शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

व्यंग्य

व्यंग्य के तत्व - व्यंग्योपमा

व्यंग्य रचनाओं का पारायण करते हुए मुझ ’अंधे के हाथ (एक अनोखा) बटेर लग गया’ है। यह निहायत ही प्यारा और विलक्षण बटेर है। सुंदरता इसकी प्रकृति है। इसके गुणों की सघन समीक्षा और काव्य के अलंकार तत्व की गहन पड़ताल के बाद मैंने इसे - ’व्यंग्योपमा’ नाम दिया है।
उपमा अलंकार के दो (प्रगट) भेदों - पूर्णोपमा और लुप्तोपमा से आप सब परिचित हैं। यह तीसरा, गुप्त भेद, यद्यपि किसी भूमिगत जलधारा की तरह व्यंग्य रचनाओं की गुदगुदाऊ भूमि में गुप्त रूप से सतत् प्रवाहित होता आ रहा है फिर भी यह अब तक अभेद ही बना हुआ था। इस अलंकार से हीन व्यंग्य रचनाएँ किसी विधवा की तरह श्रृंगारहीन लगती हैं। इससे युक्त व्यंग्य रचनाएँ हनीमून मनाने में व्यस्त नव दुल्हन की तरह श्रृंगार संपन्न और मनभावन लगती हैं।
’व्यंग्योपमा’ अलंकार को अच्छी तरह समझने के लिए व्यंग्य पुराणों से कुछ उदाहरण प्रस्तुत है। देखिए -
’’उनकी जुबान पर लोककथाएँ ऐसे हुआ करती थी जैसे पुलिस के जुबान पर गाली और नेताओं के जुबान पर आश्वासन।’’ इस उदाहरण में लोककथाएँ उपमेय और पुलिस की गाली तथा नेताओं के आश्वासन उपमान हैं। यहाँ लोककथा जैसी पवित्र चीज की तुलना पुलिस की गाली तथा नेताओं के आश्वासन से करना अजीब लगता है परंतु व्यंग्य के नाम पर सब खपता है। आजकल के व्यंग्यकारी की यही तो विशेषता है। इस तरह की विशेषताओं पर परसाई की प्रतिक्रिया क्या होती, पता नही, परंतु आजकल के पुरोधाओं के द्वारा यह जमकर प्रशंसित हो रही है। आगे कहा गया है -
’’उनकी स्मृतियों में लोककथा वैसी ही सुरक्षित थी जैसे जमाखोरों के गोदामों में माल।’’ इस व्यंग्य पद में लोककथाकार की तुलना जमाखोर व्यापारी से तथा लोककथा की तुलना उसके गोदामों में जमा माल से की गई है। वाह भाई, लोककथाकार को जमाखोर व्यापारी और लोककथा को कालाबाजारी का माल कहकर भी व्यंग्यकार की व्ययंग्याई परवान चढ़ गई है। इस व्यंग्य के सौंदर्य के क्या कहने हैं?
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शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

आलेख

छत्तीसगढ़ी पारंपरिक लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ
लोकगीतों में लोक आकांक्षा और लोक-परंपरा की अभिव्यक्ति

कुबेर

समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तोे वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रचा गया था। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोकमानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोकमानस पर राज करनेवाले वाचिक परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित ही, और अविवादित रूप से, लोक-साहित्य ही हो सकता है।


लोक क्या है?

लोक क्या है? इस संबंध में डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत करते हुए डाॅ. जीवन यदु कहते हैं - ’’लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का अधार पोथियाँ नहीं हैं।’’1 यही लोक है।

लोक-जीवन में लोक-साहित्य की परंपरा केवल मन बहलाव, मनोरंजन अथवा समय बिताने का साधन मात्र नहीं है; इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, मया-पिरीत, रहन-सहन, संस्कृति, लोक-व्यवहार, तीज-त्यौहार, खेती-किसानी, आदि की मार्मिक और निःश्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरण; नीति-अनीति का तथ्यपरक, अनुभवजन्य अन्वेषण और लोक-ज्ञान का अक्षय कोष निहित होता है। लोक-साहित्य में लोक-स्वप्न, लोक-इच्छा और लोक-आकांक्षा की स्पष्ट झलक होती है। नीति, शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक-साहित्य लोक-शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और श्रम-जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंग, वर्ग, वर्ण और जाति की पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के दंश को अभिव्यक्त करने का, इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति विरोध जताने का शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है।

जीवन यदि दुःख, पीड़ा और संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक-साहित्य इन दुःखों, पीड़ाओं और संघर्षों के बीच सुख का, उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक उपक्रम है। लोक-साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखित, मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है, जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती है, चमत्कृत कर देने वाली फंतासी भी होती है। यही कारण है कि लोक साहित्य का नायक आवश्यक नहीं कि मानव ही हो; इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता है।

लोक-साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी, यह अनुमान और अनुसंधान का विषय है, परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति और विकास उतना ही प्राकृतिक, सहज, और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक-कथाएँ, लोक-गाथाएँ, लोक-गीत तथा लोकोक्तियाँ, लोक-साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक-साहित्य में लोक द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों का, पौराणिक पात्रों सहित ऐतिहासिक लोक-नायकों के अदम्य साहस, शौर्य और धीरोदात्त चरित्र का, अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह संक्रमण सहज और लोक इच्छा के अनुरूप ही होता है।

लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, कथाकंथली, हाना (मुहावरे और लोकोक्तियाँ), बुझउला, बिसकुट्टक आदि लोकसाहित्य की ही विधाएँ हैं। फुगड़ी, खुड़वा जैसे विभिन्न लोक खेलों में भी खेल के साथ गीत गाये जाते हैं। इन खेल गीतों को भी लोक साहित्य की भिन्न विधा के रूप में मान्य किया जाना चाहिए। रातभर नाचा देखकर लौटा हुआ लोक चैपाल में अपने साथियों के बीच बैठकर बड़े मानोयोग से उस नाचा दल की विभिन्न प्रस्तुतियों की समीक्षा करता है। लंबी यात्रा से लौटा हुआ लोक अपनी यात्रा, यात्रा के  अनुभवों और देखे गये स्थलों का सिलसिलेवार विवरण प्रस्तुत करता है। लोक की पुरानी पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के समक्ष गाँव-समाज के किसी दिवंगत प्रभावशाली व्यक्ति, अपने पूर्वजों आदि के व्यक्तित्व और कृतित्व के किस्से सुनाता है। क्या इसे आज की आधुनिक शिष्ट साहित्य की भाषा में आलोचना, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रावृत्तांत, जीवनी, आत्मकथा और व्यंग्य नहीं कहा जायेगा? जाहिर है, आधुनिक शिष्ट साहित्य की गद्य की इन समस्त विधाओं का स्रोत भी लोकसाहित्य ही है। हिंदी साहित्य में इन विधाओं का विकास आधुनिककाल में हुआ है परंतु लोक में यह आदिकाल से प्रचलित रही है, अब भी प्रचलित है, यद्यपि लोकसाहित्य के रूप में इन्हें अब तक पहचान नहीं मिल पाई है।

लोकगीत लोक-जीवन के सर्वाधिक निकट होते हैं। लोकगीतों की जड़े लोक-संस्कृति की उर्वर भूमि से पोषित होती हैं इसी उर्वर भूमि से ये लयात्मकता का सुंदर स्वरूप और रागात्मकता की प्राण ऊर्जा पाती हैं।


लोकगीत क्या है?

