गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

कविता - आप क्या सोचते हैं

आप क्या सोचते हैं


दोस्तों और अपनों के बीच की
तेज, संबंध विदारक बहसें
संसद और सभाओं की
हिंसक, मान-संहारक, दलीलें
राजनीति की तमाम धार्मिकता
धार्मिकता की तमाम राजनीति
और इस आयोजन-प्रयोजन के निमित्त
धर्माचरणों, कर्मकांडों से प्रसूत
तमाम दृष्टिफोड़क धूल-धुएँ
शादी-समारोहों के
डी जे की हृदयाघाती महाशोर
क्रेता-विक्रेता और तमाशबीनों से भरे
बाजार की मतिहारक चिल्लपों
आधुनिक के आगे उत्तरआधुनिक के मेनहोल में
प्रवेश की प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होने
अपनों की उत्साहवर्धक ध्वनियाँ
मान-प्रतिष्ठा के संग्रहण में संलिप्त
महा सामाजिकों के जद्दोजहद के घर्षण
से निकलती कर्कश ध्वनियाँ
परिवार में परिजनों के स्वत्वों की टकराहट
और इस टकराहट की टंकारें
शिक्षकविहीन कक्षा में
बच्चों की शरारतों का
अनुशाशनहीनता और उद्दंडता में रूपांतरण
सोचता हूँ, इन सभी को
झाडू-बुहारी से बुहार देना अच्छा होगा
स्वच्छ भारत अभियान से इन्हें भी जोड़ देना उचित होगा
आप क्या सोचते हैं, दोस्त!
000कुबेर 000

रविवार, 17 नवंबर 2019

व्यंग्य - मूर्ख बुद्धिजीवी

मूर्ख बुद्धिजीवी

कल बुद्धिजीवियों के एक आयोजन में भागीदारी करने का अवसर मिला। मंचासीन विद्वानों का उद्बोधन सुना। अध्यक्षता कर रहे विद्वान ने भगवान बुद्ध की करुणा का उल्लेख करते हुए कहा कि नगर भ्रमण के दौरान वृद्ध, रोगी और शव को देखकर उन्होंने घर परिवार का त्याग किया।
कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मेरे एक खोजी मित्र ने उस विद्वान से कहा कि बुद्ध के गृह त्याग का मूल कारण शाक्य और कोलिय वंशजों के बीच रोहिणी नदी के जल बटवारे का विवाद था, न कि वह, जिसका उल्लेख अपने किया है।
उस विद्वान ने कहा - ठीक है। पर मूर्खों को समझाने के लिए मैंने जो कहा, वही मिथक ठीक माना गया है।
000kuber00

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

कविता - तो यह भी सही

तो यह भी सही


घरों में दुबके-सहमें लोग
दुख-दर्द बाँटते दहशत में हैं
और, मंदिर की  हे! मूर्तियो
कैसे तुम इतने हृदयहीन हो गये हो
बिना बतियाये पलभर भी रह नहीं सकते हो?
तुम जो भी करते हो
उसे लीला कही जाती है
साजिश में लीला
और लीला में साजिश, सब चलता है
यह कैसी साजिश है तुम्हारी?
यह मत कहो, कि
दहशत के मारों के प्रति
यह हमारी संवेदना है
संवेदना और उपहास का अंतर हमें पता है
मंदिर में प्रगट होनेवाली  हे! देवियो
तुम्हारे आशीर्वाद से बलात्कार कम नहीं होंगे
ये आशीर्वाद बलात्कारियों के लिए बचाकर रखो
कर सको तो
उनके भूखों का शमन पहले करो
तुम्हारे दूध पीने के चमत्कार का चमत्कार
अभी तक हम देख रहे है,
फिर भी,
मंदिर के, हे! देवताओ, हे! देवियो
आसमान नीला है
और धरती हरी-भरी
यदि तुम यह कहते हो
तो यह भी सही।
000kuber000

रविवार, 1 सितंबर 2019

कविता - सौंधी गंध

सौंधी गंध

अध्यापक कक्षा में कविता पढ़ा रहा था
उन्होंने कविता की इन पंक्तियों का पढ़ा -

’’वर्षा की पहली फुहार के साथ
मिट्टी की सौंधी-सौंधी गंध आने लगी।’’

एक छात्र ने पूछा -

’’सर! ये सौंधी-सौंधी गंध क्या होती है
कवि के भावों से तो लगता है
यह बहुत ही प्रिय और
मन को लुभानेवाली होती है?’’

अध्यापक ने कहा -

’’हाँ,
क्या तुमने इसका कभी अनुभव नहीं किया?
वर्षा ऋतु की पहली बूंदें
धरती पर जब पड़ती है
तब मिट्टी से उठनेवाली गंध ही
उसकी सौंधी-सौंधी गंध होती है।’’

छात्र ने कहा -

’’क्षमा करें महोदय!
मैंने तो इसे बहुत बार अनुभव किया है
कवि के अनुभवों में ही कहीं कुछ कमी है
क्योंकि
वह गंध तो बड़ी असहनीय होती है।’’

अध्यापक ने कहा -

’’प्रिय! सौंधी गंध का आनंद लेना हो, तो
शहर की अपनी कालोनियों से बाहर आओे
गाँवों और खेतों की ओर जाओ
वहाँ की मिट्टी
यहाँ की मिट्टी से भिन्न होती है
जिसकी गंध से आत्मा प्रसन्न होती है।’’

छात्र ने कहा -

’’महोदयजी! पुनः क्षमा करें
मैं गाँव से ही आता हूँ
गाँव की ही बात बताता हूँ
किसी बरसात में
कभी समय मिले तो
कवियों को लेकर आप ही
किसी गाँव में जाइए
गाँवों की हालत खुद देखिए
और, कवियों को भी दिखाइए

खेतों की मिट्टी से अब
सौंधी-सौंधी गंध नहीं
आत्महत्या करनेवाले किसानों के
सड़ते हुए शरीर की बू आती है
हो सके तो
दुनियावालों को यह हकीकत जरूर बताइए।’’
000

कविता - राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द

राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द

हे राजन!
तुम महान् हो।

इस धरती पर तुम ईश्वर के रूप हो
इसलिए नहीं
इसलिए कि
ईश्वर जैसे विवादित अवधारणा से परे
अवधारणा नहीं तुम एकमात्र यथार्थ हो

कर नहीं सकता कोई दोष तुम्हें दूषित
हो नहीं सकता कोई पाप तुम पर साबित
नैतिकता और कानून से तुम मुक्त हो
सांसारिक अपराधों से असंपृक्त हो

तुम्हारे सलाहकार और मंत्री भी
उतने ही दिव्य हैं
क्योंकि,
वे ही देश हैं
वे ही दरवेश हैं
उनके लिए
जनता हव्य और औरतें भोग्य हैं
तुमसे भी अधिक वे योग्य हैं

हे राजन! तुम महान हो।
तुम ही ज्ञेय हो, तुम ही ज्ञान हो।
000


कविता - मांग और आपूर्ति

मांग और आपूर्ति

सेठजी ने अपने
बिजनेस मैनेजमेंट के परास्नातक
कमाऊ पूतों से कहा -

’आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं
हमारे लिए सेवा के
नये-नये सेक्टर खुल रहे हैं
अवसर को हाथों हाथ लो
आत्महत्या के पीड़ारहित और
सरल तरीकों का तत्काल ईजाद करो
उत्पाद तत्काल पेश करो।’

और एक के साथ एक फ्री वाले विज्ञापनों के साथ
आत्महत्या के पीड़ारहित और सरल उत्पादों से
बाजार गुलजार हो गया है -
जनता पर मेहरबान हो गया है
जीने की तुलना में
लोगों का मरना, अब आसान हो गया है।
000

कविता - अब से पहले

अब से पहले


आदमी जब नहीं जानता होगा
आग पैदा करना
ठंड तब लोगों को इतना ठिठुराती नहीं होगी
ठंड से ठिठुरकर तब
मानवता मरती नहीं होगी
आग सबके दिलों में रहती होगी

आदमी जब नहीं जानता होगा
रोशनी पैदा करना
अंधेरा तब इतना घना नहीं रहता होगा
अंधेरों में रिश्तों के खो जाने के खतरे
तब नहीं ही रहे होंगे

आदमी जब नहीं जानता होगा
अस्त्र-शस्त्र बनाना
इतनी असुरक्षा तब नहीं रही होगी
भय तब इतनी घनीभूत नहीं होती होगी -
आदमी के अस्तित्व में
नहीं करता होगा कभी आदमी,
आदमी का शिकार

आदमी जब नहीं जानता होगा
पहिया बनाना
आदमी के चलने की गति
अधिक रही होगी
हमसे पहले पहुँच जाया करता होगा
पड़ोसियों के घर वह
वक्त-जरूरत पर संबल बनकर

आदमी जब नहीं जानता होगा
खेती करना और अन्न उगाना
भूखा कोई सोता नहीं होगा,
आज की तरह
आँतों की भूख
इतनी पीड़ादायक नहीं होती होगी
भूख से मरता नहीं होगा कोई

आदमी जब नहीं जानता होगा
लिखना और पढ़ना
अशिक्षित इतने,
तब वे नहीं रहे होंगे
अच्छी तरह लिख और पढ़ लेते होंगे
प्रेम के ढाई आखर को

आसमान से टपकने से पहले
वेदों, धर्मग्रंथों और पोथियों के
ज्ञान का इतना अभाव नहीं रहा होगा

धर्मों के अभ्युदय से पहले
नहीं रही होगी
अधर्म की ऐसी प्रतिष्ठा

सभ्यता विकसित होने से पहले
असभ्यता इतनी नहीं रही होगी।
000कुबेर000

कविता - नयी स्थापना

नयी स्थापना



शनिवार, 3 अगस्त 2019

कविता - राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द

राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द


हे राजन!
तुम महान हो।
इस धरती पर तुम ईश्वर के रूप हो
इसलिए नहीं 
इसलिए कि
ईश्वर जैसे विवादित अवधारणा से परे
अवधारणा नहीं तुम एकमात्र यथार्थ हो
कर नहीं सकता कोई दोष तुम्हें दूषित
हो नहीं सकता कोई पाप तुम पर साबित
नैतिकता और कानून से तुम मुक्त हो
सांसारिक अपराधों से असंपृक्त हो
तुम्हारे सलाहकार और मंत्री भी
उतने ही दिव्य हैं
क्योंकि,
वे ही देश हैं
वे ही दरवेश हैं
उनके लिए
जनता हव्य और औरतें भोग्य हैं
तुमसे भी अधिक वे योग्य हैं
हे राजन!
तुम महान हो।
तुम ही ज्ञेय हो
तुम ही ज्ञान हो।
000
कुबेर

कविता - जमुनिया के डार

जमुनिया के डार: धनी धर्मदास के गीत

जमुनिया के डार मोर टोर देव हो ।
एक जमुनिया के चउदा डारो, सार सबद लेके मोर देव हो।
काया कंचन अजब पियाला, नाम बूटी रस घोर देव हो।
सुरत सुहागिन गजब पियासी, अमरित रस में बोर देव हो।
सतगुरू हमरे गियान जौहरी, रतन पदारथ जोर देव हो।
धरमदास के अरज गुंसाई, जीवन के बंदी छोर देव हो।

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

आलेख - वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं

वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं

प्रकृति के अकाट्य सत्य को अनावृत्त करते हुए डार्विन का सिद्धांत ’’समर्थ का जीवन या प्राकृतिक वरण (¼survival of fittest or natural selection½) कहता है कि - जीवन संघर्ष के फलस्वरूप अधिक सफल जीवनव्यतीत करनेवाले जीव ही समर्थ और योग्य हैं तथा वे ही प्रकृति में जिंदा रहकर अपनी संतानों को पैदा करते हैं। निर्बल पराजित होकर नष्ट हो जाते हैं। 

मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में यत्रतत्र इसी सिद्धांत की झलक दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में शोषकों और शोषितों की पहचान अत्यंत स्पष्ट हैं। सबसे बड़ा शोषक लोगों की धर्मभीरुता है जिसकी आड़ लेकर - ब्राह्मण, ठाकुर और लाला जैसे उच्चवर्ग के लोग गरीब किसानों और दलित मजदूरों का शोषण करते हैं। कुछ उदाहरण देखिए - 

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा - वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला - हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?  (कफन)
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शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, ‘अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगेय वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ’महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।’

विप्र -‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो?’

