शनिवार, 22 जून 2019

आलेख - खुमान सर : जैसा मैंने पाया

(5 सितंबर 2018 को गांधी सभागृह, राजनांदगाँव में छत्तीसगढ़ के महान् संगीत व कला साधक श्री खुमान लाल साव के राज्य स्तरीय नागरिक अभिनंदन के अवसर पर दिया गया वक्तव्य)

खुमान सर: जैसा मैंने पाया

कुबेर

जीवित किंवदंती -

किसी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में जनमानस में जब जिज्ञासा, श्रद्धा और प्रेम-पल्लवित विभिन्न प्रकार की प्रमाणित-अप्रमाणित और कल्पित बातें प्रचलित हो जाती हैं तब उसे हम लिजेण्डरी परसन अर्थात किंवदंती पुरूष कहने लगते हैं। जिस विभूति का नागरिक अभिनंदन करने के लिए आज हम यहाँ उपस्थित हुए हैं, भारत शासन के संगीत एवं नाटक अकादमी सम्मान से विभूषित अदारणीय श्री खुमानलाल साव, जिन्हें छत्तीसगढ़ की कला जगत अतीव सम्मान और श्रद्धा के साथ ’खुमान सर’ कहकर संबोधित करती है, आज जीवित किंवदंती बन चुके हैं। जिन्होंने ’मन डोले रे माघ फगुनवा’, ’मोर संग चलव जी’, ’धनी बिना जग लागे सुन्ना’, ’ओ गाड़ीवाला रे’ जैसे अनेक सुमधुर गीतों की रचना की और जिन गीतों को सुनते-गुनगुनाते मेरा बचपन बीता, और आज भी ये गीत उसी तरह मेरे मन में रचे-बसे हैं, उनके प्रति श्रद्धा भाव जागृत होना और ऐसे श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा जागृत होना सहज मानवीय स्वभाव है।

कुछ वर्ष पहले मैं डाॅ. नरेश वर्मा के साथ, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन, के द्वारा छत्तीसगढी भाषा और संस्कृति विषय पर, राज्य स्तरीय एक कार्यशाला में शामिल होने के लिए रायपुर गया था। कार्यक्रम टाऊन हाल में आयोजित था। वापसी में खुमान सर ने हमें अपने साथ ले लिया। और इस तरह अपने श्रद्धेय का सानिध्य प्राप्त करने की मेरी वर्षों पुरानी लालसा पूरी हुई। उस दिन उन्होंने राजनांदगाँव के रामाधीन मार्ग और शहीद  रमाधीन का पूरा इतिहास बताया। खुमान सर की रससिक्त बातों से समय के प्रवाह का पता भी नहीं चला और हम ठेकवा पहुँच गए।

कला व साहित्य को परखनेवाला राजशाही संस्कार -

साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का वार्षिक कार्यक्रम भवानी मंदिर प्रांगण, करेला में चल रहा था। अप्रेल का महीना था। सम्मेलन में पधारे समस्त साहित्यकारों को अचंभित करते हुए खुमान सर का अचानक आगमन हुआ। इतनी बड़ी विभूति को आमंत्रित न करने की अपनी चूक के कारण मुझे बड़ी आत्मग्लानि हुई। मंच पर आसीन होने के लिए मिन्नतें की गईं पर वे यह कहते हुए,  ’’तुंहर कार्यक्रम के समाचार पेपर म पढ़ेन, देखे के मन होइस त आ गेन’’, बड़े सहज भाव से दर्शक दीर्घा में बैठे रहे। 

शायद 2013 की बात है, हमारे आदरणीय प्राचार्य श्री मुकुल के. पी. साव, जो खुमान सर के यशस्वी भतीजे हैं, ने वैवाहिक निमंत्रणपत्र देते हुए मुझे कि - ’’ठेकवा में शादी है, चाचाजी ने व्यक्तिगत रूप से कहा है, आपको जरूर आना है।’’ अचंभित होने का यह मेरा दूसरा अवसर था। खुमान सर के परिवार का यह स्नेहिल आमंत्रण पाकर उस समय जो खुशी और और सम्मान का अनुभव मुझे हुआ उसे व्यक्त करने के लिए आज मेरे पास शब्द नहीं है। शादी समारोह में जाकर मैंने देखा, सारा मंडप कलाकारों, साहित्यकारों, और बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। मेरी आँखों में मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के वे पन्ने एक-एककर रूपायित होने लगे, जिनमें बादशाहों, राजाओं-महाराजाओं के दरबार में नवरत्नों की ससम्मान उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। विभिन्न कला-क्षेत्रों के कलाकारों, साहित्यकारों, और विद्वानों के प्रति सम्मान का भाव, उनसे जुड़ने और उन्हें जोड़ने के जो आदर्श और संस्कार इतिहास के इन पन्नों में मिलते हैं, वही आदर्श और वही संस्कार कला के इस बादशाह खुमान सर के व्यक्तित्व में भी देखे जा सकते हैं।

अतिशयोक्ति अलंकार के अप्रतिम प्रयोक्ता -

खुमान सर से जब भी मैं मिलकर आता हूँ, आदरणीय मिलिंद साव से उस मुलाकात और मुलाकात में हुई बातचीत की चर्चा जरूर करता हूँ। मिलिंद सर मेरे वरिष्ठ सहकर्मी हैं और संगीत और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए वे अपरिचित नहीं हैं, अक्सर कहते हैं - ’’खुमान चाचा के पास अतिशयोक्ति कथन की कमी तो है नहीं, आप जैसा श्रोता चाहिए, बस।’’ 

अतिशयोक्ति कथन के लिए भी तो अतीव कल्पनाशक्ति चाहिए। यह एक विरल प्रतिभा है। यह प्रतिभा कलाकारों में ही संभव है। कला और कल्पना का अस्तित्व अभिन्न होता है। मूर्तिकला, चित्रकला, अभिनय, संगीत, साहित्य अथवा कला का कोई भी क्षेत्र हो, कलाकार की कल्पना की उड़ान जितनी ऊँची और महान होगी, उसकी कलाकृति भी उतनी ही उच्चकोटि की और महान् होगी। काव्य में जहाँ भी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन होता है वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार माना जाता है। भारतीय साहित्य में कालिदास, जयदेव, तुलसीदास, जायसी, बिहारी  और सेनापति जैसे महान् कवियों की महानता में अतिशयोक्ति अलंकार का योगदान कम नहीं है। महान् कलाकृतियों के सृजन के मूल में महान् कल्पना तत्व ही होते हैं। खुमान सर की कालजयी, सुमधुर संगीत रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में कहें तो यहाँ भी उनकी अतीव कल्पना प्रतिभा से प्रसूत उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही इनकी महान् रचनाओं के मूल श्रोत है।

अनुशासन की कठोरता और हृदय की कोमलता -

मदराजी महोत्सव 2016, के सिलसिले में हमें दुर्ग जाना था। प्रस्थान के लिए दो बजे का समय नियत किया गया था। किसी अपरिहार्य कारणों से मुझे आधे घंटे का विलंब हो गया। खुमान सर निर्धारित समय पर तैयार होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचने पर उन्होंने कहा - ’’कुबेर अस का? बड़े आदमीमन ल देरी हाइच जाथे।’’

प्रेम, अपनत्व और दण्डभाव से युक्त उनके इस उलाहने के प्रत्युत्तर में आत्मसमर्पण करने के अलावा मेरे पास और कोई दूसरा उपाय नहीं था। समय की पाबंदी और अनुशासन के मामले में बाहर से वे जितना कठोर दिखाई देते हैं, उनका अंतरमन और हृदय उतना ही कोमल, मधुर और रागात्मकता से परिपूर्ण है। यही कोमलता, यही मधुरता और यही राग तत्व उनकी संगीत रचनाओं को कोमल, मधुर  रागात्मक और कालजयी बनाते होंगे। उनका व्यक्तित्व श्रीफल की तरह है, बाहर से कठोर परंतु भीतर से मधुर, कोमल, रसयुक्त और स्वस्थ है।

5 सितंबर का अद्भुत संयोग -

भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक शिक्षक और महान् दार्शनिक थे इसीलिए उनके जन्मदिन 5 सितंबर को सारा राष्ट्र शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। हमारे छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में यह सुखद संयोग है कि छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत और लोककला के महान् विभूति खुमान सर भी मूलतः एक शिक्षक और एक गुरु ही हैं और उनका भी जन्म दिन 5 सितंबर ही है। मैं आशान्वित हूँ कि भविष्य में छत्तीसगढ़ राज्य में 5 सितंबर, शिक्षक दिवस को न केवल डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन से बल्कि खुमान सर के जन्मदिन से भी संदर्भित किया जायेगा।

ईश्वर से प्रार्थना है, खुमान सर की कलायात्रा यूँ ही अविरल गति से जारी रहे।

कुबेर
5 सितंबर 2018, 
गांधी सभागृह, 
राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़

मंगलवार, 18 जून 2019

आलेख - वंचितों का साहित्य

साक्षातकार

वंचितों का साहित्य

(समीक्षक श्री यशवंत से कुबेर सिंह साहू की बातचीत)

कुबेर - दलित साहित्य की अवधारणा क्या है?
यशवंत - अवधारण का अर्थ - शब्द के अर्थ की सीमा नियत करना होता है। दलित साहित्य के संदर्भ में अर्थ संकोच न होकर अर्थ विस्तार है। दलित शब्द ही व्यापक अर्थ में है। इसे पृथक करके, ’प्रतिबंध लगाकर’ के अर्थ में अलग किया, प्रश्न है। और यह सही भी है। इसे परिपक्व मस्तिष्क के चिंतन की परिणति से समझा जा सकता है। जैसे उपन्यास परिपक्व मस्तिष्क की उपज है। जो कुबेर के ’भोलापुर के कहानी’ में है। दलित साहित्य द्विज साहित्य से सीधी लड़ाई है। सपाट भाषा में विचारोत्तेजक चिंतन प्रस्तुत कर देना दलित साहित्य का मूल है।

’’व्यथित होते हैं जब हम शिक्षा से 
सहा नहीं जाता अपमान
होती है यंत्रणाओं की थकान जब
तब पी लेते हैं कभी कच्ची दारू, कभी भांग
भुलाने के लिए अपना गम
पर तुम तो पी-पीकर हमारा खून
पलभर ऊँचा होने का दर्द
हमेशा नशे में रहे
कभी नहीं उतरे नीचे उस जमीन पर
जो है जमीन मानवता की
जो है जमीन मैत्री की 
एकता की।’’         
(डाॅ. बी. सी. भारती)

दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक, आधी आबादी, मजदूर किसान जो बहुसंख्यक होते हुए भी हाशिए पर हैं। ये सभी संसाधनों में पीछे रह गये। ऐसे वंचितों पर वंचितों द्वारा, गैर वंचितों द्वारा बहुकोणीय दृष्टिकोण से लिखा गया साहित्य जो अपनी अभिव्यक्ति-भावाभिव्यक्ति में सवर्ण मापदंडों से अलग-सलग अभिव्यक्ति की अनुभूति करा देता है, दलित साहित्य है।

