रविवार, 24 मार्च 2019

आलेख

जो गढ़े, वह गुरू

परंब्रह्म परमेश्वर के तीन रूप बताये गए हैं -
(जीवों की रचना, पालन और कल्याण करनेवाली शक्तियों के तीनों रूप प्रकृति में सन्निहित है। अतः प्रकृति ही परमब्रह्म है।)
गुरुर ब्रह्मा, गुरुर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरः। 
गुरुर साक्षात परम ब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
1. ब्रहमा - रचयिता,
2. विष्णु - पालनकर्ता, और
3. महेश (शिव) - कल्याण करनेवाला

गुरू में ये तीनों ही रूप समाहित हैं। समस्त जीवों को गढ़नेवाले ब्रह्मा ने मनुष्य को एक जीवधारी शरीर ही बनाया, परंतु मनुष्य को वास्तविक मनुष्य के रूप में गढ़ने का काम गुरू करता है, इसलिए वह ब्रह्मा है। जीवों का पालन करनेवाला विष्णु जीवों का शारीरिक और भौतिक पोषण ही करता है। मन, बुद्धि और आत्मा का पोषण गुरू करता है, इसलिए वह विष्णु है। गुरू ही मनुष्य को जीने की कला और अखण्ड आनंद के प्राप्ति का मार्ग दिखाकर उसका कल्याण करता है, इसलिए वह शिव है। गुरू ब्रहमा भी है, गुरू विष्णु भी है और गुरू महेश्वर भी है अतः गुरू ही साक्षात परमब्रहम परमेश्वर है।

मनुष्य जन्म से अनगढ़ होता है, उसे गढ़ने का काम गुरू करता है।

कबीर ने कहा है -
’’गुरु कुम्हार, सिस कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट। 
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।’’

 गुरु कुम्हार की तरह है जो शिष्य रूपी मिट्टी के एक-एक कंकर-पत्थर रूपी खोट को चुन-चुनकर निकालता है। करुणा रूपी जल से सींच-सींचकर उसे नम्र बनाता है। अनुशासन और शिक्षा रूपी पैरों से रूँद-रूँदकर उसे कोमल बनाता है। काल रूपी चाक में चढ़ाकर उसे घड़े का रूप देता है और अपने ज्ञान के ताप से तपाकर उसे पूर्ण, उपयोगी और कल्याणकारी घड़े का रूप देता है। गुरू ईश्वर से बढ़कर है।

समस्त गुरुओं को प्रणाम।
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सुप्रभात।


शुक्रवार, 22 मार्च 2019

कविता

(विश्व जल दिवस पर एक कविता - अपने कविता के खजाने से)

पानी

कुछ दिन पहले तक यहाँ 
पानी की कोई कमी नहीं थी
अब हम बे-पानी हो चुके हैं
विगत की कहानी हो चुके हैं।
पानी ढूँढना पड़ता है अब
चिराग लेकर गाँव-गाँव, शहर-शहर
पानी मिलता तो है
पर यदाकदा
जीवाश्म की शक्ल में।
किसने सोचा था
कि इतने जल्दी हम बे-पानी हो जायेंगे?
विगत की कहानी हो जायेंगे।
कोई था जो सशंकित था
और चेताया भी था
’’सदा राखिये पानी’’।
हमने समझा इस चेतावनी को
एक असभ्य का गैर-जरूरी प्रलाप
और गुजर जाने दिया सिर से
क्योंकि
सभ्य बनने के लिये हमें पानी की नहीं
पैसों की जरूरत थी?
हमने गिरवी रख दिया
प्रकृति के इस अनुपम,
अमूल्य उपहार को
पैसों के लिये
तथाकथित पैसेवालों के पास।
अब हमने समझा है
’’बिन पानी सब सून’’ के अर्थ को।
पानी जरूरी है, -
सभ्यता और संस्कार के लिए
आदमी होने और
आदमी-सा व्यवहार के लिए
परिवार, समाज और संसार के लिए।
पर हमारा पानी कब का चुक चुका है
शेष रह गई है -
प्लास्टिक की मल्टीनेशनल बोतलें
कूड़ों के ढेर की शक्ल में।
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गुरुवार, 21 मार्च 2019

आलेख

अमूर्त की व्याख्या शब्दों से संभव नहीं है


एक दिन एक मित्र ने कबीर के इस दोहे का अर्थ पूछा -
’कबीर कुत्ता (कूता) राम का, मोती मेरा नाव।
डोरी लागी प्रेम की, जित खींचे तित जाँव।।‘
(इस दोहे में तीसरा और चैथा चरण कहीं-कहीं इस प्रकार मिलता है -
’गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाँव।।’)
मित्र से मैंने कहा - ’’भाई! इसका अर्थ तो बहुत सरल है, और आप इसका अर्थ नहीं जानते होगे, ऐसा भी नहीं हो सकता।’’
मित्र ने कहा - ’’जो सरल होता है वही सबसे कठिन भी होता है। कबीर साहब ऐसे ही सरल ढंग से बड़ी गूढ़ बातें कह गये हैं। मैं इसका गूढ़ार्थ समझना चाहता हूँ।’’
क्या हो सकता है कबीर के इस वचन का गूढ़ार्थ?

कबीर साहब  कहते हैं - राम (ईश्वर) रूपी कुत्ता जिसका नाम मोती है  उसके गले में तो प्रेम की डोरी बंधी हुई। वह उसी की ओर खिंचा चला जाता है, वह उसी का हो जाता है जो इस डोरी को, प्रेम की डोरी को अपनी ओर खींचता है। अर्थात् भाव यह कि आपके अंदर प्रेम का भाव न हो तो कुत्ता भी आपके साथ न आये, ईश्वर कैसे आ सकता है।

हम नाना तरह से ईश्वर को पुकारते हैं, उसका स्मरण और जाप करते हैं, उसे जंगल-जंगल, मंदिरों और तमाम पूजा स्थलों में, हम ढूँढते हैं अपने स्वार्थ को लेकर, प्रेम को लेकर नहीं। उसे ढूँढते हैं , उससे कुछ मांगने के लिए, कुछ देने के लिए नहीं। ईश्वर को ढूँते है उससे धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, सुख और न जाने क्या-क्या मांगने के लिए, देने के लिए नहीं; और उसे देना भी क्या है - केवल प्रेम। प्रेम  वह धन है जो बाँटने बढ़ता ही है, कम कभी होता नहीं। और ईश्वर को कभी हम प्रेम दे नहीं पाते, वह हमारे निकट कैसे आयेगा? हम तोे केवल मांगने के लिए ईश्वर के सामने उपस्थित होते हैं, अपने तमाम स्वार्थों को लेकर, प्रेम रूपी धन लेकर हम ईश्वर के सामने कभी उपस्थित हुए ही नहीं, कैसे वह हमारे साथ आयेगा। और प्रेम भी क्या चीज है -
’’प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।’’
अर्थात् प्रेम न तो किसी बाड़ी में उगता है और न ही यह किसी बाजार में बिकता है, इस खजाने को तो अपने प्राणों के मोल पर ही प्राप्त किया जा सकता है। अपना सिर देकर अर्थात् विनम्र होकर, आपा रहित होकर ही प्राप्त किया जा सकता है। और इसके लिए हम तैयार नहीं हैं।

