बुधवार, 31 दिसंबर 2014

कविता

मंगलमय हो

जग-जीवन सारा मंगलमय हो,
यशमय हो, लाभमय हो,
भावरस से सिक्त-सिक्त हो-
    जीवन सारा रसमय हो।

भाव शेष पर, अभाव निःशेष हो,
अक्ष-पक्ष-लक्ष्य विशेष हो,
जन-परिजन, मीत-सुमीत से-
सहज,साकार, सुविचार निवेश हो।
    हर पल, हर क्षण हर्षमय हो।

ज्ञान-ज्योति का अवतरण हो,
अज्ञान-अंध का अपहरण हो,
निज का जग से भावकरण हो,
स्व, सहकार में विलय-विलय हो।
    लक्ष्य-क्षेत्र में विजय-विजय हो।
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रविवार, 16 नवंबर 2014

साक्षात्कार

साक्षात्कार

(हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लेखनी चलाने वाले कुबेर जी की अब तक पाँच पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। कुबेर जी एक प्रयोगधर्मी कथाकार हैं। इनकी भाषा और शैली पाठकों को बांधकर रखने में पूर्णतः सक्षम है। इनकी कहानियों में  कथ्य की विविधता इनकी प्रयोगधर्मिता के प्रमाण हैं। समीक्षकों ने इन्हें ’संभावनाओं के कवि’ और ’संभावनाओं के साहित्यकार’ कहा है। प्रस्तुत साक्षात्कार में भी इन्होंने कुछ मौलिक प्रश्न उठाए हैं। यह साक्षातकार संस्कारधानी, राजनांदगाँव के उभरते हुए समीक्षक श्री यशवंत द्वारा लिया गया है - संपादक)   

सौजन्य - www.vicharvithi.com


प्रश्न 1. अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि पर कुछ प्रकाश डालेंगे?
उत्तर - मेरा जन्म पाँच भाइयों के संयुक्त कृषक-परिवार में हुआ। परिवार बहुत अधिक संपन्न नहीं था फिर भी उस समय जो सबसे अच्छा हो सकता था वैसा हमने खाया और पहना। हमने न तो कभी सूखी रोटी खायी और न ही कभी फटे वस्त्र पहने। बचपन के जमाने में दो या तीन बार अनावृष्टि की वजह से भयानक दुर्भिक्ष पड़े थे। लोग दाने-दाने को मोहताज हुए थे। हमारे परिवार ने जरूरतमंदों की मदद की थी। तब के बचेखुचे लोग आज भी इस परिवार की गौरवगाथा सुनाते हैं। पर अब सिर्फ अतीत बचा है।
हमारे पिताजी पाँच भाइयों में तीसरे नंबर के थे। सबसे बड़े पिता जी और दोनों चाचा प्रायमरी तक पढ़े थे। बड़े पिता जी गाँव में सरकार की ओर से लगान वसूल करने का काम करते थे। मेरे पिताजी पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे। पाँच भाइयों के परिवार में पहिली संतान मैं था, इसीलिए परिवार में; और पड़ोसियों में भी मैं सबका दुलारा था। मेरा लालन-पालन बड़े पिताजी और बड़ी माँ जिसे परिवार में हम सब भाई-बहन ’बड़की दाई’ बुलाया करते थे, ने किया। वे ही मेरे असली माता-पिता थे। आज मैं जहाँ हूँ, जहाँ बैठा हूँ, वह सब उन्हीं का दिया हुआ है। जन्म देने वाले माता-पिता को तो मैंने नौ-दस साल की अवस्था में  पहचाना। इसका परिणाम हुआ कि; संयुक्त परिवार में, एक साथ रहते हुए भी, इस दौरान उनसे जो अजनबीपन पैदा हुआ था, वह अंत तक बना रहा।
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प्रश्न 2. साहित्य की ओर आप कैसे प्रवृत्त हुए?
उत्तर - जब मैं छोटा था, मेरे पिताजी का फुफेरा भाई महीने में दो-तीन बार हमारे घर जरूर आया करते थे। जरूरत पड़ने पर उन्हे संदेश भेजकर बुला लिया जाता था। वे वैद्य थे और हमारे परिवार की चिकित्सा का दायित्व वे ही निभाते थे। वे हमेशा कहा करते थे कि कुबेर को डाॅक्टर बनाना है। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने जीव विज्ञान विषय का चयन किया था। परन्तु महाविद्यालय तक आते-आते हमारे परिवार का बिखराव शुरू हो चुका था। परिस्थितियाँ इतनी खराब हुई कि मैं पी. एम. टी. की परीक्षा नहीं दे पाया और आगे चलकर एम. एस-सी. भी मुझे बीच में ही छोड़ना पड़ गया। इसका मलाल मुझे आज भी है। परन्तु हिन्दी विषय में जब मैं साकेत और कामायनी जैसी कृतियों के अंशों को पढ़ता था; हमारे महान् साहित्यकारों की जीवनी पढ़ता था तो मेरे मन में भी उन्हीं के जैसा बनने की इच्छा होती थी, यही इच्छा अब मैं पूरी कर रहा हूँ।
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प्रश्न 3. आपने विज्ञान में स्नातक किया और साहित्य में स्नातकोत्तर; दोनों भिन्न विषय हैं। आप दोनों में सामंजस्य कैसे बिठा पाये?

