन और आत्मसम्मान ही नहीं आजीविका के अन्य सारे साधन उच्चवर्णीय दबंगों के कब्जे में है। भारतीय समाज की इस नग्न सच्चाई को प्रेमचंद अच्छी तरह देख रहे थे और लोगों को चेता भी रहे थे। उनका चेताना आज भी जारी है। ’कफन’ में घीसू के संबंध में उनकी इस टिप्पणी - ’’घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था।’’ का निहितार्थ क्या है? किसान जिस जीवन, इज्जत और आत्मसम्मान का दिखावा करते हैं, वह तो ओढ़ी हुई खाल है। वे भी तो अंततः उच्चवर्णीय दबंगों के ही रहमोकरम के मुहताज हैं। यदि जीवन, इज्जत और आत्मसम्मान अंततः उच्चवर्णीय दबंगों के ही कब्जे में जाना हो, उनके तलवे चाटना ही हो तो गुलामों की तरह दिन-रात पसीना बहाने और हड्डी तोड़ने के क्या फायदे। ऐसी किसानी और ऐसी मेहनत का क्या मोल, जो न तो आत्मसम्मान दिला सके और न हीं मनुष्य का जीवन, घीसू यह जानता था। धीसू का मेहनत मजदूरी न करना इस स्थिति के विरुद्ध उनका विरोध था।

पिछले पाँच हजार सालों से चली आ रही, उच्चवर्णीय दबंगों की मानसिकता आज भी वही है। उनके अनुसार - दलितों के आत्मसम्मान को कुचलना, उन्हें जीने के अधिकारों से वंचित रखना आज भी उनका ईश्वर प्रदत्त, पारंपरिक और सांस्कृतिक अधिकार है। वे हम दलितों को हर तरह से अपमानित कर सकते हैं, क्योंकि यह उनका पारंपरिक और सांस्कृतिक अधिकार है; और उनके इस अपमान को सहना हमारा पारंपरिक और सांस्कृति कर्तव्य है? जोखू के लोटे का सड़ा और बदबूदार पानी दरअसल पानी नहीं है, भारतीय समाज की सड़ी-गली परंपरा और संस्कृति है।

हमारे आत्मसम्मान और अधिकारों की रक्षा करने के लिए तब भी न कोई विधान था और न विधायक और न ही आज है। आज कुछ है भी तो सब उन्हीं के कब्जे में है। आज, हमारी बहनों के नाम गंगी हों या माया क्या फर्क पड़ता है? हमारे भाई चाहे सौ साल पहले के ’दुखी’ हो या आज के उना की सड़कों पर कार से बाँधकर घसीटे जाते वे युवक हों, क्या फर्क पड़ता है? वे इनका-हमारा अपमान कर सकते हैं, देश आंदोलित नहीं होगा, क्योंकि यह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। परंतु उनकी बहनों को नजर उठाकर हमारा देखना भी घोर अपराध और पाप है, देश में शिव का ताण्डव शुरू हो जायेगा क्योंकि यह हमारे पारंपरिक कर्तव्यों के विरुद्ध है। आखिर धर्मभक्ति ही तो देशभक्ति है?

हंस, जुलाई 2016 में संपादक महोदय ने देशभक्त और राष्ट्रवादियों का तर्कसंगत अंतर प्रस्तुत किया है। संपादक महोदय ने सरकार के दोमुँहेपन को भी बेनकाब किया है। लिखा है - ’’2 जून, 2015 तक शिक्षामंत्री दावा करती रहीं कि भगवाकरण का अरोप मिथ्या है, किंतु अब वे सब बेशर्मी से बोल पड़े हैं कि भगवाकरण सिर्फ शिक्षा का ही नहीं बल्कि चैतरफा होगा क्योंकि यह ’राष्ट्रहित’ में हैं, ....’’।

