मंगलवार, 27 मई 2014

आलेख

साभार:
साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका ’विचार वीथी’ मई - जुलाई 2014 अंक का संपादीय

छत्‍तीसगढ़ी के साहित्‍यकार : अपना उत्‍तरदायित्‍व समझें


अंतत: किसी कवि ने कहा है - ’छत्तीससगढ़ में सब कुछ है, पर एक कमी है स्वाभिमान की। मुझसे सही नहीं जाती है, ऐसी चुप्पी वर्तमान की।’ कविता की इन पक्तियों में कवि की एक ओर जहाँ छत्तीसगढ़ के प्रति अगाध प्रेम, समर्पण और अटूट आस्था अभिव्यक्त होती है वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढिय़ों के शोषण और अपमान के प्रति उनका क्षोभ भी दिखाई देता है। स्वाभिमान को तार-तार करने वाला, छत्तीसगढिय़ों का अनावश्यक व कायराना भोलापन और उनकी चुप्पी के प्रति आक्रोश के भाव की अभिव्यंजना भी होती है। पर इस तथ्य से इन्‍कार करना मूर्खता होगा कि अमीर धरती के गरीब छत्तीसगढिय़ों की इस दीन-हीन स्थिति के लिए कोई और कारण जिम्मेदार नहीं है बल्कि  उनका यही अनावश्यक व कायराना भोलापन, उनकी अनावश्यक व कायराना चुप्पी ही उनकी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
छत्तीसगढिय़ों के लिए कहा जाता है - ’पहिली जूता पाछू बात, तब आवै छत्तीसगढिया हाथ’ खेतों और खदानों में पुरूषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करने वाली यहाँ की श्रमशील हमारी माताओं और बहनों को अपमानित करने के लिए कहा जाता है - ’छत्तीसगढ़ की औरतें छत्तीस-छत्तीस मर्द बनाती हैं’। शोषको के इसी मानसिकता का परिणाम है कि ’अमटहा भाटा ल चुचर, बमलई म चढ़, इही ल कहिथे छत्तीसगढ़।’ जैसी कविताएँ कवि मंचों पर रस ले-लेकर कही और सुनी जाती हैं। छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढिय़ों के लिए जो परिभाषा इस पंक्ति में गढ़ी गई है, यहाँ की आराध्य देवी के लिये जो मुहावरा कहा गया है; छत्तीसगढ़ी भाईयों और यहाँ की माताओं-बहनों के लिए जो बातें पहले से ही कही जाती रही हैं, उसे सिर्फ और सिर्फ यही के लोग बेशर्मी के साथ सुन और सह सकते हैं; सुनकर भी मुर्दों के समान चुप्पी साधे रह सकते हैं। हमारा यही अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व कायराना चुप्पी हमारी नेतृत्व क्षमता पर भी दिखाई देती है। हमारा नेतृत्व यहाँ के बहुंख्यक समुदाय के हाथों में कभी नहीं रहा; आयातित नेतृत्व का अनुचर और अनुगामी की भूमिका ही हम हमेशा पसंद करते रहे हैं, इसी में संतुष्ट होते रहे हैं। ऐसा आखिर कब तक ?
यहाँ की इस स्थिति के लिए यहाँ की आम जनता से अधिक  दोषी यहाँ के बुद्धिजीवी, कवि और साहित्यकार  हैं। माना कि साहित्य से क्राँतियाँ नहीं होती, पर क्राँति का मशाल जलाने के लिए चिंगारी और क्राँतिकारियों के दिलों में आग, तो यहीं से पैदा होती है। छत्तीसगढ़ में कवियों और साहित्यकारों की कमी नहीं है, देश की आजादी की लड़ाई  समय से ही यहाँ साहित्यकारों की एक समृद्ध परंपरा रही है। इनके साहित्य में क्राँति का मशाल जलाने के लिए चिंगारी और क्राँतिकारियों के दिलों में आग भड़काने की अद्भुत क्षमता भी होती थी, पर कवि-साहित्यकारों की आज की पीढ़ी, अपनी इस समृद्ध साहित्यिक विरासत को संभालने, सहेजने और आगे बढ़ाने में विफल रही है। छत्तीसगढ राज्य बनने के बाद तो यहाँ कवियों की भीड़ दिखाई देने लगी है। विचार वीथी के हर अंक के लिए छत्तीसगढ़ के सहित्यकारों के द्वारा नियमित रूप से मुझे पर्याप्त मात्रा में नई प्रकाशित पुस्तकें प्राप्त होती रहती हैं, परन्तु प्रारंभ में कविता की जिन पँक्तियों का मैंने उल्लेख किया है, उस तरह की कविता, उस तरह के कवि और क्राँति का मशाल जलाने के लिए जिस चिंगारी की आवश्यकता है, और क्राँति के लिए दिलों में आग पैदा करने के लिए साहित्य में जिस आग की जरूरत है, उसे पैदा करने वाला आज न तो कोई कवि ही दिखाई देता है और न ही वैसी पँक्तियाँ ही पढऩे को मिलती हैं।
विचार वीथी के पहले के अंकों में भी मैंने यह मुद्दा उठाया था। अपने आदरणीय साहित्यकारों से मैं पुन: निवेदन करना चाहता हू कि वे अपने साहित्यिक उत्तरदायित्व को समझें। समकालीन साहित्य की अवधारणाओं और प्रवृत्तियों को समझें। कोरी कल्पना का उड़ान भरना छोड़ें, यथार्थ की कड़वी और कठोर धरातल का दामन थामें, हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व कायराना चुप्पी पर प्रहार करने वाली, उसे तोडऩे वाली रचनाओं का सृजन करें।
याद रखें, हमारा नेतृत्व करने के लिए नेताओं का आयात करने की जरूरत नहीं है, हमारे नहीं चाहने पर भी वे आयातित होते रहेंगे, हमें मिलते रहेंगे; परन्तु वे हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व कायराना चुप्पी को और अधिक स्थायी बनाने का प्रयास ही करेंगे, क्योंकि इसी में उनका हित सधता है। हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व
कायराना चुप्पी को तोडऩे वाला तो हममें से ही कोई पैदा हो सकता है। चर्चा जारी रहेगा .........।
संपादक