क्या है प्रेम? प्रेम कोई मूर्त चीज नहीं है जिसका वस्तु की तरह विनिमय किया जा सके। प्रेम का विषय अकादमिक भी नहीं है कि जिसे विद्यालयों में, किताबों को पढ़कर सीखा जा सकता है। प्रेम सीखने और सिखाने की वस्तु भी नहीं है। कोई गुरू अपने शिष्य को, कोई माता-पिता अपने बच्चे को प्रेम करना नहीं सिखाता, सिखा ही नहीं सकता। प्रेम केवल देने की चीज है और देकर ही इसे पाया जा सकता है। यह एक संवेग है। प्रकृति प्रदत्त मूल भाव है जो हमारे हृदय में सदा बना रहता है। हृदय में स्थित इस भाव को हम अपनी संवेदनाओं के द्वारा स्वयं अनुभव करते हैं। अपनी संवेदनाओं के द्वारा इसे हम स्वयं घनीभूत करते हैं। प्रेम बाहर की वस्तु नहीं है। प्रेम पुस्तकों और ग्रंथों का विषय नहीं है। प्रेम निज संवेदनात्मक अनुभूति का आंतरिक विषय है। यह हमारे अंदर  होता है और अंदर ही जागृत और विकसित होता है।

पुस्तकों और ग्रंथों के माध्यम से जब हम प्रेम को नहीं पा सकते तो इनके द्वारा ईश्वर को कैसे पा सकते हैं?
प्रेम की तरह ईश्वर भी पुस्तकों और ग्रंथों का विषय नहीं है। प्रेम का अनुभव करनेवाला सहज ही ईश्वर का भी अनुभव कर लेता है।
’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय।।’’
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बुधवार, 20 मार्च 2019

आलेख

कबिरा आप ठगाइए

आजकल असहिष्णुता का आलम बना हुआ है। जरा-जरा सी बात पर लोगों का क्रोध आसमान छूने लगता है। इसी हफ्ते की बात है। कबीर पंथियों के एक सम्मेलन में मुझे पाँच मिनट बोलने का अवसर दिया गया। कुछ वक्ता पाँच मिनट तो भूमिका में ही उड़ा देते हैं। मैंने भूमिका को ही उड़ा देने में बुद्धिमानी समझी। कबीर के केवल एक दोहे की व्याख्या हेतु मैंने अनुमति ली। दोहा है -
’’कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय। आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।’’ 

लोगों की बुद्धिलब्धि, जैसे - एक सामान्य निरक्षर व्यक्ति, एक पढ़ा-लिख व्यक्ति, एक पंडित, एक दार्शनिक और एक साहित्यकार, के हिसाब से मैंने इसकी पाँच व्याख्याएँ प्रस्तुत की। साहित्यकार के हिसाब से इस दोहे की व्याख्या करते हुए मैंने कहा कि कबीर ने इस दोहे में उन लोगों को लताड़ा है जो साधुओं, सन्यासियों, गुरूओं और संतों का वेष धारण करके धर्म के नाम पर लोगों को ठगते हैं। 

इसके पहले दार्शनिक की व्याख्या में प्रसंगवश मैंने कबीर के पुत्र कमाल का उल्लेख किया था। ये दोनों बातें मंच पर बैठे आधा दर्जन से अधिक साधुओं को चुभ गई होंगी। महाराष्ट्र से पधारे हुए एक युवा साधू, जो बड़े जोशीले अंदाज में मंच का संचालन कर रहे थे, और जो लगातार वक्ता को प्रवक्ता कहे जा रहे थे, ने मुझे आदेश दिया कि - बहुत हो गया, अब समाप्त करो। 

मेरे बाद राजस्थान के किसी कबीर मठ से पधारे एक परम पूज्य मठाधीश को आमंत्रित किया गया। मेरी व्याख्या से संभवतः यही गुरुवर सर्वाधिक बौखलाए हुए थे। अगले एक घंटे तक अपने आक्रामक धर्मोपदेश में वे कमाल और कमाली को कबीर का पुत्र-पुत्री बतानेवालों को धिक्कारते हुए यह सिद्ध करते रहे कि कबीर गृहस्थ नहीं बल्कि ब्रह्मचारी थे। 

पिछले साल के इसी सम्मेलन में एक धर्मगुरु ने अपने शोधकार्य के संबंध में जानकारी देते हुए बताया था कि लगभग बीस वर्षों की अथक मेहनत के बाद उन्होंने कबीर के जन्म और जीवनवृत्त की गुत्थियों को हल कर लिया हैं।

इसी तरह के एक सत्संग में एक महंत साहेब ने मुझे बीच में टोककर इस बात पर मेरी धुलाई की थी कि कबीर साहब को केवल कबीर कहकर संबोधित करना सद्गुरू का अपमान है। या तो सद्गुरु कबीर साहेब कहना चाहिए या कबीर साहेब कहना चाहिए। 

सवाल है - कबीर के उपदेशों के विपरीत मठ-मंदिर, माला-सुमरनी, पूजापाठ, आरती, घंटे-घड़ियाल आदि के फेर में उलझे कबीर पंथ के साधुओ और सन्यासियों के लिए कबीर का जीवनवृत्त, उनका गृहस्थ होना या ब्रह्मचारी होना अथवा उन्हें सद्गुरु और साहेब मानकर उनकी पूजा करना अधिक महत्वपूर्ण है कि उनके उपदेशों को समझना, आत्मसात करना और अपने जीवन में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है?
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आलेख

विलंडेकुह

(पूँजी अक्षमता और दुःख का भी एक बाजार बना देती है)

नया ज्ञानोदय, फरवरी 19 अंक में मंगलेश डबराल की यात्रा-वृत्तांत छपी है जो उनकी स्वट्जरलैंड की ज्यूरिख शहर की यात्रा से संबंधित है। यात्रा-वृत्तांत का शीर्षक है ’’जगमग शहर में अंधी गाय’’। वे लिखते हैं - ’’ज्यूरिख स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे बड़ा वित्तीय और बैंकिंग नगर है। .... ज्यूरिख खासा आकर्षक है। उमट नदी के छोरों पर बसे शहर के बीच 40 किलोमीटर लंबी एक कृत्रिम झील इसे और भी सुंदर बना देती है।"

वे आगे वहाँ के एक अनोखे रेस्त्रां जहाँ घुप अंधेरा होता है और वहाँ के सारे कर्मचारी नेत्रहीन होते हैं, का जिक्र करते हुए, लिखते हैं - "लेकिन दिव्यराज (उनके सहयोगी और गाइड) मुझे एक अनोखी जगह ले चलना चाहते हैं। वह एक रेस्तरां है - विलंडेकुह। यानी अंधी गाय। ....... विलंडेकुह में (बाहर के काउँटर को छोड़कर) गहरी अंधेरा होता है, कुछ नहीं दिखता और सिर्फ आवाजों की मदद से उसमें बैठे लोग खाते-पीते रहते हैं।" आगे वे प्रश्न करते हैं - "लेकिन इस तरह चमचम-जगमग शहर में यह अंधेरा कोना क्यों है? और यहाँ इतनी भीड़ क्यों रहती है? ......... शायद इसके पीछे दृष्टिविहीन लोगों की सहायता करने का जज़्बा हो जो पश्चिमी देशों में अब भी बचा हुआ है। शायद विश्व-बाजार ज्योतिविहीन लोगों को भी मुनाफे के काारोबार में बदल देता है। ............. पूँजी अक्षमता और दुःख का भी एक बाजार बना देती है।"
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सोमवार, 11 मार्च 2019