सोचना तो पड़ेगा ही, हमारी इस दयनीय हालत के लिए केवल और केवल हम ही जिम्मेदार हैं। जब सौ साल पहले ’गंगी’ और ’घीसू’ इस स्थिति का विरोध कर सकते थे तो आज हम क्यों नहीं कर सकते? ’सद्गति’ पाना हो तो सबसे पहले हमें अपनी पारंपरिक और अंध धार्मिक आस्था को त्यागना होगा। हमारे किसी भी तथाकथित धर्मग्रंथ में निन्यान्बे बाते अच्छी हों परन्तु एक बात भी मानवता विरोधी हो तो उसके शुद्धिकरण के लिए या तो उसे अग्नि को समर्पित कर दें या उसे गंदे नालों में प्रवाहित कर दें। अयोध्या में मंदिर बन जाने से उन्हें तो सत्ता मिल जायेगी, हमें हमारे अधिकार नहीं मिलेंगे, इस सच्चाई को मानना होगा।
कुबेर
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रविवार, 8 जुलाई 2018

कहानी

कहानी

अँधेरी रेखाओं में

- कुबेर

किसी विचार वीथी या अनमोल वचन स्तंभ के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा था कि - ’पान खाओ, लेकिन पान मत करो।’ मैंने इस वाक्य को गुरूमंत्र मानकर आज तक पान नहीं किया। लेकिन पान खाना मेरी दिनचर्या का वैसे ही अनिवार्य अंग बन चुका है, जैसे झूठे वादेकरना किसी नेता की दिनचर्या का अंग। कोई चाहे पान खाने के लाख हानिकारक प्रभावों का वर्णन करे और मैं पान खाने के एकभी गुण का बखान न कर सकूँ, तब भी मुझे दुनियावालों की (और घर में बीवी की भी) कोई परवाह नहीं है। वैसे ही, जैसे - कुत्ताभौंके हजार, हाथी चले बाजार। इस दृष्टि से मुझमें और नेता में चाहे अधिक अंतर न मालूम पड़े, पर आप विश्वास रखें, मैं इस श्रेणी का प्राणी कतई नहीं हूँ।

कई सालों के शोध के पश्चात् मैंने पान खाने के कम से कम दो फायदों का पता लगाया है। प्रथम यह कि एक रूपिया देकर अक्षतयोनिबाला-सी समाचार पत्र की नई प्रतियों को विक्षत करने का अधिकार प्राप्त कर लेना। द्वितीय यह कि पानठेला महज पानठेला ही नहीं होता है, यह एक सांस्कृतिक मंच भी होता है, जहाँ समाज के विभिन्न वर्ग के लोग आपस में मिलते हैं और सामाजिक, आर्थिक, राजनीति तथा साहित्य जैसे गूढ़ विषयों पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। देश की बहुमुखी प्रगति का पूर्ण विवरण यहाँ सहज, सुलभ हो जाता है, अर्थात यूँ कहें कि पान खाने से सामान्य ज्ञान कोश में वृद्धि होती है तो कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं होगी।

ठंड का मौसम समाप्ति पर था। फरवरी महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। घर के अंदर भले ही पंखा चलाकर सोना पड़े पर बाहर सड़कों पर बिना शाॅल, स्वेटर तथा मफलर के ठंड सहन-क्षमता से परे हो जाती है। नियमतः उस दिन भी मैं रात्रि-भोजन के पश्चात् पान खाने की इच्छा से चैकवाले पानठेले पर अकेला, टहलता हुआ चला आया। पानठेले को ढेलू राम ने दुल्हन की तरह सजा रखा था। छत पर शीशे की कारीगरी, ग्राहकों के सामनेवाली दीवार को लगभग पूरा ढंकता हुआ एक बड़ा-सा चैकोर शीशा तथा चारों दीवारों पर आयत बनाते हुए चार ट्यूब लाईटें; छत पर हरे, नीले, पीले व लाल बल्बों की चैकड़ी अलग। व्यवस्थित ढंग से सजे हुए सिगरेट्स व बीड़ी के विभिन्न ब्राण्स, माचिस के बण्डल्स, विभिन्न प्रकार की अगरबत्तियों के आकर्षक पैकेट्स, तम्बाकू के डिब्बे, पेन, कंघी, साबुन आदि अतिआवश्यक सामग्रियाँ, अपनी-अपनी चमक अपने-अपने ढंग से बिखेर रहे थे। इन सबके मध्य में बैठा था, पान की चुनी हुई पत्तियों पर चूने और कत्थे की डंडियाँ घुमाता हुआ ढेलू राम।
सुबह का समय होता तो ढेलू राम हाथ का उपयोग किए बगैर, बंदर के समान सिर को एक विशेष मुद्रा में, झटके के साथ नीचे झुका कर कहता ’नमट्कार गुरूदेव’। पान के बीड़े से मुँह भरा होने के कारण वह कभी भी शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता और हमेशा ’नमट्कार गुरूदेव’ ही कहता, लेकिन अभ्यस्त होने के कारण मैं हमेशा नमस्कार गुरूदेव ही सुनता। इस प्रकार का अभिवादन वह आज भी, प्रातः कर चुका था, अतः इस समय उन्होंने केवल पीक-भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया और कुछ ही क्षणों पश्चात् पान का एक बीड़ा मेरे हाथें में थमा दिया।

शर्मा जी जो कि स्थानीय हायर सेकेण्ड्री स्कूल में हिन्दी और संस्कृत विषय लिया करते थे, और जो सदैव पी.-एच. डी. करने का स्वप्न देखा करते थे, पहले ही ठेले के सामने पड़ी अपाहिज बेंच पर अपनी छः वर्षीय कथित कश्मीरी शाॅल को ओढ़े बैठे प्रातःकालीन अखबार में प्रकाशित सामग्रियों की, बाल की खाल निकालने में व्यस्त थे। उनके अनुसार, प्रसाद, पंत और निराला की छायावादी तथा मुक्तिबोध की प्रगतिवादी साहित्य से संबंधित उनके व्याख्यान को मेरे अलावा कोई दूसरा समझ ही नहीं सकता था, अतः मेरे मिलते ही वह प्रसाद और पंत की छायावाद, मुक्तिबोध की प्रगतिवाद और निराला के काव्य की स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों पर समन्वित रूप से आलोचनात्मक-समालोचनात्मक व्याख्यान देना प्रारंभ कर देता। मैं भी बिना कुछ समझे, समझने का स्वांग भरता हुआ, उनकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ, उनका व्याख्यान सुनता-सहता रहता, अथवा सुनने का उपक्रम करता रहता। न तो मैं, उसके मन में मेरी समझ को लेकर जो विश्वास बनी हुई थी, उसे तोड़ना चाहता था और न ही इस विषय पर अपनी अज्ञानता ही जाहिर होने देना चाहता था, अतः यह स्वांग बेहद जरूरी था। परंतु आज उनको अखबार के कालमों में खोया देखकर मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।

डेढ़-दो घंटे की सिरदर्दी व्याख्यान को सुनने से बच पाने और जल्दी घर वापस लौट पाने की प्रत्याशा में मैं मन ही मन पुलकित हो रहा था। तभी मेरी उम्मीदों पर घड़ों पानी फेरते हुए शर्माजी शुरू हो गये। अखबार में छपी एक कविता की ओर इशारा करते हुए शर्माजी भभक उठे - ’’अरे, यह भी साली कोई कविता है? लिखते हैं -
’सरल,
समानांन्तर, और
आड़ी-तिरछी रेखाएँ;

उलझे हुए परस्पर,
जिसमें से उभर-उभर आती है,
प्रतिक्षण एक नवीन आकृति।

एक के बाद दूसरी
आकृतियों का उभरना,
फिर मिटना
(एक सिलसिलेवार घटना)

परंतु इसके पूर्व कि -
मैं वांक्षित आकृति उभरती देख पाता
व्याप्त हो जाता है घोर तमस,
और बन जाता है वह वातावरण
जो सिनेमा हाॅल में हो जाता है निर्मित
अचानक लाइट के गुल हो जाने पर।’


महोदय, सुना आपने। अरे! बाल की खाल भी निकल आए, लेकिन भला कोई इसका अर्थ निकाल सकता है?’’

और घोर हिकारत के साथ नकारात्मक ढंग से अखबार के उस पन्ने को मोड़कर, एक ओर फेंककर, पान की पीक की पिचकी मारकर तथा खखारकर गला साफ करने के बाद वे अपने पारंपरिक ढर्रे पर आ गये। इधर मेरे दिमाग पर जैसे हथौड़े बरसने लगे। मेरी समझदारी इसी में थी कि यह सब मैं निःशर्त, निष्कामभाव से सहता चला जाऊँ। अपनी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैं अकारण इधर-उधर ताकने लगा। स्ट्रीट लाईट के सामनेवाले पोल की ट्यूब लाईट कई दिनों से फ्यूज पड़ी थी, जिसके कारण वहाँ पर कुछ अँधेरा छाया रहता था। यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन खंभे के नीचे गुदड़ी में लिपटी एक मटमैले ढेर पर मेरी निगाहें अटक गईं। मैंने सोचा, संभवतः कोई भिखारी होगा जो मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़ों से ठंड और अपने शरीर के मध्य अभेद्य दीवार खड़ी न कर सकने की स्थिति के कारण स्वयं सिर-घुटने मिलाकर गुटमुटाया हुआ ढेर हो रहा था। उस ढेर के अंदर कोई पुरुष ही होगा, यह कह पाना कठिन था। चाहे जो हो, शर्मा जी द्वारा अभी-अभी अखबार में से उद्धरित वह कविता अचानक मेरे मस्तिष्क में जीवंत हो उठी।

अपने विचारों में न जाने मैं कब तक खोया रहा। मेरी तंद्रा जब टूटी, शर्माजी और वर्माजी के बीच किसी विषय को लेकर तीखी झड़प छिंड़ी हुई थी, जैसे पानीपत की लड़ाई छिंड़ी हो। कुछ समय पश्चात् ही मैं समझ सका कि बहस देश की अर्थव्यवस्था पर छिंड़ी हुई थी। वर्माजी की अर्थशास्त्रीय व्याख्याएँ मेरी समझ से परे का विषय था। ऊपर-ऊपर की जो बातें मेरी समझ में आई उसका सारांश यूँ था -

वर्माजी के अनुसार विगत चार दशकों में देश के अंदर हर क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। गरीबों की भलाई के लिये बहुत कुछ किया गया है, और अब आमआदमी का जीवन-स्तर पहले से काफी ऊँचा उठ चुका है। जनसंख्या विस्फोट के बावजूद इतना सब कुछ हो पाना एक बड़ी उपलब्धि है।

शर्माजी इस तर्क का पुरजोर खंडन करते हुए खंभे के नीचे सोये उस भिखारी की ओर इशारा करते हुए कहने लगे - ’’क्या हमारे देश की आर्थिक विकास का यह जीवंत पहलू भी आप झुठला सकते हैं? कहिये।’’

वर्माजी को सामने की वह सच्चाई देखकर कोई उपयुक्त तर्क नहीं सूझ पाया होगा और वे चुप रहने पर विवश हो गये। शर्माजी के मुख-मंडल पर विजयी आभा दमकने लगी।

शर्माजी और वर्माजी की इन दलीलों को शायद वह ढेर भी ध्यान से सुन रहा था। अब, जबकि यह बहस समाप्त हो गई थी, शायद उसने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किया था। अचानक उसमें एक हरकत हुई और जोर से खखारने के बाद पच्च से ढेर सारा बलगम बगल में थूँक कर वह पुनः गुटमुटा गया। शायद समाज, सरकार और हम जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रति वह अपना तिरस्कार प्रगट करना चाहता हो। मुझे लगा, उसके थूँक में से ढेर सारे छींटें उड़कर हम सबके चेहरों पर आ पड़े हों। तथाकथित सभ्य समाज पर यह शायद उसका प्रहार था। मेरा मन अवसाद से भर उठा। झणभर के लिये हम सब सहम गये। उसके खखार की आवाज से मैंने अनुमान लगा लिया था कि वह मर्द नहीं औरत थी। खुले आसमान के नीचे अभिभावकहीन किसी औरत का खयाल आते ही मेरा मन विचलित होने लगा। इधर, इस इलाके में कई दिनों से मैंने किसी भिखारन को देखा नहीं था, लिहाजा मेरा जिज्ञासु मन, या सही मानों में मेरे मन की अतृप्त वासना, उसके वय, रंग-रूप, यौवन आदि की कल्पनाओं में खो गया। अपनी गिरी हुई इस हरकत पर मैंने स्वयं पर लानत भेजी। मेरा मन अब उखड़ चुका था।

