(एकांकी)
सतनाम-संदेश
पात्र परिचय
1: तेजोमय व्यक्ति - परमपूज्य गुरूबाबा घासीदास जी
2: श्रद्धालु एक
3: श्रद्धालु दो
4: श्रद्धालु तीन
5: श्रद्धालु चार
6: त्रिपुण्डधारी व्यक्ति
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दृश्य - 1
(मंझनिया के बेरा हे। साल, सागोन आमा, महुआ, चार, तेंदू जइसन वृक्ष मन से आच्छादित जंगल; तोता, मैना, कोयली, रमली, मयूर जइसे नाना प्रकार के चिरई-चिरगुन मन के मधुर कलरव से गुँजायमान अउ हिरण, खरगोश, बघवा, चितवा जइसे वन्यजीव मन के मधुर विहार मन से शोभायमान; नदिया-नरवा, खड़का-ढोड़गा मन के बोहावत निरमल जल के कल-कल करत अवाज से गूँजत, दुरिहा-दुरिहा ले बगरे सुरम्य पर्वतमाला के गोदी म बसे एक ठन गाँव हे। गाँव के पहुँचतिच् म काजल समान स्वच्छ जल से भरे एक ठन बड़े जबर तरिया हे। देख के थके-मांदे आदमी के तन अउ मन के सरी थकान ह माड़ जाय तइसन तरिया के हिलोर मारत जल हे। तरिया के पार म चारों कोती आमा अउ पीपर के बड़े-बड़े रूख हें, जिहाँ गोड़ेला, रम्हली अउ कोयली के संगेसंग नाना प्रकार के कतरो अउ चिरई-चिरगुन मन सुंदर अकन ले चिंव-चाँव, कलर-बिलिर करत हें। तरिया म अलग-अलग घाट बने हें। एक ठन घाट तीर के पार म शंकर भगवान के मंदिर बने हे। तरिया के बाजू म नजर के जावत ले आमा के बगीचा हे। चैत के महीना हे, आमा पेड़ के डारा मन ह झोरथा-झोरथा आमा-मऊर के भार म लहसे जावत हें, चारों खूँट महर-महर खुशबू बगरत हे। तरिया के खाल्हे बाजू खेत-खार बगरे हें, जिंहा गाँव के गाय-गरू मन ह चारा चरत हें। दिन के बारा बजे हे, झांझ चले के बेरा हे, फेर जंगल अउ बाग-बगीचा के असर म झांझ ह घला पुरवाई कस सुंदर लागत हे।
बगीचा ह आदमी मन के मारे सइमो-सइमो करत हे; अतराब के बीसों गाँव के आदमी, नर-नारी, सबो सकलाय हें; मेला-मड़ाई कस भीड़ हे। लीपे-बहरे जघा ह कमती पर गे तब मनखे मन खुदे भुँइया ल चंतरा-चिंतुरी के बइठे लाइक जघा बना के बइठे-बइठे हें। एक ठन अच्छा झपाटा आमा पेड़ के खाल्हे म एक ठन मंच बने हे। मंच ल सफेद तोरन-पताका अउ हार-फूल से सजाय गे हे। पृष्ठभूमि ले मांदर के थाप अउ पंथी गीत के धुन सुनावत हे। बगीचा भर आदमी मन ह अपन-अपन संगवारी मन संग दल बना-बना के बइठे हें अउ परम पूज्य गुरूबाबा घासीदास के महिमा के चर्चा करत हें। एक ठन आमा पेड़ के घुम-घुम ले छँइहा म चार झन आदमी गोठ-बात करत बइठे हें।)
(पृष्ठभूमि ले येदे पंथी गीत के धुन सुनावत हे जउन ह धीरे- धीरे मद्धिम पड़त जाथे। -
’’मंदिरवा म का करे जइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,
अपन घट ही के देव ल मनइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,’’
श्रद्धालु एक - ’’अइसन भीड़ कभू अउ देखे रेहेस भइया?’’
श्रद्धालु दो - ’’तीरथ-घाम म भीड़ काबर नइ होही, एमा का अचरज हे भइया।’’
श्रद्धालु एक - ’’तीरथ-धाम?’’
