मंगलवार, 28 मार्च 2017
रविवार, 26 मार्च 2017
आमुख
आगामी कविता संग्रह - ’’कुछ समय की कुछ घटनाएँ’’ में मेरी बात -
ताप और गतिशीलता जीवन की पहचान है। इससे जीवन की पुष्टि और परख होती है। जीवन में ताप और गतिशीलता पैदा करना भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है। ताप के लिए आग की जरूरत होती है। सारी सभ्यताओं के मूल में आग ही है। आग इंधन के जलने से पैदा होती है। जीवन की आग विचार रूपी इंधन से उत्पन्न आग होती है। जीवन में गतिशीलता लाने के लिए नये और बेहतर का अनुसंधान जरूरी है। इसके लिए जरूरी ऊर्जा विचारों की आग से आती है। विचार एक तरंग है। तरंग और विक्षोभ पैदा करने के लिए निर्दिष्ट स्थान पर उचित आघात आवश्यक है। यह प्रयास भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है।
इस संग्रह में संकलित कविता ’अभिलाषा इतिहास की’ आरंभिक दिनों में लिखी गई कविता है जिसे परिमार्जित करके संकलित किया गया है। अन्य कविताएँ विगत छः वर्षों के अंतराल की मेरी वैचारिक संघर्ष की उपज है। उम्मीद है, आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
मैं अग्रजतुल्य आदरणीय डाॅ.बिहारीलाल साहू,हितचिंतक डाॅ. नरेश कुमार वर्मा तथा अपने मित्रों का आभारी हूँ; जिनका इस संग्रह के प्रकाशन में विशेष योगदान रहा।
मेरी बात
समय के किसी खण्ड में एक साथ होना या एक साथ पाया जाना शायद समकालीन होना कहा जाता है। हमारे पहाड़ और हमारी नदियाँ सदियों से न जाने कितनी सभ्यताओं, कितनी पीढ़ियों और कितनी जातियों के समकालीन रहे हैं। ये अपने युग के प्रकाश और अंधकार - दोनों के भी समकालीन रहे हैं। ये भी अपने युग का इतिहास लिखते हैं। इन्हांेने अपने युग का इतिहास लिखते समय अपने उस काल के प्रकाश का ही नहीं, अंधकार का भी इतिहास लिखा है। इन्होंने मनुष्य का भी इतिहास लिखा है, परन्तु अपनी भाषा में। इनका लिखा इतिहास और साहित्य उस दौर के इतिहासकारों और साहित्यिकों द्वारा लिखे इतिहास और साहित्य के समकालीन ही हैं और इनका लेखन इनसे कहीं अधिक यथार्थपरक, अधिक प्रमाणिक, अधिक प्राकृतिक और अधिक कलात्मक भी हैं। परन्तु प्रकृति की भाषा मनुष्य की भाषा नहीं है। इसे मानवीय भाषा में रूपान्तरित करना आसान भी नहीं है। इसीलिए मनुष्य द्वारा अपनी भाषा में लिखा गया अपना इतिहास और अपना साहित्य ही मनुष्य का अपना इतिहास और अपना साहित्य है। मनुष्य अपना इतिहास लिखते हुए प्रकृति लिखित इतिहास की अनदेखी नहीं कर सकता, न हीं करना चाहिए। कुछ भी हो, पर इससे इतना तो तय होता है कि समकालीन साहित्य प्रमाणिक और प्राकृतिक होना चाहिए। समकालीन साहित्य में न केवल प्रकाश अपितु अंधकार की भी पड़ताल होनी चाहिए। इसकी भाषा मनुष्य की भाषा होनी चाहिए। उस समय की सच्चाई और युगीन यथार्थ की उपेक्षा करके यह संभव नहीं है। उस समय के अंधकार की उपेक्षा करके भी यह संभव नहीं है।
ताप और गतिशीलता जीवन की पहचान है। इससे जीवन की पुष्टि और परख होती है। जीवन में ताप और गतिशीलता पैदा करना भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है। ताप के लिए आग की जरूरत होती है। सारी सभ्यताओं के मूल में आग ही है। आग इंधन के जलने से पैदा होती है। जीवन की आग विचार रूपी इंधन से उत्पन्न आग होती है। जीवन में गतिशीलता लाने के लिए नये और बेहतर का अनुसंधान जरूरी है। इसके लिए जरूरी ऊर्जा विचारों की आग से आती है। विचार एक तरंग है। तरंग और विक्षोभ पैदा करने के लिए निर्दिष्ट स्थान पर उचित आघात आवश्यक है। यह प्रयास भी समकालीन साहित्य का उत्तरदायित्व है।
