रविवार, 6 नवंबर 2016

चित्र कथा


महाराश्ट्र की सीमा से लगे राजनांदगाँव जिले के गाँव कल्लूबंजारी में आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में ’आदिवासी और उनकी समस्याएँ’ विषय पर वक्तव्य देते हुए - कुबेर - बाएँ से तीसरे क्रम पर .

शनिवार, 5 नवंबर 2016

कविता

मुझे सजा लेना चाहते हो


मैं खुद को खुद से नहीं जानता

परन्तु -
मैं अपने जंगलों को जानता हूँ
और इन जंगलों को खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये जंगल, वैसा मैं

मैं अपने पेड़ों को जानता हूँ
और इन पेड़ों को, खुद से अधिक जानता हूँ
जैसे ये पेड़, वैसा मैं

मैं अपने पहाड़ों को जानता हूँ
और खुद से अधिक मैं इन पहाड़ों को जानता हूँ
जैसे ये पहाड़, वैसा मैं

मैं अपने नदियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक इन नदियों को जानता हूँ
जैसी ये नदियाँ, वैसा मैं

मैं अपनी हवाओं को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन हवाओं को
जैसी ये हवाएँ, वैसा मैं

मैं अपनी इन पक्षियों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ, इन पक्षियों को
जैसी ये पक्षियाँ, वैसा मैं

मैं अपने हिरणों और बाघों को जानता हूँ
और खुद से अधिक जानता हूँ
इन हिरणों और इन बाघों को
जैसे ये हिरण और बाघ, वैसा मैं

मैं खुद को खुद से नहीं जानता
मैं खुद को जानता हूँ
इन जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों
नदियों, हवाओं, पक्षियों
और यहाँ के प्राणियों से

और सुनो -
ये ही मेरी भाषा हैं,
ये ही मेरे संस्कार हैं
ये ही मेरी सभ्यता और मेरे धर्म हैं
ये ही मेरी पहचान और मेरे प्राण हैं -
मेरी अपनी जानी-पहचानी हुई

इन्होंने न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

मैंने भी न कभी तुम्हारा बुरा किया
और न ही तुम्हारा कभी कुछ छीना

परन्तु -
तुमने मुझे कहा - आदिवासी
और मैं आदिवासी हो गया
तुमने मुझे कहा - नक्सली
और मैं नक्सली हो गया

और इस तरह
मुझे मारा और मिटया जाने लगा
मेरा सबकुछ मुझसे
छीना और लूटा जाने लगा
मेरे खात्में की यह शुरुआत थी
मैं मरने और मिटने लगा

और अब तुम
मेरे जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों,
नदियों, हवाओं और
पशु-पक्षियों को पूरी तरह मिटाकर
मुझे पूरी तरह मिटा देना चाहते हो

क्यों
मेरा सबकुछ छीन लेना चाहते हो
मुझे
म्यूजियमों और चिड़िया-घरों में
जीवाश्मों और
लुप्तप्राय प्राणियों की तरह
सजा लेना चाहते हो?
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