श्रद्धालु दो - ’’हाँ भइया! तीरथ-धाम। जिहाँ गुरूबाबा के परम पुनीत चरण पड़ने वाला हे, जिहाँ गुरूबाबा ह रम्मत करने वाला हे, जिहाँ गुरूबाबा के अमृत बानी ह गूंँजने वाला हे, वो जघा ह कोनों तीरथ ले कम हे का?’’
श्रद्धालु तीन - ’’(भावविभोर हो के) गुरूबाबा के अमृत वाणी! अहा, अतकेच् बात ल सुन के जीव ह जुड़ा गे भइया; अइसे लागत हे के सात जनम के पाप ह धोवा गे। अहो भाग हमर, के आज गुरू बाबा के दरसन होही।
श्रद्धालु दो - ’’(संगवारी के मन म विश्वास जगाय बर अपन असहमति व्यक्त करथे) सात जनम के पाप के बात झन कर भइया। तोर सात जनम के पुन के परताब आय, जउन आज गुरूबाबा के संउहत दरसन होही, आँखी के जनम-जनम के तिसना ह अघाही, गुरू के मुखारविंद ले अमर-बानी ल सुन के मन ह जुड़ाही, हंसा बर अमर लोक के रद्दा ह चतराही।’’
श्रद्धालु चार - ’’गुरू के मुखारविंद ले अमर-बानी ल सुन के मन ह जुड़ाही, अहा! कतका सुघ्घर गोठ करेस भइया। माता अमरौतिन के लाला अउ मुहगू के दुलारा, गुरूबाबा घासीदास के अमरित बचन ल सुन के अब मनखेच् नहीं चिरई-चिरगुन, रुखराई, जन्तु-जनावर, सबके मन ह जुड़ावत हे, मनखे के मन ह काबर नइ जुड़ही? देखत नइ हस, चैत-बैसाख के महीना म घला इहाँ कतका संुदर, ठंडा-ठंडा, महमहात हवा चलत हे, सबर दिन के उतलंगहा बेंदरा मन कइसे डारा मन म चुपचाप बइठे हें, चिरई-चिरगुन मन गीत गाय बरोबर कतका सुंदर चींव-चींव करत हें, ये डारा ले वो डारा फुदक-फुदक के नाचत हें, सुवा ह बोलत हे, कोइली ह कूकत हे। अइसे लागत हे, मानों आदमिच् नहीं, संसार के सबो चराचर प्राणी मन, गुरूबाबा के दरसन करे बर अगोरा करत हें, वोकर अगुवानी करे बर मंगलाचार गावत हें।’’
श्रद्धालु एक - ’’जंगल डहर ले घला आज बघवा-भालू के हाँव-हूँ के पता नइ चलत हे।’’
श्रद्धालु दो - ’’बघवा-भालू मन ह घला आज हिंसा करे बर भुला गे हें भइया। जंगल म आज तो शेर अउ मिरगा मन एके संघरा किंजरत हें।’’
श्रद्धालु तीन - ’’दुनिया ले हिंसा, पाप अउ अत्याचार के नाश करेच् बर तो सतलोकवासी सत्पुरूष ह ये पृथ्वी म जनम लेथे भइया; कभू संत-महात्मा के रूप म, तब कभू गुरू के रूप म।’’
श्रद्धालु चार - ’’दुनिया ले इही हिंसा, पाप अउ अत्याचार के भावना ल मेट के, सतनाम् के अलख जगाय बर, पृथ्वी म सत्, अहिंसा अउ मानवता के संदेश देय बर तो परम पूज्य गुरूबाबा घासीदास ह रम्मत करत हे, रावटी लगावत हे भइया। तंय ह परम पूज्य गुरूबाबा के उपदेश1 मन ल सुने हस?’’