जनभाषा वालों के पास साधनजन्य ज्ञान और और अनुभव होने पर भी अभिव्यक्त करने की सही और उपयुक्त भाषा नहीं थी जिससे वे अधिकांश अवसरों पर ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ में हार जाते थे। पर अब शिक्षित होने पर अपनी भाषा की रचना में द्विजों से टक्कर ले रहे हैं। नये मानदंड तैयार कर रहें हैं। परंपरागत सौंदर्यशास्त्र को चुनौती दे रहे हैं। ऐसे साहित्य सौंदर्य को दलित साहित्य में रखा जाता है। जैसे डाॅ. धर्मवीर भारती ने कहा था - कफन कहानी पर, ’’बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था।’’ इसे प्रेमचंद सीधा नहीं बता पाये। चाहे कहानी कितनी ही कलात्मक हो। इससे हिंदी आलोचकों में हलचल पैदा हो गई। लूट की दास्तान देखिए - 
’’हमारे लिए 
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए बहारें नहीं आती
हमारे लिए
इन्कलाब नहीं आते ..... ’’
(लालसिंह दिल)

एच. एल. दुसाध लिखते हैं -  ’’सवर्ण द्वारा रचित दलित विषयक करुण से करुणतर कृति दलित साहित्य के मापदंडों पर खरा उतरने की औकात नहीं रखती। चूंकि दैविक दासत्व दलितों की दुर्दशा का प्रधान कारण रहा है ...... महापंडित राहुल सांकृत्यायन को छोड़कर ऐसी मनसिकता पुष्ट ही नहीं हुई।’’ इसे आप ’वर्ण व्यवस्था, एक वितरण व्यवस्था’ सम्यक प्रकाशन दिल्ली के 2011 के संस्करण में पृष्ठ 94 में पढ़ सकते हैं। 

वास्तव में ’सोजे वतन’ कहानी संग्रह गैरीबाल्डी की कहानी के बावजूद, मूलतः एक विज्ञान विरोधी और मानवता विरोधी रचना है। संभवतः इसी कारण अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित किया। जिन अंग्रेजों ने 1829 में सती-प्रथा विरोधी कानून पारित कर दिया, वे सती की राख का महिमामंडन कैसे बर्दाश्त करते? जो रेल्वे, सड़क, पोस्ट आफिस, पुल, स्कूल इत्यादि का विस्तार कर भारत को आधुनिक बना रहे थे वे कैसे बर्दाश्त करते कि साधु-सन्यासी, हरिकीर्तन तें आस्था रखनेवाला कोई व्यक्ति आधुनिक भारत को अपना वतन कहने से इंकार कर दे? हिंदू धर्मशास्त्रों में गहरी आस्था के कारण अपनी रचनाओं को प्रेमचंद मानवता व विज्ञान विरोधी रूप देने के लिए अभिशप्त रहे। इसी कारण से वे कफन, सद्गति, दूध का कर्ज, ठाकुर का कुआँ इत्यादि में मात्र हिंदू विवेक को झकझोरने तक ही सीमत हो सके। अपनी लेखनी को डिवाइन सलेवरी के घ्वंस तक प्रमाणित न कर सके। इसे आप दुसाध की किताब में पृष्ठ 95-96 में पढ़ सकते हैं। हाँ, मराठी के भालचंद्र नेमाड़े अपने उपन्यास ’हिंदू: संस्कृति का समृद्ध कबाड़’ में सफल हो गये। आप विचार कर समझ सकते हैं कि दलित या वंचित साहित्य की अवधारणा क्या है? ऐसा भी नहीं है कि दलित ही वंचित साहित्य लिख सकता है, गैर दलित नहीं लिख सकता। आपकी रचनाओं में भी आता है कुबेर भाई! ’भोलापुर की कहानी’ में। भले ही उसका प्रतिशत कम हो।

कुबेर - दलित साहित्य की विशेषताएँ - भाषा, शैली, विषयवस्तु और अन्य स्तर पर, क्या-क्या हैं?
यशवंत -  दलित साहित्य की विशेषताओं को लेकर यह प्रश्न गंभीर है। यह टकसाल प्रश्न है। मैं अपनी बातें, अपने विचार, सभी स्तर पर, एक साथ रखूँगा। भाषा-शैली कला क्षेत्र है। भाषा में शब्द, उसकी अर्थाभिव्यक्ति, सुनने की समझा को लेकर है। ेलेखक और पाठक, दोनों, अपने आप में एक तरह से भाषा के विशेषज्ञ होते हैं। भले ही उसे लिंग्विस्टिक का विशेष ज्ञान न हो। सरल और सीधी एवं सहज शैल में दलितों की भाषा प्रश्नात्मक है - 
’’तुमने कहा -
ब्रह्मा के पाँव से जन्में शूद्र
और सिर से ब्राह्मण
उन्होंने पलटकर नहीं पूछा -
ब्रह्मा कहाँ से जन्मा?’’ 
(1997,पृष्ठ 99)

अदलितों ने कल्पना भी नहीं कया। की भी हो तो वे अभिव्यक्ति से डरे हुए थे। क्यों? 
नींद से वंचितों को जगाने का प्रयास दूसरी विशेषता है -
’’बस्स!
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर 
अब काम आयेंगे संतप्त जनों के!
(1997,पृष्ठ 88)

वंचितों के साहित्य से सभ्य समाज की घृणित तस्वीर सामने तो आती ही है - ’’अबे, ओ चूहड़ों के मादरचोद कहाँ घुस गया .... अपनी माँ ... उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, ’मास्साहब, वो बैठा है कोने में।’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी।’’

’’कक्षा से बाहर खींचकर उसने उसे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू ....... नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल के बाहर काढ़ दूँगा।’’

कहा जा सकता है, अदलितों को यह नहीं दिखा? दिखा। पर अपने एलीट के तहत ऐसा अक्स अपने साहित्य में न उतार सके। मेरे पिता प्रभुलाल महार और प्रताप तेली एक साथ स्टेशन पारा राजनांदगाँव, प्राथमिक शाला में पढ़े थे। पिताजी ने मुझे अनेक बार बताया, प्रताप के कली के बाल को अपने अंगूठे से रगड़कर मास्साहब कहते, ’कैसे रे तेलिया मसान!’ आजादी के पहले की स्थिति थी। पिताजी ने 1942 में पढ़ाई छोड़ दी थी। पिताजी यह भी बताते कि स्वीपर के बच्चों को बैंच में न बिठाकर जमीन (फर्स) पर बैठना पड़ता था। (आगे चलकर) मैं, मेरी बहिन और मेरा भाई भी इसी स्कूल में पढ़े। पर सभी वर्ग के बच्चे एक साथ बेंच पर बैठते थे। आजादी के पहले की स्थिति और उपर्युक्त कथन आजादी के पश्चात् की दशा में कोई विशेष अंतर!

वंचित साहित्य की अभिव्यक्ति मानवमूल समस्या थी। कबीर, रैदास, पल्टू आदि प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। कबीर की कविता, उसकी भाषा और टैक्नीक में आध्यात्मिक अर्थ निकालना बेमानी है। वैज्ञानिक अर्थों में व्याख्या क्यों नहीं की जाती? अलाल ऐसा ही करते हैं। आप भी तो कहते रहते हैं न, - महंत अकर्मी अलाल होते हैं, उपदेश ही देते रहते हैं। डाॅ. अंबेडकर ने भी कहा, ’’एक भिक्षु संपूर्ण मनुष्य मात्र बनकर रहेगा तो उनका धम्म प्रचार कार्य में कोई उपयोग नहीं क्योंकि वह एक संपूर्ण मनुष्य होने के बावजूद एक स्वार्थी आदमी ही बना रहेगा।’’ कबीर कर्मशील, ज्ञानशील, धर्मशील थे। भिक्षु-महंत इससे दूर रहे।

पीड़ा की भाषा और भाषा की पीड़ा इस देश में रही है। अंबेडकर ने गांधी से पूछा - ’’मेरा देश कहाँ है?’’ बाल्मीकि लिखते हैं - 
’’चूल्हा मिट्टी का 
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरे खेत का 
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर के
हल ठाकुर का
हल के मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआँ ठाकुर का 
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या? 
गाँव?
देश?’’ 
(ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, पृ. 03)




चुनौतियाँ देना वंचितों का सहित्य है। वाल्मीकि, जिसे महाकवि कहा जाता है। दया पवार, कैसी चुनौती देते हैं -
’’हे महाकवि
तुला महाकवि तरी कसे म्हाणाते
हा अन्याय, अत्याचार, वे शीवर ठांगनाय
एक जरी श्लोक तू रचला असतास ....
... तर तुझे नाव काकजावर कोरून ठेवले असते ....
(हे महाकवि
तुझे महाकवि कहूँ भी तो कैसे?
इस अन्याय अत्याचार को सरेआम
जाहिर करनेवाला
एक भी तो श्लोक रचा होता तुमने ...
... तो कलेजे पर अपने, गुदवा लेता ...
नाम तुम्हारा।))

भारतीय संस्कृति का बड़ा गुणगान करते हैं और दलित उन्हें चुनौती देते हैं। कवि गणेश राज सोनाले की कविता है -
’’नंगा पैदा हुआ
यहाँ भी नंगा ही कर दिया गया
समाज पुरुष के अहंकार द्वारा 
हे मेरे संस्कृति प्रिय देश
मेरा नंगापन तुम 
कभी ढंक नहीं पाये।’’

यहाँ विद्रोह है। विद्रोह दलित साहित्य का प्राण है। आत्मा नहीं। भाषिक वर्जना नहीं है। विषाक्त संस्कृति विषयवस्तु है। सफेदपोश संस्कृति में वंचित समाज बिलकुल अजनबी मिसफिट महसूस करता है। ऋषिकेश कांबले की कविता -
’’ये रास्ते वैसे कभी उजाड़ नहीं होते
यहाँ कदम-कदम पर 
हर पल, हर क्षण
इंसानियत की 
उजड़ी बस्तियाँ बसती हैं।’’

रणेंद्र के उपन्यास ’ग्लोबल गाँव के देवता’ में झारखण्ड के अनवरत जीवन संघर्ष का दस्तावेज है। संजीव के उपन्यासों में सरकार व पुलिस अधिकारी स्त्री को भोग वस्तु की तरह इस्तेमाल करते हैं। डाकुओं के कहने पर बिश्राम की पत्नी उनके लिए खाना बनाकर भेजती है, तब पुलिस उसे थाने ले जाती है। अगले दिन सुबह होने पर भी वह घर नहीं लौटती, तब बिश्राम कहता है - ’’अब ई कहाँ का कानून है, हे सुरुज महराज कि जो कोई भी डाकू की मदद करेगा, पुलिस बिना जमानत बंद कर देगी? मालिकार को कभी बंद नहीं करती। सारा कानून गरीबों के लिए है।’’ यहाँ जनता को कितनी प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ’जो इतिहास में नहीं है’ में आदिवासी संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, तीज-त्यौहार के प्रति होनवाले दमन लूट-सौंदर्य से परिचित कराता है। तेजिंदर ने ’काला पादरी’ में आजादी के सत्तर साल बाद भी ’’लोकतंत्र के सबसे सस्ते सामंती संस्करण है।’’ विनोद कुमार के ’समर शेष’ में महाजनी लूट, स्त्रीय लूट और विस्थापन के खिलाफ आवाज है।

