रविवार, 29 अक्तूबर 2017

आलेख

शिवनाथ संहित्यधारा डोंगरगाँव द्वारा आयोजित कार्यक्रम, कबीरमठ नादिया में अध्यक्षता   एवं उलटबासी पर अध्यक्षीय वक्तव्य -  29.010.2017

कबीर की उलटबासियाँ


काव्य में उलटबासी कहने की परंपरा वैदिककाल से चली आ रही है। सर्वप्राचीन ग्रंथ ऋगवेद में इस प्रकार कहा गया है -

इह ब्रवीतु य ईमड.्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।
शीष्र्ण क्षीरं दुहते गावो अस्य वब्रिं वसाना उदकं पदापु।।(1-164-7)

(उस सुंदर व गतिशील पक्षी के भीतर निहित रूप को जो जानता हो, बताए। उसकी इन्द्रियाँ अपने शिरो भाग द्वारा क्षीर प्रदान करती हैं और अपने चरणों से जल पीया करती हैं।) 

इसी प्रकार -
क इमं वो नृव्य माचिकेत, वात्सोमातृ जनयति सुधाभि। (1-7-25, सूत्र 95)

(वन आदि में निहित अग्नि को कौन जानता है? पुत्र होकर भी अग्नि अपनी माताओं को हव्य द्वारा जन्म देते हैं।)

और यह परंपरा नाथ साहित्य में पुष्ट होकर पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) तक पूर्ण वेग से चलती रही। कबीर साहब ने कहा है -

तलि कर साखा, उपरि कर मूल, बहुत भांति जड़ लागै फूल।
कहे कबीर यह पद को बूझै, ताकू तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै।।

परंतु उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) में यह परंपरा थम-सी गई। ऐसे पद बहुत कम कहे गये। बिहारी ने कहा -  

तन्त्री नाद, कवित्तरस, सरस राग रतिरंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे, जे बूड़े सब अंग।।263।।

नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नितप्रति रहै, तऊ न प्यास बुझाय।।373।।

या अनुरागी चित्त की, गति समझै नहीं कोय।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।550।।

यद्यपि ये उलटी कही गई बातें हैं, परंतु रीतिकाल के इस तरह के पदों को शायद ही कोई उलटबासी कहता होगा। ये पद काव्य में कलात्मकता लाने के लिए लिखे गये हैं। उलटबासी तो वे पद हैं जिनमें अध्यात्म की भावना निहित हों। 

और अब आधुनिक काल में यह परंपरा पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है। परंतु इस तरह के पदों को उलटबासी कहने की परंपरा या विमर्श को जरूर आधुनिककाल की देन कहा जा सकता है। उलटबासी शब्द की व्युत्पित्ति, वर्तनी और अर्थ के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतांतर है। जैसे - 
1. उलटबाँसी = उल्टा अंश या उल्टी बातें।
2. उलटबाँ-सी, उलटवाँ-सी या उलटवा-सी = उलटी हुई सी।
3. उलटवाची = उलटी वाणी। उलटी कही गई सी।
4. उलटवासी = उलटा निवास करनेवाला। अर्थात् लौकिक कथनों में अलौकिक भाव का वास।
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परंतु इन उलझनों में मैं नहीं पड़ना चाहूँगा। और आमतौर पर कबीर साहब के ’तलि कर साखा, उपरि कर मूल, बहुत भांति जड़ लागै फूल। कहे कबीर यह पद को बूझै, ताकू तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै।।’ जैसे उन पदों में भी जिसे उलटबासी के रूप में जनसामान्य में मान्यता मिली हुई है। क्योंकि मेरा मानना है कि कबीर साहब तो सब प्रकार से उलटे ही हैं। उनका देखना भी उलटा और उलटबासी है और उनका कहना भी। एक प्रसिद्ध पद है - 

’सब कहते कागद की लेखी। 
मैं कहता आँखन की देखी।।

कबीर साहब पारंपरिक पोथियों के ज्ञाता नहीं थे, परंतु जीवन रूपी पोथी को उन्होंने जितना पढ़ा था, उतना कोई नहीं। दुनिया के पास केवल लौकिक आँखें होती हैं इसीलिए वह कागद की लेखी की बात करता है। कबीर साहब के पास दैहिक आँखों के अलावा ज्ञान की आँखें भी हैं इसीलिए वे कागद की लेखी की नहीं, आँखन देखी बातें, ज्ञान की बातें कहते हैं। और कबीर साहब जब ऐसी बातें कहते हैं तो उनकी बातें हमें उलटी लगती हैं। वे कहते हैं -

’’पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा कि जीव।’’

दुनिया की नजरों में शब्द बड़े हैं। पोथियाँ बड़ी  हैं। और पोथियों के आगे जीव का कोई मोल नहीं है। कबीर साहब के लिए सबसे बड़ा जीव है। कबीर साहब की यह दृष्टि हमें उल्टी लगती है। ध्यान दीजिए - कबीर साहब के लिए पंडित कोई वर्ण या जाति नहीं है। पोथियों पर विश्वास करनेवाला हर पोथीजीवी व्यक्ति पंडित है। पंडित शब्दों के जादूगर होते हैं। उनके शब्द बड़े सम्मोहक होते हैं। भााषा विज्ञानियों ने कहा है - शब्द परंपरा से मिलकर शोषण भी करती है। शब्द शोषण भी करता है और शासन भी करता है। एक कहावत प्रचलित है - मन हरे वो धन हरे। कोई ठग जब किसी को ठगता है तो पहले उसे अपने शब्दों के जाल में उलझाता है, अपने शब्दों से उसे बाँधता है, उसका मन पहले हरता है, उसे सम्मोहित करता है। आप जानते हैं कि सम्मोहित व्यक्ति वही करता है जैसा सम्मोहनकर्ता चाहता है। सदियों से हम सब पंडितों के शब्दों के सम्मोहन के प्रभाव में हैं। उनकी झूठी बातें हमें सच्ची लगती हैं। वे कहते हैं - पोथियों की रचना ईश्वर ने की है। उस पर ईश्वर के हस्ताक्षर हैं। कितना बड़ा झूठ है। भाइयों! अगर मैं यह कहूँ कि भाषा की रचना ईश्वर ने नहीं किया है, यह समाज की रचना है। पोथियों की रचना ईश्वर ने नहीं किया है, यह समाज के पंडितों की रचना है जिसे पण्डितों ने हमें ठगने के लिए बनाया है, तो आप मुझे पागल कहेंगे। मैं यदि किसी किसान और मजदूर से कहूँ कि पोथियों का ज्ञान थोथा है क्योंकि वह अनुत्पादक है। पोथियों का ज्ञान जीवन का आधार अन्न का एक दाना पैदा नहीं कर सकता। और जो ज्ञान किसी को जीवन नहीं दे सकता वह किसी को मोक्ष क्या देगा। आपका ज्ञान उत्पादक है, वह अन्न पैदा करता है, जीवन देता, इसलिए आपका ज्ञान मोक्ष देनेवाला है। आपका ज्ञान पोथियाँ के ज्ञान से श्रेष्ठ है, तो संभव है वे मुझे मार डालेंगे। कहेंगे - हमारे पोथियों की बुराई करता है, पापी है। इतिहास में बहुत लोग इसी तरह से मारे गये हैं। कबीर साहब यही कहते हैं। उन्होंने कहा है - 

’’शब्द-शब्द सब ही कहे, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि-निरखि कर लेह।।’’ 

ईश्वर तो शब्दों से परे है। शब्दों से उसे कैसे पाओगे? ईश्वर अनुभव करने का विषय है। ईश्वर को ईश्वर की बनाई हुई भाषा और उसी के बनाये धर्म से पाया जा सकता है। ईश्वर की बनाई हुई भाषा प्रेम है। ईश्वर का बनाया हुआ धर्म करुणा है। ईश्वर को केवल इसी से पाया जा सकता है। कबीर साहब जब ऐसा कहते हैं तो वे हमें उल्टे लगते हैं। क्योंकि हम सब तो शब्दों को, पोथियों को और उसी की भाषा को, उसी में वर्णित शब्दजालों को धर्म मानकर बैठे हुए हैं। और ईश्वर को शब्दों के द्वारा, पोथियों के द्वारा पाना चाहते है। यह धोखा है। यह पंडितों के सम्मोहन का प्रभाव है।

कबीर साहब का रास्ता उलटा है। उलटे रास्ते पर चलनेवाले की चाल और दिशा भी उलटी ही होगी। इसीलिए कबीर साहब की हर बात हमें उलटी लगती है। उनके पद हमें उलटबासी लगते हैं। वे कहते हैं -

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।।

पोथी पढ़कर, शब्दों को रटकर, कोई पंडित नहीं हो सकता। जब ईश्वर को पाने के लिए मात्र ढाई आखर ही पर्याप्त हैं, तो फिर पोथी को सिर पर लादने से क्या फायदा? पोथी की क्या जरूरत है। कबीर के लिए केवल ढाई आखर ही महत्व पूर्ण हैं, बाकी सब बेकार हैं। परंतु इस अनमोल ढाई आखरों का हमारे लिए कोई मोल नहीं है। हमारे लिए दुनिया में जो सर्वाधिक अनमोल चीज है वह है, पोथी। कबीर साहब पोथियों को नकारते हैं तो वे हमें उलटे लगते हैं। 

