रविवार, 30 अप्रैल 2017

भाषा और व्याकरण


निपात और उसके कार्य

कुछ अलग शब्द वाक्य में प्रयुक्त होकर अर्थ को विषेश बल देते हैं; उन्हें निपात कहा जाता है। जैसे -
’ही’     1 समने ही दिख रही थी सड़क।
    2 समने सड़क ही दिख रही थी।
    3 समने सड़क दिख ही रही थी।

’भी’    1 वह समय पर अड़ भी सकता है।
    2 वह भी समय पर अड़ सकता है।
    3 वह समय पर भी अड़ सकता है।

निपात की विशेषताएँ

१. निपात शुद्ध अव्यय नहीं है - क्योंकि संज्ञाओं, विशेषणों, सर्वनामों आदि में जब अव्यय का प्रयोग होता है, तब उनका अपना अर्थ होता है, पर निपातों में ऐसा नहीं होता।
2. निपातों का प्रयोग निश्चित शब्द, शब्द समुदाय या पूरे वाक्य को अन्य भावार्थ प्रदान करने के लिए होता है।
३. निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य के अंग नहीं होते।
४- साधारण निपात अव्यय ही होते हैं
5. हिंदी में अधिकतर निपात शब्दसमूह के बाद आते हैं, जिनको वे बल प्रदान करते हैं।

निपात के कार्य

निपात के निम्नांकित कार्य होते हैं -
१. प्रश्न - क्या वह जा रहा है?
2. अस्वीकृति - वह आज नहीं जायेगा।
३. विस्मयादिबोधक - क्या अच्छी पुस्तक है!
४. वाक्य में किसी शब्द पर बल देने के लिए।
अतः कह सकते हैं -
निपात का कोई लिंग व वचन नहीं होता।
निपातों में सार्थकता नहीं होती, पर वे सर्वथा निरर्थक भी नहीं होते।


व्यंग्य

महान तपस्वी - मत्सर कुमार


कहते हैं - इस देश में पहले कहीं कोई गंदगी नहीं होती थी। नहीं होती थी तो दिखती कैसे? न तो कहीं कूड़ों का ढेर, होता था, न कहीं बजबजाती हुई नालियाँ होती थीं और न ही कहीं गड़ढों में सड़ता हुआ पानी भरा होता था।

ऐसे में मच्छरों के लिए पैदा होने और जीने का संकट पैदा हो गया था। वंश विनाश का गंभीर खतरा उपस्थित हो गया था। उसी समय मच्छर वंश में एक महाप्रतापी, महान तपस्वी और दृढ़ निश्चयी बालक का जन्म हुआ।

मच्छर वंश के राजपुरोहित ने इस जातक की कुण्डली बनायी। जातक की कुण्डली देखकर राजपुरोहित सुखद आश्चर्य में डूबने-उतराने लगे। उन्होंने देख लिया कि इस जातक के प्रताप से मच्छर वंश का भविष्य अत्यंत उज्ज्वल और सुखमय होनेवाला है। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इस जातक के पूर्व जन्म के समस्त दृश्यों को भी देख लिया। गद्गद् होकर उन्होंने मच्छर वंश के समक्ष इस जातक के पूर्व जन्म के रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहा कि - ’हे भक्तों! पूर्व जन्म में यह जातक इस देश का महान राजनेता था। अत्यंत प्रतापी मानव कुल में इसका जन्म हुआ था। परिवार के सभी सदस्य या तो अधिकारी थे या व्यापारी। बचपन से ही इनके अंदर खून चूसने की इच्छा उबल-उबल पड़ती थी। इन्हें नेतागिरी के क्षेत्र में खून चूसने की अपार संभावनाएँ दिखी। फलतः यह राजनेता बन गया। राजनेता रहते हुए इन्होंने अपने परिवार के साथ मिलकर देश का खूब खून चूसा। खून चूस-चूसकर इसने देश को रक्तहीन और निश्तेज कर दिया; फिर भी इसकी खूनलिप्सा संतुष्ट नहीं हुई।

एक दिन इसने कुछ अधिक ही खूनपान कर लिया और अपच की बीमारी का शिकार हो गया। न तो आधुनिकतम चिकित्सा पद्धति काम आई और न ही देश के नामी चिकित्सकों की कोई चिकित्सा ही। उनकी खूनचूसी नजरें काफी तेज थी। अस्पताल में रहते हुए उन्होंने देखा कि यह तो खून चूसने का बड़ा निरापद स्थल है। यहाँ सेवा के नाम पर सारे लोग इस काम में पूर्ण मनोयोग से लगे हुए हैं।

बीमार अवस्था में वह महीने भर तक आई. सी. यू. में भर्ती रहा। वहाँ उसे खून चूसने का कोई अवसर नहीं मिलता था। एक तरफ तो उसे खून चूसने का कोई अवसर नहीं मिलता था और दूसरी तरफ वह यहाँ की खूनचुसाई का धंधा देखता रहता था। देख-देखकर उसका मन ईर्ष्या की आग से जल उठता था। और इस तरह उसकी बीमारी और बढ़ती जाती थी। ईर्ष्या की आग से जल-जलकर अंत में यह अकाल ही मृत्युकारित हो गया।