सभी प्रकार की समानता पर पिछड़ावर्ग आवाज ही नहीं उठाता। थोड़ा मिलने पर दुम दबा लेता है। वह ईंट से ईंट नहीं बजाना चाहता? जैसे गोदी मीडिया में होता है। महाकवि वामन दादा ईंट से ईंट बजाता है -
’’वो इस देश के वासी हैं तो 
हम भी भारतवासी हैं
प्यारी उनकी मथुरा है तो 
प्यारी हमारी साची है
वामन तुम्हारी ये जनता
कयों सदियों से प्यासी है
उनके सारे अफसर हैं तो
तेरे क्यों चपरासी है।’’

पिछड़ावर्ग के पास 52 प्रतिशत हकदारी के लिए कोई एजेण्डा नहीं है। गैरदलित बुद्धिजीवी, दलित समाज को सीख देता रहता है। यदि अपने ही समाज को संबोधित कर देते तो इनकी झूठी शान वर्ण व्यवस्था नहीं टूटती? अच्छा उदाहरण देखिए - ओलंपिक और एशियाड में दलितों-पिछड़ों ने बेहतर प्रदर्शन किया। जन्मसूत्र से महज कायिक श्रम करनेवाली परिश्रमी जातियों की संतानों में से खसबा जाधव, लिएंडर पेस, कर्णम मल्लेश्वरी ने जहाँ ओलंपियाड में भारत का नाम बढ़ाया तो वहीं पी. टी. उषा, ज्योतिर्मयी सिकदर ने एशियाड में झंडा गाड़ा। सवर्णों की भेदभाव नीति ने भारत को पीछे किया। इसके लिए आप एच. एल. दुसाध को पढ़ सकते हैं। यह भी समझ में आयेगा कि आरक्षण क्यों जरूरी है। खेल में और जेल में भी। तब हमें फेल का आरक्षण भी समझ आ जायेगा।

मैं समझता हूँ कि दलित या वंचित साहित्य की विशेषताएँ लगभग आ गईं। जिस साहित्य में जिन विषयों पर गैरदलितों  द्वारा हत्या की जाती है - दलितों या वंचितों के साहित्य में इसका क्यों, किस कारण और कैसे की जाती है, विस्तार से करुणापूर्वक, तर्कसंगत और चुनौतीभरा उत्तर मिल जायेगा।

भारतीय आलोचकों ने, विशेषकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अंबेडकरी विचारों का नोटिस क्यों नहीं लिया? उल्टे उन्होंने तो साम्प्रदायिक विभाजन भक्ति साहित्य कर डाला। छायावाद को दर्शाया तब तक अंबेडकर विश्वभर का विश्वरत्न बनकर भारतभर में छा चुके थे। प्रसिद्धि पा चुके थे। ’जातिभेद का उन्मूलन’ प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी।

दलित साहित्य की एक विशेषता तो आपके कहानी संग्रह ’कहा नहीं’ में मिलती है।’जियो और जीने दो’ स्लोगनवाले ही अमीर हैं? जीने नहीं देंगे कर देते हैं। बहुजनों के सांसद भी ऐसे ही हत्या कर गये। दलित साहित्य के गुण बुद्ध से लेकर कबीर, फूले और वर्तमान तक मिल जायेंगे। दलित साहित्य की विशेषताओं को लेकर मानक शोध प्रबंध लिखा जाना अभी बाकी है। मंटो को पढ़कर आप समझ जायेंगे। दलित साहित्य की हत्या और दलितों की हत्या के लिए दलितों के नेता भी जिम्मेदार हैं। मायावती उदाहरण हैं। सवर्णों के समान दलितों की बेटी बन जाती है पर एक टी. व्ही. चैनल भी स्थापित नहीं करती, उल्टे अपनी और हाथियों की मूर्तियाँ  लगवाती हैं। इस तरह भारतीय राजनीति भी अनुचित स्वरूप प्रभावित करती है। नहीं तो आज बिकनेवाले चैनलों से टकराया जा सकता था। जैसा कि वर्तमान, 2019 के चुनावों में हुआ। परंतु काशी राम ने इसका उपयोग सफलता के लिए किया। आप इसे मोहनदास नैमिशराय के ’अपने-अपने पिंजड़े’ में पढ़कर समझ सकते हैं।

सहज-सरल बोलचाल की भाषा में दलित है। नकार है विरोध भी। प्रशोध,  प्रतिशोध है विद्रोह भी। ये तेज झरने की तरह है। दलित दग्ध अनुभव सीधे-सीधे साहित्य में प्रस्तुत करता है। वहाँ दलितों की छटपटाहट और शब्द की अभिव्यंजना अर्थपूर्ण है - 
’’शब्द! तुम्हें कसम है
एक न एक दिन 
तुम उतरोगे पृथ्वी पर
धूप बनकर।

कैद कर रखा है तुम्हें तहखानों में
संस्कृति को मैं पूछता हूँ
’संस्कृति क्या तुम्हारी रखैल है?’

शब्द सिसकते नहीं बोलते हैं
चोट करते हैं
जैसे दलित को हरिजन
हरिजन को दलित 

जब टूटता है रूस
तो तुम्हारा सीना 36 हो जाता है
माक्र्सवादियों ने
छिनाल बना दिया है 
तुम्हारी संस्कृति को।’’

प्रतीक, भावना, विचार और बोध को प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनाते हैं। पेड़, लोकतंत्र, भेड़िए, जंगली, सूअर, कुत्ते, ये शब्द लूट, दमन और गुलामी के प्रतीक हैं।?
’’अब वृक्ष की कटी-छटी टहनियाँ
पुनः प्रस्फुटित होने लगी हैं
द्रुतगति से
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में।’’

नामवर सिंह ने आग्रह किया था, दलित साहित्य माक्र्सवादी आलोचना शास्त्र के मापदंडों को ध्यान में रखकर लिखा जाये। यहाँ साहित्य की हत्या कर दी गई। नामवर दलित साहित्य आंदोलन से बच गये। चूक भी गये। दलित रचनाकार ’कफन’ को उसी दृष्टिकोण से नहीं लेता जैसे गैर दलित। असहमति-दृष्टिकोण-भिन्नता पर नामवर सिंह ने कहा - ’’जब अपना देस्त भी दुश्मन दिखाई देने लगे तो यह मनोचिकित्सा का विषय है।’’ अतः नामवर सिंह से असहमत होने पर वह मनोरेगी है। शालीनता को लांघकर नामवर सिंह ने कहा - ’’जैसे कुत्ते का काटा पानी से डरता है ...... तो ये (दलित) किनके काटे हुए हैं?’’ ओमप्रकाश बाल्मीकि ने जवाब दिया है - ’’नामवर जी! ये ब्राह्मणशाही और ठाकुरवाद के काटे हुए हैं जो मुखौटे बदल-बदलकर छलते हैं जिसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए था वो विरोध में खड़े हैं, माक्र्सवाद का मुखौटा पहनकर। तत्वज्ञान या विचार से रचनाकार के दृष्टिकोण और संवेदना की पहचान होती है। उसी से रचना साकार होकर सार्थकता ग्रहण करती है और संवेदना की पहचान होती है, दलित रचनाकार उस दोषी मानसिकता विरोधी है जो बाहर से माक्र्सवादी, साम्यवादी और भीतर से फासिस्टों का पक्षधर है।’’ वर्तमान में साहित्य और राजनीति में जो हो रहा है वह यही है। इसे स्पष्ट कर देना ही दलित साहित्य की पुख्ता शैली भी है।

संक्षेप में दलित साहित्य की विशेषता जीजीविषा की संघर्षीय, अदलित साहित्य को चुनौतीभरा शब्दबंध में सागर भरा गागर है जिसका आलोचनात्मक अध्ययन अभी बाकी है। मुक्तिबोध के साहित्य में मध्यवर्ग है पर दलित-वंचित वर्ग की भाषा नदारत है जबकि मुक्तिबोध देख और समझ दोनों रहे थे। मुक्तिबोध के पास दलितों की भाषा ही नहीं थी।

कुबेर - दलित साहित्य का उद्देश्य क्या है?
यशवंत - समता और समनाता का आंदोलन साहित्य में नहीं तो वह काहे का दलित साहित्य? अंबेडकर का चिंतन नहीं, दलित साहित्य नहीं। भाग्य भगवान का विश्वास करे वह दलित साहित्य नहीं। दलित पात्रों का चित्रण न हो, वह भी दलित साहित्य नहीं।

कोई भी साहित्य अपनी विधा में उद्देश्य लेकर लिखा जाता है। आपके प्रश्न के उत्तर के लिए जिन पुस्तकों या रचना का अध्ययन करना चाहिए, वह इस प्रकार है -
जूठन - ओमप्रकाश बाल्मीकि
मर्दहिया, मणिकर्णिका - तुलसी राम
पच्चीस चैका डेढ़ सौ - ओमप्रकाश बाल्मीकि
अपना गाँव - मोहन दास नैमिशराय
ठाकुर का कुआँ - ओमप्रकाश बाल्मीकि
सुनो ब्राह्मण - मलखान सिंह
नो बार - जयप्रकाश कर्दम
दोहरा अभिशाप - कौशल्या बैसंत्री
शिकंजे का दर्द - सुशीला टांकभौरे
अपने-अपने पिंजड़े - मोहन दास नैमिशराय

इन रचनाओं में समता, आजादी और शांति के लिए एक करुणामयी पुकार मिलेगी। क्योंकि अंबेडकर चिंता ने बुद्ध के दार्शनिक चिंतन जो शील-समाधी-प्रज्ञा पर आधारित था, को पलटकर प्रज्ञा-शील-करुणा में निर्धारित कर दिया। अंबेडकर चिंतन को मानना चाहिए, न कि अंबेडकरवाद को।

