शनिवार, 21 मई 2016

कविता


मिर्ज़ा ग़ालिब (1954)
संगीतकार - गुलाम मोहम्मद
कलाकार - भारत भूषण, सुरैया, मुराद, मुकरी, कुमकुम, लीला चिटनिस


1
ये न थी हमारी किस्मत, कि विसाल-ए-यार होता।
अगर और जीते रहते, यही इंतिजार होता।

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता।

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी ज़नाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।

कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीम कश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो ज़िग़र के पार होता।
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 संपूर्ण ग़ज़ल

यह न थी हमारी किस्मत , कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तेजार होता

तिरे वा'दे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि खुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता

तिरी नाजुकी से जाना. कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूंछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

यह कहाँ कि दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा-साज होता, कोई गमगुसार होता

गम अगरचे: जाँ-गुसिल है, प कहाँ बचे, कि दिल है
गम-ए-इश्क गर न होता, गम-ए-रोजगार होता

कहूँ किससे मै कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुए मरके हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता

यह मसाइल-ए-तसव्वुफ, यह दीर ब्यान, ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बाद ख्वार होता
 


2
आ आ आ ........
नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल, उसको सुनाए न बने।
क्या बने बात जहाँ, बात बनाए न बने।

ग़ैर फिरता है लिये यूँ, तेरे ख़त को के अग़र,
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने।

मैं बुलाता तो हूँ उसको, मग़र ऐ ज़ज़्बा-ए-दिल,
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने।

इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाये न लगे, और बुझाए न बने।
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3
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है।
आखिर इस दर्द की दवा क्या है।

हम है मुश्ताक और वो बेज़ार,
या इलाही ये माजरा क्या है।

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ,
काश पूछो कि मुद्दा क्या है।

हमको उनसे वफा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफा क्या है।

जान तुम पर निसार करता हूँ,
मैं नहीं जानता दवा क्या है।
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फिल्म - संगदिल, 1952
कलाकार - मधुबाला, दिलीप कुमार, दारा सिंह, लीला चिटनिस
गीतकार - राजेन्द्र कृष्ण, संगीतकार - सज्जाद हुसैन

ये हवा, ये रात ये चांदनी, तेरी एक अदा पे निसार है।
मुझे क्यों ना हो तेरी आरजू, तेरी जुस्तजू में बहार है।

तुझे क्या ख़बर है ओ बेख़बर, तेरी एक नज़र में है क्या असर,
जो ग़ज़ब में आये तो क़हर है, जो हो मेहराबां तो क़रार है।

तेरी बात बात है दिलनशीं, कोई तुझ से बढ़ के नहीं हसीं
है कली-कली पे जो मस्तियाँ, तेरी आँख का ये खुमार है।

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