इस संग्रह में संकलित कविता ’अभिलाषा इतिहास की’ आरंभिक दिनों में लिखी गई कविता है जिसे परिमार्जित करके संकलित किया गया है। अन्य कविताएँ विगत छः वर्षों के अंतराल की मेरी वैचारिक संघर्ष की उपज है। उम्मीद है, आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
मैं अग्रजतुल्य आदरणीय डाॅ.बिहारीलाल साहू,हितचिंतक डाॅ. नरेश कुमार वर्मा तथा अपने मित्रों का आभारी हूँ; जिनका इस संग्रह के प्रकाशन में विशेष योगदान रहा।
कुबेर
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शनिवार, 25 मार्च 2017
आमुख
आगामी कविता संग्रह - ’कुछ समय की कुछ घटनाएँ इस समय’ की भूमिका
इधर, विगत कुछ शताब्दियों से दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है, विकृत हो रहा है। व्यावसायिक जगत के बिजूकों और विज्ञान के बाजीगरों ने पूरी दुनिया को ’विश्वग्राम’ बनाने के बहाने कसाईबाड़ा या कूड़ादान बनाने का निकृष्टतम कार्य कर दिखाया है। सियासतदारों ने भी इस जन-विरोधी कार्य में उनका बखूबी साथ निभाया है। नतीजतन, यह दुनिया बड़ी तेजी से बाजार में तब्दील होती जा रही है और आम आदमी खरीद-फरोख्त के सामान की मानिंद बिकाऊ होता जा रहा है। यह परिवर्तन है या इतिहास की अंगड़ाई या मतलबजदा तिजारतदारों और बहशी बाहुबलियों की दरींदगी। आखिर, हमारा समाज चुप क्यों है? क्या हो गया है उसके ज़मीर को? वह अपने जाने-चीन्हे दुश्मनों से जूझने का साहस क्यों नहीं कर दिखाता? क्यों उसका वजूद बेसूझ अंधेरे में गुम होता जा रहा है? ये सभी सुलगते हुए सवाल हैं जिनके हल की तलाश का अंजाम है - ’’कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय’’।
भाई कुबेर की छप्पन कविताओं की यह किताब मानव अस्मिता की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए उत्पीड़ित मानवता तक पहुँचने की प्रभावी पहल ही नहीं, प्रत्युत आदमियत के गुनहगारों से जंग छेड़ने का अभियान भी है। इस संकलन की कविताएँ कृशकाय किसानों और मेहनतकश मज़दूरों के श्रम-सीकरों से जन्मी ऊर्जा से लबरेज़ हैं। मेरी समझ में कुबेर की कविताएँ ’चकमक के पत्थर की मानिंद’ हैं, जिन्हें उछालो तो आतताइयों के सर फट जायेंगे और रगड़ो तो गरीबों के चूल्हों में आग सुलग जायेगी। कुबेर की ज्योतिर्वाही कविताएँ चंचल और वाक्पटु हैं। आप इन्हें आवाज दीजिए ........ बोलने लगेंगी, बतियाएँगी और जन जीवन की जटिलताओं को सरल-तरल बनाने का जतन करेंगी।
कुबेर के रचना-संस्कारों को राजनांदगाँव की सुरमयी माटी ने सिरजा है फलतः उनमें बख्शी, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल के काव्य संस्कार भी समाहित हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है, समकालीन हिन्दी कविता संसार में ओज और पुरोगामी विचारों के कवि कुबेर का यथोचित सम्मान होगा और उनकी कविताएँ बेहतर समाज की निर्मिति में समर्थ सिद्ध होंगी। इत्यर्थ, रचनाकार को मेरी अशेष मंगलकामनाएँ एवं हार्दिक बधाई! इति, शुभम ..........
.... स्वस्ति संवाद ....
