सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

आलेख

विपरीत रति

’बया’, अप्रेल-जून 2017 में श्रीधरम की एक कहानी छपी है - दीवा बलै..। कहानी का एक अंश इस प्रकार है - यही तो इनका एरिया माने विशेषज्ञता का क्षेत्र है जहाँ वे किसी को भी चित्त कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने बिना देरी किये तीर छोड़ा - ’’बिहारी सतसई में वर्णित विपरीत रति का एक उदाहरण बताइए?’’
अभ्यर्थी कुछ देर चुप रही फिर बोली, ’’अभी याद नहीं आ रहा सर।’’
’’फिर आपने बिहारी पर शोध कैसे कर लिया?’’
’’सारी सर, घर जाकर पढ़ लूँगी।’’

’’कोई बात नहीं, मैं आपको बता ही देता हूँ।’’ और डाॅ. ढल शुरू हो गये -

बाजत कटि की किंकणी, मौन रहत मंजीर।

परयो जोर विपरीत रति, सूरत करत रंधीर।
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कहानी के इस अंश को पढ़कर मैं भी पहली बार ’विपरीत रति’ शब्द से परिचित हुआ। ढूढँने पर एक जगह इसका अर्थ यह मिला - ’’रति के प्रचलित सामान्य आसनों से भिन्न आसन का प्रयोग करते हुए किया गया रति विपरीत रति कहलाता है।’’ 
बिहारी सतसई में विपरीत रति के तीन उदाहरण मुझे और मिले जो इस प्रकार हैं - 

बिनती रति विपरीत की, करि परसि पिय पांइ।
हँसि, अनबोले ही दियौ, ऊतरु दियै बुझाइ।।464।।

मेरे बूझत बात तू, कत बहरावति बाल।
जग जानी विपरीत रति, लखि बिंदुली पियभाल।।526।।


राधा हरि, हरि राधिका, बनि आये संकेत।
दंपति रति विपरीत सुख, सहज सुरतहूँ लेत।।583।।
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कहानी के अंश में उद्धृत दोहे का क्रमांक 393 है। बिहारी के इन दोहों का अर्थ समझकर आप भी विपरीत रति का आनंद लीजिए।
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