बुधवार, 23 सितंबर 2015

समीक्षा

मेरी व्यंग्य संग्रह  ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पर वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री त्रिभुवन पाण्डेय की लिखित प्रतिक्रिया/समीक्षा प्राप्त हुई है जिसे मूलतः यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। - कुबेर

समीक्षा

’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ 

                                                                                                                               त्रिभुवन पाण्डेय

कुबेर का प्रथम व्यंग्य संग्रह ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा बड़े ही आकर्षक आवरण पृष्ठ के साथ प्रकाशित हुआ है। संग्रह में कुबेर की साठ व्यंग्य रचनाएँ सम्मिलित हैं। अधिकांश रचनाएँ छोटी हैं इसलिए इसे लघु व्यंग्य भी कहा जा सकता है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय व्यंग्य पाठक का ध्यान अपनी और आकर्षित करते हैं। ’तोंद की नैतिकता’, ’प्रश्न चिह्न’, ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’, ’जेब’, ’कुर्सी तोड़ने वाले’, एवं ’खपरैलों की हेराफेरी’ अपनी नवीन व्यंग्य दृष्टि के कारण पाठक को अपनी और आकर्षित करेंगे।

’तोंद की नैतिकता में एक ओवरसियर बाबू का चित्रण है। पहले वे छरहरे बदन के थे लेकिन अब उनकी तोंद खाने और पचाने के लिए पूरी तरह अनुकूलित हो चुकी है। गाँव के बरसाती नाले का स्टाडेम बन रहा है। मस्टररोल में जैसे-जैसे मजदूरों की बढौतरी हो रही है उनकी तोंद की आकृति भी बढ़ रही है। देश के विकास के साथ उसके पेट का भी विकास हो रहा है।

इसी तरह ’प्रश्न चिह्न’ साम्प्रदायिकता की प्रकृति पर तीखा व्यंग्य है। एक व्यक्ति वृक्ष के नीेचे बैठा हुआ है। चार व्यक्ति उसे घेर कर प्रश्न पूछते हैं - कौन हो तुम? व्यक्ति उत्तर देता है - आदमी। लेकिन क्या हिन्दू हो? मुसलमान हो? सिख हो? इसाई हो? उत्तर में वह कहता है - मैं आदमी हूँ। उत्तर सुनकर आततायी कहते हैं - फिर अब तक तू इस शहर में जिंदा कैसे है?

’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ भी दिलचस्प व्यंग्य है। भ्रष्टाचार का अवलेह पाक बनाने की विधि - सर्वप्रथम झूठ-बेल के कपड़छन चूर्ण को बेईमानी के वृक्ष के स्वरस के साथ अच्छी तरह खरल करें। इस तरह प्राप्त अवयव को निर्लज्जता के तेल से अच्छी तरह तर करें। अंत में चिकनी-चुपड़ी-मक्खनी-शर्करा की चाशनी में इसे पाक कर लें। ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ तैयार है। सेवन विधि इस प्रकार है - अवसरवादिता के गुनगुने दूध के साथ एक चम्मच अवलेह पाक चाँट लें। स्वार्थ, चमचागिरी, दलाली जैसे सुपाच्य भोजन का सेवन करें। नैतिकता, सदाचार, सच्चाई, परोकार जैसी गरिष्ठ चीजों के सेवन से बचकर रहें।

’जेब’ भी उल्लेखनीय व्यंग्य है। ’’दिल और जेब, दोनों की महिमा निराली है। देखने में ये जितने छोटे होते हैं, इनकी धारण-क्षमता उतनी ही अधिक होती है। दादाजी की कमीज में बहुत सी जेबें हुआ करती थीं। किसी में घर की चाबियाँ, किसी में आय-व्यय की डायरी और किसी में कलम रखते। उनकी जेबों में केवल जिम्मेदारियाँ ही भरी रहती थी। जेबों का इस्तेमाल वे आदमी को रखने के लिए कभी नहीं करते थे।’’

’कुर्सी तोड़ने वाले’ की पहली ही पंक्ति व्यंग्य से शुरू होती है - मेरी जन्मकुण्डली में लिखा है - जातक कुर्सी तोड़ेगा। मैं शिक्षाकर्मी बन गया हूँ। मेरे मित्र की कुण्डली में लिखा है - जातक कुर्सी पर बैठेगा। वह नेता बन गया है। वह भी मेरे जैसा बनना चाहता था पर उसकी डिग्री ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी। आगे चलकर वह कुर्सी की दयनीय टूटी-फूटी स्थिति देखता है तब वह सोचता है इस कुर्सी को वह और कैसे बैठकर तोड़ेगा। वह नयी कुर्सी के लिए विभाग को लिखता है? विभाग से जो कुर्सी मिलती है वह टूटी हुई नई कुर्सी होती है। वह जब बड़े बाबू से शिकायत करता है तब बड़े बाबू ने बगैर विचलित हुए उत्तर दिया - देखिए मिस्टर, यह कुर्सी सुपर कंप्यूटर द्वारा डिजायन किया हुआ है। देश की नामी कम्पनी द्वारा बनायी गयी है। विभागीय कमेटी द्वारा अनुमोदित और चीफ इन्जीनियर द्वारा टेस्टेड ओ. के. है। आप इसमें कमियाँ नहीं निकाल सकते। आप इन्जीनियर नहीं हैं।

’खपरैलों की हेराफेरी’ पाठशाला भवनों की स्थिति पर प्रभावी व्यंग्य है। व्यंग्य की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है - हमारी शाला भवन की छत गरीबों की झोपड़ी की तरह है जो बरसात होते ही किसी रईस के स्नान घर के शावर की तरह झरने लगती है। जब से पंचायती राज आया है, खपरैलों की मरम्मत हर वर्ष होने लगी है। गत वर्ष का अनुभव अच्छा नहीं था। टपकने के पुराने द्वार तो बंद हो गये थे पर उतने ही नये द्वार फिर खुल गये थे। फिर से नये विशेषज्ञों को भेजा गया लेकिन नतीजा क्या हुआ - ’कुछ ही देर में कमरों में पानी भरना शुरू हो गया। मुझे लगा स्कूल दलदल में तब्दील हो चुका है और हमारी शिक्षा व्यवस्था उसमें गले तक डूब गयी है।’
 
कुबेर का व्यंग्य संग्रह पढ़कर आप आश्वस्त हो सकते हैं कि भविष्य में वे और मार्मिक व्यंग्य लिखने की दिशा में अग्रसर होंगे।
000
त्रिभुवन पाण्डेय
सोरिद नगर धमतरी 

सोमवार, 21 सितंबर 2015

आलेख

Gajanan Madhav  Muktibodh
गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म: 13 नवंबर 1917,
श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
निधन : 11 सितंबर 1964, दिल्ली
........................................................................................
प्रमुख कृतियाँ:
कविता संग्रह : - चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल
कहानी संग्रह : - काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी
आलोचना : - कामायनी: एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी
इतिहास :-  भारत: इतिहास और संस्कृति
रचनावली :-  मुक्तिबोध रचनावली (सात खंडों में)
........................................................................................

मुक्तिबोध: ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरने वाला कवि


मुक्तिबोध को मैंने कितना पढ़ा? मुक्तिबोध को पढ़ना हिम्मत का काम है और उन्हें समझना सामथ्र्य का। मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए आपके पास संपूर्ण माक्र्सवाद के ज्ञानकोष का होना आवश्यक है, और मैं इसमें अपूर्ण हूँ। मैंने विपात्र, सतह से उठता आदमी, कामायनी: एक पुनर्विचार, भारत: इतिहास और संस्कृति तथा मुक्तिबोध रचनावली के प्रथम दो खण्डों को पढ़ने की हिम्मत जुटाई। मुक्तिबोध अपनी कविताओं को लिखते हुए जिन ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरते होंगे; मेरे जैसा सतही पाठक का उन ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरना कतई संभव नहीं है। और, उनकी यह ’अग्निक्रिया’ जिन द्वंद्वों की निष्पत्ति होगी उन द्वंद्वों की चक्रव्यूह में प्रवेश कर पाना भी मेरे लिए असंभव है। मेरी इस असंभवता को इस काव्यांश के जरिये समझा जा सकता है-
’किन्तु द्वंद्व स्थिति में स्थापित यह
मेरा वजनदार लोहा
उन भयंकर अग्निक्रियाओं में ढकेला जाकर
पिघलते हुए, दमकते हुए
तेज: पुंज गहन अनुभव का -
छोटा सा दोहा बनता है।’     (ओ, अप्रस्तुत श्रोता)
 
मुक्तिबोध के संबंध में मेरी समझ एक आम पाठक की समझा के स्तर से अधिक कदापि नहीं है और अपनी इसी सतही समझ के आधार पर मुझे लगता है मुक्तिबोध न बैठने वाला, न सोने वाला, न थकने वाला, सतत चलने वाला, सतत जागने वाला, विलक्षण निरीक्षण शक्ति वाले, आशावादी परंतु बेचैन, विलक्षण और संवेदनाओं से भरे हुए कवि हैं। उनकी संवेदनाएँ विलक्षण हैं। वे अपने वर्तमान से असंतुष्ट थे (जो कि आज भी यथावत है) क्योंकि यहाँ वे पाते हैं - मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर। बेखबर मस्जिदें। सूनी राहें। सर्द अंधेरा। उदास तारे। फिक्र और दर्द। अंधियारा पीपल। कुत्तों की आवाजें।
’सूनी है राह, अजीब है फैलाव
सर्द अंधेरा
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे
हर बार सोच और हर बार अफसोस
हर बार फिक्र के कारण बढ़े हुए दर्द का
मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अंधियारा पीपल देता है पहरा
हवाओं की निःसंग लहरों में कांपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज
कांपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फासले
बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर।’ (अंधेरे में)

और इन्हीं सबके बीच उन्हें कुछ बेहतरी की खोज थी। खोज वे बाहर नहीं भीतर करते हैं क्योंकि उनकी नजरों में बाहर कोई नहीं है। अपने इसी बेहतर की खोज में वे अंत में पुर्जे सुधारने वाला मेकेनिक भी बन जाते हैं।
मैं कनफटा हूँ, बैठा हूँ
सेब्रेलेट, डाज के नीचे में लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुर्जे सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ। (मैं तुम लोगों से दूर हूँ)
 
अपनी बेचैनी के साथ चलते हुए वे अपने विलक्षण अनुभवों से और अपनी गहन संवेदनओं से जो भी अर्जित करते, वे उसके लिए वजनदार लोहा के समान थे जिसे वे अपने ज्ञान की अग्निक्रियाओं के द्वारा अनुभव का - छोटा सा दोहा बना लेते थे। और अनुभव के इन्हीं दोहों से वे पुर्जे ठीक करने के लिए अपने औजार भी बनाते और दुनिया को बेतर बनाने की लड़ाई लड़ने के लिए अश्त्र-शस्त्र भी। मुक्तिबोध जिसकी भी तलाश कर लेते, उसे वे एक विशेषण से अलंकृत कर देते। जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है। तुम मेरे बंधु और मित्र हो। मंदिरों के ऊँचे शिखर वीरान है।  मस्जिद के गुंबद बेखबर हैं। राह सूनी है। अंधेरा सर्द है। तारे उदास हैं। पीपल अंधियारा है। कुत्तों की आवाजें भयावह हैं।  चांद का मुख टेढ़ा है। (मुक्तिबोध को पूरा और गोल चांद कभी क्यों नहीं दिखाई दिया?) धूल भूरी-भूरी खाक से बने हैं। (कहाँ से आते हैं उड़कर ये खाक?)
’वे राहों के पीपल अशांत
बेनाम मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर
प्राचीन बेखबर मस्जिद के गुंबद विशाल’  (सांझ और पुराना मैं)
 
मुक्तिबोध के लिए दुनिया के सारे लोग उनके अपने हैं। वे कहते हैं - तुम मेरे बंधु और मित्र हो। और इसीलिए, उनके शत्रु भी इन्हीं लोगों में से ही हैं।
’क्षमा करो, तुम मेरे बंधु और मित्र हो
इसीलिए सबसे अधिक दुःखदायी
भयानक शत्रु हो।’ (इसी बैलगाड़ी को)
 
बंधु और मित्रों में ही दुःखदायी और भयानक शत्रु को देखना अथवा दुःखदायी और भयानक शत्रुओं को भी  बंधु और मित्रों के रूप में देखना, यह एक अजीब निर्वैरता का भाव है। ठीक वैसा ही है यह भाव, जैसा कि महाभारतकार ने अपने अनुशासनपर्व में और धम्मपद में तथागत ने अपने शिष्यों से कहा है -
सुसुखं वत! जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो।
वेरिनेसि मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो।।173।।
(बैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम विहार करते हैं।)
 
मुक्तिबोध के अंदर निर्वैरता का यह भाव उनकी संवेदनाम्तक ज्ञान की ही परिणति हो सकता है। मुक्तिबोध के ’अंधेरे के बारे में, ब्रह्म राक्षस के बारे में, उसके टेढ़े मुख वाले चंद के बारे में और भेरी-भूरी खाक धूल के बारे में बहुत चर्चाएँ होती हैं परन्तु उन भयंकर अग्निक्रियाओं के बारे में भी चर्चा होनी चाहिए जिसमें वे स्वयं को ढकेला करते थे। उस निर्वैरता की भी चर्चा होनी चाहिए जिसके मूल में उनकी संवेदनात्मक ज्ञान का प्रकाशित उत्स है।
 
मुक्तिबोध न कभी निराश हुए न कभी हताश। वे आशावादी थे। क्योंकि उनके लिए ’जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है।
’जमाना बुरा नहीं केवल विलक्षण है
मनुष्य-सौजन्य कारण ही
चांद है, सूर्य है, लोग हैं व हम-तुम हैं।’ (गीत)
 
पर उनकी बेचैनी और उनकी व्याकुलता बड़ी प्रबल है। इसीलिए उनका साहित्य रक्त भरे महाकाव्य, के पन्नों की तरह खून और अंधेरों से भरे हुए हैं। लोग इन्हें अंधेरे का कवि कहते हैं। इन्हें रक्त से महाकाव्य के पन्ने लिखने वाला कवि किसी ने नहीं कहा। मैं जहाँ तक सोचता हूँ - मुक्तिबोध न अंधेरों के कवि हैं और न ही रक्त-विप्लव के कवि हैं, वे ’अग्निक्रियाओं’ से गुजरने वाले, ’अग्निक्रियाओं’ के आविष्कारक, अध्येयता और इन क्रियाओं को बेहतर बनाने के अनुसंधान के लिए निरंतर बेचैन रहने वाले कवि हैं।
 
हमारी परंपरा रही है, वर्तमान से कभी कोई संतुष्ट नहीं रहा। वर्तमान सबको डराता है। वर्तमान हमारी सच्चाई होती है। सच्चाई सबको कड़ुवी लगती है। वर्तमान अप्रिय लगता है। वर्तमान से पलायन करने की प्रवृत्ति बड़़ी पुरानी है। इसीलिए हमारे कवियों ने अपने काव्य के विषय पौराणिक मिथकों से लिये। इतिहास में मिथकों का सम्मिश्रण कर लेना और उसे एक कलात्मक कृति का रूप दे देना आपेक्षाकृत आसान है। भविष्य के लिए भी आदर्श रूपी मिथकों का निर्माण कर लेना आसान है। परन्तु वर्तमान हमें डराता है। इसीलिए वर्तमान कभी भी साहित्य के केन्द्र में नहीं रहा। मुक्तिबोध ने वर्तमान को साहित्य के केन्द्र में बिठाया। मुक्तिबोध ने भी इतिहास से अपने विषय लिये। परंतु इन विषयों को उन्होंने अपनी अग्निक्रिया की धम्मनभट्ठी में तपाकर देखा। तपकर जो कठोर फौलाद की शक्ल में ढल गये, उसे उन्होंने सहेज लिया, सहेजकर उसे दुनिया को बेहतर बनाने अश्त्र-शस्त्रों में ढाल लिया। मिथकों का फौलाद में ढलना संभव न था। ये भस्मीभूत होकर भूरी-भूरी खाक धूल में तब्दील होकर बिखर गये। अंधेरा, और अंधेरे में विचरने वाले ब्रह्मराक्षस रूपी शोषण, भूख, गरीबी, अन्याय और असमानता जैसे शास्वत सत्य उनके विचारों के ताप से पिघलकर स्पात की शक्ल में ढल गए और उसके साहित्य के अमर पात्र बन गये।
 
