गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

आलेख




अपने कद को शून्य होने से मैंने बचा लिया

पिछले कई महीनों से दराज खोलते हुए मुझे बड़ी दहशत होने लगी थी। मजबूरी में ही दराज खोलता था। पर आज मैंने निःशंक होकर दराज खोला। जिसने मुझे बेईमान, बहानेबाज, झूठा, लालची और बदनीयत कह-कहकर परेशान कर रखा था, आज वह वहाँ नहीं था।

वह स्टील का एक फीटवाला पैमाना था जो अक्सर विद्यार्थियों के बस्ते में, अथवा टेबल पर काम करनेवालों की टेबल पर रखा मिल जाता है। मैंने उसे एक बेजान वस्तु समझा लिया था। यह मेरी अब तक की सबसे बड़ी भूल थी। उसकी सजीवता को समझने मेें मैंने बड़ी देर कर दी थी। समझ पाया, तब तक मैं पूरी तरह नप चुका था।

कुछ महीने पहले की बात है। बोर्ड की एक कार्यशाला में हम लोग रायपुर गये थे। कार्यशाला समाप्त होने पर वापसी की तैयारी करते समय कार्यालय में ही मित्र का यह स्केल भूलवश मेरे बैग में चला गया था। यात्रा के दौरान रास्ते में इस भूल पर ध्यान गया। पर बैग पीछे की सीट पर रखा हुआ था। मित्र अपनी कार स्वयं चला रहा था। इन परिस्थितियों में उस समय उस स्केल को लौटाना संभव नहीं था। मित्र का घर पहले पड़ता है। पहले वहीं जाना होता है। यही सोचकर अपनी इस गलती पर ध्याान दिलाते हुए मैंने मित्र से कहा था - ’’घर पहुँचने पर ध्यान दिलाना, वरना यह स्केल बैग में ही रखा रह जायेगा और मेरे घर पहुँच जायेगा।’’

’’तो क्या हुआ? एक ही बात है।’’ कहकर मित्र ने बात टाल दी थी।

जिसे मैं मित्र संबोधित कर रहा हूँ, दरअसल वह मेरा अनुज ही है। और सच्चाई तो यह है कि कई अवसरों पर वह मुझे अपना अभिभावक और संरक्षक भी लगने लगता है। भीड़ भरी सड़कों पर चलते वक्त सुरक्षा की दृष्टि से अभिभावक साथ चल रहे बच्चे का हाथ अक्सर थाम लिया करते हैं। ये भी मेरे साथ ऐसा ही करते हैं। समय-समय पर सहृदयतापूर्वक पेन, डायरी आदि लेखन सामग्रियाँ उपहार में देते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति से उम्मीद करना कि घर पहुँचकर वह इस स्केल के लिए ध्यान दिलाये, वास्तव में मेरी बचकानी सोच थी।

और यही हुआ। स्केल लौटाने की बात पर, न मेरा ध्यान गया और न ही मित्र ने ध्यान दिलाया। और इस तरह वह मेरे घर में आ गया था। 

बैग से निकालकर इसे मैंने मेज पर रख दिया था ताकि लौटाने की बात मन में बराबर बनी रहे और समय और सुविधा देखकर उसे लौटाया जा सके। 

कुछ दिनों बाद मित्र से मिलने का संयोग बना। उस स्केल लौटाने की बात सुबह से ही मेरे मन में उछलकूद मचाये हुई थी। पर घर से निकलते वक्त यह बात फिर ध्यान से उतर गई। आजकल घर से निकलते वक्त मैं अक्सर कुछ न कुछ भूलने लगा हूँ। मोबाइल और फूलपैंट का जिप बंद करना भी इस भूलने में शामिल हो गया है। मिलने पर मैंने मित्र से कहा - ’’आपका स्केल फिर घर में रह गया।’’

’’भइया! आप भी हद करते हैं। रहने दीजिए न। लौटाने की क्या जरूरत है।’’ मित्र ने अधिकारपूर्वक कहा था।

घर लौटने पर सबसे पहले उस स्केल पर ही नजर पड़ी। मनचाही न मिलने पर बच्चे जिस प्रकार मुँह फुलाकर बैठे रहते हैं; वही हालत मुझे उसकी भी लगी। मैंने कहा - ’’साॅरी! भूल गया। क्या करूँ?’’

मुझे लगा, वह कह रहा हो - ’’आप लापरवाह हैं।’’

’’नहीं तो, सचमुच भूल गया था। खैर, अब तो इसकी जरूरत भी नहीं रही। तुम्हारे मालिक ने कहा है - ’लौटाने की क्या जरूरत है’।’’

’’एक भले आदमी से आप और किस तरह के जवाब की उम्मीद कर सकते हैं। इसके अलावा वह कह भी क्या सकता था?’’

मुझे उसकी इस बात में दम लगा। 

असुविधा होने पर बाद में मैंने उसे दराज में डाल दिया था।

दूसरी बार फिर इसे रखना भूल गया। 

इस बार मैंने ’झूठे’ और ’बहानेबाज’ की उपाधि पायी। उसने कहा - ’’आप झूठे और बहानेबाज हैं। झूठ बोलते हुए शर्म आनी चााहिए आपको।’’

’’शर्म क्यों आनी चााहिए। हाँ, गुस्सा जरूर आ रहा है। चुप करो। आगली बार नहीं भूलूँगा। ठीक है।’’

मेरे इस बहलावेवाले आश्वासन से वह चुप तो हो गया पर मेरे प्रति अविश्वास का भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट पढ़ा जा सकता था। और अविश्वास भाव से भरी हुई उसकी यह चुप्पी मुझे एक चुनौती के समान लग रही थी। चुनौतियाँ हमेशा कठिन होती हैं।

उसके शब्द बराबर मेरे कानों में गूँजते रहते। उसकी यह चुनौती मुझे चैबीसों घंटे सालती रहती, उकसाती रहती। उसका यह उकसावा मेरे लिए बेचैनी का कारण बन गया था। 

अगली बार पूर्व संध्या पर ही मैंने उसे बाइक की डिक्की में रख लिया ताकि घर से निकलते वक्त भूलने की संभावना न रहे। पर भूलने की आदत का क्या किया जाय। 

संध्या समय घर लौटने पर बाइक की डिक्की से अन्य सामान निकालते वक्त उस पर नजर पड़ी। भूलने की इस आदत पर मुझे स्वयं पर क्रोध आ रहा था। निकट भविष्य में मित्र से मिलने की कोई संभावना न देखकर मैंने एक बार फिर उसे मेज की दराज में उसकी जगह पर रख दिया था।

लेकिन इस दौरान उसने मेरी हालत खराब कर दी थी। जैसे वह चीख-चीखकर कह रहा हो - ’’बहाने बनाना बंद कीजिए। आपकी बदनीयती को मैं अच्छी तरह जानता हूँ - आप न सिर्फ लापरवाह, झूठे और बहानेबाज हैं, बदनीयत और बेईमान भी हैं।’’

उसकी इन बातों से मुझे बहुत क्रोध आया। मैंने उसे डपटते हुए कहा - ’’चुप कर। मुझे और अधिक गुस्सा न दिला। वरना ......।’’

’’वरना क्या? क्या कर लोगे आप मेरा?’’

ऐसा कहकर मानों जैसे उसने आग में घी डालने का काम किया हो। उसकी इस अकड़ और ढिठाई ने मुझे और उकसाया। मैंने कहा - ’’क्या कर सकता हूँ? बताऊँ? मैं तुझे तोड़कर फेक सकता हूँ। चूल्हे में जला सकता हूँ। और .... ।’’

’’और क्या? बोलिए, रुक क्यों गये?’’