लोकगीत को परिभाषित करते हुए डाॅ. जीवन यदु कहते हैं - ’’लोकगीत लोक की आंतरिकता का लय और संगीतबद्ध रेखांकन हैं।’’2 यह ’’सामाजिक व्यवस्थाओं की देन है’’3 लोक का ज्ञान अनुभव आधारित और व्यावहारिक होता है। यह वर्तमान और आधुनिकता का तिरस्कार नहीं करता अपितु उसे स्वीकार करता है। लोकगीतों में वर्तमान और आधुनिकता का समावेश होने के कारण यह गतिमान होता है। लेकगीतों की उपर्युक्त विशेषताओं को समझने के लिए ददरिया के निम्न पदों को देखा जा सकता है -

बागे बगीचा दिखे ल हरियर
दुरूग वाला नई दिखे बदे हव नरियर
मोर झूल तरी
मोर झूल तरी गेंदा इंजन गाड़ी सेमर फूलगे
सेमर फूलगे अगास मन चिटको घड़ी नरवा मा
नरवा मा अगोर लेबे ना

नवा सड़किया रेंगे ल मैना
चार दिन के अवईया लगाये महीना
मोर झूल तरी.............

गाय चराये हियाव करिले
दोस्ती मा मजा नईये बिहाव करले
मोर झूल तरी.................
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हे बटकी में बासी, अउ चुटकी में नून
में गावाथंव ददरिया तें कान देके सुन वो चना के दार
हाय चना के दार, हाय चना के दार राजा, चना के दार रानी,
चना के दार गोंदली, तड़कत हे वो
टुरा हे परबुधिया, होटल में भजिया, झड़कत हे वो।

तरी फतोई, ऊपर कुरता, हाय ऊपर कुरता
रहि-रहि के सताथे, तोरेच सुरता।
होय चना के दार.........

कांदा रे कांदा, केंवट कांदा, हाय केंवट कांदा
हे ददरिया गवईया के, नाम दादा।
होय चना के दार .......

उद्धृत गीतों में - बाग बगीचा, सेमर का फूलना, गाय चराना, दोस्ती के प्रति अनास्था और विवाह में आस्था, बटकी में बासी अउ चुटकी में नून, तरी फतोई ऊपर कुरता, कांदा रे कांदा केंवट कांदा, में यहाँ के लोक स्ंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है परंतु इंजन गाड़ी, नवा सड़किया और होटल में भजिया, झड़कत हे, में लोक जीवन में आधुनिकता का समावेश और उसकी लोक स्वीकृति की अभिव्यक्ति हुई है।

बाग बगीचा दिखे ल हरियर
दुरूग वाला नई दिखे बदे हव नरियर
मोर झूल तरी
ददरिया छत्तीसगढ़ का श्रृंगार गीत है। उपरोक्त पंक्तियों का सौंदर्य देखिए। पति परदेश गये हैं। लौटने की तिथि बीत चुकी है। अब तो बाग-बगीचे भी हरे-भरे हो गये है। (सावन भी बीत रहा है।) विलंब होने के पीछे किसी अनिष्ट की आशंका है। इस कारण नायिका का धीरज टूट रहा है। अतः पति के सकुशल लौट आने की कामना करते हुए वह अपने ईष्ट से नारियल का बदना (मनौती) बदी हुई है। यहाँ लोक के निश्छल और सरल आस्था की अभिव्यक्ति का संुदर दृश्य अभिव्यंजित हो रहा है।

लोक गीत लोक की सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी होता है -

लोकसाहित्य ’’लोक की सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी है।’’4 निम्न ददरिया का अवलोकन कीजिए। पति व्यापार करने परदेश गये है। घर में अकेली पत्नी सास, ननद और देवर द्वारा निरंतर प्रताडि़त हा रही है। पति अब अपने गाड़ी में चढ़कर (सवार होकर) सकुशल लौट आये हैं। आनंदित पत्नी थारी सजाकर उसका आरती उतार रही है।
सास गारी देवे, ननंद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर।
संइया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल।
केरा बारी में डेरा देबो चले के बेरा हो।

आए बेपारी गाड़ी म चढिके।
तोर आरती उतारव थारी म धरिके हो।

लोकगीतों में आधुनिकता का समावेश -

सामाजिक-राजनीतिक बदलावों के कारण उत्पन्न परिस्थियाँ लोक में सहज स्वीकार्य होकर लोक साहित्य में अभिव्यक्त होने लगती हैं।
टिकली रे पइसा ल बीनी लेइतेंव।
मोर सइकिल के चढ़इया ल चिन्ही लेइतेंव ग।
पहिरे ल पनही खाये ल बीरा पान।
मोर रइपुर के रहइया चल दिस पाकिस्तान ग।

नायिका का प्रेमी सायकिलवाला है। वह पनही पहनता है, पान खाता है। वह सायकिलवालों की भीड़ में उसे पहचानने की कोशिश करती है यह जानते हुए भी कि अब लौटने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि देश का विभाजन हो गया है और अब वह पाकिस्तान चला गया है।

लोकदृष्टि लौकिक होती है -

लोकसाहित्य लोकसंस्कृति का अंग है। छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति कृषि आधारित है इसीलिए यहाँ के लोकसाहित्य में कृषि संस्कृति रची-बसी है। पौराणिक पात्रों का भी आगमन लोक में कृषक के रूप में ही होता है। इसका कारण है -  ’’लोक साहित्य में मानवीय संबंधों का रूपांकन सरलतम विधि से होता है।’’5 परिणामस्वरूप लोकसाहित्य में पौराणिक पात्रों और अवतारी पुरुषों का भी सामान्यीकरण कर दिया जाता है। लोक साहित्य में अवतारी राम और सीता भी सामान्य मेहनतकश कृषक नर-नारी के रूप में आते हैं। जाहिर है, लोकदृष्टि लौकिक होती है -
’’राम गिस नांगर फांदे, सीता लेगिस बासी।
बिन बीजा के साग लाने, हमू खाबों बासी।।’’6
लोकसाहित्य में अलौकिक, अतीन्द्रिय, और चमत्कारपूर्ण कार्य सामान्य लौकिक पात्र भी कर सकता है।

लोकगीतों की आंतरिक बुनावट में असंगतता भी होती है -

’’लोकगीतों की आंतरिक बुनावट में विरोधाभास (असंगत कथन) को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।’’7 इसका मूल कारण लोक की लौकिक दृष्टि ही है। लोक बरछी धारण करनेवाला है अतः उसका धनुर्धारी राम भी बरछी ही धारण करेगा।
राम धरे बरछी लखन धरे बान।
सीता माई के खोजन बर निकलगे हनुमान ग।
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लोकगीतों में लोक प्रतिरोध के स्वर भी होते हैं -