दलित साहित्य के केन्द्र में सत्याआधारित मानव है। कहीं भी अन्याय, अत्याचार, अमानवीयता, भेदभाव, शोषण इत्यादि प्रवर्तमान हैं उसका विरोध करता है। विद्रोह जगाता है। दलित, पीड़ित, शोषित वर्ग में चेतना प्रसार का कार्य करता है। दलित कर्मशील कलाकार हैं। एक्टिविस्ट-कम राइटर होकर अपने आंदोलन से प्रतिबद्ध और समाजनिष्ठ रहता है। जे. एन. यू. के घनश्याम के शब्दों में - ’’दलित लेखन मुख्य रूप से विद्रोह का लेखन है। यह अनुभव की अग्नि से तपा हुआ साहित्य है। यह लोकरंजन या मनोविनोद के लिए नहीं है। इसका एक महती उद्देश्य है, सामाजिक सद्भाव, मैत्री, समानता आदि की वकालत करना दलित लेखन का ध्येय है। दलित साहित्यकार अपने अनुभवों को वाणी देकर समस्त समाज को जागृत करने का कार्य करता है।’’ साहित्य का अर्थ होता है, सबका हित करनेवाला। रामचरित मानस, रामायण, महाभारत में इसे धार्मिक डाक टिकिट लगा दिया गया। जय राम, जय सियाराम विकृत होकर जय श्रीराम अपने सांप्रदायिक-राजनीतिक हितार्थ बन गया, मानव हित कहीं दूर खो गया। इसे यों कहना चाहिए, ’’राम नाम सत्य’’ हो गया। अब इस शब्द से पितृसत्तात्मकता की बू आने लगी है। जैसे माक्र्सवादी सवर्ण लेखकों ने भारतीय भूमि की गंध भूमिस्तर पर नहीं रोपा और आज नाजुक हालात में पहुँच गया। आर्थिकता की बात करते रहे और अपना हित साधते रहे। भगत सिंह के पाठ प्राथमिक पाठ्यक्रम से हटा दिये गये। या गुमनामी डाल दिये गये। भगत सिंह का चिंतन कितनों ने पढ़ा है। उन्होंने बराबर वंचितों पर चिंतन किया। शायद उनकी उग्र क्रांतिकारी विचारों के कारण अंबेडकर ने भी उनका नोटिस नहीं लिया। मेरे पढ़ने में अभी तक तो आया नहीं। तो कुबेर भाई मैं समझता हूँ  अब आपने दलित साहित्य के उद्देश्यों को आपने गहराई से समझ लिया होगा।

कुबेर - दलित साहित्य, स्त्री विमर्श और आदिवासी साहित्य में अंतर और समनता है?
यशवंत - प्रथम दलित - आधी आबादी और आदिवासी वंचित वर्ग है। क्योंकि राजकाज में इनकी हिस्सेदारी नगण्य है। 30 प्रतिशत महिला आरक्षण लटका हुआ है। स्त्री दोहरे अभिशाप झेलती है। दलित-आदिवासी महिला तिहरे अभिशाप से त्रस्त है। पहला पितृसत्तातमकता से, दूसरा महिला स्वरूप होने से और तीसरा सवर्णों द्वारा किये गये अत्याचार से। ये समानता है। अंतर श्रमकार्य से है। अदलित महिला, दलित महिला, आदिवासी महिला, उच्चवर्गीय महिला को छोड़ सभी श्रमजीवी हैं। एलिट महिला चारदीवारी में आज भी कैद है। वह श्रमजीवी नहीं है। शासकीय सेवा एवं प्रवचन अलग बात है। स्त्री विमर्श की सभी समस्याएँ दलित-आदिवासी साहित्य में एकसाथ कोई भिन्नता नहीं है। जयप्रकाश कर्दम के कविता के शब्द हैं -
’’इनके शयन कक्षों में बिखरे हैं
मेरी बहनों और बेटियों की 
रौंदी गई अस्मिता के निशान।

नोचे गये हैं निर्ममता से 
बेबस स्त्रियों के उरोज और नितंब
उनकी योनियों में ठोके गये है
जातीय अहम के खूँटे।’’

भिन्नता जाति को लेकर है। क्योंकि वर्णव्यवस्था का प्राचीन आरक्षण व्यवस्था है। ’’द्विपश्चचतुश्पद सामाज्ञी’’ वाला। ऋषि उपदेश क्या है? अभी हाल तक यह लागू था। पर लागू था। दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के स्त्री विमर्श में मुख्य अंतर आदिवासी कला के असली वाहक है। दलित स्त्री में आम्रपाली गणिका भिक्षुणी  है। साकेत साहित्य परिषद् ने दलित-स्त्री विमर्श पर कभी गोष्ठी नहीं की है, की होगी तो मुझे स्मरण नहीं है। हाँ, पुरवाही तथा शिवनाथ साहित्य परिषद् में दो-चार आदिवासी रचनाकार जुड़े हैं। यही समानता और अंतर भी है। मुख्य समानता तीनों वर्ग शिक्षा से सदियों से वंचित रहे हैं। अंतर बहुत स्पष्ट है। आदिवासियों की तुलना में दलितों को बहुतर घृणा से आज भी देखा जाता है। स्त्रियों को सभी पुरुष वर्ग ललचायी दृष्टि से देखते हैं। अन्याय, अत्याचार और लूट के स्तर पर अभिव्यक्ति में समानता तीनों में मिलेगी। ’’सुबह की तलाश’’ में देखा जा सकता है। साकेत, पुरवाही और शिवनाथ साहित्य परिषद् में एक प्रतिशत भी महिला रचनाकार नहीं है। यही मुख्य अंतर है। दलित साहित्य अब परिपक्व होकर आ गया है।  आदिवासी और स्त्री विमर्श भी उभार पर है। बस्तर की महिला सोनी सोरी अपने भाई को पत्रकारिता में पढ़ाकर शिक्षित करना चाहती थी। उसके साथ कैसा अन्याय हुआ? आप भी जानते हैं। उसकी अभिव्यक्ति जबरदस्त तो है ही, संघर्ष भी काबिलेतारीफ है।

कुबेर - पिछड़ों के साहित्य की संकल्पना की जा सकती है?
यशवंत - हाँ, यह बहुत पहले हो चुकी है। आप ’युद्धरत आम आदमी’ का पिछड़ा वर्ग विशेषांक पढ़ सकते हैं। पिछड़ा कौन? उपर्यक्त दोनों किताबों से स्पष्ट हो जायेगा। साहित्य पढ़ें तो। कबेर भाई! जो बहुजनों का साहित्य पढ़ेगा तो ओबीसी को समझेगा न। नाम नहीं लूँगा, डाॅ. जोशी, दादू भैया ने ’सत्य ध्वज’ का दलित अंक भी अनेक प्रतियों में प्रदान किया। कितनों ने उसे पढ़ा? एक ने तो उसे घृणा से हटा दिया। एक ने तो उसकी गजल वाली पृष्ठ को फाड़कर रख लिया। बाकी अयोग्य समझकर हटा दिया। क्योंकि गुरू बाबा घासीदास सतनामी समुदाय, अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं। साकेत की पिछड़े वर्षों की स्मारिकाएँ रद्दी की ढेरी बनकर रह गई हैं। मैंने देखा है। वर्तमान में हमारे साकेत साहित्य परिषद् के सभी सदस्य पिछड़े वर्ग से ही ताल्लुक रखते हैं। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ - कि पिछड़ा साहित्य की संकल्पना को लेकर आपने प्रश्न किया है। आप मुझसे नाराज हो सकते हैं। इसका मुझे कोई गम नहीं परंतु निश्चित है, बहुजन साहित्य (ओबीसी) की अवधारण के मूल में दलित साहित्य का कन्सेप्ट है ही। संजीव खुदशाह साफ-साफ कहते हैं, ’’दलित ओबीसी के दर्द को अपना समझता है लेकिन ओबीसी दलितों के दर्द में मौन हो जाता है।’’ आप पढ़िए न दलित वार्षिकि 2016 पृ. 30 को। खैरलांजी कांड के विरोध पर राजनांदगाँव में सात हजार लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तो ओबीसी गायब थे। दलितों  पर होनेवाले हमलों में दलित अकेले पड़ जाते हैं। दलितों ने अपने साहित्य व विचारों के लिए अपना खून बहाया। मंडल आयोग लागू करने आरक्षण का झंडा दलितों ने ही बुलंद किया। सवर्णों के हमले को झेला। इन हमलों में बहुसंख्यक ओबीसी ही थे। यही कारण है कि अनुसूचित वर्ग वाले ओबीसी को लूटनेवाले समझते हैं। ओबीसी वाले संविधान का हिंदी संस्करण ही पढ़ लें! नहीं पढ़ते है न। इसीलिए पिछड़ा साहित्य संकल्पना में आने के बाद भी अनुसूचित वर्ग व ओबीसी  साहित्यकार एक छतरी के नीचे नहीं आ पा रहे हैं। एक कारण और भी है, बहुतर ओबीसी सवर्णों के पिछलग्गू हैं। सवर्ण उच्च पदों पर हैं। उनसे अनुदान तो प्राप्त करते हैं और अपना ही लाभ ले लेते हैं, न समाज का और न ही साहित्य का भला करते हैं। समाज-साहित्य के लिए बलिदान त्याग-बलिदान की जरूरत है। आपको तीखा जरूर लग रहा होगा। पर आप मेरे सम्मानित मित्र हैं इस नाते मैं अपनी बात रखने का हक जरूर रखता हूँ। छत्तीसगढ़ की जनता अति भोली है जो अपनी अंधभक्ति में देवालयों और उसकी प्रतियोगिता में शामिल रहती है। पिछड़ों पर ’’भारत में पिछड़ा वर्ग’’ (शोधग्रंथ) एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति ने लिखा है। यह ग्रंथ विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वीकृत है। हमारे परिषद् के साहित्यकार साहित्य की गहराई में गोते क्यों नहीं लगाते? इसका  मुझे आत्मिक दुख होता है। तुलसी राम की ही आत्मकथा पढ़ लें, वे तो सबसे पुअर थे। पर झंडा तो बुलंद किया, अपना और मानव समाज का। हमारे परिषद् के साहित्यकार झट तुलना करते नजर आते हैं। परदेसी राम वर्मा को छत्तीसगढ़ का प्रेमचंद कह डाला, तमगा दे दिया। वे नहीं जानते भारतीयों ने भी कालीदास को शेक्सपीयर का तमगा जड़ दिया परंतु विदेशों में कालीदास को शेक्सपीयर नहीं कहा गया। आपको भी काई तुलनात्मक तमगा दे दे, कोई आश्चर्य नहीं। मेरा मतलब है, साहित्य को तर्कात्मक, तुलनात्मक, विवेचनात्मक और विवेकात्मक संगति में पढ़ें और विश्लेषित करें। बाराभांवर के फेर में न फंसें। मुझे ही कई गोष्ठियों में बहुत बड़ा आलोचक कह दिया गया है, जबकि ऐसा है नहीं। आश्चर्य होता है। मेरी तो आलोचना की अभी एक भी किताब प्रकाशित नहीं हुई है। हाँ, आलोचना करता हूँ और लिखता भी हूँ। पर जैसा कहा जाता है, वैसा तो नहीं है न। अतिवाद से हमें बचना भी चाहिए कुबेर भाई।