इस तरह इनकी प्रबल खूनलिप्सा अंत तक संतुष्ट नहीं हो सकी। इसी कारण इस जन्म में इसे मच्छर योनी प्राप्त हुई है। परंतु, हे भक्तों! इनकी यही खूनलिप्सा हमारे मच्छर वंश के लिए वरदान साबित होगी।’

आगे राजपुरोहित ने भविष्यवाणी किया कि - ’अपनी इसी खूनलिप्सा के कारण यह जातक महाप्रतापी, महातपस्वी और दृढ़ निश्चयी महान मच्छर के रूप में प्रसिद्ध होगा। बड़ा होकर यह अपने तपोबल के द्वारा मच्छर वंश का उद्धार करेगा। इतिहास में यह जातक महान मत्सर कुमार के नाम से जाना जायेगा।’

कुछ ही दिनों में राजपुरोहत की भविष्यवाणियाँ फलित होने लगी। गंदगी और गंदे स्थानों का अभाव होने के कारण मच्छर वंश का तेजी के साथ विनाश हो रहा था। अपने वंश की विनाशदशा को देखकर मत्सर कुमार को नींद नहीं आती थी। बहुत दिनों तक वह चिंतन-मनन करता रहा। अंत में उसे एक ही उपाय दिखा - तपस्या। तपस्या करने के लिए वह घोर जंगलों में चला गया। वहाँ वह शास्त्रों में वर्णित विधानों के अनुसार घोर तप करने लगा।

भगवान समदर्शी हैं, भक्तवत्सल हैं। वे जल्द ही प्रसन्न हो गये। प्रगट होकर उन्होंने मत्सर कुमार को वरदान दिया कि - ’हे भक्त! मत्सर कुमार, तुम्हारे मन की बात मैं जानता हूँ। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि मनुष्य के दिमाग के कोने में अब तक सुसुप्तावस्था में पड़ी, गंदगी का उत्सकेन्द्र अब जागृत और सक्रिय हो जायेगी। इससे मनुष्य के मन में गंदगी के प्रति एक प्रबल चाह पैदा होगी। उसका मन और आचरण, दोनों ही गंदगी से भर जायेगा। गंदगी से तृप्त मन से यही गंदगी छलक-छलककर गली-मुहल्लों में फैलती जायेगी और तुम्हारे लिए स्वर्ग का निर्माण करेगी। यही गंदगी तुम्हारे अकाल कालकवलित पूर्वजों का उद्धार करेगी।’

भगवान का यह वरदान मच्छर वंश के लिए बड़ा फलदायी साबित हुआ। आज हर गली और हर मुहल्ला गंदगी से भर हुआ है।
यहाँ की सार्वत्रिक गंदगी के लिए यहाँ के नागरिकों को कदापि दोष नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो मत्सर कुमार को दिये गये भगवान के वरदान के कारण होती है। मनुष्य के वश में आखिर है ही क्या? यहाँ सबकुछ ऊपरवाले की इच्छा से होता है।
000 kuber

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

कविता

शव परीक्षण का रिपोर्ट कार्ड


वह झूल गया था
जमीन से कुछ इंच ऊपर, मयाल से
और गर्दन उसका एक ओर लुड़क गया था
जीवन-रस को लतियाता
रस-वंचित जीभ निकल आया था
दुनिया से बाहर, दुनिया को लानतें भेजता
और पथराई हुई उनकी विरस आँखें,
छिटक गये थे, आसमान की ओर
सितारों की दुनया से दो-दो हाथ करने
जीवन की रंगीनियों को
जीवन की दुश्वारियाँ दिखाने।

जरा भी रहम नहीं किया था
जरा भी मोहलत नहीं दी थी
जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखलाई थी
नायलोन की उस बेरहम रस्सी ने
बाजार के हाथों की जिसके ऊपर छाप है
अकूत मुद्रओं की जिसके भीतर ताप है
बल्कि उसने
आँखों को चैंधियाती सुंदरता का आवरणवाली
अपनी उस धूर्त ताकत को ही दिखलाई थीे
ताकत के संग-संग
जिसके अंदर भरी हुई ढेरों छद्म और चतुराई थी।
और अपने अभियान की इस सफलता पर
गर्व से वह इठलाई होगी।

पैसे-पैसे जोड़कर
अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को निचोड़-निचोड़कर
भूख से ऐंठती आँतों को मुचोट-मुचोटकर
बचाये गये थोड़े से उन रूपयों को
बख्शा नहीं होगा, कानून के रखवालों ने भी
झटक लिये होंगे, कानून का भय दिखाकर
गटक लिये होंगे
हत्या के आरोप में फँसाने को धमकाकर।

और इस तरह
होरी के एक बार फिर से मर जाने पर
धनिया एक बार फिर से ठग ली गयी होगी
जाहिर तौर पर इस बार
सरकारी विधान का भय दिखाकर।

शव-परीक्षण करनेवाले ओ! डाॅक्टर
अपने रिपोर्ट में आपने क्या लिखा है, क्या पता?
पर साहब, इससे हासिल भी क्या होता है
आपके इस लिखे को पढ़ने, न पढ़ने से
धनिया और होरी के होने, न होने को
भला फरक भी क्या पड़ता है।

ऐसे मामलों में अब तक आप
जैसा लिखते आये हो
आज, यहाँ भी आपने वही तो लिखा होगा
मामले की असलियत को
भला आपने कहाँ देखा और कहाँ समझा होगा?