मित्रों! कहना न होगा कि छत्तीसगढ़ राज्य लोकसाहित्य के मामले म अत्यंत समृद्ध है। आप सब जानते ही है कि साहित्य अभिव्यक्ति का माध्यम होता है। हृदय का प्रेम-विषाद्, हर्ष-उल्लास और सुख-दुख, की अभिव्यक्ति तो साहित्य के माध्यम से होता ही है, इनके अलावा मन की सहमति-असहमति, सामाजिक और धार्मिक शोषणों के प्रति विरोध-प्रतिरोध के स्वर और वे सभी बातें और कार्याभिव्यक्ति जिसे लोक अपनी सीमाओं और मर्यादाओं तथा सामाजिक तथा धार्मिक रूढि़यों और दबावों के कारण क्रियात्मक रूप मे प्रत्यक्ष रूप से कह नहीं पाता है, वे सभी प्रतिरोधात्मक वृत्तियाँ लोकसाहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। इस तरह की अभिव्यक्ति के मामले में लोक और लोकसाहित्य की बराबरी शिष्ट साहित्य नहीं कर सकता। लोकसाहित्य के माध्यम से लोक अपनी असहमति और प्रतिरोध-विरोध को इतनी मारक, सुंदर और कलात्मक रूप में व्यक्त करता है कि उसके मन की भड़ास भी निकल जाती है और शोषकों और लक्षित लोगों को चुभती भी नहीं है। इन्हें भी सुननेवालों को भी केवल रसानुभूति ही होती है। कुछ उदाहरण देखिए -
 वैसे तो सुवा गीत के माध्यम से नारी-मन के हर्ष-उल्लास, व्यथा और करुणा की अभिव्यक्ति होती है परंतु यह गीत प्रमुख रूप सेे पुरूष प्रधान समाज द्वारा नारी उत्पीड़न के विरोध में नारी-मन की सामूहिक अभिव्यक्ति का ही गीत है। एक पद देखिए -
’ठाकुर पारा जाइबे तंय घुम-फिर आइबे,
तंय घुम-फिर आइबे,
कि सेठ पारा झन जाइबे,
रे सुवा न, कि सेठ पारा झन जाइबे।
सेठ टुरा हे बदन इक मोहनी,
बदन इक मोहनी,
कि कपड़ा म लेथे मोहाय।
रे सुवा न, कि कपड़ा म लेथे मोहाय।’

विचार करें, सेठ वर्ग को शोषक वर्ग का पर्याय माना गया है। परंतु लोक के मन में इस वर्ग के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। सुआ गीत के इस पद में इस शोषक वर्ग के प्रति प्रतिरोध को जिस सौम्यता, शिष्टता और कलात्मक सौन्दर्य के साथ व्यक्त किया गया है वह कला और सौन्दर्य, दोनों की पराकाष्ठा ही तो है? हमारा लोकसाहित्य इसी प्रकार के प्रतिरोध के अनेक कलात्मक स्वरों से भरे पड़े हैं। एक हाना देखव - ’खेत बिगाड़े सोमना, गाँव बिगाड़े बाम्हना।’

ब्राह्मण वर्ग लोक में चाहे जितना पूज्य और मान्य हो, परंतु उसका शोषक रूप न तो लोकदृष्टि से बच सकता है और न ही उसके प्रतिरोध से। सोमना एक प्रकार का खरपतवार हैै जो देखते ही देखते खेतभर में फैल जाता है और फसल को बर्बाद कर देता है। इसी तरह जिस गाँव में ब्राह्मण परिवार होता है, वह गाँव बिगड़ जाता है। उस गाँव के लोग सदा शोषित होते रहते हैं, गाँव में कभी एकजुटता और समृद्धि नहीं आ पाती। ददरिया गीत का एक पद है -
’’करे बिहावे पठोये नेवता
नाता-गोता नइ चीन्हें बाम्हन देवता।’’
(हे सखि! इन ब्राह्मणों के आमंत्रण (बुलावे) पर कभी मत जाना। ये नाते-रिश्ते नहीं पहचानते। इनकी नजरों में नारी केवल भोग्या है।)
देवार जाति के लोग अपने लइकों-बच्चों का नाम रखते हैं - पुलिस, कप्तान, तहसीलदार, श्रीदेवी, आदि। सोचिए, यह क्या है? इसी प्रकार राऊत नाच में भी अनेक दोहे कहे जाते हैं। एक उदाहरण इस प्रकार है -

’कोलकी-कोलकी बइला रेंगे, बइला के सींग म माटी।
ठाकुर घर जोहारे ल गेंव, बुचुवा हँडि़या म बासी।।’

तथा
’कोलकी-कोलकी बइला रेंगे, बइला के सींग म माटी।
ठाकुर पहिरे सोना-चांदी, इकुरइन पहिरे घांटी।।’

ठाकुर अर्थात मालिक के घर में बासी को ’बुचुवा हँडि़या’ में रखा जाता है, और ठकुराइन गले में घंटी पहनती है, ऐसा कहना मालिक की इज्जत और रुतबे का मर्दन करना है। सामान्य स्थिति में यह मालिक का घोर और असहनीय अपमान है। इस प्रकार का अपमान करनेवाला दण्ड से बच नहीं सकता। परंतु यह विशेष लोकपर्व पर गाया जानेवाला लोक गीत है। मालिक जानता है कि इस दोहे में संदर्भित मालिक की कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है। यह एक सामान्यीकृत मालिक है। संसार का हर मालिक एक जैसा होता है। और मालिक इस अपमानजनक दोहे को सुनकर भी सम्मान का ही अनुभव करता है। यह एक प्रकार का लोक प्रतिकार है और यह लोकगीतो की अनन्य विशेषता भी है। लोकसाहित्य में निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। समझकर भी वह इससे असंपृक्त बना रहता है। लोकसाहित्य में लोक प्रतिरोध की सबसे बड़ी विशेषता यही है।

प्रतिरोध के उपर्युक्त पदों में विचारणीय तथ्य यह है कि सेठ वर्ग तो शोषक के रूप में जगजाहिर है ही, ठाकुर वर्ग (मालिक) भी शोषक वर्ग ही है परंतु ठाकुर (मालिक) सुख-दुख का साथी भी है, इस नाते वह आपना ही हैं। इनका विश्वास किया जा सकता है। सेठ वर्ग श्रेष्ठ और शिष्ट वर्ग है। परदेशी है। इनका विश्वास कैसे किया जा सकता है? ये अपने और हम इनके अपने कैसे हो सकते हैं?
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लोकगीतों में लोक परंपराओं की अभिव्यक्ति होती है -