शंकर -‘मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा!’ (’सवा सेर गेहूँ’)
0
दलित और किसान ही उनकी अधिकांश कहानियों और उपन्यासों में शोषित हैं। उनकी रचनाओं में महतो, कुरमी, अहीर और गड़ेरिया जाति के लोग ही किसान हैं जबकि संपूर्ण दलित जातियाँ मजदूर के रूप में चित्रित किये गए हैं। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में शोषण के विरुद्ध संघर्ष का संदेश देते हैं। उनकी रचनाओं में पुरुष पात्रों की तुलना में स्त्री पात्र शोषण का विरोध करने में अधिक मुखर हैं। कुछ उदाहरण देखिए -

पन्ना को चारों ओर अंधेरा- ही- अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुन्दर थी, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। (’’अलग्योझा’’)
0
मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये। मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला - तो क्या गाली खाऊँ ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा - गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था। (पूस की रात)
000
kuber

शनिवार, 27 जुलाई 2019

चित्र कथा-प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीय किसान’

पुरवाही साहित्य समिति पाटेकोहरा, राजनांदगाँव द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में ’प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीय किसान’’विषय पर विचार व्यक्त करते हुए - स्थान-चिचोला, दिनांक 27 जुलाई 2019

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

कविता - गोवर्धन परतेती

अतीत की यादें

गोवर्धन परतेती


आज भी याद है मुझे
मेरे बचपन की बातें
वृक्षों के झुरमुटों से आती
पक्षियों की, कलरव की आवाजें

बार-बार आकर्षित करती थी हमें
बेर और छिंद के पेड़ों की शाखाओं से
लटकते हुए, तिनकों से बने
और हवा के झोकों में
हिंडोले की तरह झूलते हुए
उन पक्षियों के अनगिनत घोसले

प्रकृति जैसे लोरी गा-गाकर
दुलार रही होती थी,
पाल रही होती थी,
सुला रही होती थी,
सृष्टि की रचना को पूर्णता देनेवाले
उन घोसलों में पलते हुए, नवागंतुकों को

घोसलों से आती चीं-चीं की मधुर आवाजें
अक्सर हमें पुकारती हुई आवाजें लगती
और हम लपककर चढ़ जाया करते थे
वृक्ष की उन शाखों पर
जिनमें झूल रहे होते थे वे हवामहल
और अपनी माँओं की प्रतीक्षा में
अधीर होते हुए उन बच्चों को
देख आते थे,
माँओं की प्रतीक्षा के वे पल कैसे होते हैं
क्या होती है माँओं की प्रतीक्षा की विकलता
महसूस कर आते थे।
0
पक्षियों के वे कलरव
सुबह-सुबह जो
नींद से मुझे जगाया करते थे
आज भी संगीत बन कर उतरते हैं
मेरी कविताओं में


मेरी कविताएँ जीवन पाती हैं
चीं-चीं की उन्हीं आवाजों से।

अब, न तो पेड़ों के वे झुरमुट रहे
और न कलरव की वे आवाजें
उजड़े हुए पहाड़ों से घिरा हुआ मेरा गाँव
नीरस और बेजान लगता है
जंगलों और झुरमुटों के बिना
पक्षियों के उन कलरवों के बिना।
0
तब
जब हम मित्रों की टोली गुजरती थी
इन्हीं पहाड़ों के बीच बनी पगडंडियों से
बेर, इमली, चार, तेंदू, आम और महुए
जैसे हमारी प्रतीक्षा कर रहे होते थे
अंजुरियों में ढेर सारे मीठे-मीठे फल लिये हुए
कि, बच्चो! आओ, ये सब तुम्हारे लिए ही हैं

इसी तरह, इन्हीं पगडंडियों से होकर
गुजरे होंगे कभी राम भी
और शबरी ने खिलाया था उसे
यही, मीठे-मीठे बेर

हम शबरी के वंशज
कैसे भूल जायें भला
शबरी की उस परंपरा को?

पर अब नहीं रही
शबरी की वह परंपरा भी।
0
तब, हमारे बस्ते भरे होते थे,
तेंदू के मीठे फलों से
यह हमारा मध्याह्न भोजन हुआ करता था
एक-दूसरे के बस्ते से चुराकर खाना,
इन फलों को
और फिर इसी बात पर झगड़ना
अपूर्व अनुभव होता था हमारा

हमारे इस झगड़े को सुलझाते हुए हमारे गुरूजन
गुरूदक्षिणा में मांग लिया करते थे
बस्तों में भरे हुए इन्हीं फलों को

वशिष्ट और विश्वामित्र ने भी तो
मंगा होगा इसी तरह गुरूदक्षिणा, राम से।
0
हमारे खेतों में आनेवाली हरियाली
और अन्न के दानों में संचित अमृत
इन्हीं जंगलों, इन्हीं पेड़ों
और इन्हीं रास्तों से ही होकर आते हैं
पर हाय!
नहीं रहे अब वे पेड़ और जंगल
अब है वहाँ जहर उगलते हुए कारखाने

पक्षियों के वे घासले भी नहीं रहे
नहीं रहे अब
बेर, इमली, चार, तेंदू, आम और महुए
शबरी की परंपरा को निबाहने के लिए।
0
जब भी मैं रोपता हूँ
बेर, इमली, चार, तेंदू,
आम और महुए का कोई पौधा
रोपता हूँ मैं पुनः
शबरी की उसी परंपरा को
गुरूदक्षिणा की उसी परंपरा को।
000
गोवर्धन परतेती 









रविवार, 7 जुलाई 2019

आलेख - छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग से अपेक्षाएँ

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग से अपेक्षाएँ 


ककरो ले होवय, कोनो तरह के घला होवय, अपेक्षा पाल लेना अपन आप म दुख के कारण बनथे। 1 नवंबर 2000 के दिन जब छत्तीसगढ़ राज के गठन होइस अउ हमन अतका उत्साहित हो गेन कि वो उत्साह म जतका अपेक्षा हमन पालेन, वोकर पालन होना अतका आसान नइ हे। 1 नवंबर 2000 के दिन ले अब तक के समय ल मंय हर अतिउत्साह काल के रूप म देखथंव। इहीे उत्साह के सेती आज गाँव-गाँव कवि-साहित्यकार के बइहापूरा आ गिस। बने हे, फेर खाली कविता, अउ वहू हर बिना कोनो विचारधारा के, साहित्य के भण्डार म बढौतरी तो करत हे फेर एकतरफा। गद्य के बिना साहित्य के भण्डार हर कइसे समृद्ध होही? सोचव।

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग हर सरकारी तंत्र हरे। कोनो स्वायत्त संस्था नोहे। वोकर तीर संसासन के कमी हे। बजट खातिर अउ हर बात खातिर सरकार के मुँहू ताके बर पड़थे। छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग अधिनियम 2010 के धारा 3.2 म लिखाय हे कि आयेग के अध्यक्ष ल मिलाके येमा 4 सदस्य होही। येमा संशोान होय होही वोकर जानकारी मोला नइ हे। अध्यक्ष अउ सदस्य के नियुक्ति हर सरकार के कृपा ऊपर निर्भर हे। सरकारी कृपा ले जिंकर नियुक्ति होही वोमन कतका खुल के काम कर सकहीं, सोचे के बात हरे अउ अइसन आयोग ले कुछू अपेक्षा करना मतलब अपन आप ल दुखी करना हे।

आप जानथव, अलग तेलंगाना राज खातिर उहाँ के मन हर देश के आजादी के समय ले लड़ाई करत आवत रिहिन पन वोमन ल हमर ले पीछू अलग तेलंगाना राज मिलिस। अलग छत्तीसगढ़ राज खातिर हमरो सियान मन हर, डाॅ. खूबचंद बघेल हर, आंदोलन करिन, फेर हमला वोतका लड़ाई लड़े के जरूरत नइ परिस। तब के माननीय प्रधान मंत्री अटल विहारी बाजपेयी हर बहुत आसानी ले हमला छत्तीसगढ़ राज दे दिस। हमन वोकर गुन गाथन। फेर येकर पीछू वोकर मूल मंशा का हो सकथे, येकर बारे म कभू हम सोचथन?

छत्तीसगढ़ राजभाषा (संशोधित) अधिनियम 2007 हर 28 नवंबर 2007 म विधान सभा म पारित होइस। येकर मतलब साफ हे कि छत्तीसगढ़ी भाषा ल राजकाज के भाषा के रूप म मान्य कर ले गिस। ये अलग बात हरे कि छत्तीसगढ़ी भाषा हर आज तक राजकाज माने कार्यालय के भाषा नइ बन पाय हे। 

11 जुलाई 2008 म ये अधिनियम के प्रकाशन हर छत्तीसगढ़ राजपत्र म होइस। 14 अगस्त 2008 म छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के गठन होइस। 2/3 सितंबर 2010 म छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग अधिनियम 2010 के प्रकाशन छत्तीसगड़ राजपत्र म होइस। छत्तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम 2010 के प्रस्तावना म ये लिखाय हे -
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग अधिनियम 2010

प्रस्तावना
राज्य के विचारों की परंपरा, राज्य की समग्र भाषाई विविधता के परिरक्षण, प्रचलन और विकास करने तथा इसके लिए भाषायी अध्ययन, अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, सृजन तथा अनुवाद, संऱक्षण, प्रंकाशन, सुझाव तथा अनुशंसाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी पारंपरिक भाषा को बढ़ावा देने हेतु शासन में भाषा के उपयोग को समुन्नत बनाने के लिए ’’छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग’’ का गठन करने हेतु अधिनियम। 
भारत गणराज्य के इकसठवें वर्ष में छत्तीसगढ़ विधान मंडल द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो: -
PREAMBLE
An Act to constitute the "Chhattisgarh Official Language Commission" with the object to preserve, prevail and develop the State's tradition of ideas and the complete linguistic variety of the State and to encourage the traditional language of Chhattisgarhi through linguistic studies, research and documentation, creations and translations, conservation, publications, suggestions and recommendations, as also towards promoting the use of the language in Government.
Be it enacted by the Chhattisgarh Legislature in the Sixty-first year of the Republic of India, as follows:--
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छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग हर एक तरह के सरकारी संगठन आय जेकर गठन छत्तीसगढ़ी भाषा ल विशेष दर्जा दिलाय खातिर, वोकर विकास अउ राजकाज म वोकर प्रयोग ल बढ़ावा देय खातिर, छत्तीसगढ़ी ल शिक्षा के माध्यम बनाय खातिर, बनाय गे हे। छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के गठन के उद्देश्य ल 03 सितंबर 2010 के राजपत्र में प्रकाशित छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग अधिनियम 2010 के प्रस्तावना ल पढ़ के समझे-जाने जा सकथे, जउन अइसन हें -
राज्य के वैचारिक परंपरा अउ भाषायी विविधता के -
1. परिरक्षण, 
2. प्रचलन और विकास करना 
3. भाषायी अध्ययन, 
4. अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, 
5. सृजन तथा अनुवाद, (साहित्य के)
6. संऱक्षण, 
7. प्रकाशन, 
8. सुझाव अउ अनुशंसा के माध्यम लेे छत्तीसगढ़ी पारंपरिक भाषा ल बढ़ावा देना,
9. शासन में भाषा के उपयोग ल समुन्नत बनाना।