रविवार, 25 मई 2014

आलेख

मातृभाषा और राजभाषा: विजयदान देथा

(डाॅ.. प्रेमकुमार द्वारा लिये गए साक्षातकार का अंश)

(अभिनव प्रयास, जनवरी-मार्च: 2014, पृष्ठ 11-12 से साभार)

शुरू में स्पष्ट कर दूँ कि हिन्दी हिन्दुस्तान के किसी भूखण्ड की भाषा नहीं है। जो भी भूखण्ड है, उनकी अपनी मातृभाषा है - अवधी, मैथिली, भोजपुरी, मालवी इत्यादि। ऐसी ही स्थिति उर्दू की भी है। हिन्दी किसी परिवार की भाषा हो सकती है, पर वृहत्त् समुदाय की नहीं है। यह जन्म के साथ नहीं सीखी जाती, इसकी शिक्षा दी जाती है। इसलिए किसी भी मातृभाषा और हिन्दी का कोई विरोध नहीं है। निहित स्वार्थ वाले - वह चाहे प्रकाशक हो या लेखक हो, ये लोग ही विरोध दिखाते हैं। पहली बात यह कि कोई कहे कि मेरी मातृभाषा अमुक है, तो आप यह कहने वाले कौन हैं कि अपकी मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी राजभाषा है - सब भाषाओं का संपर्कसूत्र है। मातृभाषाओं के आधार पर ही हिन्दी का शब्द भण्डार बढ़ सकता है। धरती के पर्याय, वनस्पत्तियों के प्रकार आदि से संबंधित अनेक शब्द मातृभाषाओं से ही आयेंगे। हस्तशिल्प के, लोहार, सुनार, कुम्हार आदि के औजारों के - ऐसे हजारों शब्द। उनका प्रचलन किसमें होगा - जिसमें वे सांस लेते है। अखबारों या छापेखाने से हिन्दी का शब्द भण्डार नहीं बढ़ेगा।
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शनिवार, 24 मई 2014

शुक्रवार, 23 मई 2014

रचनाएँ आमंत्रित हैं -


साकेत साहित्य परिषद् सुरगी ह पीछू पंदरह बरस ले सरलग अपन सालाना कार्यक्रम म कोनों न कोनों महत्वपूर्ण विषय ल ले के विचार गोष्ठी के आयोजन करत आवत हे। निर्धारित विषय ऊपर केन्द्रित स्मारिका के प्रकाशन घला करे जाथे। विषय विशेषज्ञ के रूप म आमंत्रित विद्वान मन गोष्ठी म विचार मंथन करथें। इही सिलसिला म 23 फरवरी 2014 में गंडई पंडरिया म छत्तीसगढ़ी हाना ल ले के विचार गोष्ठी के आयोजन करे गे रिहिस। गोष्ठी म डाॅ. विनय पाठक, डाॅ. गोरेलाल चंदेल, डाॅ जीवन यदु, डाॅ. पीसी लाल यादव, डाॅ. दादूलाल जोशी जइसे विद्वान मन के अनमोल विचार सुने बर मिलिस। गोष्ठी अउ ये मौका म प्रकाशित स्मारिका के सब झन प्रशंसा करिन। आगामी गोष्ठी 22 फरवरी 2015 म प्रस्तावित हे (तिथि म बदलाव संभव हे)। परिचर्चा के विषय होही - ’लोक साहित्य म लोक प्रतिरोध के स्वर’।

छत्तीसगढ़ ह लोकसाहित्य के मामला म समृद्ध हे। विभिन्न प्रकार के लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोक परंपरा म प्रचलित प्रतीक चिह्न अउ हाना; जम्मो ह लोकसाहित्य म समाहित हे। आप सबो झन जानथव कि साहित्य ह अभिव्यक्ति के माध्यम आय। हिरदे के प्रेम-विषाद्, हर्ष-उल्लास, सुख-दुख,  के अभिव्यक्ति ल तो हम साहित्य के माध्यम ले करबे करथन; येकर अलावा घला मन के सहमति-असहमति अउ वो जम्मों गोठ, जम्मों काम जउन ल हम क्रियात्मक रूप म नइ कहि सकन, नइ कर सकन, वो सब ल साहित्य के माध्यम ले कहिथन, करथन। अइसन तरह के अभिव्यक्ति करे के मामला म लोक अउ लोकसाहित्य के बराबरी कोनों साहित्य ह नइ कर सकय। लोकसाहित्य के माध्यम ले लोक ह अपन विरोध ल अतका मारक ढंग ले पन अतका सुंदर अउ कलात्मक रूप म व्यक्त करथे कि वोकर मन के भड़ास ह घला निकल जाथे अउ सुनइया ल खराब घला नइ लागय। उदाहरण बर सुवा गीत ल ले सकथन। वइसे तो सुवा गीत के माध्यम ले नारी-मन के हर्ष-उल्लास के अभिव्यक्ति घला होथे फेर ये गीत ह प्रमुख रूप ले पुरूष प्रधान समाज द्वारा नारी उत्पीड़न के विरोध म नारी-मन के सामूहिक अभिव्यक्ति के गीत आवय। एक पद देखव -

’ठाकुर पारा जाइबे तंय घुम-फिर आइबे,

तंय घुम-फिर आइबे, रे सुवा न;
कि सेठ पारा झन जाइबे,
रे सुवा न; कि सेठ पारा झन जाइबे।
सेठ टुरा हे बदन इक मोहनी,
बदन इक मोहनी, रे सुवा न,
कि कपड़ा म लेथे मोहाय।
रे सुवा न, कि कपड़ा म लेथे मोहाय।’