लोकगीतों में बिहाव गीत में लोक परंपराओं की अभिव्यक्ति सर्वाधिक मुखर रूप में होती है। बिहाव एक संस्कार है। अन्य लोक त्यौहारों और लोक परंपराओं की तरह अब बिहाव संस्कार के स्वरूप में परिवर्तन आ गये हैं। सप्ताहभर चलनेवाला बिहाव समारोह अब तीन दिनों में ही निपट जाता है। बिहाव के विभिन्न नेगों-संस्कारों के समय गाये जानेवाले गीत अब केवल कैसेट तक ही सीमित हो गये हैं। फिर भी, संक्षिप्त रूप में ही सही आज भी बिहाव के सारे नेग संपन्न कराये जाते हैं।

लोक परंपरा में वर को भगवान श्रीरामचंद्र और वधु को माता सीता का रूप माना जाता है। इसी तरह वर का गाँव अयोध्या में, वधु का गाँव जनकपुर में, वर का पिता राजा दशरथ तथा वधु का पिता राजा जनक के रूप में रुपांतरित हो जाते हैं। तब सुवासिनें वर से पूछती हैं - ’बाबू! तुम्हारे पिताजी चक्रवर्ती महाराजा है, फिर भी, अब तक तुम कुंवारे कैसे रहे?’ वर का जवाब तर्कसंगत और सामयिक है। वे कहते हैं - ’दीदी! हरदी के देश में हरदी मंहगा हो गया है। पर्रा के देश में पर्रा, कलसा के देश में कलसा और तेल के देश में तेल मंहगा हो गया है। ऐसे में शादी कैसे हो सकती थी।’ मंहगाई की समस्या आज की नहीं है, सनातन और पारंपरिक है।

तोरे ददा बाबू देसपति के राजा
अउ काहे गुन रहे गा कुंवारा
हरदी के देस दीदी
हरदी महंगा भइगे, अउ परी सुकाल भइगे
इही गुन रहेंव ओ कुंवारा
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रामे-वो-लखन के
रामे-वो-लखन के दाई तेल वो चढ़त हे
दाई तेल वो चढ़त हे
पेरि देबे तेलिया मोर राई सरसो के तेल
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लोक दृष्टि सदैव स्वप्नदृष्टा रही है। जिस वैभाव और आदर्श की प्राप्ति लोक के वास्तविक जीवन में संभव नहीं है उसके लिए न तो उसके मन में कोई पछतावा या मलिनता है अैर न ही उसे प्राप्त कने के लिए वह अव्यावहारिक या अनैतिक मार्ग अपनाता है। यह स्वप्न लोकगीतों में उभरकर सामने आती है और वह भी बड़े तार्किक ढंग से। राम और लखन का विवाह हो रहा है। राजा जनक के घर विवाह का मंडप सजा हुआ है तो जाहिर है आंगन की लिपाई साधारण गाय के गोबर से नहीं होगी, इसके लिए सुरभि गाय का ही गोबर मंगाया जायेगा। चैक मोतियों से पूरा जायेगा और सोने का कलश सजाया जायेगा।
सुरहिन गइया के गोबर मंगाले ओ
हाय, हाय मोर दाई खूंट धर अंगना लिपा ले ओ
खूंट धर अंगना लिपा ले ओ
हाय, हाय मोर दाई मोतियन चैंक पुरा ले ओ
मोतियन चैंक पुरा ले ओ
हाय, हाय मोर दाई सोने के कलसा मंढ़ाले ओ
सोने के कलसा मंढाले ओ
हाय, हाय मोर दाई सोने के बतिया लगा ले ओ
सोने के बतिया लगा ले ओ
हाय, हाय मोर दाई सुरहिन घीव जला ले ओ
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यहाँ की संस्कृति का आधार कृषि है और उत्पादन के साधनों में गाँव के मरार, कंडरा, बढ़ाई, राउत नाई आदि का महत्व लोकस्वीकृत है अतः सामाजिक जीवन, लोकोत्सव और मांगलिक कार्यों में इनकी सहभागिता अनिवार्य और महत्वपूर्ण होता है। इनकी सहभागिता यहाँ की लोकपरंपरा का अभिन्न अंग है। लोकोत्सवों और मांगलिक कार्यों के समय इनकी मान और प्रतिष्ठा को बराबर महत्व दिया जाता है। तेल चढ़ाने के समय गाये जानेवाले इस बिहाव गीत में इस परंपरा की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है -
कहां रे हरदी, कहां रे हरदी
भई तोर जनामन, भई तोर जनामन
कहां रे लिए अवतार
मरार बारी, मरार बारी
दीदी मोर जनामन, दीदी मोर जनामन
बनिया दुकाने दीदी लिएंव अवतार
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इतिहास से पता चलता है कि स्वयंवर में कन्या द्वारा वरण न किये गये राजा महाराजा सदैव आक्रोशित हो जाया करते थे और चयनित वर को युद्ध की चुनौती का सामना करना पड़ता था। बिना युद्ध शादियाँ संपनन नहीं होती थी। आल्हाखण्ड में भी इस तरह के दृश्यों का वर्णन मिलता है। विवाह मंडप से कन्या को सुरक्षित व्याहकर लाने के लिए युद्ध जीतना जरूरी होता था। अतः माएँ दूल्हे को विजय का आशीर्वाद देती हुई उसका मंगल अभिषेक करती थी और उसे अपने दूध का वास्ता देती थी। यह परंपरा आज भी माँ द्वारा दूल्हे का मउंर सौपने के रूप में प्रचलित है।
पहिरव दाई्
पहिरव दाई हो सोन रंग कपड़ा
हो सोन रंग कपड़ा
सौंपव दाई मोर माथे के मउर्
मउर सोपत ले्
मउर सोपत ले दाई बंइहा झन डोलय
दाई बंइहा झन डोलय
डोलय दाई मोर माथे के मउर्
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यद्यपि दीपावली के समय सुरहोती की रात गौरा-गौरी की पूजा की परंपरा है, जो कि महादेव-पार्वती के विवाह का लोक रूप है, परंतु इस परंपरा के साथ गोंड़ आदिवासी समाज में विवाहित बेटियों के मान-सम्मान की परंपरा भी जुड़ी हुई है। इसी तरह भोजली पर्व भी बेटियों की मान-सम्मान का पर्व है।

