बुधवार, 26 फ़रवरी 2014
सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
आलेख
छत्तीसगढ़ी भाखा म हाना बिचार
हाना ह छत्तीसगढ़ी भाखा के परान तो आयेच् येकर सुभाव अउ सिंगार घला आय
मुहावरा, कहावत अउ लोकोक्ति मन भाखा के आत्मा होथंय। छत्तीसगढ़ी म मुहावरा, कहावत अउ लोकोक्ति खातिर एके ठन शब्द हे ’हाना’। जउन बात ल घंटा भर ले प्रवचन दे के कि दसों पेज के पत्री लिख के समझाना मुश्किल होथे वहू ल लाइन-आधालाइन के कहावत नइ ते मुहावरा के जरिया सफा-सफा, फरिया के समझाय जा सकथे। मूरख से मूरख आदमी ह घला मुहावरा, कहावत अउ लोकोक्ति के जरिया कहे गे बात के अर्थ ल साफ-साफ समझ लेथे। येकर एके कारण हो सकथे अउ वो ये कि मुहावरा, कहावत अउ लोकोक्ति मन लोक-व्यवहार, लोक -संस्कृति, लोक-परंपरा, लोक-रीति, लोक-नीति अउ लोक-व्यवसाय के उपज आय। येकर नेरवा ह लोक समाज रूपी जमीन म गड़े रहिथे।
मुहावरा होय कि कहावत होय कि लोकोक्ति होय; अर्थ बोध के हिसाब से सब म एक बात समान हे; सबे म लक्षणा शब्द शक्ति होथे अउ इंकर अरथ निकालत खानी इंकर लक्ष्यार्थ ल ही ग्रहण करे जाथे। मुहावरा अउ कहावत के अंतर मन ह एकदम साफ हे। मुहावरा ह मुख्य वाक्य के बीच म, वोकर हिस्सा बन के, माने वाक्यांश के रूप म ही प्रयुक्त होथे। मुहावरा ल मुख्य वाक्य ले निकाल देय ले वाक्य ह अर्थहीन हो जाथे, उरक जाथे। उदाहरण बर येदे वाक्य ल देखन, - सालिक के एकलौता टूरा ह आजकल छानी म होरा भूँजत हे। इहाँ वाक्य के बीच म प्रयुक्त छानी म होरा भूँजना वाक्यांश ह एक ठन मुहावरा आय। येला मुख्य वाक्य ले अलग कर देय से बचल वाक्य ’सालिक के एकलौता टूरा ह आजकल’ के कोनो अरथ नइ निकल सकय, मतलब ये वाक्य ह उरक गे। कहावत ह अपन आप म सुतंत्र वाक्य होथे। मुख्य वाक्य या कथन के बाद अपन बात ल अउ जादा स्पष्ट करे खातिर, अपन कथन ल अउ जादा वजनदार बनाय खातिर अलग से येकर प्रयोग करे जाथे। मुख्य वाक्य ह अर्थबोध के हिसाब ले पूरा रहिथे अउ कहावत ल हटा देय से घला येकर अर्थ ह जस के तस बने रहिथे। एक ठन उदाहरण देखव - रमेसर ल का के कमी हे। तभो ले वो ह जब देखो तब नाक म रोवत रहिथे। इही ल कहिथे, रांड़ी ह रोय ते रोय एहवाती ह घला रोय। इहाँ ’रांड़ी ह रोय ते रोय एहवाती ह घला रोय’ एक ठन कहावत आय। ये ह वक्ता के मुख्य कथन ल अउ जादा बजनदार बना देय हे। येला निकाल देय से घला वक्ता के मुख्य कथन म कोनों फरक नइ पड़य।
विद्वान मन कहावत अउ लोकोक्ति ल एके मानथें। पर बारीकी ले जांच करे जाय त दुनों के फरक ह जगजग ले दिखाई पड़ जाही। कहावत अउ लोकोक्ति मन लक्षणा के संगेसंग व्यंजना शब्द शक्ति ले घला भरपूर रहिथे। इंकर उद्गम लोक व्यवहार के कोनो अटल अउ मान्य सच्चाई के कोख ले होथे।
लोकोक्ति शब्द के संधि बिलगाव करे ले दू ठन शब्द मिलथे - लोक$ऊक्ति; माने लोक व्यवहार म प्रचलित ऊक्ति। लोक समाज म घटित होय कोनों अइसन विशेष घटना, जेकर असर ह व्यापक होथे अउ तीनों काल म जेकर सत्यता ह अमिट रहिथे, के कोख ले लोकाक्ति के जनम होथे। जादातर लोकोक्ति मन काव्यात्मक होथे अउ येमा अन्योक्ति अलंकार के गुण साफ-साफ झलकथे। खाल्हे के उदाहरण मन ल देखव -
1. कब बबा मरे, त कब बरा चुरे।
2. ददा मरे दाऊ के, बेटा सीखे नाऊ के।
कबीर दास के एक ठन दोहा हे -
माली आवत देख के, कलियन करे पुकार।
फूले-फूले चुन लिये, काल्ह हमारी बार।
ये दोहा म बात होवत हे फुलवारी, फूल, कली अउ माली के, पन इशारा होवत हे मानव जीवन के अटल सच्चाई अउ जीवन के नश्वरता डहर। फुलवारी, फूल, कली अउ माली के उदाहरण दे के ये दोहा म मानव जीवन के अटल सच्चाई अउ जीवन के नश्वरता ल समझाय गे हे। फुलवारी ह संसार, माली ह काल, कली ह बालपन अउ फूल ह सियानापन के सच्चाई ल फोर-फोर के बतावत हे। येला अन्योक्ति अलंकार कहे गे हे। अइसने इशारा लोकोक्ति मन म घला रहिथे।
मुहावरा होय कि कहावत होय कि लोकोक्ति होय, छत्तीसगढ़ी म सबोच ह हाना आय। हाना कइसे बनत होही, येकरो बिचार करके देखथन। येदे कहानी ल देखव -
बुधारू घर के बहू के पाँव भारी होइस, बुधारू के दाई ह गजब खुस होईस। फेर बिचारी ह नाती के सुख नइ भोग पाईस। बहू के हरू-गरू होय के पंदरा दिन पहिलिच् वोकर भगवान घर के बुलव्वा आ गे। बुधारू के बहू ह सुंदर अकन नोनी ल जनम दिस, सियान मन किहिन “डोकरी मरे छोकरी होय, तीन के तीन।”
बहू के दाई ह महीना भर ले जच्चा-बच्चा के सेवा-जतन करिस। दाईच् आय त का होईस, कतका दिन ले अपन घर-दुवार ल छोड़ के पर घर म जुटाही नापतिस, दू दिन बर घर जावत हंव बेटी कहिके गिस तउन हा हिरक के अउ नइ देखिस। लहुटबेच् नइ करिस। लइका के थोकुन अउ टंच होवत ले बहु ह थिराईस, तहन फेर बनी-भूती म जाय के शुरू कर दिस। पर के आँखीं म के दिन ले सपना देखतिस। बनिहार अदमी, के दिन ले घर म बइठ के रहितिस। परोसिन दाई के गजब हाथ-पाँव जोरिस अउ वोला लइका के रखवारिन बने बर राजी करिस। परोसिन दाई के घर लोग-लइका नइ रहय, वहू ह सरको म राजी हो गे।
पर के लइका के नाक-मुहूँ ह के दिन ले सुहातिस। डोकरी ह लंघियांत कउवा गे। साफ-साफ सुना दिस कि अब वो ह ये लइका के जतन नइ कर सकय। कहूँ ऊँच-नीच हो गे ते बद्दी म पड़ जाहूँ।
बहू ह रोजे परोसिन डोकरी के किलोली करय, संझा-बिहाने वोकर पाँव परय। जइसने-तइसने दिन निकालत गिस। परोसिन डोकरी ह कउवा जातिस त कहितिस - “परोसी के भरोसा लइका उपजारे हे दुखाही-दुखहा मन ह। हमर मरे बिहान कर के रखे हें।
ये कहानी म “डोकरी मरे छोकरी होय, तीन के तीन।” अउ “परोसी के भरोसा लइका उपजारना’’ ये दुनों हाना अउ कहानी के घटना म संगत बिठा के देखे ले बात ह समझ म आ जाही।
हाना अउ छत्तीसगढ़ी भाखा के का बरनन-बिखेद करे जाय। छत्तीसगढ़ी भाखा म हाना बिचार करबे ते चकरित खा जाबे। छत्तीसगढ़ी भाखा ह हाना प्रधान भाखा आय। हाना ह येकर परान तो आयेच् येकर सुभाव अउ सिंगार घला आय। छत्तीसगढ़ के गाँव मन म जा के देख लव, बात-बात म, हर वाक्य म हाना सुने बर मिल जाही। छत्तीसगढ़िया मन के कोनों वाक्य ह बिना हाना के संपूरन होयेच् नहीं। जमाना ह अब बदलत जावत हे। लोग लइका मन पढ़त-लिखत जावत हें। छत्तीसगढ़ी भाखा के सरूप ह घला बदलत जावत हे। हाना के प्रयोग ह कम होवत जावत हे। भाखा के मिठास ह उरकत जावत हे। पढ़े-लिखे लइका मन ल अपन मातृ-भाखा ल बोले बर शरम आथे। अब के जवनहा मन अपन गुरतुर मातृ-भाखा ल भुलावत जावत हें, हाना मन ल ये मन का सरेखहीं, का जानहीं? अइसे जनावत हे कि अवइया पढ़े-लिखे पीढ़ी ह हाना ल बिसर जाही। हमर साकेत साहित्य परिषद् के संगवारी मन बाते बात म अइसने भूलत-बिसरत हाना मन ल सकेले-संजोय के प्रयास करे हंे। येकर मात्रा ह कम हे। थोकुन अउ मेहनत करे ले, अउ कोशिश करे ले येकर ले कई गुना हाना अउ सकेले जा सकत हे। ये स्मारिका म सकेले गेय हाना मन के हिन्दी म अरथ बताय के कोशिश घला करे गे हे। सकेले गेय हाना के बनावट अउ वोकर अरथ म चूक होना संभव हे। अइसन कोनों बात होही तब पढ़इया विद्वान संगवारी मन ले निवेदन हे कि हमला वोकर जानकारी देय के कृपा करहीं।
स्मारिका म गीत, कविता, कहानी, व्यंग्य अउ दूसर विधा के रचना मन ल घला सकेले गेय है। स्मारिका खातिर रचना भेजइया जम्मों संगवारी मन के हम हिरदे ले आभारी रहिबो।
जय हिंद-जय छत्तीसगढ़।
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कुबेर
9407685557
Email- kubersinghsahu@gmail.com
9407685557
Email- kubersinghsahu@gmail.com
शनिवार, 15 फ़रवरी 2014
(एकांकी)
(एकांकी)
सतनाम-संदेश
पात्र परिचय
1: तेजोमय व्यक्ति - परमपूज्य गुरूबाबा घासीदास जी
2: श्रद्धालु एक
3: श्रद्धालु दो
4: श्रद्धालु तीन
5: श्रद्धालु चार
6: त्रिपुण्डधारी व्यक्ति
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दृश्य - 1
(मंझनिया के बेरा हे। साल, सागोन आमा, महुआ, चार, तेंदू जइसन वृक्ष मन से आच्छादित जंगल; तोता, मैना, कोयली, रमली, मयूर जइसे नाना प्रकार के चिरई-चिरगुन मन के मधुर कलरव से गुँजायमान अउ हिरण, खरगोश, बघवा, चितवा जइसे वन्यजीव मन के मधुर विहार मन से शोभायमान; नदिया-नरवा, खड़का-ढोड़गा मन के बोहावत निरमल जल के कल-कल करत अवाज से गूँजत, दुरिहा-दुरिहा ले बगरे सुरम्य पर्वतमाला के गोदी म बसे एक ठन गाँव हे। गाँव के पहुँचतिच् म काजल समान स्वच्छ जल से भरे एक ठन बड़े जबर तरिया हे। देख के थके-मांदे आदमी के तन अउ मन के सरी थकान ह माड़ जाय तइसन तरिया के हिलोर मारत जल हे। तरिया के पार म चारों कोती आमा अउ पीपर के बड़े-बड़े रूख हें, जिहाँ गोड़ेला, रम्हली अउ कोयली के संगेसंग नाना प्रकार के कतरो अउ चिरई-चिरगुन मन सुंदर अकन ले चिंव-चाँव, कलर-बिलिर करत हें। तरिया म अलग-अलग घाट बने हें। एक ठन घाट तीर के पार म शंकर भगवान के मंदिर बने हे। तरिया के बाजू म नजर के जावत ले आमा के बगीचा हे। चैत के महीना हे, आमा पेड़ के डारा मन ह झोरथा-झोरथा आमा-मऊर के भार म लहसे जावत हें, चारों खूँट महर-महर खुशबू बगरत हे। तरिया के खाल्हे बाजू खेत-खार बगरे हें, जिंहा गाँव के गाय-गरू मन ह चारा चरत हें। दिन के बारा बजे हे, झांझ चले के बेरा हे, फेर जंगल अउ बाग-बगीचा के असर म झांझ ह घला पुरवाई कस सुंदर लागत हे।
बगीचा ह आदमी मन के मारे सइमो-सइमो करत हे; अतराब के बीसों गाँव के आदमी, नर-नारी, सबो सकलाय हें; मेला-मड़ाई कस भीड़ हे। लीपे-बहरे जघा ह कमती पर गे तब मनखे मन खुदे भुँइया ल चंतरा-चिंतुरी के बइठे लाइक जघा बना के बइठे-बइठे हें। एक ठन अच्छा झपाटा आमा पेड़ के खाल्हे म एक ठन मंच बने हे। मंच ल सफेद तोरन-पताका अउ हार-फूल से सजाय गे हे। पृष्ठभूमि ले मांदर के थाप अउ पंथी गीत के धुन सुनावत हे। बगीचा भर आदमी मन ह अपन-अपन संगवारी मन संग दल बना-बना के बइठे हें अउ परम पूज्य गुरूबाबा घासीदास के महिमा के चर्चा करत हें। एक ठन आमा पेड़ के घुम-घुम ले छँइहा म चार झन आदमी गोठ-बात करत बइठे हें।)
(पृष्ठभूमि ले येदे पंथी गीत के धुन सुनावत हे जउन ह धीरे- धीरे मद्धिम पड़त जाथे। -
’’मंदिरवा म का करे जइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,
अपन घट ही के देव ल मनइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,’’
श्रद्धालु एक - ’’अइसन भीड़ कभू अउ देखे रेहेस भइया?’’
श्रद्धालु दो - ’’तीरथ-घाम म भीड़ काबर नइ होही, एमा का अचरज हे भइया।’’
श्रद्धालु एक - ’’तीरथ-धाम?’’
श्रद्धालु दो - ’’हाँ भइया! तीरथ-धाम। जिहाँ गुरूबाबा के परम पुनीत चरण पड़ने वाला हे, जिहाँ गुरूबाबा ह रम्मत करने वाला हे, जिहाँ गुरूबाबा के अमृत बानी ह गूंँजने वाला हे, वो जघा ह कोनों तीरथ ले कम हे का?’’
श्रद्धालु तीन - ’’(भावविभोर हो के) गुरूबाबा के अमृत वाणी! अहा, अतकेच् बात ल सुन के जीव ह जुड़ा गे भइया; अइसे लागत हे के सात जनम के पाप ह धोवा गे। अहो भाग हमर, के आज गुरू बाबा के दरसन होही।
श्रद्धालु दो - ’’(संगवारी के मन म विश्वास जगाय बर अपन असहमति व्यक्त करथे) सात जनम के पाप के बात झन कर भइया। तोर सात जनम के पुन के परताब आय, जउन आज गुरूबाबा के संउहत दरसन होही, आँखी के जनम-जनम के तिसना ह अघाही, गुरू के मुखारविंद ले अमर-बानी ल सुन के मन ह जुड़ाही, हंसा बर अमर लोक के रद्दा ह चतराही।’’
श्रद्धालु चार - ’’गुरू के मुखारविंद ले अमर-बानी ल सुन के मन ह जुड़ाही, अहा! कतका सुघ्घर गोठ करेस भइया। माता अमरौतिन के लाला अउ मुहगू के दुलारा, गुरूबाबा घासीदास के अमरित बचन ल सुन के अब मनखेच् नहीं चिरई-चिरगुन, रुखराई, जन्तु-जनावर, सबके मन ह जुड़ावत हे, मनखे के मन ह काबर नइ जुड़ही? देखत नइ हस, चैत-बैसाख के महीना म घला इहाँ कतका संुदर, ठंडा-ठंडा, महमहात हवा चलत हे, सबर दिन के उतलंगहा बेंदरा मन कइसे डारा मन म चुपचाप बइठे हें, चिरई-चिरगुन मन गीत गाय बरोबर कतका सुंदर चींव-चींव करत हें, ये डारा ले वो डारा फुदक-फुदक के नाचत हें, सुवा ह बोलत हे, कोइली ह कूकत हे। अइसे लागत हे, मानों आदमिच् नहीं, संसार के सबो चराचर प्राणी मन, गुरूबाबा के दरसन करे बर अगोरा करत हें, वोकर अगुवानी करे बर मंगलाचार गावत हें।’’
श्रद्धालु एक - ’’जंगल डहर ले घला आज बघवा-भालू के हाँव-हूँ के पता नइ चलत हे।’’
श्रद्धालु दो - ’’बघवा-भालू मन ह घला आज हिंसा करे बर भुला गे हें भइया। जंगल म आज तो शेर अउ मिरगा मन एके संघरा किंजरत हें।’’
श्रद्धालु तीन - ’’दुनिया ले हिंसा, पाप अउ अत्याचार के नाश करेच् बर तो सतलोकवासी सत्पुरूष ह ये पृथ्वी म जनम लेथे भइया; कभू संत-महात्मा के रूप म, तब कभू गुरू के रूप म।’’
श्रद्धालु चार - ’’दुनिया ले इही हिंसा, पाप अउ अत्याचार के भावना ल मेट के, सतनाम् के अलख जगाय बर, पृथ्वी म सत्, अहिंसा अउ मानवता के संदेश देय बर तो परम पूज्य गुरूबाबा घासीदास ह रम्मत करत हे, रावटी लगावत हे भइया। तंय ह परम पूज्य गुरूबाबा के उपदेश1 मन ल सुने हस?’’
श्रद्धालु एक - ’’कइसे नइ सुने होबोन भइया; बाबा के वाणी ह तो आज धरती, अगास, चारों मुड़ा, सब कोती गूँजत हे। कइसे नइ सुने होबोन। बाबा के कहना हे ’’सत्नाम ल मानो।’’ (सत्य ही ईश्वर है।)
श्रद्धालु दो - ’’मूर्ति के पूजा मत करो।’’
श्रद्धालु तीन - ’’पर स्त्री ल माता मानो।’’
श्रद्धालु चार - ’’नशापान मत करो।’’
श्रद्धालु एक - ’’मांस-मछरी के सेवन झन करो।’’
श्रद्धालु दो - ’’जाति-पांति के परपंच म झन पड़ो।’’
श्रद्धालु तीन - ’’सरीमंझनिया खेत झन जोतो।’’
श्रद्धालु चार - ’’अउ गुरू बाबा के यहू संदेश हे भइया, मानव-मानव एक समान।’’
श्रद्धालु दो - ’’मानव-मानव एक समान! काबर कि सबो आदमी मन एके सत्पुरूष, परमात्मा के बनाय हें। ऊपर वाला ह दुएच् ठन जाति बनाय हे भइया, स्त्री अउ पुरूष। बाँकी अउ सब जात-पात तो आदमी के बनाय हरे; आदमी-आदमी म भेद पैदा करके, एक दूसर ल लड़ाय के सब उदिम आय, गरीब-बेसहारा अउ निर्बल आदमी के खून चूसे के तरकीब आय। इही पाय के गुरूबाबा ह कहिथे कि जाति-पांति के परपंच म झन पड़ो।
श्रद्धालु एक - ’’भगवान ह कोनों ल अमीर अउ कोनों ल गरीब काबर बनाइस होही भइया?’’
श्रद्धालु दो - ’’भगवान ह कोनों ल अमीर-गरीब नइ बनाय भइया। वो तो सब ल बराबर बनाय हे। सब ल एक बराबर शरीर देय हे। हाथ, गोड़, आँखी, कान अउ दिमाग सब ल वोतकच् देयहे। हवा, पानी, नदिया, जंगल, धरती, अगास ल ककरो नाम म नइ लिखे हे। ये सब तो मनखे मन के हुसियारी आवय। जउन ह अपन हाथ, गोड़, आँखी, कान अउ दिमाग के उपयोग नइ करय, विही ह गरीबी के दुख ल भोगथे।
श्रद्धालु चार -’’बने केहेस भइया। दुनिया म जतका अंधेर हे, सब ह आदमी के करनी आय। भगवान के बनावल चीज, आदमी ह छोटे हो गे अउ आदमी के बनावल चीज, चाहे कोनों पंथ होय कि कोनों ग्रंथ होय वो ह बड़े हो गे, कतका अंधेर हे भइया।’’
श्रद्धालु दो - ’’इही अंधेर ल मेटे खातिर तो माता अमरौतिन के लाला, गरीब-गुरबा, दीन-दुखिया के दुख-तकलीफ हरइया, सुख के देवइया, गुरूबाबा घासीदास जी ह गाँव-गाँव रम्मत करत हे भइया अउ उपदेश देवत हे कि सतनाम्-सतपुरूष; जउन ल आदमी ह भगवान, ईश्वर अउ देवता, नाना प्रकार के नाम से बलाथे, वो ह कोनों मंदिर, कोनों किताब म नइ हे, वो तो घट-घट के वासी हे, सबके घट म बसे हे। मंदिर जाय के का जरूरत हे, इही देवता ल नइ मनाबो?’’
(पृष्ठभूमि से पंथी गीत के धुन -
’’मंदिरवा म का करे जइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,
अपन घट ही के देव ल मनइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,’’
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(रम्मत करइया संत महात्मा मन संग गुरूबाबा घासीदास जी के आगमन होवत हे। चारों मुड़ा जय सतनाम! जय सतनाम! अउ ’गुरूबाबा घासीदास की जय’ गुंजायमान होवत हे।)
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दृश्य - 2
(मंच म दिव्य पुरुष, परमपूज्य गुरूबाबा घासीदास जी ह आसन लगा के ध्यान-मुद्रा म बइठे हे। कांध म जनेऊ अउ माथा म चंदन के टीका हे। मुखमंडल ह दिव्य प्रकाशपुंज के आभा म चमकत हे। भक्त मन ह येदे संुदर गीत ल गावत हें।)
’’सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल,
सत्यनाम हे अधार, अमरित धार बोहाई दे।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत् के महिमा ले, धरती-अगास हे,
धरती-अगास हे।
सत् के महिमा ले, जग म परकास ह,
जग म परकास हे।
ये हंसा ल उबार, सत् म मन ल लगाई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
सत् ले बढ़ के, नइ हे कोनो पूजा,
नइ हे कोनो पूजा।
सत् ले बढ़ के, नइ हे तप दूजा,
नइ हे तप दूजा।
सत् जिनगी के सार, सत् के संग लगई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।
तप के तेल बना, दया के बाती हो,
दया के बाती।
सत् के दीया म, क्षमा के ज्योति हो,
क्षमा के ज्योति।3
मिट जाही सब अंधियार, सत् के जोत जलाई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
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(त्रिपुण्डधारी एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति के अचानक प्रवेश। ये अदमी के चेहरा ह क्रोध के मारे तमतमावत हे। मंच के आगू म जा के वो ह अकड़ के खड़ा हो जाथे। ये सब चीज के हुरहा होय ले सब आदमी मन हक्काबक्का हो जाथें। चारों मुड़ा सन्नाटा पसर जाथे। गुरुबाबा घासीदास जी के घला ध्यान ह टूट जाथे।)
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’अच्छा! तब तहीं हरस घासीदास? जउन जनता ल सतनामी बनाय बर गाँव-गाँव रम्मत करत हस?’’
(बाबा बर त्रिपुण्डधारी व्यक्ति के अपमानजनक बर्ताव ल देख-सुन के जनता भड़क जाथे। चारों झन श्रद्धालु अउ बहुत झन आदमी मन लउठी धर के संघरा वोकर डहर मारो-मारो कहत दंउड़थे। देख के बाबा ह शांत अउ गंभीर वाणी म बोलथे।)
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’शांत! शांत! शांत! शांत हो जावव मोर सतपुत्र हो, शांत हो जावव।’’
श्रद्धालु एक - ’’गुरूबाबा के जय हो। गुरूबाबा, ये आदमी ह आपके अपमान करे बर इहाँ आय हे। येला मजा चखाना जरूरी हे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’शांत! पुत्र, शांत! क्रोध के जवाब ल क्रोध म देना उचित नइ हे। क्रोध करना अउ अपमानजनक भाखा बोलना तो येकर संस्कार म बसे हे। जउन आदमी ह पूरा समाज ल अपन कब्जा म करना चाहथे, वो ह अइसने भाखा बोलथे। जउन ह खुद सम्मान के भूखा हे, वो ह दूसर के सम्मान कइसे करही? अउ फेर सब ल अपन बात कहे के हक हे। विरोधी के शंका-समाधान होना जरूरी हे; इही म सब के कल्याण हे। (़ित्रपुण्डधारी आदमी डहर देख के) हे आत्मा! डर मत, अपन बात ल अब पूरा कर।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - (जउन ह डर के मारे काँपत रिहिस हे, तउन ह बाबाजी के बल पा के, ऊपरी देखावा अकड़ के बोलथे।) ’’मंय ह पूछथंव; भगवान ह जब अलग-अलग जाति पहिलिच् ले बना दे हे तब, एक ठन अउ नवा जाति, सतनामी, बनाय के का जरूरत हे?’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! भगवान ह तो सिरिफ दू ठन जाति बनाय हे, स्त्री अउ पुरुष। बाकी जाति तो आदमी के बनावल आय। इही ह आदमी अउ आदमी के बीच भेद पैदा करे हे। मंय ह तो आदमी ल आदमी बनाय के, आदमी-आदमी के बीच के भेद ल मेटे के कोशिश करत हँव।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जाति ल भगवान ह नइ बनाय हे? सनातन बात ह, धर्म के बात ह, झूठा कइसे हो सकथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! सनातन के अर्थ का होथे? जेकर न जन्म होय अउ न मृत्यु, जेकर न कभू निर्माण होय अउ न कभू विनाश, जउन ह पहिली घला रिहिस हे अउ आगू घला रहिही, विही ह सनातन आय। अउ धर्म? ...... अच्छा, एक बात बता पुत्र, धार्मिक व्यक्ति के का पहिचान हे?’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जेकर आचरण ह शुद्ध हे, जउन ह सत्य के पालन करथे, समाज हित के काम करथे, भलाई के काम करथे, जेकर मन म करुणा, दया अउ प्रेम के भाव भरे हे, वो ह धार्मिक आदमी माने जाथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’अउ अधार्मिक के?’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जेकर आचरण ह शुद्ध नइ हे, जउन ह असत्य बोलथे, समाज के अहित करथे, जेकर मन म करुणा, दया अउ प्रेम के भाव नइ हे, वो ह अधार्मिक माने जाथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’येकर मतलब तो इही होइस पुत्र, कि धर्म अउ अधर्म दुनों के संबंध ह आदमी के आचरण से हे। एक आदमी ह अपन सदाचरण से धार्मिक कहलाथे, तब दुराचरण करइया दूसर आदमी ह अधार्मिक।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - (निरुत्तर हो के, शांत भाव से खड़े हे। वोकर दुनों ठन हाथ मन ह आपे-आप प्रणाम के मुद्र म जुड़ जाथे। वोकर चेहरा म अब न तो क्रोध के भाव हे, अउ न घमंड के।)
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! हे पुत्र! जब तक दुनिया म आदमी हे; तब तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा अउ दया जइसन तत्व के नाश नइ हो सके। इही ह सनातन आय। सत्य-निष्ठा के साथ इही मन ल मानना अउ अपन आचरण म धारण करना सनातन धर्म के पालन करना आय। इही ह सनातन धर्म आय।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’(सहसा) गुरुबाबा घासीदास की जय।’’
(अब तो सब डहर ले एके आवज आवत हे; गुरुबाबा घासीदास की जय। जय सतनाम। पंथी गीत के धुन फेर धीरे-धीरे उभरत जाथे।’’)
सत्य, अहिंसा अउ, प्रेम के पुजारी बन,
प्रेम के पुजारी बन।
मानुष तन ल पाये हस, मन से भी मानुष बन,
मन से भी मानुष बन।
इही धरम हे सार, येकरे धुनि ल रमई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
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1 - गुरु घासीदास जी के सात उपदेश अथवा सिद्धांत तथा बयालीस रावटियाँ सतनामी समाज के आधारभूत प्रमुख प्रेरक तत्व हैं। उनके सात उपदेश इस प्रकार हैं:-
1. सतनाम को मानो। (सत्य ही ईश्वर है।)
2. मूर्ति पूजा मत करो।
3. पर स्त्री को माता मानो।
4. नशापान मत करो।
5. मांसाहार मत करो।
6. जाति-पांति के प्रपंच में मत पड़ो।
7. अपराह्न में खेत मत जोतो।
(लेख - ’सतनामियों की सांस्कृतिक विरासत’; लेखक - साहित्यकार, चिंतक एवं ’सत्यध्वज’ पत्रिका के संपादक श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’)
2 - ये दृश्य के केन्द्रिय प्रसंग ल साहित्यकार, चिंतक अउ ’सत्यध्वज’ पत्रिका के संपादक श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’ के ’गुरू बाबा घासीदास जी का सत्संग’ नामक लेख से लेय गे हे।
3 - सत्याधार स्तय स्तेल, दयावर्ति क्षमाशिखा।
अंधकार प्रवेष्ट थे, दीपो यत्नेन वार्यताम्।।
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कुबेर
शनिवार, 8 फ़रवरी 2014
धम्मपद के सूत्र
धम्मपद के सूत्र
(ओशो साहित्य, एस धम्मो सनंतनो, भाग 7 से संकलित)
(1)
यो च पुब्बे पमज्जित्वा पच्छा सो नप्पमज्जति।
सो’ मं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चंदिमा।।150।।
अर्थ:- जो पहले प्रमाद करके पीछे प्रमाद नहीं करता, वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।
संदर्भ:- बुद्ध के शिष्यों में समंजनी नाम का एक भिक्खु था। बुद्ध कहा करते थे - सदा स्वच्छ रहो। सुनकर समंजनी को सफाई का पागलपन हो गया, हमेशा झाड़ू लिये चलता। एक दिन भिक्षु रेवत ने कहा कि आवुस, सदा बाहर की ही सफाई में लगे रहोगे। अंदर की सफाई कब करोगे। समंजनी को सत्य का बोध हुआ और वह समाधिस्थ हो गया। तथागत ने तब यह सूत्र कहा।
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(2)
यस्स पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो’ मं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चंदिमा।।151।
अर्थ:- जिसका किया हुआ पाप उसी के बाद किये हुए पुण्य से ढंक जाता है, वह मेघ से मुक्त चंद्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है।
संदर्भ:- भिक्षु बनने के बाद अंगुलीमाल जब भिक्षा मांगने गया तब लोगों ने उसे पत्थर मार-मारकर मार डाला। उसके देह छोड़ने पर अन्य भिक्षुओं ने पूछा - भंते! अंगुलीमाल मरकर कहाँ उत्पन्न हुए होंगे? इसके जवाब में तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(3)
अधं भूतो अयं लोको तनुकेत्थ विपस्सति।
सकुंतो जालमुत्तो’ व अप्पो सग्गाय गच्छति।।152।।
अर्थ:- यह सारा लोक अंधा बना है। यहाँ देखने वाला कोई विरला है। जाल से मुक्त हुए पक्षी की भांति विरला ही स्वर्ग जाता है।
संदर्भ:- एक जुलाहे की बेटी तथागत के दर्शन करने के लिए आई।
तथागत ने पूछा - बेटी कहाँ से आती हो?
भंते! नहीं जानती हूँ।
कहाँ जाओगी?
भंते! नहीं जानती हूँ।
क्या नहीं जानती हो?
भंते! जानती हूँ।
जानती हो?
भंते! जरा भी नहीं जानती हूँ।
इस वार्तालाप को सुनकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तब तथागत ने भिक्षुओं को इस वार्तालाप का रहस्य समझाते हुए उपरोक्त सूत्र कहे।।
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(4)
हंसादिच्चपथे यंति आकासे यंति इद्धिया।
नीयंति धीरा लोकम्हा जेत्वा मारं सवाहिनिं।।153।।
अर्थ:- हंस सूर्यपथ से जाते हैं। ऋद्धि से योगी भी आकाश में गमन करते हैं। धीरपुरूष सेना सहित मार को पराजित कर लोक से निर्वाण चले जाते हैं।
संदर्भ:- एक दिन तीस खोजी भिक्षु बुद्ध के पास आए। आनंद द्वार पर था। उसने भिक्षुओं को अंदर जाते हुए देखा परंतु जब वे वापस नहीं आए और अंदर भी कहीं दिखाई न दिए तब उसने बुद्ध से प्रश्न किया कि वे कहाँ चले गए। तब उत्तर में तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(5)
पथव्या एकरज्जेन सगस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं।।154।
अर्थ:- पृथ्वी का अकेला राजा होने से (चक्रवर्ती होने से) या स्वर्ग के गमन से (देवता होने से) अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापति-फल (स्रोतापन्न - जो ध्यान में उतर गया, समाधिस्थ हो गया अर्थात जो स्रोत की तरफ चल पड़ा।) श्रेष्ठ है।
संदर्भ:- अनाथपिंडक नामक एक महादानी धनिक था। वह बुद्ध का भक्त था। उसका काल नाम का एक पुत्र था, वह बुद्ध को सुनने कभी न जाता था। वह कुछ काम भी नहीं करता था। पिता ने बेटे को धन का लालच देकर बुद्ध के पास भेजा कि कुछ तो इसकी आदत सुधर जायेगी। पर बेटा जो गया तो वापिस नहीं लौटा। वह भिक्षु हो गया। तब बुद्ध ने यह सूत्र कहा था।
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(6)
यस्स जित नवजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ।।155।।
अर्थ:- जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई नहीं पहुँच सकता, उस अनंतदृष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?
(7)
यस्स जालिनी विसत्त्किा तन्हा नत्थि कुहिंचि नेतवे।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ।।156।।
अर्थ:- अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतदृष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?
संदर्भ:- छः वर्ष की कठोर तप के पश्चात् तथागत को जब बुद्धत्व की प्राप्ति हुई, उसके तप को डिगाने के लिए मार (शैतान) आया। बुद्ध स्थिर रहे। तब मार ने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। वे भी तथागत को डिगा न सकीं। तब तथागत ने ये सूत्र कहे।
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(8)
ये ज्ञानपसुत्ता धीरा नेक्खम्मूपसमे रता।
देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं।।157।।
अर्थ:- जो धीर ज्ञान में लगे हैं, परम शांत निर्वाण में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं।
संदर्भ:-बुद्ध ने श्रावस्ती के किनारे तीन माह का वर्षावास किया। वे तीन माह तक समाधिस्थ रहे। तीन माह बाद जब वे वापस आए तो भिक्षुओं ने पूछा - इतने दिनों आप कहाँ रहे। तथागत ने कहा - देवताओं के आग्रह पर मैं देवलोक गया हुआ था, वहीं से वापस आ रहा हूँ। भिक्षुओं को आश्चर्य हुआ तब तथागत ने यह सूत्र कहा था।
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(9)
किच्छो मनुस्सपटिलाभो किच्छ मच्चान जीवितं।
किच्छं सद्धम्मसवणं किच्छो बुद्धानं उप्पादो।।158।।
अर्थ:- मनुष्य का जन्म पाना कठिन है; मनुष्य का जीवन दुर्लभ है; सद्धर्म का श्रवण करना दुर्लभ है; और बुद्धों का उत्पन्न होना दुर्लभ है।
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(10)
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा।
सच्चित्तपरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं।ं159।।
अर्थ:- सभी पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, और अपने चित्त का शोधन करना - यही बुद्धों का शासन है।
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(11)
खंती परमं तपो तितिक्खा निब्बानं परमं वदंति बुद्धा।
नहि पब्बजितो परूपघाती समणो होति परं विहेठयंतो।।160।।
अर्थ:- तितिक्षा और क्षांति परम तप हैं। बुद्ध निर्वाण को परम कहते हैं। दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता और दूसरों को सताने वाला श्रवण नहीं होता।
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(12)
अनूपवादो अनूपघातो पातिमोक्खे च संवरो।
मत्तंजुता च मत्तस्मिं पंतंज सयनासनं।
अधिचित्ते चआयोगो एतं बुद्धान सासनं।।161।।
अर्थ:- निंदा न करना, घात न करना, पातिमोक्ष में सम्वर रखना, भोजन में मात्रा जानना और चित्त योग में लगाना - यही बुद्धों का शासन है।
संदर्भ:- बुद्ध ने सर्पराज के निवेदन पर उसके निर्वाण हेतु यह उपदेश दिया था।
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(13)
न कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति।
अप्पस्सादा दुखाकामा इति विंचाय पंडितो।।162।।
(14)
अपि विब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।
तण्हक्खयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको।।163।।
अर्थ:- यदि रूपयों की वर्षा भी हो रही हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती। सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं, ऐसा जानकर पंडित देवलोक के भोगों में भी रति नहीं करता। और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।
संदर्भ:- दहर नाम का एक भिक्षु था। पिता की इच्छा थी कि मरने से पहले वह अपने पुत्र को देख ले परन्तु उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई। मरने से पहले उसने छोटे बेटे को, जो साथ मे रहता था, आज्ञा दी कि आधी संपत्ति वह अपने बड़े भाई को दे देगा। दहर जब गाँव आया तो छोटे भाई ने उसे पिता की मृत्यु का समाचार और उसकी इच्छा के बारे में बताया। पिता की आज्ञानुसार उसकी संपत्ति उसे देना चाहा। परंतु दहर ने संपत्ति लेने से मना कर दिया। संघ में लौटकर वह बड़े गर्व के साथ अन्य भिक्षुओं से इस त्याग के बारे में बताता था। उसका मन अभी धन से ही बंधा था। उसके मन से इस विकार को दूरकरने के लिए तथागत ने यह सूत्र कहा था।
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(15)
वहु वे सरणं यंति पब्बतानि वनानि च।
आरामरूक्खचेत्यानि मनुस्सा भयतज्जिता।।164।।
अर्थ:- आदमी भय के कारण भगवानों की पूजा कर रहा है। भय के कारण उसने मंदिर बनाए, भय के कारण प्रार्थनाएँ खोजीं।
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(16)
नेतं खो सरणं खेमं नेतं सरणमुत्तमं।
नेतं सरणमाग्गम सब दुक्खा पमुच्चति।।165।।
अर्थ:- यह उत्तम शरण नहीं है, यह मंगलदायी शरण नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती।
(17)
यो च बुद्धंच धम्म्ंच संघंच सरणं गतो।
चत्तरि अरियसच्चानि सम्मप्पंचाय पस्सति।।166।।
(18)
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कमं।
अरियंचट्ठंगिके मग्गं दुक्खूपसमगामिनं।।167।।
(19)
एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं।
एतं सरणमाग्गम सब दुक्खा पमुच्चति।।168।।
अर्थ:- जो बुद्ध, संघ, धर्म की शरण में गया जिसने चार आर्य-सत्यों को प्रज्ञा से पहचाना, बोध से पहचाना, कि दुख है, कि दुख से मुक्ति है, कि दुख की उत्पत्ति का कारण है, कि दुख से उत्पन्न हुई अवस्था से पार जाने को लिये अष्टांगिक मार्ग है; यह है ऊँची शरण। यह है झुकने योग्य झुकना। यह है समर्पण का द्वार।
संदर्भ:- कौशल नरेश प्रसेनजित के पिता के पुरोहित का नाम अग्निदत्त था। अग्निदत्त प्रकांड पंडित था। पिता की मृत्यु के बाद प्रसेनजित के बहुत आग्रह करने पर भी वह राज्य में नहीं रूका और परिव्राजक बन गया। अग्निदत्त बुद्ध की शिक्षाओं का विरोध करता था। उसके मन में अपने पाण्डित्य का बड़ा अभिमान था।
तथागत ने अपने शिष्य मौद्गलायन को बुलाकर कहा कि जाओ, अग्निदत्त को जगाओ। मौद्गलायन अग्निदत्त के आश्रम में गया। वहाँ पर अग्निदत्त के शिष्यों ने मौद्गलायपन का भरपूर तिरस्कार व अपमान किया। रात में मौद्गलायन पास ही के रेगिस्तान में, जहाँ पर एक भयंकर सर्प निवास करता था, जाकर समाधिस्थ हो गया। अग्निदत्त के शिष्यों को खुशी हुई क रात में सर्प दंश से यह मौद्गलायन जरूर मर जायेगा।
सुबह अग्निदत्त और उनके शिष्यों को घोर आश्चर्य हुआ जब वह भयंकर सर्प अपनी हिंसावृत्ति का त्यागकर समाधिस्थ मौद्गलायन के पीछे से उसके सिर के ऊपर फन फैलाए उसकी रक्षा कर रहा था।
देखकर अग्निदत्त के शिष्यों को बोध हुआ और वे सभी शरणगत हो गए परंतु अग्निदत्त का घमंड नही गया। तभी वहाँ पर तथागत का आगमन हुआ और अग्निदत्त को उपदेश देते हुए इस सूत्र को कहा था।
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(20)
दुल्लभो पुरिसाजंचो न सो सब्बत्थ जायति।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति।।169।।
अर्थ:- पुरूषश्रेष्ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह धीर जहाँ उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।
(21)
सुखो बुद्धानं उप्पादो सुखा सद्धम्मदेसना।
सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो सुखो।।170।।
अर्थ:- बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है। सद्धर्म का उपदेश सुखदायी है। संघ में एकता सुखदायी है। एकतायुक्त तप सुखदायी है।
(22)
पूजारहे पूजयतो बुद्धे यदि व सावके।
पपंचसमतिक्कंते तिण्णसोकपरिद्दवे।।171।।
(23)
ते तादिसे पूजयतो निब्बुते अकुतोभये।
न सक्का पुंजं संखातुं इमेतंपि केतचि।।172।।
अर्थ:- जो संसार-प्रपंच को अतिक्रमण कर गये, जो शोक और भय को पार कर गये, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरूषों की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है कि यह किसी से कहा नहीं जा सकता।
संदर्भ:- एक बार भगवान तथागत अपने भिक्ष़्ाुओं सहित श्रावस्ती से वाराणसी जाते हुए एक वृक्ष के नीचे ठहरे। वृक्ष के नीचे एक छोटा सा चबूतरा था। एक ब्राह्मण किसान जो खेत में काम कर रहा था, भगवान का दर्शन करने के लिए आया। उसने पहले उस चबूतरे को प्रणाम किया और तब तथागत को प्रणाम। शास्ता (तथागत) ने पूछा - ब्राह्मण! क्या जानकर ऐसा किया?