संस्मरण

सुरता (संस्मरण)

सिकरनिन दाई

जब मंय ह प्रायमरी कक्षा म पढ़त रेहेंव अउ हमर ददा-कका मन के संयुक्त परिवार रिहिस त परिवार म बारो महीना कोई न कोई घुमंतू मंगइया-खवइया नइ ते पौनी-पसेरी मन के आना-जाना लगेच् रहय। विहीमन म एक झन माई घला आवय। हमर दाई-काकी, परिवार के अउ गाँव के दूसरमन ह वोला सिकरनिन कहंय। मंय ह वोला सिकरनिन दाई कहंव। 

सिकरनिन दाई ह होली-देवारी अउ दूसर तिहार-बार होतिस तभे आतिस। आतिस तब भीतर आंगन म आ के एक ठन आंट म बइठ जातिस। जब कभी वो आतिस, इहिच आंट म बइठतिस। सेरसीधा झोंके बर वोकर तीर एक ठन टुकना रहितिस। एक-दू ठन झोला घला रहितिस। गाँव के दूसर घर घला वो ह जावय। वो ह मोला गजब मया करे, बिलकुल दाई बरोबर। मोर मन करे कि वोकर गोद म जाके बइठ जातेंव। फेर अइसन कभू नइ हो सकिस। सिकरनिन दाई ह घला मोला अपन गोद म बइठारे के कभू कोशिश नइ करिस। वो ह दुरिहाच् ले बात करतिस। मिलनेवाला सेरसीधा ल घला दूरिहाच् ले झोंकतिस। आशा के अनुसार सेरसीधा नइ मिलतिस कि कोनों अउ चीज के जरूरत होतिस ते मुँह फटकार के मांग लेतिस। सब संग बढ़िया प्रेम से सुख-दुख के बात गोठियातिस। सेरसीधा पा के गजब आसीस देतिस अउ दूसर दुवारी चल देतिस। अलग बइठना अउ दुरिहा ले गोठियाना, दूरिहा ले सेरसीधा झोंकना हमर समाज के जाति व्यवस्था के नियम हरे, ये बात ल मंय ह लइकापन म का जानतेंव? मंय ह येला सेरसीधा मंगइयामन के नियम होही समझंव।  

जब ले मोर उमर ह जाने-सूने के होइस तब ले मंय ह वोकर अवई अउ वोला जानत रेहेंव। अउ जब मंय ह कालेज म गेयेंव तब तक वोकर आना जारी रिहिस। बाद म वोकर आना बंद हो गे। काबर? का बतावंव। बात वोकर सियानमन सरीख लगय फेर उमर म वो ह कभू मोला सियान असन नइ लगिस। वोकर उमर के बारे म का बतावंव। दाई ह लइका बर उमर भर दाईच् रहिथे। न कभू जवान, न कभू सियान। या तो वो ह चले-फिरे म असक्त हो गिस होही या फिर वोकर इंतकाल हो गिस होही। नइ ते आयेबर वो ह काबर छोड़तिस?

मोर जानेसुने के उमर होय के पहिली वो ह आवत रिहिस होही कि नइ आवत रिहिस होही, का जानव? आवत रिहिस होही त का वो ह कभू मोला अपन गोद म बइठारत रिहिस होही? बइठार के मोला दुलार करत रिहिस होही? का पता? फेर अब, जब मंय ह हमर समाज के जाति व्यवस्था अउ छुआछूत के व्यवस्था ल समझ गे हंव, मोला नइ लागय कि वो ह अइसन कर पावत रिहिस होही। 

वो ह शिकारी जात के रिहिस। पंड़की, बटेर अउ तीतर जइसन चिरई अउ मुसुवा, खेखर्री जइसन छोटे-मोटे जन्तु के शिकार करना; बबूल, लीम अउ करंज के दतवन टोरना अउ वोला बाजार म बेचना इंकर पुश्तैनी धंधा आय। शिकार करे बर उँकर तीर तांत अउ बांस के कमची के बनाय फंादा रहय, जउन ल वोमन खुदे बनावंय। दूसर जातवाला कोनों आदमी वइसन फांदा नइ बना सकंय। बबूल, लीम अउ करंज के दतवन बने के लाइक पतला-पतला टहनी कांटे बर वोमन सइघो बांस के पतला छोर कोती धारवाला बिना बेठ के हँसिया बांध के बनावल अकोसी धर के आवंय। जमीन म खड़े-खड़े वोमन अकोसी म कतको अकन दतवन कांड़ी कांट लेतिन। अइसन ढंग ले कांटे दतवन कांड़ीमन के कांटा अउ पत्ता-डारामन ल छांटेबर वोमन तीर बंकी रहय। फांदा, अकोसी अउ बंकिच् ल ऊँकर स्थायी संपत्ति जान। खेत-खार, जमीन-जायदाद जइसे स्थायी संपत्ति भला ऊँकर तीर कहाँ। अब शिकारीमन मेहनत-मजदूरी के कोनों दूसर काम करे लग गिन होहीं। वोमन के लोग-लइकामन पढ़लिख के सरकारी नौकरी पा गिन होहीं अउ अपन जिनगी ल सुधार लिन होहीं। अपन अइसन पुश्तैनी काम ल छोड़ दिन होहीं। विही पाय के अपन काम-धंधा खातिर वोमन के गाँव कोती अवइ अब कम हो गे हे। आज के दिन चिरई-चिरगुन के शिकार करना संभव नइ हे। ये जीवमन अब दिखथेंच कहाँ? कानून के बंदिश अलग हे। ये काम अब वोमन नइ करंय। फेर दतवन टोरे अउ बेचे के काम आजो विहिचमन करथें। 