लोकगीतों में लोक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति -

लोकगीतों में लोक आकांक्षाओं की भी अभिव्यक्ति होती है। भिलाई स्पात संयंत्र की स्थापना के समय सरकार ने यहाँ के लोगों को संपन्नता के खूब सब्जबाग दिखाये थे। इसी सपने को आधार बनाकर यहाँ के लोग अपनी उम्मीदों को अपनी लोककलाओं के विभिन्न माध्यमों के द्वारा व्यक्त करते रहे। परंतु जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि वे छल लिये गये हैं। संयंत्र स्थापना हेतु जिन गाँवों को उजाड़ा गया, जिन किसानों की जमीनों, और खेतों को अधिग्रहित किया गयाय उनके लिए बड़े-बड़े वादे किये गये। पर वे अब कहाँ और किस हालत में हैं, कोई नहीं जानता। यहाँ की नदियों में बहनेवाले जल से यहाँ के खेतों की सिंचाई के लिए बारहों महीने पानी दिया जा सकता था। तब यहाँ के किसान और खेतिहर मजदूर पंजाब के किसानों की तरह समृद्ध और खुशहाल होते। परंतु स्पात संयंत्र बनने से यहाँ की नदियों का अधिकांश जल स्पात कारखाने में और स्पात नगरी के लोगों के टायलेटों में खप जाता है। छत्तीसगढ़ में केवल वर्षा आधारित खरीफ की खेती हो पाती है। प्रचुर जल संपदा के रहते छत्तीसगढ़ को हर साल सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है। स्पात नगरी में अन्य प्रांत से आकर बसनेवाले लोगों ने यहाँ की समृद्ध लोक परंपराओं का, यहाँ की भाषा का मजाक उड़ाने में कोई कमी नहीं की। यहाँ के लौह अयस्क का दोहन करके जो स्पात बनाया जाता है वह छत्तीसगढि़यों के लिए नहीं है। भिलाई स्पात संयंत्र छत्तीसढ़ और छत्तीसगढि़यों के लिए अभिशाप के अलावा और कुछ भी साबित नहीं हुआ। इससे चाहे देश समृद्ध हुआ होगा, परंतु यहाँ के लोग केवल शोषत हुए हैं। संयत्र स्थापित होते समय छत्तीसगढि़यों का दिखाये गए सपने की अभिव्यक्ति भी यहाँ के लोकगीतों में हुई है। ददरिया का यह पद देखिए -
’का साग रांधे टुरी लोहा के कड़ाही में।
तोर-मोर भेट होही दुरुग-भिलाई में।।’
(प्रेम करनेवाले नायक-नायिका की आर्थिक स्थिति असमान है। नायिका की रसोई में सब्जी लोहे की कड़ाही में बनती है। लोहे की कड़ाही  में सब्जी का बनना संपन्नता का प्रतीक है। नायक गरीब है। इसीलिए दोनों के मिलने की संभावना कम है। परंतु अब भिलाई में स्पात का कारखाना बन रहा है। सरकार ने कहा है कि यहाँ के सभी गरीबों को वह कारखाने में नौकरी देगी। नायक भी वहाँ नौकरी पायेगा। नौकरी पाकर खूब पैसा कमायेगा। उसके पास भी लोहे की कड़ाही होगी। तब नायिका से मिलन में कोई बाधा नहीं होगी। इसीलिए उन्होंने नायिका से वादा किया है कि अब उनकी अगली भेंट दुरुग-भिलाई में ही होगी।)

संदर्भ -
1. लोकस्वप्न में लिलिहंसा, डा.ॅ जीवन यदु, श्रीप्रकाशन दुर्ग, छ.ग., संस्करण 2007, पृष्ठ 7 ।
2. वही , पृष्ठ 37 ।
3. वही , पृष्ठ 37 ।
4. वही , पृष्ठ 39 ।
5. वही , पृष्ठ 8 ।
6. वही , पृष्ठ 9 ।
7. वही , पृष्ठ 42 ।

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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

संस्मरण

संस्मरण

आत्मा की दैनिक यात्राएँ


जाहिर है, पांच-छः दशक पूर्व मैं भी बच्चा रहा होऊँगा। उस समय के बच्चे आजकल के बच्चों की तरह नहीं होते होंगे। मैं भी आजकल के बच्चों की तरह नहीं रहा होऊँगा, यह तय है। कारण साफ है - तब न तो कंप्यूटर देवता होते थे और न ही इंटरनेट मुनि। बडों से सवाल पूछने में झिझक होती थी, डर लगता था। हम लोग सारा समय खेल और मस्ती में जाया करते थे। गाँव के खेत-खलिहानों में, आम-अमरइया और चैपालों में समय बीतता था। आजकल के बच्चे दिन भर अपने कंप्यूटर देवता से चिपके रहते हैं। अपना हर सवाल कंप्यूटर देवता से पूछ लिया करते हैं। इंटरनेट मुनि के पास इनकी हर जिज्ञासा, हर शंका और इनके सारे प्रश्नों के जवाब मौजूद रहते हैं। इनके सवालों की बौछारों से इंटरनेट मुनि कभी झल्लाते भी नहीं हैं। इसीलिए किसी सवाल के लिए आजकल के बच्चों को न तो माँ-बाप की जरूरत होती और न ही बड़े-बुजुर्गों की। 

हमारा जमाना अलग था। कंप्यूटर देवता प्रचलन में नहीं आये थे। बड़े-बुजुर्ग ही हमारे कंप्यूटर देवता हुआ करते थे। वे भी आज के कंप्यूटरों की तरह ही होते थे। इंटरनेट मुनि के बिना कंप्यूटर देवता भला किसी प्रश्न का जवाब दे सकेगें? इसी तरह मर्जी और मूड हमारे जमाने के बड़े-बुजुर्ग रूपी कंप्यूटर देवताओं के इंटरनेट मुनि हुआ करते थे। उनका मूड न हाने पर उनसे कुछ भी पूछ पाना संभव नहीं होता था। डाट अलग पड़ती थी। 
कई मामलों में हमारे ये बुजुर्ग कंप्यूटर देवता आज के कंप्यूटर देवताओं से बहुत बेहतर होते थे। वे हमेें प्यार करते थे। सिर में हाथ फेरकर आशीर्वाद और दुआएँ देते थे। हमारे भले-बुरे और सुख-दुख का खयाल रखते थे। अच्छा काम करने पर शाबासी और गलत-सलत करने पर झिड़की मिलती थी। 

मेरा कंप्यूटर देवता मेरे पड़ोस में ही रहते थे। मैं उन्हें ’बबा’ कहता था। हमारे घर में उनका आना-जाना था; सभी उनका सम्मान करते थे। आदमी की अवस्था के बारे में तब मुझे समझ तो थी नहीं कि उनकी अवस्था के बारे में कुछ बताऊँ, पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि मेरे जवान होने से पहले ही वे इस दुनिया को छोड़ चुके थे। टेरीकाॅट और फैंसी कपड़े तब नहीं बनते थे। वे कोष्टउहाँ धोती पहनते थे। लाठी लेकर चलते थे। दांत झड़ जाने के कारण गाल पिचक गये थे। अब बापू का लाठीवाला चित्र देखता हूँ तो मस्तिष्क में उनकी ही छबि बनती है। 
बबा के पास बैठना मुझे अच्छा लगता था। वे मुझे बहुत स्नेह करते थे। मेरे सारे प्रश्नों का उत्तर देते थे। दिमाग में इंटरनेट मुनि के अवतरित होने अर्थात् मूड होने पर वे खुद ही ज्ञान-विज्ञान का पिटारा खोलकर बैठ जाते थे। कुछ नहीं पूछने पर भी बहुत सारी बातें बताया करते थे। वे मुझे चांद-सूरज, धरती-आकाश और ग्रहों और तारों के बारे में बताते थे। चाँद पर दिखनेवाला धब्बा धान कूटती हुई किसी बुढि़या का है, ऐसा उसी ने बताया था। यह उनका पारंपरिक ज्ञान था। आदमी अपनी परंपराओं और संस्कारों से बहुत कुछ अर्जित करता है। गाँवों में तब ढेंकी और मूसल ही धान कुटाई का साधन हुआ करते थे। यह काम महिलाएँ ही करती थी। वे रामायण और महाभारत की कहानियाँ भी सुनाते थे। तोता-मैना, बेंदरा-भालू, बघवा-सियार, डोकरा-डोकरी और बाम्हन-बम्हनिन के किस्से सुनाते थे। भूत-प्रेतों के बारे में बताते थे। अपने राज के राजा और गाँव के मालगुजार के कारनामों और उनके द्वारा ढाये गये जुल्मों के बारे में बताते थे। अंग्रेजों के अत्याचारों की घटनाएँ सुनाते थे। परंतु इंटरनेट मुनि के रूठ जाने पर अर्थात् मूड न होने पर वे झिड़क भी देते थे। कहते थे - ’’मनवा! बहुत सवाल पूछता है तू। स्कूल में मास्टरजी से पूछता है?’’ 

तारों के बारे में वे बताते थे - ’’ये तारे और कुछ नहीं हैं, आदमी की आत्माएँ हैं। आदमी के मरने के बाद उनकी आत्माएँ आसमान में जाकर तारे बन जाया करते हैं। तारे बनकर रात में चमकने लगते हैं।’’ 
’’मरने के बाद आत्माएँ तारे बन जाते हैं?’’
’’हाँ।’’
’’सबकी आत्माएँ?’’
’’नहीं, जो पुण्य का काम करते हैं, उन्हीं की आत्माएँ तारे बनते हैं।’’
’’पापी लोगों की आत्माएँ तारे नहीं बनते हैं?’’
’’नहीं।’’
’’मरने के बाद आप भी तारे बन जाओंगे?’’
’’पता नहीं। शायद नहीं। हमने कहाँ कोई पुण्य का काम किया है।’’
’’और पेटला महराज की आत्मा?’’
’’पता नहीं।’’
’’हमेशा माला फेरते रहते हैं न। सुबह भगवान जी की आरती करते हैं। घंटियाँ बजाते हैं। शंख बजाते है। दिन में कीर्तन करते हैं। क्यों नहीं बनेंगे?’’

’’और? और क्या जानते हो पेटला महराज के बारे में? यह सब तो दिखावा है, मनवा! तुम उसे नहीं जानते।’’
’’और मैं?’’
’’मेहनत करके खाना। लोगों को मत सताना। किसी प्राणी को मत दुखाना। झूठ मत बोलना। माँ-बाप की सेवा करना। जरूर तारे बनोगे। जुग-जुग चमकोगे।’’

अब, जबकि जान गया हूँ कि तारों के निर्माण की प्रक्रिया अलग है। आत्मा का इससे कोई लेना-देना नहीं है, तब भी बबा की कही बातें मुझे गलत नहीं लगती हैं। और फिर पूर्व में प्रमाणित अनेक वैज्ञानिक सिद्धांत भी तो आगे चलकर गलत साबित होते हैं। विज्ञान का यह कहना अभी भी सत्य है कि - ब्रह्माण्ड में द्रव्य और ऊर्जा में आपसी रूपान्तरण की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं। तब? 

तारा बनकर आसमान में कोई चमके, न चमके; बबा जरूर चमकते होंगे। आज भी बबा मेरी यादों में तारों की तरह चमकते रहते हैं।

एक बार मेरे इसी बुजुर्ग कुप्यूटर देवता ने बताया था - ’’मनवा! सुन रहा है न तू। आदमी जब गहरी नींद में होता है तब उसकी आत्मा शरीर छोड़कर बाहर घूमने निकल जाती है। नींद खुलने के पहले परिवार में, सगे-संबंधियों में, देश-विदेश में, आकाश-पाताल में, स्वर्ग-नरक में, कहीं भी स्वतंत्रतापूर्वक घूमकर लौट आती है।’’

’’आत्मा कैसी होती है?’’
’’इसे कोई नहीं देख सकता। सबके सो जाने पर निकलती है।’’
’’हाथ-पैर होते हैं कि नहीं?’’
’’नहीं’’ 
’’फिर चलती कैसे है?’’

’’यह दीये की लौ तरह होती है। शरीर के बाहर आते ही लौ चारों ओर फैल जाती है। और पलभर में ही कहीं भी पहुँच जाती है।’’ 

’’देश-विदेश और स्वर्ग-नरक तो बहुत दूर होते हैं, कभी लौटने में विलंब नहीं होता होगा?’’ मैं पूछता था।

वे बताते थे - ’’कभी नहीं। आत्मा की गति मन की गति से भी अधिक होती है। आने-जाने में समय नहीं लगता। हाँ! आदमी की आयु जब पूरी हो जाती है, तभी वह लौटकर नहीं आती।’’ 

’’इस दौरान वह लोगों से बातचीत, मुलाकात वगैरह भी कर लेती होगी?’’ 
’’जरूर। पर आत्माओं के साथ ही।’’
’’मैं तो खूब सपने देखता हूँ। आत्माएँ बाहर जो देखती होंगी, वही सब हमारे सपनों में आते होंगे?’’
’’धत्। मनवा! सपने तो सपने हैं। आत्मा का इससे संबंध होता होगा?
’’आपकी आत्मा भी जाती होगी?’’
’’जरूर जाती होगी।’’ 
’’आपको पता नहीं?’’
’’नहीं।’’
’’किसे पता होता है?’’
’’साधकों को। इसके लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है।’’
’’मैं भी नहीं जान पाऊँगा?’’
’’ज्ञानियों की संगति करना। खूब साधना करना। जरूर जान पाओगे।’’

बबा की बातों पर मुझे विश्वास था। मैं रात में आत्माओं को शरीर से निकलकर बाहर घूमते हुए देखना चाहता था और हमेशा इसकी विधि तलाशता रहता था। 

कल ही अखबार में मैंने पढ़ा - कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग तकनीक से डाॅली नामक भेड़ पैदा किया था। अब इसी तकनीक से बंदर के जुड़वा बच्चों को पैदा करने में वे सफल हो गये हैं। जल्द ही यह विधि मनुष्यों पर सफल हो सकेगी। 

विलुप्त हो चुके जीवों को फिर से पैदा करने के लिए या विलुप्ति के कगार पर खड़े जीवों के रक्षण के लिए यह तकनीक जरूर किसी वरदान से कम नहीं है। परंतु मनुष्य के मामले में? जनसंख्या जब इतनी तेजी से बढ रही है, तब आदमी पैदा करने के लिए क्लोनिंग तकनीक की क्या आवश्यकता है? सवाल मुझे महत्वपूर्ण और सामयिक लगा। पर इसका जवाब कौन देगा। सोचा, क्लोनिंग तकनीक से बंदर के जुड़वा बच्चों को पैदा करनेवाले वैज्ञानिकों से ही मिलकर इसका उत्तर पूछना चाहिए। पर कैसे? यह सवाल मुझे मथने लगा। दिनभर मथता रहा। रात में भी पीछा नहीं छोड़ा। 