विचार करव, सेठ वर्ग ल शोषक वर्ग के पर्याय माने जाथे। ये पद म शोषक वर्ग के प्रतिरोध जउन कलात्मक सौन्दर्य के साथ करे गे हे वो ह कला अउ सौन्दर्य, दोनों के पराकाष्ठा नो हे? हमर लोकसाहित्य ह अइसनहे कतरो कलात्मक प्रतिरोध के स्वर ले भरे पड़े हे। एक हाना देखव -  ’खेत बिगाड़े सोमना, गाँव बिगाड़े बाम्हना।’ ये ह लोक प्रतिरोध के स्वर नो हे त अउ काये? देवार मन अपन लइका-बच्चा के नाम रखथें - पुलिस, कप्तान, तहसीलदार, श्रीदेवी, आदि। सोचव, ये ह का आवय।

साकेत साहित्य परिषद् सुरगी ह अपन अगामी स्मारिका खातिर आप सब्बो विद्वान मन ले रचना भेजे के निवेदन करत हे। विषय याद रखहू - ’लोक साहित्य म लोक प्रतिरोध के स्वर’। वइसे संदर्भ तो छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य हे, पन भारत के दूसर क्षेत्र के लोक साहित्य के संदर्भ ल घला मान्य करे जाही। संक्षिप्त व सारगर्भित रचना केवल छत्तीसगढ़ी या हिन्दी म कृतिदेव 010 या चाणक्य फाण्ट म र्ह मेल से स्वीकार करे जाही। 
ई मेल पता -  kubersinghsahu@gmail.com
निवेदक
कुबेर
संरक्षक, साकेत साहित्य परिषद सुरगी
जिला - राजनांदगाँव

रविवार, 18 मई 2014

आलेख

भारतीय गणतंत्र का नया नायक : मोदी

भारतीय मतदाताओं ने पुनः अपनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। उन्होंने नरेन्द्र दामोदर दास मोदी में ईमानदार, कर्मठ और प्रतिबद्ध नायक की झलक देखी; एक ऐसे व्यक्ति की छवि देखी जिस पर विश्वास किया जा सकता है, जिनकी बातों पर विश्वास किया जा सकता है, जिनके ’सबका विकास’ और सबके लिए ’अच्छे दिन’ के नारे पर विश्वास किया जा सकता है। भारत के एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों ने नरेन्द्र दामोदर दास मोदी पर विश्वास किया और अपना भविष्य उन्हें सौंप दिया है।

2014 का यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में नये अध्याय की शुरूआत है; एक ऐसे अध्याय की शुरूआत है जिसका विषयवस्तु किसी राजनीतिक दल का पराभव या उत्कर्ष नहीं होगा अपितु केवल नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि, वास्तविकताएँ और परिस्थितियों के निर्माण का विश्लेषण होगा, देश और जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप उनके कार्यों-अवदानों का होगा, चुनाव प्रचार के दौरान उनके द्वारा किये गए वादों को कार्य रूप देने में उनकी सफलता-असफलता के विश्लेषणों का होगा, इतिहास में दर्ज नायकों की पँक्ति में उनके लिए स्थान निर्धारण का होगा। इस आम चुनाव में जीत भाजपा की नहीं केवल नरेन्द्र दामोदर दास मोदी की हुई है।

प्रकृति में हर परिवर्तन किसी नये निर्माण के लिए होता है, अच्छे और भले के लिए होता है। राष्ट्रीय परिदृश्य में नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के उत्कर्ष के रूप में हुआ यह परिवर्तन भी अच्छे और भले के लिए हुआ है, मंगलकारी रूप में हुआ है, इतना विश्वास हमें करना ही होगा।
कुबेर

शुक्रवार, 16 मई 2014

आलेख

हम अपने समाज को सुंदर से सुंदर बनाने की चेतना संस्कृति से ही पाते हैं।

सुप्रसिद्ध प्रगतिवादी चिंतक एवं समीक्षक डाॅ. गोरेलाल चंदेल की चर्चित कृति ’संस्कृति की अर्थव्यंजना’ के ’लेखकीय’ का अंश

..... बिना संस्कृति के मनुष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। अर्थ यह हुआ कि मनुष्य अथवा समाज की कोई न कोई संस्कृति अवश्य होती है। संस्कृति ने ही मनुष्य को भाषा सिखाई है। अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाने की शक्ति दी है। दूसरों के विचारों को सुनने और समझने की ताकत दी है। आपस में, समूह में रहकर अपने अस्तित्व को बनाये रखने तथा प्रकृति और समाज विरोधी शक्तियों से संघर्ष करने में सक्षम बनाया है। जिन मनवीय गुणों पर हमारा समाज और राष्ट्र का ढांचा खड़ा हुआ है; समाज और राष्ट्र के शक्तिशाली बनने के सूत्र मौजूद हंै; उन गुणों का विकास संस्कृति ही करती है। प्रेम, संवेदना, सहकार, सहयोग, सहानुभूति, दया, ममता, और परदुखकातरता के गुणों को संस्कृति ही देती है। कुल मिलाकर संस्कृति ही हमारी सभ्यता का अधार है। हम अपने समाज को सुंदर से सुंदर बनाने की चेतना संस्कृति से ही पाते हैं। ...
डाॅ. गोरेलाल चंदेल

गुरुवार, 15 मई 2014

आलेख

छत्तीसगढ़ : सृजनशीलता  के विविध आयाम

डॉ. गोरेलाल चंदेल
 
(’संस्कृति की अर्थव्यंजना’ नामक संग्रह से साभार)