अब आते हैं मूल विषय पर। कोल्हापुर के महाराज छत्रपति शाहूजी ने 26 जुलाई 1902 में अपने राज्य में पिछड़े वर्ग के लिए नौकरियों में 50 प्रतिशत का आरक्षण जारी कर दिया। उस जमाने पिछड़ा वर्ग अर्थात डिप्रेस्ड क्लास का तात्पर्य अस्पृष्य, आदिवासी, पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों से था। पेरियार ई. रामास्वामी ने इसे विस्तार दिया। मद्रास प्रांत में जस्टिस पार्टी की सरकार ने 27 दिसंबर 1929 को जनसंख्या के अनुपात में डिप्रेस्ड क्लास को सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत की भागीदारी प्रदान की। 1930, 1931, 1932  की गोलमेज बैठकों में हिंदू आरक्षण व्यवस्था के विरुद्ध अंबेडकर के तर्कों ने दिशा ही बदल दी। पूना पैक्ट हुआ। अंबेडकर के अथक प्रयासों से ही संविधान में धारा 340 आई। परिणाम स्वरूप 1990 में भारत सरकार द्वारा केंदीय सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण बना। मैंने स्वयं 1982 में मंडल आयोग के पक्ष में जुलूसों में नारे लगाये थे। उस समय मैं भी नहीं जान पाया था कि यह आयोग किस विषय पर है। युवा था न, चला गया आदोलन में। फिर भी ओबीसी वर्ग अनुसूचित जाति को घृणा से देखता है, ताज्जुब है।

बुद्ध शाक्य जाति के हैं। कबीर जुलाहा, ओबीसी वर्ग से आते हैं। महात्मा ज्योति बा राव फूले माली जाति से ताल्लुक रखते हैं। ये तीनों दलित साहित्य के आधार स्तंभ हैं। गाडगे बाबा धोबी जाति से हैं। इसे कब स्वीकार करेंगे। अंबेडकर ने सही कहा था, आप अपना इतिहास जान तो लो। पिछड़ा वर्ग बुद्ध, कबीर, फूले को पूरा पढ़ें तो। भारतेंदु, मैथिली शरण ने द्विज साहित्य को पुष्ट किया सुभद्रा जी ने लक्ष्मी बाई पर प्रसिद्ध कविता लिखी पर झलकारी बाई को छोड़ दिया, क्यों? क्योंकि वह कोरी आदिवासी वर्ग से थी। 1857 के युद्ध में झलकारी बाई का योगदान लक्ष्मी बाई से कहीं अधिक है। गांधीजी साइमन कमीशन का विरोध नहीं करते तो दलितों की हार नहीं होती। तब पूना पैक्ट भी नहीं होता। और गांधीजी को अपने प्राणों की भीख भी अंबेडकर से न मांगी होती। चंदापूरे, कर्पूरी ठाकुर, ललई सिंह पिछड़ों के दार्शनिक नायक हैं। किसी को भी चुन ले और रचना करें। इससे काम न चले तो बघेल की रचना ’ब्राह्मण कुमार रावण को मत मारो’ को छत्तीसगढ़ के ओबीसी पढ़ लें। माजरा समझ में आ जायेगा, ओबीसी साहित्य का। बघेल की पुस्तक को आपने पढ़ा होगा न। न पढ़े हों तो पढ़िए जरूर। पवन यादव पहुना ने पढ़ा है और मुझे पढ़ाया भी है। ब्राह्मणवादी लेखक प्रगतिशीलता का छद्म रूप ओढ़कर प्रगतिशीलता का ढोंग करता है। वह सामाजिक रूढ़ियों पर चोट नहीं करता। रूढ़ियों पर से आँखें मूंद लेता है। वह चापलूस होता है, ऐसी बात नहीं लिखता कि द्विज व्यवस्था नाराज हो जाये। वह संकीर्णमन का होता है। उसे लगता है कि वह अपने कुनबे से बहिस्कृत हो जायेगा। अभी भी पिछड़े वर्ग के रचनाकार ब्राह्मणवादी रचनाकारों के पिछलग्गू हैं। ये अपना कब लिखेंगे? इन्हीं से स्वतंत्र होना पिछड़ा साहित्य की आधारशिला है। तभी तो आप जो कह रहे हैं, पिछड़ा साहित्य संकल्पना, साकार होगी। देरी नहीं करना चाहिए। जुट जाइए। अपने पूरे 52 प्रतिशत अधिकारों के लिए पिछड़ा वर्ग एकजुट होकर खड़ा नहीं हो पाया है। क्या यथास्थिति बनी रहेगी? इससे निपटने के लिए बलिदान तो चाहिए ही। मांगने से अधिकार नहीं मिलते। फिर मांगने से मरना भला। तो साहित्य और जमीनी संघर्ष तो किया जाय। आप कहते हैं, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का अध्यक्ष पिछड़े वर्ग से आये। अगर ऐसा होता है तो वे इन अधकारों के लिए पुरजोर कोशिश करे। पिछड़ा वर्ग क्या है? इसका पूरा इतिहास पिछड़ों को समझाएँ। फरहद में डाॅ. दादूलाल जोशी ने एक कार्यक्रम कराया था तो अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष पधारे थे पर किसी अध्यक्ष ने नहीं कहा कि ऐसा अभियान मैं अपने घर से शुरू करूँगा। डींगे भारी-भारी हांक दी। ऐसे लोगों के रहते कैसे हम अपना अधिकार ले पायेंगे। सोचना पड़ रहा है, ऐसा लगा कि तोनों आयोग के अध्यक्षांे ने वंचित वर्ग के पहल की ही हत्या कर दी। तभी तो मैं कहता हूँ आलोचना का वंचित साहित्य में ’हत्या’ एक मापदंड होगा ही। इसी को तो रोकना वंचितों के साहित्य का मूलभूत साहित्यिक कलात्मक कारनामा है। यही पिछड़ा साहत्य की समूल संकल्पना है। विषय अनेक हैं। अपने-अपने ढंग से साहित्यिक प्रस्तुति निजी विधाओं में दें। मुझे एक व्यक्ति ने कहा, सरकार की आलोचना न करें। करें तो ज्यादा न करें। तो कुबेर भैया जी इसी हत्या में तो सरकारी अनुदान फलता-फूलता है। ऐसे चापलूस साहित्यिक समझ नहीं रखते तो पिछड़ा वर्ग साहित्य अर्थात बहुजन साहित्य या ’दलित बहुजन साहित्य’ कहाँ निखार आ पायेगा? चापलूसों के कारण ही दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। इसका कारण अशिक्षा है। फूले ने कहा ही है - गुलामगिरी से -
’’विद्या बिना मति गई
मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
और वित्त बिना शूद्र गए।’’

ये सारे अनर्थ एक अशिक्षा ने किया। पिछड़ा वर्ग के कांचा इलैय्या ने ’मैं हिंदू क्यों नहीं’ लिखा। अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। इसे पढ़ा जाये। यहाँ इलैय्या जी ने अनेकानेक चिंतनीय विषयों को दिया। समझा जाय, हिंदुस्तान के सभी लोग हिंदू हैं, पर हिंदू कोई नहीं। केवल जातियाँ हैं - महार, तेली, कुर्मी आदि। रोटी-बेटी नहीं! सभी हिंदू हैं। यह षडयंत्र 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आया। जनगणना में धर्म हिंदू लिखवाया गया। इसके पहले उच्चवर्ग ही हिंदू लिखता था। बाकी सबकी जातियाँ ही जनगणना में लिखी जाती थी। इसका उदाहरण पाठशाला की दाखिल पंजी है। जात धर्म लिखना पड़ता था। जाति के कालम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (बनिया) लिखते थे। ये वर्ण हैं। और शूद्रों की दशा में जाति ही लिखते थे। कांचा इलैय्या का चिंतन पक्ष इस प्रकार है - सरस्वती, जिसे विद्या की देवी माना जाता है, कोई किताब क्यों नहीं लिखी? सरस्वती कभी भी, कहीं भी बोलती नहीं? औरतों को भी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। दलित, बहुजन देवी-देवताओं की परंपरा, पुरोहित परंपरा से बिलकुल भिन्न क्यों है? विधवा विवाह की समस्या दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में नहीं रही। ये वर्ग समानता के आधार पर रहते हैं। पौनी-पसेरी आखिर क्या है? नाऊ-बरेठ क्या है? सदा छोटी जातियाँ ही उत्पादक वर्ग क्यों रहीं? ब्राह्मणवादी ताकतें श्रम को निचले दर्जे का क्यों मानती है? जबकि दलित-बहुजन का विश्वास है कि हमारा कल हमारे श्रम से तय होता है। हिंदुत्व श्रम की महत्ता निर्मित करने में क्यों असफल रहा? तीन हजार सालों से दलित-बहुजनों के लिए शिक्षित होने का विरोध क्यों होता रहा? ऐतिहासिकता में दलित शरीर ही नहीं बल्कि दलितों का ओबीसी विद्वानों द्वारा लिखी गई पुस्तकें भी अस्पृष्य होती हैं। क्यों? पश्चिम में दुश्मन की पुस्तकें समानता से पढ़ी जाती हैं। भारत में नहीं कारण क्या है? अंग्रेजों ने तमाम संस्थान, पार्टियाँ और संगठन तथाकथित उच्च जातियों के हाथों में बने रहने दिया? उन्होंने राष्ट्रीय हित को इस तरह परिभाषित किया कि वह सार रूप में भद्रलोक का ही हित बना गया। ऐसा क्यों? लोक को लेकर साकेत की वार्षिक स्मारिका में विविध विषयों को लेकर साहित्य आया पर उनमें भद्रलोक की स्थिति स्पष्ट नहीं हुई। लखनलाल साहू के शोध से स्थिति कितनी स्पष्ट होगी यह आनेवाला समय ही बतायेगा। 

माक्र्सवादी क्रांतिकारी सिद्धांत ने ब्राह्मण विरोध दलित-बहुजन  बुद्धिजीवी पैदा क्यों नहीं किया? एक सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांत कि अंतरजातीय विवाह में शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ पीढ़ियाँ आ सकती हैं, एक औसत ब्राह्मण दिमाग क्यों नहीं समझ पाता? 85 प्रतिशत निजी कारें उच्च वर्ग के पास ही क्यों है? वातानुकूलित रेलगाड़ियों की सुविधा उच्चवर्ग के ही पहुँच में क्यों है? तो यह है पिछड़ों के साहित्यिक विषय की संकल्पना। इन विषयों पर लिखनेवाले कितने पिछड़े लेखक हैं?