आयोग हर अभी सक्रिय है। छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग विधेयक ल  28 नवम्बर 2007 के दिने पारित करे गे रिहिस इही उपलक्ष्य में हर साल 28 नवम्बर के दिन ल राजभाषा दिवस के रूप में मनाय जाथे। आयोग के प्रथम सचिव - पद्मश्री डॉ. सुरेन्द्र दुबे जी होइन। अभी वर्तमान म येकर द्वितीय सचिव श्री जगदेव राम भगत जी मन हावंय। अब आयोग  के अध्यक्ष मन के बात करन तब येकर माननीय अध्यक्ष मन के नाम ये प्रकार ले हवंय -
प्रथम अध्यक्ष - पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी।
द्वितीय अध्यक्ष - पंडित दानेश्वर शर्मा।
तृतीय अध्यक्ष - डाॅ. विनय कुमार पाठक।
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छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग अधिनियम 2010 के प्रस्तावना म आयोग के उद्देश्य अउ लक्ष्य मन के निर्धारण तो करेच गेय हे फेर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग हर अपन खातिर कुछ अउ उद्देश्य तय करे हें जउन मन हर अइसन हें -
1. छत्तीसगढ़ी राजभाषा ल संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल करवाना येकर पहली उद्देश्य हवय।
2. येकर दूसरा उद्देश्य हवय, छत्तीसगढ़ी भाषा ल राजकाज के भाषा के रूप म उपयोग म लाना। अउ येकर तीसरा उद्देश्य हवय,
3. त्रिभाषायी भाषा सूत्र के रूप म छत्तीसगढ़ी भाषा ल स्कूल-कालेज के पाठ्यक्रम में शामिल करवाय के प्रयास करना।

आयोग हर अपन पहिली उद्देश्य ल पूरा करे खातिर का करत हे येकर ब्योरा अउ जानकारी हमला आयोग के प्रांतीय सम्मेलन म हर साल मिलत रहिथे। छै सम्मेलन हो गिस हल्ला करत। हल्ला करना बेकार नइ जावय फेर खाली हल्ला करे से का लाभ होही? आयोग डहर ले कुछू ढंग के रचनात्मक काम तो होइस नहीं अब तक। न तो छत्तीसगढ़ी भाषा के राज्य स्तरीय न तो कोनो अखबार हे अउ न कोनो साहित्यिक पत्रिका। जउन हाबे, वो सब आयोग के गठन होय के पहिलिच ले हे अउ निजी प्रयास हरे - लोकाक्षर ल कहस कि बरछा बारी ल कहस। रचना प्रकाशन करे खातिर आयोग हर लेखक मन ल दस हजार रूपिया के अनुदान देथे, फेर वहू म पेंच हे।

दूसर उद्देश्य ल पूरा करे खातिर आयोग हर तीन खंड म छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश बना के जरूर सराहनीय काम करे हे। प्रयास जारी हे। फेर जब लग येला जन आंदोलन के रूप नइ मिल पाही, अपेक्षित सफलता मिलना मुस्किल हे। छत्तीसगढ़ के पढ़ेलिखे नागरिक मन ल संकोच, लाज सरम अउ हीन भावना ल छोड़ के खुद, छत्तीसढ़ी के प्रयोग, आगू आ के करना चाही। 08 जनवरी 2002 के दिन छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के न्यायधीश माननीय फखरुद्दीन महोदय ह छत्तीसगढ़ी म अपन फैसला लिखिन अउ सुनाइन। येकर ले हमला प्रेरणा लेना चाही। 2002 म तो आयोग नइ रिहिस।

आयोग के तीसरा उद्देश्य ल पूरा करे के काम हर आयोग गठन के पहिलिच ले चलत हे। पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय हर अपन जिम्मेवारी ल निभावत पहल करिस अउ एम.ए. छत्तीसगढ़ी के पाठ्यक्रम शुरु करिस, जउन हर अभी तक चलत हे। कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय हर घलो छत्तीसगढ़ी भाषा में डिप्लोमा कोर्स चलावत हे। पन ये सब काम हर सरकार अउ आयोग के सहयोग या हस्तक्षेप करे ले नइ होय हे, ये हर विश्वविद्यालय मन के स्वयं के इच्छा से होय हे। सरकार मेर अइसन इच्छा शक्ति नइ हे। सरकार हर अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोले के घोषणा भले कर सकथे, पन छत्तीसगढ़ी भाषा ल शिक्षा के माध्यम बनाय बर वोकर कोनो योजना नइ दिखय। हम सरकार, राजभाषा आयोग, अउ शिक्षामंत्री मन के कोनो आलोचना नइ करत हन, ये सवाल तो प्रदेश के छत्तीसगढ़िया जनता मन पूछत हें कि हमर मातृभाषा, छत्तीसगढ़ी के विकास खातिर आपमन का करत हव? कोई एकात उपलब्धि हासिल करे हव तो बतावव। पन हमला ये बात मन ल नइ भाूलना चाही कि छठवीं कक्षा ले लेके 12वीं कक्षा के हिंदी किताब मन म छत्तीसगढ़ी के पाठ जोड़े के काम होय हे। अब पीछू साल ले 11वीं अउ 12वी कक्षा म एन सी ई आ टी के किताब मन ल लागू करे ले 11वीं अउ 12वी कक्षा के हिंदी किताब ले छत्तीसगढ़ी पाठमन हर गायब हो गिन। आयोग अउ सरकार हर का करत हें। सुते हें का? 

माध्यमिक शिक्षा मंडल के अध्यक्ष श्री के. डी. पी. राव हर 9वीं ले 12वीं तक छत्तीसगढ़ी भाषा ल एक वैकल्पिक विषय के रूप म विषय सूची म शामिल करे के अउ वोला लागू करे बात कहे रिहिन फेर ये विचार के आज तक कुछू अतापता नइ हे। आज तक अमल नइ हो पाइस। आयोग हर का करत हे?

जहाँ तक 9वीं ले 12वीं तक छत्तीसगढ़ी भाषा ल अलग वैक्लपित विषय के रूप म पाठ्यक्रम म शामिल करे के बात हे। घोषणा करना सहज हे पन घोषणा हर लागू कइसे होही, सोच के देखव। 9वीं ले 12वीं तक छत्तीसगढ़ी भाषा के किताब तैयार करे पड़ही। मंय हर खुद एस सी ई आर टी के पाठ्यक्रम निर्माण समिति म रहि चुके हंव। एक किताब म औसतन 25 पाठ रहिथे। 4 किताब बर 100 पाठ के जरूरत पड़ही। पाठ्यक्रम खातिर पाठ के छंटई करत समय पाठ्यक्रम निर्माण समिति के पसीना छूट जाथे। पचास ठन रचना ल पढ़बे-छांटबे तक कहूँ जाके एक ठन पाठ के लाईक सामग्री मिलथे। गुणा-भाग कर लव, 100 पाठ तैयार करे खातिर कतका किताब अउ कतका सामग्री के जरूरत पड़ही। हमर कना वोतका मात्रा म पाठ्यक्रम के स्तर के छत्तीसगढ़ी साहित्य उपलब्ध हे का? 

9वीं अउ 10वीं कक्षा के किताब मन के बनावत ले एस  सी ई आर टी के हाथ-पाँव फूल गिस अउ 11वीं-12वीं के किबाब बनाय के समय वोहर हाथ झर्रा दिस। मजबूरी म 11वीं अउ 12वीं बर एन सी ई आर टी के किताब मन ल अपनाय बर पड़ गिस।

बीच म छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग हर प्राथमिक कक्षा के किताब मन के छत्तीसगढ़ी भाषा म अनुवाद करे के बात चलाय रिहिस। काम के का होइस येकर जानकारी मोला नइ हे। पन विही दौरान मंय हर रायपुर म छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के एक ठन स्थापना दिवस समारोह के समय आयोग के सचिव महोदय ले अपन परिचय देवत निवेदन करेंव कि महोदय जी, आपके इच्छा होही ते, कोनो कक्षा के एकात विषय के अनुवाद करे के काम ल मंय हर कर सकथंव। सचिव मोदय के हर छूट किहिस, आवेदन कर दव, विचार करबोन।

आवेदन करे के बात ल वोमन प्रक्रिया के तहत किहिन होहीं, येमा कोनो रीस-दुख के बात नइ हे, पन कहत समय उंकर हावभाव म उपेक्षा के जउन बात रिहिस, वोकर ले मोर उत्साह के दीया हर बुता गिस।

संगवारी हो! अपन उद्देश्यमन ल पूरा करे खातिर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग हर लेखक अउ कवि मन ल उंकर किताब प्रकाशित करवाय खातिर 10 हजार रू. के अनुदान देवत रिहिस। माई कोठी योजना चला के किताब मन के संग्रह करे के कोशिश करिस, बिजहा योजना चलाके छत्तीसगढ़ी के नंदावत शब्द मन बचाय के काम करिस। काम मन हर प्रशंसनीय हे। येमा कतिक सफलता मिलिस, येकर बारे म तो आयोगेच हर बता सकत हे।

आज स्थिति ये हे कि छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास अउ प्रसार खातिर सरकारी प्रयास ले जादा निजी प्रयास होवत हे। दुर्ग निवासी वकील साहब संजीव तिवारी ल देख लव, छत्तीसगढ़ी भाषा के पहली वेब पोर्टल ’’गुरतुर गोठ’’ लांच करने वाला वोमन पहिली व्यक्ति हरंय। उंकर ये प्रयास ल आज कोन नइ जानय? गुरतुर गोठ के संपादक संजीव तिवारी के मदद लेके गूगल हर छत्तीसगढ़ी भाषा म जी-बोर्ड एप लांच करिस हे। जी-बोर्ड खातिर संजीव तिवारी हर गुगल ल 10 हजार छत्तीसगढ़ी शब्द उपलब्ध कराइन। पूरा संसार भर म छत्तीसगढ़ी जाननेवाला मनके बीच आज ’’गुरतुर गोठ’’ के चर्चा हे। हमर सरकार तीर न तो छत्तीसगढ़ी के एको ठन रेडियो चैनल हे अउ न दूरदर्शन के चैनल। छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के वेब पोर्टल हर कोन जघा खुसरे हे, खोजे म नइ मिलय।

’छत्तीसगढ़ी राजभासा मंच’ के संयोजक नंदकिशोर तिवारी अउ उंकर ’छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर’ के योगदान ल कोन हर नइ जानय। समाचार माध्यम ले जानकारी मिले हे कि ’छत्तीसगढ़िया क्रांति सेना’ के कार्यकर्ता मन प्रदेश भर म अउ दिल्ली के जंतर-मंतर में घला धरना दे चुके हें।

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग से अपेक्षा अउ सुझाव

अब मंय हर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग से मोर का अपेक्षा हे अउ मोर का सुझाव हे वोकर चर्चा करना चाहहूँ। 

1. आयोग कना संसाधन के कमी हे, बजट के कमी हे; अउ ये दूनों कमी हमेशा बने रही, येमा सुधार के कोनो गुंजाइश मोला नइ दिखय। सरकार हर राज्य स्थापना दिवस के उत्सव म करोड़ों रूपिया फूंकत होही। पढ़े-सुने बर मिलथे कि एक झन फिल्मी कलाकार ल कार्यक्रम म बलाय खातिर पचास लाख अउ एक करोड़ रूपिया सरकार हर दे देथे। पन इही कार्यक्रम बर छत्तीसगढ़िया कलाकार ल हजार रूपिया देवत समय सरकार के आँखीं कोती ले पानी निकल जाथे। ये सब छत्तीसगढ़ विरोधी बात मन के जानकारी हमला समाचार पढ़के मिलथे, पन येकर विरोध म हमर जुबान नइ खुलय। का मजबूरी हे भई! हमर? हमर तीर मोबाइल हे। विरोध म सोसल मिडिया म एक लाइन तो जरूर लिख सकथन। फेर नई लिखन, काबर कि हमला केहे गे - ’सबले बढ़िया, छत्तीसगढ़िया’। लिख देबोन त हम खराब बन जाबोन? आयोग से आप किताब छपाय बर अनुदान के मांग करव या कोनो साहित्यिक आयोजन खातिर मदद मांगे बर जावव, अक्सर कम बजट के बात सुने बर मिलथे। सही होही। मोर कहना हे, सरकार द्वारा फिल्मी कलाकार मन ल करोड़ो रूपिया देय जा सकथे पन आयोग बर पइसा के अंकाल पर जाथे। 