छत्तीसगढ अपनी विरासतों के लिए देश-विदेश में जाना जाता है। ये विरासत लोकजीवन और लोकसंस्कृति की तो है ही साथ ही साहित्य सृजन की भी लंबी परंपरा इस अंचल की है। राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य और विभिन्न कालों की वैचारिकता, चिंतन की मूलधारा तथा सामाजिक चेतना का प्रभाव इस अंचल के साहित्यकारों में दिखाई देता है। इस अचल के रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता के प्रति न केवल ईमानदार रहे हैं वरन् सामाजिक चेतना की गहराई तथा संवेदनात्मक दृष्टि से समाज तथा सामाजिक जीवन की बारीकियों को पकड़ने में भी सक्षम दिखाई देते हैं। यही वजह है कि छत्तीसगढ अंचल के रचनाकारों को हिन्दी साहित्य के रचनाकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करनें में कोई संकोच नहीं होता।

1634 से छत्तीसगढ क्षेत्र में हिन्दी साहित्य के सृजन का इतिहास मिलता है। इसके पूर्व संस्कृत साहित्य की पुष्ट परंपरा इस क्षेत्र में रही है। कई शिलालेख एवं ताम्रपत्रों में संस्कृत साहित्य की विरासत आज भी मौजूद है। 1634 में रतनपुर के ख्यातिनाम कवि गोपाल चन्द्र मिश्र की खूब तमाशा, जैमिनी अश्वमेघ, भक्ति चिंतामणि, सुदामा चरित और राम प्रताप जैसी कृति सामने आती है। इस युग की रवनाओं में हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन कवियों का स्पष्ट प्रभाव दिखई देता है। 1650 से 1850 तक भक्त कवियों की एक लंबी परंपरा इस अंचल में दिखाई देती है। 1650 से 1850 के काल को छत्तीसगढ के कवियों का आरंभ काल माना जा सकता है। इस काल के प्रमुख कवियों में गोपाल चन्द्र मिश्र, माखनचन्द्र मिश्र, रेवाराम बाबू, उमराव बख्शी और रघुवर दयाल को माना जा सकता है। इन कवियों ने साहित्य की तत्कालीन मूलधारा के अनुरूप भक्ति को केन्द्रिय शक्ति के रूप में निरूपित करते हुए कविताएँ लिखी। इस काल के कवियों ने भक्ति के माध्यम से सामन्तवादी व्यवस्था की प्रताड़ना से हताश और निराश जनमानस में एक नई चेतना और नई ऊर्जा पैदाकर नवजागरण का शंखनाद किया।

1850 से 1915 तक का काल छत्तीसगढ के काव्य साहित्य में मध्ययुग के नाम से जाना जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन से उसकी संगति भले ही न बैठ पाए किन्तु काव्य की अवधारण और विषयवस्तु की दृष्टि से इस काल में उसी तरह की कविताएँ लिखी गईं जिस तरह की कविताएँ हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल में लिखी र्गइं। इसकी शुरूआत आरंभकाल के कवि माखनचन्द्र मिश्र से हो चुकी थी। उन्होंने ’छंद विलास’ नामक ग्रंथ लिखकर ’लक्षण ग्रंथ’ की रचना का श्रीगणेश किया था। रघुवर दयाल ने ’छंद रत्नमाला’, उमराव बख्शी ने ’अलंकार माला’, खेमकरण ने ’सुभात विलास’ और भानु कवि ने ’छंद प्रभाकर’ की रचना कर हिन्दी साहित्य के लक्षण ग्रंथों की वृद्धि में अपना योगदान दिया। मध्यकाल के प्रमुख कवियों में बिसाहू राम, बनमाली प्रसाद श्रीवास्तव, जगन्नाथ प्रसाद भानु, दशरथ लाल, सैयद मीर अली मीर, पुन्नी लाल शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद दुबे, लोचन प्रसाद पाण्डेय, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, प्यारे लाल गुप्त, मावली प्रसाद श्रीवास्तव, बल्देव प्रसाद मिश्र, राजा चक्रधर सिंह, द्वारिका प्रसाद तिवारी ’विप्र’ आदि हैं। इस युग की कविता में साहित्य की मूलधारा के साथ ही साथ जन-संस्कृति की मनोरम झांकी दिखाई देती है। लोक का दुख, पीड़ा, शोषण तथा आशा-निराशा के अतिरिक्त जन मानस में मैजूद जीवन शैली और उनके सामाजिक संबंधों को लेकर बेबाक कविता लिखने की परंपरा दिखाई देती है। इसी युग में सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को संपूर्णता में अभिव्यक्ति देने वाले महाकाव्यों की रचना हुई। बिसाहू राम, सुखलाल पाण्डेय, बलदेव प्रसाद मिश्र, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, मधुकर आदि को प्रमुख महाकाव्यकार के रूप में देखा जा सकता है।

छत्तीसगढ़ के काव्य साहित्य के 1915 से 1950 के काल को आधुनिक युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस काल में छत्तीसगढ से हिन्दी साहित्य के सर्वथा नये युग का सूत्रपात होता है। काव्य के क्षेत्र में नई अभिव्यंजना शैली, नए चिंतन, नए प्रतीकों और बिंबों का उद्भव और विकास इसी युग में होता है। साहित्येतिहास में इस काव्यधारा को छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रथम कवि और जनक के रूप में पं. मुकुटधर पाण्डेय को माना जाता है। बावजूद इसके इस काल के कवियों ने अपने आप को सामाजिक जीवन से अलग नहीं किया। अन्य छायावादी कवियों की तरह काव्य के माध्यम से वायवीय छाया बुनने के बजाय इन कवियों ने जमीन से जुड़कर सामाजिक यथार्थ की बुनावट को पहचानने की कोशिश की। उनकी संवेदनात्मक दृष्टि और संवेदनात्मक ज्ञान से जीवन के सत्य को पकड़ने और पहचानने का निरंतर प्रयास किया। इस काल के अन्य कवियों में पं. शेषनाथ शर्मा ’शील’, कुंजबिहारी चौबे, रामेश्वर शुक्ल ’अंचल’, स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, घनश्याम प्रसाद ’श्याम’, केदार नाथ चंद, लाला जगदलपुरी, जयनारायण पाण्डेय, हेमनाथ यदु, गोविन्द लाल अवधिया, वेणुधर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।

