सोमवार, 11 नवंबर 2013

छत्‍तीसगढ़ी कविता

जय श्री राम

चंउक म कका मरहा राम मिल गे
कान म जरहा बीड़ी खोंचे रहय
माड़ी के आवत ले पटका पहिरे रहय
कंस के कछोरा भिरे रहय
पीठ म मुड़ भुलकउनी भोंगरा हो गे रहय
तउन बंडी ल पहिरे रहय
खांद म बोहे चटवार ल डेरी हाथ म
अउ जेवनी म मुड़ भर के ठेंगा धरे ल रहय
मुँही-पार देखे बर कहिके खेत कोती जावत रहय।

तरी ले ऊपर, गोड़ ले मुड़
वो ह मोला देखिस
मनेमन तउलिस
घड़ी भर फेर सोचिस
अउ
बिमरहा बेटा के बाप कस
सोगसोगान असन पूछिस -

’’कस रे जगतू!
जकहा-भूतहा कस कइसे-
विही-विही कना गोल-गोल घूमत हस?
पइसा-कौड़ी गंवा गे हे का-
जउन ल मनमाने खोजत हस?
मुँहू-कान ह काबर अइलाय कस हो गे हे
रोनहू बानी कइसे दिखत हस?
का के तोला संसो धरे हे बाबू!
दिन-दिन दुबरातेच् जावत हस
दू दिन हो गे, देखत हंव
इहिच् कना घानीमुनी के खेल देखावत हस?’’

चोपियाय मुँहू ल दू-तीन घांव ले चगलायेंव
जीभ ह थोकुन ओद्दा होइस
तहाँ ले कका ल
अपन मन के पीरा ल बतायेंव -

’’कका!
तंय तो सब ल जानतेच् हस
तोला अउ का बतांव
मोर मन के दुख ल का गोठियांव -
’सरकार ह दू महीना पहिली
इही कना डामर के अघात चिक्कन
बड़ चाकर सड़क बनवाय रिहिस’
वोकर उप्पर हवा-जिहाज दंउड़ाय के सपना
जनता ल देखाय रिहिस।
काली ले विही ल खोजथंव
दू दिन हो गे, दिखत नइ हे
कहाँ लुका गे, कते कना जा के झपा गे,
कहाँ अंतरधान हो गे, कहिके
दिन-रात गुनथंव।’’

कका ह कहिथे - ’’बेटा! भकला झन बन
मरना हे क? चिटिक सोच
अइसन मन-बइहा बुता ल छोड़
जइसन कोनो नइ करय तइसन काम करके
खुदे बर गड्ढा झन कोड़।
देख वोती
गाँधी बबा के बेंदरा मन सरीख  
जनता ह कइसे चुपचाप बइठे हे
जा, वइसने तहूँ बइठ
दू रूपिया वाले माल ल चवन्नी नून संग
बने गोहगोंह ले खा
अउ राग म राग मिला के
’जय श्री राम’ के भजन ल गा।’’

येती हमर बात ह पूरे घला नइ रिहिस
वोती सरकार के कान ह ठाड़ हो गे
अपन सिपाही मन ल बलाइस
अउ गुर्रा के किहिस -

’’भोलापुर में कुछ जादा ही हो रहा है
मरहा राम पहले अकेला था
साला! अब लोगों को मिला रहा है
सदियों से मरी पड़ी, सम्मोहित और बेहोश
जनता नामक जीव का,जिला रहा है।
अरे निठल्लों! तुरते वहाँ जाओ
अउर उठने वालों को फिर से सुला आओ
सबको फिर से
’जय श्री राम’ वाली पुड़िया का
बंपर डोज खिला आओ।’’
000
kuber
9407685557

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