उनकी खोपड़ी के भीतर के तंत्रों में
जहालत की जो इबारतें लिखी रही होंगी
उसकी लिपि आज तक किसी ज्ञानी,
किसी विज्ञानी द्वारा पढ़ी नहीं जा सकी है
आप उसे कैसे पढ़ सके होगे?

उनकी ऐंठी-चुरमुराई हुई आँतों के अंदर
अभावों की जो रिक्तिकाएँ बिखरी रही होंगी
उसकी सँख्या आज तक कभी
किसी गणितज्ञ द्वारा गिनी नहीं जा सकी है
आप उसे भला कैसे गिऩ सके होगे?

उनकी आँखों के विवर्ण परदे के ऊपर
अपमान और लाचारी की जो
भयावह छबियाँ चित्रित रही होंगी
वे न तो सरकार को कभी दिख पाती हैं
और न ही कभी ईश्वर को
आपको भला वे कहाँ दिख पायी होंगी?

अरे! ऐसे मामलों में अब तक
जैसा लिखते आये हो आप
कैसा आश्चर्य, यदि यहाँ भी,
आपने वैसा ही लिखा होगा
मामले की असलियत को भला
आपने भी कहाँ देखा और कैसे समझा होगा?

उसके नाम और पते का विवरण भी
जैसा आपको बताया गया होगा -
निहायत औपचारिक और दुनियावी
वैसा ही आपने लिख दिया होगा।

पर, सुनो ऐ डाॅक्टर
उसका परिचय -
न तो वह इन्सान था
और न ही भगवान था
इन दोनों से कही बहुत ऊपर
हत् भागी पर
वह तो इस देश का किसान था।
000 kuber

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

आलेख - भाषा एवं व्याकरण

भाषा एवं व्याकरण : हिंदी के प्रत्यय ’’वाला’’ एवं (पूर्वकालिक प्रत्यय) ’’कर’’ के प्रयोग में अशुद्धियाँ

उपसर्ग:- उपसर्ग उस शब्द या शब्दांश को कहते हैं, जो किसी शब्द के पहले आकर उसका विशेष अर्थ प्रकट करता है। उपसर्ग के प्रयोग से शब्दों की तीन स्थितियाँ होती हैं -
अ. नया शब्द बनता है। जैसे - प्र + हार = प्रहार
ब. मूल अर्थ में परिवर्तन नहीं होता परंतु अर्थ में तेजी आती है। जैसे - परि + भ्रमण = परिभ्रमण
स. विलोम शब्द बनना। जैसे - (1) अ + सत्य = असत्य, (2) परा + जय = पराजय

उपसर्ग की विशेषताएँ:-
(1) ये शब्दांश होते हैं।
(2) ये अव्यय(अविकारी)होते हैं।
(3) वाक्य में ये स्वतंत्र रूप में प्रयुक्त नहीं होते।
(4) इनके अर्थ नहीं होते। किसी शब्द के साथ संगति बैठने पर ही ये अर्थवान बनते हैं।

प्रत्यय:- शब्दों के बाद जो अक्षर या अक्षर समूह लगाया जाता है, उसे ’प्रत्यय’ कहते हैं।
जैसे - भला़ + आई = भलाई
(प्रत्यय की भी वही विशेषताएँ होती हैं जो उपसर्ग की होती हैं।)

प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं - 1. कृत्, तथा  2. तद्धित
1. कृदन्त - क्रिया या धातु के अन्त में प्रयुक्त होनेवाले प्रत्ययों को कृत् प्रत्यय कहते हैं और उनके मेल से बने शब्द को कृदन्त। जैसे - गाना(क्रिया)+ वाला = गानेवाला
2. तद्धित - संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के अन्त में लगनेवाले प्रत्यय को तद्धित कहा जाता है और उनके मेल से बने शब्द तद्धितान्त।
जैसे - मानव + ता = मानवता

हिंदी में "वाला’’ प्रत्यय

हिंदी में ’’वाला’’ प्रत्यय के प्रयोग में मनमानी बरती जाती है अर्थात इसे मूल शब्द से अलग लिखने का चलन बढ़ रहा है। जैसे - होने वाला,  करने वाला, आने वाला, जाने वाला आदि।
यहाँ पर ’’वाला’’ कोई स्वतंत्र शब्द न होकर एक प्रत्यय है अतः इसे मूल शब्द के साथ मिलाकर लिखा जाना चाहिए। जैसे - होनेवाला,  करनेवाला, आनेवाला, जानेवाला आदि।

हिंदी में पूर्वकालिक प्रत्यय ’’कर’’