श्रद्धालु एक - ’’कइसे नइ सुने होबोन भइया; बाबा के वाणी ह तो आज धरती, अगास, चारों मुड़ा, सब कोती गूँजत हे। कइसे नइ सुने होबोन। बाबा के कहना हे ’’सत्नाम ल मानो।’’ (सत्य ही ईश्वर है।)
श्रद्धालु दो - ’’मूर्ति के पूजा मत करो।’’
श्रद्धालु तीन - ’’पर स्त्री ल माता मानो।’’
श्रद्धालु चार - ’’नशापान मत करो।’’
श्रद्धालु एक - ’’मांस-मछरी के सेवन झन करो।’’
श्रद्धालु दो - ’’जाति-पांति के परपंच म झन पड़ो।’’
श्रद्धालु तीन - ’’सरीमंझनिया खेत झन जोतो।’’
श्रद्धालु चार - ’’अउ गुरू बाबा के यहू संदेश हे भइया, मानव-मानव एक समान।’’
श्रद्धालु दो - ’’मानव-मानव एक समान! काबर कि सबो आदमी मन एके सत्पुरूष, परमात्मा के बनाय हें। ऊपर वाला ह दुएच् ठन जाति बनाय हे भइया, स्त्री अउ पुरूष। बाँकी अउ सब जात-पात तो आदमी के बनाय हरे; आदमी-आदमी म भेद पैदा करके, एक दूसर ल लड़ाय के सब उदिम आय, गरीब-बेसहारा अउ निर्बल आदमी के खून चूसे के तरकीब आय। इही पाय के गुरूबाबा ह कहिथे कि जाति-पांति के परपंच म झन पड़ो।
श्रद्धालु एक - ’’भगवान ह कोनों ल अमीर अउ कोनों ल गरीब काबर बनाइस होही भइया?’’
श्रद्धालु दो - ’’भगवान ह कोनों ल अमीर-गरीब नइ बनाय भइया। वो तो सब ल बराबर बनाय हे। सब ल एक बराबर शरीर देय हे। हाथ, गोड़, आँखी, कान अउ दिमाग सब ल वोतकच् देयहे। हवा, पानी, नदिया, जंगल, धरती, अगास ल ककरो नाम म नइ लिखे हे। ये सब तो मनखे मन के हुसियारी आवय। जउन ह अपन हाथ, गोड़, आँखी, कान अउ दिमाग के उपयोग नइ करय, विही ह गरीबी के दुख ल भोगथे।
श्रद्धालु चार -’’बने केहेस भइया। दुनिया म जतका अंधेर हे, सब ह आदमी के करनी आय। भगवान के बनावल चीज, आदमी ह छोटे हो गे अउ आदमी के बनावल चीज, चाहे कोनों पंथ होय कि कोनों ग्रंथ होय वो ह बड़े हो गे, कतका अंधेर हे भइया।’’
श्रद्धालु दो - ’’इही अंधेर ल मेटे खातिर तो माता अमरौतिन के लाला, गरीब-गुरबा, दीन-दुखिया के दुख-तकलीफ हरइया, सुख के देवइया, गुरूबाबा घासीदास जी ह गाँव-गाँव रम्मत करत हे भइया अउ उपदेश देवत हे कि सतनाम्-सतपुरूष; जउन ल आदमी ह भगवान, ईश्वर अउ देवता, नाना प्रकार के नाम से बलाथे, वो ह कोनों मंदिर, कोनों किताब म नइ हे, वो तो घट-घट के वासी हे, सबके घट म बसे हे। मंदिर जाय के का जरूरत हे, इही देवता ल नइ मनाबो?’’
(पृष्ठभूमि से पंथी गीत के धुन -
’’मंदिरवा म का करे जइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,
अपन घट ही के देव ल मनइबो,
मंदिरवा म का करे जइबो,’’
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(रम्मत करइया संत महात्मा मन संग गुरूबाबा घासीदास जी के आगमन होवत हे। चारों मुड़ा जय सतनाम! जय सतनाम! अउ ’गुरूबाबा घासीदास की जय’ गुंजायमान होवत हे।)
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दृश्य - 2
(मंच म दिव्य पुरुष, परमपूज्य गुरूबाबा घासीदास जी ह आसन लगा के ध्यान-मुद्रा म बइठे हे। कांध म जनेऊ अउ माथा म चंदन के टीका हे। मुखमंडल ह दिव्य प्रकाशपुंज के आभा म चमकत हे। भक्त मन ह येदे संुदर गीत ल गावत हें।)
’’सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल,
सत्यनाम हे अधार, अमरित धार बोहाई दे।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत् के महिमा ले, धरती-अगास हे,
धरती-अगास हे।
सत् के महिमा ले, जग म परकास ह,
जग म परकास हे।
ये हंसा ल उबार, सत् म मन ल लगाई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
सत् ले बढ़ के, नइ हे कोनो पूजा,
नइ हे कोनो पूजा।
सत् ले बढ़ के, नइ हे तप दूजा,
नइ हे तप दूजा।
सत् जिनगी के सार, सत् के संग लगई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।
तप के तेल बना, दया के बाती हो,
दया के बाती।
सत् के दीया म, क्षमा के ज्योति हो,
क्षमा के ज्योति।3
मिट जाही सब अंधियार, सत् के जोत जलाई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
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(त्रिपुण्डधारी एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति के अचानक प्रवेश। ये अदमी के चेहरा ह क्रोध के मारे तमतमावत हे। मंच के आगू म जा के वो ह अकड़ के खड़ा हो जाथे। ये सब चीज के हुरहा होय ले सब आदमी मन हक्काबक्का हो जाथें। चारों मुड़ा सन्नाटा पसर जाथे। गुरुबाबा घासीदास जी के घला ध्यान ह टूट जाथे।)
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’अच्छा! तब तहीं हरस घासीदास? जउन जनता ल सतनामी बनाय बर गाँव-गाँव रम्मत करत हस?’’
(बाबा बर त्रिपुण्डधारी व्यक्ति के अपमानजनक बर्ताव ल देख-सुन के जनता भड़क जाथे। चारों झन श्रद्धालु अउ बहुत झन आदमी मन लउठी धर के संघरा वोकर डहर मारो-मारो कहत दंउड़थे। देख के बाबा ह शांत अउ गंभीर वाणी म बोलथे।)
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’शांत! शांत! शांत! शांत हो जावव मोर सतपुत्र हो, शांत हो जावव।’’
श्रद्धालु एक - ’’गुरूबाबा के जय हो। गुरूबाबा, ये आदमी ह आपके अपमान करे बर इहाँ आय हे। येला मजा चखाना जरूरी हे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’शांत! पुत्र, शांत! क्रोध के जवाब ल क्रोध म देना उचित नइ हे। क्रोध करना अउ अपमानजनक भाखा बोलना तो येकर संस्कार म बसे हे। जउन आदमी ह पूरा समाज ल अपन कब्जा म करना चाहथे, वो ह अइसने भाखा बोलथे। जउन ह खुद सम्मान के भूखा हे, वो ह दूसर के सम्मान कइसे करही? अउ फेर सब ल अपन बात कहे के हक हे। विरोधी के शंका-समाधान होना जरूरी हे; इही म सब के कल्याण हे। (़ित्रपुण्डधारी आदमी डहर देख के) हे आत्मा! डर मत, अपन बात ल अब पूरा कर।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - (जउन ह डर के मारे काँपत रिहिस हे, तउन ह बाबाजी के बल पा के, ऊपरी देखावा अकड़ के बोलथे।) ’’मंय ह पूछथंव; भगवान ह जब अलग-अलग जाति पहिलिच् ले बना दे हे तब, एक ठन अउ नवा जाति, सतनामी, बनाय के का जरूरत हे?’