गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

कविता

सफाईवाली से साक्षातकार


वह रोज आती है
मोहल्ले को साफ करती है और चली जाती है
पर, साफई मोहल्ले की फितरत में नहीं है
इसे वह अच्छी तरह जानती है,
मोहल्ला सदियों से साफ होता आ रहा है
पर, वह साफ रहना नहीं जानता
वह साफ होना नहीं चाहता
इसे भी वह, अच्छी तरह जानती है।

मनुष्य और मनुष्यता को
मनुष्य होने के अहसास को
और मनुष्य के स्वत्वों-स्वाभिमानों को रौंदनीवाली
मनुष्य को पशुओं से भी नीचे ढकेलनेवाली
मोहल्ले की यह फितरत
अन्य सभी फितरतों से अधिक हिंसक
अधिक घृणित, अधिक गर्हित है
पर विडंबना है,
अपने इस फितरत पर मोहल्ला
सदियों से मदोन्मत्त और गर्वित है
इसे भी वह भलीभांति जानती है।

उसके अभ्यस्त, मजबूत और
जानदार हाथों में होते हैं -
उतने ही अभ्यस्त और जानदार हत्थोंवाले
झाड़ू-फावड़े और
ठिलकर चलनेवाली मैलागाड़ी
दो छौटी-छोटी
सदियों से थकी-थकी
बीमार और असक्त पहियोंवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज करती हुई।

इस गाड़ी की पहियों से निकलनेवाली
चें... चीं.... चें... चीं....की आवाज असाधारण है
सदियों से अथक चलनेवाली
बीमार और अमानवीय परंपरा के विरोध में
एक बेजान का जानदार आह्वान है।

उसे काम करते मैं रोज देखता हूँ
लंबे हाथोंवाली झाड़ू अथवा फावड़े में उलझी
उनकी नत आँखों को मैं रोज तौलता हूँ।

उनकी आँखों में
मैं रोज कुछ देखना चाहता हूँ
पता नहीं कितने-कितने
और क्या-क्या सवाल उनसे पूछना चाहता हूँ।

पर कचड़े और गंदगी की ओर झुकी हुई
अपने काम में निरंतर उलझी हुई
उनकी नत आखों को कभी मैं देख नहीं पाता हूँ
उनसे एक भी सवाल कभी पूछ नहीं पाता हूँ।

एक दिन उन्होंने कहा -
’’बाबू! मैं जानती हूँ
आप मुझे रोज इस तरह क्यों देखते हो
आँखों ही आँखों में क्या तौलते हो,
कुछ नहीं बोलकर भी, बहुत कुछ बोलते हो।

आपका इस तरह देखने का यह सिलसिला,
और आपकी इन नजरों की वार को झेलने का मेरा अनुभव,
आज का नहीं, सदियों पुराना है
मेरे लिए न तो आप अजनबी हो
और न ही आपकी इन आतुर आँखों की लिप्साएँ ही
सबकुछ परखी हुई है, सबकुछ जाना-पहचाना है।

बाबू! दरअसल, मुझे देखते हुए
आप किसी भंगिन को नहीं
एक स्त्री और उसकी देह को देखते हो
उस देह की जवानी और मादकता को
किसी पेशेवर व्यापारी की भांति
मन ही मन तौलते हो और
अपनी आत्मा, अपने मन
और अपने विचारों में संचित गंदगी को
उस देह के ऊपर निर्दयतापूर्वक, लगातार फेंकते हो।

बाबू! काम के क्षणों में
आप मेरे निर्विकार भाव को देखते हो
और खुद से पूछते हो -
’शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों से
गंदगी के ढेरों को उठाते हुए
इन गंदगी के ढेरों से उठनेवाली बदबू के भभोके
मेरे नथनों को छूते क्यों नहीं हैं?’
और इस तरह मेरी संवेदनाओं पर
हर रोज
एक बड़ा और गैरजरूरी प्रश्नचिह्न लगाते हो।

