रविवार, 24 नवंबर 2013

जय श्री राम

जय श्री राम


चंउक म कका मरहा राम मिल गे
कान म जरहा बीड़ी खोंचे रहय
माड़ी के आवत ले पटका पहिरे रहय
कंस के कछोरा भिरे रहय
पीठा म मुड़ भुलकउनी भोंगरा हो गे रहय
तउन बंडी ल पहिरे रहय
खांद म बोहे चटवार ल डेरी हाथ म
अउ जेवनी म मुड़ भर के ठेंगा धरे ल रहय
मुँही-पार देखे बर कहिके खेत कोती जावत रहय।

तरी ले ऊपर, गोड़ ले मुड़
वो ह मोला देखिस
मनेमन तउलिस
घड़ी भर फेर सोचिस
अउ
बिमरहा बेटा के बाप कस
सोगसोगान असन पूछिस -

’’कस रे जगतू!
जकहा-भूतहा कस कइसे-
विही-विही कना गोल-गोल घूमत हस?
पइसा-कौड़ी गंवा गे हे का-
जउन ल मनेमन, मनमाने खोजत हस?
मुँहू-कान ह काबर अइलाय कस हो गे हे
रोनहू बानी कइसे दिखत हस?
का के तोला संसो धरे हे बाबू!
कइसे दिन-दिन दुबरातेच् जावत हस
दू दिन हो गे, देखत हंव
इहिच् कना घानीमुनी के खेल देखावत हस?’’

चोपियाय मुँहू ल दू-तीन घांव ले चगलायेंव
जीभ ह थोकुन ओद्दा होइस
तहाँ ले कका ल
अपन मन के पीरा ल बतायेंव -

’’कका!
तंय तो सब ल जानतेच् हस
तोला अउ का बतांव
मोर मन के दुख ल का गोठियांव -
’सरकार ह दू महीना पहिली
इही कना डामर के अघात चिक्कन
बड़ चाकर सड़क बनवाय रिहिस’
वोकर उप्पर हवा-जिहाज दंउड़ाय के सपना
जनता ल देखाय रिहिस।
काली ले विही ल खोजथंव
दू दिन हो गे, दिखत नइ हे
कहाँ लुका गे, कते कना जा के झपा गे,
कहाँ अंतरधान हो गे, कहिके
दिन-रात गुनथंव।’’

कका ह कहिथे - ’’बेटा! भकला झन बन
मरना हे क? चिटिक सोच
अइसन मन-बइहा बुता ल छोड़
जइसन कोनो नइ करय तइसन काम करके
खुदे बर गड्ढा झन कोड़।
देख वोती
गाँधी बबा के बेंदरा मन सरीख 
जनता ह कइसे चुपचाप बइठे हे;
जा, वइसने तहूँ बइठ
दू रूपिया वाले माल ल चवन्नी नून संग
बने गोहगोंह ले खा
अउ राग म राग मिला के
’जय श्री राम’ के भजन ल गा।’’

येती हमर बात ह पूरे घला नइ रिहिस
वोती सरकार के कान ह ठाड़ हो गे
अपन सिपाही मन ल बलाइस
अउ गुर्रा के किहिस -

’’भोलापुर में कुछ जादा ही हो रहा है
मरहा राम पहले अकेला था
साला! अब लोगों को मिला रहा है
सदियों से मरी पड़ी, सम्मोहित और बेहोश
जनता नामक जीव को, जिला रहा है।
अरे निठल्लों! तुरते वहाँ जाओ
अउर उठने वालों को फिर से सुला आओ
सबको फिर से
’जय श्री राम’ वाली पुड़िया का
बंपर डोज खिला आओ।’’
000

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

सोंच

सोंच


आज रंधनी खोली ह
कोन जाने काबर अबड़ उदास हे,
चूल्हा के घला
अटकत जइसे साँस हे।

छुटकी नोनी ह
पहिली तो गजब रेंध मताइस,
दाई के गोड़ ल पोटार-पोटार के,
फेर खूब रोइस -
कल्हर-कल्हर के।

किहिस -
’गाँव भर के जम्मों टुरी मन,
नवा-नवा फराक पहिरे हें,
लाल-पींयर फुंदरा बाँधे,
महमाती तेल लगाय हें,
मोला जिबरा-जिबरा के,
बरा-सोंहारी खावत हें,
खाँध जोरे-जोरे खोर कोती
फुगड़ी खेले बर जावत हें,
दाई! वइसने बरा सोंहारी महूँ खाहूँ
नवा फराक पहिर के
संगवारी मन संग खेले बर
खोर डहर महूँ जाहूँ।’

