मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

मित्रों  के बोल-नमूने
नमूना - 7

दौड़ महात्म्य


दो मित्र बतिया रहे थे।
एक ने कहा - ’’चुनाव तिहार भी अजीब तिहार है, भाई। हर बार नयी-नयी परंपरा लेकर आता है। इस बार तो बड़ी आनंददायी परंपराएँ लेकर आ रहा है। चारों ओर उत्सव और आनंद की छटाएँ बिखेर रहा है। कहीं नाचने-नचाने की प्रतियोगिताएँ हो रही है, कहीं दौड़ने-दौड़ाने की और कहीं कपड़े उतारकर कीचड़ में नहाने की। सारे माननीय लोग इसी में व्यस्त हो गये हैं। पुराने गिले-शिकवे भूलकर सब एक हो गये है। नाचने और दौड़ने की इस प्रतियोगिता में कहीं महिलाओं को, तो कहीं बच्चों को जोड़ रहे हैं। सारे पुराने रिकार्ड तोड़ रहे हैं। आश्वासनों के बड़े-बड़े पटाखे फोड़ रहे हैं। तिहार की खुशी ऐसी कि न तो पैसों की बरबादी देख रहे हैं और न ही कीचड़ में नहाने की खराबी देख रहे हैं।’’
दूसरे मित्र ने कहा - ’’बढि़या है भाई! बढि़या है। हमें भी कल बड़ा मजा आया। हफ्तेभर की बिक्री घंटेभर में ही सुलटाया। माननीयों ने स्कूलवालों से कहा होगा - ’कक्षा में सिद्धतों की पढ़ाई तो रोज होती है। अब बस करिए। सिद्धांत की बातें बहुत हो गयीं। बच्चों को प्रेक्टिकल बनाइए। अकेले-अकेले दौड़ने में मजा नहीं आयेगा, लिहाजा हमारी कुर्सी दौड़ में शामिल कराने के लिए उन्हें भी दौड़ स्थल में सशरीर पकड़कर लाइए।’ तो भइया! सुबह-सुबह माननीयों के साथ दौड़कर सेहत बनाने के लिए यहाँ सैकड़ों बच्चे आये थे। माननीयों की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये-बिछाये भूख और प्यास से सब बिलबिलाये थे। अचानक सब हमारी दुकान की ओर टूट पड़े थे। खाने-पीने की सारी नयी और पुरानी चीजों को पैसे देकर लूट गये थे। पर नजरें अंत में भूख-प्यास से तड़पते और बेहोश होकर गिरते कुछ बच्चों पर टिक गयीं। बच्चों की हालत देखकर उनके दलिद्दर अभिभावकों पर मुझे बड़ा क्रोध आया। अरे! नासमझी की भी हद होती है यार। अपने बच्चों को माननीयों के साथ दौड़ने के लिए भेज रहे थे, जेब में पचीस-पचास भी नहीं डाल सकते थे? बदतमीज कही के।’’
पहले मित्र ने कहा - ’’सही कहते हो भइया! पर बात दूसरी है। यहाँ के अभिभावकों की तमीज पर आप नाहक शक कर रहे हो। दरअसल वे अभिभावक बड़े सुलझे हुए, समझदार और सच्चे लोग हैं। यज्ञ और व्रत का महत्व समझते हैं। खाली पेट दौड़ने से अधिक पुण्य लाभ होता है, यह वे अच्छी तरह से जानते हैं। इसीलिए अपने बच्चों को रात से ही खाने से वंचित कर दिये थे। धन्य हैं वे बच्चे, जो बेहोश होकर गिर गये थे। क्योंकि सबसे अधिक पुण्य लाभ वे ही अर्जित कर गये थे। पर मैं तो कहता हूँ, बदकिस्मत हैं वे बच्चें जो स्वर्गसुख प्राप्त करते-करते रह गये थे।’’
दूसरे मित्र ने कहा - ’’सच कहते हो भइया! मुझे तो क्रोध अब न उन माननीयों पर आ रहा है और न ही उन बच्चों के अभिभवकों पर। क्रोध तो मुझे अब उन नासमझ बच्चों पर आ रहा है जो बेहोश होकर फिर से होश में आ गये थे। अरे! मर ही जाते तो उनका क्या नुकसान होता? खुद स्वर्ग में तो जाते ही, माननीयों को भी अपार पुण्य लाभ करा जाते।’’
पहले मित्र ने कहा - ’’भइया! बच्चे हैं, नासमझ तो होंगे ही। उन पर क्रोध नहीं, दया करो। पर अभिभवकों और माननीयों को भी तो कुछ समझना चाहिए न?’’
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सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

चित्र कथा





29 अक्टूबर 2017 को शिचनाथ साहित्यधारा डांगरगाँव द्वारा कबीरमठ, नांदिया, जि-राजनांदगाँव में आयोजित साहित्यिक परिचर्चा में अध्यक्षता एवं अध्यक्षीय वक्तव्य। मंच पर मठ के मुख्य मठाधिकारी पूज्य मंगल साहेब के साथ। परिचर्चा का विषय था - ’’कबीर की उलटबासियाँ’’ अर्थ एवं वर्तमान में प्रासंगिकता।

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

आलेख

शिवनाथ संहित्यधारा डोंगरगाँव द्वारा आयोजित कार्यक्रम, कबीरमठ नादिया में अध्यक्षता   एवं उलटबासी पर अध्यक्षीय वक्तव्य -  29.010.2017

कबीर की उलटबासियाँ


काव्य में उलटबासी कहने की परंपरा वैदिककाल से चली आ रही है। सर्वप्राचीन ग्रंथ ऋगवेद में इस प्रकार कहा गया है -

इह ब्रवीतु य ईमड.्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।
शीष्र्ण क्षीरं दुहते गावो अस्य वब्रिं वसाना उदकं पदापु।।(1-164-7)

(उस सुंदर व गतिशील पक्षी के भीतर निहित रूप को जो जानता हो, बताए। उसकी इन्द्रियाँ अपने शिरो भाग द्वारा क्षीर प्रदान करती हैं और अपने चरणों से जल पीया करती हैं।) 

इसी प्रकार -
क इमं वो नृव्य माचिकेत, वात्सोमातृ जनयति सुधाभि। (1-7-25, सूत्र 95)

(वन आदि में निहित अग्नि को कौन जानता है? पुत्र होकर भी अग्नि अपनी माताओं को हव्य द्वारा जन्म देते हैं।)

और यह परंपरा नाथ साहित्य में पुष्ट होकर पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) तक पूर्ण वेग से चलती रही। कबीर साहब ने कहा है -

तलि कर साखा, उपरि कर मूल, बहुत भांति जड़ लागै फूल।
कहे कबीर यह पद को बूझै, ताकू तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै।।

परंतु उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) में यह परंपरा थम-सी गई। ऐसे पद बहुत कम कहे गये। बिहारी ने कहा -  

तन्त्री नाद, कवित्तरस, सरस राग रतिरंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे, जे बूड़े सब अंग।।263।।

नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नितप्रति रहै, तऊ न प्यास बुझाय।।373।।

या अनुरागी चित्त की, गति समझै नहीं कोय।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।550।।

यद्यपि ये उलटी कही गई बातें हैं, परंतु रीतिकाल के इस तरह के पदों को शायद ही कोई उलटबासी कहता होगा। ये पद काव्य में कलात्मकता लाने के लिए लिखे गये हैं। उलटबासी तो वे पद हैं जिनमें अध्यात्म की भावना निहित हों। 

और अब आधुनिक काल में यह परंपरा पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है। परंतु इस तरह के पदों को उलटबासी कहने की परंपरा या विमर्श को जरूर आधुनिककाल की देन कहा जा सकता है। उलटबासी शब्द की व्युत्पित्ति, वर्तनी और अर्थ के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतांतर है। जैसे - 
1. उलटबाँसी = उल्टा अंश या उल्टी बातें।
2. उलटबाँ-सी, उलटवाँ-सी या उलटवा-सी = उलटी हुई सी।
3. उलटवाची = उलटी वाणी। उलटी कही गई सी।
4. उलटवासी = उलटा निवास करनेवाला। अर्थात् लौकिक कथनों में अलौकिक भाव का वास।
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परंतु इन उलझनों में मैं नहीं पड़ना चाहूँगा। और आमतौर पर कबीर साहब के ’तलि कर साखा, उपरि कर मूल, बहुत भांति जड़ लागै फूल। कहे कबीर यह पद को बूझै, ताकू तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै।।’ जैसे उन पदों में भी जिसे उलटबासी के रूप में जनसामान्य में मान्यता मिली हुई है। क्योंकि मेरा मानना है कि कबीर साहब तो सब प्रकार से उलटे ही हैं। उनका देखना भी उलटा और उलटबासी है और उनका कहना भी। एक प्रसिद्ध पद है - 

’सब कहते कागद की लेखी। 
मैं कहता आँखन की देखी।।

कबीर साहब पारंपरिक पोथियों के ज्ञाता नहीं थे, परंतु जीवन रूपी पोथी को उन्होंने जितना पढ़ा था, उतना कोई नहीं। दुनिया के पास केवल लौकिक आँखें होती हैं इसीलिए वह कागद की लेखी की बात करता है। कबीर साहब के पास दैहिक आँखों के अलावा ज्ञान की आँखें भी हैं इसीलिए वे कागद की लेखी की नहीं, आँखन देखी बातें, ज्ञान की बातें कहते हैं। और कबीर साहब जब ऐसी बातें कहते हैं तो उनकी बातें हमें उलटी लगती हैं। वे कहते हैं -

’’पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा कि जीव।’’

दुनिया की नजरों में शब्द बड़े हैं। पोथियाँ बड़ी  हैं। और पोथियों के आगे जीव का कोई मोल नहीं है। कबीर साहब के लिए सबसे बड़ा जीव है। कबीर साहब की यह दृष्टि हमें उल्टी लगती है। ध्यान दीजिए - कबीर साहब के लिए पंडित कोई वर्ण या जाति नहीं है। पोथियों पर विश्वास करनेवाला हर पोथीजीवी व्यक्ति पंडित है। पंडित शब्दों के जादूगर होते हैं। उनके शब्द बड़े सम्मोहक होते हैं। भााषा विज्ञानियों ने कहा है - शब्द परंपरा से मिलकर शोषण भी करती है। शब्द शोषण भी करता है और शासन भी करता है। एक कहावत प्रचलित है - मन हरे वो धन हरे। कोई ठग जब किसी को ठगता है तो पहले उसे अपने शब्दों के जाल में उलझाता है, अपने शब्दों से उसे बाँधता है, उसका मन पहले हरता है, उसे सम्मोहित करता है। आप जानते हैं कि सम्मोहित व्यक्ति वही करता है जैसा सम्मोहनकर्ता चाहता है। सदियों से हम सब पंडितों के शब्दों के सम्मोहन के प्रभाव में हैं। उनकी झूठी बातें हमें सच्ची लगती हैं। वे कहते हैं - पोथियों की रचना ईश्वर ने की है। उस पर ईश्वर के हस्ताक्षर हैं। कितना बड़ा झूठ है। भाइयों! अगर मैं यह कहूँ कि भाषा की रचना ईश्वर ने नहीं किया है, यह समाज की रचना है। पोथियों की रचना ईश्वर ने नहीं किया है, यह समाज के पंडितों की रचना है जिसे पण्डितों ने हमें ठगने के लिए बनाया है, तो आप मुझे पागल कहेंगे। मैं यदि किसी किसान और मजदूर से कहूँ कि पोथियों का ज्ञान थोथा है क्योंकि वह अनुत्पादक है। पोथियों का ज्ञान जीवन का आधार अन्न का एक दाना पैदा नहीं कर सकता। और जो ज्ञान किसी को जीवन नहीं दे सकता वह किसी को मोक्ष क्या देगा। आपका ज्ञान उत्पादक है, वह अन्न पैदा करता है, जीवन देता, इसलिए आपका ज्ञान मोक्ष देनेवाला है। आपका ज्ञान पोथियाँ के ज्ञान से श्रेष्ठ है, तो संभव है वे मुझे मार डालेंगे। कहेंगे - हमारे पोथियों की बुराई करता है, पापी है। इतिहास में बहुत लोग इसी तरह से मारे गये हैं। कबीर साहब यही कहते हैं। उन्होंने कहा है - 

’’शब्द-शब्द सब ही कहे, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि-निरखि कर लेह।।’’ 

ईश्वर तो शब्दों से परे है। शब्दों से उसे कैसे पाओगे? ईश्वर अनुभव करने का विषय है। ईश्वर को ईश्वर की बनाई हुई भाषा और उसी के बनाये धर्म से पाया जा सकता है। ईश्वर की बनाई हुई भाषा प्रेम है। ईश्वर का बनाया हुआ धर्म करुणा है। ईश्वर को केवल इसी से पाया जा सकता है। कबीर साहब जब ऐसा कहते हैं तो वे हमें उल्टे लगते हैं। क्योंकि हम सब तो शब्दों को, पोथियों को और उसी की भाषा को, उसी में वर्णित शब्दजालों को धर्म मानकर बैठे हुए हैं। और ईश्वर को शब्दों के द्वारा, पोथियों के द्वारा पाना चाहते है। यह धोखा है। यह पंडितों के सम्मोहन का प्रभाव है।

कबीर साहब का रास्ता उलटा है। उलटे रास्ते पर चलनेवाले की चाल और दिशा भी उलटी ही होगी। इसीलिए कबीर साहब की हर बात हमें उलटी लगती है। उनके पद हमें उलटबासी लगते हैं। वे कहते हैं -

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।।

पोथी पढ़कर, शब्दों को रटकर, कोई पंडित नहीं हो सकता। जब ईश्वर को पाने के लिए मात्र ढाई आखर ही पर्याप्त हैं, तो फिर पोथी को सिर पर लादने से क्या फायदा? पोथी की क्या जरूरत है। कबीर के लिए केवल ढाई आखर ही महत्व पूर्ण हैं, बाकी सब बेकार हैं। परंतु इस अनमोल ढाई आखरों का हमारे लिए कोई मोल नहीं है। हमारे लिए दुनिया में जो सर्वाधिक अनमोल चीज है वह है, पोथी। कबीर साहब पोथियों को नकारते हैं तो वे हमें उलटे लगते हैं। 

हमारी प्रवृत्ति है - कठिन चीजें, जटिल चीजें, सजावटी चीजें, चमकीली चीजें, रोमांच पैदा करनेवाली थ्रिलर चीजें, हमें लुभाती हैं। सीधी, सरल, सुगम और सादी चीजें हमें पसंद नहीं आती। कबीर साहब को सीधी, सरल, सुगम और सादी चीजें पसंद थी। वे हमें उलटे लगते हैं। कबीर के अनुसार पत्थर (मूर्तियाँ अथवा आकृतियाँ) और उनकी पूजा तथा सारे धर्म बोझ हैं। वे उसे त्यागते हैं और हमें भी त्यागने के लिए कहते हैं तो हमें उनकी बातें उलटी लगती हैं। और यही चीजें हम जीवनभर सिर पर लादकर चलते हैं। वे कहते हैं -

हम भी पाहन पूजते होते, हिन्दू बनके रोज।
सद्गुरू की कृपा भयी, डारया सिर के बोझ।।

हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए घर बनाते हैं। कबीर साहब बने-बनाये घर को जलाने की बात करते हैं। क्योंकि वे हमें जहाँ ले जाना चाहते हैं, वहाँ ऐसे घरों को साथ लेकर नहीं जाया जा सकता। वहाँ किसी भी प्रकार का बोझ लेकर नहीं जाया जा सकता। कबीर साहब जब ऐसे सभी बोझौं को त्यगने के लिए कहते हैं तो उनकी बातें हमें उल्टी लगती हैं। 

कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारै अपना, चलै हमारे साथ।।

लोग मोक्ष की चाह में काशी जाते है पर कबीर साहब काशी छोड़कर मगहर जाते हैं। उनका रास्ता भी उलटा है और उनकी चाल भी उलटी है। लोग पोथियों में लिखी बातें कहते हैं, पर कबीर साहब आँखों देखी बातें कहते हैं। उनका देखना भी उलटा और कहना भी उलटा। लोग अपने आराम के लिए घर बनाते हैं, कबीर अपना बना-बनाया घर जला़ने के लिए कहते हैं। उनकी दृष्टि भी उलटी और उनके विचार भी उल्टे। हमें कबीर साहब की हर चीज उल्टी लगती है। और इसीलिए उनकी कही हर बात को हम उलटबासी कहते हैं।

मनुष्य की पकृति उलटी होती है। जिन चीजों को त्यागने के लिए कहा जाता है उन्हीं चीजों को हम और अधिक मजबूती से पकड़कर बैठ जाते हैं। छाप-तिलक, जप-माला, कर्मकाण्ड, पूजा पद्धति सबको कबीर साहब त्यागने की बातें करते हैं। इन्हें हम और मजबूती से पकड़कर बैठ जाते हैं। इसीलिए दुनिया के सारे पण्डित हमें ठगे जा रहे हैं।
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कबीर साहब की वाणियों को, उनके पदों को जिस किसी ने भी पहली बार उलटबासी कहा होगा, मुझे नहीं लगता कि वह ज्ञानी रहा होगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा उसने विचार और विवेकपूर्वक कहा होगा। परंतु अज्ञान में ही सही, अविवेक में ही सही, मैं सोचता हूँ, कबीर साहब के बारे में उस च्यक्ति ने परम सत्य को कह दिया है। लोग कहते हैं कि कबीर साहब को आज तक सही-सही कोई समझ नहीं पाया है। कबीर साहब का सही मूल्यांकन आज तक किसी ने नहीं किया है। मैं उल्टी बातें कहता हू, भारत के इतिहास में आज तक अगर किसी का सही मूल्यांकन हुआ है, तो केवल कबीर साहब का हुआ, है। किसी और का नहीं। जिस किसी ने भी कबीर साहब की वाणियों को उलटबासी कहा है उसने कबीर साहब के बारे में एकदम सही बात कहा दी है, सटीक और पूरी तरह संतुलित, न रत्तीभर कम और न रत्तीभर ज्यादा। इतनी सही बात, सटीक बात और पूरी संतुलित बात केवल अज्ञानी व्यक्ति ही कह सकता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि कबीर साहब की वाणियों को, उनके पदों को जिस किसी ने भी उलटबासी कहा वह अज्ञानी ही रहा होगा। ज्ञानियों ने तो कबीर को नकार दिया है। ज्ञानी व्यक्ति ऐसा कह ही नही सकता। कैसे? 

समझने की बातें हैं। ’उलटबासी’ कहनेवाला व्यक्ति दुनिया में आज तक केवल एक ही हुआ है - कबीर। परंतु ’बासी’ कहनेवाले पता नहीं कितने लोग हो गये होंगे। कबीर साहब उलटबासी थे और हम लोग हैं केवल ’बासी’। ’बासी’ का अर्थ आप सब जानते हैं। थोड़ा दिमाग पर जोर दीजिए तो ’उलटबासी’ का भी अर्थ समझ में आ जायेगा। उलटबासी का अर्थ क्या होता है? उलटबासी का अर्थ समझना हो तो पहले बासी शब्द को समझ लेना चाहिए। क्या अर्थ होता है बासी का? बासी वह है जो ताजा न हो। जो उपयोग करने लयक न हो और धोखा से भी यदि उसका उपयोग हो जाये तो उपयोग करनेवाला बीमार हो जाये। वह बासी है। समझ गये न? बासी मतलब मृत। उलटबासी का अर्थ अब आपको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उलटबासी का मतलब हुआ बासी का उलट, ताजा, उपयोगी, स्वस्थ्यवर्धक। बासी मतलब हुआ अमृत। इस तरह हम सब मृत और बासी। अमृत और ताजा केवल एक - कबीर साहब। 

दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति हुआ है जिसे अमृत कहा जा सकता है, कयोंकि वे सीधे थे। हर स्थिति में सीधे थे। हम सब मृत हैं, क्योंकि हम लोग हर स्थिति में केवल उल्टे लोग हैं। ध्यान दीजिए, मृत शब्द का विरुद्धार्थी शब्द जीवित होता है। परंतु कबीर साहब के लिए मृत शब्द के विरुद्धार्थी शब्द के रूप में मैंने अमृत शब्द का प्रयोग किया है, जीवित का नहीं। क्यों? क्योंकि जिसने जन्म ही नहीं लिया हो वह मरेगा कैसे? जहाँ जन्म ही नहीं हो, वहाँ मृत्यु कैसे? जन्म-मरण से जो परे हो उसे आप और क्या कह सकते हैं। अमृत के अलावा कोई दूसरा शब्द है आपके पास है उसके लिए। इसीलिए मैंने कबीर साहब को अमृत कहा है। मृत का उलटा अमृत। बासी याने मृत और उसका उलटा उलटबसी याने अमृत। उलटबासी का एक और अर्थ हो सकता है - उलटे लोक का बासी। हम लोग धरती के बासी हैं। धरती का उलटा स्वर्ग। कबीर साहब उलटे लोक के बासी थे, स्वर्ग के बासी थे। 

कबीर साहब का एक और अमृत पद है। अंत में इस दोहे को भी समझ लेते हैं। कबीर साहब कहते हैं - 
कबिरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय।
आप ठगे सुख होत हैं, और ठगे दुख होय।।

आप भले ही ठगाते रहो परंतु किसी को ठगो मत। ठगे जाने पर सुख मिलता है, ठगने से दुख। बड़ी उल्टी बातें लगती है। ठगा हुआ आदमी सदा सुखी रहेगा है। ठगनेवाला सदा दुखी रहेगा।  

एक निरक्षर व्यक्ति ने इसका भेद बताया - जो पाप करेगा, वह तो भुगतेगा ही। जैसी बरनी, वैसी भरनी। हमें क्या। किसी के ठगने से कोई गरीब तो नहीं हो जाता।

एक पढ़े-लिखे यक्ति ने कहा - ठग कब तक बचा रहेगा। कभी न कभी कानून की पकड़ में तो आयेगा ही। फिर तो जेल में उसे चक्की ही पिसना पड़ेगा।

एक समझदार व्यक्ति ने कहा - कबीर साहब तो फक्कड़ आदमी ठहरे। उसके पास तो संपत्ति के नाम पर केवल एक ही चीज थी - ज्ञान। वह तो चाहता ही था कि कोई आकर उसके ज्ञान को ठग ले। ज्ञान तो बाँटने से ही बढ़ता है। परंतु कोई ठग ज्ञान नहीं चाहता, वह तो धन चाहता है।

ओशो जैसे एक आदमी ने कहा - कबीर के लिए तो पूरी दुनिया ईश्वरमय थी। उसे तो हर प्राणी में ईश्वर के ही दर्शन होते थे। वे तो बाजार में चदरिया बेचने का काम करते थे। ग्राहक उसे ईश्वर ही दिखते थे। और ठगनेवाला जब ईश्वर हो तो ठगानेवाला खुश क्यों नहीं होगा।

धन्यवाद।

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने

नमूना - 6 : उलटबासी 

मित्र अभी अपने वक्तव्य की तैयारियों में व्यस्त हैं। दो दिन बाद किसी साहित्यिक कार्यक्रम में ’’कबीर की उलटबासियाँ’ विषय पर उसे वक्तव्य देना है। कल की बात है। परिस्थितियों से परेशान अपने एक दुखी मित्र के दुख को साझा करते हुए वह कह रहा था। मित्र! बाबाजी ने कहा है - ’धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, बीपतकाल परखिए चारी।’ परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों, निराश कभी नहीं होना चाहिए। कहते हैं - ऊपरवाले के यहाँ देर है, अँधेर नहीं।

उसके उस दुखी मित्र ने कहा - भाई! समय और परिस्थियाँ बदलती रहती हैं। साथ-साथ चीजों को भी ये बदल देती हैं। समय और परिस्थियों ने इस कहावत को भी बदल दिया है। मुझे लगता है - ऊपरवाले के यहाँ अब अंधेर होने में कोई देर नहीं लगती।

मित्र ने कहा - वाह भाई! इसी को शायद उलटबासी कहते है।
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आलेख

दोहा


’दोहा’ या ’दूहा’ अपभ्रंश भाषा का प्रसिद्ध छंद है। ..... यह शब्द कैसे बना यह बताना कठिन है। संस्कृत के कुछ पंडित कहते हैं कि यह ’दोधक’ शब्द से बिगड़कर बना। पर दोधक और दोहा में कोई साम्य नहीं है। .....

