सोमवार, 10 मार्च 2014

समाचार

साकेत का वार्षिक सम्मान समारोह संपन्न

हाना विमर्श

23 फरवरी 2014 को गंडई पंडरिया में साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का पंद्रहवाँ सम्मान समारोह एवं वैचारिक संगोष्ठी का आयोजन सांस्कृतिक संस्था दूधमोंगरा के सहयोग से यिा गया जिसकी अध्यक्षता प्रगतिशील विचारधारा के सुप्रसिद्ध समालोचक-साहित्यकार डाॅ. गोरेलाल चंदेल (खैरागढ़) ने किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध भाषाविद्, साहित्यकार व संपादक डाॅ. विनय कुमार पाठक (बिलासपुर) एवं विशिष्ट अतिथि डाॅ. जीवन यदु, डाॅ. दादूलाल जोशी, डाॅ. पीसीलाल यादव, डाॅ माघीलाल यादव, आ. सरोज द्विवेदी, श्री हीरालाल अग्रवाल, सुरेश सर्वेद तथा डाॅ. सन्तराम देशमुख थे। प्रारंभ में परिषद् के कोषाध्यक्ष लखन लाल साहू ’लहर’ ने संस्था का वार्षिक प्रतिवेदन तथा स्वागत भाषण प्रस्तुत किया। 

’छत्तीसगढ़ी जनजीवन पर हाना का प्रभाव’ विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी के प्रारंभ में आधार वक्तव्य देते हुए परिषद् के संरक्षक कथाकार कुबेर ने कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों को ’हाना’ कहा जाता है। हाना न केवल छत्तीसगढी भाषा की प्राण है अपितु यह इस भाषा का स्वभाव और श्रृँगार भी है। आम बोलचाल में छत्तीसगढ़ियों का कोई भी वाक्य हाना के बिना पूर्ण नहीं होता। कभी-कभी तो पूरी बात ही हानों के द्वारा कह दी जाती है। छत्तीसगढ़ी हाना लक्षणा के अलावा व्यंजना शब्द शक्ति तथा अन्योक्ति अलंकार से युक्त होती है। 

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डाॅ. विनय पाठक ने कहा कि कहा हाना पूर्णतः अपने परिवेश और जनजीवन पर आधारित होते हैं। एक ऊक्ति है - ’कानून अंधा होता है।’ छत्तीसगढ़ में लोग कहते हैं - ’कानून होगे कनवा अउ भैरा होगे सरकार।’ यह लोक की निरीक्षण शक्ति से उत्पन्न ऊक्ति है, जो कहीं अधिक मारक और तथ्यपरक है। लोकमान्यता में कानून अंधा नहीं बल्कि काना होता है जिसकी खुली आँख निम्न वर्ग की ओर और बंद आँख उच्च वर्ग की ओर रहती है। आजकल शोधार्थियों द्वारा शब्दकोश से किसी हाना का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद करके प्रस्तुत करने का गलत प्रचलन बढ़ रहा है। ’ऊँट के मुँह म जीरा’ इसका उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में न तो ऊँट होते हैं और न ही जीरा। इस आशय का छत्तीसगढ़ी हाना है ’हाथी के पेट म सोहारी।’ साकेत साहित्य परिषद ने हाना का संकलन व इस पर संगोष्ठियों की शुरूआत कर सराहनीय कार्य किया है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डाॅ. गारेलाल चंदेल ने कहा कि हाना लोकभाषा और लोकजीवन के गाढ़े अनुभव से पैदा होते हैं। वस्तुतत्व को अतिशय प्रभाव से प्रस्तुत करने की कला ही हाना है। इसमें अनुभव और निरीक्षण, दोनों ही प्रभावी ढंग से परिलक्षित होते हैं। हाना में निश्चित ही व्यंजना होती है जिसके प्रभाव से यह अपने परिवेश से निकलकर वैश्विक रूप धारण कर लेता है। एक हाना है - ’कोढ़िया बइला रेंगे नहीं, रेंगही त मेड़ फोर।’’ यह हाना ग्राम्य परिवेश में जितना सार्थक है उतना आज के तथाकथित बाहुबलियों और महाशक्तियों की राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश के लिए भी सार्थक है। 

हाना बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया और शब्द शक्तियों के अंतर्संबंधों को हीरालाल अग्रवाल ने रोचक प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा; डाॅक्टर जब मरीज से पूछता है - ’’तोला कइसे लागत हे?’’ तब मरीज जवाब देता है - ’’कइसे, कइसे लागत हे।’’ डाॅक्टर और मरीज के शब्द ’कइसे लागत हे’ एक जैसे हैं, पर मरीज का जवाब, ’’कइसे लागत हे’’ एक हाना बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे - ’’ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए। कैसे-कैसे, कैसे-कैसे हो गए।’’ 

आचार्य सरोज द्विवेदी ने कहा कि यदि मैं कहूँ - ’’एक रूपया चाँऊर’’ तो आपको इशारा समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी और आजकल ’’पप्पू’’ और फेंकू’’ का क्या मतलब है, इसे भी आप बखूबी जानते हैं। हाना ऐसे ही बनते है। 

डाॅ. जीवन यदु ने कहा कि हाना प्रथमतः भाषा का मामला है। इसमें देश, समाज और अर्थतंत्र के अभिप्राय निहित होते हैं।

 डाॅ. दादूलाल जोशी ने कहा कि हाना में ’सेंस आॅफ ह्यूमर’ होता है, इसीलिए हाना में कही गई बातों का लोग बुरा नहीं मानते हैं। 

यशवंत मेश्राम ने कहा कि हाना में ’हाँ’ और ’न’ अर्थात स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों निहित होते हैं। हाना की अर्थ-संप्रेषणीयता और मारकता इन्हीं दोनों के समन्वित प्रभाव से आती है। 

प्रारंभ में डाॅ. पीसीलाल यादव ने रोचक कहानियों के द्वारा ’जिसकी लाठी उसकी भैंस,’ ’आँजत-आँजत कानी होना’ तथा ’पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं’, जैसे हानों के बारे में बताया। 

सम्मान की कड़ी में श्री बी.डी.एल श्रीवास्तव, श्री द्वारिका यादव तथा श्री नन्द कुमार साहू को 2014 का साकेत सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर हाना पर केन्द्रित पत्रिका ’साकेत स्मारिका 2014’ तथा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद की छत्तीसगढ़ी कहानियों का संग्रह ’बनकैना’ का विमोचन भी किया गया। काय्रक्रम का संचालन ओमप्रकाश साहू ’अंकुर’ ने तथा आभार प्रदर्शन परिषद के अध्यक्ष थनवार निषाद ’सचिन’ ने किया। हाना पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के लिए सभी अतिथियों ने साकेत साहित्य परिषद् सुरगी के प्रयासों को सराहा जिसके माध्यम से इतनी गहन व सार्थक परिचर्चा संभव हो सकी। संगोष्ठी में साकेत साहित्य परिषद के वीरेन्द्र तिवारी ’वीरू’, महेन्द्र बधेल, फागूदास कोसले, फकीर प्रसाद साहू ’फक्कड़’, पवन यादव,  राजकमल सिंह राजपूत तथा बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। कार्यक्रके दूसरे सत्र में कविगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका संचालन वीरेन्द्र तिवारी ’वीरू’ ने किया।
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