राम और कृष्ण इतिहास बन चुके हैं। युटोपिया की बातें करना साहित्यिक हल्कों में एक फैशन बन चुका है। मुक्तिबोध ने युटोपिया की बातें कभी नहीं की। वेे जानते थे, राम और कृष्ण अपने पुराने रूप में भविष्य में कभी लौट नहीं सकते। भविष्य में और भी राम और कृष्ण आयेंगे, पर वे पिछले से बेतर होंगे, पिछले से भव्य और अधिक सुंदर होंगे क्योंकि वर्तमान हमेशा ही अतीत से सुंदर और बेहतर होता है। मुक्तिबोध आजीवन इसी बेहतरी की तलाश करते रहे। 
 
ईश्वर, मृत्यु और पुनर्जन्म के विषय में बातें करना टाइम पास के लिए फल्ली खाने के सिवा और कुछ भी नहीं है। पिछले पांच हजार सालों से हम यह फल्ली खाते आ रहे हैं। मुक्तिबोध ने जीवन की बातें की। जीवन को सुंदर बनाने की बातें की। क्योंकि जीवन को सुंदर बनाये बिना मृत्यु कभी भी सुंदर और सुखद नहीं हो सकती। अपनी मृत्यु को सुदंर बनाने वाले कभी मरते नहीं हैं। मुझे नहीं लगता कि मुक्तिबोध मर चुके हैं। क्योंकि मरे हुए व्यक्ति की मैयत में शामिल तो हुआ जा सकता है परंतु उसका अनुशरण नहीं किया जा सकता। उसके आसपास, जिंदा लोगों की भीड़ हमेशा जुटी हुई नहीं हो सकती। आज जितनी भीड़ मुक्तिबोध के आसपास है, उतनी शायद और किसी के पास नहीं है। आज का हर साहित्यिक किसी न किसी प्रकार मुक्तिबोध का अनुशरण कर रहा होता है। क्योंकि मुक्तिबोध एक व्यक्ति नहीं, एक परंपरा हैं।
000
kuber

सोमवार, 14 सितंबर 2015

समीक्षा


अनुभव प्रकाशन गाजयाबाद द्वारा मेरी सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’
राष्ट्रीय पटल पर उभरते समीक्षक श्री यशवंत की ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पर समीक्षा

समीक्षा

माइक्रोकविता और दसवाँ रस

समीक्षक: यशवंत

माइक्रोकविता और दसवाँ रस अर्थात् भावनात्मक भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम


संघवाद ढाई हजार साल पुराना है। यह साम-दाम-दण्ड- भेद द्वारा संचालित हो रहा है; जिसमें थुथरो विजयी हुआ। हजारों ए. के. 47 के समक्ष थुथरो-संघ मिसाईल का काम करता है। मतलब बिल्ली की विष्ठा लीपने-पोतने के काम आ ही जाती है। स्थापित सुखर्रे-पंथियों ने कभी भी ’अमीरी हटाओ’ का नारा नहीं दिया; इसकी मशाल नहीं जगाई, नहीं जलाई। कुपंथी, जनपंथियों के मार्ग से गुजरकर राजपंथ तक पहुँच जाते हैं; जहाँ जानवरों की भयंकरता है। वे दूसरों पर हमला नहीं करते। मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है। संघसेवक आक्रमण करते हैं। देश से 1971 से गरीबी हटा रहे हैं; नहीं हटी। फिर सस्ता चाँवल का उपकार करके दांत निपोर दिए। जो दांत निपोरने की कला में माहिर होता वह सफलता के कदम चूमता है। बांकी सब ठेंगा चूमते हैं। हँसने-हँसाने की कला में जनता दक्ष है। आज नमो जप रहे हैं; हें हें हें ... कर रहे हैं।

दांत निपोरने की कला महानतम् है। मौलिक दांत बगैर साधना के पा सकते हैं। ये दांत आपको कल्पवृक्ष बना देंगे। परन्तु इसकी एक ही शर्त होगी - आपको कुतरना-काँटना आना चाहिए। यहाँ चूहे का कुतरना, कुत्ते का काँटना संदर्भित नहीं है, वरन् साँप का काँटने से संबंध प्रसंग है। बेचारे दांत रहकर खा नहीं सकते, खा भी लिए तो चबा नहीं सकते; दुर्भाग्य ही है। इसी कारण ये लोग दलबदल करते हैं। ईज्जत-बेईज्जत होते हैं। दांतों के कारण घट पर धार चलती है। अ-दांतों से घर के न घाट के हो जाते हैं। मतलब, संबंध दातों से मनुष्य का नहीं, कुत्तों से है। शायद दांत वालों ने ही लिखा - कुत्ते से सावधान। जनता दांत वाली हो जाय तो देशरक्षा की जा सकती है; बिना युद्ध के। गौतम की अहिंसा भी गौरवान्वित होगी।

’कामरेड का रिक्शावाला’ और ’यह अवैधानिक है’ को पढ़ते हुए कुमार प्रशांत की कविता याद आई - ’’बेचारे वामपंथी इस मेले में खो गए हैं। किताबी क्रांति इतनी अधूरी और भ्रष्ट में डालने वाली होती है और इसीलिए इतिहास गवाह है कि किताबों से क्रांति नहीं होती; क्रांतियाँ अपनी किताब आप लिखती हैं।’’1
’अभी मैं उन्हीं (ईश्वर) से मिलकर आ रहा हूँ, बिलकुल फिट हंै। यह देश उन्हीं के भरोसे चल रहा है।’ यह कथन ’समय के भविष्य’ का है। ’खाने-पीने के बाद यह तो हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। ये भगवान भरोसे नहीं है। ऊँट के देखे नहीं। एक करवट में बिठा दिया। एक अंग्रेजी कहावत है - ’चाय के प्याले और होठ के बीच कई फिसलने हांेती हैं।’ वामपंथ इसी प्रकार नाव खेता है, भारतीयों का। सामाजिक परिवर्तन मरने-मारने से होता है और आर्थिक विकास मोटाने से। छप्पन इंच का छाती मोटा-मोटाकर बोलता है।

धर्मनिरपेक्षता का कोई पहिया नहीं तो छद्मनिरपेक्षता कायम होगी ही। ’नैतिकता की तोंद’ को खाने में पूरी निष्ठा के साथ, ईमानदारी के संग भारत में भोग सकते हैं। मिठास-भाव गरीबी में मिलता है? मिलबाँटकर खाते हैं, मानवीय गुण जो है। पर  कुत्ते हैं कि समझते ही नहीं। कुत्तों की एक जात होती है।  आदमियों की अनेक जाति भारत में होने से वे कुत्ते हैं? कुत्ते स्वयं सेवक ही होते हैं। यह गुण  मनुष्यों में होना चाहिए। कड़ी से जुड़ने का गुण न हो तो जुड़ेंगे कैसे?

गुल्लक मजेदार होता है। हताशा कांे दूर करता ही है। कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी बड़ों में होती है, बच्चों में नहीं। भारतीय प्रजातांत्रिक पार्टियों के पास रोजगार का कोई भविष्य नहीं, पर आपके समय का भविष्य अवश्य है। फेंकन-डारन-सकेलन का भविष्य कैसा, जब वर्तमान ही नदारत हो। भूत तो रहा ही इनके हाथों, भूत की डरावनी शक्ल में ही सही।

कथनी-करनी का अंतर ’आजकल’ में अवश्य है। कदाचित नहीं। ’समय का भविष्य’ और ’भविष्य’ मिलाकर पढ़े तो व्यंग्य सटीक बैठता है, जिसमें अनिश्चितता है। ’पानी’ का शानी पानी-पानी होकर संबंधों को ’लोप’ करता हुआ कि समय नहीं है। अर्थ - समय नहीं। वर्तमान आदमी ही जब लोप है तो समय विलोपित होना नई बात कहाँ? विलोपित व्यक्ति को बचाकर मानव संसाधनों को कैसे लूटें? इसका ब्यौरा ’रिकार्ड चर्चा’ में बतौर भूमिका है। और आगे ... परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर के आधार पर, निराधार चल रही भारतीय योजनाओं पर संतुलित वर्णन पढ़ने को मिलेगा - ’मास्टर चोखेलाल भिड़ाऊ चांद पर’ में। विडबंना है, भारत की विदेश नीतियाँ और भारत के लिए विदेश नीतियाँ, इण्डिया विदेश नीतियाँ हैं। तब भारत कैसे विश्व गुरू? काहे का विश्व गुरू? आपकी स्थिरता बची रहेगी? नाट्य शैली में लिखा व्यंग्य इण्डिया वालों को तंग करेगा। पर भारत वालों के लिए व्यावहारिक क्रांति अवश्य देगा। भरती का चक्कर चपरासी द्वारा हो सकता है, अफसर द्वारा नहीं।

’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ साहित्यकारों के लिए उपादेय है। रचनाकर्म साधना नहीं, साधारण है; स्पष्ट करेगी। परंतु साधारण का साधारणीकरण ही काव्य होता है। यह विश्लेषण ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ में मिलेगा। इसे जानने के पहले हम कविता पर मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी याद कर लें - ’’कविता की एक बहुत प्रसिद्ध परिभाषा है - ’पोएट्री इज द बेस्ट वडर््स इन द बेस्ट आर्डर।’ अब इसमें जो वडर््स हैं उन्हें हम थोड़ी देर के लिए नागरिक मान लें। रचना और किताब के नागरिक शब्द ही होते हैं तो ’कविता सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम विधान है।’ जाहिर है, सर्वोत्तम शब्द कौन हैं, कौन नहीं, कवि ही तय करेगा।’’2 लगे हाथ रचना में प्रयुक्त शब्द और उसके अर्थ भी समझ लें क्योंकि ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ के लिए यह परम आवश्यक है।

’’अपनी बोली-बानी के साथ किसी आदमी का किसी रचना में उपस्थित होना एक तरह से अपनी पूरी दुनिया के साथ  उसमें उपस्थित होना है, क्यांेकि शब्द का अर्थ से, आर्थ का अनुभव से, अनुभव का जीवन के यथार्थ से, जीवन के यथार्थ का जीवन की परिस्थितियों से, जीवन की परिस्थितियों का सामाजिक स्थितियों से और सामाजिक स्थितियों का इतिहास की प्रक्रिया से गहरा संबंध होता है। अगर यह ठीक से न समझा जाय तो कोई रचनाकार न ठीक से लिख सकता है और न आलोचक उसे ठीक से समझ सकता है।’’3 इस हिसाब से कुबेर जी के व्यंग्य लेख का शीर्षक होना था - ’माइक्रोकविता और बारहवाँ रस’। परंतु कुबेर जी ’माइक्रोकविता और दसवाँ रस’ पेश करते हैं।

