बंठू मेरा मानसिक नुकसान करता है
- ग. मा. मुक्तिबोध
(सुप्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी लोककलामंच ’चंदैनी गोंदा’ के संचालक-संगीतकार-निर्देशक, छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के जीवित किंवदंती, संगीत एवं नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित, श्री खुमान साव जिन्हें लोग सम्मानपूर्वक खुमान सर के नाम से संबोधित करते हैं, ने 05 सितंबर 2017 को अपना 88 वाँ जन्मदिन मनाया। श्री खुमान साव ने गजानन माधव मुक्तिबोध से संबंधित यह संस्मरण मुझे इसी दिन सुनाया था। यह लेख उन्हें ही सादर समर्पित है।)
बच्चा अपने पिताजी को बुलाने चला गया।
कालखण्ड समाप्त होने पर खुमान साव स्टाफ रूम की ओर आ रहे थे। एक अन्य शिक्षक कक्षा की ओर जा रहे थे। बरामदे में दानों आमने-सामने हुए। उस शिक्षक ने खुमान साव से कहा - ’’जानते हो, आज आपने किसे बुलवाया है?’’
’’नहीं तो। कौन हैं वे?’’
’’अरे, कैसे हैं आप? एक आप ही उन्हें नहीं जानते हैं। वरना राजनांदगाँव से दिल्ली तक, सारे लोग उसे जानते हैं। जाइए। स्टाफ रूम में आपकी प्रतीक्षा हो रही है।’’
असमंजस और उलझन के साथ खुमान साव ने जैसे ही स्टाफ रूम में कदम रखा, वह अभिभावक बहुत शालीनता और विनम्रता पूर्वक अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़कर अपनी जगह पर खड़ा हो गया। अभिवादन के पश्चात् उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा - ’’मैं गजानन माधव मुक्तिबोध हूँ और आपके इस अपराधी शिष्य, दिवाकर मुक्तिबोध का पिता हूँ। बच्चे के अपराध में मैं भी बराबर का सहभागी हूँ। इस अपराध के लिए मैं शर्मिंदा हूँ। आपके इस अनुशासन का मैं सम्मान करता हूँ और सराहना भी। बच्चे की ओर से और अपनी ओर से भी मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। और वचन देता हूँ कि आज के बाद यह गलती फिर नहीं होगी।’’
इस महान कवि की सरलता और शालीनता के आगे खुमान साव निरुत्तर हो गये। दोनों विभूतियों ने एक-दूसरे को परखा। कुछ देर चर्चा करने के बाद वे चले गये। जाते-जाते खुमान साव को अपने घर आने का आग्रह पूर्वक निमंत्रण देेना वे नहीं भूले।
इस तरह दोनों में परिचय हुआ। मेल-मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ।
एक दिन खुमान साव मुक्तिबोध से मिलने गये। उन्होंने मुक्तिबोध को काफी परेशान और विचलित पाया। इसका कारण पूछने पर मुक्तिबोध ने कहा - ’’मुझे नहीं पता था, राजनांदगाँव में ऐसे लोग भी मिलेंगे।’’
राजनांदगाँव को संस्कारधानी कहा जाता है। राजनांदगाँव की वजह से मुक्तिबोध का इस तरह दुखी होना राजनांदगाँव के संस्कारों पर एक आघात था। खुमान साव समझ नहीं पाये। उन्होंने पूछा - ’’क्या किसी ने आपका अपमान किया है? किसी ने आपको नुकसान पहुँचाया है?’’
मुक्तिबोध ने कहा - ’’हाँ! बंठू मुझे मानसिक नुकसान पहुँचाता है। बंठू को जानते हैं न आप?’’
फिर उसने अपार मानसिक दुख पहुँचानेवाली उस घटना के बारे में बताया। घटना यह थी -
उस समय दुर्गाचौक से दिग्विजय काॅलेज की ओर जानेवाली सड़क पर चाय-नाश्ते की एक गुमटी हुआ करती थी। मुक्तिबोध अपने साथी प्राध्यापकों के साथ चाय-नाश्ते के लिए अक्सर यहाँ आया करते थे। आर्थिक तंगी ने कभी मुक्तिबोध का साथ नहीं छोड़ा। चाय-नाश्ते के बिल की रकम अदा करने लायक उनके पास अक्सर पैसे नहीं होते थे। परंतु इसका वे बराबर हिसाब रखते थे और वेतन मिलने पर एकमुश्त अदा कर दिया करते थे। उस दिन वेतन मिलने पर वे बंठू को ऐसा ही रकम अदा करके आये थे। मुक्तिबोध के हिसाब से उधार की रकम 20 रूपये की थी।
पैसा लेने के पहले बंठू ने कहा - ’’गुरूदेव! मैं भी अपनी डायरी चेक कर लेता हूँ।’’ कुछ देर डायरी के पन्ने पलटने के बाद बंठू ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा - ’’गुरूदेव! मात्र साढ़े सात रूपये।’’
और फिर बीस रूपये और साढ़े सात रूपये के मुद्दे पर दोनों में अच्छी-खासी बहस हो गई।
उस दिन इसी घटना ने मुक्तिबोध को अपार मानसिक क्षति पहुँचायी थी। वे सोचते होंगे - दुनिया में बेईमानों की कमी नहीं है। लोग अपने फायदे के लिए बेईमानी करते हैं। परंतु यह कैसा बेईमान है, जिसने अपने नुकसान के लिए बेईमानी किया है?
कुछ भी हो, एक चायवाले की डायरी ने ’एक साहित्यिक की डायरी’ को छोटा जरूर बना दिया था।
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