उत्तर - यदि मैं केवल समकालीन साहित्य तक ही सीमित रहूँ, जिससे कि मेरा नाता है, तो मैं कहूँगा; दोनों विषयों में अंतर तो है पर विरोध कहीं भी नहीं है, सहमति ही सहमति है, फिर सामंजस्य बिठाने की बात कहाँ? धर्म और साहित्य, दोनों को ही समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि चाहिए। कुछ ही समय पहले तक, बल्कि कहूँ तो बहुत कुछ अभी तक हमारे यहाँ साहित्य धर्म से ही जुड़ा हुआ है। दुनिया के प्राचीनतम् साहित्य वेदों में विज्ञान बहुत है। परन्तु आज तक यह धार्मिकों की बपौती बनी हुई है इसीलिए यहाँ पर मैंने धर्म को लाया। वैदिक गणित के बारे में अब हम जानते हैं क्योंकि पाठ्यक्रमों में अब यह आया है। साहित्य में भी हमने धार्मिक तत्वों को प्रतिष्ठित किया। साहित्य से विज्ञान को हमने हमेशा दूर रखा इसीलिए इसके अंदर अंध आस्था की जड़ें इतनी मजबूत हुई। विज्ञान हमें अंध आस्था से बचाता है क्योंकि चीजों को स्वीकारने से पहले यह उसकी सत्यता की पहचान करता है। विज्ञान में अविश्वास भी है और विश्वास भी। दोनों के बीच में तर्क और अन्वेषण है जो हमें प्रगतिगामी बनाता है। यहाँ मस्तिष्क है तो हृदय भी है जिसके समन्वय से दुनिया सुंदर बनती है। आप मेरा विरोध करेंगे कि विज्ञान में हृदय कहाँ? पर यह गलत है। दुनिया को सबसे अधिक प्रेम विज्ञान ने ही किया है। दुनिया को सबसे अधिक प्रेम विज्ञान ने ही दिया है और इसीलिए यहाँ न तो किसी प्रकार का बंधन है और न ही किसी प्रकार का मोक्ष है। जहाँ बंधन ही न हो, वहाँ मोक्ष कैसी? और यही प्रवृत्ति समकालीन साहित्य की भी है। इसीलिए मैं कहता हूँ, साहित्य और विज्ञान में विरोध कहीं भी नहीं है। धर्म में केवल विश्वास है, केवल हृदय है जो समानांतर तौर पर, जाने-अनजाने एक पक्षीय विश्व की रचना करता चला जाता है। और यही बातें मनुष्य को प्रतिगामी बनाती हैं। ध्यान रहे, प्रकृति द्विपक्षीय है जिसका एक पक्ष सृजन का है तो दूसरा पक्ष विध्वंश का। सृजन और विध्वंश के बीच का विस्तार ही जीवन है। बहुत पहले यह बात हमें श्रीकृष्ण ने बताई थी परन्तु इस वैज्ञानिक सत्य के ऊपर हमने धार्मिक आस्था का मोटा आवरण चढ़ाकर इसे आचरण में ढलने नहीं दिया और इसे केवल पूजा की वस्तु में बदल कर रख दिया। यही बात कबीर ने कही, परन्तु कबीर को आज तक किसी ने न तो कवि माना और न ही संत; फिर उनकी बातों को महत्व क्यों मिलना था? धर्म पहले तरह-तरह के काल्पनिक भय पैदा करके बंधनों का सृजन करता है और फिर स्वंय ही, अपने ही बनाये बंधनों से मोक्ष की बात करता है। यहीं से अड़चनें और बाधाएँ पैदा होना शुरू हो जाती हैं, जो शोषण और शोषकों के संसार का सृजन करती है। विश्व में जो भी, जिस रूप में भी है, चाहे जड़ हो या चेतन, चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल, चाहे दृश्य हो या अदृश्य सब एक व्यवस्था के अंतर्गत हैं। एक ही व्यवस्था के अंतर्गत सभी मर्यादित रूप से अपनी-अपनी जगह पर क्रियाशील हैं। प्रकृति की यही व्यवस्था विज्ञान है। विश्व में जो भी है, सब उसी के अंग हैं। सभी उस व्यवस्था का पालन करते हैं। परन्तु मनुष्य ने इस व्यवस्था का अतिक्रमण किया है। यह प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है। लेकिन हमें समझ लेना चाहिए कि प्रकृति की शक्तियाँ अपराजेय है। प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह का नुकसान हमें ही होना है। आज लोग ’सेव द अर्थ’ का नारा देने लगे हैं। प्रकृति से खिलवाड़ बंद हो, प्रकृति के विरुद्ध चलना बंद करें, इसके पीछे शायद यही भावना हो। परन्तु इस नारे में छिपी हुई दो बातें - पहला हमारा दंभ और दूसरा हमारी घबराहट, बहुत स्पष्टता के साथ उभरकर कर आती है। हमें माल्थस की बातें याद करनी चाहिये।
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 प्रश्न 4. हिन्दी साहित्य के विकास को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे? 
उत्तर - हिन्दी साहित्य के काल विभाजन में मैं राहुल सांकृत्यायन के मतों का पक्षधर हूँ। राहुल सांकृत्यायन ने जो हमें दिया है, जितना दिया है, उसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है। हिन्दी साहित्य में उनके जैसा विराट व्यक्तित्व अभी तक नहीं हुआ है। उन्होंने पालि और प्राकृत के कई विलुप्त-दुर्लभ साहित्य को ढूँढ कर हमें दिया है। अपभ्रंश के स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे महान् कवियों का पता लगाया है। उनके अनुसार अपभ्रंश भाषा जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्राकृताभास कहा है, सातवीं शताब्दि तक प्रचलित थी और हिन्दी का विकास इसी भाषा से हुआ है। सिद्धों की भाषा अपभ्रंश ही थी। राहुल ने स्वयंभू रचित ’रामायण’ की भाषा अपभ्रंश और इसकी रचना काल 1464 ई. माना है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल अपभ्रंश काल को ’सिद्ध सामंत काल’ कहा है और इसका प्रारंभ उन्होंने सातवीं शताब्दि माना है। हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल को ’सिद्ध सामंत काल’ नाम देने के पीछे राहुल के पास पर्याप्त कारण और तर्क हैं। अपभ्रंश के कवि सिद्ध होते थे। समाज में राजाओं और सामंतों का दबदबा था। सामंतों की संख्या अधिक थी। वे अपने स्वार्थों के लिए लड़ाइयाँ लड़ते थे। शेष समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। वे अत्यंत क्रूरता और निर्ममतापूर्वक जनता से कर वसूलते थे परन्तु जनता के दुख-दर्द से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता था। रासो काव्यों में अतिरंजनापूर्ण युद्ध वर्णनों का ही बाहुल्य है।
भक्तिकाल में, सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से हो चाहे काव्य के तत्वों की दृष्टि से, किसी भी दृष्टि से देख लें; प्रेममार्गी सूफी कवियों और कबीर जैसे ज्ञानमार्गी कवियों की रचनाएँ जिनमें वैचारिक प्रतिबद्धता का बीजारोपण हुआ है, कहीं अधिक मूल्यवान हैं परन्तु वे अब तक गौण बने हुए हैं। लोगों को तुलसी और सूर के अलावा और कोई दूसरा नजर नहीं आया, क्योंकि धर्म को शोषण का हथियार बनाने वालों को यहाँ अधिक सुविधा मिलती है। यहाँ मानवीय मूल्यों से संबंधित संदेशों और उपदेशों की कोई कमी नहीं हैं जिससे समाज का कल्याण हो सकता था; परन्तु धार्मिक आस्था और रूढ़ मान्यताओं की अतिवृष्टि से आई प्रलय में ये सारे डूब गये, बह गये। धार्मिक आडंबरकारों का दावा है कि रामचरितमानस पढ़ने अथवा सुनने मात्र ही से जीव को भवसागर से मुक्ति मिल जाती है; तब फिर इसमें निहित सामाजिक और नैतिक मूल्यों की परवाह भला कौन मूर्ख करेगा?
भक्तिकाल को ’हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ कहने में लोगों ने बहुत जल्दबाजी की है। ऐसा कहने वालों ने रीतिकाल के बाद शायद हिन्दी साहित्य के इतिहास को समाप्त मान लिया था। पर यह गलत है। हिन्दी साहित्य रूपी सरिता का प्रवाह आज भी निर्बाध गति से जारी है। नदी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जाती है, उसका स्वरूप विराट होता जाता है; वह अधिक कल्याणकारी होती जाती है। आधुनिक काल में हिन्दी साहित्य का स्वरूप पहले से विराट हुआ है। आधुनिक काल ने ही हिन्दी साहित्य को कोरे नैतिक उपदेशों, संदेशों, कल्पनाओं और आदर्शों की मायावी दुनिया से निकालकर इसे यथार्थ का ठोस वैचारिक धरातल दिया है। आधुनिककाल ने ही यह बताया कि संसार में केवल राजे-महाराजे, ईश्वर और भगवान ही नहीं होते हैं; केवल काल्पनिक स्वर्ग और नरक ही नहीं होते हैं; अपितु करोड़ों-अरबों की संख्या में यहाँ ऐसे लोग भी रहते है जिनके पास न तो रोटी है, न मकान है और न ही कपड़े हैं। नरक कल्पना नहीं वास्तविकता है और इसी धरती पर मौजूद है। रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित किये गये सारे शोषित लोग इसी नरक में रहते है। ईश्वर भी है और उनका स्वर्ग भी है; और इसी धरती पर है, और ये सारे के सारे लोग शोषक हैं। इस धरती पर मौजूद स्वर्ग और नरक, दोनों ही, धरती के इन्हीं ईश्वरों की निर्मितियाँ है।
भविष्य भूत की तुलना में हमेशा बेहतर होता है, यह प्रकृति का नियम है। काव्य में काल्पनिक कलात्मकता, आदर्शों की स्थापना अथवा काव्य तत्वों की प्रधानता को ही पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए। काव्य अथवा साहित्य का मूल उद्देश्य ईश्वर की स्थापना करना नहीं बल्कि मानवता और बेहतर समाज की स्थापना करना होना चाहिए और इसके लिए काल्पनिक आदर्शों की नहीं बल्कि विचारों की ठोस जमीन की आवश्यकता होती है। समकालीन साहित्य ईश्वरत्व की नहीं, मनुष्यत्व की सर्वोच्चता का उद्घोष करता है और मानवता की स्थापना का प्रयास करता है; इसलिये यह मुझे पिछले सभी कालों से बेहतर प्रतीत होता है।
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प्रश्न 5. आपने समकालीन साहित्य की बात की है। बहुत सारे विद्वानों ने इसकी व्याख्या की है और इसकी विशेषताओं को रेखांकित भी किया है। आप इसे किस प्रकार परिभाषित करना चाहेंगे?
उत्तर - न तो काल को परिभाषित किया जा सकता है और न ही काल के किसी खण्ड को। परन्तु प्रयोजन-विशेष के लिए लक्षणों के आधार पर काल को हम विभिन्न खण्डों में वर्गीकृत अवश्य कर सकते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास जिस समय लिखा गया, और जब आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का निर्धारण किया गया, ये तीनों काल बीत चुके थे। यह नामकरण इतिहास के इन कालखण्डों में लिखे गए साहित्य के लक्षणों और विशेषताओं के आधार पर किया गया है। अर्थात् आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल - ये सारे नाम लाक्षणिक हैं। परन्तु इतिहासकार को उसके समय में अर्थात् वर्तमान में लिखे जा रहे साहित्य के कालखण्ड को कोई लाक्षणिक नाम देना संभव नहीं हुआ होगा और उसने इसे आधुनिककाल का नाम दिया। आधुनिक काल के प्रारंभ में छायावादी कविताएँ लिखी गई। गद्य का विकास इसी काल में हुआ। साहित्य का कायाकल्प हुआ। कला, भाव, भाषा, शैली, छंद और विषय की दृष्टि से साहित्य का सर्वथा नया स्वरूप सामने आया जिसमें न तो कोरे उपदेश हैं, न तो आत्मा-परमात्मा का  चिंतन है और न जीव और ब्रह्म की खोज का झंझट है। यहाँ तो केवल बेहतर मानव समाज की खोज है, मानव जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास है, मानव और मानवतावाद की स्थापना करने वाले विचारों की प्रधानता है। यहाँ पर ’मैं कौन हूँ’ की जगह ’हम कौन हैं’ पर चिंतन है। ’भवसागर से मुक्ति’ के स्थान पर ’सारे रूढ़ विचारों और अंध मान्यताओं से मुक्ति’ का प्रयास है। यहाँ किसी काल्पनिक ईश्वर के स्वर्ग की तलाश नहीं है, बल्कि इसी दुनिया में मौजूद गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता आदि से बजबजाती हुई वास्तविक नरक से मुक्ति के मार्गों की खोज है। यहाँ शब्दों को पाण्डित्य का लेप चढ़ाकर ममी बनाने का प्रयास नहीं किया जाता, बल्कि उपेक्षित, त्याज्य और मृतप्राय शब्दों को लाक्षणिक उपचार देकर जीवंत और शक्तिसंपन्न बनाया जाता है। क्या नाम दिया जाय ऐसे साहित्य को और ऐसे साहित्य के इस कालखण्ड को? प्रथमतः इसे ’छायावादेत्तर काव्य’ कहा गया परन्तु इस नाम को व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। शायद साहित्यिकों में छायावाद और उससे पहले के सारे वादों के प्रति सम्मान-भाव का लोप हो चुका था। और फिर गद्य का विकास भी तो इसी काल में हुआ, और साहित्य के उपर्युक्त सारे लक्षण गद्य में भी तो मौजूद हैं। मुझे नहीं पता, ’समकालीन साहित्य’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया। अनायास ही किया या ग्रह-नक्षत्रों का मिलान करके किया। परन्तु मुझे तो यह शब्द पूर्णतः यादृच्छिक लगता है। यादृच्छिक वे शब्द होते है जो लक्षणों या तर्कों के आधार पर नहीं होते हैं। समकालीन साहित्य के जिन लक्षणों की हमने चर्चा की उनमें से कोई भी लक्षण इस शब्द में ध्वनित नहीं होते है। ’समकालीन साहित्य’ के काल को ’समकाल’ मानेंगे। ’समकाल’ वर्तमानकाल तो नहीं हो सकता न। ’समकाल’ की कल्पना सर्वथा नई कल्पना है। पहले हमें यह समझना होगा कि ’समकालीन साहित्य’ और ’समकालीन’ दोनों दो भिन्न-भिन्न शब्द हैं। समकालीन होने का जो अर्थ है, उसे आप ’समकालीन साहित्य’ के साथ नहीं जोड़ सकते। यह केवल एक नाम है, जो ’समकाल’ में लिखे जा रहे साहित्य के लिए तय किया गया है।
अब! समकाल को कैसे समझें?
समकालीन साहित्य के जितने लक्षण हमने पहले देखा है, जैसे - यह मानवतावादी है, बेहतर और समतामूलक-शोषणविहीन समाज की स्थापना का प्रयास करता है, यह सारे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों-अंधविश्वासों का विरोध करता है, यह शोषितों का पक्षधर है और शोषकों का विरोध करता है, यह व्यवस्था विरोधी है, यह शब्दों के द्वारा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं करता, यह बिंबों और प्रतीकों के द्वारा नये सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना करता है, आदि .....। आप पीछे मुड़कर देखेंगे तो पायेंगे कि ये लक्षण तो कबीर के साहित्य में भी मौजूद है। आप और पीछे देखेंगे तो ये लक्षण आदिकवि बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) में भी मौजूद हैं। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र के माध्यम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।’’
केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’
इसी तरह सरहपाद कहते हैं - ’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कीटंे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’
तो कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान में लिखे जा रहे समकालीन साहित्य की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ भूत में रचित साहित्यों में भी विद्यमान हैं; और आगे भी रहेंगी। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं - वर्तमानकाल, जो बहुत ही क्षणिक होता है, स्वयं को भूत और भविष्य, दोनों ही कालों में विस्तारित करने की क्षमता रखता है। वर्तमान का यही विस्तार तो समकाल है।
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प्रश्न 6. आपने कहा - समकालीन साहित्य में ’मैं कौन हूँ’ की जगह ’हम कौन हैं’ पर चिंतन होता है। इसे समझायेंगे?
उत्तर - बिलकुल! ’मैं कौन हूँ’ का चिंतन भारतीय दर्शन का केन्द्रबिन्दु रहा है। इसकी अवधारण नितांत वैयक्तिक है जो हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है। जीवन के यथार्थ से या यथार्थ की दुनिया से इसका क्या संबंध है? अथवा इसका सामाजिक सरोकार क्या है? ’’मैं नीर भरी दुख की बदली,’’ में ’मैं’ की अभिव्क्ति नितांत निजता की अभिव्यक्ति है। क्या इसका कोई सामाजिक सरोकार बनता है? लेकिन निराला जब कहता है - ’’ठहरो, अहो! मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा। अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम, तुम्हारे दुख, मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।’’  तब निराला का ’मैं’ दुनिया के उन तमाम विचारवान लोगों का ’मैं’ बन जाता है जो ’तुम’ अर्थात् दुनिया के सारे शोषितों और वंचितों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखते हैं। उनकी दुनिया बदलने के लिए कुछ करना चाहते हैं। उनकी पीड़ा को आत्मा की गहराई से अनुभव करना चाहते हैं। और इसी तरह जब मुक्तिबोध कहता है - ’’मैं तुम लोगों से दूर हूँ, तुम्हारी प्रेरणओं से मेरी प्रेरणाएँ इतनी भिन्न है, कि जो तुम्हारे लिए विष है, वह मेरे लिए अन्न है।’’ तब मुक्तिबोध का, तेलिया लिबास में काम करता हुआ मैकेनिक ’मैं’ दुनिया भर के गरीब-मजदूरों और शोषितों का प्रतिनिधि बन जाता है और उसका ’तुम’ दुनिया भर के शोषकों-वंचकों का प्रतीक बन जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, समकालीन साहित्य ’मैं’ का साहित्य नहीं है, ’हम’ का साहित्य है और इसीलिए मुक्तिबोध यहाँ पर मुक्ति ’मैं’ में नहीं ’हम’ में तलाशते हैं। समकालीन साहित्य आपको स्वर्ग और नरक के भूल-भुलइया में नहीं उलझाता। यदि आपका जीवन दुखों से भरा हुआ है तो उसका कारण भी इसी दुनिया में मौजूद है, और सुखमय जीवन के लिए आपको किसी स्वर्ग की जरूरत नहीं है। स्वर्ग भी इसी दुनिया में मौजूद है।
आपको वह बोध-कथा याद ही होगा? नाव से नदी पार करते हुए पंडितजी नाविक से कहता है कि अरे मूर्ख! वेद शास्त्र नहीं पढ़ने से तो तेरा आधा जीवन बेकार चला गया। तभी आँधी और बरसात के कारण नाव डूबने लगती है। पंडितजी को तैरना नहीं आता था। नाविक ने कहा - ’’पंडितजी, क्या आपके पोथी-पुराणों ने आपको तैरना नहीं सिखाया? तब तो आपका पूरा जीवन ही व्यर्थ चला गया।’’
जिस किताबी ज्ञान से नदी पार न किया जा सके, उससे भवसागर पार किया जा सकता है? जो किताबी ज्ञान प्राणों की रक्षा न कर सके, वह हमें मोक्ष देगा? कितना भद्दा मजाक है।
समकालीन साहित्य एक बेहतर समाज की बात तो करता है।
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प्रश्न 7. क्या लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से मतभेद रखते हैं? इतना क्यों रखते हैं कि एक-दूसरे के लेखन-अभिव्यक्ति को अपनी प्रतिभा में प्रकाशित करने से इन्कार कर देते हैं?
उत्तर - मतभेद से ही असहमति और विरोध का जन्म होता है। असहमति और विरोध, दोनों ही रचनात्मकता के लिए अनिवार्य हैं। जहाँ असहमति और विरोध नहीं होगा वहाँ नव-सृजन किस प्रकार होगा? इसीलिए मैं तो मतभेद, असहमति और विरोध को सकारात्मक दृष्टि से देखता हूँ। कबीर ने क्यों कहा - ’निंदक नियरे राखिए’?
पहले लोगों ने कहा कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसके चारों ओर घूमता है। कुछ लोग इस सिद्धांत से असहमत हुए और एक नया तथ्य सामने आया। भविष्य में इससे भी कोई असहमत होगा और एक नया तथ्य फिर सामने आयेगा। ब्रह्मांड के रहस्य अनंत हैं। अभी तो हमने समुद्र के एक बँूद के बारे में जाना है। बाकी के बारे में जानना तो अभी बाकी है।
आपने पूछा है - क्या लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से मतभेद रखते हैं? समकालीन साहित्य का मूलाधार एक सुदृढ़ और सुस्थापित विचारधारा है तो समकालीन साहित्य से जुड़े लेखकों और उनके समूहों में मतभेद किस बात पर होगी? पर नहीं! यह तो नये विचारधाराओं के सृजन का विचार मंच भी है। प्रकृति ने हर व्यक्ति को अपने आप में बेजोड़ बनाया है। सबकी अपनी अलग बुद्धि है, अपनी अलग सोच और सबके अपने अलग विचार हैं और इसीलिए सबके दृष्टिकोण भी अलग-अलग होंगे। विस्तार की दृष्टि से इनमें से कुछ सीमित सरोकारों वाले अर्थात निजी मान्यताओं से संबंधित विचार, संकुचित विचार और कुछ व्यापक अर्थात सामाजिक सरोकारों वाले विचार होते हैं। कोई समूह या संघ तब अस्तित्व में आता है जब व्यापक रूप से समान विचार और दृष्टिकोण वाले लोग आपस में जुड़ते है। तो उनमें मतभेद क्यों होंगे? यदि व्यक्तिगत संकुचित विचारों को जरा भी जगह मिली तो मतभेद भी होंगे और टकराहट भी होगी। इनमें वर्चस्व की लड़ाईयाँ जरूर हो सकती है।
और यदि दो भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले समूह होंगे तो उनके विचार आपस में टकरायेंगे और उनमें मतभेद भी जरूर होंगे। हम देखते हैं, बहुत सारे साहित्यकार मित्र हैं जो आज भी भक्तिकालीन प्रवृति वाले साहित्य के सृजन में लीन हैं। तो इनसे तो वैचारिक मतभेद होंगे ही। अभी कुछ दिन पहले की बात है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक, दोनों ही माध्यमों में एक साहित्यकार महोदय की एकाएक खूब चर्चा होने लगी क्योंकि उन्होंने गीता के श्लोकों का हिन्दी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया है। अनुवाद जरूर एक महत्वपूर्ण विधा है। पर हिन्दी में उपलब्ध कृतियों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद तो बहुत महान् कार्य नहीं हुआ। फिर भी इनका एक बड़ा समर्थक वर्ग है। पर मैं समझता हूँ, समकालीन साहित्यकारों का इस तरह के कार्यों से शायद ही सहमति होगी।
आपने कहा है - लेखक संघ-समूह के लेखक एक दूसरे से इतना मतभेद रखते हैं कि वे एक-दूसरे के लेखन-अभिव्यक्ति को अपनी प्रतिभा में प्रकाशित करने से इन्कार कर देते हैं।
हर लेखक के पास अपनी प्रतिभा होती है। आपके पास भी है और मेरे पास भी है। मैं आपकी प्रतिभा का अनुसरण करूँ, या आप मेरी प्रतिभा का अनुसरण करें, क्या यह उचित होगा? पर प्रतिभा में मौलिकता हो तो दुनिया उसे स्वीकारती है, उसकी सराहना करती है। मैं पूछता हूँ, आज ऐसा कौन सा व्यंग्यकार होगा जिसके लेखन में परसाई या जोशी प्रकाशित नहीं होते होंगे? मुक्तिबोध और प्रेमचंद आज सिर चढ़कर क्यों बोल रहे हैं। क्या हमारे अंदर इनकी प्रतिभाएँ प्रकाशित नहीं हो रही हैं? क्या हम एक दूसरे की अच्छी रचनाओं की प्रशंसा नहीं करते हैं?
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प्रश्न 8. तो क्या परजीवी रचनाकार जन्म लेकर फलते-फूलते हैं?
उत्तर - परजीवी साहित्यकार किसे कहा जायेगा? इसे पहले स्पष्ट करना होगा। आज दुनिया का हर समकालीन साहित्यकार किसी एक सुस्थापित विचारधारा का अनुसरण कर रहा है। मुक्तिबोध ने कहा है कि आपको स्पष्ट करना होगा कि आप किस ओर खड़े हैं। वह विचारधारा जो साहित्यकार को दुनिया भर के शोषितों के पक्ष में खड़ा कर देता है, तो उस विचाधारा का अनुसरण करना परजीवी होना तो नहीं होगा न।
देखिये! आज बाजार जीवन के हर क्षेत्र में हावी है। बाजार के दबाव के चलते ही, मैं समझता हूँ, एक समानान्तर साहित्य विकसित हो चुका है। आप मनोरंजन परोसने वाले टी. व्ही. चैनलों पर प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों को देखिये। इन धारावहिकों का कथानक तैयार करने वाले और इसका स्क्रिप्ट लिखने वाले लोग भी तो अंततः साहित्यकार ही हैं। वे तो वही लिखते होंगे जो उनका निर्माता और निर्देशक सुझाता होगा। क्या वहाँ पर शोषण के खिलाफ कुछ कहा जा रहा है? वहाँ तो केवल कल्पना की एक झूठी दुनिया है, पूँजी की सत्ता केन्द्र के चारों ओर की भूल-भलैया में दर्शकों को भटका कर उन्हें उनके वर्तमान जीवन की सच्चाइयों से कोसों दूर ले जाता है। तो अगर परजीवी साहित्यकार कोई होगा तो सबसे पहले मैं इस वर्ग में इन्हीं साहित्यकारों को देखना पसंद करूँगा। ये फलेंगे भी और फूलेंगे भी, पर इनके फूल और इनके फल दुनिया के लिए कभी सेहतमंद नहीं होंगे। इससे न तो दुनिया का पेट भरेगा और न ही दुनिया सुंदर बनेगी।
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प्रश्न 9. सात्यिकार अंततः किसके साथ खड़ा रहता है?
उत्तर - मुक्तिबोध ने जिस मेहतर की कल्पना की है, मैं तो उसी ओर खड़ा होना पसंद करूँगा।
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प्रश्न 10. आपने एक प्रश्न खड़ा किया है, ’भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ मान लेने से इसके पूर्व और इसके बाद के साहित्य खारिज ही हो जाते है। इस संबंध में मेरा एक प्रश्न है। जो विभाजन भक्तिकाल का आचार्य शुक्ल ने किया वह तो संप्रदायवाद की ओर नहीं जाता? जैसे - भक्ति तो भक्ति ही है। विधिवत् शिक्षा कबीर की नहीं हुई उसे आचार्य ज्ञानमार्ग में डाल देते हैं। यह एक साजिश तो नहीं है? आपके विचार जानना चाहूँगा।
उत्तर - मैंने कहा है - भक्तिकाल को ’हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ कहने में लोगों ने बहुत जल्दबाजी की है। ऐसा कहने वालों ने पूर्व के वीरगाथाकाल और बाद के रीतिकाल से जरूर इसकी तुलना की होगी। चाहे जैसा भी किया हो, पर एक बात तय है, इस तरह की घोषणा करके इन लोगों ने संभावनाओं को जरूर खारिज कर दिया है। यह मूर्खतापूर्ण है। इसीलिए मैंने कहा कि इस प्रकार की घोषणा करके इन लोगों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को समाप्त मान लिया था। आज के समीक्षकों-साहित्यकारों को इस बात पर जरूर गौर करना चाहिए। आप देख रहे हैं, आधुनिक साहित्य का अपना अलग ही सौन्दर्य है। आपने कबीर की बात की है। कबीर को किसी मार्ग में डालने या बांधने की क्षमता किसी में नहीं है। वे तो मुक्त आत्मस्वरूप हैं। उनकी इच्छा, वे चाहे जहाँ खड़े हो जायें। वैसे कबीर को बाजार में खड़ा होना जयादा अच्छा लगता है। बाजार का संबंध लोक से है। कबीर लोक के आदमी हैं, वे लोक में ही जिन्दा हैं, और लोक के कारण ही जिन्दा हैं। पुराणवादियों ने तो उनके अवसान के अनेक अपाय कर लिए थे।
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प्रश्न 11. आपकी भोलापुर की कहानियाँ विसंरचनावाद में वर्चस्ववादियों का खात्मा करने का प्रश्न खड़ा करती है?
उत्तर - मैंने किसी के खात्मे की बात नहीं की है। प्रकृति में एक पहलू वाला कुछ भी नहीं है, सारे द्विपक्षीय हैं। एक पक्ष अच्छाई का है तो दूसरा पक्ष बुराई का है। जीवित समाज में ये दोनों बातें रहेगी ही, दोनों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। दोनों के बीच विचलन होता रहता है। पर यदि बुराई के पक्ष में अधिक विचलन हो तो पलड़े को सम पर लाने के लिए बड़े संघर्ष की जरूरत होती है, जनआन्दोलन की जरूरत होती है। मैंने इसी संघर्ष की बात की है। छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न है। यहाँ के लोगों ने इसका संरक्षण किया है, दोहन कभी नहीं किया। अब इस संपदा को लूटने की होड़ मची हुई है। यहाँ के लोग तो किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में हैं। वे अपनी संपदा की रक्षा करें, या अपने स्वाभिमान की रक्षा करें या अपने अस्तित्व की रक्षा करें, उन्हें तो कुछ सूझ नहीं रहा है। यही तो भोलापुर की और उसके संघर्ष की कहानी है।
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प्रश्न 12. छत्तीसगढ़वासी वर्तमान में वर्चस्व संकट से गुजर रहे हैं; भोलापुर के कहानी में सुस्पष्ट है - तो आप किस-किस प्रकार के लेखन की अपेक्षा करते हैं? विशेषकर नये लेखकों से।
उत्तर -  आप देख रहे होगें। छत्तीसगढ़ में आज कवियों और लेखकों की बाढ़-सी आई हुई है। छत्तीसगढ के लिए यह बड़ा शुभ संकेत है। यह बाढ़ इस बात का संकेत है कि आज के हमारे कवि और लेखक अपनी संपदा की रक्षा के लिए, अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जाग चुके हैं। वे अपनी-अपनी कलम से अपने-अपने स्तर पर लड़ रहे हैं। अपने कवियों और लेखकों से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ। आवश्यकता संगठित होने का हैं। शासन ने राजभाषा आयोग बनाया है। क्या कर रहा है आयोग? उसके पास छत्तीसगढ़ के कवियो और लेखकों की सूची है? उसके पास छत्तीसगढ़ के साहित्य समितियों और उसके पदाधिकारियो-सदस्यों की सूची है। इनकी गतिविधियों के साथ उनका समन्वय है? आयोग आखिर किस लिए है? अपेक्षा मेरी इसी स्तर पर है।
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प्रश्न 13. किसी कृति की समीक्षा में कृति के अंदर परखना चाहिए या उसके आरपार देखकर?
उत्तर - किसी कला की समीक्षा में दो पक्ष होते हैं - पहला पक्ष कला और दूसरा पक्ष समीक्षक। किसी एक ही कला की समीक्षा में अलग-अलग समीक्षकों के निष्कर्ष अलग-अलग हो सकते हैं। सबकी आपनी दृष्टि और अपने दृष्टिकोण होते हैं। रचना के भी अनेक आयाम और अनेक पहलू होते हैं। सभी समीक्षक सभी आयामों और सभी पहलुओं तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसीलिए मेरा मानना है कि कोई भी समीक्षा कभी भी पूर्ण नहीं होती। रह गई बात आरपार देखने की, तो आरपार देखना पारदर्शी वस्तुओं में ही संभव हो सकता है। इस तरह तो वस्तु के अंदर की बनावट और बुनावट को देखना कभी संभव नहीं हो सकता। वस्तु के अंदर की बनावट और बुनावट को देखने के लिए तो उसकी शल्यक्रिया करने की आवश्यकता होती है। तो समीक्षक के लिए यही काम जरूरी और महत्वपूर्ण है।
किसी भी समीक्षक के लिए जरूरी है, यदि वह रचना और रचनाकार के साथ न्याय करना चाहता है, सबसे पहले वह अपने सभी तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो ले। समीक्षक एक साथ परीक्षक भी होता है और परीक्षार्थी भी। हर सवाल के लिए उसकी तैयारी पूरी होना चाहिए। हर रचना के पीछे रचनाकार का एक खास उद्देश्य होता है। समीक्षक का दूसरा काम हो जाता है, रचनाकार के इस उद्देश्य को वह पकड़े, समझे और अपने तर्कों  के द्वारा सिद्ध करे कि रचनाकार अपने उद्देश्य में कितना और कहाँ तक सफल रहा। रचना और रचनाकार की कसौटी उद्देश्य प्राप्ति की सफलता होना चाहिए। किसी संयंत्र की स्थापना एक वस्तु विशेष का उत्पादन करना होता है। इस प्रक्रिया में कुछ सहउत्पाद भी बनते है। संयंत्र की सफलता उसके मुख्य उत्पाद की गुणवत्ता द्वारा निर्धारित होती है। उस रचना में रचनाकार की नई खोज क्या है जिसे वह समाज को देने जा रहा है, रचना की भाषा कितनी संप्रेषणीय है, पाठक के दिमागी कसरत के लिए उसमें कितनी गुंजाइश है, आदि बातें बाद में आती हैं।
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प्रश्न 14. क्या एक प्रतिबद्ध विचारधारा में किसी कृति को कसना एक प्रकार की तानाशाही होगी ही?
उत्तर - जरूर होगी। किसी लेखक या रचनाकार का एक प्रतिबद्ध विचारधारा से संबद्ध होना अच्छी बात है, पर बंधना अच्छी बात नहीं हो सकती। किसी प्रतिबद्ध विचारधारा से संबद्ध या बंधे हुए रचनाकार का दृश्यवितार और दृष्टिविस्तार उसी विचारधारा के दायरे में सिमटा हुआ होगा। इसके विपरीत यदि कोई रवनाकार किसी प्रतिबद्ध विचारधारा के अलावा भी, उसके दायरे से निकलकर, समाज के बीच जाता है और समाज के यथार्थ को भोगता है, देखता है तो यह अधिक महत्वपूर्ण होगा क्योंकि इसमें दृश्यवितार और दृष्टिविस्तार की अपार संभावनाएँ होगी। और इस तरह स्वचिंतन और स्वअनुभूति से लेखक का अपना स्वयं का कोई नया विचार प्रसूत होता हो तो यह रचनाकर्म के लिए और भी उपयोगी होगा। ऐसा होता ही है, इसलिए किसी एक प्रतिबद्ध विचारधारा में किसी कृति को कसना एक प्रकार की तानाशाही ही होगी?
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प्रश्न 15. तो धर्म-राजनीति समीक्षा में आदर्श क्यों नहीं माने जा सकते?
उत्तर -आज सारी चीजे यथार्थ केन्द्रित हो गई है। हमारे अतीत का यथार्थ क्या था, आज का यथार्थ क्या है-कैसा है और भविष्य का यथार्थ क्या होना चाहिए, आज का सारा चिंतन और लेखन इन्हीं पर आधृत हो गया है। हमारा भविष्य कैसा होना चाहिए, इस पर आज का हमारा चिंतन भी यथार्थ परक हो गया है, आदर्श परक नहीं। नैतिकता और आदर्श का उपदेश झाड़ते हुए ढाई हजार साल बीत गये। कितना लाभ हुआ? समाज में बुराइयों का स्तर कम हुआ, या बढ़ा? इसीलिए आज शिक्षाविदों का कहना है - बच्चों को नैतिकता और आदर्श का उपदेश देने के स्थान पर उन्हें यथार्थ का ज्ञान कराया जाना चहिए। व्यावहारिक तौर पर  नैतिक-अनैतिक और अच्छे-बुरे का निर्णय उन्हें स्वयं करने देना चाहिए। लोगों को धर्म और राजनीति का भी यथार्थ आज समझ में आ जाना चाहिए। यह तो होना ही चाहिए।
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प्रश्न 16. परतंत्रता उपनिवेशवाद-स्वतंत्रता उपनिवेशवाद में सत्ताकेन्द्र अपने लिए लेखकों की फौज तैयार की है। इसमें लेखन को लकवा मार जाता है। आपके विचार जानना चाहूँगा। 
उत्तर - आप ठीक कहते हैं। आज उपनिवेशवादी ताकतों की ही सरकारें काम कर रहीं है और सारे राष्ट्राध्यक्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी. ई. ओ. की भूमिका में आ गये हैं। भौतिक सुख की लालच में पड़कर लेखक भी उपनिवेशवाद की गुलामी करने के लिए आतुर हो गये हैं। टी. व्ही. के धारावाहिक क्या सिद्ध करते हैं?  पर सभी लेखक ऐसे नहीं हैं। लेखकों के साथ यह नहीं होना चाहिए।
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शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