बाबू!
शौचालय, नालियाँ, सड़कें और गलियाँ
न तो स्वयं गंदी होती हैं
न कभी गंदगी पैदा करती हैं
गंदगियाँ आपके घरों में पैदा होती हैं
और आपके घरों से निकलकर
शौचालयों, नालियों, सड़कों और गलियों में
विस्तार पाती हैं
समूचे वातावरण को गंदा बनाती हैं।

और सच कहूँ बाबू!
गंदगी न घरों में पैदा होती है
न शौचालयों, नालियों, सड़कों
और न गलियों में
गंदगी तो आपके मन में,
आपकी आत्मा में
आपकी सोच और
आपके विचारों में पैदा होती है
जो आपकी बनाई समाज
और उसके शास्त्रों में
 ठूँस-ठूँसकर भरी होती है
जिनसे उठनेवाली बदबू के भभोके
इन शौचालयों, नालियों,
सड़कों और गलियों की गंदगी से उठनेवाली
बदबू के भभोकों से कहीं अधिक उबकाऊ
और अधिक घनी होती है।
मैं आपसे पूछती हूँ
क्या इसनें कभी आपकी संवेदनाओं को
आपके नथुनों को छुआ है?
मैं दावा करती हूँ - कभी नहीं
फिर आपकी संवेदनाएँ
और आपके नथुने
किस चीज की बनी होती हैं?

बाबू! आप पूछते हो -
’गंदगी की इन ढेरों में पलनेवाले रोगाणु
मुझे बीमार क्यों नहीं बनाते?’
मैं आपसे फिर पूछती हूँ -
अपने स्वच्छ घरों में रहते हुए
और इज्जतदार व्यवसाय करते हुए
आप कितने स्वस्थ हो?
पवित्र स्थानों में बैठकर
पवित्रता का व्यवसाय करनेवाले
पुजारी, पादरी और मुल्ला कितने स्वस्थ हैं?
मुझे तो कहीं भी, कोई भी
कभी स्वस्थ नजर नहीं आता
बाबू! इनसे कभी आपने यह सवाल पूछा है?
यह सवाल फिर मुझसे ही क्यों पूछते हो?

बाबू! आप अक्सर यह भी पूछते हो -
’इस काम को करते हुए
मुझे शर्म क्यों नहीं आती है?’
सच है, आप ऐसा कह सकते हैं
इस काम को करते हुए
मुझे कभी शर्म नहीं आती है
पर मैं भी आपसे पूछती हूँ -
’ऐसा बेतुका प्रश्न पूछते हुए
आपको कभी शर्म आती है?’

बाबू! सच कहूँ
सफाई और गंदगी या
पवित्रता और अपवित्रता
अथवा श्रेष्ठता और निकृष्टता के सवाल पर
आपकी और मेरी सोच में
सदियों से एक बड़ा और बुनियादी अंतर है
जो आपको कभी दिखता नहीं है।
आपका यह प्रश्न बहुत घिसा-पिटा,
बहुत पुराना है
अनगिनत लोगों ने अनेकों बार इसे दुहराया है
इसीलिए आपका यह प्रश्न
आपकी छद्म-संस्कृति और
छद्म-सभ्यता के नाम पर
हाथोंहाथ बिक जाता है
परंतु, आपके समाज की इसी
छद्म संस्कृति और सभ्यता के बाजार में
मेरा प्रश्न कभी किसी को दिखता नहीं है
इसीलिए, यह कभी बिकता नहीं है।

बाबू!
मैं जानती हूँ
मेरे निरक्षर होने
और मैला ढोने पर आपकों प्रसन्नता होती होगी
इसे आप अपनी जीत की तरह मानते होंगे
इस पर आपको गर्व होता होगा
पर इस जीत के पीछे की आपकी कुटिलता
कभी मुझसे छिपती नहीं है
मेरी निरक्षर निगाहें भी
आपके अक्षरों के पीछे छिपे सड़ते सारे कूड़ों को
साफ-साफ देख लेती हैं
परंतु इस सच्चाई को आप देख नहीं सकते
कि आपकी साक्षर योग्यता
आपको कभी साफ रखना नहीं चाहती
और मेरी निरक्षर हुनर
कहीं कोई गंदगी छोड़ना नहीं जानती।’’

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