मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

संगोष्ठी कुबेर में बहुत संभावनाएं हैं - डॉ पाठक

संगोष्ठी

कुबेर में बहुत संभावनाएं हैं - 

डॉ विनय कुमार पाठक
साकेत साहित्य परिषद् का राज्य स्तरीय वैचारिक
संगोष्ठी एवं पुस्तक विमोचन कार्यक्रम संपन्न
सुरगी, राजनांदगाँव। साकेत साहित्य परिषद् सुरगी द्वारा सृजन संवाद राजनांदगाँव, में छत्‍तीसगढ़ के साहित्यकार एवं भाषाविद् डां. विनय कुमार पाठक (बिलासपुर) के मुख्य आतिथ्य में भव्य सहित्यिक आयोजन किया गया। इस आयोजन में छत्‍तीसगढ़ी भाषा की सर्वमान्य एकरूपता: साहित्यकारों की भूमिका विषय पर परिचर्चा तथा कथाकार श्री कुबेर की चौथी कृति छत्‍तीसगढ़ी कहानी संग्रह कहा नहीं का विमोचन एवं विमोच्य कृति की समीक्षा की गई। कार्यक्रम की अध्यक्षता गीतकार श्री मुकुंद कौशल ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में साहित्यकार एवं संपादक श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’, आचार्य सरोज द्विवेदी, कथाकार संपादक श्री सुरेश सर्वेद, डां. शंकर मुनि राय, प्रो. डा पी. डी. सोनकर, प्रलेस के जिला सचिव प्रो. थानसिंह वर्मा, (राजनांदगाँव) श्रीमती सरला शर्मा, श्री दुर्गा प्रसाद पारकर, श्री संत राम देशमुख ’विमल’ (दुर्ग) एवं  श्री डी. पी. देशमुख (भिलाई) उपस्थित थे।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि तथा विमोचित कहानी संग्रह कहा नहीं के प्रकाशक डां. विनय पाठक ने कहा कि इस संग्रह की विशेषता इसकी भाषा-शैली और इसमें अंतर्निहित कथारस है। हिन्दी का साहित्यकार जब अपने क्षेत्र की लोकभाषा में रचना करता है तो वह प्रत्यक्ष रूप से लोक से जुड़ता है और कृति में कथारस का प्रादुर्भाव होता है। कुबेर की यह कहानी संग्रह छत्‍तीसगढ़ी के श्रेष्ठ कथासाहित्य में शामिल है तथा  छत्‍तीसगढ़ी भाषा के विकास में यह महत्वपूर्ण साबित होगी। निश्चित ही कुबेर संभावनाओं के साहित्यकार हैं, उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ आना अभी शेष है।

संग्रह की ’फूलो’ कहानी पर चर्चा करते हुए श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’ ने कहा कि वर्तमान समय में पूंजीवाद के चलते शोषक वर्ग की संवेदनहीनता और निर्लज्जता को इस कहानी में प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस कहानी के नायक फगनू में शोषण से मुक्त होने की छटपटाहट देखी जा सकती है। आचार्य सारोज द्विवेदी ने कहा कि कथाकार कुबेर ने कुछ नहीं कहते हुए भी कहा नहीं संग्रह की कहानियों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री मुकुंद कौशल ने कहा कि कुबेर भले ही सीधे-सीधे अपनी पक्षधरता न ज़ाहिर करते हों किंतु अपने कथ्य को लेकर वे शोषितों -दमितों, और पीड़ितों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। उनकी इन कहानियों में भले ही विद्रोह न हो, क्रांति की दुंदुभी भी न सुनाई पड़े और शोषक वर्ग के विरुद्ध कोई प्रतिक्रियात्मक प्रहार भी न दिखाई पड़े परंतु किसी प्रकार की नारेबाजी न करते हुए भी कुबेर  छत्‍तीसगढ़ के दमितों-पीड़ितों, मजदूरों -किसानों और सीधी-सरल स्त्रियों के पक्षधर बनकर उनकी आवाज़ बुलंद करते दिखाई पड़ते हैं। ये तमाम कहानियाँ केवल कहानियाँ नहीं, अनुभवों के उपवन से चयनित पुष्प हैं जिनमें सौदर्य भी है और सुगंध भी।  छत्‍तीसगढ़ी में लिखी जा रही अधिकांश कहानियोँ अनुवाद की गई प्रतीत होती हैं, कुबेर इसके बहुत बड़े अपवाद हैं; वे लोक से जुड़े हुए साहित्यकार हैं और उनकी  छत्‍तीसगढ़ी कहानियाँ इस भाषा के विकास में महत्वपूर्ण साबित होंगी।