ये हर चैहत्तर-पचहत्तर के पहिली के बात आवय। फेर आजो सिकरनिन दाई के धुँधरहू छबि ह मोर आँखी आगू बनथे। वो ह बनेच् ऊँचपुर रिहिस। शरीर ले पतला-दुबला। बनिहार ले घला गयेबीते उँकर जिनगी रिहिस होही। वइसन भोजन वोमन ल कहाँ मिलत रिहिस होही कि वोमन के शरीर म चर्बी जमा हो पातिस? कि शरीर ह पानीदार दिख पातिस? वोकर शरीर म पानी भले नइ रिहिस होही पन मोला बिसवास हे कि वोकर स्वभाव म पानी के कोनों कमी नइ रिहिस होही। हँसी-मजाक ह अपन जघा हे, इज्जत अउ मान-सनमान ह अपन जघा। नइ ते अपन इज्जत बचाय खातिर वो मन अपन चेहरा ल जला के बदसूरत बनातिन काबर?
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सिकरनिन दाई ह हमर गाँव के रहवासी नइ रिहिस। हमर गाँव म कि हमर अतराब के परोसी गाँव मन म शिकारी जाति के एको परिवार नइ रिहिस। आजो नइ हे। हमर बड़का दाई ह बतावय - ’’सिकरनिन ह बसंतपुर म रहिथे। इंकर गाँव बसंतपुर हरे।’’
’’बसंतपुर? कते कर हे बसंतपुर ह?’’
’’नांदगाँव तीर हे।’’ 
’’तंय ह नांदगाँव जाथस त ऊँकर घर बइठेबर जाथस?’’
’’हमर सगा आवंय, गजब मार बइठेबर जाबोन।’’
’’हमर सगा नो हे। काकर सगा आवंय?’’
’’सिकरनिन के सगा सिकरनिन।’’
’’हमन का हरन?’’
’’हत् रे चेंधन। हमन का हरन, तंय नइ जानस?’’
’’बता न?’’ मंय ह जिद् कर देतेंव।
’’हमन तेली हरन बेटा, तेली।’’ बड़का दाई ह बतातिस। 
’’हमन तेली हरन? .... वो ह सिकरनिनि काबर आय?’’
’’अपन-अपन करम-करनी। पूरब जनम के भाग ताय बेटा। जइसन करम करे रहिबे, तइसन जात म भगवान ह जनम देथे। अब अउ जादा झन पूछ। पूछबे ते चटकन परही। जा पढ़बे लिखबे।’’ बड़का दाई ह खिसियाके कहितिस।
’’पढ़े-लिखे ले का जाति म जनम धरहूँ?’’
’’तोर खंगेच् हे का रे’’ कहिके बड़का दई ह थपरा उठा के मोर कोती झपटे कस करतिस। मंय ह हाँसत-हाँसत खोर डहर भाग जातेंव।
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सिकरनिन दाई के रंग ह सांवली रहय। मोला नइ लगय कि चूँदी म वो ह कभू कंघी-कोकई करत रिहिस होही। वोकर चूँदी ह बनेच, कनिहा के आवत ले रिहिस होही, काबर कि वोकर खोपा ह बड़े अकन रहय। वो ह जब भी आतिस, खोपा बांध के आतिस। वोला बेनी गांथ के आवत मंय ह कभू नइ देखेंव। चूँदी ल छितराके आवत घला वोला कभू नइ देखेंव। टेहर्रा नइ ते भांटाफूल रंग के कोष्टउहाँ लुगरा पहिरे रहितिस। वो समय कोष्टउहाँ लुगरा के चलन रिहिस। बलाउज पहिरे के जादा चलन नइ रिहिस। वो ह बलाउज पहिरे कि नइ, नइ जानंव। टिकली, सिंदूर लगावय कि नहीं, वहू ल नइ जानंव। फेर मोर पक्का सुरता हे, वोकर चेहरा म, दूनों गाल म बड़े-बड़े जले के निशान रहय। एक तो वोकर बिरबिट ले बिलई चेहरा, ऊपर ले जले के निशान, कोई घला अनुमान लगा सकथे कि कतिक सुंदर रिहिस होही वो ह? दाई के सुंदरता ले बेटा के का लेना-देना। फेर वोकर जले के निशान ह मोला बने नइ लागय। मंय ह वोला पूछंव - ’’दाई! येे ह का के निशान आय?’’ 

वो ह बात ल हाँस के टरका देय। जब-जब वो ह आतिस, मंय ह वोला जरूर पूछतेंव - ’’’’दाई! येे ह का के निशान आय?’’ 

जादा जिद करे में एक दिन वो ह बताइस, - ’’कढ़ाई के कड़कत तेल ह छिटक गे रिहिस बेटा। विही म जर गे रिहिस।’’
’’कढ़ाई के?’’ मोला विश्वास नइ होइस। ’’का रांधत रेहेस?’’ फेर पूछतेंव।
वो ह हाँस दिस। मतलब वो ह जरूर झूठ बोलत रिहिस। मंय ह फेर जिद करेंव - ’’बता न दाई, कामा जरे हे?’’
’’हमर मन के मुँहू ह अइसनेच् रहिथे बेटा।’’
’’जनम ले अइसनेच् हे?’’
’’हव गा, जनम ले अइसनेच हे।’’
’’दूसर मन के ह असन काबर नइ रहय?’’
’’भगवान जाने बेटा।’’
हमर बड़का दाई ह मोर सवाल करई म कंझा गे रहय, डपटत किहिस, ’’हत रे चेंधन। तोर अउ कोनों दूसर काम नइ हे? भग इहाँ ले।’’
मंय ह मन मार के चुप रहि गेंव। 
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मोर सवाल ह जस के तस माड़े रहि गिस। जब ग्यारहवीं कक्षा म गेंव, तब हमर जीवविज्ञान के सर ह एक दिन हमला डार्विन के सिद्धांत बताइस। ’’प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष में जीवों में अनुकूलन पैदा होता है। अनुकूलन के द्वारा अर्जित गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता जाता है। इस तरह कई पीढ़ियों के बाद की संततियों में उनके मूल पूर्वज से बिलकुल अलग तरह के गुण और लक्षण विकसित हो जाते है और ये अपने पूर्वजों से पूरी तरह भिन्न दिखने लगते है। इस तरह से नई प्रजातियों का विकास होता है।’’ संग म वो सर ह एकठन सवाल अउ ढील दिस जउन ह डार्विन के सिद्धांत ल गलत साबित करे उपाय रिहिस - ’’परंतु भारतीय स्त्रियाँ सदियों से नाक-कान छिदाती आ रही हैं। यह गुण आज तक हस्तांतरित क्यों नहीं हुआ?’’

मंय ह सिकरनिन दाई के गालमन के दाग ल डार्विन के सिद्धांत के परिणाम मानके देखे लगेंव। फेर जब मंय ह कालेज म आयेंव तब हमर जीवविज्ञान के प्रोफेसर सर ह डार्विन के सिद्धांत ल अउ पढ़ाइस। संगे-संग भारतीय नारीमन के कान-नाक के छेद के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तातरित नइ होय के कारण ल घला समझाइस। वोमन बताइन - ’’डार्विन के अनुसार संततियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी केवल उन्हीं गुणों का हस्तातंरण होता है जो प्रकृति के संग जीवन संघर्ष में अनुकूलन के फलस्वरूप अर्जित किये जाते हैं। भारतीय स्त्रियों के नाक-कान छिदवाने का उनके जीवन संघर्ष के साथ कोई संबंध नहीं है। इसलिए इस गुण का हस्तातंरण नहीं हो पाया। ऐसे गुणों का  हस्तातंरण नहीं होता।’’

एक घांव फेर मोर मन म सिकरनिन दाई के गालमन के दाग ह प्रगट होके  उलझ गे। शिकारी जात के औरत-मर्द, सब बिलई-बिलवा होथें, काबर कि वोमन बारो महीना घाम-पियास म शिकार करेबर, दतवन काड़ी टोरेबर, गिंजरत रहिथें। घाम म रहि-रहिके वोमन करिया हो गे हें। फेर शिकारी जात के औरतमन के गाल के जले के दाग के येकर ले का संबंध? खाली औरतमन के चेहरा म ये दाग ह काबर? पुरूषमन के चेहरा म काबर नहीं?