सूरदास के साथ ही वात्सल्य रस का निर्माण हो चुका था। ’’स्वरूप गोस्वामी ने भक्तिरस जैसे नए रस की बात की।’’4 पूर्वप्रचलित नौ रसों तथा उक्त दो को मिलाकर ग्यारह रस मान्य लगते हैं; तो माइक्रोकविता दसवाँ रस कैसे होगी? खैर ’माइक्रोकविता’ में दिलचस्प ’रस’ की बातें मिलती हैं। काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र दोनों के ज्ञान अनुशासन अलग हैं। पर वे अनुभव की जगह पर मिलकर एक होते हैं। इसे संस्कृत में रस कहते हैं। आचार्य वामन ने सर्वप्रथम सौन्दर्य शब्द का प्रयोग किया। ज्ञान-अनुभव ने कबीर की व्यंग्य कविता को दार्शनिक बनाया अतः लोगों की जबान पर पाँच सौ वर्षों से है। काव्य सौन्दर्य से उदात्तता का उदाहरण कुबेर जी ने दिया है -

समोसा और कचोरी में क्या अंतर होता है?
अपने अक्ल का घोड़ा दौड़ाइये
इस सवाल का जवाब बताइये
सहीं जवाब देकर
इनाम में यह चाॅकलेट पाइये।
0
अब चाॅकलेट कौन खायेगा रखे रहिए,
घर में अंकल के काम आयेगा
पर दोनों का सेंपल दिखाइये
सबके हाथों में एक-एक पकड़ाइये
अंतर तभी तो समझ में आयेगा।
000

ये हैं माइक्रोकविता की बानगी -
लेता
देता
नेता।
0
हल्दी
मेंहदी
चल दी
0
खिलाना
पिलाना
बनाना।

माइक्रोकविता का विशेष गुण है - इसके लिए सवैया, छप्पय जैसे किसी लंबे-चैड़े छंदों की आवश्यकता नहीं है। शार्टकट से इसकी निष्पत्ति होती है। राखी सावंत के कपड़ों से इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह चरमोत्कर्ष का वीर्यदान है।

माइक्रोकविता में रस निष्पत्ति का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है -
1. स्थायी भाव - माथापच्ची
2. विभाव
1. आलंबन विभाव - अनैतिकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, असत्य भाषण तथा इन मूल्यों को धारण करने वाले राजपुरूष, उनके कर्मचारी और व्यापारीगण, उत्तरधुनिकता के रंग में रंगी हुई युवापीढ़ी आदि।

2. उद्दीपन विभाव - ऊबड़-खाबड़ तुकांतों वाली, न्यूनवस्त्रधारित्री व अतिउदाŸा विचारों वाली आधुनिक रमणी के समान, पारंपरिक अलंकारों से विहीन छंद-विधान।

3. अनुभाव - इन कविताओं को पढ़ते वक्त ’माथा पीटना’, ’बाल नोचना’ तथा ’छाती पीटाना’, उबासी आना, जम्हाई आना, सुनते वक्त श्रोताओं द्वारा एक-दूसरे के कान में ऊँगली डालना, चेहरे का रंग उड़ना आदि।

4. संचारी भाव -  निर्लज्जता, बेहयाई, व्यभिचार-कर्म करके गर्व करना, चोरी और सीना जोरी आदि।

रस - बौखलाहट रस
’माइक्रोकविता’ कुबेर की दृष्टि में आचार्य शुक्ल की रस दशा से मेल भी खाती है, अर्थात् ’लोकबद्ध’ होती है। बौखलाहट को जो लोक हृदय में लीन कर दे तो सहृदय की जो दशा होगी, वह एक अलग प्रकार की ’रस दशा’ तो होगी ही।

’माइक्रोकविता’ का रसात्मक रस, रस-साहित्य के काव्यशास्त्र एवं सौन्दर्यशास्त्र की रसात्मक मीमांसा है। द्विजेत्तर द्वारा रचित ’बौखलाहट रस’ निर्माण होने से अन्यों नेे तत्काल आड़े हाथों नहीं लिया; नहीं तो ’बौखलाहट रस’ कब का साहित्य के मान्य रसों में शामिल हो जाता। शायद अद्विजेत्तरों द्वारा माथा पीटा जा रहा होगा कि काश! इसका इजाद हमने किया होता। खैर बकरे-मुर्गे कब तक खैर मनाते रहेंगे? एक दिन हलाल तो होना ही था। आमीन!

नेता, मंत्री, अधिकारी, व्यापारी की प्रतिष्ठा का कारण ’भ्रष्टाचार का अवलेह पाक’ नामक औषधि का सेवन है। जेब सेल्फ-हेल्प की चीज है। जेब न हो तो आपकी जान नहीं। इन लोगों के द्वारा धारित वस्त्रों में जेबों की अधिकता से लगता है, दिल और जेबें उभर आती हैं और ’माइक्र्रोकविता’ तथा ’बौखलाहट रस’ तैयार करती हैं।

’भेड़िया धसान’ लोग ईश्वर की बात करेंगे। जैसे कुछ साल पहले ’हिग्सबोसोन’ कण को ईश्वर मान लिया गया। (हिग्सबोसोन मूलतः बोस के रिसर्च की भारतीय देन है।) शिष्टचार नहीं होने पर व्यक्ति-आदमी विशिष्ट बनता है। ईश्वर को मानने वाले शिष्टाचार निभाते हैं, अतः वे भेड़िया धसान बनकर ही रहते हैं। ’बेरोजगारवाद का घोषण पत्र’ पढ़कर वामपंथी सहित सभी दलों को नाराजगी नहीं होगी क्योंकि भेड़िया धसानों की फैक्ट्री इन्हीं से चलती है।

