शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

आलेख

’’आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है, फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है?’’

जब हिंदू ही नहीं रहेंगे तो हिंदुत्व कैसे बच पायेगा

दो दिन पहले की बात है। पान खाने के लिए मैं पान ठेले के सामने खड़ा था। इसी उद्देश्य से एक सज्जन और आ गये। तभी जोरों की बारिश होने लगी और आधे घंटे तक होती रही।
सज्जन पान ठेलेवाले से बतिया रहा था। (बाद में पता चला कि वह किसी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी का सक्रिय और प्रशिक्षित कार्यकर्ता था।) बातचीत का विषय उनकी पार्टी से ही संबंधित था। एक अच्छे समीक्षक की तरह उनकी बातें तार्किक और सधी हुई थी।
उनकी कुछ बातें मुझे बड़ी प्यारी लगी। वह बता रहा था कि उसके एक साथी का, कभी पार्टी के द्वारा ही आयोजित किसी धरना-प्रदर्शन जैसी क्रियाकलाप से संबंधित, कोई आपराधिक प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है। साथी लगातार पेशियों से तंगहाल और परेशान हो चुका है। पार्टी की ओर से उसे सहानुभूति के अलावा और कोई सहायता नहीं मिलती। उन्होंने कहा, देश के कानून के अनुसार - ’’सजा यदि हुई तो साथी को होगी, पार्टी को नहीं।’’
सही है, पार्टी के किसी भी क्रियाकलाप की सफलता उसके कार्यकताओं की सफलता होती है। इसका लाभ पार्टी को मिलता है। तो पार्टी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के दौरान दर्ज आपराधिक प्रकरणों में सजा भी पार्टी को ही मिलनी चाहिए।
पार्टी के उद्देश्यों की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा कि कभी-कभी लगता है कि - ’’पार्टी का उद्देश्य एकमात्र हिंदुत्व को बचाना है, हिंदुओं को बचाना नहीं। समझ में नहीं आता, जब हिंदू ही नहीं रहेंगे तो हिंदुत्व कैसे बचा रह पायेगा?’’
आगे उन्होंने स्वमी विवेकानंद के ऐतिहासिक शिकागो धर्म सभा और अमेरिका प्रवास से संबंधित बातों की चर्चा करते हुए कहा कि स्वामीजी द्वारा दिये गये व्याख्यानों के जरिये हिंदू धर्म, अध्यात्म और संस्कृति संबंधी अद्भुत ज्ञान के बारे में जानकर अमेरिकी तथा अन्य विद्वान और धर्म गुरू अचंभित थे। परंतु इससे भी अधिक अचंभित वे इस बात से थे कि ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार होने के बाद भी भारत गुलाम है। स्वामीजी से उन विद्वानों ने इसका कारण पूछा था - ’’आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है, फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है?’’
स्वामी विवेकानंद ने उन विद्वानों को इस प्रश्न का क्या और किस प्रकार जवाब दिया था, इसे भी उस सज्जन ने बताया। इस पर प्रकाश डालते हुए उसने पता नहीं, स्वामीजी के ही शब्दों को उद्धृत किया या उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत किया, पर उसके इस स्पष्टीकरण को समझना मेरे लिए कठिन था। उसने जो भी कहा वह मुझे काल्पनिक, अविश्वसनीय, अतार्किक और अधूरा लगा। (हो सकता है कि ऐसा मुझे अपनी अज्ञानता के कारण लगा हो। वेदों और शास्त्रों में संचित ज्ञान के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।)
मैं सोचता हूँ, विदेशी विद्वानों द्वारा स्वामी विवेकानंद से पूछा गया सवाल कि आपके पास ज्ञान का इतना विपुल और अद्भुत भंडार है फिर भी आपका भारत गुलाम क्यों है (अब गुलाम था। या अब भी है?), हर भारतीय से पूछा गया सवाल माना जाना चाहिए। इस सवाल का जवाब हम प्रत्येक भारतीय को ढूँढना चाहिए।
इस सवाल का जवाब ढूँढते समय मैं ’ज्ञान’ और ’ज्ञानी’ शब्द पर उलझ-अटक जाता हूँ। भारत न केवल ज्ञान से अपितु ज्ञानियों से भी भरा पड़ा है। भारत का ज्ञान मुझे अचंभित नहीं करता। भारत में, वेद, पुराण, उपनिषद्, शास्त्र, साहित्य आदि में धर्म, दर्शन, अध्यात्म, योग, आदि से संबंधित संचित विपुल ज्ञान भी मुझे अचंभित नहीं करते। इस पर एक भारतीय को जितना गर्व होना चाहिए, उतना मुझे भी होता है। मैं अचंभित होता हूँ इस बात पर कि प्रयत्न करके ढूँढने पर भी इस देश में कोई अज्ञानी नहीं मिलता, मिलते हैं तो केवल ज्ञानी ही। यहाँ सुननेवाला मुझे कोई नहीं मिलता, मिलते हैं तो केवल सुनानेवाले ही। यहाँ सुनाने के लिए सभी उतावले दिखते हैं; सुनने का धैर्य किसी में नहीं दिखता। अपवाद स्वरूप सुनने में यदि कोई तल्लीन दिख भी जाये तो इस अकाट्य सत्य पर संदेह मत करना। ध्यानस्थ और समाधिस्थ दिखना बगुले की चालाकी के सिवाय और कुछ नहीं होता। कभी-कभी मैं भी सुनने में तल्लीन दिख जाता होऊँगा। पर यह मेरी ’काग चेष्टा, बकुल ध्यानम’ वृत्ति के अलावा कुछ नहीं होती। मैं भी किसी की, कुछ भी सुनना नहीं चाहता, केवल सुनाना चाहता हूँ। एक दिन मेरी अंतरात्मा ने कहा - ’कुछ देर के लिए ही सही, खुद को अज्ञानी मान लेने में हर्ज ही क्या है। कभी-कभार किसी की सुन लेने में हर्ज ही क्या है? ज्ञानी के रूप में तो कभी अपनी पहचान बना नहीं पाये, अज्ञानी के रूप में ही अपनी पहचान बना ले। इस देश में कभी अज्ञानियों का सर्वेक्षण हुआ और सूची बनी तो एकमात्र और सबसें ऊपर अपना ही नाम होगा।’ पर मेरे मन ने तत्क्षण लताड़ते हुए मुझे चेताया - खबरदार! भूल से भी यह भूल मत करना।
भारत ज्ञानियों का देश है, यह देश ज्ञानियों से अटा पड़ा है और अज्ञानी नामक कोई भी जीव या कोई भी पदार्थ इस देश में कहीं नहीं पाया जाता, इस बात की जानकारी स्वामी विवेकानंद को भी थी। शायद इसीलिए उन्होंने शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में लगे अपने सन्यासियों से कहा था - इस देश को ज्ञान की नहीं, शिक्षा की जरूरत है। स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा इस देश की अशिक्षा है। इस देश की सभी समस्याओं का मूल अशि़क्षा ही है। लोगों के बीच जाकर आप उनके अंदर शिक्षा की प्यास जगाओ। आप शिक्षा के प्यासों के पास जाओं। कहावत है, कुआँ कभी प्यासे के पास नहीं आता, प्यासे को ही कुएँ के पास जाना पड़ता है। परंतु हमें इस कहावत को बदलना पड़ेगा। आप कुआँ हो, पर आपको प्यासों के पास जाना होगा। ये प्यासे आपको खेतों और खानों में काम करते हुए मिलेंगे। गाँवों में और सघन वनों में मिलेंगे। क्योंकि पेट की आग इन्हें आपके पास आने नहीं देगा। पेट की आग से मुक्त लोगों को उनके ज्ञान का अहम आपके पास आने नहीं देगा।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा स्वामी विवेकानंद से किया गया यह सवाल आज तक एक सवाल ही बना हुआ है। हम स्वतंत्र हो चुके है। यह स्वतंत्रता हमें हमारे ज्ञान ने नहीं दिलाया है। तब इस देश में कुछ शिक्षित और स्वतंत्र लोगों का आविर्भाव हुआ था। यह स्वतंत्रता उन्हीं की कोशिशों का सुपरिणाम है। उन दिव्यों की दिव्यता को मैं प्रणाम करता हूँ।
स्वतंत्रता की अनुभूति की जकड़ आज हमारी सबसे बड़ी परतंत्रता बन चुकी है। स्वतंत्रता शिक्षा की भूमि में पैदा होती और उसी में विकसित होती है। अशिक्षितों के लिए यह पशुवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रेम, अहिंसा और नैतिकता का संदेश देनेवाले इस देश में घृणा, हिंसा और अनैतिकता का ग्राफ दिनोंदिन बढ़ रहा है।
ओशो कहते हैं कि पढ़कर, सुनकर, देखकर, गंध और स्वर्श से हम बहुत कुछ सीखते हैं। इस तरह सीखी हुई और बाह्य माध्यमों से अर्जित सूचनाओं को ही ज्ञान मानकर हम बैठे हुए हैं। बाहर से अर्जित ये सूचनाएँ कूड़ा-कर्कट के अलावा और कुछ नहीं हैं। यह छद्म ज्ञान घृणा और अहंकार पैदा करता है। इस घृणा और अहंकार ने हमें जकड़ा हुआ है। ध्यान रखें, ज्ञान कोई बाह्य वस्तु नहीं है। ज्ञान आंतरिक अनुभूति है। इसका स्रोत हमारे अंदर होता है। इसका प्रवाह अंदर से बाहर की ओर होता है। इससे अहंकार नहीं, विनम्रता का जन्म होता है; घृणा नहीं, प्रेम का जन्म होता है।
प्रकाश को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। सूर्य अपने प्रकाश को बाहर से अर्जित नहीं करता। प्रकाश का उद्गम सूर्य के अंदर स्थित है। इसका फैलाव बाहर की ओर होता है जिससे सारा जग आलोकित होता है। सूर्य के समान दिव्य - महावीर, बुद्ध, कबीर और नानक के प्रकाश रूपी ज्ञान का स्रोत उनके अंदर से फूटा था और इस भूमि को अपनी करुणा और प्रेम से सींचा था।
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