पता नहीं, कैसे। पर अंततः क्लोंनिंग तकनीक पर अनुसंधानरत एक वैज्ञानिक से मिलने में मैं सफल हो ही गया। रात काफी हो चुकी थी पर वह अपनी प्रयोगशाला में अपने अनुसंधान और प्रयोगों में व्यस्त था। मैं उनसे अपना सवाल पूछना चाहता था। पर उन्हें व्यवधान पहुँचाना उचित नहीं था। और फिर वैज्ञानिक आपने शोध कार्यों को गुप्त रखते हैं। किसी नतीजे पर पहुँचे बिना किसी भी जानकारी को वे सार्वजनिक नहीं करते हैं। सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं। खुफिया विभाग के अधिकारियों की सख्त निगरानी रहती है। ऐसे में मुझे दुश्मन देश का भेदिया होने के शक में गिरफ्तार भी किया जा सकता था। और फिर वैज्ञानिक भी तो आखिर मनुष्य ही होते हैं। वह सच को छिपा सकता था। मुझे टाल सकता था। अतः मैं उनके सोने की और उनकी आत्मा के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा। 

धीरज का भी फल मीठा होता है। आखिर मेरी प्रतीक्षा पूरी हुई। उस वैज्ञानिक की आत्मा से मैंने सम्मानपूर्वक हाथ मिलाया और झटपट आपना ऊपरवाला सवाल दुहरा दिया। 

उसने कहा - ’’आपका सवाल बहुत ही उचित है। पर हमारा प्रयोग न तो जनसंख्या नियंत्रण के लिए है और न ही जनसंख्या विस्तार के लिए ही। ये सब तो आप लोगों के हाथों में हैं। इस प्रयोग के अनेक मानवीय पहलू हैं। क्लोनिंग तकनीक से बच्चे पैदा करना तो बाद की बात है। सबसे पहले हम बीमारियों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। आप जानते ही होंगे, मनुष्य में अनेक बीमारियाँ आनुवांशिक होती हैं। केंसर, मधुमेह और एड्स जैसी अनेक असाध्य बीमारियाँ भी हैं जिनका कोई उपचार नहीं है। इन बीमारियों को पैदा करने के जीन्स मनुष्य के गुणसूत्रों में ही पाये जाते हैं और संतानों में स्थानांतरित होते रहते हैं। इस तकनीक से ऐसे सभी रोगों के जीन्स को हम गुणसूत्रों से अलग कर देंगे और उनकी जगह मनुष्य की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ानेवाले जीन्सों को स्थापित कर देंगे। तब मनुष्य कभी बीमार ही नहीं होगा। इस तरह हम बीमारियों पर विजय पा लेंगे। पौधों पर इसी तरह के प्रयोग द्वारा कीटनाशकों और ऊर्वरकों के बगैर ही फसलों का उत्पादन हम कई गुना बढ़ाने में सक्षम हो सकेंगे।’’

’’निश्चित ही यह एक महान कार्य है। इसके लिए आपको बधाई।’’
’’सो तो ठीक है। परंतु हमें शंका है कि इस प्रयोग का लाभ आम जनता को मिल सकेगा।’’ 
’’क्यों?’’
’’क्योंकि दवा बनानेवाली कंपनियाँ ऐसा नहीं चाहती।’’

’’ओह! दुर्भाग्य। एक सवाल और पूछना चाहता हूँ - मानवता की राह में सबसे बड़ी बीमारी तो लोगों में पनप रहा भ्रष्ट आचरण है। कामुकता और हिंसा की वृत्ति है। मनुष्य के गुणसूत्रों में इनके भी जीन्स होते होंगे। क्या इन जीन्सों को निकालकर इनकी जगह सदाचरण और अहिंसा के जीन्स प्रतिरोपित करके अच्छा इन्सान विकसित करने के लिए आप लोग कोई प्रयोग नहीं कर रहे हैं?’’

मेरे इस सवाल से वह कुछ विचलित हुआ। दुखी मन से उसने बताया - ’’हम भी ऐसा ही चाहते हैं। पर आप तो जानते ही हैं। इस तरह के अनुसंधान कार्य में काफी धन खर्च होता है। इस अनुसंधान में जिन धनपतियों का धन लग रहा है वे ऐसा नहीं चाहते। वे तो भ्रष्ट आचरण, कामुकता और हिंसा की वृत्तियाँ पैदा करनेवाले जिंन्सों को अधिक से अधिक फैलाना चाहते हैं ताकि हथियारों का उनका कारोबार अधिक से अधिक फल-फूल सके, बढ़ सके।’’

’’सरकार कुछ नहीं करती?’’ मैंने पूछा।
शून्य में देखते हुए उसने बुझे मन से कहा - ’’सरकार?’’

बात पूरी हो पाती, इसके पहले ही उसके शयनकक्ष में लगी घड़ी का अलार्म बजने लगा और वह वैज्ञानिक आत्मा तुरंत अपने शरीर में लौट गई। 

इधर मेरे भी बेडरूम में बेड-टी का प्याला लेकर खड़ी मेरी पत्नी का अलार्म बजने लगा था। 
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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