2. आमदनी ले जादा महत्वपूर्ण होथे कि वोला खरचा कइसे करन। आयोग हर अपन बजट के खरचा करत समय ये बात ल धियान म काबर नइ रखय? आयोग के प्रांतीय सम्मेलन के रेवाटेवा ल पीछू छै साल ले देखत आवत हन। का हासिल होथे? आयोग ल मिलनेवाला बजट के खरचा कइसे होय? मोर सुझाव हे - छत्तीसगढ़ के हर जिला म कतरो साहित्यिक संस्था संचालित होवत हें। येमा कुछ मन हर रजिस्टर्ड हें अउ अधिकांश मन हर अनरजिस्टर्ड हें। उदाहरण बर मंय हर आपके इही संस्था के नाम लेवत हंव। ये सब संस्था मन अपन-अपन जघा, अपन-अपन संसाधन के जरिया आयोगेच के उद्देश्य मन ल पूरा करे के काम करत हें। इंकर कार्यक्रम मन म बहुत सार्थक चर्चा होथे। इंकर काम हर काफी रचनात्मक होथे। आयोग हर इंकर सहयोगी बनंय। इन संस्था मन के सूची बनावंय। इंकर अध्यक्ष मन संग मिल के सालभर के साहित्यिक कार्यक्रम के कैलेडंर बनावंय। अउ एक जघा प्रांतीय सम्मेलन न करके पूरा राजभर म अलग-अलग जघा कार्यक्रम करंय। मोला सौ परसेंट उम्मीद हे, प्रांतीय सम्मेलन म जउन काम होथे, वोकर ले सौ गुना जादा, सार्थक, रचनात्मक अउ उद्देश्यपूर्ण काम हो सकही। संसाधन के कमी हर पूरा होही। बजट के जादा अच्छा ढंग ले उपयोग होही। मंय पूछथंव, आयोग कना प्रदेश के रजिस्टर्ड अउ अनरजिस्टर्ड ये साहित्य समिति अउ परिषद् के सूची हे का? 

3. विचारधारा के कमी - हम जम्मों साहित्यकार मन अपन-अपन स्तर म गजब के लेखन काम करत हन। पन हमर लेखन म समकालीन साहित्य के विशेषता देखे बर नइ मिलय। येकर कारण हरे, हमर लेखन म विचारधारा के कमी हे, जेकर कारण से हमला लेखन के सही दिशा नइ मिल पाय। आयोग हर स्थानीय साहित्यिक संस्था मन ले जुड़ के, या वोमन ल अपन ले जोड़ के काम करही तभे अइसन साहित्यकार मन ल वैचारिक रूप ले प्रशिक्षित करे जा सकही। दुख के बात हे, ’’बमलई म चढ़, मुनगा ल चुचर, इही ल कथे छत्तीसगढ़।’’ छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़िया मन के अइसन परिभाषा गढ़नेवाला आदमी हर आयोग के कर्ता-धर्ता बनही त वो हर हमला विचारधारा के नाम म का देही? समझव। बड़े सवाल ये हे कि प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार मन आयोग के कार्यक्रम सेे काबर नइ जुड़ंय?

4. भाषा  हर लोक के रचना हरे। संसार के कोनो भाषा के निर्माण ल साहित्यकार मन कि व्याकरणाचार्य मन हर नइ करे हें। भाषा के मानकीकरण करना भाषा के गति अउ विकास म बाधा परे के समान हरे। पन भाषा के साहित्यिक प्रयोग म एक रूपता लाय खातिर कुछ उपाय, कुछ प्रयास करना मोला जरूरी लागथे। उदाहरण खातिर - कुछ अव्यय (अविकारी शब्द) अउ परसर्ग (विभक्ति) मन के मनमाना उपयोग होवत हें, एके ठन अव्यय के एक ले जादा रूप प्रचलित हे, जइसे - नइ अउ नई, येमा कोनो एक ठन ल मान्यता मिलना चही। अइसने अउ कतरो काम हे, जउन ल सुलझाय खातिर आयोग ह भाषा विज्ञानी अउ भाषा के जानकार, साहित्यकार मन के समिति बना के कोनो उपाय निकाल सकथे। अइसे पता चले हे कि अइसने एक ठन काम डाॅ. अिनय पाठक हर अपन कार्यकाल म बिलासपुर म करिन हे, पन वोकर नतीजा का निकलिस, हमला पता नइ हे।
-जोहर-
कुबेर




शनिवार, 22 जून 2019

आलेख - खुमान सर : जैसा मैंने पाया

(5 सितंबर 2018 को गांधी सभागृह, राजनांदगाँव में छत्तीसगढ़ के महान् संगीत व कला साधक श्री खुमान लाल साव के राज्य स्तरीय नागरिक अभिनंदन के अवसर पर दिया गया वक्तव्य)

खुमान सर: जैसा मैंने पाया

कुबेर

जीवित किंवदंती -

किसी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में जनमानस में जब जिज्ञासा, श्रद्धा और प्रेम-पल्लवित विभिन्न प्रकार की प्रमाणित-अप्रमाणित और कल्पित बातें प्रचलित हो जाती हैं तब उसे हम लिजेण्डरी परसन अर्थात किंवदंती पुरूष कहने लगते हैं। जिस विभूति का नागरिक अभिनंदन करने के लिए आज हम यहाँ उपस्थित हुए हैं, भारत शासन के संगीत एवं नाटक अकादमी सम्मान से विभूषित अदारणीय श्री खुमानलाल साव, जिन्हें छत्तीसगढ़ की कला जगत अतीव सम्मान और श्रद्धा के साथ ’खुमान सर’ कहकर संबोधित करती है, आज जीवित किंवदंती बन चुके हैं। जिन्होंने ’मन डोले रे माघ फगुनवा’, ’मोर संग चलव जी’, ’धनी बिना जग लागे सुन्ना’, ’ओ गाड़ीवाला रे’ जैसे अनेक सुमधुर गीतों की रचना की और जिन गीतों को सुनते-गुनगुनाते मेरा बचपन बीता, और आज भी ये गीत उसी तरह मेरे मन में रचे-बसे हैं, उनके प्रति श्रद्धा भाव जागृत होना और ऐसे श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा जागृत होना सहज मानवीय स्वभाव है।

कुछ वर्ष पहले मैं डाॅ. नरेश वर्मा के साथ, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन, के द्वारा छत्तीसगढी भाषा और संस्कृति विषय पर, राज्य स्तरीय एक कार्यशाला में शामिल होने के लिए रायपुर गया था। कार्यक्रम टाऊन हाल में आयोजित था। वापसी में खुमान सर ने हमें अपने साथ ले लिया। और इस तरह अपने श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरी वर्षों पुरानी लालसा पूरी हुई। उस दिन उन्होंने राजनांदगाँव के रामाधीन मार्ग और शहीद  रमाधीन का पूरा इतिहास बताया। खुमान सर की रससिक्त बातों से समय के प्रवाह का पता भी नहीं चला और हम ठेकवा पहुँच गए।

कला व साहित्य को परखनेवाला राजशाही संस्कार -

साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का वार्षिक कार्यक्रम भवानी मंदिर प्रांगण, करेला में चल रहा था। अप्रेल का महीना था। सम्मेलन में पधारे समस्त साहित्यकारों को अचंभित करते हुए खुमान सर का अचानक आगमन हुआ। इतनी बड़ी विभूति को आमंत्रित न करने की अपनी चूक के कारण मुझे बड़ी आत्मग्लानि हुई। मंच पर आसीन होने के लिए मिन्नतें की गईं पर वे यह कहते हुए,  ’’तुंहर कार्यक्रम के समाचार पेपर म पढ़ेन, देखे के मन होइस त आ गेन’’, बड़े सहज भाव से दर्शक दीर्घा में बैठे रहे। 

शायद 2013 की बात है, हमारे आदरणीय प्राचार्य श्री मुकुल के. पी. साव, जो खुमान सर के यशस्वी भतीजे हैं, ने वैवाहिक निमंत्रणपत्र देते हुए मुझे कि - ’’ठेकवा में शादी है, चाचाजी ने व्यक्तिगत रूप से कहा है, आपको जरूर आना है।’’ अचंभित होने का यह मेरा दूसरा अवसर था। खुमान सर के परिवार का यह स्नेहिल आमंत्रण पाकर उस समय जो खुशी और और सम्मान का अनुभव मुझे हुआ उसे व्यक्त करने के लिए आज मेरे पास शब्द नहीं है। शादी समारोह में जाकर मैंने देखा, सारा मंडप कलाकारों, साहित्यकारों, और बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। मेरी आँखों में मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के वे पन्ने एक-एककर रूपायित होने लगे, जिनमें बादशाहों, राजाओं-महाराजाओं के दरबार में नवरत्नों की ससम्मान उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। विभिन्न कला-क्षेत्रों के कलाकारों, साहित्यकारों, और विद्वानों के प्रति सम्मान का भाव, उनसे जुड़ने और उन्हें जोड़ने के जो आदर्श और संस्कार इतिहास के इन पन्नों में मिलते हैं, वही आदर्श और वही संस्कार कला के इस बादशाह खुमान सर के व्यक्तित्व में भी देखे जा सकते हैं।

अतिशयोक्ति अलंकार के अप्रतिम प्रयोक्ता -

खुमान सर से जब भी मैं मिलकर आता हूँ, आदरणीय मिलिंद साव से उस मुलाकात और मुलाकात में हुई बातचीत की चर्चा जरूर करता हूँ। मिलिंद सर मेरे वरिष्ठ सहकर्मी हैं और संगीत और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए वे अपरिचित नहीं हैं, अक्सर कहते हैं - ’’खुमान चाचा के पास अतिशयोक्ति कथन की कमी तो है नहीं, आप जैसा श्रोता चाहिए, बस।’’ 

अतिशयोक्ति कथन के लिए भी तो अतीव कल्पनाशक्ति चाहिए। यह एक विरल प्रतिभा है। यह प्रतिभा कलाकारों में ही संभव है। कला और कल्पना का अस्तित्व अभिन्न होता है। मूर्तिकला, चित्रकला, अभिनय, संगीत, साहित्य अथवा कला का कोई भी क्षेत्र हो, कलाकार की कल्पना की उड़ान जितनी ऊँची और महान होगी, उसकी कलाकृति भी उतनी ही उच्चकोटि की और महान् होगी। काव्य में जहाँ भी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन होता है वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार माना जाता है। भारतीय साहित्य में कालिदास, जयदेव, तुलसीदास, जायसी, बिहारी  और सेनापति जैसे महान् कवियों की महानता में अतिशयोक्ति अलंकार का योगदान कम नहीं है। महान् कलाकृतियों के सृजन के मूल में महान् कल्पना तत्व ही होते हैं। खुमान सर की कालजयी, सुमधुर संगीत रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में कहें तो यहाँ भी उनकी अतीव कल्पना प्रतिभा से प्रसूत उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही इनकी महान् रचनाओं के मूल श्रोत है।

अनुशासन की कठोरता और हृदय की कोमलता -

मदराजी महोत्सव 2016, के सिलसिले में हमें दुर्ग जाना था। प्रस्थान के लिए दो बजे का समय नियत किया गया था। किसी अपरिहार्य कारणों से मुझे आधे घंटे का विलंब हो गया। खुमान सर निर्धारित समय पर तैयार होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचने पर उन्होंने कहा - ’’कुबेर अस का? बड़े आदमीमन ल देरी हाइच जाथे।’’

प्रेम, अपनत्व और दण्डभाव से युक्त उनके इस उलाहने के प्रत्युत्तर में आत्मसमर्पण करने के अलावा मेरे पास और कोई दूसरा उपाय नहीं था। समय की पाबंदी और अनुशासन के मामले में बाहर से वे जितना कठोर दिखाई देते हैं, उनका अंतरमन और हृदय उतना ही कोमल, मधुर और रागात्मकता से परिपूर्ण है। यही कोमलता, यही मधुरता और यही राग तत्व उनकी संगीत रचनाओं को कोमल, मधुर  रागात्मक और कालजयी बनाते होंगे। उनका व्यक्तित्व श्रीफल की तरह है, बाहर से कठोर परंतु भीतर से मधुर, कोमल, रसयुक्त और स्वस्थ है।