कविता


क और ख


क और ख
दोनों में मित्रता हो जाती है
दोनों जब अपने-अपने घरों से निकल रहे होते हैं।

क और ख
दोनों कभी नहीं लड़ते
दोनों जब साथ-साथ काम की ओर जा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों रोटी का धर्म समझ और समझा रहे होते हैं
दोनों जब साथ-साथ पसीना बहा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों एक ही बात दुहरा रहे होते हैं
काम से थक कर दोनों जब सुस्ता रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के चेहरे एक से दिखते हैं
भूख से दोनों के पेट जब बिलबिला रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के चेहरे एक से खिलते हैं
किसी बात पर दोनों जब खिलखिला रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के धर्म एक हो जाते हैं
हाथों में जब दोनो फावड़ा और कुदाल उठा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों के धर्म बदल जाते हैं
हाथों में जब दोनों अपने धर्मग्रंथ उठा रहे होते हैं।

क और ख
दोनों कभी नहीं मिलते
दोनों जब अपने-अपने घरों में रह रहे होते है।

क और ख
दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं
अपने-अपने इबादतगाह की ओर दोनों जब जा रहे होते हैं।
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kuber

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

समीक्षा

 समकालीन साहित्य का ’मैं’ और ’तुम’


प्रश्न - आपने कहा - समकालीन साहित्य में ’मैं कौन हूँ’ की जगह ’हम कौन हैं’ पर चिंतन होता है। इसे समझायेंगे?


उत्तर - बिलकुल! ’मैं कौन हूँ’ का चिंतन भारतीय दर्शन का केन्द्रबिन्दु रहा है। इसकी अवधारण नितांत वैयक्तिक है जो हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है। जीवन के यथार्थ से या यथार्थ की दुनिया से इसका क्या संबंध है? अथवा इसका सामाजिक सरोकार क्या है? ’’मैं नीर भरी दुख की बदली,’’ में ’मैं’ की अभिव्क्ति नितांत निजता की अभिव्यक्ति है। क्या इसका कोई सामाजिक सरोकार बनता है? लेकिन निराला जब कहता है - ’’ठहरो, अहो! मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा। अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम, तुम्हारे दुख, मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।’’  तब निराला का ’मैं’ दुनिया के उन तमाम विचारवान लोगों का ’मैं’ बन जाता है जो ’तुम’ अर्थात् दुनिया के सारे शोषितों और वंचितों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखते हैं। उनकी दुनिया बदलने के लिए कुछ करना चाहते हैं। उनकी पीड़ा को आत्मा की गहराई से अनुभव करना चाहते हैं। और इसी तरह जब मुक्तिबोध कहता है - ’’मैं तुम लोगों से दूर हूँ, तुम्हारी प्रेरणओं से मेरी प्रेरणाएँ इतनी भिन्न है, कि जो तुम्हारे लिए विष है, वह मेरे लिए अन्न है।’’ तब मुक्तिबोध का, तेलिया लिबास में काम करता हुआ मैकेनिक ’मैं’ दुनिया भर के गरीब-मजदूरों और शोषितों का प्रतिनिधि बन जाता है और उसका ’तुम’ दुनिया भर के शोषकों-वंचकों का प्रतीक बन जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, समकालीन साहित्य ’मैं’ का साहित्य नहीं है, ’हम’ का साहित्य है और इसीलिए मुक्तिबोध यहाँ पर मुक्ति ’मैं’ में नहीं ’हम’ में तलाशते हैं। समकालीन साहित्य आपको स्वर्ग और नरक के भूल-भुलइया में नहीं उलझाता। यदि आपका जीवन दुखों से भरा हुआ है तो उसका कारण भी इसी दुनिया में मौजूद है, और सुखमय जीवन के लिए आपको किसी स्वर्ग की जरूरत नहीं है। स्वर्ग भी इसी दुनिया में मौजूद है।

आपको वह बोध-कथा याद ही होगा? नाव से नदी पार करते हुए पंडितजी नाविक से कहता है कि अरे मूर्ख! वेद शास्त्र नहीं पढ़ने से तो तेरा आधा जीवन बेकार चला गया। तभी आँधी और बरसात के कारण नाव डूबने लगती है। पंडितजी को तैरना नहीं आता था। नाविक ने कहा - ’’पंडितजी, क्या आपके पोथी-पुराणों ने आपको तैरना नहीं सिखाया? तब तो आपका पूरा जीवन ही व्यर्थ चला गया।’’

जिस किताबी ज्ञान से नदी पार न किया जा सके, उससे भवसागर पार किया जा सकता है? जो किताबी ज्ञान प्राणों की रक्षा न कर सके, वा हमें मोक्ष देगा? कितना भद्दा मजाक है।

समकालीन साहित्य एक बेहतर समाज की बात तो करता है।
kuber

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

समीक्षा

 भाषा संरचना से परे जाकर कोई अपनी बात नहीं कह सकता

श्री यशवंत मेंश्राम संस्कारधानी (राजनांदगाँव) के उदीयमान और प्रतिभासम्पन्न समालोचक हैं। उन्होंने श्री कुबेर की कविता संग्रह ’उजाले की नीयत’ की समीक्षा करते हुए कहा है - 

भाषा में उसकी संरचना का ही अर्थ होता है। अनुभव से विचार आते हैं। भाषा संरचना से परे जाकर कोई अपनी बात नहीं कह सकता। लेखन में विकल्पों का मनमाना उपयोग नहीं हो सकता। भाषा भाव एक ही भाव को जन्म नहीं देता। भाषा के असीमित विकल्पों में से कुछ ही मत्वपूर्ण होते हैं। कवि की संवेदनाएँ उसी महत्वपूर्ण विकल्प-संरचना से युक्त होकर अपनी शैली में व्यक्त होता है और महत्वपूर्ण भाषिक संरचना का निर्माण करता है। कुबेर ने लिखा है -

और
इन सबने खेल ली है अपनी-अपनी पारियाँ
अब आपकी पारी है
अँगारा अभी ठंडा नहीं हुआ है
बाकी अभी चिंगारी है
इसे हवा दो,
इसे हवा दो,
इसे हवा दो। (पृ. 44)

 यहाँ गहरी संरचना और शैली 1 हवा दो,  2 हवा दो, 3 हवा दो, में है। ’बाकी अभी चिंगारी है’ में संकेत है। आपकी जुदाई कभी भी हो सकती है, आपकी पिटाई और खात्माई भी कभी भी हो सकती है। भाषा में मुहावरेदार शाब्दिक संरचना की वजह से यह संभव हो सका है।

जैसे सम्मान, संबंध, व्यवहार और परिवार
आचार और विचार
उसने होम कर दिया। (पृ. 46)

गलत को आदर्श मानने की रूढ़ियों में सब कुछ जायज है। सभी रास्ते सही हैं, चाहे षडयंत्र हो चाहे अत्याचार। सब तरह से, सब कुछ, समाज से राजनीति तक, लड़ाई लड़ी। सब कुछ लुटाकर और सब कुछ लूटकर उन्होंने अपनी पहचान बनाई।

उसने बनाया स्वयं को
एक योद्धा से एक विजेता
अ-वेत्ता वेत्ता
और प्रात कर ली सत्ता। (पृ. 47)
अब वह समाज का मुखिया बन चुका है। योद्धा लड़ता है और उसका एकमात्र लक्ष्य होता है - सबको पराजित कर विजेता बनना। वह विजेता बन जाता है, अपने हाथों से अपनी विजय पताका लहराता है सत्ता पर काबिज हो जाता है।

क्योंकि बहुत सारे लोग,
जो न तो मनुष्य की तरह होते हैं
जो न तो हँसते हैं न रोते हैं
और न संघर्ष करते हैं
या तो षडयंत्र करते हैं, या सोते हैं
नशे में होते हैं या शासन करते हैं (पृ. 47-48)

भीड़ से अलग होकर, भीड़ का नियंता बनकर फिर क्या? भीड़ जनता की होती है; मनुष्यों की होती है। वह विजेता है, असाधारण है, इसीलिये वह मनुष्य से ऊपर है? तब तो जरूर वह अकेला है। अकेला सदैव भयभीत रहता है, आक्रांत रहता है। यह हिटलर ’अमीबा’ है? या अमीबा से संबंधित कोई और? रचना की महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति संरचना भौतिकता से अभौतिकता में शैली, शब्द, शब्द हुँकार में पहचान बनाती है।

जैसे सृष्टि का प्रथम
और संभवतः अंतिम एक कोशीय आदिम जीव -’अमीबा’।
क्या वह अब आदमी से अमीबा बन गया है? (पृ. 48)

जिस प्रकार अमीबा सारी जैविक क्रियाएँ एक ही कोश में कर लेता है, सत्ताधारक के लिए भी ऐसा कर पाना क्या संभव है? क्या वह समाजेत्तर प्राणी हो सकता है?
’अमीबा’ कविता की मुहावरेदार शैली के कारण भाषा में अधिक संपे्रषणीय बन पाई है और इसी से कविता की सार्थकता सार्थक हो सकी है। इससे कवि ने अपने सामाजिक संदर्भों को भी व्यक्त करने में सफलता पाई हैं। यही सूत्र संग्रह की अन्य कविताओं में भी मिलती है। एक अन्य कविता को लें -

दुनिया में
कहते हैं दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला विकसित
और दूसरा विकासशील
इसे यूँ भी कह सकते हैं
दुनिया में दो तरह के मुल्क होते हैं -
पहला नोट वाले
और दूसरा पेट वाले।

नोट वालों के पास न पेट है न दिल है
उनके पास है एक अदद दिमाग -
कंप्यूटर वाला
और है दुनिया के सारे सुख।
और पेट वालों के पास होते हैं
केवल ऐंठती हुई,
कुलबुलाती हुई अंतड़ियाँ
जिसमें ठूँस-ठूँस कर भरे होते हैं
दुनिया के सारे भूख।

यहाँ संकेतक से विभेद बताए गए हैं। संकेत निम्न हैं -
पेट वाले - शोषित,जानवर, बालक, खाने के दाने-दाने के लिए तरसने वले।
नोट वाले - शोषक साहूकार, ऋणदाता, धनपति, सांसद, करोड़पति, आदि। समतल भाषा-संरचना में गहरी अर्थ संरचना है। कौन कहता है, समतल-सपाट भाषा में कला नहीं होती है? शैली-कला-शब्द-संस्कृति में पेटवाले-नोटवाले का प्रयोग इस कविता की भाषिक संरना-सौन्दर्य में चार-चांद लगा रही है। समकालीन साहित्य की यही विशेषता इसे खास बनाती है। मुहावरेदार भाषा की भी यही खासियत है। कुबेर जी इसमें दक्ष हैं।
उपरोक्त कविता में भाषा का निष्पादन (च्मतवितउंदबम) हो रहा है। ’नोट वाले-पेट वाले’ की गहराई का भीतरी दृश्य महत्वपूर्ण है। पेट की खातिर ईज्जत डावाडोल होती है। नोट वाला खरीद भी लेता है। और तब क्या बिकने वाली, खरीददार को किसी कुत्ते से कम नहीं समझती होगी? सतह संरचना में भाषा और व्याकरण है। सतह के भीतर की संरचना में आर्थिक कुचक्र की परख-परक विचारों की सतत श्रृँखला है जो समकालीन सामाजिक संरचना की देन है। एक और कविता देखते हैं -
गरीबी की रेखा हमने खींच ली
बहुत अच्छा हुआ
उन्हें उनकी औकात बताते-बताते
हमने अपनी औकात बता दी। (पृ. 83)

वर्तमान 2014 लोकसभा के चुनावों में यह हुआ। औकात बताने वालों को औकात का पता चला गया, उनकी स्वयं की भी और जनता की भी। गरीबी-रेखा खींची क्यों? पैमाना कया था? गहराई का अर्थ है, पहले अमीरी की रेखा तय की जावे। औकात देखें देशी-विदेशी कंपनियों की। पर भीड़तंत्रधारी को कौन समझाए? तंत्र को यंत्र बना देते हैं।
कुबेर जी का मुहावरेदार और मुक्त छंद में लिखा काव्य मुहावरों लदा, बोझिल तो बिलकुल भी नहीं है, या तो सधा है या साध गया है। साधो! साधु! अर्थ को जान जाइये। कविता की व्याख्या, अर्थ-व्यंजना सब सध जायेगी। सुनो भाई साधो का भजन नहीं करो, जो माधो का सकर्म है।
कुबेर की कविता भविष्य के प्रति आस्था जगाने वाली कविता है। प्रकृति की गति सदैव बेहतरी और सुन्दरता की और होती है; कुबेर इसी सूत्र को थामें आगे की ओर बढ़ते है। भविष्य का प्रत्येक झण भूत से बेहतर होता ही है -