व्यंग्य

मित्रों के बोल नमूने 

नमूना - 13

दिव्य सत्संगी का दिव्य सत्संग


एक दिव्य सत्संगी की यह दिव्य कथा किसी मित्र ने सुनाई थी।
गाँव में एक बार एक सत्प्रचारक दिव्य सत्संगी आये थे। वेशभूषा से पहुँचे हुए महात्मा और परम ज्ञानी लगनेवाला वह दिव्य सत्संगी मुझे तो किसी विलायती मिशनरीज का सनातन देशी संस्करण लग रहा था। पता चला कि गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर वह अपने पूज्य बापूजी के उपदेशों का प्रचार करते हैं। धर्मच्युत लोगों को बापूजी द्वारा प्रवर्तित मानवधर्म में दीक्षित करते है; उन्हें सत्धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं। माया-मोह के अंधकार में भूले-भटके लोगों के मन में सन्मति का प्रकाश फैलाकर उन्हें सन्मार्ग की ओर ले जाते हैं। बापू आश्रम से उत्पादित दिव्य बापू औषधियों और बापूजी के वचन सुधारस से सराबोर सत्साहित्य को जन-जन तक पहुँचाते हैं और स्वस्थ तथा नैतिक समाज का निर्माण करने का सद्प्रयास करते हैं।
मित्र का कहना था कि सत्संग और सत्साहित्य पर वे बहुत सुंदर प्रवचन कर लेते थे। वे कहते थे - ’’सत्संग का अर्थ होता है सत् का संग करना। ‘सत्’ का अर्थ है - ईश्वर। ईश्वर ही परम सत्य है। इस तरह सत्संग का अर्थ हुआ - ईश्वर का संग करना। ईश्वर के संग रहना। यूँ तो सत् और संत में स के ऊपर लगी बिंदी का ही फर्क है, पर यह फर्क ब्रह्म और माया का फर्क है। स से सत्य बनता है। सत्य निराकार होता है। सं से संसार बनता है। संसार साकार होता है। इस तरह संतगण इस संसार में सत्य रूपी निराकार ईश्वर का साकार रूप होते हैं। अतः संतों का संग प्राप्त करना ही सत्संग करना है। संतों की अनुपस्थिति में उनके अमृतवचनों से युक्त सत्साहित्य और धर्मग्रंथों का अध्ययन करना भी सत्संग करना ही कहलाता है।’’
स्कूल के दिनों में किसी सवाल के समझ में न आने पर गुरूजी मुझसे कहा करते थे - ’’मूर्ख! तेरे दिमाग में तो गोबर भरा हुआ है; कैसे समझ में आयेगा।’’
पढ़ाई के दिनों का, मेरे दिमाग में भरा हुआ गोबर, आज तक कंपोस्ट में नहीं बदल सका है। इसीलिए उस दिव्य सत्संगी की उपर्युक्त दिव्य व्याख्या मेरे दिमाग में जरा भी नहीं समा पाई। इस गोबर के अप्रिय गंध से विकर्षित होकर वह व्याख्या सत्य की दिशा में मुड़ गई होगी। मतलब मेरे दिमाग की ओर न आकर वह निराकार सत् में समाहित होती चली गई होगी। मैंने पूछा - ’’इस साकार संसार में अनेक साहित्यकारों ने भी अच्छी-अच्छी किताबें लिखी हैं - अनेक उपन्यास हैं, महाकाव्य हैं, कहानियाँ हैं; इन किताबों का अध्ययन करना भी तो सतसंग करना ही होगा न?’’
’’नहीं, बिलकुल नहीं।’’ उन्होंने कहा था - ’’इनको पढ़ने से मन भटकता है। भटका हुआ मन अटकता है। अटका हुआ मन खटकता है। खटका हुआ मन आत्मा को पुनः इसी नश्वर संसार में बार-बार लाकर पटकता है।’’
मेरे दिमाग का गोबर उसके इस स्पष्टीकरण के मार्ग में पुनः बाधक बन गया होगा। तमाम समय मैं केवल चेथी ही खुजलाता रहा।
फिलहाल वह दिव्य पुरुष सप्ताहभर से गाँव के एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में अटका हुआ था। वह परिवार संतानहीनता नामक रोगा से ग्रसित था। पता चला कि वह दिव्य सत्संगी उस निःसंतान दंपत्ति की संतानहीनता का दिव्य इलाज कर रहे हैं। इसके लिए उस दंपत्ति को अपने दिव्य बापू औषधि का दिव्य सेवन करा रहे हैं। संतानहीन स्त्री की कायिक शुद्धता के बिना इस असाध्य रोग का पूर्ण उपचार संभव नहीं था। इसके लिए उस स्त्री को गुप्त रूप से दिव्य आलिंगन का भी उपचार दिया जा रहा था। कायिक शुद्धिकरण के लिए दिव्य आलिंगन का वह उपचार दिव्य सत्संग का ही एक रूप था।
एक दिन शाम के समय उस दंपत्ति के घर में बड़ा तमाशा हुआ। पता चला कि एकांत पाकर वह दिव्य सत्संगी, अपने दिव्य आलिंगन के द्वारा, उस निःसंतान सज्जन की बांझ पत्नी का कायिक शुद्धिकरण करने में लगे हुए थे। बांझपन का दिव्य सत्संग विधि द्वारा ऐसा दिव्य उपचार उस बांझ स्त्री के नासमझ पति की समझ में नहीं आई होगी। उसे भ्रम हुआ होगा कि पत्नी की पतिव्रता धर्म को नष्ट किया जा रहा है। और बात का बतंगड़ बन गया था।
अंत में पुलिसवाले उस दिव्य सत्संगी को हथकड़ी पहनाकर ले गये थे।
उस दिव्य सत्संगी का क्या हुआ, पता नहीं; परंतु इस घटना के दसवाँ महीना पूरा होते-होते, उस निःसंतान दंपत्ति की गोद में एक दिव्य शिशु का अवतरण जरूर हो गया था।
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शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

व्यंग्य

नमूना - 10

गव्यविष्ठा-राष्ट्रनिष्ठा


कभी-कभी बातों ही बातों में लाख टके की बात हाथ लग जाती है। आज एक मित्र महोदय ने गोबर के संबंध में बड़ी महत्वपूर्ण बातें बताईं। बातें इस प्रकार हैं -
- इस देश में गोबर अर्थात गव्यविष्ठा में ही सच्ची राष्ट्रनिष्ठा अंतरनिहित है।
- भारतीय संस्कृति में गऊ माता की महत्ता को बार-बार बताने की जरूरत नहीं है। यज्ञ-पूजा आदि में प्रयुक्त पंचगव्य को अमृततुल्य माना गया है, जो गऊ माता द्वारा ही प्रदान किया जाता है।
- पंचगव्य में गऊ माता की विष्ठा भी शामिल रहती है। गो-विष्ठा एक पवित्र द्र्रव्य है।
- यहाँ यज्ञ-पूजा आदि धार्मिक कार्यों में गोबर से बने ’गोबर गणेश’ की ही पूजा पहले होती है इसीलिए महत्वपूर्ण आयोजनों में परम आदरणीय और सम्मानित व्यक्तियों को ’गोबर गणेश’ की जगह स्थापित किया जाता है। इन्हें ’गोबर गणेश’ कहकर संबोधित भी किया जाता है।
- इसके अतिरिक्त भी गो-विष्ठा अत्यंत उपयोगी वस्तु है। धर्मनिष्ठ आम भारतीय परिवारों द्वारा घर आंगन की लिपाई इसी से किया जाता है।
- रसोई के लिए उत्तम इंधन और खेतों के लिए बहुमूल्य खाद इसी से प्राप्त होता है अतः इसे गोबर कहना इस अमूल्य द्रव्य का अपमान करना है।
- गऊ माता द्वारा यह विष्ठा इस मर्त्यलोक में अपने मानवरूपी संतानों के कल्याण और उसे अमरत्व प्रदान करने के लिए उपहार स्वरूप दिया गया है। अतः इसे गोबर कहना पवित्र गऊ माता का भी घोर अपमान करना है।
अतः यदि आप सच्चे राष्ट्रवादी हैं और भारतीय संस्कृति पर आपकी अनन्य आस्था और निष्ठा है तो आज से आप गोबर को गोबर नही, श्रद्धापूर्वक ’गव्यविष्ठा’ कहिए।
गव्यविष्ठा-राष्ट्रनिष्ठा, राष्ट्रनिष्ठा-गव्यविष्ठा।
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