अब मंय ह जाने-सुने के लाइक हो गे रेहेंव। सिकरनिन दाई के आवई अब बंद चुके रिहिस। बड़का दाई ले पूछे म झिझक होवय। तब दिगर सियानमन ले ये सवाल के जवाब पूछे के शुरू करेंव। एक दिन गाँव के एक झन बुजरुग सियान बबा ह मोर सवाल के जवाब ल समझाइस। मोर सवाल ल सुनके पहिली तो वो निरक्षर सियान बबा ह मोर कालेज के पढ़ाई के गजब लानत-सलामत करिस; पढ़े-लिखे म कामचोरी करे के मोर ऊपर आरोप लगाइस। मन लगा के पढ़े के उपदेश दिस। अउ किहिस - ’’तुँहर किताब म येकर बारे म नइ लिखाय हे जी?’’
’’अइसन बात ह किताब मन म नइ लिखाय रहय बबा।’’

’’त का लिखाय रहिथे? लुवाठ? सुन, शिकारी जात के न घर, न गाँव। घुमइया जात। अउ ये दुनिया म, हमर समाज म, इंकरो ले बड़े-बड़े शकारी जात के आदमी बसे हें रे बाबू। अइसन शिकारी, जउनमन ह आदमी के शिकार करथें। आदमी के इज्जत अउ मान-सनमान के शिकार करथें।’’
’’कइसन शिकार बबा?’’

’’अरे बुद्धू! बड़े-बड़े मालगुजार, मंडल-गँउटिया अउ अपन आप ल ऊँच जात समझनेवाला आदमीमन कोनों शिकारी ले कम होथंव जी? गाँव के कते गरीब-गुरबा के, कते छोटे जात के नारीमन के इज्जत के येमन शिकार नइ करत होहीं? काकर इज्जत के येेमन ह शिकार नइ करत होहीं। बेटीमन के मुड़ी म पानी घला नइ परन देवंय साले मन? तोरे गाँव के अदमी ला देख ले न जी। अब वोकर तीर न तो माल हे, न गुजर हे, तभो ले तो आगी म मूतत हे नीच ह।’’ बतावत-बतावत सियान बबा के चेहरा ह तमतमा गे। वोकर आँखी म दुनियाभर के दुख अउ पीरा हिलोर मारे लगिस। कंठ के आवाज ह कंठे म रुक गे।

थोरिक देर रुक के बबा ह अपन कंठ म अटके, ये बड़े शिकारी मन के प्रति उपजे घृणा के भाव ल खखार के थूँकिस। अपन मन म उपजे पीरा अउ क्रोध के लहरा ल पीइस अउ फेर केहे लगिस - ’’गाँव म बसे किसानमन के बहू-बेटीमन तो बांचय नहीं बेटा, तब तो तंय ह जउन शिकारी जात के बात पूछथस कुबेर, उँकर कोन पुछंता हे बाबू? इंकर न घर, न गाँव। तब अपन बेटी-बहू के इज्जत ल ये मन कइसे बंचाय? इज्जत बंचाय खातिर ये शिकारी जात केमन ह बाबू, बेटी के जनम धरते सात ऊँकर मुँहू ल हँसिया तिपो के दाग देथें बेटा, ताकि उँकर बेटीमन बदसूरत हो जांय। डररावन दिखे लगंय, ताकि बड़े-बड़े मालगुजार, मंडल-गँउटिया अउ ऊँच जात के शिकारी आदमीमन के मन म ये मन ल देख के घिन पैदा हो जाय, अउ बेटीमन ह इंकर शिकार बने ले बांच जाय। समझेस ग?’’ 

बबा के जवाब सुन के मोरो हिरदे ह क्षोभ अउ वितृष्णा के भाव ले भर गे। जुबान नइ फूटिस। मुड़ी ल हलाके केहेंव - समझ गेंव बबा, समझ गेंव। अपन आप ल संभाले के बाद मंय ह बबा डहर देखेंव, वोकर निगाह ह अगास डहर सुन्न में अटक गे रहय। थोरिक देर चुप्पी ओढ़े के बाद बबा ह फेर किहिस -’’देख रे मनुवा, अब तो तंय ह गजब अकन पढ़-लिख डरेस। अब ये बातमन ल तंय ह अपन किताब म लिखबे अउ दुनिया ल पढ़ाबे’’
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आज न तो वो सियान बबा हे अउ न वो सिकरनिन दाई हर हे। फेर मोला वो बबा के बात ह भूले म नइ भुलाय। ये बात ल बतावत समय के वोकर चेहरा, वोकर चेहरा के भाव, वोकर आँखी म लहरावत दुख अउ पीरा के लहरा आजो जस के तस मोला दिखाई पड़ जाथे।

अब तो वो सिकरनिन दाई ह घला नइ हे फेर वोकर चेहरा के वो दाग मन ह आजो मोर आँखी ले नइ जावय। सोचथंव - अपन नानचुक पिला के चेहरा ल हँसिया तिपो के आंकत-दागत समय वो दाई-ददामन ल कतका पीरा होवत रिहिस होही? नानचुक अबोध पिलामन, जउनमन अभी-अभी ये दुनिया म आँखी उघारे रहय, लकलकावत हँसिया म दागे के पीरा ल कइसे सहत रिहिन होहीं? वो बेटीमन बड़े हो के जब अपन बदसूरत चेहरा ल देखत रिहिन होहीं तब वोमन ल कतका पीरा होवत रिहिस होही? ये पीरा ल जिनगीभर वोमन कइसे ढोवत रिहिन होहीं?

डार्विन के सिद्धांत के बारे म सोचथंव। वोकर ’’विभिन्नताएँ एवं वंशागतिकी’’ के सिद्धांत ह हमर समाज के शूद्र वर्ण अउ दीगर छोटे जाति समाज के दिमाग ऊपर जरूर लागू होय हे, नइ ते वर्ण व्यवस्था के कारण उपजे ये समाज के मनखेमन के दिमाग म समाय हीनताबोध ह घर नइ कर पातिस। उंकर मन म ये प्रथा के विरोध करे साहस के लोप नइ होतिस। अत्याचार ल चुपचाप सहन करे के प्रवृत्ति उंकर दिमाग म नइ आतिस। जिनगीभर अपमान अउ दुख-पीरा सहि के जीये के ताकत वोमन म नइ आतिस।

सोचथंव कि डार्विन के ’’विभिन्नताएँ एवं वंशागतिकी’’ के सिद्धांत ह शिकारी जाति के बेटीमन ऊपर काबर लागू नइ होइस होही। लागू हो जातिस त उंकर अबोध बेटी मन ल लकलकावत हँसिया म दागे के पीरा ल सहन करे बर तो नइ पड़तिस। अपन विकृत चेहरा अउ वोकर पीरा ल जिंदगीभर धर के जीये ल तो नइ पड़तिस। सिकरनिन दाई ल जब मंय ह वो दाग के बारे म पूछंव तब वो ह मोर बात ल हाँस के टार देवत रिहिस। वो ह काकर ऊपर हाँसत रिहिस होही? हमर समाज के घिनौना जाति-वर्ण प्रथा ऊपर कि अपन किस्मत के ऊपर?

हमर समाज के उच्च वर्ण के चरित्रहीनता ल देखथव अउ शिकारी समाज के अपन चरित्र रक्षा खातिर अपन चेहरा ल लकलकावत हँसिया म दाग के विकृत करे के भाव ल देखथव अउ सोचथंव कि ये दोनों वर्ण म कोन वर्ण ह श्रेष्ठ हे? 