5 सितंबर का अद्भुत संयोग -

भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक शिक्षक और महान् दार्शनिक थे इसीलिए उनके जन्मदिन 5 सितंबर को सारा राष्ट्र शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। हमारे छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में यह सुखद संयोग है कि छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत और लोककला के महान् विभूति खुमान सर भी मूलतः एक शिक्षक और एक गुरु ही हैं और उनका भी जन्म दिन 5 सितंबर ही है। मैं आशान्वित हूँ कि भविष्य में छत्तीसगढ़ राज्य में 5 सितंबर, शिक्षक दिवस को न केवल डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन से बल्कि खुमान सर के जन्मदिन से भी संदर्भित किया जायेगा।

ईश्वर से प्रार्थना है, खुमान सर की कलायात्रा यूँ ही अविरल गति से जारी रहे।

कुबेर
5 सितंबर 2018, 
गांधी सभागृह, 
राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़

मंगलवार, 18 जून 2019

आलेख - वंचितों का साहित्य

साक्षातकार

वंचितों का साहित्य

(समीक्षक श्री यशवंत से कुबेर सिंह साहू की बातचीत)

कुबेर - दलित साहित्य की अवधारणा क्या है?
यशवंत - अवधारण का अर्थ - शब्द के अर्थ की सीमा नियत करना होता है। दलित साहित्य के संदर्भ में अर्थ संकोच न होकर अर्थ विस्तार है। दलित शब्द ही व्यापक अर्थ में है। इसे पृथक करके, ’प्रतिबंध लगाकर’ के अर्थ में अलग किया, प्रश्न है। और यह सही भी है। इसे परिपक्व मस्तिष्क के चिंतन की परिणति से समझा जा सकता है। जैसे उपन्यास परिपक्व मस्तिष्क की उपज है। जो कुबेर के ’भोलापुर के कहानी’ में है। दलित साहित्य द्विज साहित्य से सीधी लड़ाई है। सपाट भाषा में विचारोत्तेजक चिंतन प्रस्तुत कर देना दलित साहित्य का मूल है।

’’व्यथित होते हैं जब हम शिक्षा से 
सहा नहीं जाता अपमान
होती है यंत्रणाओं की थकान जब
तब पी लेते हैं कभी कच्ची दारू, कभी भांग
भुलाने के लिए अपना गम
पर तुम तो पी-पीकर हमारा खून
पलभर ऊँचा होने का दर्द
हमेशा नशे में रहे
कभी नहीं उतरे नीचे उस जमीन पर
जो है जमीन मानवता की
जो है जमीन मैत्री की 
एकता की।’’         
(डाॅ. बी. सी. भारती)

दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक, आधी आबादी, मजदूर किसान जो बहुसंख्यक होते हुए भी हाशिए पर हैं। ये सभी संसाधनों में पीछे रह गये। ऐसे वंचितों पर वंचितों द्वारा, गैर वंचितों द्वारा बहुकोणीय दृष्टिकोण से लिखा गया साहित्य जो अपनी अभिव्यक्ति-भावाभिव्यक्ति में सवर्ण मापदंडों से अलग-सलग अभिव्यक्ति की अनुभूति करा देता है, दलित साहित्य है।

जनभाषा वालों के पास साधनजन्य ज्ञान और और अनुभव होने पर भी अभिव्यक्त करने की सही और उपयुक्त भाषा नहीं थी जिससे वे अधिकांश अवसरों पर ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ में हार जाते थे। पर अब शिक्षित होने पर अपनी भाषा की रचना में द्विजों से टक्कर ले रहे हैं। नये मानदंड तैयार कर रहें हैं। परंपरागत सौंदर्यशास्त्र को चुनौती दे रहे हैं। ऐसे साहित्य सौंदर्य को दलित साहित्य में रखा जाता है। जैसे डाॅ. धर्मवीर भारती ने कहा था - कफन कहानी पर, ’’बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था।’’ इसे प्रेमचंद सीधा नहीं बता पाये। चाहे कहानी कितनी ही कलात्मक हो। इससे हिंदी आलोचकों में हलचल पैदा हो गई। लूट की दास्तान देखिए - 
’’हमारे लिए 
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए बहारें नहीं आती
हमारे लिए
इन्कलाब नहीं आते ..... ’’
(लालसिंह दिल)

एच. एल. दुसाध लिखते हैं -  ’’सवर्ण द्वारा रचित दलित विषयक करुण से करुणतर कृति दलित साहित्य के मापदंडों पर खरा उतरने की औकात नहीं रखती। चूंकि दैविक दासत्व दलितों की दुर्दशा का प्रधान कारण रहा है ...... महापंडित राहुल सांकृत्यायन को छोड़कर ऐसी मनसिकता पुष्ट ही नहीं हुई।’’ इसे आप ’वर्ण व्यवस्था, एक वितरण व्यवस्था’ सम्यक प्रकाशन दिल्ली के 2011 के संस्करण में पृष्ठ 94 में पढ़ सकते हैं। 

वास्तव में ’सोजे वतन’ कहानी संग्रह गैरीबाल्डी की कहानी के बावजूद, मूलतः एक विज्ञान विरोधी और मानवता विरोधी रचना है। संभवतः इसी कारण अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित किया। जिन अंग्रेजों ने 1829 में सती-प्रथा विरोधी कानून पारित कर दिया, वे सती की राख का महिमामंडन कैसे बर्दाश्त करते? जो रेल्वे, सड़क, पोस्ट आफिस, पुल, स्कूल इत्यादि का विस्तार कर भारत को आधुनिक बना रहे थे वे कैसे बर्दाश्त करते कि साधु-सन्यासी, हरिकीर्तन तें आस्था रखनेवाला कोई व्यक्ति आधुनिक भारत को अपना वतन कहने से इंकार कर दे? हिंदू धर्मशास्त्रों में गहरी आस्था के कारण अपनी रचनाओं को प्रेमचंद मानवता व विज्ञान विरोधी रूप देने के लिए अभिशप्त रहे। इसी कारण से वे कफन, सद्गति, दूध का कर्ज, ठाकुर का कुआँ इत्यादि में मात्र हिंदू विवेक को झकझोरने तक ही सीमत हो सके। अपनी लेखनी को डिवाइन सलेवरी के घ्वंस तक प्रमाणित न कर सके। इसे आप दुसाध की किताब में पृष्ठ 95-96 में पढ़ सकते हैं। हाँ, मराठी के भालचंद्र नेमाड़े अपने उपन्यास ’हिंदू: संस्कृति का समृद्ध कबाड़’ में सफल हो गये। आप विचार कर समझ सकते हैं कि दलित या वंचित साहित्य की अवधारणा क्या है? ऐसा भी नहीं है कि दलित ही वंचित साहित्य लिख सकता है, गैर दलित नहीं लिख सकता। आपकी रचनाओं में भी आता है कुबेर भाई! ’भोलापुर की कहानी’ में। भले ही उसका प्रतिशत कम हो।

कुबेर - दलित साहित्य की विशेषताएँ - भाषा, शैली, विषयवस्तु और अन्य स्तर पर, क्या-क्या हैं?
यशवंत -  दलित साहित्य की विशेषताओं को लेकर यह प्रश्न गंभीर है। यह टकसाल प्रश्न है। मैं अपनी बातें, अपने विचार, सभी स्तर पर, एक साथ रखूँगा। भाषा-शैली कला क्षेत्र है। भाषा में शब्द, उसकी अर्थाभिव्यक्ति, सुनने की समझा को लेकर है। ेलेखक और पाठक, दोनों, अपने आप में एक तरह से भाषा के विशेषज्ञ होते हैं। भले ही उसे लिंग्विस्टिक का विशेष ज्ञान न हो। सरल और सीधी एवं सहज शैल में दलितों की भाषा प्रश्नात्मक है - 
’’तुमने कहा -
ब्रह्मा के पाँव से जन्में शूद्र
और सिर से ब्राह्मण
उन्होंने पलटकर नहीं पूछा -
ब्रह्मा कहाँ से जन्मा?’’ 
(1997,पृष्ठ 99)

अदलितों ने कल्पना भी नहीं कया। की भी हो तो वे अभिव्यक्ति से डरे हुए थे। क्यों? 
नींद से वंचितों को जगाने का प्रयास दूसरी विशेषता है -
’’बस्स!
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर 
अब काम आयेंगे संतप्त जनों के!
(1997,पृष्ठ 88)

वंचितों के साहित्य से सभ्य समाज की घृणित तस्वीर सामने तो आती ही है - ’’अबे, ओ चूहड़ों के मादरचोद कहाँ घुस गया .... अपनी माँ ... उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, ’मास्साहब, वो बैठा है कोने में।’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी।’’

’’कक्षा से बाहर खींचकर उसने उसे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू ....... नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल के बाहर काढ़ दूँगा।’’

कहा जा सकता है, अदलितों को यह नहीं दिखा? दिखा। पर अपने एलीट के तहत ऐसा अक्स अपने साहित्य में न उतार सके। मेरे पिता प्रभुलाल महार और प्रताप तेली एक साथ स्टेशन पारा राजनांदगाँव, प्राथमिक शाला में पढ़े थे। पिताजी ने मुझे अनेक बार बताया, प्रताप के कली के बाल को अपने अंगूठे से रगड़कर मास्साहब कहते, ’कैसे रे तेलिया मसान!’ आजादी के पहले की स्थिति थी। पिताजी ने 1942 में पढ़ाई छोड़ दी थी। पिताजी यह भी बताते कि स्वीपर के बच्चों को बैंच में न बिठाकर जमीन (फर्स) पर बैठना पड़ता था। (आगे चलकर) मैं, मेरी बहिन और मेरा भाई भी इसी स्कूल में पढ़े। पर सभी वर्ग के बच्चे एक साथ बेंच पर बैठते थे। आजादी के पहले की स्थिति और उपर्युक्त कथन आजादी के पश्चात् की दशा में कोई विशेष अंतर!

वंचित साहित्य की अभिव्यक्ति मानवमूल समस्या थी। कबीर, रैदास, पल्टू आदि प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। कबीर की कविता, उसकी भाषा और टैक्नीक में आध्यात्मिक अर्थ निकालना बेमानी है। वैज्ञानिक अर्थों में व्याख्या क्यों नहीं की जाती? अलाल ऐसा ही करते हैं। आप भी तो कहते रहते हैं न, - महंत अकर्मी अलाल होते हैं, उपदेश ही देते रहते हैं। डाॅ. अंबेडकर ने भी कहा, ’’एक भिक्षु संपूर्ण मनुष्य मात्र बनकर रहेगा तो उनका धम्म प्रचार कार्य में कोई उपयोग नहीं क्योंकि वह एक संपूर्ण मनुष्य होने के बावजूद एक स्वार्थी आदमी ही बना रहेगा।’’ कबीर कर्मशील, ज्ञानशील, धर्मशील थे। भिक्षु-महंत इससे दूर रहे।

पीड़ा की भाषा और भाषा की पीड़ा इस देश में रही है। अंबेडकर ने गांधी से पूछा - ’’मेरा देश कहाँ है?’’ बाल्मीकि लिखते हैं - 
’’चूल्हा मिट्टी का 
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरे खेत का 
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर के
हल ठाकुर का
हल के मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआँ ठाकुर का 
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या? 
गाँव?
देश?’’ 
(ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, पृ. 03)




चुनौतियाँ देना वंचितों का सहित्य है। वाल्मीकि, जिसे महाकवि कहा जाता है। दया पवार, कैसी चुनौती देते हैं -
’’हे महाकवि
तुला महाकवि तरी कसे म्हाणाते
हा अन्याय, अत्याचार, वे शीवर ठांगनाय
एक जरी श्लोक तू रचला असतास ....
... तर तुझे नाव काकजावर कोरून ठेवले असते ....
(हे महाकवि
तुझे महाकवि कहूँ भी तो कैसे?
इस अन्याय अत्याचार को सरेआम
जाहिर करनेवाला
एक भी तो श्लोक रचा होता तुमने ...
... तो कलेजे पर अपने, गुदवा लेता ...
नाम तुम्हारा।))