कुछ लोग कहते हैं कि दोहा उसी प्रकार बना होगा जैसे चैपई, चैपाई या छप्पय। जिसमें चार पद या चरण हों वह चैपई या चैपाई या जो चार पँक्तियों में लिखी जाय वह चैपई या चैपाई। जो छः पँक्तियों में लिखी जाय वह छप्पय। इसी प्रकार जो दो पँक्तियों में लिखा जाय वह दोहा। छप्पय में वस्तुतः दो छंद होते हैं - रोला और उल्लाला। इस प्रकार शास्त्र के अनुसार छप्पय में आठ चरण हुए। पर छः पँक्तियों में लिखे जाने के कारण इसे छप्पय कहते आये हैं। .....

यह भी कहा जाता है कि प्राकृत की ’गाथा’ से भी इसकी निरूक्ति हो सकती है। ’दो $ गाथा’ से ’दो $ गाहा’, दोआहा, दोहा बन गया। ’दोहा’ में ’हा’ को प्रत्यय भी मान सकते है - दो पँक्तियोंवाला। ......

’दोहा’ ही उलटकर ’सोरठा’ हो जाता है। पर सोरठा शब्द दोहा की निरूक्ति में कोई सहायता नहीं करता। जान पड़ता है कि अपभ्रंश युग में दोहे को उलटने की प्रथा सौराष्ट्र (गुजरात) में चली, इसी से यह सोरठा हुआ। ....

(बिहारी, विरूवनाथ प्रसाद मिश्र,संस्करणः अक्टूबर 1987, पृ. 70-71)
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सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

आलेख

विपरीत रति

’बया’, अप्रेल-जून 2017 में श्रीधरम की एक कहानी छपी है - दीवा बलै..। कहानी का एक अंश इस प्रकार है - यही तो इनका एरिया माने विशेषज्ञता का क्षेत्र है जहाँ वे किसी को भी चित्त कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने बिना देरी किये तीर छोड़ा - ’’बिहारी सतसई में वर्णित विपरीत रति का एक उदाहरण बताइए?’’
अभ्यर्थी कुछ देर चुप रही फिर बोली, ’’अभी याद नहीं आ रहा सर।’’
’’फिर आपने बिहारी पर शोध कैसे कर लिया?’’
’’सारी सर, घर जाकर पढ़ लूँगी।’’

’’कोई बात नहीं, मैं आपको बता ही देता हूँ।’’ और डाॅ. ढल शुरू हो गये -

बाजत कटि की किंकणी, मौन रहत मंजीर।

परयो जोर विपरीत रति, सूरत करत रंधीर।
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कहानी के इस अंश को पढ़कर मैं भी पहली बार ’विपरीत रति’ शब्द से परिचित हुआ। ढूढँने पर एक जगह इसका अर्थ यह मिला - ’’रति के प्रचलित सामान्य आसनों से भिन्न आसन का प्रयोग करते हुए किया गया रति विपरीत रति कहलाता है।’’ 
बिहारी सतसई में विपरीत रति के तीन उदाहरण मुझे और मिले जो इस प्रकार हैं - 

बिनती रति विपरीत की, करि परसि पिय पांइ।
हँसि, अनबोले ही दियौ, ऊतरु दियै बुझाइ।।464।।

मेरे बूझत बात तू, कत बहरावति बाल।
जग जानी विपरीत रति, लखि बिंदुली पियभाल।।526।।


राधा हरि, हरि राधिका, बनि आये संकेत।
दंपति रति विपरीत सुख, सहज सुरतहूँ लेत।।583।।
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कहानी के अंश में उद्धृत दोहे का क्रमांक 393 है। बिहारी के इन दोहों का अर्थ समझकर आप भी विपरीत रति का आनंद लीजिए।
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आलेख

कहानी की समीक्षा

’टेपचू’ सर्वव्यपी है


(टेपचू - उदय प्रकाश की चर्चित कहानी)
एक कहानी में टेपचू कहानी की पाठ योजना बनाते समय प्राध्यापक महोदय बड़ी उलझन में पड़ गये। बदमाश और उद्दंड विद्याथियों को कहानी के इस अंश को आखिर कैसे पढ़ाया जाय? कहानी का वह अंश यह है -
मुझे देख कर वह मुस्कराया, ’सलाम काका, लाल सलाम।’ फिर अपने कत्थे-चूने से रँगे मैले दाँत निकाल कर हँस पड़ा, ’मनेजमेंट की गाँड़ में हमने मोटा डंडा घुसेड़ रखा है। साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बना कर ढोरों की माफिक हाँक देना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है। छँटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छाँटो अजमानी साहब को पहले।’
प्राध्यापक महोदय ने कक्षा में विद्यार्थियों से कहा - ’’बच्चों! इस कहानी में अमुक पेज पर एक गंदा शब्द लिखा हुआ है। इस शब्द को मिटाकर उसकी जगह ’गुदा मार्ग’ लिख लो।’’
बच्चों ने वह शब्द तलाशना शुरू किया। एक बच्चे ने चिल्लाकर कहा - ’’मिल गया सर। गांड शब्द को मिटाकर गुदा मार्ग लिखना है न?’’
प्राध्यापक ने झेपते हुए कहा - ’’बदमाश! चिल्लाओं मत। चुपचाप लिखो।’’
कहानी में विद्यार्थियों को बड़ा रस आ रहा था। सब बदमाशी पर उतर आये थे। तभी एक अन्य विद्यार्थी की नजर कहानी के इस अंश पर पड़ी - ’दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गाँड़ में एक लकड़ी ठोंक दी जाए।’ एक और विद्याार्थी ने चिल्लाकर कहा - सर! यहाँ भी गांड लिखा हुआ है। इसे भी मिटाकर गुदा मार्ग कर लें क्या?’
अध्यापक महोदय झेपकर कक्षा से बाहर चले गये।
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परंतु इस कहानी का मूल तत्व यह नहीं है। मूल तत्व है - कहानी के नायक टेपचू की विपरीत से भी विपरीत परिस्थितियों में जीने की उत्कट शक्ति। कहानी का मूल उद्देश्य है - भारतीय सामाजिक व्यवस्था की सदियों से चली आ रही नग्न संच्चाइयों की ओर ध्यान खींचना। कहानी इस प्रकार शुरू होती है -
यहाँ जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी ज्यादा हैरतअंगेज होती है। टेपचू के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद आपको भी ऐसा ही लगेगा।
टेपचू अभावग्रस्त, गरीब, जवान-विधवा माँ की इकलौती संतान और एकमात्र सहारा है। टेपचू के लिए उसकी माँ असमय ही बूढ़ी हो जाती है। एक दिन असहनीय भूख को शांत करने के लिए किशोर टेपचू कमलगट्टे की लालच में तालाब के गहरे पानी में उतर जाता है और डूब जाता है। टेपचू पानी के भीतर तड़पने लगता है। तभी वहाँ परमेसुरा नाम का एक व्यक्ति आता है। टेपचू जहाँ डूबा था वहाँ पानी की हलचल देखकर उसे वहाँ किसी बड़ी मछली के होने का भ्रम होता है। कहानी में लिखा है -
जहाँ पर मछली तड़प रही थी वहाँ उसने गोता लगा कर मछली के गलफड़ों को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में टेपचू की गर्दन आई। वह पहले तो डरा, फिर उसे खींच कर बाहर निकाल लाया। टेपचू अब मरा हुआ-सा पड़ा था। पेट गुब्बारे की तरह फूल गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी। टेपचू नंगा था और उसका पेशाब निकल रहा था। परमेसुरा ने उसकी टाँगें पकड़ कर उसे लटका कर पेट में ठेहुना मारा तो ’भल-भल’ करके पानी मुँह से निकला।
एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया। उठा और बोला ’’काका, थोड़े-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने इत्ता सारा तोड़ा था, साला सब छूट गया। बड़ी भूख लगी है।’’
परमेसुरा ने भैंस हाँकनेवाले डंडे से टेपचू के चूतड़ में चार-पाँच डंडे जमाए और गालियाँ देता हुआ लौट गया।
टेपचू के जीवनीयशक्ति को उद्घाटित करनेवाली यह पहली प्रमुख घटना है। कहानी में आगे वह ताड़ी की लालच में एक ताड़ वृक्ष पर चढ़ जाता है। ताड़ी के मटके में हाथ डालने पर टेपचू के हाथ को वहाँ पहले से मौजूद एक जहरीला सांप जकड़ लेता है। फिर यह होता है -
जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी। इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए। काला साँप एक ओर पड़ा हुआ ऐंठ रहा था। उसकी रीढ़ की हड्घ्डियाँ टूट गई थीं।
यहाँ भी टेपचू सकुशल बच जाता है। कहानीकार कहता है - गाँववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हो न हो टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता।
टेपचू की हरकतें उसकी माँ को आवारागर्दी लगती है। उसने उसे गाँव के भगवानदीन पंडित के यहाँ चरवाही पर लगा देती है, जहाँ टेपचू के साथ इस प्रकार का बर्ताव होता है -
उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पंद्रह रुपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया। भगवानदीन असल काइयाँ थे। खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भुनी रोटियाँ टेपचू को मिलतीं। करार तो यह था कि सिर्फ भैंसों की देखभाल टेपचू को करनी पड़ेगी, लेकिन वास्तव में भैंसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से ले कर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पड़ता था। सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते। एक महीने में ही टेपचू की हालत देख कर फिरोजा पिघल गई।
इस प्रकार परिस्थितियों से लड़ता हुआ - एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया। जवान। पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीर कर वह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।
और फिर बैलाडीला लौह खदान में आकर वह नौकरी कर लेता है। वहाँ वह मजदूरारों का नेता बन जाता है और मजदूरों के शोषण के विरोध में आवाज उठाता है। हड़तालें होती हैं। पुलिस का दमन चक्र चलता है। पुलिसवाले उसे जीप के पीछे बांधकर जंगली रास्ते में घसीटते हुए ले जाते हैं। कहानीकार लिखता है -
जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रुकी। पुलिस पलटन का चेहरा खूँखार जानवरों की तरह दहक रहा था। चुंगी नाके पर एक ढाबा था। पुलिसवाले वहीं चाय पीने लगे।
टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ’’एक चा इधर मारना छोकड़े, कड़क।’’ वह चीखा। पुलिसवाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखकर मुस्कराए। टेपचू को चाय पिलाई गई। उसकी कनपटी पर गूमड़ उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था। जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था।
और जंगल में टेपचू को गोलियों से छलनी करके झाड़ पर लटका दिया जाता है। बाद में पोस्टमार्टम के लिए उसका शव टेबल पर रखा गया। वहाँ बड़ी हैरतअंगेज घटना घटती है। क्या होता है? कहानीकार ने लिखा है -
सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया। डॉ. एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे। वे बड़े धार्मिक किस्म के ईसाई थे। ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई। डॉ. वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियाँ धँसी हुई थीं। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहाँ चोट न हो।
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आँखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला, ’’डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियाँ निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।’’
डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूट कर गिर गया। एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे।
तो ऐसी है, टेपचू की जीवनीयशक्ति और हमारे समाज की नग्न सच्चाई। कहानी का अंत इस प्रकार होता है -
हमारे गाँव मड़र के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं - साला जिन्न है। आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहाँ, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूँ।
नहीं! मुझे टेपचू के अस्तित्व पर कोई अविश्वास नहीं होता। मुझे इस कहानी की सच्चाई पर कोई हैरत नहीं हेती। मुझे हैरत होेती है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी टेपचू यहाँ हर गाँव, हर गली, हर जगह पर मौजूद हैं। टेपचू ईश्वर की कृति नहीं है, यह भारतीय समाज की रचना है और भारतीय समाज अपनी इस रचना को कभी मरने नहीं देगा।
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शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