बिल्लू भइया ह अब समझदार हो गे हे
सोंचे रिहिस -
फटाका बर रो-रो के
दाई ल हलाकान करहूँ
दाऊ लइका मन जइसे
अगास के पार नहकइया राकेट चलाहूँ
फेर नोनी के कल्हरइ ल देख के
वो ह कलेचुप
चिरहा कथरी ल ओढ़ के सुत गे हे।

बिल्लू ह आज समय के पहिलिच्
सचमुच समझदार हो गे हे।

नोनी के कल्हरइ
छोटकुन बिल्लू के भारी समझदारी
अउ
बनिहारिन दाई के पहाड़ जइसे लाचारी
सब्बो ल देख के चुल्हा ल
तइहा दिन के सुरता आ गे,
इँखर वो दिन ह अब
कोन जाने कहँ नँदा गे?

एती हाँड़ी म भात के
गदबद-गदबद डबकइ
ओती जम्मों झन के
कठल-कठल के हँसइ
एती कड़ाही म साग के
छनन-छनन बघरइ,
वोती नोनी अउ बिल्लू के
खुन-खुन, खुन-खुन खिलखिलइ
खीर-तसमइ के मीठ-मीठ खुशबू
अउ बरा-सोंहारी के महर-महर महकइ।

कोन जाने !
अइसन दिन अब कब आही?
नोनी बर फराक अउ
बिल्लू बर फटाका कब लेवाही?

गरीब के घर देवारी कब आही?
गरीब ह देवारी कब मनाही?
0

सोमवार, 11 नवंबर 2013

छत्‍तीसगढ़ी कविता

जय श्री राम

चंउक म कका मरहा राम मिल गे
कान म जरहा बीड़ी खोंचे रहय
माड़ी के आवत ले पटका पहिरे रहय
कंस के कछोरा भिरे रहय
पीठ म मुड़ भुलकउनी भोंगरा हो गे रहय
तउन बंडी ल पहिरे रहय
खांद म बोहे चटवार ल डेरी हाथ म
अउ जेवनी म मुड़ भर के ठेंगा धरे ल रहय
मुँही-पार देखे बर कहिके खेत कोती जावत रहय।

तरी ले ऊपर, गोड़ ले मुड़
वो ह मोला देखिस
मनेमन तउलिस
घड़ी भर फेर सोचिस
अउ
बिमरहा बेटा के बाप कस
सोगसोगान असन पूछिस -

’’कस रे जगतू!
जकहा-भूतहा कस कइसे-
विही-विही कना गोल-गोल घूमत हस?
पइसा-कौड़ी गंवा गे हे का-
जउन ल मनमाने खोजत हस?
मुँहू-कान ह काबर अइलाय कस हो गे हे
रोनहू बानी कइसे दिखत हस?
का के तोला संसो धरे हे बाबू!
दिन-दिन दुबरातेच् जावत हस
दू दिन हो गे, देखत हंव
इहिच् कना घानीमुनी के खेल देखावत हस?’’

चोपियाय मुँहू ल दू-तीन घांव ले चगलायेंव
जीभ ह थोकुन ओद्दा होइस
तहाँ ले कका ल
अपन मन के पीरा ल बतायेंव -

’’कका!
तंय तो सब ल जानतेच् हस
तोला अउ का बतांव
मोर मन के दुख ल का गोठियांव -
’सरकार ह दू महीना पहिली
इही कना डामर के अघात चिक्कन
बड़ चाकर सड़क बनवाय रिहिस’
वोकर उप्पर हवा-जिहाज दंउड़ाय के सपना
जनता ल देखाय रिहिस।
काली ले विही ल खोजथंव
दू दिन हो गे, दिखत नइ हे
कहाँ लुका गे, कते कना जा के झपा गे,
कहाँ अंतरधान हो गे, कहिके
दिन-रात गुनथंव।’’

कका ह कहिथे - ’’बेटा! भकला झन बन
मरना हे क? चिटिक सोच
अइसन मन-बइहा बुता ल छोड़
जइसन कोनो नइ करय तइसन काम करके
खुदे बर गड्ढा झन कोड़।
देख वोती
गाँधी बबा के बेंदरा मन सरीख  
जनता ह कइसे चुपचाप बइठे हे
जा, वइसने तहूँ बइठ
दू रूपिया वाले माल ल चवन्नी नून संग
बने गोहगोंह ले खा
अउ राग म राग मिला के
’जय श्री राम’ के भजन ल गा।’’