1950 के बाद के युग को छत्तीसगढ के साहित्य इतिहासकारों ने नये स्वर-युग का नाम दिया है। वस्तुतः इस नामकरण की सार्थकता भी है। इस युग में कविता वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नये अर्थगांभीर्य के साथ सामने आई। अपने युग के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक घटनाओं पर कविता की स्पष्ट प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी थी। कविता का सामाजिक उद्देश्य और सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट होती जा रही थी। भाववादी कविता का दौर लगभग समाप्त हो रहा था और इसके स्थान पर यथार्थवादी कविता सामने आ रही थी। यह सही है कि इस दौर की कविता जटिल सामाजिक यथार्थ की पारदर्शिता की कसौटी पर पूर्णतः खरी भले ही न उतरती हो, संवेदना के तलदर्शी स्वरूप की कमी भले ही इन कविताओं में दिखाई देती रही हो, जीवन सत्य को परत-दर-परत खोलने में कविता भले ही उतनी सक्षम न दिखाई देती रही हों, फिर भी इन कविताओं में काव्यात्मक ईमानदारी के साथ ही साथ समाज के साथ ईमानदार जुड़ाव अवश्य दिखाई दे रहा था। इस युग के कवियों में हरि ठाकुर, गुरूदेव कश्यप, सतीष चौबे, नारायण लाल परमार, ललित मोहन श्रीवास्तव, देवी प्रसाद वर्मा, राजेन्द्र मिश्र, राधिका नायक, विद्याभूषण मिश्र, अशोक वाजपेयी, मोहन भारती, प्रभंजन शास्त्री, मुकीम भारती, सरोज कुमार मिश्र, प्रभाकर चौबे, ललित सुरजन आदि प्रमुख थे।

सामाजिक चेतना और संवेदना की तलदर्शिता तक पहुँचने का प्रयास करने वाले इस काल के वरिष्ठ कवियों की ऊपरी सतह को तोड़कर, अंदर तक जाकर गहरी संवेदना तथा सामाजिक चेतना की पहचान नई पीढ़ी के कवियों ने की। इन कवियों की कविताओं में समाज के तलदर्शी यथार्थ को न केवल अभिव्यक्ति मिली वरन् वर्ग विभाजित समाज की वर्गीय संरचना भी अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ सामने आई। नई पीढ़ी के ऐसे कवियों में जीवन यदु, एकांत श्रीवास्तव, बसंत त्रिपाठी, रवि श्रीवास्तव, महावीर अग्रवाल, शरद कोकाश, आलोक वर्मा, स्व. लक्षमण कवष आदि प्रमुख हैं। इन कवियों ने सामाजिक संरचना को बेहद सरल बिंबों में बांधकर प्रस्तुत किया। मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले इन कवियों की सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट रही है।

छत्त्ीसगढ़ में हिन्दी काव्य साहित्य की तरह ही गद्य साहित्य की भी समृद्ध परंपरा रही है। कथा साहित्य के क्षेत्र में 1901 में ’छत्त्ीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी ’टोकरी भर मिट्टी’ को मील के पत्थर के रूप में माना जाता है। कथ्य, तथ्य और भाषा शैली की दृष्टि से कई समीक्षकों ने इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। इसी क्रम में लोचन प्रसाद पाण्डेय की कहानियों को याद किया जा सकता है। ’गरूड़माला’ में प्रकाशित उनकी ’जंगल रानी’ कहानी पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला था। 1905 में लोचन प्रसाद पाण्डेय की ’दो मित्रा’ नम से कथा संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसे इस अंचल का प्रथम कहानी संग्रह कहा जा सकता है। मुुकुटधर पाण्डेय और कुलदीप सहाय की कहानियाँ उस दौर की महत्वपूर्ण पत्रिका ’माधुरी’ में प्रकाशित हो रही थी। मावली प्रसाद श्रीवास्तव की कहानी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई और सरस्वती कहानी प्रतियोगिता में उन्हें तृतीय पुरस्कार मिला। पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी तो हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे ही। इसके अतिरिक्त प्यारेलाल गुप्त, शिवप्रसाद, काशीनाथ पाण्डेय, घनश्याम प्रसाद, केशव प्रसाद वर्मा, केदारनाथ झा ’चन्द्र’ प्रमुख कहानीकार हैं। बाद की पीढ़ी में मधुकर खेर, प्रदीप कुमार प्रदीप, नारायण लाल परमार, लाला जगदलपुरी, पालेश्वर शर्मा, प्रमोद वर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव, चन्द्रिका प्रसाद सक्सेना, इन्द्रभूषण ठाकुर, देवी प्रसाद वर्मा आदि कहानीकारों ने इस अंचल के कथासाहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

1956 में कथासाहित्य के क्षेत्र में एक नया आन्दोलन प्रारंभ होता है, जिसे नई कहानी अन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस अंचल के शरद देवड़ा और शानी को नई कहानी आन्दोलन का महत्वपूर्ण कहानीकार माना जा सकता है। सचेतन कहानी आन्दोलन के कहानीकार के रूप में इस अंचल के महनकर चौहान और श्याम व्यास का नाम प्रमुख कहानीकार के रूप में लिया जा सकता है। कथासाहित्य के क्षेत्र में श्रीकान्त वर्मा बेहद चर्चित नाम रहे हैं। कई समीक्षक उसे अकहानी आन्दोलन के साथ जोड़ते हैं। श्रीकान्त वर्मा इसी अंचल के कथाकार थे। महिला कहानीकारों में शशि तिवारी और मेहरून्निसा परवेज की कहानियाँ हिन्दी कथासाहित्य के क्षेत्र में काफी चर्चित रहीं। इसके अतिरिक्त प्रभाकर चौबे, नरेन्द्र श्रीवास्तव, श्याम सुन्दर त्रिपाठी ’पथिक’, जयनारायण पाण्डे, गजेन्द्र तिवारी आदि इस अंचल के प्रमुख कहानीकार रहे हैं।

नई पीढ़ी के कहानीकारों में लोक बाबू, परदेसी रामवर्मा, मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी, नासिर अहमद सिकन्दर, आनंद हर्षुल, ऋषि गजपाल आदि की कहानियाँ इस दौर की सशक्त कहानियाँ मानी जाती हैं। इनकी कहानियों में सामाजिक अंतर्विरोध, समाज की वर्गीय संरचना, सामाजिक विडंबना, शोषक और शोषित के चरित्र का यथार्थपरक चित्रण हुआ है तथा कहानियों से जनमानस में नई सामाजिक चेतना जागृत करने में उन्हें सफलता मिली है।

छत्तीसगढ़ अंचल के निबंध विधा पर लेखन की परंपरा भी काफी पुष्ट रही है। प्रारंभिक दौर में धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर निबंध लेखन हुआ। प्रारंभिक दौर के निबंधकारों में बिसाहू राम और अनंत राम पाण्डेय प्रमुख हैं। इस दौर में अनंतराम पाण्डेय के समालोचनात्मक निबंध भी देखने को मिलते हैं। वास्तव में निबंध की सुदृढ़ परंपरा माधवराव सप्रे से शुरू होती है। उन्होंने ’छत्तीसगढ़ मित्रा’ के माध्यम से निबंध के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, पं. राम दयाल तिवारी और बाबू कुलदीप सहाय ने इस विधा को आगे बढ़ाया। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने विविध विषयों पर निबंधों की रचना कर निबंध विधा का विस्तार किया। उन्होंने आत्म परक, संस्मरणात्मक तथा मनोवैज्ञानिक विषयों पर बेहद सहज, सरल निबंधों की रचना की तथा सरस्वती के संपादक के रूप में निबंध साहित्य को नई दिशा देने की कोशिश की। पं. मुकुटधर पाण्डेय ने छायावादी निबंधों की रचना कर हिन्दी साहित्य को चिंतन का सर्वथा नया आयाम दिया। यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, केशव प्रसाद वर्मा, जयनारायण पाण्डेय, शारदा तिवारी, नारायण लाल परमार, पं. रामकिशन शर्मा डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, धनंजय वर्मा आदि विद्वानों को निबंधकार के रूप में राष्ट्रीय ख्याति मिली।

समकालीन निबंध लेखन में अधिकांशतः समीक्षात्मक लेखों के रूप में निबंध लेखन हो रहा है। हिन्दी की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय  एवं अंतराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के समीक्षात्मक लेख निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। डॉ. राजेश्वर सक्सेना, डॉ. धनन्जय वर्मा, डॉ. प्रमोद वर्मा. प्रभाकर चौबे, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, रमेश अनुपम, डॉ. गोरेलाल चंदेल, जय प्रकाश साव आदि के समीक्षात्मक लेख पहल, सापेक्ष, वसुधा, वर्तमान साहित्य, साक्षात्कार, पल-प्रतिपल, जिज्ञासा आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, एकांकी आदि विधाओं में भी छत्तीसगढ़ में लगातार उच्चस्तरीय लेखन हो रहा है।

विगत 15-20 वर्षों से छत्तीसगढ़, प्रदेश की साहित्यिक गतिविधयों का केन्द्र रहा है, कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अंचल में नई-नई साहित्यिक प्रतिभाओं की रचनाओं पर निरंतर गोष्ठियाँ एवं सेमीनार आयोजित हो रहे हैं और उनकी रचनात्मकता को विकसित होने का अवसर मिल रहा है। अंचल की रचनाशीलता को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य रायपुर से प्रकाशित दैनिक देशबंधु और उसके संपादक ललित सुरजन ने किया है। साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन में भी उनकी अग्रणी भूमिका रही है। इसी दिशा में ’सापेक्ष’ पत्रिका और श्री प्रकाशन के माध्यम से महावीर अग्रवाल का प्रयास भी सराहनीय है। छत्तीसगढ़ अंचल में साहित्यिक संभावनाओं की कमी नहीं है; केवल उनकी सृजनशीलता को प्रकाश में लाने के साधनों की आवश्यकता है।
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151, दाऊ चौरा, खैरागढ़
जिला - राजनांदगाँव
पिन 491881
मो. 078202 34214


शनिवार, 10 मई 2014

आलेख

साहित्य-कला और संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका "विचार वीथी" अंक फरवरी-अप्रेल 2014 का संपादकीय
www.vicharvithi.com  से साभार

न छत्‍तीसगढ़ी में कुछ सोचो, न ही कुछ लिखो बस छत्‍तीसगढ़ी राजभाषा का झुनझुना बजाने में मस्‍त रहो ?
'' चढ़ने '' का मतलब समझते  है राजभाषा आयोग के सचिव.......?
24 और 25 फरवरी को राजधानी के रवीन्द्र सांस्कृतिक सभागार, कालीबाड़ी स्कूल परिसर में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का द्वितीय ’प्रांतीय सम्मेलन 2014’ संपन्न हुआ। कहा जा रहा है कि इस दो दिवसीय आयोजन में छत्तीसगढ़ के लगभग 500 विद्वान-साहित्यकार, कलाकार एवं पत्रकार एकत्रित हुए। छत्तीसगढ़ में और भी बहुत से विद्वान हैं जिनका उल्लेख न तो आयोग द्वारा छपवाए गए आमंत्रण-पत्र में हुआ है और न ही जो पाँच सौ विद्वानों-कलाकारों की भीड़ थी उसमें नजर ही आये। पिछले आयोजन में भी ऐसा ही कुछ नजारा देखने में आया था। साहित्यिक अस्पृष्यता और वर्गभेद की आशंका को जन्म देने वाली ऐसी घटना क्या अनजाने में हो रही है, या किसी नीति के तहत हो रही हैं ? जैसा भी हो, पर है यह दुखद।

दो दिनी इस आयोजन में उपस्थित साहित्यकारों को अपनी बातें कहने के लिये और विभिन्न मुद्दों-विषयों पर गहन चर्चा-विमर्श करने के लिये कुल सात सत्रों (समापन सत्र को मिलाकर) का आयोजन किया गया था। उम्मीद थी कि इन सत्रों में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के गठन के उद्देश्यों और लक्ष्यों पर और इन उद्देश्यों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के विभिन्न उपायों और प्रयासों पर चर्चाएँ होगी, और इस हेतु योजनाएँ भी बनाई जायेगी। परंतु खेद का विषय है कि इन सत्रों के लिये निर्धारित विषयों में से ’छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग’ गठन के पीछे का उद्देश्य और लक्ष्य पूरी तरह गायब थे, चर्चाएँ क्या खाक होती। छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के वेब साइट पर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के गठन के पीछे निम्न उद्देश्यों और लक्ष्यों का उल्लेख किया गया है -

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग
(छत्तीसगढ़ शासन)
उद्देश्य/लक्ष्य
राज्य के विचारों की परम्परा और राज्य की समग्र भाषायी विविधता के परिरक्षण, प्रचलन और विकास करने तथा इसके लिये भाषायी अध्ययन, अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, सृजन तथा अनुवाद, संरक्षण, प्रकाशन, सुझाव तथा अनुशंसाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी पारम्परिक भाषा को बढ़ावा देने हेतु शासन में भाषा के उपयोग को उन्नत बनाने के लिए ‘‘छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग’’ का गठन किया गया है। आयोग के प्राथमिक लक्ष्य एवं उद्देश्य निम्नांकित हैं:-

1. राजभाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज कराना
2. राजकाज की भाषा में उपयोग
3. त्रिभाषायी भाषा के रूप में प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षाओं में पाठ्यक्रम में शामिल करना
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ऐसे उद्देश्यहीन आयोजनों का क्या औचित्य जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रूपयों की आहूति दे दी जाती हो?
छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाये जाने के संबंध में हो अथवा प्राथमिक कक्षाओं के लिए शिक्षण का माध्यम बनाने के विषय में हो, चाहे आयोजन के किसी सत्र में इस पर कोई चर्चा न की गई हो, परंतु सत्र के बाहर और मंच के नीचे उपस्थित लगभग हर साहित्यकार परस्पर केवल इन्हीं विषयों पर चर्चा कर रहे होते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही ये ऐसे बहुचर्चित विषय रहे हैं जो चर्चा के रूप में पढ़े-लिखे लोगों के बीच हर जगह और हर मौके पर उपस्थित रहते आये हैं और जिसके लिए किसी विशेष चर्चा-गोष्ठी के आयोजनों की दरकार भी नहीं है। पर इस प्रकार की चर्चाएँ मूल्यहीन होती है। पान ठेलों में गपियाते हुए, बाजारों, सड़कों और सफर के दौरान टाईम पास करने के उद्देश्य से चर्चा करते हुए ऐसे बहसों का वह मूल्य तो कदापि नहीं हो सकता जो राजभाषा आयोग द्वारा आयोजित इन आयोजनों के विभिन्न सत्रों में विद्वानों के बीच होने से होता। 
पर ठहरिये। जरा सोचें। कल्पना करें कि बच्चा बिगड़ा हुआ है, किसी चीज के लिए मचल रहा है। अभिभावक को काम करने में बाधा पड़ रही है। समझदार अभिभावक बच्चे को उसकी इच्छित वस्तु देकर चुप करा देता है। बच्चे का ध्यान अब अपने अभिभवक की ओर से हटकर झुनझुना बजाने की ओर चला जाता है। तब अभिभावक अपनी मनमानी करने के लिये स्वतंत्र हो जाता है।

छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने अथवा त्रिभाषायी भाषा के रूप में प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षाओं में पाठ्यक्रम में शामिल करने की बातें, ऐसा ही एक झुनझुना है। छत्तीसगढ़ के लोगों, न तो छत्तीसगढ़ी में कुछ सोचो और न ही कुछ लिखो; बस, छत्तीसगढ़ी राजभाषा का झुनझुना बजाने में मस्त रहो।
छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों के बीच साहित्यिक अस्पृष्यता और वर्गभेद जैसी लकीर खीचने वाले और यहाँ के पढ़े-लिखे लोगों को छत्तीसगढ़ी राजभाषा का झुनझुना पकड़वाने वाले ऐसे आयोजनों को आप असफल कह सकते हैं?

