सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

आलेख

कहानी की समीक्षा

’टेपचू’ सर्वव्यपी है


(टेपचू - उदय प्रकाश की चर्चित कहानी)
एक कहानी में टेपचू कहानी की पाठ योजना बनाते समय प्राध्यापक महोदय बड़ी उलझन में पड़ गये। बदमाश और उद्दंड विद्याथियों को कहानी के इस अंश को आखिर कैसे पढ़ाया जाय? कहानी का वह अंश यह है -
मुझे देख कर वह मुस्कराया, ’सलाम काका, लाल सलाम।’ फिर अपने कत्थे-चूने से रँगे मैले दाँत निकाल कर हँस पड़ा, ’मनेजमेंट की गाँड़ में हमने मोटा डंडा घुसेड़ रखा है। साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बना कर ढोरों की माफिक हाँक देना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है। छँटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छाँटो अजमानी साहब को पहले।’
प्राध्यापक महोदय ने कक्षा में विद्यार्थियों से कहा - ’’बच्चों! इस कहानी में अमुक पेज पर एक गंदा शब्द लिखा हुआ है। इस शब्द को मिटाकर उसकी जगह ’गुदा मार्ग’ लिख लो।’’
बच्चों ने वह शब्द तलाशना शुरू किया। एक बच्चे ने चिल्लाकर कहा - ’’मिल गया सर। गांड शब्द को मिटाकर गुदा मार्ग लिखना है न?’’
प्राध्यापक ने झेपते हुए कहा - ’’बदमाश! चिल्लाओं मत। चुपचाप लिखो।’’
कहानी में विद्यार्थियों को बड़ा रस आ रहा था। सब बदमाशी पर उतर आये थे। तभी एक अन्य विद्यार्थी की नजर कहानी के इस अंश पर पड़ी - ’दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गाँड़ में एक लकड़ी ठोंक दी जाए।’ एक और विद्याार्थी ने चिल्लाकर कहा - सर! यहाँ भी गांड लिखा हुआ है। इसे भी मिटाकर गुदा मार्ग कर लें क्या?’
अध्यापक महोदय झेपकर कक्षा से बाहर चले गये।
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परंतु इस कहानी का मूल तत्व यह नहीं है। मूल तत्व है - कहानी के नायक टेपचू की विपरीत से भी विपरीत परिस्थितियों में जीने की उत्कट शक्ति। कहानी का मूल उद्देश्य है - भारतीय सामाजिक व्यवस्था की सदियों से चली आ रही नग्न संच्चाइयों की ओर ध्यान खींचना। कहानी इस प्रकार शुरू होती है -
यहाँ जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी ज्यादा हैरतअंगेज होती है। टेपचू के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद आपको भी ऐसा ही लगेगा।
टेपचू अभावग्रस्त, गरीब, जवान-विधवा माँ की इकलौती संतान और एकमात्र सहारा है। टेपचू के लिए उसकी माँ असमय ही बूढ़ी हो जाती है। एक दिन असहनीय भूख को शांत करने के लिए किशोर टेपचू कमलगट्टे की लालच में तालाब के गहरे पानी में उतर जाता है और डूब जाता है। टेपचू पानी के भीतर तड़पने लगता है। तभी वहाँ परमेसुरा नाम का एक व्यक्ति आता है। टेपचू जहाँ डूबा था वहाँ पानी की हलचल देखकर उसे वहाँ किसी बड़ी मछली के होने का भ्रम होता है। कहानी में लिखा है -
जहाँ पर मछली तड़प रही थी वहाँ उसने गोता लगा कर मछली के गलफड़ों को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में टेपचू की गर्दन आई। वह पहले तो डरा, फिर उसे खींच कर बाहर निकाल लाया। टेपचू अब मरा हुआ-सा पड़ा था। पेट गुब्बारे की तरह फूल गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी। टेपचू नंगा था और उसका पेशाब निकल रहा था। परमेसुरा ने उसकी टाँगें पकड़ कर उसे लटका कर पेट में ठेहुना मारा तो ’भल-भल’ करके पानी मुँह से निकला।
एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया। उठा और बोला ’’काका, थोड़े-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने इत्ता सारा तोड़ा था, साला सब छूट गया। बड़ी भूख लगी है।’’
परमेसुरा ने भैंस हाँकनेवाले डंडे से टेपचू के चूतड़ में चार-पाँच डंडे जमाए और गालियाँ देता हुआ लौट गया।
टेपचू के जीवनीयशक्ति को उद्घाटित करनेवाली यह पहली प्रमुख घटना है। कहानी में आगे वह ताड़ी की लालच में एक ताड़ वृक्ष पर चढ़ जाता है। ताड़ी के मटके में हाथ डालने पर टेपचू के हाथ को वहाँ पहले से मौजूद एक जहरीला सांप जकड़ लेता है। फिर यह होता है -
जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी। इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए। काला साँप एक ओर पड़ा हुआ ऐंठ रहा था। उसकी रीढ़ की हड्घ्डियाँ टूट गई थीं।
यहाँ भी टेपचू सकुशल बच जाता है। कहानीकार कहता है - गाँववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हो न हो टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता।
टेपचू की हरकतें उसकी माँ को आवारागर्दी लगती है। उसने उसे गाँव के भगवानदीन पंडित के यहाँ चरवाही पर लगा देती है, जहाँ टेपचू के साथ इस प्रकार का बर्ताव होता है -
उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पंद्रह रुपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया। भगवानदीन असल काइयाँ थे। खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भुनी रोटियाँ टेपचू को मिलतीं। करार तो यह था कि सिर्फ भैंसों की देखभाल टेपचू को करनी पड़ेगी, लेकिन वास्तव में भैंसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से ले कर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पड़ता था। सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते। एक महीने में ही टेपचू की हालत देख कर फिरोजा पिघल गई।
इस प्रकार परिस्थितियों से लड़ता हुआ - एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया। जवान। पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीर कर वह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।
और फिर बैलाडीला लौह खदान में आकर वह नौकरी कर लेता है। वहाँ वह मजदूरारों का नेता बन जाता है और मजदूरों के शोषण के विरोध में आवाज उठाता है। हड़तालें होती हैं। पुलिस का दमन चक्र चलता है। पुलिसवाले उसे जीप के पीछे बांधकर जंगली रास्ते में घसीटते हुए ले जाते हैं। कहानीकार लिखता है -
जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रुकी। पुलिस पलटन का चेहरा खूँखार जानवरों की तरह दहक रहा था। चुंगी नाके पर एक ढाबा था। पुलिसवाले वहीं चाय पीने लगे।
टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ’’एक चा इधर मारना छोकड़े, कड़क।’’ वह चीखा। पुलिसवाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखकर मुस्कराए। टेपचू को चाय पिलाई गई। उसकी कनपटी पर गूमड़ उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था। जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था।
और जंगल में टेपचू को गोलियों से छलनी करके झाड़ पर लटका दिया जाता है। बाद में पोस्टमार्टम के लिए उसका शव टेबल पर रखा गया। वहाँ बड़ी हैरतअंगेज घटना घटती है। क्या होता है? कहानीकार ने लिखा है -
सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया। डॉ. एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे। वे बड़े धार्मिक किस्म के ईसाई थे। ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई। डॉ. वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियाँ धँसी हुई थीं। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहाँ चोट न हो।
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आँखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला, ’’डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियाँ निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।’’
डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूट कर गिर गया। एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे।
तो ऐसी है, टेपचू की जीवनीयशक्ति और हमारे समाज की नग्न सच्चाई। कहानी का अंत इस प्रकार होता है -
हमारे गाँव मड़र के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं - साला जिन्न है। आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहाँ, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूँ।
नहीं! मुझे टेपचू के अस्तित्व पर कोई अविश्वास नहीं होता। मुझे इस कहानी की सच्चाई पर कोई हैरत नहीं हेती। मुझे हैरत होेती है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी टेपचू यहाँ हर गाँव, हर गली, हर जगह पर मौजूद हैं। टेपचू ईश्वर की कृति नहीं है, यह भारतीय समाज की रचना है और भारतीय समाज अपनी इस रचना को कभी मरने नहीं देगा।
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