कथाकार कुबेर की कहानी संग्रह ''उजाले की नीयत" की कहानी ’भवान विष्णु का अज्ञातवास’ की समीक्षा करते हुए समीक्षक श्री यशवंत जी ने लिखा है -
प्रथम दो अनुच्छेदों की अज्ञात लफ्फाजी से शुरू होती है ’भगवान विष्णु का अज्ञातवास’। इस प्रारंभिक लफ्फाजी को यदि लफ्फाजी न कहा जाय तो रूढ मिथकों की नयी अर्थव्यंजना के लिए एक और मिथक गढ़कर शायद यह बताने का प्रयास किया गया हो कि मिथकों का निर्माण इसी प्रकार से होता होगा? आज समाज के हर कोने में, कण-कण में भगवान की तरह, अपराजेय योद्धा की उन्न्मादपूर्ण गार्वोक्ति के साथ विराजित भ्रष्टाचार अपनी अमरता का उद्घोष करता प्रतीत हो रहा है। तथाकथित देवों ने अपनी सत्ता और संस्कृति-प्रसार कार्यक्रम के तहत पूर्व स्थापित संस्कृति घारक आदिसमाज को छल-बल से पराजित कर अपने छल और कूटनीति को महिमामंडित और औचित्यपूर्ण सिद्ध करने लिए उसे दैत्य समाज कहकर उसके ऊपर अनेक मिथ्या आरोपों का आरोपण किया। और अब? भ्रष्टचार की बहती ऐश्वर्य गंगा में खुद आकंठ परमानंद भोग रहे इन्हीं देवताओं का यह कृत्य स्वयं उनका पोल खोल रहा है। ऐसे में देवताओं के संरक्षक-पक्षधर तथाकथित शेषशायी भगवान विष्णु के सामने आत्महत्या के अलावा और कोई दूसरा उपाय बचता था क्या? अज्ञात लफ्फाजी की यही व्यंजनार्थक कहानी भ्रष्टाचारियों की तकनीकी खजाना खोलते हुए उसकी यांत्रिकी में वृद्धि भी करती है। व्यवस्था का मौलिक व्यावहारिक-सैद्धंातिक मनोविकार नायक है, अपने खलनायकों को लेकर।
शुक्राचार्य देवताओं की अव्यवस्था से संघर्ष का आह्वान करते हुए अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने अपने विरोधियों और उनके संरक्षक-पक्षधर शेषशायी भगवान विष्णु को पराजित करने के लिए उन्हीं की कूटनीति का सहारा लिया। लोहा लोहे से ही कटता है। अँधेर और अँधेरे का सारा खेल उजाले में खेले जा रहे हैं। नीयत की नियति का कमाल है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षा ही भ्रष्ट प्रसूति की पे्ररणा देती है। दैत्य (घोषित) संस्कृति हमेशा देव संस्कृति के कूटनीति का शिकार रही है। आज दलित नेता पूरे दमखम से वर्तमान सरकार में सलामती पा गए जो कल तक एक नया व्यापार लेकर अडिग थे।
शुक्राचार्य देवताओं की अव्यवस्था से संघर्ष का आह्वान करते हुए अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने अपने विरोधियों और उनके संरक्षक-पक्षधर शेषशायी भगवान विष्णु को पराजित करने के लिए उन्हीं की कूटनीति का सहारा लिया। लोहा लोहे से ही कटता है। अँधेर और अँधेरे का सारा खेल उजाले में खेले जा रहे हैं। नीयत की नियति का कमाल है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षा ही भ्रष्ट प्रसूति की पे्ररणा देती है। दैत्य (घोषित) संस्कृति हमेशा देव संस्कृति के कूटनीति का शिकार रही है। आज दलित नेता पूरे दमखम से वर्तमान सरकार में सलामती पा गए जो कल तक एक नया व्यापार लेकर अडिग थे।
दीवारों के कान भौंरे रूपी विष्णु ने दैत्यकूटनीति को सुन लिया। सुन ही नहीं, गुन भी लिया। कुछ उपाय करते उसकी हवा निकल गई। शेषगादी सहित विष्णु-लक्ष्मी की दशा नीरो की बाँसुरी जैसी हो गई। भ्रष्टवंशी महाभ्रष्टशाली ने तप कर वरदान मांगा - ’’हे श्री विष्णु! यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि यदि कोई मेरे विषय में सोचे या मुझे मारने या मिटाने का विचार भी अपने मन में लाये तो मैं उसके ही अंदर जीवित हो उठूँ।’’ (उजाले की नीयत, पृ. 87)
धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना करने वाले, तथा देवों और दैत्यों के बीच खुद की निरपेक्ष छवि स्थापित करने वाले (दो-दो नावों की एक साथ सवारी करने वाले) विष्णु को अपनी छवि बचाए रखने के लिए महाभ्रष्टशाली को यह वरदान देना ही पड़ा। अब भुगतो। महाभ्रष्टशाली का वध अब कौन करे? उसका वध करने की इच्छामात्र से वरदान के प्रताप से सारे देवताओं के अंदर भ्रष्टाचार जीवित हो गया। देखते-देखते सारे देव-दैत्य भ्रष्टाचारी हो गये। इस भ्रष्टसाम्राज्य से सारे खुश हैं। किसी को कोई शिकायत नहीं। कुछ ऋषि-मुनि टाइप (अपवाद) लोगों को दुनिया से क्या लेना-देना, वे तो मस्त हैं अपनी अलग दुनिया में। पण्डे-पुरोहित तो इस काम में सबसे आगे हैं। अब करके बताओ धर्म की स्थापना? किसको मारोगे, किसको छोड़ोगे विष्णु जी? खुद को ही भ्रष्टाचार से बचाने के लिए आपके पास है कोई रास्ता? तो जाओ अज्ञातवास में या कर लो आत्महत्या।
गरीबों, दीन-दुखियों के दीनानाथ अपने ही वरदान के मार से बचने के लिए गहरी समाधि में लीन हो गये हैं। इधर अफवाह है कि वे आत्महत्या कर चुके हैं। इस अफवाह काी वाजिब वजह भी है - ’’राजनीतिज्ञ जो अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में जी-जान से जुटे हुए हैं, देश की सुरक्षा के विषय में शायद ही कभी सोचते हैं।’’29 गरीबों के कल्याण का सवाल पैदा नहीं होता। राम ने शंबूक वध किया। स्वर्ग-सीढ़ी और सोने में सुगंध पैदा करने की परिकल्पना करने वाले रावण की हत्या कर दी गई; पर रामराज्य आज तक स्थापित नहीं हो सका। संभावना और इंतिजार बकवास लगता है। विष्णु का अज्ञातवास उचित ही है।
’भगतजी पर भगवद्कृपा’ में ’’भगवान, सो तो ठीक है, पर आपके प्रगट होने का समाचार सुनकर पहले तो लोग मुझे ढोंगी और धोखेबाज कहेंगे। हो सकता है, धोखेबाजी और लोगों की धार्मिक भावना को भड़काने और उनकी आस्था को आहत करने के आरोप में पुलिस मुझे हवालात में डाल दे। और यदि लोगों को विश्वास हो गया तो और भी मुसीबत है। भक्तों का यहाँ हुजूम लग जायेगा। फिर तो मेरा घर मेरा नहीं रह जायेगा। राजनीति भी हो सकती है। विरोधी दल द्वारा आंदोलन होने की संभावना भी बनती है। लिहाजा हमारी सरकार मेरे इस छोटे से घर को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करके मुझे बेघर कर देगी। फिर मैं अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा?’’ (उजाले की नीयत, पृ. 95)
’भगवान विष्णु का अज्ञातवास’ और ’भगतजी पर भगवद्कृपा’ दोनों ही कहानियों में भ्रष्टाचार का शिष्टाचार निभाने का जनता, देवता, अवतारों और भक्तों में गुत्थमगुत्था है जैसे भरतीय जाति बिरादरी की है। ’’गरीब लोग भी मौका मिलतेे ही छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते।’’(उजाले की नीयत, पृ. 87) इसी कारण अवतार, भगवान, अंतरध्यान की कल्पना यहाँ उपस्थित की गई है। ’’भगत जी, तुम कहते हो तो चला जाता हूँ। वैसे इतनी जल्दी जाने का मेरा कोई मूड नहीं है। फिर आऊँगा।’’(उजाले की नीयत, पृ. 87)
हाल बीमारी चोखा काम,
चमत्कारियों पर नहीं लगाम।
सरपट भागो जी भगवान,
नाम जपो-तपोधारी में मानसिक गुलाम।
हाल बीमारी चोखा काम,
चमत्कारियों पर नहीं लगाम।
सरपट भागो जी भगवान,
नाम जपो-तपोधारी में मानसिक गुलाम।
---------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें