मित्रों के बोल-नमूने
नमूना - 7
दौड़ महात्म्य
दो मित्र बतिया रहे थे।
एक ने कहा - ’’चुनाव तिहार भी अजीब तिहार है, भाई। हर बार नयी-नयी परंपरा लेकर आता है। इस बार तो बड़ी आनंददायी परंपराएँ लेकर आ रहा है। चारों ओर उत्सव और आनंद की छटाएँ बिखेर रहा है। कहीं नाचने-नचाने की प्रतियोगिताएँ हो रही है, कहीं दौड़ने-दौड़ाने की और कहीं कपड़े उतारकर कीचड़ में नहाने की। सारे माननीय लोग इसी में व्यस्त हो गये हैं। पुराने गिले-शिकवे भूलकर सब एक हो गये है। नाचने और दौड़ने की इस प्रतियोगिता में कहीं महिलाओं को, तो कहीं बच्चों को जोड़ रहे हैं। सारे पुराने रिकार्ड तोड़ रहे हैं। आश्वासनों के बड़े-बड़े पटाखे फोड़ रहे हैं। तिहार की खुशी ऐसी कि न तो पैसों की बरबादी देख रहे हैं और न ही कीचड़ में नहाने की खराबी देख रहे हैं।’’
दूसरे मित्र ने कहा - ’’बढि़या है भाई! बढि़या है। हमें भी कल बड़ा मजा आया। हफ्तेभर की बिक्री घंटेभर में ही सुलटाया। माननीयों ने स्कूलवालों से कहा होगा - ’कक्षा में सिद्धतों की पढ़ाई तो रोज होती है। अब बस करिए। सिद्धांत की बातें बहुत हो गयीं। बच्चों को प्रेक्टिकल बनाइए। अकेले-अकेले दौड़ने में मजा नहीं आयेगा, लिहाजा हमारी कुर्सी दौड़ में शामिल कराने के लिए उन्हें भी दौड़ स्थल में सशरीर पकड़कर लाइए।’ तो भइया! सुबह-सुबह माननीयों के साथ दौड़कर सेहत बनाने के लिए यहाँ सैकड़ों बच्चे आये थे। माननीयों की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये-बिछाये भूख और प्यास से सब बिलबिलाये थे। अचानक सब हमारी दुकान की ओर टूट पड़े थे। खाने-पीने की सारी नयी और पुरानी चीजों को पैसे देकर लूट गये थे। पर नजरें अंत में भूख-प्यास से तड़पते और बेहोश होकर गिरते कुछ बच्चों पर टिक गयीं। बच्चों की हालत देखकर उनके दलिद्दर अभिभावकों पर मुझे बड़ा क्रोध आया। अरे! नासमझी की भी हद होती है यार। अपने बच्चों को माननीयों के साथ दौड़ने के लिए भेज रहे थे, जेब में पचीस-पचास भी नहीं डाल सकते थे? बदतमीज कही के।’’
पहले मित्र ने कहा - ’’सही कहते हो भइया! पर बात दूसरी है। यहाँ के अभिभावकों की तमीज पर आप नाहक शक कर रहे हो। दरअसल वे अभिभावक बड़े सुलझे हुए, समझदार और सच्चे लोग हैं। यज्ञ और व्रत का महत्व समझते हैं। खाली पेट दौड़ने से अधिक पुण्य लाभ होता है, यह वे अच्छी तरह से जानते हैं। इसीलिए अपने बच्चों को रात से ही खाने से वंचित कर दिये थे। धन्य हैं वे बच्चे, जो बेहोश होकर गिर गये थे। क्योंकि सबसे अधिक पुण्य लाभ वे ही अर्जित कर गये थे। पर मैं तो कहता हूँ, बदकिस्मत हैं वे बच्चें जो स्वर्गसुख प्राप्त करते-करते रह गये थे।’’
दूसरे मित्र ने कहा - ’’सच कहते हो भइया! मुझे तो क्रोध अब न उन माननीयों पर आ रहा है और न ही उन बच्चों के अभिभवकों पर। क्रोध तो मुझे अब उन नासमझ बच्चों पर आ रहा है जो बेहोश होकर फिर से होश में आ गये थे। अरे! मर ही जाते तो उनका क्या नुकसान होता? खुद स्वर्ग में तो जाते ही, माननीयों को भी अपार पुण्य लाभ करा जाते।’’
पहले मित्र ने कहा - ’’भइया! बच्चे हैं, नासमझ तो होंगे ही। उन पर क्रोध नहीं, दया करो। पर अभिभवकों और माननीयों को भी तो कुछ समझना चाहिए न?’’
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