’’ ......  और क्या? तुझे कुएँ में डाल सकता हूँ। नदी में बहा सकता हूँ। नष्ट कर सकता हूँ। समझे।’’

’’मैं जानता हूँ। चाहकर भी आप ऐसा कुछ नहीं कर सकते।’’

’’क्यों भला। कौन रोकेगा मुझे?’’

’’यह आप नहीं, आपका अहंकार बोल रहा है। शांत हो जाइए। आप मुझे नष्ट नहीं कर सकते। मुझे कोई नष्ट नहीं कर सकता।’’

’’अमर होकर पैदा हुए हो?’’ 

’’ऐसा ही मान लीजिए। मैं अमर ही हूँ। क्योंकि मेरे बिना दुनिया का कोई भी कार्य-व्यापार न तो अब तक चला है और न ही भविष्य में चल सकेगा। किसी न किसी रूप में इस दुनिया में मैं हमेशा मौजूद रहा हूँ। निराकार रूप में तो मैं तब भी था, जब यह दुनिया नहीं बनी थी। अब भी हूँ। विचार के रूप में मैं सदा आपके मन-मस्तिष्क में बना रहता हूँ। आपने ही समय-समय पर अपने विचार और अपनी कल्पना के बल पर मुझे लकड़ी, धातु और प्लास्टिक के माध्यम से विभिन्न आकार और रूप देने का काम किया है। परंतु यह आपकी आवश्यकता थी। लकड़ी, धातु और प्लास्टिक का रूप पाने से पहले मैं ’हाथ’, ’बीते’ और ’मुट्ठी’ के रूप में था। उसके भी पहले ’कदम’ के रूप में। वामन अवतार और कृष्ण-सुदामा की कथा भूल गये क्या। और यह भी समझ लीजिए, दुनिया जब नहीं रहेगी, आप नहीं रहेंगे, आपकी कल्पना नहीं रहेगी, आपके विचार नहीं रहेंगे, तब भी मैं रहूँगा, अपने उसी निराकार रूप में। मैं स्वयंभू हूँ।’’

उसके इस दलील में सच्चाई थी। ईश्वर की अवधारण पर मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर की अवधारण मुझे काल्पनिक लगता है। परंतु उस पैमाने की नित्यता को कल्पनिक मानने और उस पर संदेह करने का कोई कारण मुझे नहीं दिख रहा था। 

अब तक मैं स्वयं को ही बड़ा, बुद्धिमान और श्रेष्ठ समझता आ रहा था। परंतु उसके इस दलील ने मुझे पूरी तरह परास्त कर दिया था। 

अब समझ पाया हूँ। अब तक वह हर बार मुझे नापता रहा। हर बार वह मुझे बौना साबित करता रहा। और इस तरह हर बार मेरा कद घटता रहा। परंतु हर बार मैं अपने कद को बढ़ता हुआ ही महसूस करता रहा। अब समझ पाया हूँ, मेरा अहंकार, मेरी चतुराई और मेरा ढोंग ही है जिन्होंने आज तक मुझे ऐसा अहसास कराया है। वह हमेशा मेरे सामने मेरी सच्चाई को उद्घाटित करता रहा। उसके हर आरोप में कहीं न कहीं सच्चाई होती थी। परंतु मेरे अहंकार, मेरी चतुराई और मेरे ढोंग ने हमेशा उस पर परदा डालने का काम किया था। इन्हीं के चलते उसके द्वारा लगाये गये आरोपों की सत्यता को जाँचने के विचार को मैंने कभी महत्व नहीं दिया था। 

कही ऐसा न हो कि धीरे-धीरे मेरा कद शून्य हो जाय। मन में यह विचार आते ही मेरी आत्मा भय से काँपनीे लगी। इस भय से मुक्ति पाने के लिए यही बेहतर लगा कि उसके सामने मैं नतमस्तक हो जाऊँ। अपने कद को शून्य होने से बचा लूँ। इसके लिए उनकी बातों की सच्चाई को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास अब कोई और उपाय नहीं बचा था। 

और आज, अभी-अभी मैं उसे उसके मालिक को सौपकर लौटा हूँ।
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