साभार:
साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका ’विचार वीथी’ मई - जुलाई 2014 अंक का संपादीय
साहित्य-कला-संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका ’विचार वीथी’ मई - जुलाई 2014 अंक का संपादीय
छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार : अपना उत्तरदायित्व समझें
अंतत:
किसी कवि ने कहा है - ’छत्तीससगढ़ में सब कुछ है, पर एक कमी है स्वाभिमान
की। मुझसे सही नहीं जाती है, ऐसी चुप्पी वर्तमान की।’ कविता की इन पक्तियों
में कवि की एक ओर जहाँ छत्तीसगढ़ के प्रति अगाध प्रेम, समर्पण और अटूट
आस्था अभिव्यक्त होती है वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढिय़ों के शोषण
और अपमान के प्रति उनका क्षोभ भी दिखाई देता है। स्वाभिमान को तार-तार करने
वाला, छत्तीसगढिय़ों का अनावश्यक व कायराना भोलापन और उनकी चुप्पी के प्रति
आक्रोश के भाव की अभिव्यंजना भी होती है। पर इस तथ्य से इन्कार करना
मूर्खता होगा कि अमीर धरती के गरीब छत्तीसगढिय़ों की इस दीन-हीन स्थिति के
लिए कोई और कारण जिम्मेदार नहीं है बल्कि उनका यही अनावश्यक व कायराना
भोलापन, उनकी अनावश्यक व कायराना चुप्पी ही उनकी इस स्थिति के लिए
जिम्मेदार है।
छत्तीसगढिय़ों के लिए
कहा जाता है - ’पहिली जूता पाछू बात, तब आवै छत्तीसगढिया हाथ’। खेतों और
खदानों में पुरूषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करने वाली यहाँ की
श्रमशील हमारी माताओं और बहनों को अपमानित करने के लिए कहा जाता है -
’छत्तीसगढ़ की औरतें छत्तीस-छत्तीस मर्द बनाती हैं’। शोषको के इसी मानसिकता
का परिणाम है कि ’अमटहा भाटा ल चुचर, बमलई म चढ़, इही ल कहिथे छत्तीसगढ़।’
जैसी कविताएँ कवि मंचों पर रस ले-लेकर कही और सुनी जाती हैं। छत्तीसगढ़ और
छत्तीसगढिय़ों के लिए जो परिभाषा इस पंक्ति में गढ़ी गई है, यहाँ की आराध्य
देवी के लिये जो मुहावरा कहा गया है; छत्तीसगढ़ी भाईयों और यहाँ की
माताओं-बहनों के लिए जो बातें पहले से ही कही जाती रही हैं, उसे सिर्फ और
सिर्फ यही के लोग बेशर्मी के साथ सुन और सह सकते हैं; सुनकर भी मुर्दों के
समान चुप्पी साधे रह सकते हैं। हमारा यही अनावश्यक व कायराना भोलापन, और
अनावश्यक व कायराना चुप्पी हमारी नेतृत्व क्षमता पर भी दिखाई देती है।
हमारा नेतृत्व यहाँ के बहुंख्यक समुदाय के हाथों में कभी नहीं रहा; आयातित
नेतृत्व का अनुचर और अनुगामी की भूमिका ही हम हमेशा पसंद करते रहे हैं, इसी
में संतुष्ट होते रहे हैं। ऐसा आखिर कब तक ?
यहाँ
की इस स्थिति के लिए यहाँ की आम जनता से अधिक दोषी यहाँ के बुद्धिजीवी,
कवि और साहित्यकार हैं। माना कि साहित्य से क्राँतियाँ नहीं होती, पर
क्राँति का मशाल जलाने के लिए चिंगारी और क्राँतिकारियों के दिलों में आग,
तो यहीं से पैदा होती है। छत्तीसगढ़ में कवियों और साहित्यकारों की कमी
नहीं है, देश की आजादी की लड़ाई समय से ही यहाँ साहित्यकारों की एक समृद्ध
परंपरा रही है। इनके साहित्य में क्राँति का मशाल जलाने के लिए चिंगारी और
क्राँतिकारियों के दिलों में आग भड़काने की अद्भुत क्षमता भी होती थी, पर
कवि-साहित्यकारों की आज की पीढ़ी, अपनी इस समृद्ध साहित्यिक विरासत को
संभालने, सहेजने और आगे बढ़ाने में विफल रही है। छत्तीसगढ राज्य बनने के
बाद तो यहाँ कवियों की भीड़ दिखाई देने लगी है। विचार वीथी के हर अंक के
लिए छत्तीसगढ़ के सहित्यकारों के द्वारा नियमित रूप से मुझे पर्याप्त
मात्रा में नई प्रकाशित पुस्तकें प्राप्त होती रहती हैं, परन्तु प्रारंभ
में कविता की जिन पँक्तियों का मैंने उल्लेख किया है, उस तरह की कविता, उस
तरह के कवि और क्राँति का मशाल जलाने के लिए जिस चिंगारी की आवश्यकता है,
और क्राँति के लिए दिलों में आग पैदा करने के लिए साहित्य में जिस आग की
जरूरत है, उसे पैदा करने वाला आज न तो कोई कवि ही दिखाई देता है और न ही
वैसी पँक्तियाँ ही पढऩे को मिलती हैं।
विचार
वीथी के पहले के अंकों में भी मैंने यह मुद्दा उठाया था। अपने आदरणीय
साहित्यकारों से मैं पुन: निवेदन करना चाहता हू कि वे अपने साहित्यिक
उत्तरदायित्व को समझें। समकालीन साहित्य की अवधारणाओं और प्रवृत्तियों को
समझें। कोरी कल्पना का उड़ान भरना छोड़ें, यथार्थ की कड़वी और कठोर धरातल
का दामन थामें, हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व कायराना
चुप्पी पर प्रहार करने वाली, उसे तोडऩे वाली रचनाओं का सृजन करें।
याद
रखें, हमारा नेतृत्व करने के लिए नेताओं का आयात करने की जरूरत नहीं है,
हमारे नहीं चाहने पर भी वे आयातित होते रहेंगे, हमें मिलते रहेंगे; परन्तु
वे हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व कायराना चुप्पी को और
अधिक स्थायी बनाने का प्रयास ही करेंगे, क्योंकि इसी में उनका हित सधता है।
हमारी अनावश्यक व कायराना भोलापन, और अनावश्यक व
कायराना चुप्पी को तोडऩे वाला तो हममें से ही कोई पैदा हो सकता है। चर्चा जारी रहेगा .........।
संपादक
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