रविवार, 22 जून 2014

समीक्षा

संस्कारधानी के उभरते हुए समीक्षक.आलोचक श्री यशवंत मेश्राम ने कुबेर की 2003 में प्रकाशित काव्य संग्रह "भूखमापी यंत्र"  की समीक्षा की है। प्रस्तुत है एक अंश -

जब करोड़ों हाथ बेरोजगार हों तो मशीनों की दानवीय भुजाएँ क्यों? मशीनों की दानवीय भुजाओं से आने वाली तथाकथित बेहतरी आखिर किसके लिए होगी? यदि यही ग्लोबलाइजेशन है तो ग्लोबलाइजेशन की इस दुनिया में करोड़ों बेरोजगार हाथ इसमें दब क्यों रहे हैं? पर संभावनाएँ हैं, मानवीय संवेदनाओं की संभावनाएँ; और यही संभावनाएँ आशा और आस्था के आधार हैं।
कुबेर जी की कविताएँ बंद  कमरों में सेमीनार की कविताएँ नहीं है। ये खुले आसमान के नीचे पावस की बूँदों के संग घुलकर सतरंगी इन्द्रधनुषीय संरचना बनाती हुई रचनाएँ हैं। इनमें आस्था और आशाएँ हैं तो कमजोरियों और नादानियों का शव परीक्षण भी है। चेतावनियाँ भी है, आत्म-प्रेक्षण भी हैं -

अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उŸार-आधुनिक हो गए हैं।

अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।

पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।

कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं। (पृ 73)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें