शनिवार, 21 मई 2016

कविता


मिर्ज़ा ग़ालिब (1954)
संगीतकार - गुलाम मोहम्मद
कलाकार - भारत भूषण, सुरैया, मुराद, मुकरी, कुमकुम, लीला चिटनिस


1
ये न थी हमारी किस्मत, कि विसाल-ए-यार होता।
अगर और जीते रहते, यही इंतिजार होता।

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता।

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी ज़नाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।

कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीम कश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो ज़िग़र के पार होता।
000

 संपूर्ण ग़ज़ल

यह न थी हमारी किस्मत , कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तेजार होता

तिरे वा'दे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि खुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता

तिरी नाजुकी से जाना. कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूंछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

यह कहाँ कि दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा-साज होता, कोई गमगुसार होता

गम अगरचे: जाँ-गुसिल है, प कहाँ बचे, कि दिल है
गम-ए-इश्क गर न होता, गम-ए-रोजगार होता

कहूँ किससे मै कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुए मरके हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता

यह मसाइल-ए-तसव्वुफ, यह दीर ब्यान, ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बाद ख्वार होता
 


2
आ आ आ ........
नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल, उसको सुनाए न बने।
क्या बने बात जहाँ, बात बनाए न बने।

ग़ैर फिरता है लिये यूँ, तेरे ख़त को के अग़र,
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने।

मैं बुलाता तो हूँ उसको, मग़र ऐ ज़ज़्बा-ए-दिल,
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने।

इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाये न लगे, और बुझाए न बने।
000

3
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है।
आखिर इस दर्द की दवा क्या है।

हम है मुश्ताक और वो बेज़ार,
या इलाही ये माजरा क्या है।

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ,
काश पूछो कि मुद्दा क्या है।

हमको उनसे वफा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफा क्या है।

जान तुम पर निसार करता हूँ,
मैं नहीं जानता दवा क्या है।
000



फिल्म - संगदिल, 1952
कलाकार - मधुबाला, दिलीप कुमार, दारा सिंह, लीला चिटनिस
गीतकार - राजेन्द्र कृष्ण, संगीतकार - सज्जाद हुसैन

ये हवा, ये रात ये चांदनी, तेरी एक अदा पे निसार है।
मुझे क्यों ना हो तेरी आरजू, तेरी जुस्तजू में बहार है।

तुझे क्या ख़बर है ओ बेख़बर, तेरी एक नज़र में है क्या असर,
जो ग़ज़ब में आये तो क़हर है, जो हो मेहराबां तो क़रार है।

तेरी बात बात है दिलनशीं, कोई तुझ से बढ़ के नहीं हसीं
है कली-कली पे जो मस्तियाँ, तेरी आँख का ये खुमार है।

गुरुवार, 19 मई 2016

आलेख

लोक का बाजार


 लोक का बाजार:- लेन-देन एक सामाजिक आवश्यकता है। आदिम मानवसमाज ने अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वस्तुविनिमय की प्रणाली विकसित की होगी, क्योंकि तब मुद्रा का चलन नहीं रहा होगा। लेन-देन की प्रक्रिया व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक स्तर पर संपन्न कर ली जाती होगी, जैसा कि कई बार आज भी होता है। यह पूर्णरूप से मैत्री, विश्वास और सहयोग जैसी पवित्र मानवीय भावनाओं पर आधारित होती है। जल्द ही इस प्रणाली को अधिक व्यावहारिक और लेन-देन की प्रक्रिया को अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए लोग किसी नियत समय और नियत स्थान पर इकत्रित होना शुरू किये होंगे और लोकबाजार ने एक स्वरूप पाया होगा। बाजार का यह रूप गाँवों में आज भी अस्तित्व में है, परंतु वस्तुविनिमय के द्वारा लेन-देन की प्रक्रिया का स्थान अब पूरी तरह मुद्रा ने ले लिया है। लोक का यह बाजार लोक की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रहा होगा और लोक के नियंत्रण में रहा होगा तथा इसका स्वरूप भी लोककल्याणकारी रहा होगा। गाँवों में गाँव द्वारा नियुक्त लोकसेवकों (पौनी-पसेरी) यथा - बरदिहा, बैगा, नाई, कोटवार आदि को मजदूरी के रूप में आज भी अनाज दिया जाता है, इसी शर्त पर इनकी नियुक्तियाँ होती हैं। अब से ढाई-तीन दशक पहले तक गाँवों में मजदूरों को मजदूरी के रूप में अनाज ही दिया जाता था। मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है, तब खेतिहर मजदूरों की हालत अब की तुलना में बेहतर हुआ करती थी। हारी-बीमारी और ठेलहा (बेरोजगारी) के दिनों के लिए वे मजदूरी के रूप में प्राप्त अनाज की पर्याप्त मात्रा संग्रह करके रख पाते थे। यह उनकी आर्थिक सुरक्षा का दृढ़ आधार होता था। आज मजदूरी के रूप में मुद्र पानेवाले मजदूरों के पास भविष्य के लिए किसी तरह की संचित निधियाँ नहीं होती; कारण चाहे जो भी हो - अपर्याप्त मजदूरी अथवा मजदूरों की आवश्यकताओं का विस्तार।
समाज में धनलोलुपों की कमी नहीं होती। स्वभावतः ये चतुर, धूर्त और छली होते हैं। इन्होंने बाजार को अपनी आजीविका का साधन बनाया होगा। बाजार को इन्होंने कल्पवृक्ष के रूप में पाया होगा जो न केवल धन रूपी फलों की वर्षा करनेवाली है अपितु मात्र चाहने भर से दुनिया के सारे सुख और वैभव प्रस्तुत कर देने वाली है। इस तरह दुनिया में नये शक्तिशाली शोषक वर्ग का उदय हुआ। वर्तमान में पूरी दुनिया के ऐसे ही सौ से भी कम लोगों का एक समूह है। इनकी शक्ति की कल्पना कीजिए कि दुनिया की सत्तर प्रतिशत पूंजी इन्हीं के कब्जे में है। ये ’ग्रुप आफ इल्युमिनाटी’ के रूप में जाने जाते हैं। कहने को तो दुनिया में सैकड़ों देश हैं परन्तु इनके लिए पूरी दुनिया न सिर्फ एक गाँव है, एक बाजार है बल्कि एक देश है, एक साम्राज्य है और इस साम्राज्य के ये बेताज बादशाह हैं।
लोकबाजार का प्रांभिक रूप सुदूर वनांचलों में आज भी देखा जा सकता है, और देखा जा सकता है - यहाँ पर वन में निवास करने वाले अबोध, सहज, सरल हृदयवाले लोक को धनलोलुपों के द्वारा शोषित होते। धनलोलुपों का, दुनिया रूपी बाजार का बेताज बादशाह बनने की प्रक्रिया को यहाँ स्पष्टता के साथ देखा और समझा जा सकता है। अबोध वनवासियों का जीवन मुख्यतः आज भी वनोपजों पर आधारित है। गुड़, चाय और नमक जैसी वस्तुएँ वनों से प्राप्त नहीं होती। इनके लिए ये बाजार पर आश्रित होते हैं और इन्हें ये अपने बहुमूल्य चिरौंजी, महुआ और इमली से वस्तुविनिमय द्वारा प्राप्त करते हैं।
बाजार में लोक:- लोकबाजार आज लगभग पूरी तरह वैश्विक बाजार में परिवर्तित हो चुका है। बाजार का नियंत्रण अब लोक के हाथों से निकलकर पूरी तरह ’इल्युमिनाटियों’ के हाथों में आ चुका है। बाजार का लोककल्याणकारी रूप अब पूरी तरह नष्ट हो चुका है। बाजार अब लोक के शोषण का केन्द्र बन चुका है। आज के बाजार में लोक की हैसियत कुछ भी नहीं है। दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली चीज पूंजी आज बाजार के हाथों में है। बाजार के पास आज विज्ञान है, तकनीक है और दुनिया के सर्वाधिक शातिर दिमागों की फौज है जिसने लोक को आज पूरी तरह से देह रूपी जीन्स में (उत्पाद के रूप में) परिवर्तित कर दिया है - एक ऐसा जीन्स, जिसे खरीदा जा सकता है, बेचा जा सकता है और जिसे मनमाफिक भोगा जा सकता है।
इतना सब कुछ एकाएक नहीं हुआ है परन्तु जिस तेजी से हुआ है वह निसंदेह आश्चर्यजनक है। सजीव, विवेकशील, बुद्धिमान और विचारवान मनुष्य एक उपभोक्ता वस्तु में रूपान्तरित हो जाये और उसे पता भी न चले, यह तो एक करिश्मा है और इसे कर दिखाया है आज बाजार ने। मनुष्य को सम्मोहित किये बिना ऐसा करिश्मा संभव नहीं है। बाजार ने सबसे पहले लोक के उत्पादन के साधनों को हथियाया और फिर उसने लोक की परंपराओं और रीतिरिवाजों को अपने लाभ के अनुरूप बनाया। बाजार आज न सिर्फ हमारे दरवाजे पर पहुँच चुका है अपितु इसका प्रवेश अब हमारी रसोई और हमारे शयनकक्ष तक हो चुका है। अब यह हमारे पारिवारिक संबंधों को भी परिभाषित और नियंत्रित करने लगा है। आजकल टी. वी. चैनलों पर प्रसारित हो रहे एक विज्ञापन से इसे समझा जा सकता है जो इस प्रकार है -
’’युवा पति-पत्नी के अलावा घर में और कोई नहीं है, फिर भी दोनों अकेले हैं। पति अपने किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण के साथ व्यस्त और मस्त है। पति के साहचर्य और प्रेम की आस लिए पत्नी अकेली टी. वी. के सामने सोफे पर बैठी हुई है। तभी पति चुपके से परन्तु सावधानीपूर्वक आकर पत्नी की बगल में बैठ जाता है। पति को पाकर पत्नी के मन में शायद अंतरंग क्षणों की उम्मीदें जागने लगती है परन्तु यह केवल उनका भ्रम साबित होता है क्योंकि पति वहाँ पर दरसल पत्नी के लिए नहीं अपितु टी. वी. के रिमोटकंटोल के लिए आया था। पति को न तो पत्नी की परवाह है और न हीं उस पर कोई रूचि ही है। तभी दरवाजे पर दस्तक होती है। निराश पत्नी उठती है और मोमबत्ती को बुझाकर बेडरूम में चली जाती है। पत्नी द्वारा मोमबत्ती को बुझाना किस बात का प्रतीक है? क्या कोई इलेक्ट्रानिक उपकरण  पत्नी से अधिक सुंदर और अधिक उपयोगी हो सकता है?’’
बाजार द्वारा लोक के आर्थिक उत्पादन के साधनों को, उनके पारंपरिक व्यवसायों - गृह और कुटीर उद्योगों को, पहले ही नष्ट किया जा चुका है। उनकी निगाहें अब कृषि पर टिकी हुई हैं। कुछ साल पहले की बात है। गाँव के पानठेले पर एक दिन कुछ पढ़े-लिखे युवक चर्चा कर रहे थे। एक युवक कह रहा था - ’’कंपनीवाले आजकल किसानों के लिए अच्छी-अच्छी योजनाएँ लेकर आ रहे हैं। एक बड़ी कंपनीवाले का कहना है कि गाँव के सारे किसान अपनी जमीनें 40 साल के लिए पट्टे पर हमें दे दें। पट्टे के लिए तय राशि प्रतिवर्ष किसानों के खाते में जमा कर दी जायेगी। 40 साल के बाद कंपनी किसानों को उनकी जमीनें वापिस कर देगी।’’ उस युवक के अनुसार गाँव के सारे किसानों को कंपनी की इस योजना को स्वीकार कर लेना चाहिए। मैंने उस युवक से कुछ सवाल पूछे जो इस प्रकार हैं -
1. कंपनी की ईमानदारी पर कोई शंका न करते हुए मान लेते हैं कि 40 साल तक वह नियमित रूप से तयशुदा राशि का भुगतान करती रहेगी। यह भी मान लेते हैं कि 40 साल बाद हमारी जमीनें हमें वापिस मिल जायेंगी। तब क्या वह जमीन इतनी ही उपजाऊ और खेती करने लायक रहेंगी? ये उद्योगपति हैं। इनका उद्देश्य अन्न पैदा करना नहीं बल्कि धन कमाना है। अधिक धन-लाभ के लिए ये जल और जमीन का निर्ममतापूर्वक दोहन करेंगे।
2. 40 साल बाद जमीनें वापिस लेने के लिए क्या हम लोग जीवित बचे रहेंगे? अगर बचे भी रहे तो आगे खेती करने के लिए न तो हमारे पास बीज होंगे, न कृषि उपकरण और न ही हमारे पास खेती करने की क्षमता-दक्षता और जानकारी ही बची रहेगी और न ही खेतों के प्रति हमारी आस्था और लगाव।
3. 40 साल की इस अवधि में हम अपनी आजीविका के लिए कौन-सा काम करेंगे? हमें तो खेती के अलावा कुछ आता भी नहीं?
4. हमारे बच्चे हमारे साथ खेतों में काम करके खेती के काम को और कृषिसंस्कृति को स्वभावतः सीखते हैं। 40 साल की अवधि में हमारे बच्चे खेती के तौर तरीकों से और कृषिसंस्कृति से पूर्णतः वंचित हो जायेंगे। हमारे गाँव की, और हमारी यह संस्कृति एक ही झटके में मिट जायेगी। हम और हमारे बच्चे पूर्णतः दिहाड़ी मजदूर बनकर रह जायेंगे। पूर्णतः संभव है कि मजदूरी की तलाश में हम अपने परिवार के साथ इस गाँव से पलायन कर जायेंगे। अपनी जड़ों से कट जायेंगे।
5. कंपनीवाले अपने साथ अपने कर्मचारी लेकर आयेंगे। ये विभिन्न प्रांतों के होंगे। इससे गाँव का वातावरण पूरी तरह से बदल जायेगा। इस बदलाव में सब कुछ अच्छा ही होगा, ऐसा संभव नहीं लगता।
गनीमत है, अब तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। पर इस घटना से आज के युवाओं की मानसिकता को समझा जा सकता है। ये अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी पारंपरिक खेती आज या तो घाटे का काम है अथवा कठोर श्रम के बाद भी इससे इतना भी लाभ नहीं होता जिससे किसान अपने पारिवारिक दायित्वों को निभा सके।
मानसून की दया पर आश्रित किसान लाभ के बारे में सोंचे भी तो कैसे? कृषि को लाभदायक बनाने के लिए पहली आवश्यकता सिंचाई-संसाधनों की है और ये हमारे पास पर्यात मात्रा में नहीं हैं। जो हैं, वे कारखानों, नगरों, और श्हरों की प्यास बुझाने के लिए आरक्षित कर लिये जाते हैं। यदि किसानों को मानसून की निभर्रता से मुक्ति मिल जाये तो कृषि के नये तकनीकों को अपनाने में उन्हें भला परहेज क्यों होगा; तब कृषक परिवारों से जुड़े शिक्षित बेरोजगार भी कृषि की ओर आकर्षित होंगे ही। परन्तु आजादी के बाद सिंचाई-संसाधन उपलब्ध कराने के तमाम सरकारी प्रयास धोखा ही साबित हुए हैं।
अनेक अवसरों पर महसूस होता है कि सरकार को किसानों की की तुलना में बाजार की चिंता अधिक होती है। शायद बाजार को यह मंजूर नहीं है। बाजार की मंशा शायद यही है कि किसानों के लिए कृषि कभी भी लाभदायक न हो और वे मजबूर होकर अपनी जमीनें उनके हवाले कर दे। देश भर में कर्ज के बोझ से दबे किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार आत्महत्या करनेवाले इन किसानों का उपहास उड़ती है और मुआवजे के नाम पर कुछ धन बतौर भीख इनके परिवारवालों के सामने फेंक आती है। इस समाचार को पढ़कर आप भी मेरी बातों से इन्कार नहीं कर सकेगे -
(नई दुनिया, रायपुर, दिनांक 02 दिसंबर 2015 पृष्ठ 05 में ’’आत्महत्या करने वाले अधिकांश किसान सरकार की नजर में शराबी व झगड़ालू’’ शीर्षक से खबर छपी है। और यहीं पर बाक्स में 12 सितंबर 2015 से 28 नवंबर 2015 के बीच छत्तीसगढ़ में आत्महत्या करने वाले 10 किसानों की सूची भी दिया गया है जो इस प्रकार है -)
1. 12 सितंबर 2015: छुरिया बलाक (जिला - राजनांदगांव) के बादराटोला में किसान उदेराम चंद्रवंशी ने घर में फांसी लगा ली थी।
2. 30 अक्टूबर 2015: छुरिया बलाक (जिला - राजनांदगांव) के किरगाहाटोला में किसान ईश्वर लाल ने अपने खेत में ही फांसी लगा ली थी।
3. 30 अक्टूबर 2015: बालोद के दर्री ग्राम निवासी  किसान रेखू राम साहू ने रात में खुदकुशी कर ली।
4. 15 नवंबर 2015: डोंगरगांव बलाक (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम संबंलपुर में किसान हिम्मत लाल साहू ने फांसी लगा ली थी।
5. 16 नवंबर 2015: धमतरी जालमपुर निवासी जुगेश्वर साहू (45 वर्ष) ने कीटनाशक पी लिया।
6. 17 नवंबर 2015: गुरूर ब्लाक के गांव घोघोपुरी के  57 साल के हरबन उर्फ हरधर नायक ने भी कीटनाशक पीकर जान दे दी।
7. 18 नवंबर 2015: डोंगरगढ़ (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम ग्राम पंचायत पीटेपानी के आश्रित ग्राम बांसपहाड़ के किसान पूनम उइके ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी।
8. 27 नवंबर 2015: धमतरी जिले के खपरी निवासी किसान राधेश्याम साहू ने जहर सेवन कर आत्महत्या की।
9. 27 नवंबर 2015: डोंगरगांव बलाक (जिला - राजनांदगांव) के ग्राम संबंलपुर के किसान रामखिलावन साहू ने फांसी लगा ली।
10.  28 नवंबर 2015: बालोद जिला के गुंडरदेही विकासखंड अंतर्गगत ग्राम भांठागांव के किसान डोमेश्वर ने की आत्महत्या।
11. और अब आज समाचार छपा है कि 01 दिसंबर 2015 को बालोद जिला के ग्राम भोयनापार लाटाबोड़ निवासी किसान व्यास नारायण टंडन (50 साल) की आत्महत्या से मृत्यु हुई है। व्यास नारायण टंडन ने 24 नवंबर 2015 को जहर सेवनकर आत्महत्या का प्रयास किया था जिसका घमतरी के एक अस्पताल में उपचार चल रहा था।
(आज की स्थ्तिि में शायद यह आँकड़ा लगभग डेढ़ दर्जन की संख्या को छू चुका होगा। छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव, बालोद और धमतरी मात्र तीन जिलों में ही लगभग एक दर्जन किसान आत्महत्या कर चुके हैं, परन्तु न तो यह राष्ट्रीय स्तर का समाचार बन पाया है और न ही राष्ट्रीय चैनल्स इन समाचारों को प्रसारण योग्य ही समझती हैं। किसानों, मजदूरों और आदिवासियों की राष्ट्रीय उपेक्षा का इससे अच्छा उदाहरण और कहाँ मिलेगा?)
इल्युमिनाटी 
(आज के बाजार का संवेदनहीन और क्रूरतम रूप)
आलेख के बीच में ग्रुप आफ इल्युमिनाती का जिक्र किया गया है। वर्तमान संदर्भ में इसे बाजार की अदृश्य परन्तु सर्वशक्तिमान, संवेदनहीन और क्रूरतम रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इस संबंध में इंटरनेट से प्राप्त कुछ जानकारी इस प्रकार है -
इल्युमिनटी या इलूमिनाती एक ऐसा नाम (समूह) है जो कई समूहों - ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों तथा वास्तविक और काल्पनिक दोनों को संदर्भित करता है। ऐतिहासिक तौर पर, यह विशेष रूप से बवारियन इलूमिनाती को संदर्भित करता हैं, जिसकी स्थापना इंगोलस्ताद (बवारिया) में, 1 मई 1776 को ऐडम वाइसहाउप्त (।कंउ ॅमपेींनचज, 1748 . 1830) द्वारा की गई थी। ऐडम वाइसहाउप्त इंगोलस्ताद विश्वविद्यालय में कलीसाई कानून के पहले साझे प्रोफेसर थे। यह एक प्रबुद्धता-युग गुप्त समिति थी जिसका उद्देश्य था राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना तथा एक नई विश्व व्यवस्था की स्थापना करना। ( पद वतकमत जव हंपद चवसपजपबंस चवूमत ंदक पदसिनमदबम ंदक जव मेजंइसपेी ं दमू ूवतसक वतकमत)
उस समय के लेखकों, जैसे - सेठ पेसन, का मानना था कि, आंदोलन यूरोपीय राज्यों की सरकारों को घुसपैठ और उखाड़ फेंकने की साजिश दर्शाता था। कुछ लेखकों, जैसे ऑगस्टिन बारुएल और जॉन रॉबिंसन, ने यहां तक दावा किया कि इलूमिनाती फ्रांसीसी क्रांति के पीछे थे।
इस समूह के अनुयायियों को ’इलूमिनाती’ नाम दिया गया, हालांकि वे खुद को ’पर्फेक्टेबिलिस्ट्स’ बुलाते थे। समूह को इलूमिनाती ऑर्डर और बवारियन इलूमिनाती भी कहा गया है और स्वयं आन्दोलन को इलूमिनाटिज्म (इलूमिनिज्म के बाद) के नाम से निर्दिष्ट किया गया है। 1777 में, कार्ल थियोडोर बवारिया का शासक बन गया। वह प्रबुद्ध तानाशाही का समर्थक था और 1784 में उसकी सरकार ने इलूमिनाती सहित सभी गुप्त समाजों पर प्रतिबंध लगा दिया।
 