पूर्वकालिक क्रिया:- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया (या अंतिम क्रया के पहले संपन्न होनेवाली सभी क्रियाएँ) पूर्वकालिक क्रिया कहलाती है। जैसे - उसने नहाकर भोजन किया। इसमें नहाना पूर्वकालिक क्रिया है। इसके साथ प्रयुक्त प्रत्यय ’’कर’’ पूर्वकालिक प्रत्यय कहलाता है। यहाँ ’’कर’’ एक प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त हो रहा है अतः इसे मूल शब्द से मिलाकर लिखा जाना चाहिए।

हिंदी में पूर्वकालिक प्रत्यय ’’कर’’ के प्रयोग में मनमानी बरती जाती है अर्थात इसे कई बार पूर्वकालिक क्रिया (मूल शब्द) से अलग लिखने का चलन बढ़ रहा है। उदाहरण के रूप में देश के एक सर्वाधिक प्रसिद्ध पत्रिका में कुछ सम्मानित कवियों की काव्य पंक्तियाँ देखिए -
1. हमारे समय के आतताई उन्हें दूसरी तरफ हाँक कर ले गए।  (हाँककर)
2. और उनकी पीठ पर बैठी देवी फिसल कर गिर गई है गर्त में। (फिसलकर)
3. कि मुँह खोल कर अँधेरे को कोई अँधेरा न कह सके। (खोलकर)






गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

आलेख - भाषा और व्याकरण

 भाषा और व्याकरण

’य’ और ’व’ के पूर्व अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियाँ

हिंदी में कुछ शब्द; विशेष रूप से जिन शब्दों में ’य’ अथवा ’व’ के साथ अन्य ध्वनियाँ संयुक्त होती हैं; की वर्तनियाँ भ्रमित करती हैं। जैसे - उज्वल, उज्ज्वल और उज्जवल। इन तीनों में सही वर्तनीवाले शब्द का चयन करना जरा कठिन है। विचार करें तो उच्चरित ध्वनियों के अनुसार ’उज्जवल’ सरासर गलत है क्योंकि ’ज’ के बाद स्वर ध्वनि का उच्चारण नहीं होता। ’आधुनिक हिंदी व्याकरण और रचना’ (23 वाँ संस्करण, पृ. 52) में ’उज्ज्वल’ को सही माना गया है। परंतु मुझे ’उज्वल’ सही लगता है। अपने समर्थन में मैं निम्न तर्क प्रस्तुत करना चाहूँगा -

कृपया निम्न सारणी का अवलोकन कीजिए। यहाँ ’य’, ’व’ और कुछ अन्य वर्णों के साथ अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियाँ संयुक्त होनेवाले कुछ शब्द, उनके उच्चारण की ध्वनियाँ और उनकी प्रचलित वतर्नियाँ दिये गये हैं।

क्र.    शब्द                                उच्चारण            प्रचलित वर्तनी
(य के साथ अल्पप्राण ध्वनियाँ संयुक्त होने पर)
01    उपन्यास                         उपन्न्यास             उपन्यास
02    प्राच्य                              प्राच्च्य                  प्राच्य
03    वन्य                               वन्न्य                    वन्य
04    अन्याय                          अन्न्याय               अन्याय
टीप:-य के साथ संयुक्त होनेवाली अल्पप्राण ध्वनियों का, उच्चारण में द्वित्व हो जाता है।

(य के साथ महाप्राण ध्वनियाँ संयुक्त होने पर)
05    लभ्य                         लब्भ्य                      लभ्य
06    सभ्य                         सब्भ्य                      सभ्य
07    अभ्यास                    अब्भ्यास                  अभ्यास
08    अध्यादेश                 अद्ध्यादेश                अध्यादेश
टीप:- य के साथ संयुक्त होनेवाली महाप्राण ध्वनियों के साथ उसके पूर्व के अल्पप्राण ध्वनि का भी उच्चारण हाता है।)

(व के साथ अल्पप्राण ध्वनियाँ संयुक्त होने पर)
09    तत्व                          तत्त्व                         तत्व
10    स्वत्व                        स्वत्त्व                       स्वत्व
11    व्यवहार                     व्यव्वहार                  व्यवहार
12    प्रज्वलन                    प्रज्ज्वलन                प्रज्वलन
13    प्रज्वलित                   प्रज्ज्वलित               प्रज्वलित
14    उज्वल                       उज्ज्वल                   उज्ज्वल, उज्जवल, उज्वल
टीप:- व के साथ संयुक्त होनेवाली अल्पप्राण ध्वनियों का, उच्चारण में द्वित्व हो जाता है।

15    सिद्ध                          सिद्द्ध                         सिद्ध
16    जन्म                        जन्न्म                        जन्म
टीप:- यहाँ भी संयुक्त होनेवाली अल्पप्राण ध्वनियों का, उच्चारण में द्वित्व हो जाता है।

कृपया ध्यान दीजिए -
’उपन्यास’ का उच्चारण उपन्न्यास होता है क्योंकि य के साथ संयुक्त होनवाली ध्वनि ’न्’ अल्पप्राण ध्वनि है और उसका द्वित्व हो जाता है। परंतु उसकी वर्तनी उपन्यास है। ’अभ्यास’ का उच्चारण ’अब्भ्यास’ होता है क्योंकि ’भ्’ महाप्राण ध्वनि है और उसके साथ उसके पूर्व की अल्पप्राण ध्वनि ब् का उच्चारण हाता है। परंतु उसकी वर्तनी ’अभ्यास’ है। इसी प्रकार अध्यादेश का उच्चारण अद्ध्यादेश होता है। परंतु उसकी वर्तनी ’अध्यादेश’ है। उसी तरह उज्वल शब्द का उच्चरण करने पर व के साथ संयुक्त होनेवाली अल्पप्राण ध्वनि ’ज्’ का द्वित्व हो जाता है और उसका उच्चारण उज्ज्वल होता है परंतु उसकी वर्तनी ’उज्वल’ ही होगी।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

छत्‍तीसगढ़ी कविता

पवन यादव ’पहुना’ के छत्तीसगढ़ी गीत

ननपन के सुरता

ननपन म गजब सुहाय धुर्रा, चिखला, पानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

कुरता सनाय, नाक बोहाय, तनभर रहय धुर्रा।
अब्बड़ सुहाय, खायेचखाय ल भाय, पीपी, लाड़ू मुर्रा।
पहाती खेलन भौंरा-बाँटी, आँखी म रहय चिपरा।
कूद-कूद तरिया नहावन, दुंगदुंग ले होके उघरा।
रतिहा डोकरा बबा ले सुनन, अब्बड़ किस्सा कहानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

परोसी के बखरी म जाम खावन, डोकरी दाई बखाने।
छकत ले खावन सीता फल, तभो ले मन नइ माने।
भरे मंझनिया अमली गिरावन, टोरन आमा, रूख ले।
भद ले गिरन, कइसे भागन, लचके गोड़ के दुख ले।
मन करथे, लइका बन के, करतेन फेर शैतानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

भँइसा चढ़ के तरिया नहकन, डुबकन बेरा-कुबेरा।
लउठी धर के बबा कुदाये, भरे मंझनिया बेरा।
होली बर लकड़ी चोरावन, कूदन परदा भांड़ी।
स्कूल जावन, नइ ढेरियावन, चढ़के बइला गाड़ी।
करथे जी, जी लेतेंव फेर, ननपन के जिनगानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।
संगी-संगवारी संग घूमन, दल के दल सब कोती।
चटनी-बासी खावन, धरके जावन अंगाकर रोटी।
बड़ इतरावन, बड़ जिबरावन, बबा-डोकरी दाई ल।
मया म तभो लुका के राखंय, ओली म मुर्रा लाई ल।
मन भर जाथे, जब सुरता आथे, ननपन के नादानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

हाँसन-गावन, खेलन-कूदन, जानन नहीं बुराई ल।
कभू नइ जानन चारी-चुगली, जाति-धरम, लड़ाई ल।
नइ जानन छल-कपट ल संगी, तन-मन राहय फरियर।
चिंता-फिकर संसो ले दुरिहा, सावन कस मन हरियर।
कोसा टोरन, लासा हेरन, लेय बर खाई-खजानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

मनेमन म मगन रहन हम, मस्त रहन सब संगवारी।
तरियापार के बर-पीपर म, झूलन झूला ओरीपारी।
समय नइ आवय कभू लहुट के, बचपन के वो भाई।
देखतेदेखत बीतिस जवानी, अब डोकरापन दुखदाई।
कइसे भूलंव ननपन के दिन, रिहिस गजब सुहानी।
कूद-कूद के खेलन संगी, खेल आनी-बानी।

पवन यादव ’पहुना’
ग्राम - सुंदरा, पो. - राजनांदगांव
जिला - राजनांदगांव
मो. - 9303358271
000

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

कविता

पहले यहाँ पर


पहले यहाँ पर -

इतने लोग नहीं होते थे
कम होते थे
पर सभी जमीन पर चल रहे होते थे

बहुत खुलापन होता था
जगहें बहुत होती थी
पर पूरी तरह हरी-भरी
और पूरी तरह भरी-भरी होती थी

घर कम होते थे
बस्तियाँ छोटी होती थी
पर भरीपूरी होती थी
और सबके लिए पूरी-पूरी होती थी

लोग कम होते थे
पर परस्पर संबंधित होते थे
चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मौसा-मौसी,
दादा-दादी खूब होते थे
सब बंधे होते थे 
सब अपने होते थे

यहाँ कम लोग आते थे
भीड़ कम होती थी
शोर कम होता था
पर चहल-पहल बहुत रहती थी

हवाएँ ऐसी नहीं होती थी
उनमें प्रेम की उद्दीप्त तरंगें
रिश्तों की मधुर महक और ताजगी
और अपनेपन की शीतल नमी होती थी
हवाएँ जीवित होती थी

पेड़-पौधे मस्ती में झूम रहे होते थे
शाखाएँ और पत्तियाँ उनकी
स्वस्थ और ताजी होती थी
बाहों में समेटने के लिए सबको
सब के सब, उत्सुक और लालायित होती थी

