रविवार, 1 सितंबर 2019

कविता - सौंधी गंध

सौंधी गंध

अध्यापक कक्षा में कविता पढ़ा रहा था
उन्होंने कविता की इन पंक्तियों का पढ़ा -

’’वर्षा की पहली फुहार के साथ
मिट्टी की सौंधी-सौंधी गंध आने लगी।’’

एक छात्र ने पूछा -

’’सर! ये सौंधी-सौंधी गंध क्या होती है
कवि के भावों से तो लगता है
यह बहुत ही प्रिय और
मन को लुभानेवाली होती है?’’

अध्यापक ने कहा -

’’हाँ,
क्या तुमने इसका कभी अनुभव नहीं किया?
वर्षा ऋतु की पहली बूंदें
धरती पर जब पड़ती है
तब मिट्टी से उठनेवाली गंध ही
उसकी सौंधी-सौंधी गंध होती है।’’

छात्र ने कहा -

’’क्षमा करें महोदय!
मैंने तो इसे बहुत बार अनुभव किया है
कवि के अनुभवों में ही कहीं कुछ कमी है
क्योंकि
वह गंध तो बड़ी असहनीय होती है।’’

अध्यापक ने कहा -

’’प्रिय! सौंधी गंध का आनंद लेना हो, तो
शहर की अपनी कालोनियों से बाहर आओे
गाँवों और खेतों की ओर जाओ
वहाँ की मिट्टी
यहाँ की मिट्टी से भिन्न होती है
जिसकी गंध से आत्मा प्रसन्न होती है।’’

छात्र ने कहा -

’’महोदयजी! पुनः क्षमा करें
मैं गाँव से ही आता हूँ
गाँव की ही बात बताता हूँ
किसी बरसात में
कभी समय मिले तो
कवियों को लेकर आप ही
किसी गाँव में जाइए
गाँवों की हालत खुद देखिए
और, कवियों को भी दिखाइए

खेतों की मिट्टी से अब
सौंधी-सौंधी गंध नहीं
आत्महत्या करनेवाले किसानों के
सड़ते हुए शरीर की बू आती है
हो सके तो
दुनियावालों को यह हकीकत जरूर बताइए।’’
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कविता - राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द

राजा की अभ्यर्थना में दो शब्द

हे राजन!
तुम महान् हो।

इस धरती पर तुम ईश्वर के रूप हो
इसलिए नहीं
इसलिए कि
ईश्वर जैसे विवादित अवधारणा से परे
अवधारणा नहीं तुम एकमात्र यथार्थ हो

कर नहीं सकता कोई दोष तुम्हें दूषित
हो नहीं सकता कोई पाप तुम पर साबित
नैतिकता और कानून से तुम मुक्त हो
सांसारिक अपराधों से असंपृक्त हो

तुम्हारे सलाहकार और मंत्री भी
उतने ही दिव्य हैं
क्योंकि,
वे ही देश हैं
वे ही दरवेश हैं
उनके लिए
जनता हव्य और औरतें भोग्य हैं
तुमसे भी अधिक वे योग्य हैं

हे राजन! तुम महान हो।
तुम ही ज्ञेय हो, तुम ही ज्ञान हो।
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कविता - मांग और आपूर्ति

मांग और आपूर्ति

सेठजी ने अपने
बिजनेस मैनेजमेंट के परास्नातक
कमाऊ पूतों से कहा -

’आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं
हमारे लिए सेवा के
नये-नये सेक्टर खुल रहे हैं
अवसर को हाथों हाथ लो
आत्महत्या के पीड़ारहित और
सरल तरीकों का तत्काल ईजाद करो
उत्पाद तत्काल पेश करो।’

और एक के साथ एक फ्री वाले विज्ञापनों के साथ
आत्महत्या के पीड़ारहित और सरल उत्पादों से
बाजार गुलजार हो गया है -
जनता पर मेहरबान हो गया है
जीने की तुलना में
लोगों का मरना, अब आसान हो गया है।
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कविता - अब से पहले

अब से पहले


आदमी जब नहीं जानता होगा
आग पैदा करना
ठंड तब लोगों को इतना ठिठुराती नहीं होगी
ठंड से ठिठुरकर तब
मानवता मरती नहीं होगी
आग सबके दिलों में रहती होगी

आदमी जब नहीं जानता होगा
रोशनी पैदा करना
अंधेरा तब इतना घना नहीं रहता होगा
अंधेरों में रिश्तों के खो जाने के खतरे
तब नहीं ही रहे होंगे

आदमी जब नहीं जानता होगा
अस्त्र-शस्त्र बनाना
इतनी असुरक्षा तब नहीं रही होगी
भय तब इतनी घनीभूत नहीं होती होगी -
आदमी के अस्तित्व में
नहीं करता होगा कभी आदमी,
आदमी का शिकार

आदमी जब नहीं जानता होगा
पहिया बनाना
आदमी के चलने की गति
अधिक रही होगी
हमसे पहले पहुँच जाया करता होगा
पड़ोसियों के घर वह
वक्त-जरूरत पर संबल बनकर

आदमी जब नहीं जानता होगा
खेती करना और अन्न उगाना
भूखा कोई सोता नहीं होगा,
आज की तरह
आँतों की भूख
इतनी पीड़ादायक नहीं होती होगी
भूख से मरता नहीं होगा कोई

आदमी जब नहीं जानता होगा
लिखना और पढ़ना
अशिक्षित इतने,
तब वे नहीं रहे होंगे
अच्छी तरह लिख और पढ़ लेते होंगे
प्रेम के ढाई आखर को

आसमान से टपकने से पहले
वेदों, धर्मग्रंथों और पोथियों के
ज्ञान का इतना अभाव नहीं रहा होगा

धर्मों के अभ्युदय से पहले
नहीं रही होगी
अधर्म की ऐसी प्रतिष्ठा

सभ्यता विकसित होने से पहले
असभ्यता इतनी नहीं रही होगी।
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कविता - नयी स्थापना

नयी स्थापना