मित्रों, यह प्रकृति की परम शक्ति है और जग-जीवन में उसकी सर्वोपरि उपस्थिति है। सृष्टि के पंचतत्व - धरती, आकाश, पवन, पानी और पावक उसके ही उपादान हैं। वस्तुतः, यह धरती प्रकृति की ही अभिराम अभिव्यक्ति है। मनुष्य इस जैव-जगत का केन्द्र बिंदु है। एतदर्थ, यह कहा जा सकता है कि प्रकृति और मनुष्य का नाभी-नाल संबंध है और उनमें गहन अंतरावलंबन भी है। लोक हितैषिता के लिए यह आदर्शतम अनुबंधन वरेण्य है। सच मानिए, जब तक इन घटकों में समरसता और संतुलन बना रहेगा, यह दुनिया खुबसूरत और खुशगवार बनी रहेगी।
इधर, विगत कुछ शताब्दियों से दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है, विकृत हो रहा है। व्यावसायिक जगत के बिजूकों और विज्ञान के बाजीगरों ने पूरी दुनिया को ’विश्वग्राम’ बनाने के बहाने कसाईबाड़ा या कूड़ादान बनाने का निकृष्टतम कार्य कर दिखाया है। सियासतदारों ने भी इस जन-विरोधी कार्य में उनका बखूबी साथ निभाया है। नतीजतन, यह दुनिया बड़ी तेजी से बाजार में तब्दील होती जा रही है और आम आदमी खरीद-फरोख्त के सामान की मानिंद बिकाऊ होता जा रहा है। यह परिवर्तन है या इतिहास की अंगड़ाई या मतलबजदा तिजारतदारों और बहशी बाहुबलियों की दरींदगी। आखिर, हमारा समाज चुप क्यों है? क्या हो गया है उसके ज़मीर को? वह अपने जाने-चीन्हे दुश्मनों से जूझने का साहस क्यों नहीं कर दिखाता? क्यों उसका वजूद बेसूझ अंधेरे में गुम होता जा रहा है? ये सभी सुलगते हुए सवाल हैं जिनके हल की तलाश का अंजाम है - ’’कुछ समय की कुछ घटनाएँ: इस समय’’।
भाई कुबेर की छप्पन कविताओं की यह किताब मानव अस्मिता की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए उत्पीड़ित मानवता तक पहुँचने की प्रभावी पहल ही नहीं, प्रत्युत आदमियत के गुनहगारों से जंग छेड़ने का अभियान भी है। इस संकलन की कविताएँ कृशकाय किसानों और मेहनतकश मज़दूरों के श्रम-सीकरों से जन्मी ऊर्जा से लबरेज़ हैं। मेरी समझ में कुबेर की कविताएँ ’चकमक के पत्थर की मानिंद’ हैं, जिन्हें उछालो तो आतताइयों के सर फट जायेंगे और रगड़ो तो गरीबों के चूल्हों में आग सुलग जायेगी। कुबेर की ज्योतिर्वाही कविताएँ चंचल और वाक्पटु हैं। आप इन्हें आवाज दीजिए ........ बोलने लगेंगी, बतियाएँगी और जन जीवन की जटिलताओं को सरल-तरल बनाने का जतन करेंगी।
कुबेर के रचना-संस्कारों को राजनांदगाँव की सुरमयी माटी ने सिरजा है फलतः उनमें बख्शी, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल के काव्य संस्कार भी समाहित हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है, समकालीन हिन्दी कविता संसार में ओज और पुरोगामी विचारों के कवि कुबेर का यथोचित सम्मान होगा और उनकी कविताएँ बेहतर समाज की निर्मिति में समर्थ सिद्ध होंगी। इत्यर्थ, रचनाकार को मेरी अशेष मंगलकामनाएँ एवं हार्दिक बधाई! इति, शुभम ..........
भवदीय
(डाॅ. बिहारीलाल साहू)
9425250599, 769305059
17, किरोड़ीमल कालोनी, रायगढ़ (छ.ग.)
गुरुवार, 23 मार्च 2017
कविता
भीड़ और जानवर
हवा से केवल बातें ही नहीं करती हैं
भीड़ पर गरियाती,
भीड़ को धमकाती-चमकाती और डराती भी हैं
अब मोटर सायकिलें।
मोटर सायकिलें जब कहती हैं - टी ...... ट्
तो कह रही होती हैं - हटिए
मोटर सायकिलें जब कहती हैं - टिट् टी
तो कह रही होती हैं - हट बे
मोटर सायकिलें जब कहती हैं -
टिट्-टिट् टि-टि टिट्
तो कह रही होती हैं - दूर हट मादरचोद
मोटर सायकिलें,
मोटर सायकिल नहीं रह जाती
आदमी बन जाती हैं
और चालक भी,
आदमी नहीं रह जाता
मशीन बन जाता है
इस तरह दोनों बदल जाते हैं
भीड़ में जब दोनों धुस जाते हैं
यूँ तो हर भीड़, जानवरों की भीड़ नहीं होती है
पर हर भीड़ में, जानवर जरूर मौजूद होते हैं
भीड़ में आकर लोग, अक्सर जानवर बन जाते हैं।
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kuber
सोमवार, 20 मार्च 2017
कविता
इसे जला दो
हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
अपवित्र हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
ढेरों अपवित्र शब्दों को
हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
गंदा हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
दुनियाभर के सड़े-गले और
गंदे-गंदे शब्दों को
हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
अशुद्ध हो चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
सहेज रखा है इसने
प्यार और जतन से
पता नहीं कितने-कितने
अशुद्ध शब्दों को
हटाओं, फाड़ो, फेंको
दफना दो या जला दो
मर चुका है यह शब्दकोश
क्योंकि -
मर चुकी हैं इनकी संवेदनाएँ
न इनके शब्द
अब अपने अर्थ बदल पाते हैं
न यहाँ कोई अर्थ अपने लिए
कोई सार्थक शब्द गढ़ पाता है
हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
बेकार हो चुका है यह शब्दकोश
हम लोगों के लिए
क्योंकि -
न अर्थ, न शब्द, कुछ भी सही नहीं हैं
यहाँ हम लोगों के लिए
हटाओं, फाड़ो, फेंको
या जला दो
इस दुनिया का नहीं है यह शब्दकोश
क्योंकि -
इसे हमने नहीं बनाया है
ईश्वर ने बनाया है इसे।
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kuber
रविवार, 19 मार्च 2017
शनिवार, 18 मार्च 2017
कविता
मुँह उद्योग
बनानेवाले ने बनाया एक मुँह
रहा होगा वह कोई कलाकार
तथाकथित, कला और सौंदर्य का साधक
बेवकूफ और बेकार।
हम व्यापारी हैं
संभावनाओं के पार जाते हैं
क्लोनिंग तकनीक जानते हैं
क्लोनिंग करके एक के अनगिनत मुँह बनाते हैं।
अब हमारे पास हैं कई मुँह
कई तरह के
लुभावने भी, डरावने भी -
बाल के, खाल के,
गाल के, चाल के, कदमताल के,
सबके सब बड़े कमाल के,
कान के, जुबान के, नाक के,
पहचान के, मान-सम्मान के,
दुनिया-जहान के,
गर्दन के, नमन के, धड़कन के,
अकड़न और जकड़न के,
अटकन-मटकन के,
नखों के, आँखों के, आँसुओं के,
दुवाओं, कराहों, कहकहों, आहों के,
बाहों के, चाहों के, भावों और घावों के,
पेट और पीठ के, कूल्हों और छातियों के,
जांघों, घुटनों, एड़ियों, टखनों और तलवों के
दांतों, होठों, मुस्कानों,
अदाओं और स्तनों के जलवों के
और?
और पता नहीं
कितने, और कितने
कितने बन पाये हैं
कितने और कैसे-कैसे बनाये जायेंगे
बाजारों और दुकानों में
जिंसों की तरह इसे सजाये जायेंगे
मुँह बेचकर ही अकूत धन कमाये जायेंगे।
मुँह उद्योग आज का सर्वाधिक कमाऊ उद्योग है।
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बुधवार, 15 मार्च 2017
गुरुवार, 9 मार्च 2017
आलेख
निर्वाचित प्रत्यसी को जनप्रतिनिधि कहना ही अपने आप में हास्यास्पद है:-
चुनावों
में हमारे यहाँ मतदाता अपना मत किसी प्रत्यासी को नहीं बल्कि उसकी पार्टी
को देता है। प्रत्यासी यहाँ पार्टी और मतदाता के बीच तीसरा प़क्ष होता है;
दलाल या कमीशन एजेंट की तरह। मतदाताओं के समक्ष प्रत्यासी का न तो कोई
घोषणापत्र होता है और न ही कोई वादा। जो कुछ होता है, पार्टी का होता है।
मतदाता जिस प्रत्यसी को अपना मत देता है उसके बारे में या तो वह कुछ भी
नहीं जानता अथवा नहीं के बराबर ही जानता है। प्रत्यासी का असली चरित्र और
असली व्यक्तित्व उसके पार्टी के चरित्र के पीछे छिपा रह जाता है। इस प्रकार
प्रत्यासी के असली चरित्र और असली व्यक्तित्व को या तो मतदाताओं से छिपाया
जाता है, अथवा जानबूछक इसे सामने आने से रोका जाता है। यहाँ प्रत्यासी और
मतदाताओं के बीच संवाद का कोई अवसर नहीं बनता; न तो चुनाव के दौरान और न
ही निर्वाचित होने के बाद। और इस तरह यहाँ निर्वाचित प्रत्यासी का मतदाताओं
के प्रति कोई जवादेही तय नहीं हो पाता। यहाँ सांसदों और विधायकों (अथवा
किसी अन्य पद के लिए निर्वाचित प्रत्यसी) को जनप्रतिनिधि कहना ही अपने आप
में हास्यास्पद है। वास्तव में ये राजनीतिक पार्टियों के ही प्रतिनिधि
होते हैं।
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