ब्राह्मण ने कहा - भगवन! इस चबूतरे की पूजा करना हमारी परंपरा है।
तथागत ने कहा - ब्राह्मण! तूने यह ठीक किया।
भगवान के इस कथन में शिष्यों को विरोधाभास जान पड़ा। उन्होंने भगवान के समक्ष अपनी शंकाओं को रखा।
तथागत ने भिक्षुओं को आँखें बंद करके ध्यान करने के लिय कहा। सबने ध्यान में देखा कि उस चबूतरे के नीचे एक अखंड ज्योति जल रही थी।
भगवान ने कहा - मुझसे पहले कश्यप बुद्ध हुए हैं। यह उन्हीं की ज्योति है। मुझसे पहले भी अनेक बुद्ध हुए हैं और बाद में भी अनेक बुद्ध होंगे। यह धरती सदैव बुद्धों से भरी रहती है। तब बुद्ध ने उपरोक्त सूत्र कहे थे।
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(24)
सुसुखं वत! जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो।
वेरिनेसि मनुस्सेसु विहराम अवेरिनो।।173।।
अर्थ:- बैरियों के बीच अवैरी होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर हम विहार करते हैं।
(25)
सुसुखं वत! जीवाम आतुरेसु अनातुरा।
आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा।।174।।
अर्थ:- आतुरों के बीच अनातुर होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आतुर मनुष्यों के बीच अनातुर होकर हम विहार करते हैं।
(26)
सुसुखं वत! जीवाम उस्सेकेसु अनुस्सुका।
उस्सेकेसु मनुस्सेसु विहरम अनुस्सुका।।175।।
अर्थ:- आसक्तों के बीच अनासक्त होकर, अहो! हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। आसक्त मनुष्यों के बीच अनासक्त होकर हम विहार करते हैं।
संदर्भ: - शाक्य और कोलीय राज्यों के बीच रोहिणी नदी बहती थी। दोनों ही राज्य उस नदी पर बने बांध से खेतो की सिंचाई करते थे। एक बार दोनों राज्य के नौकर सिंचाई हेतु बांध पर पहुँचे। पहले सिंचाई कौन करेगा इस बात पर दोनों ओर के नौकरों में विवाद हो गया। बात राजाओं तक पहुँची और दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध हेतु उपस्थित हो गई। वहीं पर भगवान तथागत का शिविर था। युद्ध शुरू होने से पहले तथागत दोनों सेनाओं के बीच जाकर खडे हो गये। पूछा - युद्ध किस बात पर?
राजाओं ने प्रणाम करते हुए कहा - पता नहीं। शायद सेनापतियों को मालूम होगा।
सेनापतियों से पूछा गया। उन्होंने कहा - पता नहीं। शायद उन नौकरों को पता होगा जो सिंचाई करने गए थे।
उन नौकरों से पूछा गया। नौकरों ने कहा - भगवन! पानी के लिए।
भगवन ने कहा - पानी के लिए? यह तो संभव ही नहीं है। जरूर कोई और बात होगी?
तब नौकरों ने कहा - भगवन! इस बात पर कि पहले कौन सींचेगा।
तथागत ने कहा - अच्छा, पहले के कारण। यह असली कारण है युद्ध का। कारण पानी नहीं है। तब तथागत ने उपरोक्त सूत्र कहे थे।
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(27)
सुसुखं वत! जीवामयेसं नो तत्थि किंचिना।
पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा।।176।।
अर्थ:- जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो! वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं। आभास्वर (बौद्धों के अनुसार देवातों का लोक जहाँ देव गण केवल प्रेम का भोजन करते हैं।) के देवताओं की भांति हम भी आज प्रीतिभोजी (प्रेम का भोजन करने वाला) होंगे।
संदर्भ:-एक दिन भगवान पंचशाला नामक गाँव में भिक्षाटन के लिए गये। मार (शैतान) सदा भगवान को पराजित करने की कोशिश में लगा रहता था। उसके प्रभाव से गाँव में किसी ने भी भगवान को भिक्षा नहीं दिया। खाली भिक्षा पात्र लिए जब भगवान गाँव के बाहर आए तब मार ने कहा - कहो श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली?
भगवान ने कहा - नहीं। तू भी सफल रहा और मैं भी।
मार ने कहा - दोनों ही सफल कैसे हो सकते हैं? यह तो असंगत और तर्कहीन बात है।
भगवान ने कहा - बात तर्कहीन नहीं है। तू सफल हुआ, लोगों को भ्रमित करने में और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में।
तब मार ने एक और जाल फेंका। कहा - गाँव में पुनः प्रवेश करें। इस बार शायद कुछ मिल जाय। भूखा रहने से तो यही अच्छा है।
मार बुद्ध को दूसरी बार अपमानित होते देखना चाहता था जिससे बुद्ध को क्रोध आ जाय। तब भगवन ने उपरोक्त सूत्र कहा था।
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(28)
जयं वेरं पसवति दुक्खं सेति पराजितो।
उपसंतो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं।।177।।
अर्थ:- विजय बैर को उत्पन्न करती है। पराजित पुरूष दुख की नींद सोता है। लेकिन जो उपशांत है, वह जय और पराजय को छोड़कर सुख की नींद सोता है।
संदर्भ:- प्रसेनजित अजातशत्रु से युद्ध में तीन बार हार गया। इस अपमान और दुख के कारण उसकी हालत विक्षिप्तों की भांति हो गई। भिक्षुओं ने यह बात तथागत को बताई। तब तथागत ने भिक्षुओं के समक्ष उपरोक्त सूत्र कहा।
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समाप्त
संकलनकर्ता:- कुबेर
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