आओ !
तलाशें, भविष्य के गर्भ में छिपे
संभावनाओं के अँकुरों को
जो एक कतरा छाँव बनेगा
तपती दुपहरी में झुलसते
पसीनों से तरबतर
अनगिनत मेहनतकशों के लिए।

आओ !
खोलें, भविष्य के गर्भ में बंद
संभावनाओं के दरवाजों को
जिसके पार होगा विस्तृत कर्म क्षेत्र
अनगिनत बेकाम हाथों के लिए।
आओ !
मुक्त करें, भविष्य की सींखचों में कैद
संभावनाओं के सूरज को
जो, नंग-धड़ंग, चिथड़ों में लिपटे
मौसम की मार सहते,
और
घोर तमस से डरे-सहमें घरों के अंदर
लायेगा एक नई सुबह।

जब करोड़ों हाथ बेरोजगार हों तो मशीनों की दानवीय भुजाएँ क्यों? मशीनों की दानवीय भुजाओं से आने वाली तथाकथित बेहतरी आखिर किसके लिए होगी? यदि यही ग्लोबलाइजेशन है तो ग्लोबलाइजेशन की इस दुनिया में करोड़ों बेरोजगार हाथ इसमें दब क्यों रहे हैं? पर संभावनाएँ हैं, मानवीय संवेदनाओं की संभावनाएँ; और यही संभावनाएँ आशा और आस्था के आधार हैं।
कुबेर जी की कविताएँ बंद कमरांे में सेमीनार की कविताएँ नहीं है। ये खुले आसमान के नीचे पावस की बूँदों के संग घुलकर सतरंगी इन्द्रधनुषीय संरचना  बनाती हुई रचनाएँ हैं। इनमें आस्था और आशाएँ हैं तो कमजोरियों और नादानियों का शव परीक्षण भी है। चेतावनियाँ भी है, आत्म-प्रेक्षण भी हैं -

अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उŸार-आधुनिक हो गए हैं।

अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।

पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।

कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं। (पृ 73)

उनके विचारों की ऊर्जा और आभा चारों दिशाओं में प्रकीर्णित होती स्पष्ट दिखाई देती हैं। कुबेर को विश्वास है कि अंतःकरण यदि शुद्ध हो और नीयत  साफ हों तो दुनिया को बेहतर बनाने के लिए किसी वाद की आवश्यकता नहीं है -
टूटों को जोड़ने के लिए
आवश्यकता नहीं किसी वाद
या किसी तंत्र की
स्वच्छता केवल मानव मन की। (पृ 68)
कुबेर की कविताओं के केन्द्र में केवल मनुष्य है, मानवता है और इसकी अभिव्क्ति के लिए उन्होंने अपने काव्य में जिस समतुल्य भाषा की संरचना की है; उसी से उनकी विशिष्ट शैली की संरचना भी होती है। कुबेर की भाषिक संरचना में अनगिनत ऐसे शूद्र-शब्द समाहित हैं जिन्हें काव्यशास्त्र ने आज तक या तो छुआ ही नहीं है, अथवा जिन्हें उसने तिरस्कृत कर रखा है। अनेक मृत-शब्दों को भी कुबेर ने पुनर्जीवित किया है। कुबेर जी ने इन भूले-बिसरे, तिरस्कृत और मृत शब्दों को न सिर्फ प्रचलित-पुनर्जीवित किया है, बल्कि उनकी परंपरागत अर्थ के अलावा भी नये-नये अर्थव्यंजनाओं के द्वारा उन्हें प्रतिष्ठित किया है। आवश्यकता पड़ने पर अर्थ अभिव्यंजना, उसकी अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता को सुगम बनाने के लिय कुबेर जी नये-नये मुहावरों का सृजन भी करते चलते हैं। त्रिभुज, समानांतर  रेखाएँ, अमीबा, प्रमेय, सूत्र, समीकरण, उस्तरा, ऐसे ही कुछ शब्द हैं। उनके द्वारा सृजित नये मुहावरों में - भूखमापी यंत्र, सड़क शिराएँ, हँसने रोने की मनाही, अँधों बहरों और गूँगों की गवाही, हस्ताक्षर हैं जिस पर पूंजीवाद के, शाकाहारी घोषण पत्र, समाजवाद का डंडा, धर्म अलग-अलग हवाओं के, रूढ़ियों का सैलाब, बुद्धिजीवी के लबादे ओढ़ना, मुखौटों का अट्टहास होना, बंदूक की नाल होना, एक कोशीय जीव होना, शब्दों में मिलावट करना आदि, आदि हैं।
भूखमापी यंत्र की कविताएँ लोकधर्मी परंपरा में हैं। भले ही काव्यकार अपने क्षेत्र से है, भारतीय नागरिकता में भारत से है, और जिन्होंने राष्ट्रीय समस्याओं को उठाकर अप्रस्तुत को प्रस्तुत किया है।    मनुष्य के अंदर की सुप्त संवेदनाओं को गहरे तक झिंझोड़ा है।

यशवंत मेश्राम
उजाले की नीयत कविता संग्रह की समीक्षा का एक अंश
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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

छत्‍तीसगढ़ी कविता

सुनो जी मितान

सुनो! सुनो! जी मितान,
इहाँ के कमइया अउ किसान।
सुंदर-सुंदर जंगल अउ सुंदर हे पहाड़,
सुंदर-सुंदर नदिया अउ सुंदर हे खदान।
सुनो! सुनो! जी मितान ...........  ।
कोरे-गाँथे बेटी कस, हमर हे डोली धनहा,
बैरी मन के फुटत हे आँखी अउ दरकत हे मन हा।
लार चुहावत आवत हावंय परदेसिया बइमान।
सुनो! सुनो! जी मितान ...........  ।
लोटा धर के काली आइन, आज टेकाइन बंगला,
तुँहर इहाँ तो गड़े हे नेरवा, फेर तुम काबर कंगला?
(वाह! सोला आना बात कहेस, मितान! सोचे बर पड़ही।)
(कब सोचबे? परान छूट जाही तब?)
अभी-अभी तुम सोचव संगी, छूटत हे परान।
सुनो! सुनो! जी मितान ...........  ।
पुरखा मन के आगी ल छोड़ेस, अउ छोड़ेस पानी ला।
हाना छोड़ेस, बाना छोड़ेस, अउ छोड़ेस बानी ला।
गाँव ल छोड़ेस, ताव ल छोड़ेस, होगेस सोगसोगान।
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रविवार, 20 जुलाई 2014

लघु कथाएँ

दो लघुकथाएँ

1: नम्बर आफ मैक्जिमम रिटेल हन्ट


इनके मां-बाप ने इनका नाम बाजार चंद रखा था। तब उन्हें अपने इस यशस्वी पुत्र के, भविष्य में दुनिया के सर्वशक्तिमान हस्ती बन जाने की वास्तविकता का जरा भी अंदाजा नहीं रहा होगा।

कहा गया है, होनहार बिरावन के होत चीकने पात। बाजार चंद धीरे-धीरे अपनी योग्यता और चतुराई के बल पर विश्व बाजार नामक जंगल का एकछत्र राजा बन गया। अपार धन-शक्ति अर्जित कर वह बड़ा निरंकुश, क्रूर और निर्दयी हो गया। अपनी शारीरिक और मानसिक भूख मिटाने के लिए वह जंगल के सैकड़ों निर्दोष प्राणियों का रोज निर्ममता पूर्वक शिकार करता। जंगल में उसी का कानून चलता। सर्वत्र बाजार चंद का भय व्याप्त हो गया। सारे निरीह और निर्दोष प्राणी त्राहि-त्राहि करने लगे। उन्हें सर्वत्र, हर पल अपने प्राणों का संकट ही नजर आता; अपना अस्तित्व मिटता नजर आता। बाजार चंद की क्रूरता और निर्दयता से बचने का उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। बाजार चंद से ऊपर आखिर और कौन था, जिसके सामने वे अपना दुखड़ा रोते? समस्या विकट थी।

कुछ पढ़े-लिखे प्राणियों ने इस समस्या के निदान के लिए एक समिति बनाई। समिति ने दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों और अन्य विद्वानों की किताबों और उनके सिद्धातों का गहन अध्ययन करना शुरू किया। कई दिनों तक विचार विमर्श चलता रहा। रोज कोई न कोई सैद्धांतिक हल प्रस्तुत किया जाता, पर बाजार चंद की निरंकुशता के आगे सारे विफल हो जाते। उन्हीं में एक बुजुर्ग प्राणी भी था जो कुछ व्यावहारिक और समझदार था। उसने कहा - ’’भाइयों! बचपन में मैंने शेर और खरगोश की एक कहानी सुनी थी। कहानी में हमारी इसी तरह की समस्या और उसके निदान का वर्णन है। शायद वही तरकीब इस समय हमारा काम आ जाय।’’

निराश-हताश प्राणियों और सारे बुद्धिजीवियों को उस बुजुर्ग की बातों में दम दिखाई दिया। मरता, सो क्या न करता?

भयाक्रांत प्रणियों का शिष्टमंडल हाथ जोड़े और सिर झुकाये बाजार चंद से मिला। शेर और खरगोश वाली तरकीब के मुताबिक उसने बाजार चंद से निवेदन किया कि हे महामहीम! आप अपने रोज के भोजन और मनोरंजन के लिए व्यर्थ ही सैकड़ों प्राणियों को मौत के घाट उतारते हैं। उचित होगा कि एक निश्चित संख्या तय कर लिया जाय। सोचिये हुजूर! आखिर हम ही नहीं रहेंगे तो आप शासन किस पर करेंगे?

तरकीब जांची-परखी थी, काम आ गई। प्रतिदिन के शिकार के लिए एक निश्चित संख्या तय कर लिया गया। इस संख्या को नाम दिया गया, नंबर आफ मैक्जिमम रिटेल हण्ट अर्थात् एम. आर. एच. नंबर।

कहते हैं, आज का एम. आ. पी. इसी संख्या का सुधरा और सुसंस्कृत रूप है।
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2: कबीर की बकरी


कबीर की कुटिया एक मंदिर के पास थी। उसने एक बकरी पाल रखी थी। कबीर बकरी को रोज यही उपदेश देता कि वह भूलकर भी, कभी मंदिर के अंदर न जाय।

बकरी को कबीर की बातों पर अचरज होता।

बकरी एक दिन मंदिर का आहाता लांघकर अंदर चली गई। कबीर को अपनी बकरी की इस नादानी पर दुख हुआ। उसकी सलामती को लेकर उसे चिंता होने लगी। पंडों के साथ झगड़े भी हो सकते थे।

शाम हो गई। अंधेरा घिरने लगा। बकरी नहीं लौटी। किसी अनहोनी की आशंका से घबराया हुआ कबीर बकरी को ढ़ूँढने निकला। बकरी मंदिर के आहाते के बाहर खून से लतपथ, मरणासन्न अवस्था में पड़ी मिली। कबीर ने बकरी से पूछा - ’’ऐ बकरी, तू तो मंदिर के भीतर गई थी। तेरी ऐसी हालत किसने की?’’

मरने से पहले बकरी कबीर से मिलकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांग लेना चाहती थी। कबीर की आवाज सुनकर उसे असीम शांति मिली। उसने कहा - ’’कबीर! मुझे क्षमा कर देना। तू ठीक ही कहता था कि मंदिर के अंदर कभी न जाना। मैंने तुम्हारा उपदेश नहीं माना। यह उसी का नतीजा है। वहाँ के साधू के समान दिखने वाले बकरों पर विश्वास करके मैंने बड़ी भूल की।’’
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गुरुवार, 17 जुलाई 2014

आलेख

कथाकार कुबेर की कहानी संग्रह ''उजाले की नीयत"  की कहानी  ’भवान विष्णु का अज्ञातवास’ की समीक्षा करते हुए समीक्षक श्री यशवंत जी ने लिखा है -


प्रथम दो अनुच्छेदों की अज्ञात लफ्फाजी से शुरू होती है ’भगवान विष्णु का अज्ञातवास’। इस प्रारंभिक लफ्फाजी को यदि लफ्फाजी न कहा जाय तो रूढ मिथकों की नयी अर्थव्यंजना के लिए एक और मिथक गढ़कर शायद यह बताने का प्रयास किया गया हो कि मिथकों का निर्माण इसी प्रकार से होता होगा? आज समाज के हर कोने में, कण-कण में भगवान की तरह, अपराजेय योद्धा की उन्न्मादपूर्ण गार्वोक्ति के साथ विराजित भ्रष्टाचार अपनी अमरता का उद्घोष करता प्रतीत हो रहा है। तथाकथित देवों ने अपनी सत्ता और संस्कृति-प्रसार कार्यक्रम के तहत पूर्व स्थापित संस्कृति घारक आदिसमाज को छल-बल से पराजित कर अपने छल और कूटनीति को महिमामंडित और औचित्यपूर्ण सिद्ध करने लिए उसे दैत्य समाज कहकर उसके ऊपर अनेक मिथ्या आरोपों का आरोपण किया। और अब? भ्रष्टचार की बहती ऐश्वर्य गंगा में खुद आकंठ परमानंद भोग रहे इन्हीं देवताओं का यह कृत्य स्वयं उनका पोल खोल रहा है। ऐसे में देवताओं के संरक्षक-पक्षधर तथाकथित शेषशायी भगवान विष्णु के सामने आत्महत्या के अलावा और कोई दूसरा उपाय बचता था क्या? अज्ञात लफ्फाजी की यही व्यंजनार्थक कहानी भ्रष्टाचारियों की तकनीकी खजाना खोलते हुए उसकी यांत्रिकी में वृद्धि भी करती है। व्यवस्था का मौलिक व्यावहारिक-सैद्धंातिक मनोविकार नायक है, अपने खलनायकों को लेकर।

