शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

धर्म अउ वोकर सुभाव

 निबंध (छत्तीसगढ़ी)

धर्म अउ वोकर सुभाव

कुबेर

रहि-रहि के एकठन सवाल हर मोर मन ल दंदोरत रहिथे; परमात्मा हर जब अतका सुदर सृष्टि के रचना करे हे, अनंत विस्तारवाले अंतरिक्ष बनाय हे, अनगिनत आकाशगंगा, अनगिनत ग्रह अउ नक्षत्र बनाय हे, अतका सुदर पृथ्वी अउ इहाँ नाना प्रकार के जीवजंतु बनाय हे, सबो बर चारा-दाना, हवा अउ पानी बनाय हे तब का वोहर धर्म बनाय बर भुला गिस होही? अइसन सोचे के पीछू मोर ये मानना हे कि आज के दिन ये धरती म जतका धर्म के बोलबाला अउ प्रभुत्व हे, जेकर पीछू पूरा जगत ह मोहाय हे, जेकर नाम म वोहर मारे अउ मरे बर उतारू हे, वो सब के सब आदमी के बनावल धर्म हरे। 

धर्म हर संस्कृत भाषा के शब्द हरे जउन हर ’धृ’ धातु ले बने हे अउ जेकर मतलब होथे - धारण करनेवाला। “धार्यते इति धर्मः।” मतलब जउन हर धारण करथे विही हर धर्म हरे; पवित्र गुण अउ कर्म ल धारण करना हर धर्म हरे। भारतीय वांगमय म धर्म के बड़ा सुघ्धर-सुघ्धर परिभाषा अउ विषद् बिखेद मिलथे, जइसे वैशेषिक दर्शन म केहे गे हे -

’’यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।’’

(’धर्म हर अनुशासित जीवन जीये के तरीका हरे जेकर ले लौकिक उन्नति अउ आध्यात्मिक परमगति, दुनों के प्राप्ति होथे।’)

महर्षि मनु हर धर्म के 10 लक्षण बताय हे - 

’’धृति क्षमा दमोेस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणमं।।’’

(1) धृति = र्धर्य (2) क्षमा = अपकार करनेवाले के घला उपकार करना (3) दम = संयम (4) अस्तेय = चोरी न करना (5) शौच = अंतर-बाह्य के पवित्रता (6) इंद्रिय-निग्रह = इंद्रियों को पवित्र कार्यों में लगाना (7) धी = सद्बुद्धि के विकास (8) विद्या = ज्ञानार्जन (9) सत्य = मन, कर्म अउ वचन ले सत्य के पालन करना (10) अक्रोध = चित्त ल शांत रखना। 

ऊपर के जम्मो लक्षण अउ नहीं ते वोकर विरोधी लक्षणमन हमर अंतरमन म प्राकृतिक ढंग ले स्वयं विद्यमान रहिथें। येकर से अइसे लगथे कि महर्षि मनु हर जउन धर्म के बात करे हें वोहर ईश्वर के बनावल धर्म हरे। धर्म के जउन-जउन दस लक्षण वोमन हर बताय हें, वो सबोमन मानव के प्राकृति म शामिल हें। अब केहे के जरूरत नइ हे कि जउन धर्म म ये दसों गुणमन ह समाय हें वोहर परमरात्मा के बनावल धर्म हरे। अब सवाल ये उठते कि आज जउन कोरी-खरका धर्म दुनिया म चलत हें, वोमन हर काकर बनावल हरे; उंकर गुण अउ प्रवृत्ति ह का हे?