आलेख

बंठू मेरा मानसिक नुकसान करता है 
- ग. मा. मुक्तिबोध

(सुप्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी लोककलामंच ’चंदैनी गोंदा’ के संचालक-संगीतकार-निर्देशक, छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के जीवित किंवदंती, संगीत एवं नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित, श्री खुमान साव जिन्हें लोग सम्मानपूर्वक खुमान सर के नाम से संबोधित करते हैं, ने 05 सितंबर 2017 को अपना 88 वाँ जन्मदिन मनाया। श्री खुमान साव ने गजानन माधव मुक्तिबोध से संबंधित यह संस्मरण मुझे इसी दिन सुनाया था। यह लेख उन्हें ही सादर समर्पित है।)

म्युनिसिपल स्कूल राजनांदगाँव में खुमान साव कक्षा सातवीं के क्लास टीचर हुआ करते थे और प्रथम कालखण्ड में वे अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। स्कूल सुबह सात बजे लगता था। एक बच्चा अक्सर देर से आया करता था। एक तो खुमान साव अनुशासन के पक्के थे। दूसरे - देर से आने के कारण बच्चे की पढ़ाई का नुकसान होता था। बार-बार टोकने और समझाने के बाद भी बच्चे की आदत नहीं सुधरी। खुमान साव के लिए यह असहनीय था। एक दिन वह बच्चा फिर देर से आया। खुमान साव को उस बच्चे पर क्रोध आया। उसने कहा - ’’अपने पिताजी को बुलाकर लाओ, तब तुम्हें मैं कक्षा में आने की अनुमति दूँगा।’’

बच्चा अपने पिताजी को बुलाने चला गया।

कालखण्ड समाप्त होने पर खुमान साव स्टाफ रूम की ओर आ रहे थे। एक अन्य शिक्षक कक्षा की ओर जा रहे थे। बरामदे में दानों आमने-सामने हुए। उस शिक्षक ने खुमान साव से कहा - ’’जानते हो, आज आपने किसे बुलवाया है?’’

’’नहीं तो। कौन हैं वे?’’

’’अरे, कैसे हैं आप? एक आप ही उन्हें नहीं जानते हैं। वरना राजनांदगाँव से दिल्ली तक, सारे लोग उसे जानते हैं। जाइए। स्टाफ रूम में आपकी प्रतीक्षा हो रही है।’’

असमंजस और उलझन के साथ खुमान साव ने जैसे ही स्टाफ रूम में कदम रखा, वह अभिभावक बहुत शालीनता और विनम्रता पूर्वक अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़कर अपनी जगह पर खड़ा हो गया। अभिवादन के पश्चात् उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा - ’’मैं गजानन माधव मुक्तिबोध हूँ और आपके इस अपराधी शिष्य, दिवाकर मुक्तिबोध का पिता हूँ। बच्चे के अपराध में मैं भी बराबर का सहभागी हूँ। इस अपराध के लिए मैं शर्मिंदा हूँ। आपके  इस अनुशासन का मैं सम्मान करता हूँ और सराहना भी। बच्चे की ओर से और अपनी ओर से भी मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। और वचन देता हूँ कि आज के बाद यह गलती फिर नहीं होगी।’’

इस महान कवि की सरलता और शालीनता के आगे खुमान साव निरुत्तर हो गये। दोनों  विभूतियों ने एक-दूसरे को परखा। कुछ देर चर्चा करने के बाद वे चले गये। जाते-जाते खुमान साव को अपने घर आने का आग्रह पूर्वक निमंत्रण देेना वे नहीं भूले।

इस तरह दोनों में परिचय हुआ। मेल-मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ।

एक दिन खुमान साव मुक्तिबोध से मिलने गये। उन्होंने मुक्तिबोध को काफी परेशान और विचलित पाया। इसका कारण पूछने पर मुक्तिबोध ने कहा - ’’मुझे नहीं पता था, राजनांदगाँव में ऐसे लोग भी मिलेंगे।’’

राजनांदगाँव को संस्कारधानी कहा जाता है। राजनांदगाँव की वजह से मुक्तिबोध का इस तरह दुखी होना राजनांदगाँव के संस्कारों पर एक आघात था। खुमान साव समझ नहीं पाये। उन्होंने पूछा - ’’क्या किसी ने आपका अपमान किया है? किसी ने आपको नुकसान पहुँचाया है?’’

मुक्तिबोध ने कहा - ’’हाँ! बंठू मुझे मानसिक नुकसान पहुँचाता है। बंठू को जानते हैं न आप?’’

फिर उसने अपार मानसिक दुख पहुँचानेवाली उस घटना के बारे में बताया। घटना यह थी -

उस समय दुर्गाचौक से दिग्विजय काॅलेज की ओर जानेवाली सड़क पर चाय-नाश्ते की एक गुमटी हुआ करती थी। मुक्तिबोध अपने साथी प्राध्यापकों के साथ चाय-नाश्ते के लिए अक्सर यहाँ आया करते थे। आर्थिक तंगी ने कभी मुक्तिबोध का साथ नहीं छोड़ा। चाय-नाश्ते के बिल की रकम अदा करने लायक उनके पास अक्सर पैसे नहीं होते थे। परंतु इसका वे बराबर हिसाब रखते थे और वेतन मिलने पर एकमुश्त अदा कर दिया करते थे। उस दिन वेतन मिलने पर वे बंठू को ऐसा ही रकम अदा करके आये थे। मुक्तिबोध के हिसाब से उधार की रकम 20 रूपये की थी।

पैसा लेने के पहले बंठू ने कहा - ’’गुरूदेव! मैं भी अपनी डायरी चेक कर लेता हूँ।’’ कुछ देर डायरी के पन्ने पलटने के बाद बंठू ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा - ’’गुरूदेव! मात्र साढ़े सात रूपये।’’

और फिर बीस रूपये और साढ़े सात रूपये के मुद्दे पर दोनों में अच्छी-खासी बहस हो गई।

उस दिन इसी घटना ने मुक्तिबोध को अपार मानसिक क्षति पहुँचायी थी। वे सोचते होंगे - दुनिया में बेईमानों की कमी नहीं है। लोग अपने फायदे के लिए बेईमानी करते हैं। परंतु यह कैसा बेईमान है, जिसने अपने नुकसान के लिए बेईमानी किया है?

कुछ भी हो, एक चायवाले की डायरी ने ’एक साहित्यिक की डायरी’ को छोटा जरूर बना दिया था।
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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

आलेख - भाषा एवं व्याकरण

अनोखा शब्द - ’कर’

हिंदी भाषा में एक बहुप्रयोगित शब्द है - ’कर’। यह एक अनोखा शब्द है, भाषा में यह छः प्रकार से प्रयुक्त होता है; अर्थात् इसके छः अर्थ होते हैं। किसी अन्य भाषा में ऐसा शब्द है या नहीं मुझे ज्ञात नहीं। ’कर’ शब्द के छः अर्थ इस प्रकार हैं -
1. हाथ
2. महसूल या टैक्स
3. किरण
4. हाथी का सूंड
5. क्रिया के रूप में
6. पूर्वकालिक प्रत्यय के रूप में (जैसे - उसने नहा
कर खाना खाया।)
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समस्त अप्रवासी भारतीय बहनों-भाइयों को दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ। शुभ दीपावली

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने

नमूना - 4
ग्राम बसे सो भूतानाम् - 


एक मित्र अक्सर यह श्लोक बोलते हैं - ’’ग्राम बसे सो भूतानाम्, नगर बसे सो देवानाम्।’’ गाँव में बसे वो भूत हैं, शहर में बसे वो देवता हैं। 

गाँव में बसनेवाले भूत, उत्पादक होते हैं। ईश्वर ने इन्हें रात-दिन, बारहों महीने, कड़ी मेहनत करने के लिए बनाया है। अपने उत्पादन कर्म से संबंधित इनके पास ज्ञान का अकूत भण्डार होता है। इनका ज्ञान इनके अनुभव और इनकी परंपरा से अर्जित यथार्थ ज्ञान होता है। इसी ज्ञान के आधार पर ये कड़ी मेहनत करके अनाज और अन्य समाजोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इनके ज्ञान का विधान ईश्वर ने नहीं किया है इसीलिए देवताओं की नजर में इनके ज्ञान का कोई मोल नहीं होता। देवताओं के अनुसार अनाज पैदा करना घोरपाप कर्म है। इसमें हिंसा होती है। हिंसा महापाप है। इस घोर पापकर्म के बदले ये नाना प्रकार के दुख पाते हैं। इसी पापकर्म के कारण ये आत्महत्या करके भूत बन जाते हैं। हवा से ये अपनी भूख मिटाते हैं। हवा खा-खाकर ये स्वयं हवा की तरह हो जाते हैं। भूत बनकर ये जन्म और मुक्ति के बीच अटके रहते हैं। भूतों के पास स्वर नहीं होते। बोलने में ये असमर्थ होते हैं। भूत होने के कारण न तो ये सरकार को दिखाई देते है और न ही ईश्वर को। 

ईश्वर ने देवताओं को केवल उपभोग करने के लिए बनाया है। इनके पास शास्त्र होते हैं। इनके शास्त्रों को ईश्वर ने स्वयं लिखा है। प्रमाणित करने के लिए इन शास्त्रों में ईश्वर ने अपना हस्ताक्षर किया हुआ है। देवता जो भी करते हैं, शास्त्रों के विधान के अनुसार करते हैं। इसीलिए ये जो भी करते हैं, पुण्य का काम माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार भूतों के द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर देवताओं का अधिकार ईश्वरीय विधान माना गया है। इसी विधान के कारण ये संसार के समस्त सुखों का उपभोग करते हैं। सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। इनकी एक पुकार पर ईश्वर इनकी सेवा में हाजिर हो जाते हैं।

सच है, गाँव भूत हैं। इनका न तो कोई वर्तमान है और न ही भविष्य। शहर वर्तमान हैं। इनका भविष्य उज्ज्वल है।
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बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने
नमूना 3

एक मित्र ने बाली वध की कथा इस प्रकार बताई - 

मित्रता बदाई का अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्चात् श्री रामचन्द्रजी ने सुग्रीव से पूछा - ’’मित्र! आप राजपुरुष हैं। अपना राज्य छोड़कर इस निर्जन वन-पर्वत में क्यों निवास करते हैं? आपको यहाँ नाना प्रकार के कष्ट सहने पड़ते होंगे। आपका दुख मुझसे देखा नहीं जाता। शास्त्रों में कहा गया है, मित्र का दुख राई की तरह भी हो तो उसे पहाड़ की तरह समझना चाहिए। आपके दुखों का निवारण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। कारण बताइए।’’

सुग्रीव ने कहा - ’’मित्र! मैं भी यही बातें आपसे पूछना चाहता हूँ। आप भी तो मेरे ही समान दुखी हैं। वन-वन आप भी भटक रहे हैं। किस चीज की तलाश है आपको?

फिर दोनों ने अपनी-अपनी समस्याएँ साझा की। तय हुआ कि पहले सुग्रीव की समस्या का निवारण किया जायेगा।

श्री रामचन्द्रजी ने कहा - ’’मित्र! बाली ने आपके साथ अन्याय किया है। वह आततायी है। वह आपका वध करना चाहता है। समझौते की क्या कोई संभावना नहीं बची है?’’

सुग्रीव ने कहा - ’’नहीं, मित्र! चाहें तो आप प्रयास करके देख लें।’’

अंत में बाली का वध करना ही तय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने कहा - ’’आप बाली को युद्ध की चुनौती दीजिए। चूँकि आमने-सामने की लड़ाई में आधा बल बाली के शरीर में चला जाता है इसलिए जब आप दोनों युद्धरत रहोगे उसी समय मैं उसे छिपकर मारूँगा।’’

सुग्रीव ने कहा- ’’मित्र! छिपकर तो मैं भी मार सकता हूँ। यह विचार मेरे भी मन में आता है। परंतु किसी वीर को छिपकर मारना अधर्म है। जब दो योद्धा लड़ रहे हों तो बिना चुनौती दिए प्रहार करना तो सबसे बड़ा अधर्म है। ये दोनों ही बातें न तो युद्ध के नियमों के अनुकूल हैं और न ही क्षत्रिय धर्म के। इससे तो आपको अपयश ही मिलेगा  और पाप का भागी भी बनना पड़ेगा।’’

श्री रामचन्द्रजी ने कहा - ’’नहीं, मित्र! आतताइयों का वध करने से अपार यश मिलता है। स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करनेवाले पुण्य की प्राप्ति होती है। तरीका चाहे कोई भी हो।’’

श्री रामचन्द्रजी की ऐसी कल्याणकारी, मीठी-मीठी बातें सुनकर सुग्रीव के मन की सारी शंकाएँ जाती रही। अब उसे पूरी तरह विश्वास हो गया कि श्री रामचन्द्रजी ईश्वर के ही अवतार हैं।
जय श्रीराम।
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आलेख

ज्ञान का अर्थ है - बाजार की जानकारी होना।

’’ज्ञान ही शक्ति है।’’ बाजार में यह सूक्तिवाक्य आजकल खूब उछल रहा है, पर सवाल है - कब नहीं था? मनु के ज्ञान की शक्ति की जकड़ आज तक कायम है इसे कौन नहीं जानता। मेकाले के ज्ञान की शक्ति के फंदे में फँसा देश अब तक फड़फड़ा रहा है, इसे कौन नकार सकता है। बाजार ने इस नारे के द्वारा जो नयी जकड़न तैयार किया है, जो नयी जाल बुनी है, उसका प्रभाव विश्वव्यापी है, और इसकी गिरफ्त में पूरी दुनिया है। बाजार अपने द्वारा प्रयोगित हर शब्द को एक नया अर्थ देता है। इस नारे में ’ज्ञान’ शब्द के निहितार्थ इस प्रकार हैं -

1. ज्ञान का अर्थ है - विकास। ज्ञान से ही आप विकास कर सकते हैं और विकास का अर्थ है केवल औद्योगिक विकास। जल, जंगल, जमीन और जन की चिंता न करो। ये सब दोहन करने के लिए ही बने हुए हैं।

2. ज्ञान का अर्थ है - आप में इतनी क्षमता है कि अपने स्वार्थ और अपने लाभ के लिए आप दुनिया की हर स्थूल और सूक्ष्म चीज को खरीद सकते है, बेच सकते हैं। आप सरकारों को भी खरीद और बेच सकते हैं।

3. ज्ञान का अर्थ है - सफलता। ज्ञान से ही आप सफलता प्राप्त कर सकते है और सफलता का एकमात्र अर्थ है, पैसा कमाना। पैसा कमाने के लिए कोई भी रास्ता, कोई भी साधन अपनाया जा सकता है। रास्ता अनैतिक भी हुआ तो चिंता न करो। पैसों के द्वारा नैतिकता और अनैतिकता को पुनरपरिभाषित किया जा सकता है। पैसा स्वयं पवि़त्र और नैतिक होता है, इसके स्पर्श से हर चीज नैतिक और पवित्र हो जाती है।

4. ज्ञान का अर्थ है - पैसा कमाना। अपनी क्रयशक्ति बढ़ाना। जो व्यक्ति बाजार द्वारा उत्पादित वस्तुओं से जितना अधिक स्वयं को और आपने घर को सजाता और अलंकृत करता है। वह उतना ही अधिक सफल माना जाता है।

5. ज्ञान का अर्थ है - बाजार की जानकारी होना। बया, अप्रेल-जून, 2017, पृ. 14 के अनुसार - वर्ष 2000 में ’शिक्षा सुधार हेतु नीतिगत प्रारूप’ (अ पाॅलिसी फ्रेमवर्क फाॅर रिफार्म इन एजुकेशन) पर शिक्षा आयोग का गठन किया गया था। शिक्षाविदों के स्थान पर देश के दो सबसे सफल उद्यमियों मुकेश अंबानी और बिरला कुमारमंगलम को इसमें बतौर प्रतिनिधि शामिल किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय के आग्रह पर इन्हें आयोग का प्रतिवेदन तैयार करने के लिए कहा गया। इस आयोग के दस्तावेज का अर्टिकल 1, 6 कहता है - ’’..... शिक्षा के बारे में हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। सामाजिक विकास के घटक के रूप में नहीं बल्कि शिक्षा को मुनाफा कमाने के साधन के रूप में देखना होेगा ....।’’ आगे कहा गया है - ’’... दुनिया अब तेजी से बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था को अपना चुकी है और उसके बारे में जो जानकारी होगी वह शिक्षा के बराबर होगी। उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन ही उसके (शिक्षा के) आर्थिक मूल्य का निर्धारक घटक होगा।’’

6. आज ज्ञान का अर्थ है - संतुलित रूप से विकसित इन्सान की जगह प्रशिक्षित कुत्ते तैयार करना। हमारे शिक्षण संस्थान क्या ऐसा ही नहीं कर रहे हैं?
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सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

मित्रों के बोल-नमूने

नमूना - 1


एक सज्जन ने मुझसे पूछा - ’’भारत के पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार होने के बाद भी भारत गुलाम हुआ?’’

दरअसल वे शिकागो धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद के उद्बोधन की चर्चा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि स्वामीजी के उद्बोधन से सभा में उपस्थित दुनिया भर के धर्मगुरू और विद्वान भारत के प्राचीन संस्कृति, अध्यात्म और ज्ञान से अत्यधिक प्रभावित हुए। धर्म सभा और उसके बाद स्वामीजी के माध्यम से समूची दुनिया में भारत की प्राचीन संस्कृति, अध्यात्म और ज्ञान का डंका बजने लगा। पर वे इस बात से अचंभित थे कि ’’भारत के पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार होने के बाद भी भारत गुलाम क्यों है?’’ यह प्रश्न उन लोगों ने स्वामीजी से पूछा था। यही प्रश्न मैं आपसे पूछ रहा हूँ - ’’भारत के पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार होने के बाद भी भारत गुलाम हुआ?’’

मैंने कहा - भाई! बड़ा सामयिक प्रश्न है। इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। इस प्रश्न पर मित्रों के साथ चर्चा करूँगा। कुछ संतोषजनक उत्तर निकल आया तो आपको जरूर बताऊँगा।

मैंने एक मित्र से इस प्रश्न का उत्तर पूछा। उसने पहले एक श्लोक कहा फिर उसका आशय समझाते हुए कहा - ’जहाँ पर लाभ की संभावना हो, रास्ता सुखमय और आसान हो वहाँ ब्राह्मण कहता है, तुम सब पीछे चलो, ब्राह्मण को आगे रहना चाहिए। शास्त्रों में यही लिखा है। परंतु जहाँ हानि की संभावना हो, रास्ता काँटों से भरा हो, नदी-नाले हों वहाँ ब्राह्मण कहता है, तुम सब आगे आओे। ब्राह्मण को पीछे रहना चाहिए। शास्त्रों में यही लिखा है।’

मित्र का यह जवाब मुझे रूचिकर लगा।
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नमूना - 2


जैसा कि अधिकांश लोग होते हैं, मित्र भी पुनर्जन्म के प्रबल समर्थक हैं। पुनर्जन्म का समर्थन करनेवाली रोमांचकारी और विस्मयकारी घटनाओं का उसके पास जखीरा है। एक दिन इस जखीरे को खोलकर वे मुझे अपनी बात मनवाने पर तुले हुए थे। मैंने उससे पूछा - ’’आज बहुत सारे जीव धरती से विलुप्त हो चुके हैं। बहुत सारे जीव विलुप्ति के कगार पर हैं। शेरों का संरक्षण नहीं किया जाता तो आज तक वे भी विलुप्त हो चुके होते। इनका पुनर्जन्म क्यों नहीं होता?’’

मित्र कुछ देर ध्यान की मुद्रा में बैठे रहे जैसे ईश्वर के साथ कनेक्ट होने का प्रयास कर रहे हों। शायद ईश्वर के साथ संपर्क स्थापित हो गया होगा। ध्यान से लौटते हुए अत्यंत धीर-गंभीर वाणी में उन्होंने कहा - ’’आज के मनुष्यों में शेर योनी में जन्म लेने की पात्रता नहीं रही। इसीलिए ईश्वर ने इस योनि में जन्म को अस्थायी रूप से प्रतिबंधित कर रखा है।’’

वाह! ईश्वरीय प्रेरणा से प्राप्त यह जानकारी सचमुच ’अमूल्य’ है।

क्रमशः

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

आलेख

’’आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है, फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है?’’

जब हिंदू ही नहीं रहेंगे तो हिंदुत्व कैसे बच पायेगा

दो दिन पहले की बात है। पान खाने के लिए मैं पान ठेले के सामने खड़ा था। इसी उद्देश्य से एक सज्जन और आ गये। तभी जोरों की बारिश होने लगी और आधे घंटे तक होती रही।
सज्जन पान ठेलेवाले से बतिया रहा था। (बाद में पता चला कि वह किसी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी का सक्रिय और प्रशिक्षित कार्यकर्ता था।) बातचीत का विषय उनकी पार्टी से ही संबंधित था। एक अच्छे समीक्षक की तरह उनकी बातें तार्किक और सधी हुई थी।
उनकी कुछ बातें मुझे बड़ी प्यारी लगी। वह बता रहा था कि उसके एक साथी का, कभी पार्टी के द्वारा ही आयोजित किसी धरना-प्रदर्शन जैसी क्रियाकलाप से संबंधित, कोई आपराधिक प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है। साथी लगातार पेशियों से तंगहाल और परेशान हो चुका है। पार्टी की ओर से उसे सहानुभूति के अलावा और कोई सहायता नहीं मिलती। उन्होंने कहा, देश के कानून के अनुसार - ’’सजा यदि हुई तो साथी को होगी, पार्टी को नहीं।’’
सही है, पार्टी के किसी भी क्रियाकलाप की सफलता उसके कार्यकताओं की सफलता होती है। इसका लाभ पार्टी को मिलता है। तो पार्टी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के दौरान दर्ज आपराधिक प्रकरणों में सजा भी पार्टी को ही मिलनी चाहिए।
पार्टी के उद्देश्यों की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा कि कभी-कभी लगता है कि - ’’पार्टी का उद्देश्य एकमात्र हिंदुत्व को बचाना है, हिंदुओं को बचाना नहीं। समझ में नहीं आता, जब हिंदू ही नहीं रहेंगे तो हिंदुत्व कैसे बचा रह पायेगा?’’
आगे उन्होंने स्वमी विवेकानंद के ऐतिहासिक शिकागो धर्म सभा और अमेरिका प्रवास से संबंधित बातों की चर्चा करते हुए कहा कि स्वामीजी द्वारा दिये गये व्याख्यानों के जरिये हिंदू धर्म, अध्यात्म और संस्कृति संबंधी अद्भुत ज्ञान के बारे में जानकर अमेरिकी तथा अन्य विद्वान और धर्म गुरू अचंभित थे। परंतु इससे भी अधिक अचंभित वे इस बात से थे कि ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार होने के बाद भी भारत गुलाम है। स्वामीजी से उन विद्वानों ने इसका कारण पूछा था - ’’आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है, फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है?’’
स्वामी विवेकानंद ने उन विद्वानों को इस प्रश्न का क्या और किस प्रकार जवाब दिया था, इसे भी उस सज्जन ने बताया। इस पर प्रकाश डालते हुए उसने पता नहीं, स्वामीजी के ही शब्दों को उद्धृत किया या उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत किया, पर उसके इस स्पष्टीकरण को समझना मेरे लिए कठिन था। उसने जो भी कहा वह मुझे काल्पनिक, अविश्वसनीय, अतार्किक और अधूरा लगा। (हो सकता है कि ऐसा मुझे अपनी अज्ञानता के कारण लगा हो। वेदों और शास्त्रों में संचित ज्ञान के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।)
मैं सोचता हूँ, विदेशी विद्वानों द्वारा स्वामी विवेकानंद से पूछा गया सवाल कि आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है (अब गुलाम था। या अब भी है?), हर भारतीय से पूछा गया सवाल माना जाना चाहिए। इस सवाल का जवाब हम प्रत्येक भारतीय को ढूँढना चाहिए।
इस सवाल का जवाब ढूँढते समय मैं ’ज्ञान’ और ’ज्ञानी’ शब्द पर उलझ-अटक जाता हूँ। भारत न केवल ज्ञान से अपितु ज्ञानियों से भी भरा पड़ा है। भारत का ज्ञान मुझे अचंभित नहीं करता। भारत में, वेद, पुराण, उपनिषद्, शास्त्र, साहित्य आदि में धर्म, दर्शन, अध्यात्म, योग, आदि से संबंधित संचित विपुल ज्ञान भी मुझे अचंभित नहीं करते। इस पर एक भारतीय को जितना गर्व होना चाहिए, उतना मुझे भी होता है। मैं अचंभित होता हूँ इस बात पर कि प्रयत्न करके ढूँढने पर भी इस देश में कोई अज्ञानी नहीं मिलता, मिलते हैं तो केवल ज्ञानी ही। यहाँ सुननेवाला मुझे कोई नहीं मिलता, मिलते हैं तो केवल सुनानेवाले ही। यहाँ सुनाने के लिए सभी उतावले दिखते हैं; सुनने का धैर्य किसी में नहीं दिखता। अपवाद स्वरूप सुनने में यदि कोई तल्लीन दिख भी जाये तो इस अकाट्य सत्य पर संदेह मत करना। ध्यानस्थ और समाधिस्थ दिखना बगुले की चालाकी के सिवाय और कुछ नहीं होता। कभी-कभी मैं भी सुनने में तल्लीन दिख जाता होऊँगा। पर यह मेरी ’काग चेष्टा, बकुल ध्यानम’ वृत्ति के अलावा कुछ नहीं होती। मैं भी किसी की, कुछ भी सुनना नहीं चाहता, केवल सुनाना चाहता हूँ। एक दिन मेरी अंतरात्मा ने कहा - ’कुछ देर के लिए ही सही, खुद को अज्ञानी मान लेने में हर्ज ही क्या है। कभी-कभार किसी की सुन लेने में हर्ज ही क्या है? ज्ञानी के रूप में तो कभी अपनी पहचान बना नहीं पाये, अज्ञानी के रूप में ही अपनी पहचान बना ले। इस देश में कभी अज्ञानियों का सर्वेक्षण हुआ और सूची बनी तो एकमात्र और सबसें ऊपर अपना ही नाम होगा।’ पर मेरे मन ने तत्क्षण लताड़ते हुए मुझे चेताया - खबरदार! भूल से भी यह भूल मत करना।
भारत ज्ञानियों का देश है, यह देश ज्ञानियों से अटा पड़ा है और अज्ञानी नामक कोई भी जीव या कोई भी पदार्थ इस देश में कहीं नहीं पाया जाता, इस बात की जानकारी स्वामी विवेकानंद को भी थी। शायद इसीलिए उन्होंने शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में लगे अपने सन्यासियों से कहा था - इस देश को ज्ञान की नहीं, शिक्षा की जरूरत है। स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा इस देश की अशिक्षा है। इस देश की सभी समस्याओं का मूल अशि़क्षा ही है। लोगों के बीच जाकर आप उनके अंदर शिक्षा की प्यास जगाओ। आप शिक्षा के प्यासों के पास जाओं। कहावत है, कुआँ कभी प्यासे के पास नहीं आता, प्यासे को ही कुएँ के पास जाना पड़ता है। परंतु हमें इस कहावत को बदलना पड़ेगा। आप कुआँ हो, पर आपको प्यासों के पास जाना होगा। ये प्यासे आपको खेतों और खानों में काम करते हुए मिलेंगे। गाँवों में और सघन वनों में मिलेंगे। क्योंकि पेट की आग इन्हें आपके पास आने नहीं देगा। पेट की आग से मुक्त लोगों को उनके ज्ञान का अहम आपके पास आने नहीं देगा।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा स्वामी विवेकानंद से किया गया यह सवाल आज तक एक सवाल ही बना हुआ है। हम स्वतंत्र हो चुके है। यह स्वतंत्रता हमें हमारे ज्ञान ने नहीं दिलाया है। तब इस देश में कुछ शिक्षित और स्वतंत्र लोगों का आविर्भाव हुआ था। यह स्वतंत्रता उन्हीं की कोशिशों का सुपरिणाम है। उन दिव्यों की दिव्यता को मैं प्रणाम करता हूँ।
स्वतंत्रता की अनुभूति की जकड़ आज हमारी सबसे बड़ी परतंत्रता बन चुकी है। स्वतंत्रता शिक्षा की भूमि में पैदा होती और उसी में विकसित होती है। अशिक्षितों के लिए यह पशुवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रेम, अहिंसा और नैतिकता का संदेश देनेवाले इस देश में घृणा, हिंसा और अनैतिकता का ग्राफ दिनोंदिन बढ़ रहा है।
ओशो कहते हैं कि पढ़कर, सुनकर, देखकर, गंध और स्वर्श से हम बहुत कुछ सीखते हैं। इस तरह सीखी हुई और बाह्य माध्यमों से अर्जित सूचनाओं को ही ज्ञान मानकर हम बैठे हुए हैं। बाहर से अर्जित ये सूचनाएँ कूड़ा-कर्कट के अलावा और कुछ नहीं हैं। यह छद्म ज्ञान घृणा और अहंकार पैदा करता है। इस घृणा और अहंकार ने हमें जकड़ा हुआ है। ध्यान रखें, ज्ञान कोई बाह्य वस्तु नहीं है। ज्ञान आंतरिक अनुभूति है। इसका स्रोत हमारे अंदर होता है। इसका प्रवाह अंदर से बाहर की ओर होता है। इससे अहंकार नहीं, विनम्रता का जन्म होता है; घृणा नहीं, प्रेम का जन्म होता है।
प्रकाश को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। सूर्य अपने प्रकाश को बाहर से अर्जित नहीं करता। प्रकाश का उद्गम सूर्य के अंदर स्थित है। इसका फैलाव बाहर की ओर होता है जिससे सारा जग आलोकित होता है। सूर्य के समान दिव्य - महावीर, बुद्ध, कबीर और नानक के प्रकाश रूपी ज्ञान का स्रोत उनके अंदर से फूटा था और इस भूमि को अपनी करुणा और प्रेम से सींचा था।
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रविवार, 8 अक्तूबर 2017

व्यंग्य

असहमत रस के रसरसे रसाचार्य 

हमारे यहाँ द्रोण-अर्जुन की तरह गुरू-शिष्य की एक जोड़ी पायी जाती है। इन दोनों की जोड़ी यहाँ असहमत द्वय की जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। फिलहाल, इस जोड़ी के गुरू को असहमत ’अ’ और शिष्य को असहमत ’ब’ कहकर काम चलाना पड़ेगा। यह जोड़ी साहित्यिक कार्यक्रमों के आमंत्रण को पूरी गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ लेती है। परंतु किसी कार्यक्रम में समय पर पहुँचने के मामले में वे सदा एक मत से असहमत रहते हैं। 

संभव है, ’असहमत’ शब्द का अर्थ व्याकरणाचार्य इस प्रकार बतायें - ’अ $ सह $ मत = असहमत’। किसी मत के ’साथ न होना’ असहमत होना है। इसके विपरीत, अर्थात् ’साथ होना’ सहमत होना है। मैं इस विष्लेशण से पूरी तरह सहमत हूँ। परंतु असहमत द्वय की पे्ररणाओं से मुझे इसकी एक नयी व्याख्या सूझ रही है - ’असह $ मत = असहमत’, अर्थात् - किसी की बात या किसी के द्वारा प्रतिपादित मत का किसी के लिए ’असह’ हो जाना। असहमत होना एक चमत्कारी गुण है। अपने आप को प्रकाशित और विज्ञापित करने का यह सबसे आसान तरीका है।  किसी सभा में किसी से असहमत होकर असहमत होनेवाले लोग अपने आप को अच्छी तरह से प्रकाशित और विज्ञापित कर लेते हैं।

रसरसे व्यक्तित्व के धनी असहमत द्वय स्वयं को बहुत बड़े रसाचार्य मानते हैं। उनका कहना है कि रसों की संख्या को नौ तक सीमित करके भरत मुनि ने रसिकों के साथ घोर अन्याय किया है। असहमत द्वय का दावा है कि अब तक उन लोगों ने सौ से अधिक नवीन रसों का अनुसंधान कर लिया है। उन लोगों के अनुसार असहमत होना भी एक तरह का रस है। इसे वे ’असहमत रस’ कहते हैं।  

मित्रों! यह एकदम सही है, असहमत द्वय से मैं भी सहमत हूँ। देखिए - ’किसी सहृदय के हृदय में किसी मत को या किसी बात को सुनकर, पढ़कर या देखकर जब असह पीड़ा देनेवाली असह भाव जाग्रत होता है तब उस असह पीड़ा-भाव  को असहमत रस का स्थायी भाव समझना चाहिए। वक्ता विभाव, उसके द्वारा प्रतिपादित मत आलंबन विभाव और उसके द्वारा अपनी विद्वता प्रदर्शन का प्रयास आदि कार्य उद्दीपन विभाव माने जायेंगे। प्रतिपादित मत के प्रति विरोध प्रदर्शन और इससे उत्पन्न नोक-झोक, वाद-विवाद आदि असहमत रस के अनुभाव माने जायेंगे। सामनेवाले को नीचा दिखाने और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के भाव आदि इसके संचारी भाव माने जायेंगे। असहमति-भाव के साथ इन सब भावों के संयोग से उत्पन्न रस को ’असहमत रस; कहा जाना चाहिए।’’ 

इसे चखने वाले सहृदय जानते हैं - यह रस अत्यंत मीठा, स्वादिष्ट और प्रतिष्ठा प्रदान करनेवाला होता है। 
कार्यक्रमों में असहमत द्वय की उपस्थिति से असहमत रस की तीव्र बौछारें शुरू हो जाती हैं। सुननेवाले इस रस के स्वाद से आह्लादित होते रहते हैं। एक कार्यक्रम में वर्तमान में बापू के विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा हो रही थी। दो शब्द बोलने के लिए मुझे मंच पर बुलाया गया था। मुझ जैसा निपट गंवार व्यक्ति दो शब्द का महत्व भला क्या जाने? परंतु उस दिन असहमति के हमले झेलने के बाद बात अब कुछ-कुछ समझ में आने लगी है। दो शब्द कहकर वक्तव्य समाप्त कर लेने के फिलहाल तीन फायदे तो हो ही सकते हैं। पहला - दो शब्द कहने के लिए पूर्व तैयारी की कवायद और कष्ट से शत-प्रतिशत बचा जा सकता है। दूसरा - दो शब्द कहकर चुप हो जाने से कहे गये दो शब्दों के भाव या अर्थ अधिकांश लोग समझ ही नहीं पायेगें। समझने की इच्छा रखनेवाले श्रोताओं को इसे समझने की पूरी-पूरी स्वतंत्रता मिल जायेगी। स्पष्ट है, इससे असहमत होने के अवसर या तो पैदा ही नहीं होंगे या कम से कम हो जायेंगे। इससे मत प्रतिपादक को असहमति के हमलों से राहत मिलेगी। तीसरा - कहते हैं, ’बंद मुटठी लाख की, खुल जाये तो खाक की।’ दो शब्दों में वक्तव्य समाप्त करने से बंद मुट्ठी को खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इस तरह मुझ जैसा निपट गंवार वक्ता भी अपनी मूर्खता की रक्षा कर सकता है। इससे किसी भी गंवार और मूर्ख वक्ता की प्रायोजित गरिमा और विद्वता श्रोता समाज में अक्षुण्ण बनी रहेगी।

अपनी गरिमामय आदत के अनुसार इस दिन भी असहमत द्वय का आगमन काफी विलंब से हुआ। कार्यक्रम स्थल के स्वागत द्वार पर असहमत द्वय की उपस्थिति की गंध पाते ही समस्त आयोजक और श्रोतागण उधर ही दौड़ पड़े। सभा स्थल से समस्त श्रोतागण अस्त हो गये। तब, अपना वक्तव्य रोककर स्वागत द्वार की ओर हाथ जोड़कर, अपनी जगह पर खड़े रहने के अलावा मैं और क्या कर सकता था। 

असहमत द्वय का स्वागत-सत्कार जब तक संपन्न हो, आइए अपने अब तक के वक्तव्य का सारांश मैं आपको निवेदित कर दूँ। बापू स्वच्छता के हिमायती थे। अब हमारी सरकार देश भर में इसे स्वच्छता अभियान के रूप में चला रही है। हर घर, हर परिवार में शौचालय निर्माण का काम चलाया जा रहा है। वर्तमान में बापू के विचारों की यह सबसे बड़ी प्रासंगिकता है। अपने वक्तव्य में मैं खुले में शौच करने से होनेवाले नुकसानों के बारे में बता रहा था। 

असहमत द्वय के असहमति के भाव उन्हें बेचैन कर रखा होगा। उनके स्वगत के बाद जैसे ही मैंने अपना वक्तव्य शुरू किया असहमत ’ब’ जी ने अपनी असहमति का भोंपू बजाना शुरू कर दिया - ’’कुबेरजी, इससे मैं सहमत नहीं हूँ।’’

असहमत ’ब’ जी की दिव्य दृष्टि और दिव्य श्रवणशक्ति से मुझे आश्चर्य हुआ। अपने वक्तव्य में मैंने अब तक क्या कहा है और आगे क्या कहनेवाला हूँ, इससे वे अब तक अवगत नहीं हुए थे। फिर भी उनका असहमति का भोंपू बजना शुरू हो गया था। उनकी अनुपस्थिति में अब तक मेरे द्वारा निवेदित बातें उनके द्वारा दिव्य श्रव्यशक्ति के बिना कैसे सुनी जा सकती थी। मैंने पूछा - ’’किस बात से?’’

’’यही, घर-घर शौचालय बनाने के कार्यक्रम से।’’

’’क्यों भला?’’

इस प्रतिप्रश्न के उत्तर में वे शौचालय बनाने और उससे संबंधित आर्थिक भ्रष्टाचार की बातें तथा शौचालय के उपयोग के दुष्परिणामों के बारे में एक-एककर बताने लगे। कहने लगे - ’’क्योंकि इससे भूमिगत जलस्रोत प्रदूषित होंगे। और अंततः लोग बीमार पड़ने लगेंगे। इससे तो खुले में शौच जाने की परंपरा ही ठीक है।’’ इस दौरान असहमत ’अ’ जी अपने शिष्य की बातों को ध्यान लगाकर सुनते रहे। बीच-बीच में वे अपने दिव्य सूत्र वाक्यों के द्वारा असहमत ’ब’ जी को प्रोत्साहन देकर अपना गुरुधर्म भी निभाते रहे। 

असहमत ’ब’ जी द्वारा खुले में शौच करने के महत्व को समझाये जाने से मेरी सोचने की धारा एकदम बदल गयी। उसके द्वारा शौचालय बनाने और उसके प्रयोग के दुष्परिणामों के बारे में विस्तार पूर्वक डाले गये दिव्य प्रकाश से मेरी ज्ञानेन्द्रियों के भीतर के कोने-कोने में वर्षों से समाया हुआ अज्ञानता का अंधकार पलभर में दूर हो गया। मेरी चेतना ज्ञान के आलोक से दीप्त हो उठी। असहमत ’ब’ जी के समक्ष नतमस्तक होते हुए मैंने कहा - ’’मित्रों! असहमत ’ब’ जी की बातों से अब मैं पूरी तरह सहमत हो चुका हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शौचालयों का प्रयोग करने से हमारे देश की धर्मपारायण, सुसंस्कृत आम जनता खुले में शौच करने से होनेवाले अनेकानेक फायदों से वंचित हो जायेगी। खुले में शौच करने के कुछ फायदे इस प्रकार हैं - 
देश की लगभग सौ करोड़ जनता द्वारा खुले में शौच करने से शौच के भीनी-भीनी, दिव्य, नैसर्गिक और अलौकिक गंध से संपूर्ण वतावरण गमकने लगता है। भारत भ्रमण के लिए आनेवाले विदेशी नागरिक इस देश की धरती पर पैर रखते ही इस अलौकिक गंध से अभिभूत हो उठते हैं। शौचलयों का प्रयोग करने से इस अलौकिक गंध से हम सब वंचित हो जायेंगे।

देश की लगभग सौ करोड़ जनता द्वारा खुले में किया गया शौच विभिन्न माध्यमों से हमारे तालाबों, पोखरों, कुओं, नदी-नालों आदि जल स्रोतों के जल में जाकर विलीन हो जाते हैं। इससे इन जलस्रोतों के जल की गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती है। जल अधिक सुस्वादु और पौष्टिक हो जाता है। इससे देश की करोड़ों कुपोषित जनता के पोषण स्तर और स्वास्थ्य में सुधार होता है।

खुले में किया गया शौच सूखकर धूल के कणों के रूप में हवा में तैरते रहते हैं। हवा के साथ हमारे फेफड़ों में पहुँचकर ये कण फेफड़ों को मजबूत और निरोग बनाते हैं। खुले में रखे हुए खाद्य वस्तुओं पर निःक्षेपित होकर ये उनका वजन और उनकी पौष्टिकता में वृद्धि करते हैं। इसके अलावा शौच में पैदा होने और पलनेवाली  मक्खियाँ भी अपने पैरों से इसे ढो-ढोकर हमारी खाद्य वस्तुओं तक पहुँचाती हैं और खाद्य वस्तुओं के भार को बढ़ाती हैं। 

शोधकर्ता वैज्ञानिकों का मत है कि इस तरह देश का प्रत्येक नागरिक प्रतिदिन अनजाने ही औसतन चार ग्राम मल खा लेता है। शौचालयों के प्रयोग करने से देश की जनता इस सौभाग्य से वंचित हो जायेगी। देश की भूखी-नंगी जनता के साथ ऐसा छल करना महा पाप होगा।

 शोधकर्ता वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार देश की सौ करोड़ जनता द्वारा उत्पादित मल को संग्रहित करने से हर साल एक हिमालय पहाड़ बन सकता है। ऐसा संग्रहण देश की सीमाओं में करने से कुछ ही सालों में देश के चारों और कृत्रिम हिमालय पहाड़ का निर्माण किया जा सकता है। इस तरह देश के अंदर घुसपैठ करनेवाले आतंकवादियों से, और विदेशी आक्रमणकारियों से देश को पूरी तरह सुरक्षित बनाया जा सकता है। देशी, कबाड़ से जुगाड़ तकनीक और सहज-सुलभ संसाधन से ऐसा महान् कार्य मुफ्त में और सरलता पूर्वक संपन्न कर लेने से दुनियाभर में हमारे देश का गौरव बढ़ेगा।’’

इतना कहकर मैंने अपना वक्तव्य समाप्त कर लिया। किसी श्रोता ने ताली नहीं बजाई। सभी  अपना-अपना नाक-भौं बनाते-सिंकोड़ते हुए बैठे रहे। दरअसल असहमत जी की असहमति के साथ मेरे सहमत हो जाने के कारण सभा में एक भी संचारी भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकी। संचारी भाव के अभाव में असहमत रस की उत्पत्ति कैसे हो सकती थी। इससे असहमत ’अ’ जी और ’ब’ जी के साथ-साथ श्रोताओं को भी असहमत रस से वंचित होना पड़ा। 

मुझे इसका दुख है।
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गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

आलेख




अपने कद को शून्य होने से मैंने बचा लिया

पिछले कई महीनों से दराज खोलते हुए मुझे बड़ी दहशत होने लगी थी। मजबूरी में ही दराज खोलता था। पर आज मैंने निःशंक होकर दराज खोला। जिसने मुझे बेईमान, बहानेबाज, झूठा, लालची और बदनीयत कह-कहकर परेशान कर रखा था, आज वह वहाँ नहीं था।

वह स्टील का एक फीटवाला पैमाना था जो अक्सर विद्यार्थियों के बस्ते में, अथवा टेबल पर काम करनेवालों की टेबल पर रखा मिल जाता है। मैंने उसे एक बेजान वस्तु समझा लिया था। यह मेरी अब तक की सबसे बड़ी भूल थी। उसकी सजीवता को समझने मेें मैंने बड़ी देर कर दी थी। समझ पाया, तब तक मैं पूरी तरह नप चुका था।

कुछ महीने पहले की बात है। बोर्ड की एक कार्यशाला में हम लोग रायपुर गये थे। कार्यशाला समाप्त होने पर वापसी की तैयारी करते समय कार्यालय में ही मित्र का यह स्केल भूलवश मेरे बैग में चला गया था। यात्रा के दौरान रास्ते में इस भूल पर ध्यान गया। पर बैग पीछे की सीट पर रखा हुआ था। मित्र अपनी कार स्वयं चला रहा था। इन परिस्थितियों में उस समय उस स्केल को लौटाना संभव नहीं था। मित्र का घर पहले पड़ता है। पहले वहीं जाना होता है। यही सोचकर अपनी इस गलती पर ध्याान दिलाते हुए मैंने मित्र से कहा था - ’’घर पहुँचने पर ध्यान दिलाना, वरना यह स्केल बैग में ही रखा रह जायेगा और मेरे घर पहुँच जायेगा।’’

’’तो क्या हुआ? एक ही बात है।’’ कहकर मित्र ने बात टाल दी थी।

जिसे मैं मित्र संबोधित कर रहा हूँ, दरअसल वह मेरा अनुज ही है। और सच्चाई तो यह है कि कई अवसरों पर वह मुझे अपना अभिभावक और संरक्षक भी लगने लगता है। भीड़ भरी सड़कों पर चलते वक्त सुरक्षा की दृष्टि से अभिभावक साथ चल रहे बच्चे का हाथ अक्सर थाम लिया करते हैं। ये भी मेरे साथ ऐसा ही करते हैं। समय-समय पर सहृदयतापूर्वक पेन, डायरी आदि लेखन सामग्रियाँ उपहार में देते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति से उम्मीद करना कि घर पहुँचकर वह इस स्केल के लिए ध्यान दिलाये, वास्तव में मेरी बचकानी सोच थी।

और यही हुआ। स्केल लौटाने की बात पर, न मेरा ध्यान गया और न ही मित्र ने ध्यान दिलाया। और इस तरह वह मेरे घर में आ गया था। 

बैग से निकालकर इसे मैंने मेज पर रख दिया था ताकि लौटाने की बात मन में बराबर बनी रहे और समय और सुविधा देखकर उसे लौटाया जा सके। 

कुछ दिनों बाद मित्र से मिलने का संयोग बना। उस स्केल लौटाने की बात सुबह से ही मेरे मन में उछलकूद मचाये हुई थी। पर घर से निकलते वक्त यह बात फिर ध्यान से उतर गई। आजकल घर से निकलते वक्त मैं अक्सर कुछ न कुछ भूलने लगा हूँ। मोबाइल और फूलपैंट का जिप बंद करना भी इस भूलने में शामिल हो गया है। मिलने पर मैंने मित्र से कहा - ’’आपका स्केल फिर घर में रह गया।’’

’’भइया! आप भी हद करते हैं। रहने दीजिए न। लौटाने की क्या जरूरत है।’’ मित्र ने अधिकारपूर्वक कहा था।

घर लौटने पर सबसे पहले उस स्केल पर ही नजर पड़ी। मनचाही न मिलने पर बच्चे जिस प्रकार मुँह फुलाकर बैठे रहते हैं; वही हालत मुझे उसकी भी लगी। मैंने कहा - ’’साॅरी! भूल गया। क्या करूँ?’’

मुझे लगा, वह कह रहा हो - ’’आप लापरवाह हैं।’’

’’नहीं तो, सचमुच भूल गया था। खैर, अब तो इसकी जरूरत भी नहीं रही। तुम्हारे मालिक ने कहा है - ’लौटाने की क्या जरूरत है’।’’

’’एक भले आदमी से आप और किस तरह के जवाब की उम्मीद कर सकते हैं। इसके अलावा वह कह भी क्या सकता था?’’

मुझे उसकी इस बात में दम लगा। 

असुविधा होने पर बाद में मैंने उसे दराज में डाल दिया था।

दूसरी बार फिर इसे रखना भूल गया। 

इस बार मैंने ’झूठे’ और ’बहानेबाज’ की उपाधि पायी। उसने कहा - ’’आप झूठे और बहानेबाज हैं। झूठ बोलते हुए शर्म आनी चााहिए आपको।’’

’’शर्म क्यों आनी चााहिए। हाँ, गुस्सा जरूर आ रहा है। चुप करो। आगली बार नहीं भूलूँगा। ठीक है।’’

मेरे इस बहलावेवाले आश्वासन से वह चुप तो हो गया पर मेरे प्रति अविश्वास का भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट पढ़ा जा सकता था। और अविश्वास भाव से भरी हुई उसकी यह चुप्पी मुझे एक चुनौती के समान लग रही थी। चुनौतियाँ हमेशा कठिन होती हैं।

उसके शब्द बराबर मेरे कानों में गूँजते रहते। उसकी यह चुनौती मुझे चैबीसों घंटे सालती रहती, उकसाती रहती। उसका यह उकसावा मेरे लिए बेचैनी का कारण बन गया था। 

अगली बार पूर्व संध्या पर ही मैंने उसे बाइक की डिक्की में रख लिया ताकि घर से निकलते वक्त भूलने की संभावना न रहे। पर भूलने की आदत का क्या किया जाय। 

संध्या समय घर लौटने पर बाइक की डिक्की से अन्य सामान निकालते वक्त उस पर नजर पड़ी। भूलने की इस आदत पर मुझे स्वयं पर क्रोध आ रहा था। निकट भविष्य में मित्र से मिलने की कोई संभावना न देखकर मैंने एक बार फिर उसे मेज की दराज में उसकी जगह पर रख दिया था।

लेकिन इस दौरान उसने मेरी हालत खराब कर दी थी। जैसे वह चीख-चीखकर कह रहा हो - ’’बहाने बनाना बंद कीजिए। आपकी बदनीयती को मैं अच्छी तरह जानता हूँ - आप न सिर्फ लापरवाह, झूठे और बहानेबाज हैं, बदनीयत और बेईमान भी हैं।’’

उसकी इन बातों से मुझे बहुत क्रोध आया। मैंने उसे डपटते हुए कहा - ’’चुप कर। मुझे और अधिक गुस्सा न दिला। वरना ......।’’

’’वरना क्या? क्या कर लोगे आप मेरा?’’

ऐसा कहकर मानों जैसे उसने आग में घी डालने का काम किया हो। उसकी इस अकड़ और ढिठाई ने मुझे और उकसाया। मैंने कहा - ’’क्या कर सकता हूँ? बताऊँ? मैं तुझे तोड़कर फेक सकता हूँ। चूल्हे में जला सकता हूँ। और .... ।’’

’’और क्या? बोलिए, रुक क्यों गये?’’

’’ ......  और क्या? तुझे कुएँ में डाल सकता हूँ। नदी में बहा सकता हूँ। नष्ट कर सकता हूँ। समझे।’’

’’मैं जानता हूँ। चाहकर भी आप ऐसा कुछ नहीं कर सकते।’’

’’क्यों भला। कौन रोकेगा मुझे?’’

’’यह आप नहीं, आपका अहंकार बोल रहा है। शांत हो जाइए। आप मुझे नष्ट नहीं कर सकते। मुझे कोई नष्ट नहीं कर सकता।’’

’’अमर होकर पैदा हुए हो?’’ 

’’ऐसा ही मान लीजिए। मैं अमर ही हूँ। क्योंकि मेरे बिना दुनिया का कोई भी कार्य-व्यापार न तो अब तक चला है और न ही भविष्य में चल सकेगा। किसी न किसी रूप में इस दुनिया में मैं हमेशा मौजूद रहा हूँ। निराकार रूप में तो मैं तब भी था, जब यह दुनिया नहीं बनी थी। अब भी हूँ। विचार के रूप में मैं सदा आपके मन-मस्तिष्क में बना रहता हूँ। आपने ही समय-समय पर अपने विचार और अपनी कल्पना के बल पर मुझे लकड़ी, धातु और प्लास्टिक के माध्यम से विभिन्न आकार और रूप देने का काम किया है। परंतु यह आपकी आवश्यकता थी। लकड़ी, धातु और प्लास्टिक का रूप पाने से पहले मैं ’हाथ’, ’बीते’ और ’मुट्ठी’ के रूप में था। उसके भी पहले ’कदम’ के रूप में। वामन अवतार और कृष्ण-सुदामा की कथा भूल गये क्या। और यह भी समझ लीजिए, दुनिया जब नहीं रहेगी, आप नहीं रहेंगे, आपकी कल्पना नहीं रहेगी, आपके विचार नहीं रहेंगे, तब भी मैं रहूँगा, अपने उसी निराकार रूप में। मैं स्वयंभू हूँ।’’

उसके इस दलील में सच्चाई थी। ईश्वर की अवधारण पर मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर की अवधारण मुझे काल्पनिक लगता है। परंतु उस पैमाने की नित्यता को कल्पनिक मानने और उस पर संदेह करने का कोई कारण मुझे नहीं दिख रहा था। 

अब तक मैं स्वयं को ही बड़ा, बुद्धिमान और श्रेष्ठ समझता आ रहा था। परंतु उसके इस दलील ने मुझे पूरी तरह परास्त कर दिया था। 

अब समझ पाया हूँ। अब तक वह हर बार मुझे नापता रहा। हर बार वह मुझे बौना साबित करता रहा। और इस तरह हर बार मेरा कद घटता रहा। परंतु हर बार मैं अपने कद को बढ़ता हुआ ही महसूस करता रहा। अब समझ पाया हूँ, मेरा अहंकार, मेरी चतुराई और मेरा ढोंग ही है जिन्होंने आज तक मुझे ऐसा अहसास कराया है। वह हमेशा मेरे सामने मेरी सच्चाई को उद्घाटित करता रहा। उसके हर आरोप में कहीं न कहीं सच्चाई होती थी। परंतु मेरे अहंकार, मेरी चतुराई और मेरे ढोंग ने हमेशा उस पर परदा डालने का काम किया था। इन्हीं के चलते उसके द्वारा लगाये गये आरोपों की सत्यता को जाँचने के विचार को मैंने कभी महत्व नहीं दिया था। 

कही ऐसा न हो कि धीरे-धीरे मेरा कद शून्य हो जाय। मन में यह विचार आते ही मेरी आत्मा भय से काँपनीे लगी। इस भय से मुक्ति पाने के लिए यही बेहतर लगा कि उसके सामने मैं नतमस्तक हो जाऊँ। अपने कद को शून्य होने से बचा लूँ। इसके लिए उनकी बातों की सच्चाई को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास अब कोई और उपाय नहीं बचा था। 

और आज, अभी-अभी मैं उसे उसके मालिक को सौपकर लौटा हूँ।
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