शुक्राचार्य देवताओं की अव्यवस्था से संघर्ष का आह्वान करते हुए अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने अपने विरोधियों और उनके संरक्षक-पक्षधर शेषशायी भगवान विष्णु को पराजित करने के लिए उन्हीं की कूटनीति का सहारा लिया। लोहा लोहे से ही कटता है। अँधेर और अँधेरे का सारा खेल उजाले में खेले जा रहे हैं। नीयत की नियति का कमाल है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षा ही भ्रष्ट प्रसूति की पे्ररणा देती है। दैत्य (घोषित) संस्कृति हमेशा देव संस्कृति के कूटनीति का शिकार रही है। आज दलित नेता पूरे दमखम से वर्तमान सरकार में सलामती पा गए जो कल तक एक नया व्यापार लेकर अडिग थे।

दीवारों के कान भौंरे रूपी विष्णु ने दैत्यकूटनीति को सुन लिया। सुन ही नहीं, गुन भी लिया। कुछ उपाय करते उसकी हवा निकल गई। शेषगादी सहित विष्णु-लक्ष्मी की दशा नीरो की बाँसुरी जैसी हो गई। भ्रष्टवंशी महाभ्रष्टशाली ने तप कर वरदान मांगा - ’’हे श्री विष्णु! यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि यदि कोई मेरे विषय में सोचे या मुझे मारने या मिटाने का विचार भी अपने मन में लाये तो मैं उसके ही अंदर जीवित हो उठूँ।’’ (उजाले की नीयत, पृ. 87)

धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना करने वाले, तथा देवों और दैत्यों के बीच खुद की निरपेक्ष छवि स्थापित करने वाले (दो-दो नावों की एक साथ सवारी करने वाले) विष्णु को अपनी छवि बचाए रखने के लिए महाभ्रष्टशाली को यह वरदान देना ही पड़ा। अब भुगतो। महाभ्रष्टशाली का वध अब कौन करे? उसका वध करने की इच्छामात्र से वरदान के प्रताप से सारे देवताओं के अंदर भ्रष्टाचार जीवित हो गया। देखते-देखते सारे देव-दैत्य भ्रष्टाचारी हो गये। इस भ्रष्टसाम्राज्य से सारे खुश हैं। किसी को कोई शिकायत नहीं। कुछ ऋषि-मुनि टाइप (अपवाद) लोगों को दुनिया से क्या लेना-देना, वे तो मस्त हैं अपनी अलग दुनिया में। पण्डे-पुरोहित तो इस काम में सबसे आगे हैं। अब करके बताओ धर्म की स्थापना? किसको मारोगे, किसको छोड़ोगे विष्णु जी? खुद को ही भ्रष्टाचार से बचाने के लिए आपके पास है कोई रास्ता? तो जाओ अज्ञातवास में या कर लो आत्महत्या।

गरीबों, दीन-दुखियों के दीनानाथ अपने ही वरदान के मार से बचने के लिए गहरी समाधि में लीन हो गये हैं। इधर अफवाह है कि वे आत्महत्या कर चुके हैं। इस अफवाह काी वाजिब वजह भी है - ’’राजनीतिज्ञ जो अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में जी-जान से जुटे हुए हैं, देश की सुरक्षा के विषय में शायद ही कभी सोचते हैं।’’29 गरीबों के कल्याण का सवाल पैदा नहीं होता। राम ने शंबूक वध किया। स्वर्ग-सीढ़ी और सोने में सुगंध पैदा करने की परिकल्पना करने वाले रावण की हत्या कर दी गई; पर रामराज्य आज तक स्थापित  नहीं हो सका। संभावना और इंतिजार बकवास लगता है। विष्णु का अज्ञातवास उचित ही है।

’भगतजी पर भगवद्कृपा’ में ’’भगवान, सो तो ठीक है, पर आपके प्रगट होने का समाचार सुनकर पहले तो लोग मुझे ढोंगी और धोखेबाज कहेंगे। हो सकता है, धोखेबाजी और लोगों की धार्मिक भावना को भड़काने और उनकी आस्था को आहत करने के आरोप में पुलिस मुझे हवालात में डाल दे। और यदि लोगों को विश्वास हो गया तो और भी मुसीबत है। भक्तों का यहाँ हुजूम लग जायेगा। फिर तो मेरा घर मेरा नहीं रह जायेगा। राजनीति भी हो सकती है। विरोधी दल द्वारा आंदोलन होने की संभावना भी बनती है। लिहाजा हमारी सरकार मेरे इस छोटे से घर को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करके मुझे बेघर कर देगी। फिर मैं अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा?’’ (उजाले की नीयत, पृ. 95) 
’भगवान विष्णु का अज्ञातवास’ और ’भगतजी पर भगवद्कृपा’ दोनों ही कहानियों में भ्रष्टाचार का शिष्टाचार निभाने का जनता, देवता, अवतारों और भक्तों में गुत्थमगुत्था है जैसे भरतीय जाति बिरादरी की है। ’’गरीब लोग भी मौका मिलतेे ही छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते।’’(उजाले की नीयत, पृ. 87) इसी कारण अवतार, भगवान, अंतरध्यान की कल्पना यहाँ उपस्थित की गई है। ’’भगत जी, तुम कहते हो तो चला जाता हूँ। वैसे इतनी जल्दी जाने का मेरा कोई मूड नहीं है। फिर आऊँगा।’’(उजाले की नीयत, पृ. 87)

हाल बीमारी चोखा काम,
चमत्कारियों पर नहीं लगाम।
सरपट भागो जी भगवान,
नाम जपो-तपोधारी में मानसिक गुलाम।
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बुधवार, 2 जुलाई 2014

कविता

अमीर खुशरो के दो लोकप्रिय गीत (अंतरजाल से साभार)

अमीर खुशरो को हिंदवी का पहला शायर माना जाता है। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अफगानी पिता एवं भारतीय माता के पुत्र खुशरो एक सूफी कवि के रूप में जाने जाते हैं। भारतीय संगीत के विकास और खास कर भारत में सूफी संगीत के विकास में उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। कहा जाता है कि तबले का अविष्‍कार उन्‍होंने ही किया था।

1
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ

यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
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2
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

प्रेम भटी का मदवा पिलाइके
मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
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सोमवार, 30 जून 2014

आलेख


आलेख

इतिहास में रद्दोबदल की कोशिशें - मोहन गुरुस्वामी

(नई दुनिया, 30 जून 2014, से साभार)

.... चार्ल्स एलेन अपनी किताब - ’अशोका: द सर्च फार इण्डियाज लास्ट एम्परर’ में बताते हैं कि उन्हें किस तरह से भारत के इस महानतम् सम्राट और उनके जीवन से जुड़ी नटकीय घटनाओं के बारे में मालूमात हासिल करने के लिए इतिहास में झांक कर पड़ताल करना पड़ी थी। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जो सम्राट अशोक आज भारत की पहचान के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, मात्र दो सदी पूर्व तक हम उन्हें पूरी तरह से भुला चुके थे? हमें जेम्स प्रिंसेप का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता पाई और हमें अशोक से फिर से परिचित कराया। ....
...... हावर्ड मेडिकल स्कूल में जेनेटिक्स के प्राध्यापक डेविड रीच हाल ही में 25 विभिन्न भारतीय जनसमूहों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि इन सभी समूहों में दो विभिन्न समूहों के आनुवांशिक मिश्रण के साक्ष्य पाये गये हैं। ये दो समूह - एनसेस्ट्रल नार्थ इण्डियन्स (ए. एन. आई.) और एनसेस्ट्रल साऊथ इण्डियन्स (ए. एस. आई.)  हैं। ए. एन. आई. का नाता मध्य और मध्य पूर्व एशिया, कॉकेशिया, और यूरोपियन समुदायों से रहा था तो ए. एस. आई. मुख्यतः भारतीय उपमहाद्वीप के रहवासी थे। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन दोनों के बीच मेलजोल की शुरुआत 4200 साल पहले हुई थी। तब तक सिंधु घाटी सभ्यता का पतन शुरू हो चुका था। ....
..... विमर्श का विषय यह होना चाहिए कि इतिहास किस तरह का हो? जाहिर है तथ्यों को नहीं बदला जा सकता। आर्यों और द्रविड़ों दोनो को ही भारत का मूल निवासी बताया जाता है। लेकिन बलूचिस्तान के चंद कबायलियों द्वारा बोली जाने वाली हुब्रई भाषा के बारे में क्या, जिसे भाषाशास्त्रियों द्वारा द्रविड़ भाषा बताया जाता है? दुनिया भर के भाषाशास्त्रियों के इस निष्कर्ष के बारे में क्या कि सभी आधुनिक इण्डो-यूरोपियन भाषाएँ नोस्ट्रेटिक नामक एक ही पुराभाषा से उपजी हैं, जिसका उद्गम मध्य उशिया में हुआ था? ....
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रविवार, 22 जून 2014

समीक्षा

संस्कारधानी के उभरते हुए समीक्षक.आलोचक श्री यशवंत मेश्राम ने कुबेर की 2003 में प्रकाशित काव्य संग्रह "भूखमापी यंत्र"  की समीक्षा की है। प्रस्तुत है एक अंश -

जब करोड़ों हाथ बेरोजगार हों तो मशीनों की दानवीय भुजाएँ क्यों? मशीनों की दानवीय भुजाओं से आने वाली तथाकथित बेहतरी आखिर किसके लिए होगी? यदि यही ग्लोबलाइजेशन है तो ग्लोबलाइजेशन की इस दुनिया में करोड़ों बेरोजगार हाथ इसमें दब क्यों रहे हैं? पर संभावनाएँ हैं, मानवीय संवेदनाओं की संभावनाएँ; और यही संभावनाएँ आशा और आस्था के आधार हैं।
कुबेर जी की कविताएँ बंद  कमरों में सेमीनार की कविताएँ नहीं है। ये खुले आसमान के नीचे पावस की बूँदों के संग घुलकर सतरंगी इन्द्रधनुषीय संरचना बनाती हुई रचनाएँ हैं। इनमें आस्था और आशाएँ हैं तो कमजोरियों और नादानियों का शव परीक्षण भी है। चेतावनियाँ भी है, आत्म-प्रेक्षण भी हैं -

अब हम एकदम आधुनिक हो गए हैं
आधुनिकता की सीमा लांघ
उŸार-आधुनिक हो गए हैं।

अब हम न सिर्फ उस डाल को ही काँटते हैं
जिस पर बैठे होते हैं
बल्कि उस रास्ते गढ्ढे भी खोदते हैं
जिससे हम रोज गुजर रहे होते हैं।

पड़ोसियों के घर के ही सामने नहीं
अपने घर के सामने भी खंदक खोदते हैं
बंदरों के हाथों उस्तरा सौंपते हैं।

कानों को नहीं
अब अँधों को राजा बनाते हैं
सामने वाले की अंधानुकरण करते हुए
हम भी अपने सारे कपड़े उतारते हैं। (पृ 73)

शुक्रवार, 13 जून 2014

आलेख

कबीर  बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि हैं

 कबीर विचार मंच राजनांदगाँव द्वारा ठा. प्यारेलाल सिंह नगर पालिक उच्चतर माध्यमिक शाला राजनांदगाँव में  आयोजि कबीर प्राकट्य दिवस (13 जून 2014)के अवसर पर व्यक्त विचार


अदरणीय सज्जनों,

आज इस विचार मंच पर कबीर और उसके कृतित्व तथा, उसके व्यक्तित्व पर चर्चाएँ हो रही हैं। एक विद्वान ने ऐसे ही प्रसंग पर कहा है - ’’आपने छोटे छोटे दीयों से कहा है, सूरज के विषय में लिखने के लिये। आपने नन्हीं-नन्हीं बूंदों से कहा है, सागर के विषय में लिखने के लिये। क्या ये संभव है?’’ मेरा भी यही मानना है, परंतु कुछ नहीं कहने या नहीं लिखने से, कुछ कहना या कुछ लिखना उचित ही होगा। उपस्थित समस्त श्रोताओं और वक्ताओं को मैं सादर नमन करता हूँ।

आजकल ’संत समागम’ और ’सतसंग’ जैसे आयोजनों की संख्या पहले की तुलना में बहुत बढ़ गये हैं। श्रोता भी इसी अनुपात में बढ़े हैं। ऐसे सारे आयोजनों का लक्ष्य सद्वृत्तियों का विकास और दुष्प्रवृत्तियों का शमन करना होता है। इसके बावजूद समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं।

ऐसे आयोजनों में प्रवचनकर्ता शब्दों की व्याख्या करने के लिए पूरी तरह से स्वच्छन्द होते हैं। ऐसे ही एक आयोजन की बात है, - प्रवचनकर्ता ने ’कपि श्रेष्ठ हनुमान जी प्रभु राम के भक्तों में सबसे ऊँचे हैं।’ इस वाक्य के प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अक्षर की विशद् व्याख्या करते हुए कह रहे थे - ’कपि’! के ’क’ माने कष्ट, ’प’ माने पाप और ’इ’ माने इति; अर्थात मनुष्य के सारे कष्टों और पापों का नाश करने वाला।’ पंडाल बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा। मुझे लगा, पंडाल का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा है।