हमारी प्रवृत्ति है - कठिन चीजें, जटिल चीजें, सजावटी चीजें, चमकीली चीजें, रोमांच पैदा करनेवाली थ्रिलर चीजें, हमें लुभाती हैं। सीधी, सरल, सुगम और सादी चीजें हमें पसंद नहीं आती। कबीर साहब को सीधी, सरल, सुगम और सादी चीजें पसंद थी। वे हमें उलटे लगते हैं। कबीर के अनुसार पत्थर (मूर्तियाँ अथवा आकृतियाँ) और उनकी पूजा तथा सारे धर्म बोझ हैं। वे उसे त्यागते हैं और हमें भी त्यागने के लिए कहते हैं तो हमें उनकी बातें उलटी लगती हैं। और यही चीजें हम जीवनभर सिर पर लादकर चलते हैं। वे कहते हैं -

हम भी पाहन पूजते होते, हिन्दू बनके रोज।
सद्गुरू की कृपा भयी, डारया सिर के बोझ।।

हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए घर बनाते हैं। कबीर साहब बने-बनाये घर को जलाने की बात करते हैं। क्योंकि वे हमें जहाँ ले जाना चाहते हैं, वहाँ ऐसे घरों को साथ लेकर नहीं जाया जा सकता। वहाँ किसी भी प्रकार का बोझ लेकर नहीं जाया जा सकता। कबीर साहब जब ऐसे सभी बोझौं को त्यगने के लिए कहते हैं तो उनकी बातें हमें उल्टी लगती हैं। 

कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारै अपना, चलै हमारे साथ।।

लोग मोक्ष की चाह में काशी जाते है पर कबीर साहब काशी छोड़कर मगहर जाते हैं। उनका रास्ता भी उलटा है और उनकी चाल भी उलटी है। लोग पोथियों में लिखी बातें कहते हैं, पर कबीर साहब आँखों देखी बातें कहते हैं। उनका देखना भी उलटा और कहना भी उलटा। लोग अपने आराम के लिए घर बनाते हैं, कबीर अपना बना-बनाया घर जला़ने के लिए कहते हैं। उनकी दृष्टि भी उलटी और उनके विचार भी उल्टे। हमें कबीर साहब की हर चीज उल्टी लगती है। और इसीलिए उनकी कही हर बात को हम उलटबासी कहते हैं।

मनुष्य की पकृति उलटी होती है। जिन चीजों को त्यागने के लिए कहा जाता है उन्हीं चीजों को हम और अधिक मजबूती से पकड़कर बैठ जाते हैं। छाप-तिलक, जप-माला, कर्मकाण्ड, पूजा पद्धति सबको कबीर साहब त्यागने की बातें करते हैं। इन्हें हम और मजबूती से पकड़कर बैठ जाते हैं। इसीलिए दुनिया के सारे पण्डित हमें ठगे जा रहे हैं।
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कबीर साहब की वाणियों को, उनके पदों को जिस किसी ने भी पहली बार उलटबासी कहा होगा, मुझे नहीं लगता कि वह ज्ञानी रहा होगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा उसने विचार और विवेकपूर्वक कहा होगा। परंतु अज्ञान में ही सही, अविवेक में ही सही, मैं सोचता हूँ, कबीर साहब के बारे में उस च्यक्ति ने परम सत्य को कह दिया है। लोग कहते हैं कि कबीर साहब को आज तक सही-सही कोई समझ नहीं पाया है। कबीर साहब का सही मूल्यांकन आज तक किसी ने नहीं किया है। मैं उल्टी बातें कहता हू, भारत के इतिहास में आज तक अगर किसी का सही मूल्यांकन हुआ है, तो केवल कबीर साहब का हुआ, है। किसी और का नहीं। जिस किसी ने भी कबीर साहब की वाणियों को उलटबासी कहा है उसने कबीर साहब के बारे में एकदम सही बात कहा दी है, सटीक और पूरी तरह संतुलित, न रत्तीभर कम और न रत्तीभर ज्यादा। इतनी सही बात, सटीक बात और पूरी संतुलित बात केवल अज्ञानी व्यक्ति ही कह सकता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि कबीर साहब की वाणियों को, उनके पदों को जिस किसी ने भी उलटबासी कहा वह अज्ञानी ही रहा होगा। ज्ञानियों ने तो कबीर को नकार दिया है। ज्ञानी व्यक्ति ऐसा कह ही नही सकता। कैसे? 