तितलियाँ नाचती रहती थी हमेशा
और पक्षियाँ गाते रहते थे मधुर-मधुर गीत
जैसे रहते थे आतुर सब
आनेवालों के स्वागत के लिए
और उसी तरह अधीर होते थे,
आनेवाले भी सभी, इनसे मिलने के लिए

वह जगह अब भी है यहीं
अपनी जगह पर
समय के साथ पर वह बदल गयी है

समय  के साथ
लोग, घर और बस्तियाँ,
पेड़-पौधे, हवाएँ, पक्षी और तितलियाँ
बदल गये हैं सभी।
000 kuber

रविवार, 9 अप्रैल 2017

कविता

(मंगलेश डबराल की एक कविता ’शब्दार्थ’ का अंश)

शब्दार्थ


जब भी कोई शब्द लिखता हूँ
लगता है उसमें वह अर्थ नहीं है
जिसके लिए उसे लिखा गया था
.........................................................
ज्यादातर शब्दों को छोड़कर चले गये हैं उनके अर्थ
किसी विपरीत दिशा में, किसी दूसरे पक्ष में
हमारे समय के आततायी
उन्हें कहीं दूसरी तरफ हाँककर ले गये
क्रिया और कर्म के बीच उन्होंने
अपनी लंबी-चौड़ी बस्तियाँ बसा लीं

कुछ ही शब्द हैं जिनके अर्थ बचे रह गये हैं
भय अब और भी भय है
आतंक और ज्यादा आतंक

प्रेम के भीतर प्रेम करते लोग नहीं दिखते
तकलीफ की इबारत की जगह
एक क्रूर जश्न का इश्तिहार मिलता है

जब कोई ताकतवर एक नई सुबह का जिक्र करता है
तो मुमकिन है अंधेरा घिर रहा हो
हो सकता वह जो मनुष्य के तौर पर जाना जाता है
लंबे समय से मनुष्य नहीं रह गया हो
और जब हम साहस जुटाकर
किसी अत्याचारी को अत्याचारी पुकारते हैं
तो वह नाराज नहीं होता
बल्कि अपनी प्रशंसा पर मुस्कुरा देता है

एक दिन मैंने एक ताकतवर आदमी के सामने
मनुष्यता का जिक्र किया
तो उसने चिढ़कर कहा -
’तमाम लोग अपने-अपने काम में लगे हैं
लेकिन आप हैं जो मनुष्यता-मनुष्यता करते रहते हैं।’
000
(आलोचना, कविता-2, सहस्त्राब्दी अंक 57 से साभार)

कविता

(राजेश जोशी की एक कविता का अंश)

रोशनी


इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
.....................................
कोई कहता है कि इतना अंधेरा तो तब भी नहीं था
जब अग्नि, काठ में या पत्थर के गर्भ में छिपी थी
तब इतना धुंधला न था आकाश
नक्षत्रों की रोशनी धरती तक ज्यादा आती थी

इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
लगता है यह सिर्फ हमारे गोलार्ध पर उतरी रात नहीं
पूरी पृथ्वी पर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है अंधकार

अंधेरे में सिर्फ उल्लू बोल रहे हैं
और उनकी पीठ पर बैठी देवी
फिसलकर गिर गई है गर्त में

इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोलकर
अंधेरे को काई अंधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ न सूझे
कि आँखों के सामने घटे अपराध की भी
कोई गवाही न दे सके

इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
000
(आलोचना, कविता-2, सहस्त्राब्दी अंक 57 से साभार)

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

आलेख


ऋग्वेद


ऋग्वेद सनातन धर्म, का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाओं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है।

ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। 

सूक्त:- वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युञ्जय मन्त्र (७ः५९ः१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३ः६२ः१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०ः१३७ः१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०ः१२ःध्१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०ः१२१ः१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०ः८५ः१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है।

ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है:-

ऋग्वेद के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति करने वाले मंत्र हैं। यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्तोत्रों की प्रधानता है।
ऋग्वेद में कुल दस मण्डल हैं और उनमें १०२८ सूक्त हैं और कुल १०,५८० ऋचाएँ हैं। इन मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ बड़े हैं।

इस ग्रंथ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण रचना माना गया है। इसके श्लोकों का ईरानी अवेस्ता के गाथाओं के जैसे स्वरों में होना, इसमें कुछ गिने-चुने हिन्दू देवताओं का वर्णन और चावल जैसे अनाज का न होना इतिहास के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।

एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, वेद पहले एक संहिता में थे पर व्यास ऋषि ने अध्ययन की सुगमता के लिए इन्हें चार भागों में बाँट दिया। इस विभक्तिकरण के कारण ही उनका नाम वेद व्यास पड़ा। इनका विभाजन दो क्रम से किया जाता है -

(१) अष्टक क्रम - 

यह पुराना विभाजन क्रम है जिसमें संपूर्ण ऋक संहिता को आठ भागों (अष्टक) में बाँटा गया है। प्रत्येक अष्टक ८ अध्याय के हैं और हर अध्याय में कुछ वर्ग हैं। प्रत्येक अध्याय में कुछ ऋचाएँ (गेय मंत्र) हैं - सामान्यतः ५।