तइहा ले आज तक, दुनियाभर म, मानव समाज ऊपर दू तरह के सत्तामन ह राज करत आवत हें। पहली हरे राजसत्ता अउ दूसर हरे धर्मसत्ता। मानव समाज के आजतक के इतिहास हर राजसत्ता अउ धर्मसत्ता, दुनों के गुलामी के इतिहास के सिवा अउ कुछू नो हे। राजसत्ता अउ धर्मसत्ता, दुनों के प्रकृति एक समान होथे।  दुनों एक-दूसर के ऊपर आश्रित होथें, एक-दूसर के सहारा पा के पनपथें, फूलथें-फरथें। राजसत्ता के सिंहासन ह जब-जब डोले लगथे, वोहर धर्मसत्ता के शरण म जाके दण्डवत हो जाथे। विंहचे, दूसर कोती, राजसत्ता के सहारा बिना धर्मसत्ता के प्रचार-प्रसार नइ होवय। मोला इंकर सुभाव म ये बातमन दिखथें -

दुनों सत्ता के आधार हे - भय अउ प्रलोभन। गोसाईजी हर केहेे हे, ’’भय बिन प्रीति न होहि गोसाईं’’। राजसत्ता हर नियम-कानून अउ राजदंड के भय देखाथे तब धर्मसत्ता के घला कतरो नियम होथे, कर्मकांड होथे, नरक अउ चैरासी लाख योनि म भटकाव के सिद्धांत हे जउनमन आदमी के मन म भय पैदा करथें। आदमी ल बुरा कर्म करे ले रोके खातिर, पाप कर्म करे ले रोके खातिर, स्वस्थ समाज बनाय खातिर ये नियम मन के उपयोगिता ले इनकार नइ करे जा सके। अउ खचित इही उद्देश्य ल साधे खातिर ये नियम अउ सिद्धांत मन ल बनाय गे रिहिस होही तब तो ये काम हर राजसत्ता के काम हरे। नियम कानून म आदमी ल बांध के रखना राजसत्ता के काम हरे। धर्म सत्ता के काम तो आदमी ल मोक्ष के मार्ग म ले जाना हरे। येकर बावजूद, मोला लगथे, धर्म म बहुत अकन नियम अउ धार्मिक कर्मकांड हे जउनमन के संबंध ह स्वास्थ्य ले हे। जइसे कि मृतक के अंतिम संस्कार म जावइया मन ह विही कोती ले असनान करके कच्चा कपड़ा म लहुटथें। येकर संबंध रोगकारक सूक्ष्मजीव के संक्रमण ले मुक्त होय से हे ताकि कोनो तरह के संक्रमण ह गाँव-घर के भीतर मत पहुँच सके। अइसने बिहनिया असनान करे के बाद तुलसी चैंरा म जल अर्पित करके तुलसी दल ल गंगाजल अउ पाँच दाना चाँऊर संग गटके के नियम हे। आज वैज्ञानिक अनुसंधान ले सिद्ध हो चुके हे कि खाली पेट म तुलसी दल ल गंगाजल अउ पाँच दाना चाँऊर संग ग्रहण करे ले उदर संबंधी कोनो बीमारी हर व्याप्त नइ हो सके। ये बात ल हमर ऋषि-मुनी मन जानत रिहिन, विही पय के ये कर्म ल वोमन धर्म ले जोड़ दिन ताकि मोक्ष के लालच म आदमी मन येकर अनुपालन करे अउ स्वस्थ रहंय। आखिर स्वस्थ शरीर बिना न तो स्वस्थ मानसिकता के निर्माण हो सके; अउ न स्वस्थ, सुखी अउ संपन्न समाज के रचना हो सके। केहे गे हे - ’’पहला सुख नीरोगी काया, दूसर सुख घर में हो माया, तीसर सुख कुलवंती नारी, चैथा सुख सुत आज्ञाकारी।’’

दुनों सत्तामन मानव-सुतंत्रता के विरोधी होथें। राजा के खिलाफ बोलइया, अउ वोकर आलोचना करइया ल सदा फांसी के फंदा झूलत दिखथे। आजो घला, दूसर देश म जाके बसना बड़ा कठिन हे। जनम धरते सात आप कोनो न कोनो धर्म ले बंध जाथव। आपके नाम म आपके धर्म के छाप लग जाथे। अपन धर्म के मेड़ों म आप बंध जाथो। आपके बेटी-रोटी आपके धर्म आउ आपके जाति ले बाहिर असंभव हो जाथे। दुनों सत्तामन कोनो ल अपन आलोचना करे के जघा नइ देवंय। आलोचना करइया मन ल येमन सूली म टांग देथें। प्रभु ईसा मसीह ल सूली म काबर टांगे गिस? काबर कि वोहर वो समय म प्रचलित धार्मिक  विश्वास अउ परंपरा के विरोध करिस। वोहर किहिस कि ’’ईश्वर ह क्रूर अउ क्रोधी नइ हे। ईश्वर ह तो करुणा अउ प्रेम के सागर हे।’’ जियोर्दानो ब्रूनो (1548 ई. - 17 फरवरी 1600 ई.) ल बीच बजार म खंभा म बांधके, माटीतेल डारके जलाके काबर मारे गिस? काबर कि वोहर निकोलस कोपरनिकस (19 फरवरी 1473 ई. - 24 मई 1543 ई.) के खगोलशास्त्र के नियम अउ सिद्धांत के समर्थन अउ प्रचार करिस। वोहर बताइस कि ’’ब्रह्माण्ड के केन्द्र पृथ्वी हर नोहे, सूर्य हरे। अउ अगास हर वोतकच नइ हे जतका हमला दिखथे। अगास हर तो अनंत हे अउ वोमा अनगिनत विश्व समाय हे।’’

दुनों सत्तामन आदमी के शोषण करथें। राजसत्ता हर आपके धनबल अउ शरीरबल के संगेसंग मानसिक शोषण घला करथे। येकर बिना राजमहल के वैभव हर कायम नइ रहि सकय। विहिंचे आपके धन अउ श्रम के शोषण करे बिना न तो कोनो धार्मिक स्थल के निर्माण हो सके अउ न कोनो धर्म अधिकारी के जीवन चल सकय। धर्म के सबो कर्मकांड शोषण के औजार के सिवा अउ कुछू नोहे। 

दुनों सत्तामन अदमी ल आँखीं मूंद के बिसवास करे बर उकसाथें अउ ये तरह ले ये मन आदमी के चेतना के विकास ल बाधित करथें अउ समाज म वैचारिक क्रांति नइ होवन दंय। दुनों सत्तामन तरह तरह के सपना अउ लालच देखाथें अउ आदमी ल कभू संगठित नइ होवन दंय। 

दुनों सत्ता के कथनी अउ करनी म जमीन-आसमान के फरक घला होथे। राजसत्ता हर आपके भलाई आउ आपके विकास बर तरह-तरह के बात करथे पन वोला करके देखाथे कतका येला समझाय के जरूरत नइ हे। धर्म हर मोक्ष के बात करथे पन जनम धरते सात वोहर आप ल अपन सीमा म बांध लेथे। अप अपन धर्म धार्मिक परंपरा, धार्मिक रीतिरिवाज अउ धर्मग्रंथ ले बंध जाथो। धर्म ल सत्य के प्राप्ति खातिर एक मारग बताय गे हे। पन दुनिया म कोनो धर्म हर आप ला सत्य तक नइ पहुँचावय। जउन धर्म म चलके आप सत्य तक पहुँच सकथो वोहर आपके निजी धर्म हो सकथे। दुनिया के कोनो धर्म अउ दर्शन के रद्दा म चलके सत्य ल नइ हासल करे जा सके। प्रसिद्ध दार्शनिक, विचारक अउ शिक्षाशास्त्री जे. कृष्णमूर्ति के साफ-साफ कहना हे कि  ’‘कोनो भी धर्म, दर्शन-विचार या सम्प्रदाय के मार्ग म चलके सत्य ल हासिल नइ करे जा सके। सत्य हर तो एक ‘मार्ग रहित भूमि’ हरे। सत्य के खोजी मनुष्य ल सब तरह के बंधन ले मुक्त होना जरूरी हे।’’ पन दुख के बात हे कि दुनिया के कोनो धर्म हर हमला मुक्त नइ होवन दय।

कतरो बुराई होय पन राजसत्ता ह मानव समाज खातिर जरूरी हे। राजसत्त हर आपके अउ आपके परिवार के रक्षा करथे; आपके धनसंपत्ति के रक्षा करथे; आपके व्यापार, व्यवसाय अउ रोजगार के रक्षा करथे। इतिहास म कतरो प्रजापालक राजा होय हें जउनमन जनता के भलाई के नाना प्रकार के काम करिन। इही पायके राजसत्ता ल मानव समाज खातिर आवश्यक बुराई माने गे हे। का धर्मसत्ता ल घला मानव समाज खातिर आवश्यक बुराई माने जा सकथे?

आवश्यकता ल आविष्कार के जननी माने गे हे। जीवन संघर्ष म जीत हासिल करके अपन अस्तित्व के रक्षा करना अउ प्रतिद्वंद्वी ऊपर अपन वर्चस्व कायम करना मनुष्य के बुनियादी प्रवृत्ति हे। प्रकृति म प्राणी हर सदा मोजन, प्रजनन अउ आवास; इही तीन चीज बर संघर्ष करथे। मनुष्य होय कि कोनो दूसर प्राणी, वोकर जीवन संघर्ष के सदा तीन स्तर होथे - पहला प्रकृति के संग संधर्ष, दूसरा अन्य प्रजाति के जीव-जंतु के संग संधर्ष अउ तीसरा अपन सजातीय प्राणी मन संग संघर्ष। चाल्र्स डार्विन के विकासवाद म येकर बिखेद वर्णन मिलथे। जीवन संघर्ष बर प्राणी ल सबल बने ल पड़थे। अपन शक्ति अउ क्षमता ल बढ़ाय खातिर नाना जिनिस के जरूरत पड़थे। अपन इही आवश्यकता के पूर्ति खातिर सभ्यता के विकास क्रम म मनुष्य हर कतरो जिनिस के आविष्कार करिस। सबले पहिली वो ह ढेला-पथरा अउ अपन नख ल अस्त्र-शस्त्र के रूप म प्रयोग करिस होही। आग के खोज अउ, पहिया के आविष्कार ह हमर आदिपुरखा मन के महान् आविष्कार आवंय। इंकरे बल म हमर आदिपुरखा मन अउ जादा अच्छा अस्त्र-शस्त्र के आविष्कार करिन होहीं। पशुपालन अउ खेती के आविष्कार हर मानव सभ्यता के नेंव धरिस।  अइसने नाना प्रकार के हजारों आविष्कार के ऊपर आज के हमर भोगवादी जीवन हर आश्रित हे। आज मनुष्य हर प्रकृति के भोग करे बर जान गिस फेर वोकर रक्षा करे बर वोहर मुहू फेर लिस। 

न तो मनुष्य के आवश्यकता हर खतम होवय अउ न वोकर आविष्कार के क्रम ह थमय। आवश्यकता अउ आविष्कार के क्रम ह आजतक जारी हे। बिजली, बड़े-बड़े कारखाना, बस, रेलगाड़ी, हवाई जहाज, पानी जहाज, राकेट, मिसाइल, कंप्यूटर अउ इंटरनेट होय कि अउ कुछू दूसर जिनिस होय, सबो ह मनुष्य के आवश्यकता के पूर्ति खातिर हरे। अपन स्वार्थ सिद्ध करना आदमी के सबले बड़े आवश्यकता हे। मनुष्य हर सजातीय जीवन संघर्ष म, मतलब एक मनुष्य हर दूसर मनुष्य ऊपर जीत हासिल करके अपन वर्चस्व अउ अपन श्रेष्ठता ल सिद्ध करे खातिर दू ठन बहुत विलक्षण आविष्कार करिस; पहिली - भाषा अउ अउ दूसरइया - धर्म। 