सिकरनिन दाई के चरित्र के शुचिता के बारे म सोचथंव तब मोर मुड़ी ह वोकर छबि के सामने श्रद्धा ले नव जाथे।
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व्यंग्य

एक बोध कथा


तपस्यारत वह ऋषि दूर से आनेवाली इस समवेत गायन की आवाज को सुना - बहेलिया अब नेता बनकर आता है, लोकलुभावन आश्वासनों का जाल फैलता है, वायदे रूपी दाना डालता है। दानों के लालच में नहीं पड़ना चाहिए।

ऋषि यह सोचकर अत्यंत प्रसन्न हुआ कि उसकी शिक्षा का प्रसार जंगल में चारों ओर हो गया है। अब कोई तोता बहेलिए की जाल में नहीं फंसता। सब प्रसन्न हैं।

गायन का स्वर नजदीक आता गया। ऋषि ने देखा, तोतों का पूरा समूह बहेलिए की जाल में फंसा हुआ है और बड़े मजे के साथ ऋषि के उपदेश का गायन कर रहा है - बहेलिया अब नेता बनकर आता है, लोकलुभावन आश्वासनों का जाल फैलता है, वायदे रूपी दाना डालता है। दानों के लालच में नहीं पड़ना चाहिए।

ऋषि बड़ा दुखी हुआ - मेरे उपदेश का ऐसा असर? उसने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा - आनेवाली पीढ़ियों पर ऋषियों-उपदेशकों की उपदेश का विपरीत असर होने लगा है। उसने अभिशाप दिया - आनेवाली पीढियों पर किसी उपदेश का कोई असर न हो।

आजकल इसीलिए लोगों पर किसी उपदेश का कोई असर नहीं होता।
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कुबेर

सोमवार, 4 मार्च 2019

कहानी

गौरैया

(यह कहानी मेरी छत्तीसगढ़ी कहानी ’बाम्हन चिरई’ का हिंदी अनुवाद है।)

छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है - ’बिहाव ह कथे कर के देखा, घर ह कथे बना के देखा।’ अर्थात् शादी-विवाह करना और घर बनाना आसान काम नहीं होता, दोनों की अपनी चुनौतियाँ होती हैं। दोनों ही कहते हैं - करके बता तो जानूँ। ऊँट के लिए पहाड़ चढ़ना कभी भी आसान नहीं होता। घर बनाते-बनाते मेरी कमर टूट चुकी है। बड़ी मुश्किल से पुताई का काम हो पाया है। फ्लोरिंग, टाइल्स, खिड़की-दरवजे और रंग-रोगन के लिए हिम्मत ने जवाब दे दिया है। योजना थी कि छः-सात महीने में गृह प्रवेश हो जायेगा, परंतु गाड़ी अटक गई।

मुसीबत चाहे कैसी भी हो, महिलाएँ बचने का रास्ता ढूँढ ही लेती हैं। पत्नी ने कहा - ’’कर्जा कर-करके और कितना बोझ लादोगे। उतारना आखिर हमें ही है। रईसी दिखाने के लिए दूसरों का नकल करना बेकार है। फ्लोरिंग और टाइल्स, नहीं हो पायेगा तो फर्सी पत्थर से काम चला लेते हैं। खिड़की-दरवजों के लिए इमारती लकड़ियों की व्यवस्था नहीं हो पा रही है तो साधारण लकड़ी से काम चला लेते हैं। चूने से एक बार पुताई तो हो ही गई है, रंग-रोगन बाद में करवा लेंगे। हँसनेवालों का क्या है, करोंड़ों खर्च करने पर भी तो वे मीन-मेख निकाल ही लेंगे। बरसात लगनेवाली है, दूसरे के घर में आखिर कितने दिन रहेंगे।’’

मैंने वैसा ही किया। और बरसात लगने से पहले हम अपने नये घर में आ गये।

अपनी किताबों को मैंने बरामदे की दीवर में बने रैक के विभिन्न खानों में व्यवस्थित ढंग से सजा दिया। रैक में अभी कांच-खिड़कियाँ नहीं लग पायी हैं। ताला लगाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अर्थात् मेरा यह अनमोल खजाना हर किसी की पहुँच के दायरे में है। 

किताबों के रैक के पास ही दीवार में खूँटी के सहारे एक दर्पण लटका हुआ है जिसके आगे खड़े होकर मैं कंघी किया करता हूँ। एक दिन मैंने देखा, एक गौरैया इसी दर्पण के फ्रेम मेें बैठकर अपना प्रतिबिंब निहार रही है। कभी वह घूम-घूमकर अपना सिर दायाँ-बायाँ मटकाती तो कभी चीं-चीं करके वह अपना पूँछ नचाती। उसकी आँखों में गजब की चमक थी। चहकने की आवाज में किसी असाधारण संगीत की मधुरता थी और उसके रूप में मन को आह्लादित करनेवाला आकर्षण था। वह किसी मुग्धा नयिका से कम नहीं लग रही थी। मैंने कहा - वाह जी, तुमको भी सजने-सँवरने का नशा चढ़ा हुआ है। पर उसे मुझमें कोई रूचि नहीं थी, भला मेरी बात वह क्यों सुनती? अलबत्ता रह-रहकर वह अपने ही प्रतिबिंब को अपने ही चोंच से ठुनकने लगती। सोचती होगी - मेरे साम्राज्य में यह दूसरा कहाँ से आ गई है, मेरे हक पर डाका डालने के लिए?

तभी कहीं से एक अन्य गौरैया फुर्र से उड़कर आई और उसके बगल में बैठ गई। इसके सिर और डैनों पर कत्थई रंग की धारियाँ बनी हुई थी। प्रचलित विश्वास और परंपरा द्वारा अर्जित ज्ञान के आधार पर यह पहचानने में मुझे देर नहीं लगी कि यह नर गौरैया है और पहलीवाली मादा। पहिलीवाली गौरैया ने उसे कुछ नहीं किया। झण भर के लिए उसे ध्यान से देखा और उसके कुछ और समीप आकर बैठ गई। दोनों के बीच अपनी भाषा में कुछ देर वार्तालाप हुई। और चीं-चीं करती हुई दोनों एक साथ उड़ गई। उन दोनों ने शायद मित्रता गांठ ली हो। कुछ देर बाद वे दोनों चीं-चीं करती हुई आईं और दर्पण में फिर बैठ गईं। कुछ देर मस्ती करके फिर उड़ गई। 

उन दोनों का यह आना-जाना दिनभर लगा रहा। दोनों इसी तरह दिन भर मस्ती करती रहीं। उनके इस कलरव भरी मस्ती से मुझे आनंद भी आ रहा था और ईष्र्या भी हो रही थी। इस तरह की मस्ती हम लोग क्यों नहीं कर पाते?

दूसरे दिन सुबह मैंने देखा, किताबों वाली रैक के नीचे फर्स पर खूब सारे कचरे बिखरे पडे़ हैं। मुझे पत्नी पर गुस्सा आया। घर की साफ-सफाई भी ठीक से नहीं कर सकती? पत्नी का ध्यान मेरी ओर ही था। उसने मेरा मनोभाव ताड़ लिया। मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने सफाई देते हुए कहा - ’’बुहारते-बुहारते मैं तो थक गई, इन बदमाश चिड़ियों से। पता नहीं कब आती हैं और कचरा डालकर चली जाती हैं।’’

मेरी बोलती बंद हो गई। किताबों की ओर देखा। किताब की पंक्तियों और रैक के छत के बीच कुछ बड़ी सेंध थी। उन लोगों ने यहीं सेध मारी की थी। सेंध सूखे तिनकों से भरा पड़ा था। मुझे क्रोध आया - इन हरामखोरों को घोसला बनाने के लिए मेरी किताबों के बीच ही जगह मिली? मेरी निगाह झरोखों की ओर चली गई। वहाँ दोनों चिड़िया पूँछ नचाती और सिर मटकाती, अपनी-अपनी चोंज में तिनके लिए बठी थीं। उनका ध्यान मेरी ओर ही था। वे कुछ सहमें-सहमें से लग रहे थे। उन्होंने शायद भांप लिया था कि मेरे मन में क्या है और मैं क्या करने जा रहा हूँ। मैंने अपनी विवशता के बारे में सोचा, झरोखों में यदि कांच लग गया होता तो ये दुष्ट पक्षियाँ ऐसा हरगिज नहीं कर पातीं। 

सूपा और बुहारी लेकर मैं उनके घोसले की सफाई करने के लिए उद्यत हुआ। इस बीच वे दूसरे तिनके की तलाश में बाहर चली गई थी। रास्ता साफ था। परंतु जैसे ही उनके घोसले की ओर मैंने बुहारी बढ़या, वे आ गईं। वे चीं-चीं करके मेरे सिर के चारों ओर मंडराने लगीं। वे मेरे इस कृत्य पर आक्रोशित थी और इस कृत्य का प्रतिरोध कर रही थीं। उनकी आक्रामकता देखकर मैं डर गया। मन ने कहा - चिड़ियों से डर गये? यह तो गजब हो गया। मुझे भी जिद्द हो गया।

चिड़ियों का विरोध और भी आक्रामक हो गया।

मन ही मन मैंने कहा - वाह री पक्षियों, धन्य हो। इतना विरोध तो आदमी भी नहीं कर पाते।

पत्नी देख रही थी, कहा - ’’अब रहने भी दीजिए। पखेरुओं का आशियाना उजाड़ने पर पाप लगता है। चोंच मार देगी तो और मुसीबत हो जायेगी।’’

अभी अपना कार्यक्रम रोक देने में ही मैंने अपनी भलाई समझा। सोचा, इनकी अनुपस्थिति में देखा जायेगा।
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उस दिन की घटनाएँ याद आने लगी जिस दिन इस घर का पुनर्निर्माण करने के लिए मुझे पुराने ढांचे को तोड़ना पड़ा था। पुराना घर कवेलूवाला था। कवेलू में घोसला बनाने में चिड़ियों को आसानी होती है। उस कवेलू के ओरछे में गौरैया के बहुत सारे घोसले थे। जैसे इस घर में इन चिड़ियों का भी बराबर का स्वामित्व हो। घोसले हमेशा बने रहते थे। ये कब अंडे देते, कब उन अंडंों को सेते और उनके चूजे कैसे बड़े होते, बड़े होकर कब उड़ जाते, इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं होती। अब नये घर में इन्हें भी तो अपना हक, अपना हिस्सा चाहिए न।

मकान तोड़ने की प्रक्रिया में पहले खपरैल उतारे गये। इन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। जब छाजन तोड़ने की बारी आई और इनके घोसले उजड़ने लगे तो इनका विरोध शुरू हो गया। ये हमलावर हो गये। इन्होंने चीं-चीं करके आसमान सर पर उठा लिया। मजदूरों के सिर के ऊपर मधुमक्खियों की तरह ये मंडराने लगे। इनके विरोध और आक्रामकता देखकर काम करनेवाली औरतें डर गयीं। कहने लगीं - ’’हमसे नहीं होगा। यदि चोंच मार देंगी तो मुसीबत हो जायेगी।’’ 

किसी ने कहा - ’’बेचारियों का घर उजाड़ने में लगे हो, ये भला चुप क्यों रहेंगी? कोई तुम्हारा घर तोड़े तो क्या तुम विरोध नहीं करोगी?’’

पत्नी ने कहा - ’’बहनों! अभी इनके प्रजनन का समय चल रहा है। इनके घोसलों को इधर-उधर मत फेंको। किसी सुरक्षित जगह में इन्हें व्यवस्थित कर दो। आदमी हो या पशु-पक्षी, माँ तो माँ होती है। परिवार और बच्चों की चिंता तो होती ही है। अपने जैसा ही इन्हें भी जानो।’’

पत्नी का सलाह काम आया। जिन घोसलों में अंडे थे उनका सुरक्षित जगहों पर पुनर्वास किया गया। ले-देकर काम बना।
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अब तो पक्का घर बन चुका है। अपना हक भला कोई कैसे छोड़ दे? अपना हक भला ये क्यों न जताए? जब मैंने अपना सूपा-बुहारी वहाँ से हटाया, और अपना सफाई अभियान स्थगित किया तब जाकर इनका विरोध समाप्त हुआ।

अगले दिन, कुछ दिनों के लिए मुझे बाहर जाना हुआ। जब मैं लौटकर आया, इन्होंने अपने स्वामित्व पर कब्जा कर लिया था। इनका भी गृह प्रवेश हो चुका था।

सुबह मैंने देखा, किताबों के रैक नीचे फर्स पर कागज के छोटे-छोटे कतरन बिखरे पड़े है। ये किताबों के पन्नों के कतरन थे। मुझे क्रोध आया। पता नहीं, मेरी किताबों का इन लोगों ने क्या हाल किया होगा। 

कुछ किताबों को दूर से ही ध्यान से देखा, उनके किनारे आरी के दातों की तरह हो चुके थे। मुझे अपने इस नुकसान पर बड़ा क्रोध आया। कहा - ’’ठहरो, हरामखोरों। अभी मजा चखाता हूँ। तुम लोगों ने मेरी किताबों का सत्यानाश किया है, अब मैं तुम लोगों का सत्यानाश करता हूँ।’’

मैंने निश्चय किया, आज इनका घोसला उजाड़कर ही दम लूँगा। जैसे ही मैंने घोसले की ओर हाथ बढ़ाया, चिड़ियों का चीं-चीं शुरू हो गया। मेरे हाथ बीच में ही रुक गये। न तो आज ये मेरे सिर के ऊपर मंडरा रही थीं और न ही इनके स्वर में पहले जैसी आक्रामकता ही थी। आवाज झरोखे की ओर से आ रही थी। मेरी निगाहें उधर ही उठ गई। चीं-चीं की आवाज के साथ ही वे फुदक-फुदककर अपनी विवशता दर्शा रही थीं। उनके स्वरों में पहले की सी तीव्रता और आक्रोश के भाव नहीं थे। मुझे लगा जैसे ये हाथ जोड़कर और आँचल फैलाकर अनुनय-विनय कर रही हों कि कृपया आप ऐसा मत कीजिए। मैं सोच में पड़ गया।