’भक्त’ शब्द को अनावृत्त करते हुए उन्होंने कहा - ’भ’ माने भागने वाला, ’क’ माने कमर कसकर और ’त’ माने पूरी ताकत से। अर्थात भगवान के कामों में कमर कसकर पूरी ताकत से भागने वाला।’ पंडाल पुनः बजरंगबली के जयकारी से गूंज उठा।

मेरा मानना है, शब्दों के इस तरह की व्याख्या  से न तो सद्वृत्तियों का विकास होगा और न ही दुष्प्रवृत्तियों का शमन। मेरा अनुभव कहता है, इस तरह के आयोजनों का मूल और केन्द्रीय लक्ष्य मनुष्य को संत और सतसंगी बनाना होता है, या सारांश में कहें तो मनुष्य को तथाकथित धार्मिक बनाना होता है। और भी बहुत सारे आयोजन होते हैं जहाँ मनुष्य को तथाकथित रूप से धार्मिक बनाए जाने के अनेकानेक प्रयास होते हैं, बनाये जाते हैं। हिन्दू बनाए जाते हैं, मुसलमान बनाए जाते हैं या ऐसे ही कुछ और हैं, जो बनाए जाते हैं। ऐसे ही कुछ और बनाए जाने के लिए हमारे पास विकल्पों की कोई कमी नहीं है। मैंने ऐसे सारे विकल्पों की पड़ताल की है, और दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन सभी विकल्पों में मनुष्य बनने-बनाने का विकल्प मुझे कहीं दिखाई नहीं देता है। हम भी ऐसे आयोजनों के लिए जब घर से निकलते हैं तो पूर्ण संकल्प के साथ निकलते हैं कि आज वहाँ जाकर हमें कुछ और बनना है। संकल्प का यह क्षण बड़ा क्रांतिक होता है। क्योंकि जिस क्षण कुछ और बनने का हम संकल्प कर रहे होते है, मनुष्य के अलावा भी कुछ और बनने के लिये हम ठान चुके होते हैं, उसी क्षण हम अपनी नैसर्गिक पहचान को, ईश्वर प्रदत्त पहचान को त्याग रहे होते हैं, ईश्वरीय विधान के विपरीत जा रहे होते हैं। उस क्षण हम अपनी विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, अपना विवेक, प्रेम और करुणा जैसी तमाम अनमोल मानवीय अच्छाइयों को घर की दीवालों में लगी खूँटियों पर लटका रहे होते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात है, इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी ऐसे आयोजनों में आकर जब हम बैठते हैं, हम विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की साक्षात मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। ध्यान रहे, मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। मैं बहुत विनम्रता पूर्वक स्पष्ट कर देना चाहता हू कि मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई लेनादेन नहीं है। मुझे ऐसे मूर्तियों से कोई संवाद नहीं करना है, क्योंकि कोई अगर चाहे भी तो मूर्तियों से संवाद संभव ही नहीं है। संवाद केवल मनुष्यों के साथ ही संभव है। मुझे ऐसे आयोजनों की चाह होती है जहाँ जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का उद्यम होता हो, जहाँ बैठे तमाम लोगों के अंदर विनम्रता, सहिष्णुता, उदारता, विवेक, प्रेम और करुणा की नैसर्गिक अविरल धारा प्रवाहित हो रही हो और जिससे संवाद किया जा सके। कबीर ने अपने जीवन में ऐसा ही उद्यम किया था। उन्होंने जन्मजात मनुष्य को कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया था, इसीलिए मुझे कबीर पर श्रद्धा है और मैं उसका अनुयायी हूँ।

अदरणीय सज्जनों, तथागत ने अपने भिक्खुओं से कहा था -
’’कुल्लुपमं देसेस्सामि वो भिक्खवे,
 धम्मं तरणत्थाय नो गहणत्थाय।’’
(’’हे भिक्खुओं! यह धर्म छोटी सी नाव के समान उतरने के लिए है। पार उतर जाने के बाद सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं है।’’)  (मज्झिम निकाय)

मैं बहुत साफ शब्दों में स्वीकार करता हूँ कि मैं तथागत के इसी उपदेश का पालन करता हँू और उन सभी लोगों के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अप्रासंगिक हूँ जो पार उतरने के बाद भी धर्म को सिर पर ढोते हुए चलते हैं। पेशे से मैं शिक्षक हूँ पर साहित्य का विद्यार्थी हूँ, जाहिर है, मैं साहित्य से बंबंधित बातें ही करूँगा। मनुष्य, मनुष्यता और समाज के हित की बातें ही करूँगा। कबीर के इस मंच पर मुझे यही बातें प्रासंगिक लगती हैं। ये बातें मुझे इसलिए भी प्रासंगिक लगती हैं क्योंकि कबीर न तो घोषित संत थे और न ही घोषित धर्माचार्य। कबीर धर्म को ढोने वालों में से नहीं थे; कबीर धर्म को जीने वालों में से थे। कबीर जन्म से, कर्म से, अंदर और बाहर से, हर तरह से केवल और केवल मनुष्य थे। वे मानवता और मानवकल्याण की बातें करते थे। कबीर ने जन्मजात मनुष्य को संत या प्रचलित अर्थों में धार्मिक बनाने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने उसे केवल कर्मजात मनुष्य बनाने का प्रयास किया है। कबीर मनुष्य और समाज की तमाम तरह की बुराइयों को साफ करना चाहते थे। धर्म के नाम पर हो रहे तमाम तरह के पाखंण्डों और कर्मकाण्डों को, समाज में फैली हुई रूढ़ियों को समाप्त कर वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहाँ प्रत्येक मनुष्य केवल मनुष्य हो। कबीर मानव और मानव समाज की समीक्षा करने वाले अद्वितीय, सर्वयुगीन, महान् समीक्षक-साहित्यकार थे, सत्य के प्रवक्ता थे। वे महामानव थे।

आदरणीय सज्जनों, अभी मैंने संत, सतसंगी और साहित्यकार जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों के बारे में चर्चा भी करूँगा। शब्द की शक्तियाँ और सामथ्र्य बहुत सीमित होते हैं, कई ऐसे क्षण आते हैं जिन्हें व्यक्त करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते हैं; या फिर जो शब्द हमारे पास होते हैं वो पर्याप्त नहीं होते हैं। शब्द की प्रकृति यायावरी होती है। यायावरों के साथ देश और समाज की सीमा को पार करते हुए ये कहीं भी पहुँच जाते हैं। वहाँ की भाषा में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि उसकी पहचान कर पाना कठिन हो जाता है। ’राशन’ शब्द जनमानस में इस कदर रच-बस गया है कि यदि मैं कहूँ कि यह अंग्रेजी भाषा का शब्द है तो आप मेरा विरोध करेंगे। ’कबीर’ शब्द अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - महान। ’साहब’ शब्द भी अरबी से आया है जिसका अर्थ होता है - ’ईश्वर’। कबीर की महानता कभी अस्वीकार्य नहीं हो सकती; परंतु हमारी प्रवृत्ति है, जिस पर हम श्रद्धा करते हैं, जिसकी पर हमें आस्था होती है, उसे हम ईश्वर मान लेते हैं। जिस महामानव ने ताउम्र समाज को मानवता का पाठ पढ़या उसे हमने मानव मानने से इन्कार कर दिया। सदियों-सदियों के बाद ही कोई मनुष्य, मनुष्य बन पाता है। सदियों-सदियों के बाद कबीर जैसा कोई महामानव पैदा होता है। हमने एक महामानव को मानव मानने से इन्कार कर दिया, उसे हमने ईश्वर बना दिया। कठिनाइयाँ यहीं से शुरू होती हैं, शब्दों के द्वारा मनुष्य की तो व्याख्या की जा सकती, परंतु ईश्वर की नहीं। शब्दों के द्वारा मनुष्य के बारे जानकारियाँ और सूचनाएँ (प्रचलित अर्थों में ज्ञान) बटोरी जा सकती हैं, परंतु इससे हम ईश्वर की व्याख्या कैसे करें, वह तो शब्दातीत है, शब्द की सामथ्र्य से परे है। एक महामानव के रूप में तो कबीर पर कुछ कहा भी जा सकता है, कबीर को समझा भी जा सकता है; परंतु साहब कबीर को जानने के लिए शब्दों का सहारा लेना मूर्खता और बेईमानी के सिवा और कुछ भी नहीं है। ईश्वर को शब्दों के द्वारा नहीं, अनुभूतियों के द्वारा ही जाना औा समझा जा सकता है। कबीर को जानने के लिए यदि हम शब्दों का सहारा लेते हैं तो उसे हमें मनुष्य मानना पड़ेगा, और यदि कबीर ईश्वर है (जैसा कि हमारी मान्यता है) तो हमें शब्दों की सारी कसरतों- मशक्कतों को छोड़कर अपने अंतःकरण के कण-कण को प्रेमरस से सिक्त करना पड़ेंगा। ’मैं’ को भूलकर, छोड़कर, प्रेम की गली से गुजरान पड़ेगा। तभी हम साहब कबीर की अनुभूति कर सकते हैं। कबीर के ही शब्दों में -
’जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।’

ओशो साहित्य में एक बोध कथा मैंने बहुत बार पढ़ी है। नमक के दो पुतले थे। एक पुतला धर्म और अध्यात्म का बड़ा ज्ञाता था। वह बहुत चालाक और तार्किक था। वह तर्कों के द्वारा अपनी बातें मनवा लेता था। पहले पुतले के इन्हीं गुणों के कारण दूसरा पुतला उस पर श्रद्धा करने लगा था। समुद्र के बारे में जानने की उनकी प्रबल इच्छाएँ थी। अक्सर वे दोनों समुद्र किनारे बैठकर समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई के बारे में चर्चा किया करते थे। समुद्र की गहराई और विशालता को नापने की तरकीबें सोचा करते थे। एक दिन दोनों ने तय किया कि इसके लिए तो हमें समुद्र में ही उतरना पड़ेगा। पहले ने, जो तार्किक था, दूसरे से कहा कि समुद्र में उतरने के बड़े खतरे हो सकते हैं। हममें से किसी एक को ही समुद्र में उतरना चाहिए। आसन्न खतरे के समय एक को किनारे पर ही मदद के लिय तैयार रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि समुद्र में पहले तुम उतरो। तार्किक व्यक्ति के अंदर संकल्प शक्ति का अभाव होता है क्येंकि वह हमेशा संदेह और असमंजस से भरा होता है। समुद्र की विशालता, विराटता और गहराई को जानने की, दूसरे पुतले का संकल्प पक्का था। उसने उसी क्षण समुद्र में छलांग लगा दिया। पहला पुतला उसके लौटकर आने की प्रतीक्षा करता रहा पर वह लौटकर नहीं आया। वह लौटकर आता भी कैसे? क्योंकि छलांग लगाते ही वह तो समुद्र के साथ वह एकाकार हो गया था, स्वयं समुद्र हो गया था।

कबीर को जानने वाला कबीर में ही विलीन हो जाता है। कबीर को जानने के लिए हमें कबीर में ही विलीन होना पड़ेगा। परन्तु हम सब तो किनारे बैठे हुए पुतले है। कबीर के बारे में केवल शब्दों का आडंबर ही रच सकते हैं।
आदरणीय सज्जनों, पिछले नवंबर या दिसंबर की बात है। हमारे एक रिश्तेदार के घर बहुत बड़ा धार्मिक आयोजन हुआ था। कथा वाचन के लिए बाहर के किसी प्रसिद्ध मठ से बहुत बड़े आचार्य को बुलाया गया था। साथ में उनके साजिंदे भी थे। गीत-भजन और संगीत में सभी दक्ष थे; भक्तिरस और कथारस में खुद भी डूब जाते और श्रोताओं को भी बहा ले जाते थे। रिश्तेदारी निभाने के लिए एक दिन मैं भी वहाँ उपस्थित हुआ था। आचार्य जी की भाषा बहुत मीठी थी। उन्होंने संत की मजेदार परिभाषा बताई; कहा कि - ’संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। मीठा खाने का मतलब हैं मीठा सुनना।’

पूरा पंडाल तालियों की ताल से भर गया था।

मीठा बोलने वालों के संबंध में मेरा अनुभव अलग है। स्कूल के पाठ्यक्रम में ’परीक्षा’ नामक एक पाठ है। इसके लेखक ने कहा हैं कि - ’कपटी लोग बहुधा मिष्ठभाषी होते हैं।’ मेरा अनुभव भी यही कहता है। आचार्य जी की बातेें मुझे अटपटी लगीं। परंतु वहाँ पर, जहाँ निन्यान्बे लोग सहमत थे, सौवाँ, अर्थात मैं अकेला विरोध करने की स्थिति में नहीं था। कथासत्र की समाप्ति के बाद उचित अवसर मिलने पर मैंने आचार्य जी से कहा - ’’आचार्य जी, आपने संत की बहुत बढ़िया परिभाषा बताई। संत वह, जो सदा मीठा ही खाये है और मीठा ही बोले। भाषण करते वक्त हमारे देश के तमाम नेतागण भी बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं; बेचारे, सभी संत ही तो होते हैं।’’

जहाँ तक मुझे जानकारी है, कबीर की मान्यता सत्य और कड़वी बातों के लिए है। संत की कड़ुवी बातें भी हितकर होती। संत समाज के चिकित्सक होते हैं। कबीर समाज के चिकित्सक थे, वे समाज की तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करना चाहते थे।

 डाॅ. सी. एल. प्रभात एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने एक लेख में आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण के राम-भरत मिलाप प्रसंग का उल्लेख किया है। आदिकवि बाल्मीकि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ’रामायण’ में जावालि जैसे तेजस्वी पात्र का सृजन किया है। राम को वनवास से लौटा लाने के लिए भरत के साथ वे भी गये थे। जावालि ने राम से कहा - ’’राम, राजा को जहाँ जाना था, चले गये। तुम चलो और राज्य संभालो। श्राद्ध आदि व्यर्थ है, अन्न का अपव्यय है। देखो, मरा हुआ व्यक्ति क्या खाता है? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे व्यक्ति के शरीर में चला जाता हो तो, परदेश गये व्यक्ति के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए। उन्हें मार्ग के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होगी।
(यदि भूमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति,
तद्यात प्रसवतां श्राद्ध न तत् पश्यनं भवतः।
अयोध्याकाण्ड 108/15)

इसी लेख में डाॅ. प्रभात ने केशकम्बली और सरहपाद (सरहपा) की भी चर्चा की है। दोनों ही भिक्खु थे। केशकम्बली की भाषा पालि थी। सरहपाद अपभं्रश काल से संबंधित हैं। यज्ञ में बलि दिये गये पशु की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसा दावा करने वाले ब्रह्मर्षियों को लक्ष्य करते हुए केशकम्बली पूछता है - ’’अग्निष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग चला जाता है, तो यजमान अपने बाप का वध क्यों नहीं करता?’’