तब भी छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी को मातृतुल्य प्रेम करने वाले ऐसे छत्तीसगढ़िया साहित्यकारों की कमी नहीं है जो पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले से ही ( और कई उसके बाद में भी ) छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों, गाँवों और कस्बों के स्तर में साहित्यिक संस्थाएँ बनाकर बिना किसी शासकीय अनुदान के ही ( क्योंकि मांगने पर भी इन्हें आश्वसनों के अलावा कुछ मिलता ही नहीं ) अपनी प्रिय मातृभाषा छत्तीसगढ़ी की सेवा और साहित्य सृजन में निरंतर रत हैं। इनमें से कई साहित्यिक संस्थाएँ पंजीकृत भी हैं। इन संस्थाओं को अपने दम पर चलाने वाले समर्पित और जुनूनी साहित्यकारों के द्वारा निरंतर साहित्यिक संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, जिनका स्तर छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग द्वारा करोड़ों रूपयों के आयोजन के स्तर से कही लाख दर्जे की होती हैं। ये लोग अपनी खून-पसीने की कमाई खर्च करके अपनी पुस्तकों को छपवाते हैं और छपवाकर मुफ्त में बाँटते भी हैं।

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पास ऐसी कितनी साहित्यिक संस्थाओं की और उनसे जुड़े हुए कितने साहित्यकारों की जानकारी है ? आयोग अपने प्रान्तीय सम्मेलनों में इनमें से कितनी संस्थाओं को सहभागी बनाता है अथवा कम से कम उन्हें आमंत्रित ही करता है ? क्या आयोग ने ऐसी संस्‍थाओं को कभी वित्तीय सहायता भी प्रदान किया है ?

छत्तीसगढ़ी भाषा कहावतों और मुहावरों की भाषा है। छत्तीसगढ़ी में कहावतों और मुहावरों को हाना कहा जाता है। बात-बात में हानों का प्रयोग करना छत्तीसगढ़ी बोलने वालों का स्वभाव है। एक हाना है - ’’ किसी के ऊपर या किसी की माँ-बहन के ऊपर चढ़ना ’’ जिसका अर्थ होता है माँ-बहन की इज्जत से खेलना अथवा बलात्कार करना। गौरव की बात है कि देश ही नहीं विदेशों में भी समादृत हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध  कवि पदश्री डॉ. सुरेन्‍द्र दुबे छत्‍तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के सचिव है। डॉ. दुबे जी वर्षों से छत्तीसगढ़ के हर कवि सम्मेलन में एक कविता सुनाते आ रहे हैं जिसकी कुछ पक्तियाँ इस प्रकार हैं - ’’बस्तर ले निकल, अमटहा भाटा ल चुचर, बमलई म चढ़, इही ल कहिथे छत्तीसगढ़।’’ माँ बमलई न केवल छत्तीसगढियों की़ अपितु संसार भर में निवासरत अनेक हिन्दुओं की आराध्या देवी हैं। डोगरगढ़ की पहाड़ियों में स्थित माँ बमलेश्वरी मंदिर की गिनती हिन्दुस्तान के प्रमुख शक्तिपीठों में होती है। मंचों पर काव्यपाठ करते हुए और बड़े गर्व के साथ ’बमलई म चढ़’ कहते हुए छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के यशस्वी सचिव व हमारे प्रदेश के महान साहित्यकार डॉ. सुरेन्द्र दुबे को तनिक भी लाज नहीं आती होगी ? क्या छत्तीसगढ़ की प्रमुख आराध्या देवी के लिये इस हद दर्जे की कविता लिखने वाले और छत्तीसगढ़ के सवा दो करोड़ लोगों की भावनाओं को आहत करने वाले ऐसे तथाकथित महान कवि-साहित्यकार को छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के सचिव पद पर बने रहने का अधिकार भी बनता है?
सोचिये।

सोमवार, 5 मई 2014

आलेख

परसाई के चिचार

’भारत को चाहिए: जादूगर और साधु’ नामक निबंध  का अंश।


साधु कहता है- ’’शरीर मिथ्या है। आत्मा को जगाओ। उसे विश्वात्मा से मिलाओ। अपने को भूलो। अपने सच्चे स्वरूप को पहचानो। तुम सत्-चित्- आनंद हो।’’

आनंद ही ब्रह्म है। राशन ब्रह्म नहीं। जिसने ’अन्न ब्रह्म’ कहा था, वह झूठा था। नौसिखिया था। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्न नहीं ’आनंद’ ही ब्रह्म है।

पर भर पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है तो ब्रह्म एक नहीं अनेक हुए। यही शास्त्रोक्त भी है - ’एको ब्रह्म बहुस्याम’। ब्रह्म एक है पर कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दूकान की लाईन में खड़ा रहता है, तीसरा रेल्वे के पुल के नीचे सोता है। सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।

शक्कर में पानी डालकर जो उसे वजनदार बनाकर बेचता है; वह भी ब्रह्म है और जो मजबूरी में उसे खरीदता है, वह भी ब्रह्म है।

ब्रह्म, ब्रह्म को धोखा दे रहा है।

साधु का यही काम है कि मनुष्य को ब्रह्म की ओर ले जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि ’ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’।
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आलेख

परसाई के चिचार

’पगडंडियों का जमाना’ नामक निबंध का अंश


मैं जिसे देवता समझ बैठा था, वह तो आदमी निकला। मैंने अपनी आत्मा से पूछा - ’हे मेरी आत्मा, तू ही बता! क्या गाली खाकर, बदनामी करवाकर मैं ईमानदार बना रहूँ?’

आत्मा ने जवाब दिया - ’नहीं, ऐसी कोई जरूरत नहीं है। इतनी जल्दी क्या पड़ी है? आगे जमाना बदलेगा, तब बन जाना।’

मेरी आत्मा बड़ी सुलझी हुई बात कह देती है, कभी-कभी। अच्छी आत्मा ’फोल्डिंग’ कुर्सी की तरह होनी चाहिए। जरूरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया। जब कभी आत्मा अड़ंगा लगाती है, तब मुझे समझ में आता है कि पुरानी कथाओं के दानव अपनी आत्मा को दूर पहाड़ी पर तोते में क्यों रख देते थे। वे उससे मुक्त होकर बेखटके दानवी कर्म कर सकते थे। देव और दानव में अब भी तो यही फर्क है - एक की आत्मा अपने पास ही रहती है और दूसरे की उससे दूर।

मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी-किसी आदमी में रख देते हैं।
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