मौन तोड़ते हुए एकाएक अग्रवालजी शुरू हो गये। उनके साथ हम सब विधानसभा भवन तथा संसद भवन के गलियारों के चक्कर न जाने कब तक लगाते रहे। राजनीतिक चर्चायें बराबर होती रहीं। परंतु चाह कर भी और कोशिश करके भी मैं अपना ध्यान उस ढेर पर से हटा नहीं पा रहा था।

एक मरियल, आवारा कुत्ता दुम हिलाता और कूँ, कूँ करता हुआ आकर उस ढेर से सटकर पसर गया। ढेर को कोई आपत्ति नहीं हुई। उसे निश्चित रूप से ऊष्णता की आवश्यकता थी और वह उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करना चाहता था, चाहे वह कुत्ते के शरीर से ही क्यों न हो। उसे रेबीज का भी भय नहीं था।

पानठेला बंद होने का समय हो चुका था। ग्राहक छँट चुके थे। धीरे- धीरे हम सब भी खिसकने लगे। निराला पर शोध करने वाले शर्माजी से न तो अपनी छः साल पुरानी तथाकथित कश्मीरी शाॅल उस भिखारिन को ओढ़ाते बनी और न ही पार्लियामेंट में गरीबों के उत्थान के लिये योजनाएँ बनानेवाले अग्रवालजी के मन में आया कि वह उस भिखारिन को पापुलर का एक पैकेट ही ले जाकर दे दे।

अर्थशास्त्री वर्माजी निश्चित् रूप से इस समस्या का हल माक्र्स आदि अर्थशास्त्रियों के सिद्धातों में ढूँढने लग गए होंगे।

चार साल की तैयारियों के बाद फुटपाथी तिब्बतियों की दुकान से खरीदी अपनी नई शाॅल को मैंने भी तह करके अपने बगल में दबा लिया। शायद मुझे अपनी ही भावुकता से भय होने लगा था। मैं उस ठंड का अनुमान लगा रहा था, जिसका उस भिखारिन ने आज तक सामना किया था, जिसका सामना आज भी वह करेगी और अभी आनेवाली कई रातों तक करती ही रहेगी।

सुबह-सुबह मेरी पत्नी बाहर गली में किसी पर बिगड़ रही थी। शोर से मेरी नींद टूट गई। रजाई के बाहर झाँकते हुए मैंने देखा - रूग्ण, क्षीणकाय और अधेड़ वय में ही बूढ़ी हो चुकी एक भिखरिन एल्युमिनियम का पिचका हुआ कटोरा लेकर दरवाजे पर बैठी खाँस रही थी। उसके चेहरे पर नवागत सूर्य की सुनहरी किरणें पड़ रही थी। मुझे रात का लैंपपोस्ट वाला वह दृश्य स्मरण हो आया। भिखारिन को प्रत्यक्ष देख कर मैं सहम गया। मुझे लगा कि उसके इस हालत के लिये औरों के अलावा मैं भी जिम्मेदार हूँ। मैंने भी उसके हिस्से का रोटी, कपड़ा और मकान उससे छीना है। उससे नजरें मिलाने की मुझमें हिम्मत नहीं हुई और मन में आये इस अपराध् ाबोध को छिपाने के लिये स्वयं को मैंने रजाई में छिपा लिया।
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कहानी संग्रह - ’उजाले की नीयत’ से अवतरित, कहानीकार - कुबेर