आधुनिक समय में यह एक कथित षड़यंत्रपूर्ण संगठन के संदर्भ में उल्लिखित किया जाता है, जो ’सिंहासन के पीछे एक अस्पष्ट शक्ति’ के रूप में कार्य करता है, यह समूह कथित रूप से वर्तमान सरकारों और निगमों के माध्यम से दुनिया के मामलों को नियंत्रित करता है तथा आमतौर पर स्वयं को बवारियन इलूमिनाती के एक आधुनिक अवतार के रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकरण में, इलूमिनाती अक्सर एक नई विश्व व्यवस्था के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। कई साजिश सिद्धांतकारों का मानना है कि इलूमिनाती उन घटनाओं के पीछे के योजना बनाने वाले व्यक्ति हैं जो नई विश्व व्यवस्था की स्थापना को बढ़ावा देंगे.

आधुनिक इलूमिनाटी
लेखक - जैसे मार्क डाइस, डेविड इके, रयान बर्क, जूरी लीना और मोर्गन ग्रीसर, का कहना है कि बवारियन इलूमिनाती संभवतः इस दिन तक जीवित है। इनमें से कई सिद्धांत प्रस्तावित करते हैं कि दुनिया की तमाम बड़ी घटनाएं खुद को इलूमिनाती कहने वाली एक गुप्त समिति के द्वारा नियंत्रित और धूर्तता पूर्वक प्रबंधित की जा रही हैं। साजिश सिद्धांतकारों ने दावा किया है कि विंस्टन चर्चिल, बुश परिवार, रॉथ्सचाइल्ड परिवार, डेविड रॉकफेलर और ज्बिगनियेफ ब्रेजिंस्की सहित कई प्रमुख लोग इलूमिनाती के सदस्य थे या हैं। ये सभी विश्व के प्रमुख पूंजीपति तथा सर्वाधिक धनी व्यक्ति हैं। आज कई अस्पष्ट और गुप्त संगठन के अलावा, कई आधुनिक भ्रांत्रिक समूह बवारियन इलूमिनाती के ’वारिस’ होने का दावा करते हैं।