(२) मण्डल क्रम - 

इसके अतर्गत संपूर्ण संहिता १० मण्डलों में विभक्त हैं। प्रत्येक मण्डल में अनेक अनुवाक और प्रत्येक अनुवाक में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मंत्र (ऋचा)। कुल दसों मण्डल में ८५ अनुवाक और १०१७ सूक्त हैं। इसके अतिरिक्त ११ सूक्त बालखिल्य नाम से जाने जाते हैं।

वेदों में किसी प्रकार की मिलावट न हो इसके लिए ऋषियों ने शब्दों तथा अक्षरों को गिन कर लिख दिया था। कात्यायन प्रभृति ऋषियों की अनुक्रमणी के अनुसार ऋचाओं की संख्या १०,५८०, शब्दों की संख्या १५३५२६ तथा शौनककृत अनुक्रमणी के अनुसार ४,३२,००० अक्षर हैं। शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि प्रजापति कृत अक्षरों की संख्या १२००० बृहती थी। अर्थात १२००० गुणा ३६ यानि ४,३२,००० अक्षर। आज जो शाकल संहिता के रूप में ऋग्वेद उपलब्ध है उनमें केवल १०५५२ ऋचाएँ हैं।
ऋग्वेद में ऋचाओं का बाहुल्य होने के कारण इसे ज्ञान का वेद कहा जाता है।


महाभारत


हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो हिन्दू धर्म के उन धर्म-ग्रन्थों का समूह है, जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। कभी कभी सिर्फ ’भारत’ कहा जाने वाला यह काव्य-ग्रंथ भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति हिन्दुओं के इतिहास की एक गाथा है। पूरे महाभारत में एक लाख श्लोक हैं।

महाभारत काल 

विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान महाभारत काल को ’लौहयुग’ से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित ‘कुरु वंश‘ 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि अर्जुन के पोते (पुत्र के पुत्र) परीक्षित और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।

महाभरत में अठारह की संख्या
महाभारत के पर्व

महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह है। महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं। सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है ‘पर्व’ का मूलार्थ है- गाँठ या जोड़। पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। 
मुख्य पर्वों में प्रायः अन्य भी कई पर्व हैं। (सम्पूर्ण महाभारत में ऐसे पर्वों की कुल संख्या 100 है) इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है।

मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं:- 

महाभारत के पर्व:- 1 आदिपर्व 2 सभापर्व 3 वनपर्व 4 विराटपर्व 5 उद्योगपर्व 6 भीष्मपर्व 7 द्रोणपर्व 8 कर्णपर्व  9 शल्यपर्व 10 सौप्तिकपर्व 11 स्त्रीपर्व 12 शान्तिपर्व 13 अनुशासनपर्व 14 आश्वमेधिकपर्व 15 आश्रमवासिकपर्व 16 मौसलपर्व 17 महाप्रास्थानिकपर्व 18 स्वर्गारोहणपर्व

‘खिलपर्व’ के रूप में ‘हरिवंश पुराण’ 

लक्षश्लोकात्मक महाभारत की सम्पूर्ति के लिए इन अठारह पर्वों के पश्चात ‘खिलपर्व’ के रूप में ‘हरिवंश पुराण’ की योजना की गयी है। हरिवंश पुराण में 3 पर्व हैं- 1. हरिवंश पर्व,  2. विष्णु पर्व,  3. भविष्य पर्व। इन तीनों पर्वों में कुल मिलाकर 318 अध्याय और 12,000 श्लोक हैं। महाभारत का पूरक तो यह है ही, स्वतन्त्र रूप से भी इसका विशिष्ट महत्त्व है। सन्तान-प्राप्ति के लिए हरिवंश पुराण का श्रवण लाभदायक माना गया है।

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

कविता

सूर्पणखा के वंशज होंगे अभागे



हे राम!
तुम्हारी लीलाएँ हम मूढ़मति क्या समझेंगे
तुम्हारे भक्त जरूर समझते होंगे

तुम्हारी लीलाओं के हर एक मर्म को
तुम्हारे भक्त जरूर, जरूर समझते हैं
और, इसीलिए तो,
गाँव-गाँव में, जरूरत मुताबिक,
उसका मंचन भी करते हैं 

तुम भक्तों पर दया करनेवाले हो, महान कृपालु हो
तुम्हारी दया और कृपा भक्तों पर बरसती है
और, इसीलिए तो तुम्हारे भक्त
बाकियों को दे शिकस्त
रात-दिन तुम्हारे गुणगान में व्यस्त हैं,
तुम्हारी भक्ति की मस्ती में मस्त हैं 

कोई गुप्त समझौता हुआ है न
अपने भक्तों के साथ, तुम्हारा?
क्योंकि, उस दिन -
सबेरे से ही आने लगी थी खबरें
तुम्हारे भक्त के मध्याह्न गृहप्रवेश की
और आज
सारा दिन, सर्वत्र, समस्त चैनलों पर
केवल तुम ही तुम हो, और हैं तुम्हारे भक्त केवल

चिंतागुफा की चिंता कहीं नहीं है

हे राम!
तुम्हारे भक्तों ने तुम्हें बताया नहीं होगा
आज फिर,
सामूहिक दुष्कर्म हुआ है
चिंतागुफा में एक बच्ची के साथ

पर क्या करें भगवन!
इसे खबर मानें और छापें भी तो कैसे,
आज तुम्हारा जन्मदिन है
इसे प्रकाशित करना
तुम्हारे जन्मोत्सव की खबरों के बीच
बड़ा अशुभ नहीं होता?