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में चाँऊरवाले बाबा ने किस दिन किस खेत में हल चलाया? फिर चाँऊरवाले बाबा कैसे बन गया? चाँऊरवाले बाबा शब्द एक ब्राह्मण श्यामलाल चतुर्वेदी ने ही दिया न षडयंत्रपूर्वक। इसे ’सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’ नहीं समझ पाया? खराब कौन है - मैं, आप या वो? मुझे मालूम है कि मेरे इस साक्षातकार को हमारे परिषद् के साहित्यकार पढ़कर कटु आलोचना करेंगे। आलोचना हो तो सामाजिक चेतना के, भाईचारे के रास्ते खोलती है। मुझे लगता है, आपके प्रश्न और मेरे उत्तर पाठकों की स्वतंत्र, समान चेतना को जागृत करेंगे। गांधी-अंबेडकर, ओमगोलवेर और सुरेश पंडित के अनुसार विचारों में एक मंच पर आ ही रहे थे कि गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी, और यह सिलसिला रुका नहीं है। बाद के वर्षों में लोहिया और अंबेडकर रहे नहीं। प्रेमचंद बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो गए।  टैगोर साहित्य मानवता क्षेत्र में छाये रे। इन पाँचों के विचार दलित-बहुजन-आदिवासी साहित्य पर अनेक शताब्दियों तक छाये रहेंगे। पर मेरा लिखा सब पढ़े, मैं दूसरों का लिखा न पढ़ूँ वाली मानसिकता क्या भला होगा? भारत में पिछड़ावर्ग छोड़कर जिन पुस्तकों का नाम लिया है सभी को मैंने पढ़ा है। ’’भारत में पिछड़ा वर्ग’’ के रूपये भेजने के बाद भी यह पुस्तक अभी तक नहीं मिली, छः साल हुए। मैं पुस्तकें खरीदकर पढ़ता हूँ, चुराकर भी। त्याग और बलिदान चाहिए ही।
यशवंत
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गुरुवार, 13 जून 2019

चित्र कथा


1977 - श्री खुमानलाल साव चंदैनीगांदा टीम के साथ राजघाट पर। तत्कालीन सांसद श्री चन्दूलाल चंद्राकर के प्रयास से - सौजन्य श्री प्रमोद यादव
 श्री खुमानलाल साव 1973 - सौजन्य श्री मिलिंद साव

शनिवार, 8 जून 2019

छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत एवम लोकसंस्कृति के संरक्षक, संवाहक एवम उन्नायक, चंदेनी गोंद के संचालक - मोर संग चलव रे, ओ गाड़ीवाला रे, बखरी के तु्मानार बरोबर, जैसे अनेक सुमधुर छतीसगढ़ी गीतों को सुरों में डालनेवाले, संगीत एवम नाटक अकादमी, भारत शासन, सम्मान से सम्मानित श्रद्धेय खुमान लाल साव के दुःखद अवसान का समाचार मिलने से मैं स्तब्द्ध हूँ। अपने शिष्यों और अनुयायियों में खुमान सर के नाम से समादृत श्री खुमान लाल साव का गुजर जाना छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत एवम लोकसंस्कृति के लिए अपूरणीय क्षति है। वे एक जीवित किंवदंती थे। लोकसंगीत, लोककला, एवम साहित्य के पारखी और इनके जानकारों को सम्मान देनेवाले थे। सहज ही लोगों से जुड़ जानेवाले और लोगों को जोड़ लेनेवाले गुणी और पारखी, छत्तीसगढ़ के महान संगीत साधक श्री खुमान लाल साव अमर हो गये हैं। 
विनम्र श्रद्धांजलि, प्रणाम।

सोमवार, 3 जून 2019

अनुवाद

नाऊ के दुकान म - अंतोन चेखव
AT THE BARBER'S - Anton Chekhov 

(छत्तीसगढ़ी म अनुवाद - कुबेर)


बिहिनिया, सात घला नइ बजे रिहिस अउ मकर कुजमिच बाइलॉस्टकेन के दुकान हर खुल गे रिहिस। नाऊ हर खुदे बसियहा, चीकट अउ चिरहा कपड़ा पहिरे रिहिस अउ तेइस साल के एक झन जवान के हजामत करे म भिड़े रिहिस। रोखे-रुखायबर कुछुच नइ रिहिस तभो ले वोहर अपन पसीना बोहावत रिहिस। एक जघा ल वोहर फरिया म पोछिस, दूसर जघा ल वोहर अपन नाखून म कुछ खुरचिस अउ एक ठन जुंआ ल धर के  कोठ म मसक के मारिस।

नाऊ के दुकान हर नानचुक, सकेला अउ गंदा रिहिस। लकड़ी के लट्ठा के दिवार मन म सूक्ति वाक्यवाले कागज अउ कोचवान के मामूली कपड़ा टंगाय रिहिस। दू ठन झेंझरहा, नान्हें-नान्हें खिड़की के बीच म एक ठन पतला,  टुटहा अउ चरमरा के खुलनेवाला दरवाजा रिहिस, नम हरियर खिड़की के ऊपर एक ठन घंटी टंगाय रिहिस जउन हर हालत रिहिस अउ बिना बजाय घला झझके के लाइक बाजत रिहिस। एक ठन दीवार म दरपन टंगाय रिहिस जेमा देखे ले चेहरा हर सब कोती ले टेड़गा-मेड़गा अउ बड़ा भद्दा दिखय। विही दरपन के आगू म बइठ के डाढ़ी बनाय के अउ चूंदी काटे के काम होय। नानचुक टेबुल कना बसियहा, चीकट अउ चिरहा कपड़ा पहिरे मकर कुजमिच बाइलॉस्टकेन हर खड़े रहय। टेबुल म सबो जिनिस - कंघी, कैची, उस्तरा, मेछा म लगाय के मोम के डब्बा, पावडर के डब्बा, पानी के सीसी, कोलोन इत्र अउ सच केहे जाय तब नाऊ दुकान के जम्मो जिनिस माढ़े रहय जेकर कीमत हर कुल मिला के पंद्रा कोपेक ले जादा नइ रिहिस होही।

बिगड़हा घंटी के किकियाय के आवज आइस अउ घाम म सुखा के साफ करे भेड़ के खाल के लांगबूट पहिरे एक झन आदमी हर दुकान म आइस। वोकर मुड़ी हर नरी के आवत ले महिलामन के ओढ़े के शाल म लपटाय रिहिस।

येहर मकर कुजमिच के गुरू एरास्ट इवानिच यागोदोव रिहिस। एक समय येहर कंन्सीस्ट्री (गिरिजाघर के न्यायालय म) म चैकीदार के काम करल मनखे हरे। अब वोहर रेड पाॅण्ड (लाल तरिया) के नजीक म रहिथे अउ तारा-कुची बनाय के लोहारी काम करथे।

’’मकरुस्का, मोर अच्छा दिन के प्यारा बच्चा!’’ वोहर मकर कुजमिच ल किहिस जउन हर वोकर ले नाराज रिहिस। दुनोझन एक दूसर ल चूमिन। यागोदोव हर अपन मुड़ी ले शाल ल निकालिस, अउ अपन आप ल संभाल के बइठ गिस। ’’लाल तरिया हर इहाँ ले बिकट दुरिहा हे,’’ वोहर आह भरिस, गला ल साफ करिस अउ किहिस, ’’उहाँ ले, लाल तरिया ले कलूगा गेट तक रेंगत आना कोनो ठट्ठा मजाक नो हे।’’

’’बने-बने।’’

’’का बताव मोर बेटा, कहिथे न - ’दुब्बर बर दू असाड़, मोला जर धर ले रिहिस।’’

’’मोला तो आपमन खबर नइ करेव।’’

’’हव, महीना भर ले खटिया धरे रेहेंव। मंयहर तो सोचत रेहेंव, मरि जाहूँ का। जर म बिक्कट तपे हंव। अब तो मोर चूंदीमन घला झर गिन हें। डाक्टर मन के कहना हे कि येला मुड़ा लेबे। उंकर कहना हे कि फेर घमघम ले नवा अउ मजबूत चूंदी जाग जाही। इही पाय के मंय हर सोचेव कि मकर कुजमिच कना चलना चाही, आखिर तोर ले जादा अच्छा संबंध मोर अउ काकर ले हे, वोहर सांवर घला बनाही अउ एको पइसा घला नइ लेही। घर ले तोर दुकान हर बिकट दुरिहा हे, पन वोकर ले का होथे? रेंगना घला जरूरी हे। विही पाय के आ गे हंव।’’

’’हाँ, खुसी-खुसी करहूँ। कृपा करके बइठव।’’ अपन गोड़ म छू के एक ठन कुरसी कोती इसारा करत मकर कुजमिच हर किहिस। 

यागोदोव हर खाल्हे म बइठ गिस अउ दरपन के प्रतिबिंब म अपन मुँहू  ल देख के बड़ा खुस हो गिस। दरपन के प्रतिबिंब म चेहरा हर टेड़गा-मेड़गा बने रहय, भदर्रा ओंठ, चेपटा नाक अउ आँखींमन हर माथा के ऊपर म। मकर कुज्मिच हर गिराहिक के खांद म सफेद चद्दर ओढ़ा दिस जउन म पींयर रंग के धब्बा बने रहय अउ कैंची धर के चूंदी ल काटे लगिस। 

’’मंय हर आपके चमड़ी ल साफ करे बर रोखहूँ’’ वोहर किहिस।

’’बने ढंग ले, ताकि मंय हर झक ले दिखंव, बम बरोबर। चूंदी मन सब घमघम ले हो जाहीं।’’

’’काकी हर कइसे हे?’’

’’बहुत सुदर ढंग ले हे। एक दिन पहिली वोहर जचकी करायबर प्रधान महिला के घर गे रिहिस। वोहर वोला एक रूबल दिस हे।’’

’’वाह! सही म, एक रूबल। ... अपन कान ल पकड़ के राख ...।’’

’’मंयहर पकढ़े हंव न ......तोर तीर मुड़ी रोखवाय के मोर इच्छा नइ रिहिस। ओय ... पिरावत हे! मोर चूंदी ल खींच झनी न।’’

’’कुछू नइ होय न। वोतका तो करेच परही, येमा हम आपके कोनो मदद नइ कर सकन। ... अउ एस्टावना हर कइसे हे?’’

’’मोर बेटी हर? वहू हर एकदम ठीक हे। आजकल वोहर खुसी म एकदम उछलत हे। पीछू हफ्ता, बुधवार के दिन हम शेखिन संग वोकर मंगनी कर देयेन। तंय हर काबर नइ आयेस?’’

कैंची के चलना बंद हो गिस। मकर कुज्मिच के हाथ हर ओरम गिस, घबरा के वोहर पूछिस, ’’काकर मंगनी कर देस?’’

’’अन्ना के।’’

’’वो कइसे? काकर संग।’’

’’शेखिन के संग। प्रोकोफी पेट्रोविच। ज्लाटवेटस्की लेन म वोकर काकी हर हाउसकीपर हे। वोला बेहद अच्छा सुभाव मिले हेे। पूछमत, हम सब बेहद खुस हन, भगवान के किरपा हे। हफ्ताभर म हम वोकर बिहाव कर देबोन। तंय हर जरूर आबे, हमला बहुत अच्छा मौका मिले हे।’’

’’पन ये सब कइसे होइस, इरास्ट इवानिच?’’ मकर कुजमिच हर अचरज खा के, उदास हो के अपन खांद ल उचकावत किहिस। ’’ये तो बिलकुल असंभव हे। काबर, अन्ना एस्टोवॉना .... मंय हर वोला मनेमन चाहथंव। मोर मन म वोकर खातिर प्रेम हे। ये सब कइसे होगिस।’’

’’कइसे, हम हर रिस्ता ले के गेन अउ वोकर मंगनी कर देन। वोहर एकदम अच्छा लड़का हे।’’

मकर कुजमिच के चेहरा म ठंडा पसीना चुचवा गिस। वोहर कैंची ल टेबुल म मढ़ाइस अउ अपन मुठा म अपन नाक ल रगड़े लगिस। ’’वोकर संग बिहाव करे के मंयहर सपना देखे रेहेंव’’ वोहर किहिस, ’’ये नइ हो सकय, इरास्ट इवानिच, मंय ... मंय हर वोला प्यार करथंव अउ वोला मंय हर अपन दिल के बात ल बताय घला रेहेंव ..... अउ काकी हर घला वादा करे रिहिस। मंय हर बाप के समान आपके इज्जत करत आवत हंव..... आपके सांवर बानाय के कभू मंय हर पइसा नइ लेयेंव। मंयहर हमेसा आपके ऊपर एहसान करेंव। जब मोर बाप हर मरिस तब तंयहर हमर सोफा ल अउ दस रूबल नगद लेय रेहेस जउन ल आज तक नइ लहुटायेस, सुरता हे कि नहीं?’’

’’सुरता! मंय बिलकुल सुरता करथंव। वोकर संग तोर जोड़ी कइसे खपही मकर कुज्मिच? वोकर संग फबे के लाइक तोर तीर का हे। न तो तोर तीर पइसा हे अउ न तोर कोनो इज्जत हे। तोर काम तो एकदम मामूली हे।’’

’’अउ शेखिन हर धनवान हे का?’’

’’शेखिन हर तो यूनियन के मेंबर हे। वोहर डेढ़ हजार ले जादा गिरवी रख के उधार बगराय हे। इही पाय के मोर बच्चा ........ अब ये बिसय म अउ जादा गोठियाना उचित नइ हे .......... अब येमा बिलकुल रद्दोबदल नइ हो सकय मकरुस्का। तंय हर अब दूसर लड़की खोजे के सुरू कर दे .... दुनिया हर अतका छोटे नइ हे। जल्दी मोर चूंदी ल कांट। काबर रुक गेस।’’

मकर कुजमिच हर एकदम चुप होगिस, कांटो तो खून नहीं। वोहर अपन जेब ले उरमाल निकालिस अउ रोय लगिस।

’’अरे! ये का ये?’’ इरास्ट इवानिच हर वोला धीरज बंधाइस। ’’छोड़ वो बात ल, जावन दे, डौकी मन समान रो झन। पहिली मोर मुड़ी ल मुड़ तहांले रोवत रहिबे। कैंची ल उठा।’’

मकर कुज्मिच हर कैंची ल उठाइस, मिनटभर वोकर डहर देखिस अउ कैंची ल फेर टेबुल म मढ़ा दिस। वोकर हाथ हर कांपत रिहिस। ’’मंयहर अभी नइ कांट सकंव,’’ वोहर किहिस, ’’अभी मंयहर ये नइ कर सकंव। मोर हाथ म अब ताकत नइ हे। मंय हर बेहद दुखी हंव। वहू हर बेहद दुखी होही। हम एक-दूसर ल प्यार करथन, मह दूनो एक-दूसर ले वादा करे रेहेन अउ निर्दयता पूर्वक जालिम मन हर हमला अलगा दिन। दूर हट जा, इरास्ट इवानिच,  मंय हर अब तोला फूटे आँखी घला नइ देख सकंव।’’ 

’’मकरुस्का, तब मंय हर काली आहूँ, तंय हर बांकी काम ल काली कर देबे।’’

’’ठीक हे।’’

’’तंयहर अपन आप ल संभाल। मंयहर काली बिहिनिया आहूँ।’’

एरास्ट इवानिच के मुड़ी हर आधा मुड़ाय रिहिस अउ वोकर कोनो अपराधीमन कस दिखत रिहिस। वोहर बड़ा भद्दा दिखत रिहिस, पन अब वोकर सामने अउ दूसर चारा नइ रिहिस। वोहर शाल म अपन मुड़ी ल लपेटिस अउ नाऊ दुकान ले निकल गिस। अब मकर कुजमिच हर बिलकुल अकेल्ला हो गिस अउ वोहर दंदर-दंदर के रोय लगिस।

दूसर दिन बिहिनियच ले एरास्ट इवानिच हर फेर धमक दिस। 

’’आखिर तंय हर का चाहथस?’’ मकर कुजमिच हर वोला सांत भाव ले पूछिस।

’’मकरुस्का, मोर चूंदी ल रोख दे। अभी आधा बांचे हे।’’

’’कृपा करके पइसा पहिली दे दे। पइसा झोंके बिना मंय हर नइ कांटंव’’

एरास्ट इवानिच हर कुछुच नइ किहिस अउ दुकान ले निकल गिस। वो दिन ले वोकर एक डहर के बाल हर लंबा अउ दूसर कोती के हर बुचवा हे। पइसा दे के बाल कटनवाना वोहर फिजूलखर्ची मानथे। अब वोहर बुचवा  बाल मन के बाढ़े के अगोरा म बइठे हे।

वोहर इही हालत म अपन बेटी के बिहाव म जम के नाचिस।
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रविवार, 2 जून 2019

अनुवाद

18. एक गूढ़ प्रवृत्ति
AN ENIGMATIC NATURE

(छत्तीसगढ़ी अनुवाद - कुबेर)

रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी डब्बा के लाल मखमलवाले सीट म एक झन सुंदर महिला अधलेटी हो के बइठे रिहिस। वोकर हाथ म एक ठन महँगा रोएँदार पंखा रिहिस जउन ल वोहर रहि-रहि के डोलवत रहय, वोकर नानचुक सुंदर नाक म कमानीदार चस्मा चढ़े रहय, वोकर छाती के हार ह समुद्र म तंउरत डोंगा कस खाल्हे-उप्पर होवत रहय। वोहर बहुत जादा उत्तेजित हालत म रिहिस।

वोकर आगू वाले सीट म बिसेस आयोग के प्रांतीय सचिव हर बइठे रिहिस। वोहर एक नवा, जवान लेखक रिहिस अउ समय-समय म आदर्स जीवन के लंबा-लंबा कहानी लिख-लिख के, जउन ल वोहर 'लघु उपन्यास’ कहय, प्रांत के सबले बड़े अखबार म छपवावत रहय। वोहर वो महिला के चेहरा ल जानबूझ के एक विसेसज्ञ के नजर ले, टकटकी लगाके देखत रहय। वोहर वोकर दुरलभ उत्तेजित चेहरा के गूढ़ प्रवृत्ति के एक-एक ठन रंग-ढंग के परख करत रिहिस अउ समझे के कोसिस करत रिहिस। वोला सब समझ म आ गिस, वोकर थाह ले डरिस। जउन हर वोकर आगू म लेटे रिहिस वोकर आत्मा, वोकर मनोवृत्ति,  वोला सब समझ म आ गिस।

’’ओह, मंयहर सब समझ गेंव, मंयहर आप ल अच्छा ढंग ले, आपके मन के भीतरी तह तक समझ गेंव।’’ बिसेस आयोग के प्रांतीस सचिव हर वोकर हाथ ल वोकर कंगन तीर चूमत किहिस, ’’आपके भावुक, द्रवित आत्मा हर ........ के चक्रव्यूह ल टोर के भागे के कोसिस करत हे, आपके मन म चलनेवाला कसमकस ह बड़ा भयानक अउ दुखदायी हे। पन आप धीरज मत खोवव, निरास झन होवव। जीत आपेच के होही, हाँ।’’

’’मोर बारे म लिख, वोल्देमार!’’ निरास हँसी हाँसत सुंदर महिला हर किहिस, ’’मोर जीवन बेहद संपन्न हे, सब साधन हे, सुख-सुविधा ले भरे पड़े हे, अतका सब होय के बावजूद मंयहर दुखी हंव। मंयहर दोस्तोवस्की के उपन्यास के दुखी आत्मा के समान हंव। मोर आत्मा के दुखित होय के रहस्य का हे, वोल्देमार, मोला बता। मोर आत्मा ल कब्जा करनेवाला प्रेत ला बाहिर निकाल। आपमन ह मनोवैज्ञानिक हरव। अभी संग म सफर करत घंटाभर घला नइ होय हे अउ आपमन मोर मन के थाह ले डरेव।’’

’’मोला अपन बारे म सब बात ल बतावव, मंयहर आप ल परेसान करहूँ, बतावव।’’

’’त सुन, मोर बाप हर क्लर्क जइसे छोटे पद म रिहिस। हिरदे ले वोहर बहुत अच्छा रिहिस, बहुत समझदार रिहिस, पन जमाना के रंगढंग - वोकर तीर-तखार के माहौल - आप समझ गेव न? ...... मंयहर अपन गरीब बाप ल कोनो दोस नइ देवत हंव, वोहर सराब पीइस, जुआ खेलिस, घूस लिस। मोर माँ रिहिस - पन वो का कहितिस? गरीबी अउ रोज के रोटी के संघर्ष - वोकर आत्मा ल कमजोर बना दे रिहिस। आह, ये सब ल सुरता करे बर मोला मजबूर झन कर। मोला अपन भविस्य खुद बनाना रिहिस। बोर्डिंग स्कूल के राक्षसी पढ़ाई के बारे म आप जानथव, मूर्खतापूर्ण उपन्यास मन के पढ़ाई, जवान होवत उमर के पहिली गलती, मन म प्यार के पहिली कसक। जीवन के अस्थिरता अउ जीवन म आत्मविस्वास खोय के दरद, चाहे कोनो होय, ये सब बहुत भयानक रिहिस। आह! आप लेखक हव। आप हमर जइसे महिला के दुख ल बने ढंग ले समझथव। आप समझ सकथव। आपेआप मोर सुभाव म उलझाव आ गिस। मोला खुसी के तलास रिहिस - पन वो खुसी मोला मिलिस? मोला अपन आत्मा के सुतंत्रता के चाह रिहिस! हाँ इही रद्दा म मोला अपन जीवन के खुसी दिखिस।’’

’’आप एक पुण्यात्मा हरव।’’ लेखक हर टुड़बुड़ाइस अउ कंगन तीर वोकर हाथ ल चूम लिस। मंय हर आप ल चूमत नइ हंव, भलुक ये हर दुखी मानवता खातिर हरे। आप ल रस्कोलनिकोव अउ वोकर चुंबन के सुरता हे?’’

’’ओह, वोल्देमार, मंय हर गौरव हासिल करे खातिर तरसत हंव। यश, सफलता अउ अइसन चीज हर विनीतभाव ल काबर प्रभावित करथे? हर व्यवहार सामान्य ले ऊपर। मंयहर कुछ असाधारण चीज प्राप्त करे खातिर तरसत हंव, एक सामान्य महिला ले बहुत ऊपर के उपलब्धि हासिल करे के कोसिस करेंव। अउ तब .. अउ तब, तब कोनो न कोनो मोर रस्ता म आ गिस। एक झन बुढ़वा जनरल, बहुत अच्छा आदमी। मोला समझे के कोसिस करव,वोल्देमार! येला मोर आत्म बलिदान अउ त्याग के रूप म आप देखव। येकर ले जादा मंय अउ कुछू नइ कर सकत रेहेंव। मंय हर वोकर परिवार ल सुखी बना के अच्छा जीवन देय के प्रयास करेंव। मंय हर अउ कतका सहितेंव, कतका विद्रोह करतेंव, वो सब मोर खातिर घिनौना रिहिस, जउन वोकर संग रेहेंव। हालाकि मंयहर वोकर प्रति ईमानदार रेहेंव। वहू हर अपन डहर ले ईमानदारी ले कोसिस करिस। कुछ पल.... बड़ा भयानक होथे, .. पन मोर मन म ये विचार रिहिस कि बुढ़वा के मौत होय के बाद मंय हर अपन मन के मालिक हो जाहंव। मनपसंद आदमी ल अपन आप ल सौंप के मंय खुस हो जाहंव। एक आदमी अइसन हे, वोल्डेमार, सच म। हे उहाँ।’’

वो सुंदर महिला हर अपन हाथ के पंखा ल रटठा के घुमाय लगिस। वोहर रोनहू हो गिस। आगू केहे के सुरू करिस, ’’अउ आखिर म एक दिन वो बुढ़वा हर मर गिस। वोहर मोर खातिर कुछ छोड़ के मरिस। मंय हर अगास म उड़त चिरईया कस बिलकुल सुतंत्र हो गेंव। अब मोर बर खुस होय के समय हे, हे न वोल्देमार? खुसी हर मोर खिड़की कोती ले दस्तक देवत हे, वोला बस भीतर आवन देना हे ... पन वोल्देमार, सुन, मंय हर आप ल उलझावत हंव। अब मोर मरजी हे कि मंय हर अपन आप ल वो आदमी के हाथ म सौंपंव, जेकर ले मंयहर प्यार करथंव, वोकर जीवन संगिनी बन सकंव, वोकर मदद कर सकंव, वोकर आदर्श ल निभा सकंव, खुसी के खातिर, आराम के खातिर ... पन हमर जीवन हर कतका निरासाजनक, कतका कठोर, कतका उबाऊ अउ कतका मूखतापूर्ण हे वोल्डेमार। मंय हर मनहूस हंव, मनहूस, करमछंडी। अब मोर रास्ता म अउ बाधा आ गे हे। मोला लगथे कि खुसी हर अब मोर ले अउ जादा दुरिहा गिस हे, बहुत दुरिहा गिस हे। हाय, जीवन म कतका दुख अउ पीर हे। कास, कि मोर दुख ल आप समझ सकतेव।’’

’’पन आपके रास्ता म अब का अड़चन आ गिस हे? मंय आप से बिनती करथंव, मोला बतावव। कोन से बाधा हे?’’

’’एक झन दूसरा बुढ़वा जनरल, एकदम से .......’’

टुटहा पंखा म वोकर सुंदर सूरत हर ढंकाय रिहिस पन कतका ढंकाही। लेखक हर मुठा बाध के अपन बिचार ल झकझोरिस ....... मनोविज्ञान के ज्ञाता के भौंह हर सकला गिस अउ वोकर बिचार मन हर हवा म उड़ा गिस। 

रेलगाड़ी के इंजिन हर सीटी बजावत सरके लगिस अउ खिड़की के परदा मन के रंग हर बूड़त सूरज के आभा म लाल हो गिस।
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टीप:- 
1 मानव आत्मा के संताप अउ दुख - रूस के महान उपन्यासकार फ्योदोर दोस्तोएव्स्की के महान उपन्यास ’अपराध अउ दंड’ के प्रमुख विसय।
2. फ्योदोर दोस्तोएव्स्की के महान उपन्यास ’अपराध अउ दंड’ के प्रमुख पात्र रस्कोलनिकोव के कथन डहर संकेत।
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शनिवार, 1 जून 2019

अनुवाद

खुसी - अंतोन चेखव
JOY -  Anton Chekhov

(छत्तीसगढ़ी म अनुवाद - कुबेर)

रात के बारा बजे रिहिस।

मित्या कुलड्रोव हर खुसी के मारे नाचत-कूदत अपन माता-पिता के खोली कोती दंउड़िस। वोकर चुदी-मुड़ी के ठिकाना नइ रिहिस। वो हर ये खोली ले वो खोली दंउड़े लगिस। वोकर माता-पितामन पहिलिच सुत गे रिहिन। बहिनी हर कोनो उपन्यास के आखिरी पन्ना ल पढ़त अपन पलंग म ढलगे रिहिस। संग म स्कूल जवइया भाई तको हर सुत गे रिहिस।

’’कहाँ ले आवत हस?’’ वोकर माता-पितामन चकित हो के चिल्लाइन। ’’बात का हे?’’

’’ओहो! झन पूछव! मंयहर सोचे तको नइ रेहेंव; सपना म घला नइ सोचे रेहेंव। ये .... येहर एकदम ठीक होय हे, विस्वास नइ होवत हे।’’

मित्या हर जोरदार हाँसिस अउ आरामी कुर्सी म धड़ाम ले बइठ गिस। वोहर अतका खुस रिहिस कि खड़ा घला नइ हो पावत रिहिस। ’’सुन के आपमन ल बिलकुल बिसवास नइ होही। आप सोच घला नइ सकव।’’

वोकर बहिनी हर चद्दर ल फेंक के झकनका के उठिस अउ आइस। संग म स्कूल पइया भाई घला हर उठ के आ गिस। 

’’बात का हे? पहिली तो कभू अइसन नइ करत रेहेस।’’

’’वो ये पाय के माँ, कि आज मंयहर बेहद खुस हंव। का तोला पता हे कि अब पूरा रूस हर मोला जान गिस। पूरा रूस हर। फकत तुहींचमन नइ जानव कि रूस म दिमित्री कुलड्रोव नाम के एक झन पंजीकरण क्लर्क हे। आज पूरा रूस हर जान गिस। मम्मी, ओहो, हे भगवान।’’

मित्या हर उछल के खड़े हो गिस। खोलीमन म  खाल्हे-ऊपर दँउड़े लगिस अउ आ के फेर बइठ गिस।

’’आखिर होइस का? ढंग से समझा के तो बता।’’

’’आपमन बिलकुल जंगली जानवर कस रहिथव, अखबार थोरको नइ पढ़व, अउ अखबार म का छपे हे वोकरो ऊपर धियान नइ देवव, अउ अखबार म बहुत कुछ रोचक बात छपे रहिथे। कहाँ, का-का होवत हे, सब तुरत पता चल जाथे, कुछू नइ छिप सके। आज मंय कतका खुस हंव! हे भगवान! जनता हर विही ल जानथे, जेकर नाव हर अखबार म छपथे, अउ आज मोर नाव हर छपे हे।’’

’’का मतलब?’’कहाँ?’’

बाप के मुँहू हर उतर गिस। माँ हर पवित्र फोटू डहर देख के क्रास के चिनहा बनाइस। स्कूलवाले भाई हर जइसन पहिरे रिहिस, छोटकुन कुरता, वइसनेच अपन बिस्तर ले कूद के भाई कना आ गिस।

’’हाँ! मोर नाव छपे हे! अब पूरा रूस हर मोला जानथे। माँ! यादगार बनायबर ये अखबार ल संभाल के रख ले। जब-जब सुरता आही, निकाल के पढ़ लेय करबोन। ये देख।’’

मित्या हर अपन जेब ले अखबार निकालिस अउ अपन बाप के हाथ म दे दिस अउ नीला पेंसिल ले लगे निसान कोती अंगरी ले इसारा करत किहिस, ’’येला पढ़।’’

बाप हर आँखी म चस्मा चढ़ाइस।

’’येला पढ़ न।’’

माँ हर फेर पवित्र फोटू डहर देख के क्रास के चिनहा बनाइस। पापा ह खखार के गला साफ करिस अउ पढ़े के सुरू करिस, ’’29 दिसंबर के रात के ग्यारा बजे दिमित्री कुलड्रोव नाम के एक झन पंजीकरण क्लर्क हर .........।’’

’’देखे, देखे, आगू पढ़ न।’’

’’ ...... दिमित्री कुलड्रोव नाम के एक झन पंजीकरण क्लर्क हर लिटिल ब्रोननिया म कोजीहिन के इमारत ले बीयर पी के नसा के हालत म आवत रिहिस ......।

’’वो मिही हरंव, मंय अउ शिमोन पेट्रोविच। बिलकुल जस के तस छपे हे। आगू पढ़व! सुनव।’’

’’ ...... नसा के हालत म आवत रिहिस अउ लड़भड़ा के इवान ड्रॉटोव नाम के युहनोव्स्की जिला के दुरिकिनो गांव के एक किसान स्लेज चालक के घोड़ा के खाल्हे गिर गिस। घोड़ा हर डर के मारे कुलड्रोव ला खूंदत, अउ स्लेज गाड़ी हर वोला रेतत निकल गिस। संग म स्लेज सवार, मास्को के दुसरा व्यापारी संघ के स्टीफन लुकोव हर घला चपका गिस। मुहल्लावाले मन उठाइन। कुलड्रोव ल, जउन हर बेहोस हो गे रिहिस, पहिली पुलिस थाना लेगे गिस जिहाँ डाॅक्टर मन वोकर जांच करिन। वोकर मुड़ी के पीछू कोती चोट के निसान पाये गिस .....’’

’’ये बिलकुल मामूली चोट हरे पापा, बाकी ल पढ़ न।’’

’’....... वोकर मुड़ी के पीछू कोती चोट के निसान पाये गिस जउन हर जादा गंभीर नइ निकलिस। कानून के अनुसार घटना के रिपोट लिखा दे गे हे। घायलमन ल चिकित्सा सुविधा प्रदान कराय गिस ........’’

’’वोमन मोला ठंडा पानी म घाव के सेंकाई करे बर केहे हे। अब तंय पढ़ डरेस न? ओह, सही बात हरे निही। रूस भर के आदमीमन मोला जान गिन। अब अखबार ल मोला दे दे।’’

मित्या हर अखबार ल अपन कब्जा म ले लिस अउ वोला मोड़मुड़ा के अपन खीसा म घर लिस।

’’अब मंय हर मकारोव्स कना जाहूँ अउ वहू ल येला देखाहूँ।’’ .....  इवानित्सकिस, नटास्या इवानोव्ना, अउ अनीसिम वासिलीच ल घला देखाहूँ  ...... गुड बाय।’’

मित्या हर टोपी पहिरिस, वोकर कलगी ल सुधारिस अउ जानामानो कोनो लड़ाई जीत के आय होय, मारे खुसी के गली कोती भाग गिस।
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टीप:- पंजीकरण क्लर्क हर रूस म सबले छोटे सरकार पद होथे।