बाजार: सर्वशक्तिमान
इल्युमिनाती के रूप में बाजार आज दुनिया का बेताज बादशाह बन चुका है। इनकी शक्तियों को चुनौती देने की क्षमता आज किसी के पास नहीं है। दुनिया की महाशक्तियाँ स्वयं इन्हीं से निर्देशित और शासित होती हैं। एक बहुप्रचलित उक्ति है कि - ’’अमेरिका का राष्ट्रपति वहाँ के बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सी. ई. ओ. होता है।’’ आज दुनिया का हर राष्ट्राध्यक्ष बाजार द्वारा उपलब्ध धन की बदौलत चुनाव जीतकर सत्ता तक पहुँचता है, बाजार के विरुद्ध भला वे कैसे जा सकते हैं? बाजार के सामनेे सरकारें और प्रजातंत्र का चैथा स्तंभ किस हद तक विवश हैं इसका अंदाजा इस खबर को पढ़कर लगाया जा सकता है। यह समाचार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि शायद इस अखबार के अलावा और किसी अखबार में अथवा टी. वी. चैनल में प्रकाशित-प्रसारित नहीं हुआ है और वह भी केवल एक दिन -
’’दैनिक नई दुनिया 02 नवंबर 2015
रघुनाथ साहू, भटगांव। ग्राम पंचायत सलौनीकला क्षेत्र में स्थित गोंड आदिवासियों की बस्ती शबरीयाडेरा में सोमवार को देसी व अंग्रेजी शराब ठेकेदार मनोज कुमार सिंह के लठैतों ने आबकारी व पुलिस के साथ मिलकर अवैध शराब पकड़ने के नाम पर जमकर कोहराम मचाया।
आरोप है कि लठैतों ने शराब की जांच के नाम पर आदिवासियों के घरों में घुसकर तोड़फोड़ व लूटपाट की और जाते-जाते दो युवकों को अपने वाहनों से कुचल दिया। एक युवक की मौके पर ही मौत हो गई जबकि गंभीर रूप से घायल एक अन्य आदिवासी युवक को बिलाईगढ़ के अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
आदिवासियों ने शराब ठेकेदार के लठैतों, पुलिस व आबकारी विभाग के कर्मियों पर हत्या, लूटपाट और मारपीट का आरोप लगाया है जबकि पुलिस व आबकारी विभाग का कहना है कि युवकों को जानबूझकर वाहनों से नहीं कुचला गया, जो हुआ वह महज हादसा था। मामले में काफी हुज्जत के बाद पुलिस ने अज्ञात वाहन चालक के विरूद्ध भादवि की धारा 147, 148, 323, 452, 304 (क) के तहत मामला दर्ज किया है लेकिन फिलहाल किसी की गिरफ्तारी नहीं की गई है।
सलौनीकला इलाके में राधास्वामी सत्संग व्यास स्थल गदहाभाटा के पास गोंड आदिवासियों की बसाहट है जिसे शबरीयाडेरा कहा जाता है। सोमवार दोपहर कसडोल के आबकारी सब इंस्पेक्टर रविशंकर साय व प्रशांत खांडे के साथ आबकारी आरक्षक फागूराम टंडन, संतराम मिंज व पुलिस के आरक्षक रूपेश चंद्रवंशी, भारत भूषण बनर्जी के साथ भटगांव शराब दुकान के मैनेजर शर्मा और उनके साथ भटगांव तथा कसडोल इलाके से आए शराब ठेकेदार के साठ सत्तर लठैतों ने शबरीयाडेरा में धावा बोला।
ये सभी यहां आदिवासियों के घरों में कच्ची शराब की जांच करने पहुंचे थे। आदिवासियों ने बताया कि ये लोग सात गाड़ियों में सवार होकर पहुंचे थे और आते ही लोगों के घरों में घुस-घुसकर तलाशी लेना शुरू कर दिया। जिन घरों में ताले लगे थे उनमें ताला तोड़कर तलाशी ली गई।