भारतीय संस्कृति का बड़ा गुणगान करते हैं और दलित उन्हें चुनौती देते हैं। कवि गणेश राज सोनाले की कविता है -
’’नंगा पैदा हुआ
यहाँ भी नंगा ही कर दिया गया
समाज पुरुष के अहंकार द्वारा 
हे मेरे संस्कृति प्रिय देश
मेरा नंगापन तुम 
कभी ढंक नहीं पाये।’’

यहाँ विद्रोह है। विद्रोह दलित साहित्य का प्राण है। आत्मा नहीं। भाषिक वर्जना नहीं है। विषाक्त संस्कृति विषयवस्तु है। सफेदपोश संस्कृति में वंचित समाज बिलकुल अजनबी मिसफिट महसूस करता है। ऋषिकेश कांबले की कविता -
’’ये रास्ते वैसे कभी उजाड़ नहीं होते
यहाँ कदम-कदम पर 
हर पल, हर क्षण
इंसानियत की 
उजड़ी बस्तियाँ बसती हैं।’’

रणेंद्र के उपन्यास ’ग्लोबल गाँव के देवता’ में झारखण्ड के अनवरत जीवन संघर्ष का दस्तावेज है। संजीव के उपन्यासों में सरकार व पुलिस अधिकारी स्त्री को भोग वस्तु की तरह इस्तेमाल करते हैं। डाकुओं के कहने पर बिश्राम की पत्नी उनके लिए खाना बनाकर भेजती है, तब पुलिस उसे थाने ले जाती है। अगले दिन सुबह होने पर भी वह घर नहीं लौटती, तब बिश्राम कहता है - ’’अब ई कहाँ का कानून है, हे सुरुज महराज कि जो कोई भी डाकू की मदद करेगा, पुलिस बिना जमानत बंद कर देगी? मालिकार को कभी बंद नहीं करती। सारा कानून गरीबों के लिए है।’’ यहाँ जनता को कितनी प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ’जो इतिहास में नहीं है’ में आदिवासी संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, तीज-त्यौहार के प्रति होनवाले दमन लूट-सौंदर्य से परिचित कराता है। तेजिंदर ने ’काला पादरी’ में आजादी के सत्तर साल बाद भी ’’लोकतंत्र के सबसे सस्ते सामंती संस्करण है।’’ विनोद कुमार के ’समर शेष’ में महाजनी लूट, स्त्रीय लूट और विस्थापन के खिलाफ आवाज है।

सभी प्रकार की समानता पर पिछड़ावर्ग आवाज ही नहीं उठाता। थोड़ा मिलने पर दुम दबा लेता है। वह ईंट से ईंट नहीं बजाना चाहता? जैसे गोदी मीडिया में होता है। महाकवि वामन दादा ईंट से ईंट बजाता है -
’’वो इस देश के वासी हैं तो 
हम भी भारतवासी हैं
प्यारी उनकी मथुरा है तो 
प्यारी हमारी साची है
वामन तुम्हारी ये जनता
कयों सदियों से प्यासी है
उनके सारे अफसर हैं तो
तेरे क्यों चपरासी है।’’

पिछड़ावर्ग के पास 52 प्रतिशत हकदारी के लिए कोई एजेण्डा नहीं है। गैरदलित बुद्धिजीवी, दलित समाज को सीख देता रहता है। यदि अपने ही समाज को संबोधित कर देते तो इनकी झूठी शान वर्ण व्यवस्था नहीं टूटती? अच्छा उदाहरण देखिए - ओलंपिक और एशियाड में दलितों-पिछड़ों ने बेहतर प्रदर्शन किया। जन्मसूत्र से महज कायिक श्रम करनेवाली परिश्रमी जातियों की संतानों में से खसबा जाधव, लिएंडर पेस, कर्णम मल्लेश्वरी ने जहाँ ओलंपियाड में भारत का नाम बढ़ाया तो वहीं पी. टी. उषा, ज्योतिर्मयी सिकदर ने एशियाड में झंडा गाड़ा। सवर्णों की भेदभाव नीति ने भारत को पीछे किया। इसके लिए आप एच. एल. दुसाध को पढ़ सकते हैं। यह भी समझ में आयेगा कि आरक्षण क्यों जरूरी है। खेल में और जेल में भी। तब हमें फेल का आरक्षण भी समझ आ जायेगा।

मैं समझता हूँ कि दलित या वंचित साहित्य की विशेषताएँ लगभग आ गईं। जिस साहित्य में जिन विषयों पर गैरदलितों  द्वारा हत्या की जाती है - दलितों या वंचितों के साहित्य में इसका क्यों, किस कारण और कैसे की जाती है, विस्तार से करुणापूर्वक, तर्कसंगत और चुनौतीभरा उत्तर मिल जायेगा।

भारतीय आलोचकों ने, विशेषकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अंबेडकरी विचारों का नोटिस क्यों नहीं लिया? उल्टे उन्होंने तो साम्प्रदायिक विभाजन भक्ति साहित्य कर डाला। छायावाद को दर्शाया तब तक अंबेडकर विश्वभर का विश्वरत्न बनकर भारतभर में छा चुके थे। प्रसिद्धि पा चुके थे। ’जातिभेद का उन्मूलन’ प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी।

दलित साहित्य की एक विशेषता तो आपके कहानी संग्रह ’कहा नहीं’ में मिलती है।’जियो और जीने दो’ स्लोगनवाले ही अमीर हैं? जीने नहीं देंगे कर देते हैं। बहुजनों के सांसद भी ऐसे ही हत्या कर गये। दलित साहित्य के गुण बुद्ध से लेकर कबीर, फूले और वर्तमान तक मिल जायेंगे। दलित साहित्य की विशेषताओं को लेकर मानक शोध प्रबंध लिखा जाना अभी बाकी है। मंटो को पढ़कर आप समझ जायेंगे। दलित साहित्य की हत्या और दलितों की हत्या के लिए दलितों के नेता भी जिम्मेदार हैं। मायावती उदाहरण हैं। सवर्णों के समान दलितों की बेटी बन जाती है पर एक टी. व्ही. चैनल भी स्थापित नहीं करती, उल्टे अपनी और हाथियों की मूर्तियाँ  लगवाती हैं। इस तरह भारतीय राजनीति भी अनुचित स्वरूप प्रभावित करती है। नहीं तो आज बिकनेवाले चैनलों से टकराया जा सकता था। जैसा कि वर्तमान, 2019 के चुनावों में हुआ। परंतु काशी राम ने इसका उपयोग सफलता के लिए किया। आप इसे मोहनदास नैमिशराय के ’अपने-अपने पिंजड़े’ में पढ़कर समझ सकते हैं।

सहज-सरल बोलचाल की भाषा में दलित है। नकार है विरोध भी। प्रशोध,  प्रतिशोध है विद्रोह भी। ये तेज झरने की तरह है। दलित दग्ध अनुभव सीधे-सीधे साहित्य में प्रस्तुत करता है। वहाँ दलितों की छटपटाहट और शब्द की अभिव्यंजना अर्थपूर्ण है - 
’’शब्द! तुम्हें कसम है
एक न एक दिन 
तुम उतरोगे पृथ्वी पर
धूप बनकर।

कैद कर रखा है तुम्हें तहखानों में
संस्कृति को मैं पूछता हूँ
’संस्कृति क्या तुम्हारी रखैल है?’

शब्द सिसकते नहीं बोलते हैं
चोट करते हैं
जैसे दलित को हरिजन
हरिजन को दलित 

जब टूटता है रूस
तो तुम्हारा सीना 36 हो जाता है
माक्र्सवादियों ने
छिनाल बना दिया है 
तुम्हारी संस्कृति को।’’

प्रतीक, भावना, विचार और बोध को प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनाते हैं। पेड़, लोकतंत्र, भेड़िए, जंगली, सूअर, कुत्ते, ये शब्द लूट, दमन और गुलामी के प्रतीक हैं।?
’’अब वृक्ष की कटी-छटी टहनियाँ
पुनः प्रस्फुटित होने लगी हैं
द्रुतगति से
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में।’’

नामवर सिंह ने आग्रह किया था, दलित साहित्य माक्र्सवादी आलोचना शास्त्र के मापदंडों को ध्यान में रखकर लिखा जाये। यहाँ साहित्य की हत्या कर दी गई। नामवर दलित साहित्य आंदोलन से बच गये। चूक भी गये। दलित रचनाकार ’कफन’ को उसी दृष्टिकोण से नहीं लेता जैसे गैर दलित। असहमति-दृष्टिकोण-भिन्नता पर नामवर सिंह ने कहा - ’’जब अपना देस्त भी दुश्मन दिखाई देने लगे तो यह मनोचिकित्सा का विषय है।’’ अतः नामवर सिंह से असहमत होने पर वह मनोरेगी है। शालीनता को लांघकर नामवर सिंह ने कहा - ’’जैसे कुत्ते का काटा पानी से डरता है ...... तो ये (दलित) किनके काटे हुए हैं?’’ ओमप्रकाश बाल्मीकि ने जवाब दिया है - ’’नामवर जी! ये ब्राह्मणशाही और ठाकुरवाद के काटे हुए हैं जो मुखौटे बदल-बदलकर छलते हैं जिसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए था वो विरोध में खड़े हैं, माक्र्सवाद का मुखौटा पहनकर। तत्वज्ञान या विचार से रचनाकार के दृष्टिकोण और संवेदना की पहचान होती है। उसी से रचना साकार होकर सार्थकता ग्रहण करती है और संवेदना की पहचान होती है, दलित रचनाकार उस दोषी मानसिकता विरोधी है जो बाहर से माक्र्सवादी, साम्यवादी और भीतर से फासिस्टों का पक्षधर है।’’ वर्तमान में साहित्य और राजनीति में जो हो रहा है वह यही है। इसे स्पष्ट कर देना ही दलित साहित्य की पुख्ता शैली भी है।

संक्षेप में दलित साहित्य की विशेषता जीजीविषा की संघर्षीय, अदलित साहित्य को चुनौतीभरा शब्दबंध में सागर भरा गागर है जिसका आलोचनात्मक अध्ययन अभी बाकी है। मुक्तिबोध के साहित्य में मध्यवर्ग है पर दलित-वंचित वर्ग की भाषा नदारत है जबकि मुक्तिबोध देख और समझ दोनों रहे थे। मुक्तिबोध के पास दलितों की भाषा ही नहीं थी।

कुबेर - दलित साहित्य का उद्देश्य क्या है?
यशवंत - समता और समनाता का आंदोलन साहित्य में नहीं तो वह काहे का दलित साहित्य? अंबेडकर का चिंतन नहीं, दलित साहित्य नहीं। भाग्य भगवान का विश्वास करे वह दलित साहित्य नहीं। दलित पात्रों का चित्रण न हो, वह भी दलित साहित्य नहीं।

कोई भी साहित्य अपनी विधा में उद्देश्य लेकर लिखा जाता है। आपके प्रश्न के उत्तर के लिए जिन पुस्तकों या रचना का अध्ययन करना चाहिए, वह इस प्रकार है -
जूठन - ओमप्रकाश बाल्मीकि
मर्दहिया, मणिकर्णिका - तुलसी राम
पच्चीस चैका डेढ़ सौ - ओमप्रकाश बाल्मीकि
अपना गाँव - मोहन दास नैमिशराय
ठाकुर का कुआँ - ओमप्रकाश बाल्मीकि
सुनो ब्राह्मण - मलखान सिंह
नो बार - जयप्रकाश कर्दम
दोहरा अभिशाप - कौशल्या बैसंत्री
शिकंजे का दर्द - सुशीला टांकभौरे
अपने-अपने पिंजड़े - मोहन दास नैमिशराय

इन रचनाओं में समता, आजादी और शांति के लिए एक करुणामयी पुकार मिलेगी। क्योंकि अंबेडकर चिंता ने बुद्ध के दार्शनिक चिंतन जो शील-समाधी-प्रज्ञा पर आधारित था, को पलटकर प्रज्ञा-शील-करुणा में निर्धारित कर दिया। अंबेडकर चिंतन को मानना चाहिए, न कि अंबेडकरवाद को।