पाठकीय प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री मिलिंद साव ने कहा कि जब हम बाजार में किसी सब्जी विक्रेता से या रिक्शा चालक से एक-एक पैसे के लिये मोल-भाव कर रहे होते हैं तब वास्तव में हमारा चरित्र किसी शोषक के चरित्र के आस-पास ही होता है। संग्रह की कहानी ’दू रूपिया के चाँउर अउ घीसू-माधव: जगन’ में इस बात को सुंदर ढंग से रेखांकित किया गया है। यशवंत मेश्राम ने कहा कि इस संग्रह की सभी कहानियाँ मुझे अपने आस-पास घटी हुई घटनाएँ ही लगती है। मुझे लगता है कि शीर्षक कहानी ’कहा नहीं’ के कथानक को मैंने निकट से देखा है। प्रलेस के युगल किशोर तिवारी ने कहा कि कुबेर की यह संग्रह  छत्‍तीसगढ़ी  कथासाहित्य की अद्भुत कृति है। यद्यपि संग्रह में दो बड़ी कहानियाँ भी हैं, परंतु कहानियों की भाषा-शैली की स्वाभाविकता, सरसता और सरलता आपको पूरी कृति को एक ही बार में पढ़ने के लिये विवश करते हैं। आत्माराम कोशा अमात्य ने संगह्र के लेखक पर यौन कुंठा आरोपित करते हुए फूलो कहानी के कथानक को  छत्‍तीसगढ़ के गरीबों का चरित्र हनन करने का प्रयास बताया । विमोच्य कृति ’कहा नहीं’ के कथाकार कुबेर ने कहा कि साहित्य का अर्थ केवल रस, छंद और अलंकार ही नहीं होता। हिन्दी साहित्य के सभी कालों में समकालीन साहित्य ही श्रेष्ठ हैं क्योंकि इसमें न केवल समाज के यथार्थ का चित्रण होता है; यह समाज की समीक्षा भी करता है, और उसे आइना भी दिखाता है। विषय वस्तु का चयन करते वक्त इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये। 

छत्‍तीसगढ़ी भाषा की सर्वमान्य एकरूपता: साहित्यकारों की भूमिका  विषय पर चर्चा करते हुए सभी वक्ताओं  - प्रो. डां. शंकर मुनि राय, प्रो. डां. पी. डी. सोनकर, प्रलेस के जिला सचिव प्रो. थानसिंह वर्मा,, श्रीमती सरला शर्मा, श्री दुर्गा प्रसाद पारकर, श्री संत राम देशमुख ’विमल’ एवं  श्री डी. पी. देशमुख आदि ने कहा कि भाषा नदी के समान होती है जो अपना स्वरूप स्वयं तय करती है और जिसका प्रवाह लोक से निःसृत होता है। भाषायी विकास की दृष्टि से गद्य साहित्य महत्वपूर्ण होता है और साहित्यकारों की भूमिका यहीं पर रेखांकित होती है।कार्यक्रम में परिषद् के अध्यक्ष श्री सचिन थनवार निषाद, के अलावा परिषद् के अन्य पदाधिकारी सर्व श्री लखनलाल साहू ’लहर’, ओम प्रकाश साहू ’अंकुर’ भूपेन्द्र ’साहू प्रभात’ प्यारे लाल देशमुख, नंदकुमार साहू, कुलेशवर साहू, वीरेन्द्र तिवारी ’वीरू’, फकीर प्रसाद ’फक्कड़ ’कुलेश्वर साहू, डां. के. बी. गाजी, डॉ. शोभा श्रीवास्तव, श्री ए.के. द्विवेदी, प्राचार्य सोमाटोला सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन लखनलाल साहू ’लहर’, तथा ओम प्रकाश साहू ’अंकुर’ ने किया। आभार प्रदर्शन परिषद् के अध्यक्ष श्री सचिन थनवार निषाद, ने किया।
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