मातृत्व के साथ अनायास ममता और विनम्रता भी आ जाती है।

पत्नी रसोई से बाहर आ रही थी। उसने मुझे किताबों के रैक के पास सोचनीय मुद्रा में देखकर मेरा इरादा भांप लिया होगा, कहा - ’’क्या कर रहे हो? अंडे पड़ गये होंगे। रहने दीजिए।’’

’’मेरे पोथी-पुराणों (साहित्यिक किताबों और मेरे पढ़ने लिखने की अन्य सामग्रियों को मेरी पत्नी पोथी-पुराण ही कहा करती हैं।) का इन लोगों ने क्या हाल किया है, जानती हो? बड़ा आई इनका पक्ष लेनेवाली।’’

पत्नी ने मुझे डाटते हुए कहा - ’’किसी जीव से बढ़कर हो गये हैं क्या आपके ये पोथी-पुराण? आपके इन्हीं पोथी-पुराणों से दुनिया की रचना होती है?’’ आज उसे अपना ज्ञान बघारने का अवसर मिल गया था।

पल भर के लिए मैं भी सोच में पड़ गया। मुझे कबीर का वह दोहा याद आ गया जिसमें वे पूछते हैं कि ’ऐ पंडितों, बताओ, तुम्हारे शब्द बड़े हैं कि मेरी रचना, जीव?

’पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कींव।
तो से पूछौं पाण्डिता, शब्द बड़ा कि जीव।’

पत्नी की बातों में ज्ञान बघारनेवाली जैसी कौन सी बात है? बात व्यावहारिकता की है। यथार्थ की बात है। ममता की बात है। प्रेम, करुणा और दया की बात है। सृजन और सृजनकर्ता के अनुभव की बात है। सृष्टि का सृजन तो नारियाँ ही करती हैं। सृजन और सृष्टि की बातें वे न जानेगी तो और कौन जानेगा, पुरुष? पुरुष के ज्ञान में अहम का रूखापन होता है, नारियों के ज्ञान में होती है - करुणा और कोमलता। पत्नी सच ही कहती है - जो सृजन न कर सके उसे संहार का अधिकार नहीं है। संहार करने का मेरा संकल्प और अहंकार पलभर में ठंडा पड़ गया।

मेरे इस हृदय परिवर्तन का चिड़ियों को जैसे जरा भी विश्वास नहीं हुआ। डरे-सहमें वे दिन भर मेरे आसपास ही मंडराती रहीं। मानो मेरा निगरानी कर रही हों। दूसरे दिन भी उन लोगों ने ऐसा ही किया। तीसरे दिन वे जरा खुलीं। झरोखे में बैठकर सिर मटका-मटकाकर और चीं-चीं करके वे मेरी ओर देखती, जैसे कह रही हों - धन्यवाद। इस कृपा के लिए हम आपके आभारी हैं। 

उनकी आँखों से झर रहे अबोधता और कृतज्ञता के झरने से मेरा रोम-रोम आर्द्र हो चुका था। अब तो इन चिड़ियों की धमाचैकड़ी से मुझे रस मिलने लगा था। इसी तरह कुछ दिन और बीते। एक दिन सुबह-सुबह मैंने धोसले के अंदर से आती हुई चीं-चीं की महीन आवाजें सुनी। सृष्टि की रचना पूरी हो चुकी थी। कब हुई, कैसे हुई, किसे पता? सृष्टि की रचना ऐसे ही होती है - धीरे-धीरे, चुपके-चुपके।

चूजों के चीं-चीं की महीन आवाजें मुझे बच्चों की किलकारियों की तरह लगती। यह कुदरत का अमूल्य उपहार था जिससे मेरे घर का कोना-कोना उपकृत हो रहा था। मेरी हृदतंतुएँं इन मधुर झंकारों से झंकृत हो रही थी।

देखते-देखते बच्चे बड़े हो गये। उनके डैनों में इतनी ताकत आ गईं कि वे स्वयं को हवा में साध सके, हवा का सीना चीरते हुए आसमान की बुलंदियों को छू सके।

अगली सुबह घोसला सूना हो चुका था। 

दो-तीन दिनों तक मैं उनके लौट आने की प्रतीक्षा करता रहा। पर गौरैया का यह परिवार लौटकर नहीं आया। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि अब लौटकर वे नहीं आयेंगे। मैंने उस घोसले को सावधानी पूर्वक टटोलकर देखा। मन ने कहा - शायद लौट ही आएँ, विरोध करने के लिए ही सही। 

घोसला सूना हो चुका था। मेरा विरोध करनेवाला अब कोई नहीं था। अब अपने पोथी-पुराणों की साफ-सफाई मैं निर्भय होकर कर सकता था। सबसे ऊपरवाली किताब में कुछ गंदगियाँ पड़ी थी जो साफ करने पर कुछ दाग छोड़कर साफ हो गई। तीन-चार किताबों के किनारों को कुतरकर आरी की दांतों की तरह बना देने के अलावा उन चिड़ियों ने मेरा और कोई नुकसान नहीं किया था।

मेरी किताबें और और किताबों का रैक अब पूरी तरह साफ हो गई थी। लेकिन मेरा घर अब सूना हो चुका था।
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व्यंग्य

बहुपठित गद्यांश:-

’’जीव इस संसार में बार-बार जन्म लेता। चौरासी लाख योनीयों (जीवधारियों) में भटकता है।’’ 

इस बहुपठित गद्यांश के आधार पर सही विकल्प चुनकर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए -

प्रश्न 1 - ’चौरासी लाख’ योनीयों का आकड़ा - 
(अ) प्राचीन ऋषियों के द्वारा गिना गया है
(ब) प्राचीन जीवविज्ञानियों द्वारा सूचीबद्ध किया गया है
(स) केवल आस्था का विषय है
(द) ’अंध’विश्वास पर आधारित है।

प्रश्न 2 - चौरासी लाख योनीयों का उल्लेख और विवरण मिलता है - 
(अ) वेदों में
(ब) पुराणों में
(स) जीवविज्ञान की पुस्तकों में
(द) यह ’आस्था’विश्वास पर आधारित  है।

प्रश्न 3 - आज बहुत सारी योनीयों (प्राणियों) के विलुप्त हो जाने से चौरासी लाख योनीयों की श्रृंखला 
का चक्र टूट चुका है -
(अ) यह गलत है
(ब) प्राणियों का विलुप्तिकरण अस्थायी है, समय आने पर ये पुनः प्रगट होंगे
(स) इस तरह का प्रश्न करना घोर पाप कर्म है
(द) उपर्युक्त तीनों सही है।

प्रश्न 4 - प्राणियाँ विलुप्त हो रही हैं, ऐसा मानना ही -
(अ) गलत है
(ब) अधार्मिक कृत्य है
(स) धर्मद्रोह है
(द) राष्ट्रद्रोह है।

प्रश्न 5 - विलुप्त हो रही योनीयों पर पुनर्जन्म न होने का कारण है -
(अ) विलुप्त हो रही प्राणियाँ मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मरण चक्र से मुक्त हो जाते हैं
(ब) ईश्वर ने विलुप्त हो रही प्राणियों का पुर्निनिर्माण करना बंद कर दिया है
(स) विलुप्त हो चुके प्राणियों को इस समय ईश्वर मनुष्य योनी में भेज रहे हैं
(द) उपर्युक्त तीनों सही है।
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