इसी तरह सरहपाद कहते हैं -
जइ णग्गाविअ होई, मुत्ति ता सुणह सिआलज।
लोभ उपाडण अत्थि सिद्धि, त जुवइ-णिअम्बह।
पिच्छी गहणे दिट्ठ भोक्ख, त मोरह चमरह।
उंछ-होअणें होई जाण, ता करिह तुरंगह।
’’यदि नग्न रहने से मुक्ति हो जाय, तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जायेंगे। मोरपंख धारण करने से मुक्ति यदि संभव है तो मोर और चँवर भी मुक्त हो जायेंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाय तो कांटे और तुरंग भी ज्ञानी हो जायेंगे।’’

आदरणीय  सज्जनों, कबीर इन्हीं बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद की परंपरा के साधक कवि है। आज हम न तो ेबाल्मिीकि के रामायण के बारे में ही जानते हैं और न ही केशकम्बली और सरहपाद को ही जानते हैं। कारण सिर्फ एक ही है, शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वाले परजीवी शोषकों ने बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचारों की हत्या कर दी है, क्योंकि इनके विचार कर्मकाण्डियों के शोषण कर्म में बाधक थे। बाल्मीकि, केशकम्बली और सरहपाद के विचार जनता को मुक्ति की ओर ले जाने वाले विचार थे। शास्त्र, धर्म और कर्मकाण्ड को हथियार बनाकर जनता का शोषण करने वालों ने कबीर के  विचारों की हत्या करने के भी बहुतेरे प्रयास किये हैं; अब भी कर रहे हैं। परन्तु ऐसा कर पाना क्या संभव हो सकेगा। अल्लामा इकबाल के शब्दों में - ’’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा।’’

आदरणीय सज्जनों, कोई धर्म बुरा नहीं होता, पर यह भी सत्य है कि दुनिया में अधिकांश उपद्रव धर्म के नाम पर ही हुए  हैं, कयोंकि इसी से कर्मकाण्यिों का हित सधता है। जनता को सम्मोहित करके उसे शोषित करने में उन्हें सुविधा हो जाती है। कबीर ने उम्रभर धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्डों और कर्मकाण्डों का विरोध किया। पाखण्डियों और कर्मकाण्डियों को लताड़ा है। आज इस मंच से मैं समस्त कबीर पंथियों से पूछना चाहता हूँ कि धार्मिक कर्मकाण्डों और धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखण्डों से क्या हम मुक्त हो सके हैं?

आदरणीय सज्जनों, आजकल धर्म, सम्प्रदाय और पंथों की कई नई धाराएँ प्रवाहित होने लगी है। संयोगवश एक दिन ऐसे ही किसी धारा से जुड़े हुए एक साधक की बैठक में मेरा जाना हो गया। साधक महोदय प्रभुनाम की प्याला पीकर मदमस्त बैठे थे। वहाँ की मौन और शांत वातावरण मुझे अच्छा लग रहा था। तभी बिना किसी भूमिका के साधक महोदय ने मुझसे प्रश्न कर दिया - ’’मृत्यु क्या है? इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?’’

इस प्रश्न से मेरा चैकना स्वभाविक था। परन्तु संयत होते हुए मैंने कहा - ’’मृत्यु क्या हैै, मैं नहीं जानता, इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि आज तक मैं कभी मरा नहीं हूँ। जहाँ तक मुत्यु के संबंध में मेरे विचार की बात है, बड़ा स्पष्ट है, इस दुनिया में मृत्यु से अधिक अटल सत्य मुझे और कुछ नजर नहीं आता। यद्यपि मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है, फिर भी सुनी सुनाई और पढ़ी हुई जानकारी के आधार पर इस विषय पर मैं घंटों भाषण बाजी कर सकता हूँ। हम दोनों इस पर घंटों बहस कर सकते हैं। परन्तु बाहरी जानकारी के आधार पर स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करते हुए मुझे शर्म आती है। इस काम में मुझे महाधूर्तता, चालाकी, बेईमानी और पाखण्ड की गंध आती है। मुझे क्षमा करें।’’

आदरणीय सज्जनों, जन्म से मृत्यु तक की अवधि जीवन है। जीवन का अनुभव हमें होना चाहिये। जीवन का ज्ञान हमें होना चाहिए। जीवन के बारे मंे हमें बहस और चर्चाएँ करनी चाहिए। जीवन की शुरूआत जीवन से ही होती है और मरने से पहले हम अपने पीछे जीवन की पौध छोड़ जाते हैं। जीवन सृष्टि के विकासक्रम की एक कड़ी है। इसी विकासक्रम  के हम भी एक कड़ी हैं। दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अपने हिस्से की इस कड़ी को हमने कितना मजबूत और कितना सुंदर बना पाया है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। कबीर ने जीवन भर इसी की चर्चा की है। कबीर ने जीवन भर जीवन की ही चर्चा की है, कबीर ने हमें जीने और जीवन को सुंदर बनाने के सुंदर सूत्र दिए हैं। कबीर मृत्यु का भय दिखाने वालों में से नहीं थे, वह तो जीवन के आनंद की सहायता से मृत्यु पर विजय पाने वालों में से थे। वे मृत्युंजय थे। तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना, जान की बाजी लगाना है। परन्तु कबीर ने ऐसा कर दिखाया। एक मृत्युंजय ही ऐसा कर सकता है। कबीर मृत्यंुजय थे।

किसी कवि की एक पंक्ति की बड़ी अद्भुत कविता है जो इस प्रकार है, -

’’जिंदा आदमी सोचता है, बोलता है;
नहीं सोचने,
नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’’

यह कविता अद्भुत इसलिए है कि हजारों-हजारों पृष्ठ के अनगिनत ग्रंथों ने जिस जीवन और मृत्यु के रहस्यों को आज तक उद्धाटित और परिभाषित नहीं कर पाया, उसी जीवन और मृत्यु के रहस्यों को इस एक पंक्ति की कविता ने बहुत सरल शब्दों में व्यक्त कर दिया है। ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि इस कविता में कवि का अनुभव छिपा हुआ है। जो अनुभव से आता है वही ज्ञान है।
कबीर परम ज्ञानी थे।

मैं आपका आभारी हूँ, आपने मेरी बाते सुनी। धन्यवाद।
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कुबेर

मंगलवार, 10 जून 2014

आलेख

लोक साहित्य में लोक प्रतिरोध के स्वर

यह लोककथा छत्तीसगढ़ में कही जाती है।

एक राजा था। (लोक में बड़ा जमीदार भी राजा ही होता है।) नौकरों या सेवकों की नियुक्ति वह अपने शर्तों पर करता था। उसी राज्य में दो भाई रहते थे। वे बहुत गरीब थे। बड़ा भाई बहुत भोला और सीधा-सादा था। लोग उसे सिधवा कहते थे। छोटा भाई बुद्धिमान और चतुर था। वह खड़बाज के नाम से प्रसिद्ध था। बड़ा भाई सिधवा राजा के यहाँ नौकर हो गया। नियुक्ति के समय राजा की शर्तों में ये शर्तें भी थी -

’सुबह-शाम केवल एक-एक पत्तल में, जो पाँच पत्तों का बना होगा, भोजन दिया जायगा। भोजन की मात्रा उतनी ही होगी जितना पत्तल में आ सके। शर्तों का उल्लंघन करने पर या नियत अवधि से पूर्व नौकरी छोड़ने पर चेथी का मांस देना होगा।’

लोक कथाकार कहते हैं - सिधवा को भोजन परोसने के लिए राजा बबूल की पत्तियों से पत्तल बनवाता था। काम बेहिसाब लिया जाता था। जल्द ही बड़ा भाई सिधवा निर्बल और बीमार हो गया। जान है तो जहान है; उसने चेथी का मांस देकर अपनी जान बचई।

सिधवा किसी तरह घर लौटा। खड़बाज ने बड़े भाई की दुर्गति देखी। राजा के इस अन्याय, छल और धूर्ततापूर्ण व्यवहार के कारण उसका खून खौलने लगा। उसके दिल में प्रतिशोध की आग दहकने लगी। उसे जल्द ही मौका भी मिल गया, जब राजा ने मुनादी कराई कि महल के लिए एक नौकर की सख्त जरूरत है।

राजा ने फिर वही शर्तें रखी जो सिधवा के समय रखी गई थी। खड़बाज ने कहा - महाराज! मेरी भी शर्त है। पत्तल मैंे अपनी इच्छानुसार बनाऊँगा और भोजन मेरी रूचि का होना चाहिए। राजा को नौकर की सख्त जरूरत थी। उसने शर्तें मान ली।

 भोजन के लिए खड़बाज ने पुराइन के पाँच पत्तों को जोड़कर एक पत्तल बनाया। पुराइन का पत्ता अपने आप में ही एक पत्तल के आकार का होता है। पाँच पत्तों को जोड़कर बनाये गए उस पत्तल का आकार बहुत बड़ा था। उसने पत्तल भरकर भोजन लिया। जितना खा सकता था खाया, बाकी को जनवरों के आगे डाल दिया। इससे किसी शर्त का उल्लंघन नहीं होता था, अतः राजा इसका विरोध नहीं कर सका। शर्त में काम के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया था; अतः खड़बाज हर काम अपनी मर्जी से करता था। भरपेट खाता और चैन की नींद सोता था। खड़बाज की हरकतों से राजा को कई तरह से नुकसान होने लगी। राजा अब और अधिक नुकसान सहने की स्थिति में नहीं था लेकिन वह कर भी क्या सकता था? खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब अपने चेथी का मांस देना था।

खड़बाज की हरकतों से राजा को अपार जन-धन की हानि होती है। उसकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान धूमिल होता है। पर खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब था अपने चेथी का मांस देना। राजा के लिए ऐसा करना संभव न था।

राजा अब खड़बाज के नाम से थर्राने लगा था। अंततः वह रानी सहित गुप्त रूप से अपनी बेटी के घर पलायन करने की योजना बनाता है। खड़बाज को राजा की योजना का पता चल जाता है और वह उस झांपी के अंदर छिपकर बैठ जाता है जिसे रानी ने यात्रा के लिए जरूरी सामानों के साथ तैयार किया था।

बेटी के घर पहुँचकर भी खड़बाज की हरकते जारी रहती हैं। अंत में बेटी की समझाइश पर राजा अपने चेथी का मांस देकर खड़बाज से छुटकारा पाता है।
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इस लोककथा में राजा को सताने और उसका नुकसान करने के लिए खड़बाज कई तरह के मनोरंजक और हास्यास्पद काम करताहै। बहुत सी हरकतें जुगुप्सा पैदा करने वाली भी होती है। उनकी हरकतों से खूब हास्य पैदा होता है। राजा की बेबसता और उनका मानमर्दन होने से श्रोताओं की आत्मतुष्टि होती है। उनका खूब मनोरंजन होता है। खड़बाज श्रोताओं की कल्पना का नायक बन जाता है। लोक कथाकार अपनी कल्पना से इन हरकतों का सृजन करता है। इस समय खड़बाज स्वयं लोक कथाकार के अंदर साकार हो उठता है और दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है।

यह लोककथा केवल हास्य और मनोरंजन के लिए ही नहीं रची गई होगी। इसकी रचना शोषण और अपमान से ग्रस्त किसी खड़बाज ने ही शोषकों के विरूद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया होगा। समाज के ऐसे सारे खड़बाज अपनी परिथितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होते हैं। विकल्पहीन खड़बाजों के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वे इसी का आश्रय लेते है। यही लोक का प्रतिरोध है, लोक प्रतिरोध के स्वर हैं। लोक प्रतिरोध के लिए लोकसाहित्य में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककथाएँ (लोकसाहित्य) शोषकों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककथाओं का श्रवण अथवा कथन करते समय स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। ऐसे लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए इसमें निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। यही लोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तोैर पर ऐसे लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, असकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार नहीं तो और कया है? जरूर इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव नहीं है।

आदरणीय विज्ञजन! इसी तरह का कोई और लोक साहित्य आपके पास, आपके आस-पास भी उपलब्ध हागा। साकेत साहित्य परिषद् सुरगी आपसे विनम्र अनुरोध करता है कि इसका संकलन कर आप हमें निम्न पते पर प्रेषित करें। इसका प्रकाशन ’साकेत स्मारिका 2015’ (संभवतः फरवरी-मार्च 2015) में किया जायेगा।

रचना इस पते पर भेजें -  kubersinghsahu@gmail.com

’साकेत स्मारिका’ पूर्णतः अव्यवसायिक पत्रिका है अतः इसकी प्रकाशित प्रति के अलावा अन्य पारिश्रमिक देना संभव नहीं होगा।

निवेदक
कुबेर
संरक्षक, साकेत साहित्य परिषद् सुरगी, जिला - राजनांदगाँव.