मोला लगथे कि भाषाच ह मानव समाज के पहिली आविष्कार हरे, चाहे पहिली-पहिली भले येहर संकेत के रूप म रिहिस होही। येकर कारण हे; बिना भाषा के न तो सोचना संभव हे अउ न चिंतन करना; अउ बिना सोचे मनुष्य हर पलभर नइ रहि सकय। धर्म के प्रभाव म आके कतरो आदमीमन भाषा ल ईश्वर के रचना मानथे। पन ये बात के कोनो आधार नइ हे। दुनिया के सबो भाषाविज्ञानी मन भाषा ल मानव समाज के रचना मानथे, मानव समाज के अर्जित संपत्ति मानथे। अपन बात ल सिद्ध करे खातिर उंकर कना कतरो अकाट्य प्रमाण हे। 

पशु-पक्षीमन के घला अपन भाषा होथेे। पन आदमीबाहिर दूसर प्राणीमन के भाषा हर सहजात होथे जबकि मनुष्य के भाषा हर अर्जित होथे। इही पाय के भाषाविज्ञान म मनुष्य के द्वारा उच्चारित अर्थपूर्ण भाषाच ल भाषा माने गे हे।  भाषा विज्ञानीमन भाषा ल परिभाषित करे के कोशिश करिन फेर आजतक भाषा के कोनो सर्वमान्य परिभाषा नइ बन पइस। काबर कि भाषा के विशेषता, प्रवृत्ति अउ प्रकृति हर बड़ा व्यापक हे अउ ये जम्मों विशेषतामन ल एक वाक्य कि दू वाक्य के परिभाषा म समेट पाना असंभव हे। भाषा के विशेषता अउ वोकर प्रवृत्ति के विवेचना म कतरो किताब लिखे जा चुके है।

भाषा के प्रकृति हर विलक्षण होथे। येहर अपनआप म सत्तासंपन्न होथे। हालाकि येकर रचना ल मानव समाज ह करे हे। येकर बावजूद इहीहर मानव समाज और व्यक्ति के निर्माण करथे; वोकर योग्यता अउ चेतना के स्तरमन ल निर्धारित अउ व्यक्त करथे। केहे गे हे, ’बंद मुट्ठी लाख के, खुल जाये तो खाक के’। भाषा हर नदी के जल के समान प्रवाहमान होथे अउ नवा-नवा रूप घला धारण करत रहिथे। इही पायके समय अउ परिस्थिति मुताबिक येकर कतरोे शब्दमन के पारंपरिक अर्थ ह घला बदलत रहिथे। समय के प्रवाह म भाषा के कतरो शब्दमन प्रचलन लेे बाहिर होके विलुप्त हो जाथें। येहर भाषा अउ वोकर शब्दमन के मृत्यु हरे। आज संसार के बहुत अकन भाषामन विलुप्त हो चुके हें। 

येकर विपरीत, भाषाविज्ञानी मन के अनुसार भाषा हर परंपरा अउ जमीन ले मिलके आदमी के शोषण घला करथे। तब का भाषा हर ककरो हत्या घला कर सकथे? बिलकुल सही कहना हे, भाषा हर मरत आदमी ल जीवन घला देथे अउ आदमी के हत्या घला करथे। केहे गे हे भाषा के समान मीठ अउ भाषा के समान कड़ुवा अउ कुछू नइ होवय। भाषा हर अमृत घला हरे अउ जहर घला। तीर के घाव ल आदमी ह सहि सकथे पन भाषा के मार ल वोहर नइ सहि सके। जाहिर हे कि भाषा के अपन बहुआयामी व्यक्तित्व होथे। ये तरह ले भाषा हर कोनो नागरिक ले कम नइ होवय। भाषा हर मानव के चेतना के निशानी हरे। जनम धरइया शिशु के अउ मरत आदमी के चेतना के थाह भाषा के जरिया लेय जाथे। भाषा म सृजन करे के क्षमता होथे। येकरे ले ज्ञान सभ्यता अउ संस्कृति के सृजन होथे। इही पाय के भाषा ल वांगमय अउ ब्रह्म केहे गे हे।