और फिर, तुम्हारे भक्त भी तो नहीं हैं
चिंतागुफा के ये लोग
सूर्पणखा के वंशज होंगे, अभागे
नाक कटना ही जिनकी नियति है 

हे राम!
तुम्हारी लीलाएँ हम मूढ़मति क्या समझेंगे
परंतु
मंच पर लटक रहे परदे की चित्रावली देखकर
दर्शक समझ जाते हैं
कौन सा अध्याय अभिनीत होनेवाला है
आज तुम्हारे पावन चरित्र का 

अंदर का मजमून समझ में आ जाता है, भगवन!
हल्दी लगे लिफाफे और किनारे से कटे कार्ड का

हे राम!
इतना तो तुम भी समझते होगे।
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kuber

रविवार, 2 अप्रैल 2017

समाचार

05 सितम्बर २०१२ को कुबेर सिंह साहू  को साहित्य के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध सम्मान मिला था. विश्वसनीय छत्तीसगढ़ के सितम्बर २०१२ अंक में इसी का सचित्र समाचर.

समाचार

5 सितम्बर  2012 शिक्षक दिवस छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा.रमण सिंह से गजानन माधव मुक्तिबोध सम्मान  प्राप्त करते हुए कुबेर सिंह साहू

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

आलेख

कर्मा जयंती का दौर

कर्मा जयंती का दौर चल रहा है। दौर कभी-कभी महीने भर तक चलता है और सामाजिक संगठन के मंडल स्तर पर कम से कम एक गाँव में इसका आयोजन होता है। कार्यक्रम कलश यात्रा से प्रारंभ होता है। आयोजन स्थल पर कर्मा माता की आरती-पूजा होती है। मंच पर आमंत्रित अतिथियों का स्वागत होता है। अतिथिगण कर्मा माता के कृष्णभक्ति और सामाजोत्थान के लिए किये गए कार्यों पर आधारित जीवनवृत्त का वर्णन करते हैं। 

मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि अनिवार्यतः राजनेता ही होते हैं। इन्हें अपने और अपनी पार्टी-नीतियों का प्रचार-प्रसार करने के लिए मुफ्त में मंच और विशाल जनसमूह उपलब्ध हो जाता है। ये राजनेता धन्य हो जाते हैं जब सामाजिक संगठन के विभिन्न स्तर के चयनित प्रतिनिध गण दिलखोलकर इनका स्तुतिगान करते हैं और स्वयं को इनका परम अनुगामी साबित करते हैं। और यह केवल आम चुनावों में राजनीतिक पार्टियों से टिकिट जुगाड़ के लिए ही किया जाता है। सामाजिक संगठन के विभिन्न स्तर के चयनित प्रतिनिध मंच पर समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं और ऐसे समय में इन लोगों का यह कृत्य समाज की छबि को धूमिल और खराब करने वाला होता है। यह किसी भी सूरत में सराहनीय तो कभी नहीं है। 

अंत में प्रसाद वितरण के साथ कार्यक्रम का समापन होता है। 

आमजन के लिए यह भक्ति और आस्था का दिवस होता है लेकिन समाज के पदाधिकारियों के लिए यह अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साधने का पर्व होता है। यह सामाजिक पर्व है। इस दिन समाजहित व समाजोत्थान की बातें होनी चाहिए। समाज के विभिन्न स्तरों पर व्याप्त रूढ़ियों की बातें होनी चाहिए जो समाज को पीछे खींचती हैं, और इसके निवारण के उपायों पर चर्चा होनी चाहिए। इस दिन समाज को एक जुट होकर अपनी सामाजिक शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए और इस भव्यता के साथ करना चाहिए कि सरकार और राजनीतिक पार्टियों तक कम से कम इतना संदेश तो आवश्य पहुँचे कि वे इस समज के सामने दाता  की नहीं याचक की हैसियत के साथ ही चल सकते हैं। और इस समाज के साथ चलने के लिए वे अपनी मौजूदा रणनीति को त्यागने के लिए विवश हो जायें। 

आज की स्थिति में मामला उल्टा है। तहसील और जिला स्तर के कार्यक्रमों के बड़े मंचों पर सरकार के मंत्रियों और राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों को मुख्य अतिथि बनाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे सभी अतिथिगण मंच पर प्रगट होकर समाज पर उपकार कर रहे होते हैं।
कर्मा जयंती के किसी मंच पर आज तक समाज के बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करते हुए कभी नहीं देखा गया है।
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