घरों में जो भी मिला उससे बेरहमी से मारपीट की गई। लठैतों ने घरों में रखे ड्रमों, घड़ों को फोड़ दिया। आरोप लगाया गया है कि उन्होंने घरों में मौजूद नगदी और सोने चांदी के जेवरों को लूट लिया तथा विरोध करने पर जान से मारने की धमकी दी।
मंगलवार को जब नईदुनिया की टीम मौके पर पहुंची तो गांव में दहशत का माहौल था। शराब ठेकेदार के लठैतों का कहर झेलने वाले पंडाराम, रामाधार, मनीराम, लालजी, कृष्णा, गुड्डू, राजेंद्र, कमला बाई आदि ने बताया कि लठैतों ने गांव के हर घर में तलाशी ली और लोगों से मारपीट व लूटपाट की हालांकि किसी भी घर में शराब नहीं मिली। सात गाड़ियों में आबकारी पुलिस, थाना पुलिस के साथ शराब ठेकेदार गुंडे छापा मारने पहुंचे थे। ग्रामीणों ने बताया कि जाते वक्त उन्होंने अपने घर में सो रहे मिथुन गोंड को जबरन गाड़ी में बिठा लिया और लेकर जाने लगे।
गांव से कुछ दूर जाने के बाद गदहाभाटा मार्ग पर मिथुन गाड़ी से कूद गया या शायद उसे धक्का दिया गया। नीचे गिरने के बाद वह मदद के लिए गांव वालों को पुकारने लगा। तभी गाड़ी वापस मुड़ी और मिथुन को रौंदती हुई निकल गई। इस संबंध में मनोज प्रजापति, इंचार्ज, भटगांव पुलिस चैकी का कहना है कि शराब ठेकेदार के लठैत अगर पुलिस व आबकारी की टीम के साथ गए थे तो यह गलत है।
किस ड्रायवर ने दुर्घटना की है यह पता लगाने की कोशिश की जा रही है। वहीं सहदेव सिंह सिदार, अध्यक्ष आदिवासी समाज ने कहा शराब भठ्ठी के कोचियों व लठैतों पर शिकायत के बाद भी कार्रवाई नहीं होती जबकि गरीब आदिवासी अगर शादी व अन्य आयोजनों के लिए भी शराब बनाते हैं तो उनपर इस तरह की कार्रवाई की जाती है। मिथुन के हत्यारों पर कार्रवाई नहीं की गई तो समाज उग्र आंदोलन को बाध्य होगा।’’
लोग आज पुलिस और कानून से अधिक शराब माफियाओं के लठैतों से डरते हैं। इल्युमिनती के ये स्थानीय चेहरे हैं। इल्युमिनाती आज इतने ताकतवर हैं कि उनके हितों को नुकसान पहुँचाने की बात तो कोई भी सरकार हो, सोच ही नहीं सकती। इनकी उपेक्षा करने वाली सरकार सत्ता में रह नहीं सकती। इनका विरोध करने वाला राष्ट्राध्यक्ष रहस्यमय तरीके से मार दिया जाता है। लोगों का मानना है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जाॅन एफ. केनेडी की हत्या में इल्युमिनाटियों का ही हाथ है। हत्या के सात दिन पहले उन्होंने क्या कहा था, पढ़िए -

बाजार पर इल्युमिनाटियों का ही कब्जा है और इनको अलग करके नहीं देखा जा सकता। इनका एक ही उद्देश्य है - अकूत धन अर्जित करना और इसके बल पर दुनिया को शासित करना। युद्ध में प्रयुक्त होने वाले सामग्रियों का व्यवसाय ही सर्वाधिक धन पैदा करनेवाला व्यवसाय है। इनकी खपत होती रहे इसके लिए जरूरी है - दुनिया युद्ध, आतंक और हिंसा से कभी मुक्त न हो।   ऽऽऽ

शनिवार, 14 मई 2016

चित्र कथा

1. बियारा: छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति का यथार्थ. भांड़ी और राचर से संरक्षित।
2. राचर