(आम भारतीय परिवार के जीवनमूल्यों को अनावृत्त करती केदारनाथ सिंह की एक कविता)
एक शाम शहर से गुजरते हुए नमक ने सोचा -
’मैं क्यों नमक हूँ’
और जब कुछ नहीं सूझा
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में
घर सुदर था, जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में, और ठीक समय पर
जब सज गई मेज, और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इंतिजार कर रही हो
कि ठीक उसी समय
पुरुष, जो सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला - ’दाल फीकी है’
’फीकी है’, स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
’हाँ, फीकी है -
मैं कहता हूँ दाल फीकी है’
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक-दूसरे को ताकते हुए
फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी से उठ गये सब
न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका जरूर है
सब सोच रहे थे -
लेकिन वह क्या है?
000 केदारनाथ सिंह
नमक
एक शाम शहर से गुजरते हुए नमक ने सोचा -
’मैं क्यों नमक हूँ’
और जब कुछ नहीं सूझा
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में
घर सुदर था, जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में, और ठीक समय पर
जब सज गई मेज, और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इंतिजार कर रही हो
कि ठीक उसी समय
पुरुष, जो सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला - ’दाल फीकी है’
’फीकी है’, स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
’हाँ, फीकी है -
मैं कहता हूँ दाल फीकी है’
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक-दूसरे को ताकते हुए
फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी से उठ गये सब
न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका जरूर है
सब सोच रहे थे -
लेकिन वह क्या है?
000 केदारनाथ सिंह