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! भगवान ह तो सिरिफ दू ठन जाति बनाय हे, स्त्री अउ पुरुष। बाकी जाति तो आदमी के बनावल आय। इही ह आदमी अउ आदमी के बीच भेद पैदा करे हे। मंय ह तो आदमी ल आदमी बनाय के, आदमी-आदमी के बीच के भेद ल मेटे के कोशिश करत हँव।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जाति ल भगवान ह नइ बनाय हे? सनातन बात ह, धर्म के बात ह, झूठा कइसे हो सकथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! सनातन के अर्थ का होथे? जेकर न जन्म होय अउ न मृत्यु, जेकर न कभू निर्माण होय अउ न कभू विनाश, जउन ह पहिली घला रिहिस हे अउ आगू घला रहिही, विही ह सनातन आय। अउ धर्म? ...... अच्छा, एक बात बता पुत्र, धार्मिक व्यक्ति के का पहिचान हे?’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जेकर आचरण ह शुद्ध हे, जउन ह सत्य के पालन करथे, समाज हित के काम करथे, भलाई के काम करथे, जेकर मन म करुणा, दया अउ प्रेम के भाव भरे हे, वो ह धार्मिक आदमी माने जाथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’अउ अधार्मिक के?’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’जेकर आचरण ह शुद्ध नइ हे, जउन ह असत्य बोलथे, समाज के अहित करथे, जेकर मन म करुणा, दया अउ प्रेम के भाव नइ हे, वो ह अधार्मिक माने जाथे।’’
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’येकर मतलब तो इही होइस पुत्र, कि धर्म अउ अधर्म दुनों के संबंध ह आदमी के आचरण से हे। एक आदमी ह अपन सदाचरण से धार्मिक कहलाथे, तब दुराचरण करइया दूसर आदमी ह अधार्मिक।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - (निरुत्तर हो के, शांत भाव से खड़े हे। वोकर दुनों ठन हाथ मन ह आपे-आप प्रणाम के मुद्र म जुड़ जाथे। वोकर चेहरा म अब न तो क्रोध के भाव हे, अउ न घमंड के।)
पूज्य गुरुबाबा घासीदास जी - ’’हे आत्मा! हे पुत्र! जब तक दुनिया म आदमी हे; तब तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा अउ दया जइसन तत्व के नाश नइ हो सके। इही ह सनातन आय। सत्य-निष्ठा के साथ इही मन ल मानना अउ अपन आचरण म धारण करना सनातन धर्म के पालन करना आय। इही ह सनातन धर्म आय।’’
त्रिपुण्डधारी व्यक्ति - ’’(सहसा) गुरुबाबा घासीदास की जय।’’
(अब तो सब डहर ले एके आवज आवत हे; गुरुबाबा घासीदास की जय। जय सतनाम। पंथी गीत के धुन फेर धीरे-धीरे उभरत जाथे।’’)
सत्य, अहिंसा अउ, प्रेम के पुजारी बन,
प्रेम के पुजारी बन।
मानुष तन ल पाये हस, मन से भी मानुष बन,
मन से भी मानुष बन।
इही धरम हे सार, येकरे धुनि ल रमई ले।
हो जाही बेडा़ पार, गुरु के ध्यान लगाई ले।
सत्यनाम, सत्यनाम, सत्यनाम बोल
सत्यनाम हे अधार, अमरित बोल सुनाई दे।’’
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1 - गुरु घासीदास जी के सात उपदेश अथवा सिद्धांत तथा बयालीस रावटियाँ सतनामी समाज के आधारभूत प्रमुख प्रेरक तत्व हैं। उनके सात उपदेश इस प्रकार हैं:-
1. सतनाम को मानो। (सत्य ही ईश्वर है।)
2. मूर्ति पूजा मत करो।
3. पर स्त्री को माता मानो।
4. नशापान मत करो।
5. मांसाहार मत करो।
6. जाति-पांति के प्रपंच में मत पड़ो।
7. अपराह्न में खेत मत जोतो।
(लेख - ’सतनामियों की सांस्कृतिक विरासत’; लेखक - साहित्यकार, चिंतक एवं ’सत्यध्वज’ पत्रिका के संपादक श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’)
2 - ये दृश्य के केन्द्रिय प्रसंग ल साहित्यकार, चिंतक अउ ’सत्यध्वज’ पत्रिका के संपादक श्री दादू लाल जोशी ’फरहद’ के ’गुरू बाबा घासीदास जी का सत्संग’ नामक लेख से लेय गे हे।
3 - सत्याधार स्तय स्तेल, दयावर्ति क्षमाशिखा।
अंधकार प्रवेष्ट थे, दीपो यत्नेन वार्यताम्।।
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