दलित साहित्य के केन्द्र में सत्याआधारित मानव है। कहीं भी अन्याय, अत्याचार, अमानवीयता, भेदभाव, शोषण इत्यादि प्रवर्तमान हैं उसका विरोध करता है। विद्रोह जगाता है। दलित, पीड़ित, शोषित वर्ग में चेतना प्रसार का कार्य करता है। दलित कर्मशील कलाकार हैं। एक्टिविस्ट-कम राइटर होकर अपने आंदोलन से प्रतिबद्ध और समाजनिष्ठ रहता है। जे. एन. यू. के घनश्याम के शब्दों में - ’’दलित लेखन मुख्य रूप से विद्रोह का लेखन है। यह अनुभव की अग्नि से तपा हुआ साहित्य है। यह लोकरंजन या मनोविनोद के लिए नहीं है। इसका एक महती उद्देश्य है, सामाजिक सद्भाव, मैत्री, समानता आदि की वकालत करना दलित लेखन का ध्येय है। दलित साहित्यकार अपने अनुभवों को वाणी देकर समस्त समाज को जागृत करने का कार्य करता है।’’ साहित्य का अर्थ होता है, सबका हित करनेवाला। रामचरित मानस, रामायण, महाभारत में इसे धार्मिक डाक टिकिट लगा दिया गया। जय राम, जय सियाराम विकृत होकर जय श्रीराम अपने सांप्रदायिक-राजनीतिक हितार्थ बन गया, मानव हित कहीं दूर खो गया। इसे यों कहना चाहिए, ’’राम नाम सत्य’’ हो गया। अब इस शब्द से पितृसत्तात्मकता की बू आने लगी है। जैसे माक्र्सवादी सवर्ण लेखकों ने भारतीय भूमि की गंध भूमिस्तर पर नहीं रोपा और आज नाजुक हालात में पहुँच गया। आर्थिकता की बात करते रहे और अपना हित साधते रहे। भगत सिंह के पाठ प्राथमिक पाठ्यक्रम से हटा दिये गये। या गुमनामी डाल दिये गये। भगत सिंह का चिंतन कितनों ने पढ़ा है। उन्होंने बराबर वंचितों पर चिंतन किया। शायद उनकी उग्र क्रांतिकारी विचारों के कारण अंबेडकर ने भी उनका नोटिस नहीं लिया। मेरे पढ़ने में अभी तक तो आया नहीं। तो कुबेर भाई मैं समझता हूँ  अब आपने दलित साहित्य के उद्देश्यों को आपने गहराई से समझ लिया होगा।

कुबेर - दलित साहित्य, स्त्री विमर्श और आदिवासी साहित्य में अंतर और समनता है?
यशवंत - प्रथम दलित - आधी आबादी और आदिवासी वंचित वर्ग है। क्योंकि राजकाज में इनकी हिस्सेदारी नगण्य है। 30 प्रतिशत महिला आरक्षण लटका हुआ है। स्त्री दोहरे अभिशाप झेलती है। दलित-आदिवासी महिला तिहरे अभिशाप से त्रस्त है। पहला पितृसत्तातमकता से, दूसरा महिला स्वरूप होने से और तीसरा सवर्णों द्वारा किये गये अत्याचार से। ये समानता है। अंतर श्रमकार्य से है। अदलित महिला, दलित महिला, आदिवासी महिला, उच्चवर्गीय महिला को छोड़ सभी श्रमजीवी हैं। एलिट महिला चारदीवारी में आज भी कैद है। वह श्रमजीवी नहीं है। शासकीय सेवा एवं प्रवचन अलग बात है। स्त्री विमर्श की सभी समस्याएँ दलित-आदिवासी साहित्य में एकसाथ कोई भिन्नता नहीं है। जयप्रकाश कर्दम के कविता के शब्द हैं -
’’इनके शयन कक्षों में बिखरे हैं
मेरी बहनों और बेटियों की 
रौंदी गई अस्मिता के निशान।

नोचे गये हैं निर्ममता से 
बेबस स्त्रियों के उरोज और नितंब
उनकी योनियों में ठोके गये है
जातीय अहम के खूँटे।’’

भिन्नता जाति को लेकर है। क्योंकि वर्णव्यवस्था का प्राचीन आरक्षण व्यवस्था है। ’’द्विपश्चचतुश्पद सामाज्ञी’’ वाला। ऋषि उपदेश क्या है? अभी हाल तक यह लागू था। पर लागू था। दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के स्त्री विमर्श में मुख्य अंतर आदिवासी कला के असली वाहक है। दलित स्त्री में आम्रपाली गणिका भिक्षुणी  है। साकेत साहित्य परिषद् ने दलित-स्त्री विमर्श पर कभी गोष्ठी नहीं की है, की होगी तो मुझे स्मरण नहीं है। हाँ, पुरवाही तथा शिवनाथ साहित्य परिषद् में दो-चार आदिवासी रचनाकार जुड़े हैं। यही समानता और अंतर भी है। मुख्य समानता तीनों वर्ग शिक्षा से सदियों से वंचित रहे हैं। अंतर बहुत स्पष्ट है। आदिवासियों की तुलना में दलितों को बहुतर घृणा से आज भी देखा जाता है। स्त्रियों को सभी पुरुष वर्ग ललचायी दृष्टि से देखते हैं। अन्याय, अत्याचार और लूट के स्तर पर अभिव्यक्ति में समानता तीनों में मिलेगी। ’’सुबह की तलाश’’ में देखा जा सकता है। साकेत, पुरवाही और शिवनाथ साहित्य परिषद् में एक प्रतिशत भी महिला रचनाकार नहीं है। यही मुख्य अंतर है। दलित साहित्य अब परिपक्व होकर आ गया है।  आदिवासी और स्त्री विमर्श भी उभार पर है। बस्तर की महिला सोनी सोरी अपने भाई को पत्रकारिता में पढ़ाकर शिक्षित करना चाहती थी। उसके साथ कैसा अन्याय हुआ? आप भी जानते हैं। उसकी अभिव्यक्ति जबरदस्त तो है ही, संघर्ष भी काबिलेतारीफ है।

कुबेर - पिछड़ों के साहित्य की संकल्पना की जा सकती है?
यशवंत - हाँ, यह बहुत पहले हो चुकी है। आप ’युद्धरत आम आदमी’ का पिछड़ा वर्ग विशेषांक पढ़ सकते हैं। पिछड़ा कौन? उपर्यक्त दोनों किताबों से स्पष्ट हो जायेगा। साहित्य पढ़ें तो। कबेर भाई! जो बहुजनों का साहित्य पढ़ेगा तो ओबीसी को समझेगा न। नाम नहीं लूँगा, डाॅ. जोशी, दादू भैया ने ’सत्य ध्वज’ का दलित अंक भी अनेक प्रतियों में प्रदान किया। कितनों ने उसे पढ़ा? एक ने तो उसे घृणा से हटा दिया। एक ने तो उसकी गजल वाली पृष्ठ को फाड़कर रख लिया। बाकी अयोग्य समझकर हटा दिया। क्योंकि गुरू बाबा घासीदास सतनामी समुदाय, अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं। साकेत की पिछड़े वर्षों की स्मारिकाएँ रद्दी की ढेरी बनकर रह गई हैं। मैंने देखा है। वर्तमान में हमारे साकेत साहित्य परिषद् के सभी सदस्य पिछड़े वर्ग से ही ताल्लुक रखते हैं। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ - कि पिछड़ा साहित्य की संकल्पना को लेकर आपने प्रश्न किया है। आप मुझसे नाराज हो सकते हैं। इसका मुझे कोई गम नहीं परंतु निश्चित है, बहुजन साहित्य (ओबीसी) की अवधारण के मूल में दलित साहित्य का कन्सेप्ट है ही। संजीव खुदशाह साफ-साफ कहते हैं, ’’दलित ओबीसी के दर्द को अपना समझता है लेकिन ओबीसी दलितों के दर्द में मौन हो जाता है।’’ आप पढ़िए न दलित वार्षिकि 2016 पृ. 30 को। खैरलांजी कांड के विरोध पर राजनांदगाँव में सात हजार लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तो ओबीसी गायब थे। दलितों  पर होनेवाले हमलों में दलित अकेले पड़ जाते हैं। दलितों ने अपने साहित्य व विचारों के लिए अपना खून बहाया। मंडल आयोग लागू करने आरक्षण का झंडा दलितों ने ही बुलंद किया। सवर्णों के हमले को झेला। इन हमलों में बहुसंख्यक ओबीसी ही थे। यही कारण है कि अनुसूचित वर्ग वाले ओबीसी को लूटनेवाले समझते हैं। ओबीसी वाले संविधान का हिंदी संस्करण ही पढ़ लें! नहीं पढ़ते है न। इसीलिए पिछड़ा साहित्य संकल्पना में आने के बाद भी अनुसूचित वर्ग व ओबीसी  साहित्यकार एक छतरी के नीचे नहीं आ पा रहे हैं। एक कारण और भी है, बहुतर ओबीसी सवर्णों के पिछलग्गू हैं। सवर्ण उच्च पदों पर हैं। उनसे अनुदान तो प्राप्त करते हैं और अपना ही लाभ ले लेते हैं, न समाज का और न ही साहित्य का भला करते हैं। समाज-साहित्य के लिए बलिदान त्याग-बलिदान की जरूरत है। आपको तीखा जरूर लग रहा होगा। पर आप मेरे सम्मानित मित्र हैं इस नाते मैं अपनी बात रखने का हक जरूर रखता हूँ। छत्तीसगढ़ की जनता अति भोली है जो अपनी अंधभक्ति में देवालयों और उसकी प्रतियोगिता में शामिल रहती है। पिछड़ों पर ’’भारत में पिछड़ा वर्ग’’ (शोधग्रंथ) एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति ने लिखा है। यह ग्रंथ विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वीकृत है। हमारे परिषद् के साहित्यकार साहित्य की गहराई में गोते क्यों नहीं लगाते? इसका  मुझे आत्मिक दुख होता है। तुलसी राम की ही आत्मकथा पढ़ लें, वे तो सबसे पुअर थे। पर झंडा तो बुलंद किया, अपना और मानव समाज का। हमारे परिषद् के साहित्यकार झट तुलना करते नजर आते हैं। परदेसी राम वर्मा को छत्तीसगढ़ का प्रेमचंद कह डाला, तमगा दे दिया। वे नहीं जानते भारतीयों ने भी कालीदास को शेक्सपीयर का तमगा जड़ दिया परंतु विदेशों में कालीदास को शेक्सपीयर नहीं कहा गया। आपको भी काई तुलनात्मक तमगा दे दे, कोई आश्चर्य नहीं। मेरा मतलब है, साहित्य को तर्कात्मक, तुलनात्मक, विवेचनात्मक और विवेकात्मक संगति में पढ़ें और विश्लेषित करें। बाराभांवर के फेर में न फंसें। मुझे ही कई गोष्ठियों में बहुत बड़ा आलोचक कह दिया गया है, जबकि ऐसा है नहीं। आश्चर्य होता है। मेरी तो आलोचना की अभी एक भी किताब प्रकाशित नहीं हुई है। हाँ, आलोचना करता हूँ और लिखता भी हूँ। पर जैसा कहा जाता है, वैसा तो नहीं है न। अतिवाद से हमें बचना भी चाहिए कुबेर भाई।

अब आते हैं मूल विषय पर। कोल्हापुर के महाराज छत्रपति शाहूजी ने 26 जुलाई 1902 में अपने राज्य में पिछड़े वर्ग के लिए नौकरियों में 50 प्रतिशत का आरक्षण जारी कर दिया। उस जमाने पिछड़ा वर्ग अर्थात डिप्रेस्ड क्लास का तात्पर्य अस्पृष्य, आदिवासी, पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों से था। पेरियार ई. रामास्वामी ने इसे विस्तार दिया। मद्रास प्रांत में जस्टिस पार्टी की सरकार ने 27 दिसंबर 1929 को जनसंख्या के अनुपात में डिप्रेस्ड क्लास को सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत की भागीदारी प्रदान की। 1930, 1931, 1932  की गोलमेज बैठकों में हिंदू आरक्षण व्यवस्था के विरुद्ध अंबेडकर के तर्कों ने दिशा ही बदल दी। पूना पैक्ट हुआ। अंबेडकर के अथक प्रयासों से ही संविधान में धारा 340 आई। परिणाम स्वरूप 1990 में भारत सरकार द्वारा केंदीय सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण बना। मैंने स्वयं 1982 में मंडल आयोग के पक्ष में जुलूसों में नारे लगाये थे। उस समय मैं भी नहीं जान पाया था कि यह आयोग किस विषय पर है। युवा था न, चला गया आदोलन में। फिर भी ओबीसी वर्ग अनुसूचित जाति को घृणा से देखता है, ताज्जुब है।

बुद्ध शाक्य जाति के हैं। कबीर जुलाहा, ओबीसी वर्ग से आते हैं। महात्मा ज्योति बा राव फूले माली जाति से ताल्लुक रखते हैं। ये तीनों दलित साहित्य के आधार स्तंभ हैं। गाडगे बाबा धोबी जाति से हैं। इसे कब स्वीकार करेंगे। अंबेडकर ने सही कहा था, आप अपना इतिहास जान तो लो। पिछड़ा वर्ग बुद्ध, कबीर, फूले को पूरा पढ़ें तो। भारतेंदु, मैथिली शरण ने द्विज साहित्य को पुष्ट किया सुभद्रा जी ने लक्ष्मी बाई पर प्रसिद्ध कविता लिखी पर झलकारी बाई को छोड़ दिया, क्यों? क्योंकि वह कोरी आदिवासी वर्ग से थी। 1857 के युद्ध में झलकारी बाई का योगदान लक्ष्मी बाई से कहीं अधिक है। गांधीजी साइमन कमीशन का विरोध नहीं करते तो दलितों की हार नहीं होती। तब पूना पैक्ट भी नहीं होता। और गांधीजी को अपने प्राणों की भीख भी अंबेडकर से न मांगी होती। चंदापूरे, कर्पूरी ठाकुर, ललई सिंह पिछड़ों के दार्शनिक नायक हैं। किसी को भी चुन ले और रचना करें। इससे काम न चले तो बघेल की रचना ’ब्राह्मण कुमार रावण को मत मारो’ को छत्तीसगढ़ के ओबीसी पढ़ लें। माजरा समझ में आ जायेगा, ओबीसी साहित्य का। बघेल की पुस्तक को आपने पढ़ा होगा न। न पढ़े हों तो पढ़िए जरूर। पवन यादव पहुना ने पढ़ा है और मुझे पढ़ाया भी है। ब्राह्मणवादी लेखक प्रगतिशीलता का छद्म रूप ओढ़कर प्रगतिशीलता का ढोंग करता है। वह सामाजिक रूढ़ियों पर चोट नहीं करता। रूढ़ियों पर से आँखें मूंद लेता है। वह चापलूस होता है, ऐसी बात नहीं लिखता कि द्विज व्यवस्था नाराज हो जाये। वह संकीर्णमन का होता है। उसे लगता है कि वह अपने कुनबे से बहिस्कृत हो जायेगा। अभी भी पिछड़े वर्ग के रचनाकार ब्राह्मणवादी रचनाकारों के पिछलग्गू हैं। ये अपना कब लिखेंगे? इन्हीं से स्वतंत्र होना पिछड़ा साहित्य की आधारशिला है। तभी तो आप जो कह रहे हैं, पिछड़ा साहित्य संकल्पना, साकार होगी। देरी नहीं करना चाहिए। जुट जाइए। अपने पूरे 52 प्रतिशत अधिकारों के लिए पिछड़ा वर्ग एकजुट होकर खड़ा नहीं हो पाया है। क्या यथास्थिति बनी रहेगी? इससे निपटने के लिए बलिदान तो चाहिए ही। मांगने से अधिकार नहीं मिलते। फिर मांगने से मरना भला। तो साहित्य और जमीनी संघर्ष तो किया जाय। आप कहते हैं, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का अध्यक्ष पिछड़े वर्ग से आये। अगर ऐसा होता है तो वे इन अधकारों के लिए पुरजोर कोशिश करे। पिछड़ा वर्ग क्या है? इसका पूरा इतिहास पिछड़ों को समझाएँ। फरहद में डाॅ. दादूलाल जोशी ने एक कार्यक्रम कराया था तो अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष पधारे थे पर किसी अध्यक्ष ने नहीं कहा कि ऐसा अभियान मैं अपने घर से शुरू करूँगा। डींगे भारी-भारी हांक दी। ऐसे लोगों के रहते कैसे हम अपना अधिकार ले पायेंगे। सोचना पड़ रहा है, ऐसा लगा कि तोनों आयोग के अध्यक्षांे ने वंचित वर्ग के पहल की ही हत्या कर दी। तभी तो मैं कहता हूँ आलोचना का वंचित साहित्य में ’हत्या’ एक मापदंड होगा ही। इसी को तो रोकना वंचितों के साहित्य का मूलभूत साहित्यिक कलात्मक कारनामा है। यही पिछड़ा साहत्य की समूल संकल्पना है। विषय अनेक हैं। अपने-अपने ढंग से साहित्यिक प्रस्तुति निजी विधाओं में दें। मुझे एक व्यक्ति ने कहा, सरकार की आलोचना न करें। करें तो ज्यादा न करें। तो कुबेर भैया जी इसी हत्या में तो सरकारी अनुदान फलता-फूलता है। ऐसे चापलूस साहित्यिक समझ नहीं रखते तो पिछड़ा वर्ग साहित्य अर्थात बहुजन साहित्य या ’दलित बहुजन साहित्य’ कहाँ निखार आ पायेगा? चापलूसों के कारण ही दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। इसका कारण अशिक्षा है। फूले ने कहा ही है - गुलामगिरी से -
’’विद्या बिना मति गई
मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
और वित्त बिना शूद्र गए।’’

ये सारे अनर्थ एक अशिक्षा ने किया। पिछड़ा वर्ग के कांचा इलैय्या ने ’मैं हिंदू क्यों नहीं’ लिखा। अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। इसे पढ़ा जाये। यहाँ इलैय्या जी ने अनेकानेक चिंतनीय विषयों को दिया। समझा जाय, हिंदुस्तान के सभी लोग हिंदू हैं, पर हिंदू कोई नहीं। केवल जातियाँ हैं - महार, तेली, कुर्मी आदि। रोटी-बेटी नहीं! सभी हिंदू हैं। यह षडयंत्र 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आया। जनगणना में धर्म हिंदू लिखवाया गया। इसके पहले उच्चवर्ग ही हिंदू लिखता था। बाकी सबकी जातियाँ ही जनगणना में लिखी जाती थी। इसका उदाहरण पाठशाला की दाखिल पंजी है। जात धर्म लिखना पड़ता था। जाति के कालम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (बनिया) लिखते थे। ये वर्ण हैं। और शूद्रों की दशा में जाति ही लिखते थे। कांचा इलैय्या का चिंतन पक्ष इस प्रकार है - सरस्वती, जिसे विद्या की देवी माना जाता है, कोई किताब क्यों नहीं लिखी? सरस्वती कभी भी, कहीं भी बोलती नहीं? औरतों को भी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। दलित, बहुजन देवी-देवताओं की परंपरा, पुरोहित परंपरा से बिलकुल भिन्न क्यों है? विधवा विवाह की समस्या दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में नहीं रही। ये वर्ग समानता के आधार पर रहते हैं। पौनी-पसेरी आखिर क्या है? नाऊ-बरेठ क्या है? सदा छोटी जातियाँ ही उत्पादक वर्ग क्यों रहीं? ब्राह्मणवादी ताकतें श्रम को निचले दर्जे का क्यों मानती है? जबकि दलित-बहुजन का विश्वास है कि हमारा कल हमारे श्रम से तय होता है। हिंदुत्व श्रम की महत्ता निर्मित करने में क्यों असफल रहा? तीन हजार सालों से दलित-बहुजनों के लिए शिक्षित होने का विरोध क्यों होता रहा? ऐतिहासिकता में दलित शरीर ही नहीं बल्कि दलितों का ओबीसी विद्वानों द्वारा लिखी गई पुस्तकें भी अस्पृष्य होती हैं। क्यों? पश्चिम में दुश्मन की पुस्तकें समानता से पढ़ी जाती हैं। भारत में नहीं कारण क्या है? अंग्रेजों ने तमाम संस्थान, पार्टियाँ और संगठन तथाकथित उच्च जातियों के हाथों में बने रहने दिया? उन्होंने राष्ट्रीय हित को इस तरह परिभाषित किया कि वह सार रूप में भद्रलोक का ही हित बना गया। ऐसा क्यों? लोक को लेकर साकेत की वार्षिक स्मारिका में विविध विषयों को लेकर साहित्य आया पर उनमें भद्रलोक की स्थिति स्पष्ट नहीं हुई। लखनलाल साहू के शोध से स्थिति कितनी स्पष्ट होगी यह आनेवाला समय ही बतायेगा। 

माक्र्सवादी क्रांतिकारी सिद्धांत ने ब्राह्मण विरोध दलित-बहुजन  बुद्धिजीवी पैदा क्यों नहीं किया? एक सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांत कि अंतरजातीय विवाह में शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ पीढ़ियाँ आ सकती हैं, एक औसत ब्राह्मण दिमाग क्यों नहीं समझ पाता? 85 प्रतिशत निजी कारें उच्च वर्ग के पास ही क्यों है? वातानुकूलित रेलगाड़ियों की सुविधा उच्चवर्ग के ही पहुँच में क्यों है? तो यह है पिछड़ों के साहित्यिक विषय की संकल्पना। इन विषयों पर लिखनेवाले कितने पिछड़े लेखक हैं?

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में चाँऊरवाले बाबा ने किस दिन किस खेत में हल चलाया? फिर चाँऊरवाले बाबा कैसे बन गया? चाँऊरवाले बाबा शब्द एक ब्राह्मण श्यामलाल चतुर्वेदी ने ही दिया न षडयंत्रपूर्वक। इसे ’सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’ नहीं समझ पाया? खराब कौन है - मैं, आप या वो? मुझे मालूम है कि मेरे इस साक्षातकार को हमारे परिषद् के साहित्यकार पढ़कर कटु आलोचना करेंगे। आलोचना हो तो सामाजिक चेतना के, भाईचारे के रास्ते खोलती है। मुझे लगता है, आपके प्रश्न और मेरे उत्तर पाठकों की स्वतंत्र, समान चेतना को जागृत करेंगे। गांधी-अंबेडकर, ओमगोलवेर और सुरेश पंडित के अनुसार विचारों में एक मंच पर आ ही रहे थे कि गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी, और यह सिलसिला रुका नहीं है। बाद के वर्षों में लोहिया और अंबेडकर रहे नहीं। प्रेमचंद बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो गए।  टैगोर साहित्य मानवता क्षेत्र में छाये रे। इन पाँचों के विचार दलित-बहुजन-आदिवासी साहित्य पर अनेक शताब्दियों तक छाये रहेंगे। पर मेरा लिखा सब पढ़े, मैं दूसरों का लिखा न पढ़ूँ वाली मानसिकता क्या भला होगा? भारत में पिछड़ावर्ग छोड़कर जिन पुस्तकों का नाम लिया है सभी को मैंने पढ़ा है। ’’भारत में पिछड़ा वर्ग’’ के रूपये भेजने के बाद भी यह पुस्तक अभी तक नहीं मिली, छः साल हुए। मैं पुस्तकें खरीदकर पढ़ता हूँ, चुराकर भी। त्याग और बलिदान चाहिए ही।
यशवंत
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गुरुवार, 13 जून 2019

चित्र कथा


1977 - श्री खुमानलाल साव चंदैनीगांदा टीम के साथ राजघाट पर। तत्कालीन सांसद श्री चन्दूलाल चंद्राकर के प्रयास से - सौजन्य श्री प्रमोद यादव
 श्री खुमानलाल साव 1973 - सौजन्य श्री मिलिंद साव