समझने की बातें हैं। ’उलटबासी’ कहनेवाला व्यक्ति दुनिया में आज तक केवल एक ही हुआ है - कबीर। परंतु ’बासी’ कहनेवाले पता नहीं कितने लोग हो गये होंगे। कबीर साहब उलटबासी थे और हम लोग हैं केवल ’बासी’। ’बासी’ का अर्थ आप सब जानते हैं। थोड़ा दिमाग पर जोर दीजिए तो ’उलटबासी’ का भी अर्थ समझ में आ जायेगा। उलटबासी का अर्थ क्या होता है? उलटबासी का अर्थ समझना हो तो पहले बासी शब्द को समझ लेना चाहिए। क्या अर्थ होता है बासी का? बासी वह है जो ताजा न हो। जो उपयोग करने लयक न हो और धोखा से भी यदि उसका उपयोग हो जाये तो उपयोग करनेवाला बीमार हो जाये। वह बासी है। समझ गये न? बासी मतलब मृत। उलटबासी का अर्थ अब आपको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उलटबासी का मतलब हुआ बासी का उलट, ताजा, उपयोगी, स्वस्थ्यवर्धक। बासी मतलब हुआ अमृत। इस तरह हम सब मृत और बासी। अमृत और ताजा केवल एक - कबीर साहब। 

दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति हुआ है जिसे अमृत कहा जा सकता है, कयोंकि वे सीधे थे। हर स्थिति में सीधे थे। हम सब मृत हैं, क्योंकि हम लोग हर स्थिति में केवल उल्टे लोग हैं। ध्यान दीजिए, मृत शब्द का विरुद्धार्थी शब्द जीवित होता है। परंतु कबीर साहब के लिए मृत शब्द के विरुद्धार्थी शब्द के रूप में मैंने अमृत शब्द का प्रयोग किया है, जीवित का नहीं। क्यों? क्योंकि जिसने जन्म ही नहीं लिया हो वह मरेगा कैसे? जहाँ जन्म ही नहीं हो, वहाँ मृत्यु कैसे? जन्म-मरण से जो परे हो उसे आप और क्या कह सकते हैं। अमृत के अलावा कोई दूसरा शब्द है आपके पास है उसके लिए। इसीलिए मैंने कबीर साहब को अमृत कहा है। मृत का उलटा अमृत। बासी याने मृत और उसका उलटा उलटबसी याने अमृत। उलटबासी का एक और अर्थ हो सकता है - उलटे लोक का बासी। हम लोग धरती के बासी हैं। धरती का उलटा स्वर्ग। कबीर साहब उलटे लोक के बासी थे, स्वर्ग के बासी थे। 

कबीर साहब का एक और अमृत पद है। अंत में इस दोहे को भी समझ लेते हैं। कबीर साहब कहते हैं - 
कबिरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय।
आप ठगे सुख होत हैं, और ठगे दुख होय।।

आप भले ही ठगाते रहो परंतु किसी को ठगो मत। ठगे जाने पर सुख मिलता है, ठगने से दुख। बड़ी उल्टी बातें लगती है। ठगा हुआ आदमी सदा सुखी रहेगा है। ठगनेवाला सदा दुखी रहेगा।  

एक निरक्षर व्यक्ति ने इसका भेद बताया - जो पाप करेगा, वह तो भुगतेगा ही। जैसी बरनी, वैसी भरनी। हमें क्या। किसी के ठगने से कोई गरीब तो नहीं हो जाता।

एक पढ़े-लिखे यक्ति ने कहा - ठग कब तक बचा रहेगा। कभी न कभी कानून की पकड़ में तो आयेगा ही। फिर तो जेल में उसे चक्की ही पिसना पड़ेगा।

एक समझदार व्यक्ति ने कहा - कबीर साहब तो फक्कड़ आदमी ठहरे। उसके पास तो संपत्ति के नाम पर केवल एक ही चीज थी - ज्ञान। वह तो चाहता ही था कि कोई आकर उसके ज्ञान को ठग ले। ज्ञान तो बाँटने से ही बढ़ता है। परंतु कोई ठग ज्ञान नहीं चाहता, वह तो धन चाहता है।

ओशो जैसे एक आदमी ने कहा - कबीर के लिए तो पूरी दुनिया ईश्वरमय थी। उसे तो हर प्राणी में ईश्वर के ही दर्शन होते थे। वे तो बाजार में चदरिया बेचने का काम करते थे। ग्राहक उसे ईश्वर ही दिखते थे। और ठगनेवाला जब ईश्वर हो तो ठगानेवाला खुश क्यों नहीं होगा।

धन्यवाद।

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