शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

व्यंग्य

व्यंग्य के तत्व - व्यंग्योपमा

व्यंग्य रचनाओं का पारायण करते हुए मुझ ’अंधे के हाथ (एक अनोखा) बटेर लग गया’ है। यह निहायत ही प्यारा और विलक्षण बटेर है। सुंदरता इसकी प्रकृति है। इसके गुणों की सघन समीक्षा और काव्य के अलंकार तत्व की गहन पड़ताल के बाद मैंने इसे - ’व्यंग्योपमा’ नाम दिया है।
उपमा अलंकार के दो (प्रगट) भेदों - पूर्णोपमा और लुप्तोपमा से आप सब परिचित हैं। यह तीसरा, गुप्त भेद, यद्यपि किसी भूमिगत जलधारा की तरह व्यंग्य रचनाओं की गुदगुदाऊ भूमि में गुप्त रूप से सतत् प्रवाहित होता आ रहा है फिर भी यह अब तक अभेद ही बना हुआ था। इस अलंकार से हीन व्यंग्य रचनाएँ किसी विधवा की तरह श्रृंगारहीन लगती हैं। इससे युक्त व्यंग्य रचनाएँ हनीमून मनाने में व्यस्त नव दुल्हन की तरह श्रृंगार संपन्न और मनभावन लगती हैं।
’व्यंग्योपमा’ अलंकार को अच्छी तरह समझने के लिए व्यंग्य पुराणों से कुछ उदाहरण प्रस्तुत है। देखिए -
’’उनकी जुबान पर लोककथाएँ ऐसे हुआ करती थी जैसे पुलिस के जुबान पर गाली और नेताओं के जुबान पर आश्वासन।’’ इस उदाहरण में लोककथाएँ उपमेय और पुलिस की गाली तथा नेताओं के आश्वासन उपमान हैं। यहाँ लोककथा जैसी पवित्र चीज की तुलना पुलिस की गाली तथा नेताओं के आश्वासन से करना अजीब लगता है परंतु व्यंग्य के नाम पर सब खपता है। आजकल के व्यंग्यकारी की यही तो विशेषता है। इस तरह की विशेषताओं पर परसाई की प्रतिक्रिया क्या होती, पता नही, परंतु आजकल के पुरोधाओं के द्वारा यह जमकर प्रशंसित हो रही है। आगे कहा गया है -
’’उनकी स्मृतियों में लोककथा वैसी ही सुरक्षित थी जैसे जमाखोरों के गोदामों में माल।’’ इस व्यंग्य पद में लोककथाकार की तुलना जमाखोर व्यापारी से तथा लोककथा की तुलना उसके गोदामों में जमा माल से की गई है। वाह भाई, लोककथाकार को जमाखोर व्यापारी और लोककथा को कालाबाजारी का माल कहकर भी व्यंग्यकार की व्ययंग्याई परवान चढ़ गई है। इस व्यंग्य के सौंदर्य के क्या कहने हैं?
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