राष्ट्रीयकरण होना वामपंथियों में उत्तम बात है। प्रजापंथ में भी उत्तम है। अधिकारियों, इंजिनियरों और चिकित्सकों की राष्ट्रीयता स्वयं चलती है। कोई आंदोलोन नहीं। ये कुर्सियाँ तोड़ते हैं; आरोप लगता है बेचारे राष्ट्रनिर्माताओं पर। कुबेर जी ने इसे गहरे दोैर-तोर से पेश किया है। तोता रटंत यथार्थ पर आधारित होकर तर्कसंगत बैठता है; पर घपले भावनात्मक करता है, करवाता है, जैसे आज नमो के शिकंजे में जनता जा रही है। (कल पिंजरे से निकल आये, अलग बात है।) यथार्थ छिप गया जैसा है। अर्थलोप होकर, अर्थोपकर्ष हो गया है। ’’भ्रष्ट लोग आते हैं, (धमाका) लालच देते हैं, भ्रष्टाचार का जाल फैलाते हैं, लालच में आकर भ्रष्टाचार के जाल में नहीं फँसना चाहिए।’’ भावनात्मक भ्रष्टाचार पर कोई चिंतन ही नहीं करता। करे कैसे? शिक्षा व्यवस्था गले तक सड़ चुकी है’ औरे रूदक्कड़ पैमानों में नप कर उदारता पूर्वक चहुँ ओर बदबू बिखेर रही है। रोने के नये-नये तरीकों का इजाद करना कला बन गई है। बिना खद-पानी, निराई-गुड़ाई बगीचे के पौधे रोते पाये जाते हैं। जो आसुरी शक्तियों के शिकार हो गये। कपि-भक्ति काम नहीं आई। इनके लिए संघर्ष-शक्ति उचित है। संवेदनाओं की समाधियाँ नहीं चाहिए। कर्माधियों की जरूरत है। ढोंगी परंपरा ढोने से नहीं, खोने से चलेगी’ इसी में भलाई है। पंच तत्व शरीर के पीछे छठवाँ तत्व लोप तत्व है। अधेरा, इसके ज्ञान बिना पंचतत्व शक्तिविहीन है।  छठवाँ तत्व नेताओं को मालूम पड़ जाय तो ’संतन को सीकरी से काहो काम?’ होगा? यह एक प्रश्न है। जिसे कुबेर जी ने व्यंग्य के माध्यम से उठाया है। देवभूमि और भोगभूमि के यथार्थ का अंतर भी दर्शाया है। ’नेता जे. बी. पी. की आत्मा’ खोजवादी व्यंग्य है कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। होती तो यम के दरबार में पेश की जाती। इसे पढ़कर ’भोलाराम का जीव’ याद कर सकते है। भारतीय आत्माएँ स्वीस बैंकों में कैद हो गई हैं। इसे मुक्त कर पाना न यमराज के वश में है और न ही ईश्वर के वश में। ब्रेकिंग न्यूज में ईश्वर के बहीखाते में मनुष्य की जाति और वर्ण का उल्लेख नहीं है। विलुप्त प्रजाति का भारतीय मानव अजायबघर में रखने लायक है। व्यंग्य संग्रह में ईश्वर और यमराज गशखाकर गिर पड़ते है। मरना तो इन्हें पड़ेगा ही। यह शास्वत है; जब तक ये जिंदा हैं, असमानता, भ्रष्टाचार, जमाखोरी के आलम चलते रहेंगे। चैन की सांस कोई नहीं ले पायेगा। विभिन्न विचारधाराओं को छोड़कर कुबेर जी को सादर धन्यवाद देता हूँ कि इन्होंने सारे शिष्टाचारों को ताक में रखकर अपना आचार तैयार किया है। सिद्ध किया है कि व्यंग्य बौखलाहट रस का आचार या मुरब्बा ही नहीं, संजीवनी बूटी और स्वस्थ होने का शिलाजीत भी है। किसी को खट्टा-मीठा, गुड़-गोबर, ताजातरी या बासी लगे, यह उनका, पाठक का वाद है। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह किताब दसवें रस की कतई नहीं है; बारहवें रस की है। सातवें आसमान में चढ़ावा करना ठीक नहीं है। कोई मान्यता दे या न दे, मैं तो ’बौखलाहट रस’ को मान्यता देता हूँ; और आप से निवेदन करता हूँ कि आप इसमें सहभागिता निभएँ। भाईचारा बढ़एँ, आपसी संबंध बनाएँ, ताकि अस्थापित बारहवाँ रस स्थापित हो सके। आमीन।
संदर्भ:-

1. वोट डालने से पहले, हरिभूमि, 16 अप्रेल 2014, पृ. 08.
2. लोकतंत्र के संकटों की पहचान, मैनेजर पाण्डेय, संबोधन, जनवरी-मार्च 2014, पृ. 27-28
3. वही, पृ 28
4. भारत में तुलनात्मक काव्यशास्त्रीय अध्ययन के विकल्प, अवधेश कुमार, आलोचना, अक्टूबर-दिसंबर 2013, पृ. 40.
000
यशवंत
शंकरपुर, वार्ड नं. 7, गली नं. 4
राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन 491441
000

रविवार, 13 सितंबर 2015

कविता

अथवा


न जाने आजकल क्यों
हो गया है टोटा
ऊँचाईयों का।

न गाँवों में दिखती है, न शहरों में
सब तरफ पड़ा है सूखा
ऊँचाईयों का।

क्या किसी ने इन्द्रजाल किया है;
या किया है सम्मोहित पूरी दुनिया को;
कि हो गई गायब नजरों से
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

क्या लोग अब इतने ऊँचे हो गये है;
कि जिसे देख -
सहमकर, शरमाकर हो गई हैं बौनी
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

आज की ऊँचाईयों को देखकर भी;
नहीं होता आभास ऊँचाईयों का अब;
इतनी महत्वहीन और मूल्यहीन हो गई हैं आज;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

आधुनिकता की दौड़ में आँखें मूंदकर दौड़ती
एकदम नयी और अतिआधुनिक हो गई हैं
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

बदलते हुए मूल्यों के इस जमाने में;
बदल गई है परिभाषा ऊँचाइयों की, या
बदलकर कुछ और हो गई हैं;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

अथवा

बिक गई होंगी बाजार के हाथों;
और सज गई होंगी शोरूमों में;
सारी ऊँचाइयाँ एकाएक?

पता नहीं
क्या हुआ, कैसे हुआ
पर कुछ तो जरूर हुआ है
सारी ऊँचाइयों को एकाएक।


यही तो रोमांच है, मेरे दोस्त!
मानव इतिहास के सर्वाधिक विश्मयकारी
इस इन्द्रजाल के तिलिस्म का।
000
kuber

बुधवार, 9 सितंबर 2015

व्यंग्य

 व्यंग्य

अभ्यास कविता


यदि आप कविता लिखते हैं या कविता लिखने में रूचि रखते हैं और आपको लगता हैं कि इस क्षेत्र में आपको वांक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है तो निराश मत होइये। इसके लिए कुछ एक्सरसाइज अर्थात अभ्यास की आवश्यकता है। अभ्यास के लिए हमने कुछ नये और चमत्कारिक विधियों की या तकनीक की खोज की है। जमाना नये-नये तकनीकों की है। इस नये तकनीक के साथ आइये कुछ एक्सरसाइज करें। नीचे दी गयी कविता को पढ़ें -

वह सोचता है कि वह सोच रहा था
वह सोचता है कि वह सोच रहा है
वह सोचता है कि वह सोचता रहेगा
वह सोचता है कि वह सोचता है

मैं सोचता हूँ
सोचने के इस युग में, कोई तो है
जिसे गुमान है कि वह सोचता है।
0

यह एक अभ्यास कविता है। अभ्यास को अंग्रेजी में एक्सरसाइज कहते हैं। अब आप समझ गये होंगे कि अभ्यास कविता का आविष्कार और विकास कविता कर्म की बारीकियों को सम्यक रूप से समझने के लिए किया गया है। दरअसल इस कविता के मूल प्रारूप में मोटे रेखांकित शब्दों (वह तथा सोच, जो क्रमशः कर्ता और क्रिया शब्द हैं।) की जगह खाली स्थान है।

अब अइये! इस प्रारूप के साथ कुछ एक्सरसाइज करें। आप इस प्रारूप में पहले खाली स्थान जहाँ अभी ’वह’ कर्ता विराजमान हैं, को यथावत रहने दें। दूसरे खाली स्थान में, जहाँ अभी ’सोच’ क्रिया विराजित है, की जगह कोई अन्य क्रिया बिठा दें, जैसे - ’देख’, तो एक अलग कविता तैयार हो जायेगी। यदि आपके पास सौ क्रियाएँ हैं तो समझ लीजिए, आपने सौ कविताएँ तैयार कर लीं।

आपके पास क्रियाओं की कोई कमी नहीं हैं। बहुत सारी क्रियाओं को दिन में आप कई-कई बार दुहराते होंगे। कहना, बोलना, सुनना, सूंघना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, दौड़ना-भागना, मारना-पीटना, लड़ना-झगड़ना, जलना, जलाना, खिलना, मुरझाना, हँसना, हँसाना, रोना, रुलाना, लूटना, ठगना, हड़पना आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। पर ठहरिये, आपकों अभी यहाँ पर रुकना नहीं है। अभी ’वह’ कर्ता का खाना, पीना, हजमना, सोना, जगना, मूतना और फिर अंत में शौचना जैसी अति महत्वपूर्ण क्रियाएँ बाकी हैं। इस तरह ’सोचने’ क्रिया से शुरू करके ’शौचने’ क्रिया तक ’वह’ कर्ता के साथ आप जितनी चाहें, कविता बना सकते हैं।

अलग-अलग क्रियाओं का प्रयोग करके ’वह’ कर्ता के साथ अब तक हमने कम से कम सौ कविताएँ तो तैयार कर ली है। अभ्यास के दूसरे चरण में अब आपका पैटर्न बदल जायेगा। अब आप पहले वाले खाली स्थान, जहाँ अभी ’वह’ कर्ता विराजित है, की जगह कोई अन्य कर्ता जैसे ’यह’ बिठा दीजिए। लीजिए सौ कविताएँ फिर तैयार हो गईं। कर्ताओं की क्या कमी है? यह, वह, के बाद तुम, हम, राम, श्याम, कृष्ण, कन्हैया, गोपाल, विशाल, फिर नेता, मंत्री, संत्री, कंत्री, यंत्री और फिर व्यापारी, अधिकारी, कर्मचारी, चपरासी, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, अत्याचारी को कर्ता की जगह पर एक-एक कर बिठाते जाइये और प्रत्येक कर्ता के साथ सौ-सौ कविताएँ तैयार कर लीजिए।

ध्यान रहे, प्रत्येक कर्ता के साथ कविता की शुरुआत ’सोचने’ क्रिया के साथ और अंत ’शौचने’ क्रिया के साथ ही होना चाहिए।

पिछली रात (एक ही रात में) मैंने इस अभ्यास कविता के साथ लगभग सात सौ कविताओं का एक संग्रह तैयार कर लिया। संग्रह को देख-देखकर बड़ा गर्व हुआ। मन-मयूर नाचने लगा, कहा - ’वाह! साला मैं तो कवि बन गया’।

सुबह होने पर मैंने देखा, कविताएँ तो हैं पर इनमें विचार कहीं नहीं है। विचारहीन इन कविताओं को मैं क्या कहूँ? कविता कहूँ?
000
kuber