भाषा बिना न धर्म हो सके अउ न साहित्य। भाषा के ये जम्मों विशेषता मन ल धर्म अउ साहित्य म देखे जा सकथे। दुनिया के जम्मों धर्मग्रंथ मन घला एक तरह के साहित्य हरें। विद्वान मन चाहे भाषा के असली रूप ल नइ पहिचान सके पन लोक समाज हर भाषा के असली रूप ल अच्छा ढंग ले पहिचानथे। पुरोहित, मुल्ला अउ पादरी मन माने चाहे मत माने; लोक के स्पष्ट मानना हे कि ’’थूँके थूँक म बरा नइ चूरय’’। मतलब भाषा म अनाज उगाय के ताकत नइ हे जेकर ले आदमी ल जीवन मिलथे। भाषा म उत्पादन करे के ताकत नइ हे जेकर ले सभ्यता के विकास होथे अउ समाज ल सुख-सुविधा मिलथे। ये ताकत तो फकत मनुष्य के पुरुषार्थ म निहित हेे। भाषा के जउन शब्द म आदमी ल अन्न रूपी जीवन देय के ताकत नइ हे वोहर वोला मोक्ष कइसे दे सकही। हमर जम्मो धर्म अउ धर्मग्रंथ मन हर ’’थूँके थूँक म बरा चूरोइया साधन हरें’’। जम्मो धर्म अउ धर्मग्रंथ मन भाषा के प्रपंच ले जादा अउ कुछू नो हे। येकर ले न तो सत्य के अनुसंधान हो सके, अउ न ईश्वर के प्राप्ति हो सके, अउ न कोनो ल मोक्ष मिल सके। 

आदमी के बनावल कोनो जिनिस ले ईश्वर के प्राप्ति नइ हो सकय। ईश्वर के प्राप्ति तो ईश्वरेच के बनावल चीज ले हो सकथे। ईश्वर के बनावल धर्म ले हो सकथे। ईश्वर के बनावल धर्म हरे - प्रेम। प्रेम ले ही ईश्वर, मोक्ष अउ सत्य के प्राप्ति हो सकथे। इही पाय के कबीर साहब हर केहे हें - 

’’शब्द-शब्द सब ही कहे, वो तो शब्द विदेह।

जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि-निरखि कर लेह।।’’ 

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।।

ईश्वर ह पूर्ण अउ स्वयंभू हे। वोकर बनावल सबो जिनीस हर पूर्ण हे। वोकर कोनो रचना हर अधूरा नइ हे। सृष्टि बनावत समय ईश्वर हर धर्म बनायबर कइसे भुला जाही? सृष्टि के रचना करत समय वोहर धर्म के रचना घला करे हे अउ वो धर्म हरे - प्रेम। प्रेम ह पूर्ण धर्म हरे। प्रेम ह संपूर्ण सृष्टि के धर्म हरे। न ता प्रेम ह कोनो ल बाँटय अउन न प्रेम ल कोनो बाँट सकय। संपूर्ण सृष्टि म न तो प्रेम म कहीं कोनो भेद हे अउ न प्रेम ह संपूर्ण सृष्टि म कोनो संग भेद करय। प्रेम हर स्वंभू हरे। मानव निर्मित; मानव-मानव के बीच घृणा पैदा करइया, मानव समाज ल बाँटइया, मानव-मानव म भेद करइया अउ अधूरा धर्म ल धर्म कहना उचित नइ हे।

शब्द के वास जिभ्या म होथे अउ प्रेम के वास हिरदे म होथे। ईश्वर हर तो प्रेम रूप हरे। ईश्वर के प्राप्ति शब्द अउ जिभ्या ले संभव नइ हे, ईश्वर के प्राप्ति आदमी के बनावल कोनो धर्म अउ धर्मग्रंथ ले संभव नइ हे। ईश्वर तो प्रेम के रूप धरके सबके हिरदे म बसे हे। सच्चा धर्म हिरदे म बसथे, पोथी म नहीं। कोनो पोथी पढ़ के प्रेम ल हासिल नइ करे जा सके। प्रेम ल प्रेम ले ही हासिल करे जा सकथे। कबीर साहब हर केहे हे -

’’प्रेम न बारी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा परजा चो चहे, शीश देय लइ जाय।।’’

***kuber***