येती हमर बात ह पूरे घला नइ रिहिस
वोती सरकार के कान ह ठाड़ हो गे
अपन सिपाही मन ल बलाइस
अउ गुर्रा के किहिस -

’’भोलापुर में कुछ जादा ही हो रहा है
मरहा राम पहले अकेला था
साला! अब लोगों को मिला रहा है
सदियों से मरी पड़ी, सम्मोहित और बेहोश
जनता नामक जीव का,जिला रहा है।
अरे निठल्लों! तुरते वहाँ जाओ
अउर उठने वालों को फिर से सुला आओ
सबको फिर से
’जय श्री राम’ वाली पुड़िया का
बंपर डोज खिला आओ।’’
000
kuber
9407685557

शैक्षणिक भ्रमण 2011

 शैक्षणिक भ्रमण 2011 -

  1 ऊर्जा पार्क, राजनांदगँव

छात्राओं को सौर ऊर्जा के बारे में जानकारी देते हुए

ऊर्जा पार्क, राजनांदगँव

2 जैन तीर्थ स्थल - नगपुरा, जिला दुर्ग
छात्राओं को नगपुरा का ऐतिहासिक महत्व समझाते हुए

रविवार, 10 नवंबर 2013

विमोचन समारोह

चित्र-कथा

   बाएँ से: - डा. दादू लाल जोशी (साहित्यकार), श्री कुबेर एवं पं. दानेश्वर शर्मा (अध्यक्ष - छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग)

शास. गजानन अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा में आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में "छत्तीसगढ़ी कथाकंथली" का विमोचन, दिनांक27फरवरी 2013
बाएँ से - डा. जितेन्द्र सिंह, डा. एस. जे. केकरे (प्राचार्य) कृतिकार श्री कुबेर, संत पवन दीवान, डा. विनय पाठक, डा. दादूलाल जोशी डा. परदेसी राम वर्मा, डा. नरेश कुमार वर्मा

शनिवार, 9 नवंबर 2013

छत्‍तीसगढ़ी कविता

देखव


संगी हो!
तइहा ले अब तक के इतिहास ल देखव
घर-गाँव, समाज अउ
अपन चारों मुड़ा के आज ल देखव
चिटिकुन गुनव, थोकुन सोंचव -

तुँहर सथरा के कँवरा ल झपटइया
बड़े-बड़े बटमार मन निशाना बाँधत हें
मेकरा के जाला कस चारो मुड़ा फांदा खेल के
बड़े-बड़े सिकारी मन लुका-लुका के पासत हें।

जिनगी के रस्ता म बड़े-बड़े बाधा हे
तुँहर अउ तुँहर लोग-लइका मन के
पेट काबर अब तक आधा हे?

तुँहर सथरा के कँवरा ल नंगइया
ये बटमार मन ल
तुंहर जिनगी के रस्ता मन म फांदा खेलइया,
खेदा करइया
ये सिकारी मन ल चिन्हव
चिटिकुन गुनव, थोकुन सोंचव ।

तुँहर हितू-पिरीतू ,
मीत-मितान
सगा-सोदर नो हे ये मन।

कब तक फँसे रहिहव
कोई तो जतन करव
कुछ तो कूदो-हड़बड़ावव
कुछ तो चीखो-चिल्लाव, रोव-गाव।

जीना हे,अउ
आवइया मन बर जिनगी ल गढ़ना हे
ते थोरको तो जोर लगाव
फांदा गजब तगड़ा हे
अकेल्ला म का होही
जुरमिल के ताकत लगाव।

संगी हो!
वोला प्रकृति ह खुदे मार देथे
जेकर तीर ताकत नइ होय
जउन ह ताकत नइ लगाय।
0
kuber
9407685557

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

छत्‍तीसगढ़ी कविता

छत्तीसगढ़िया होटल


छत्तीसगढ़ राज  म  एक ठन,
छत्तीसगढ़िया होटल बनाना हे।
चहा  के बदला ग्राहक मन  ल,
पसिया-पेज    पिलाना    हे।

सेव के  बदला ठेठरी-खुरमी,
इडली के बदला मुठिया-फरा,
दोसा  के  बदला चिला रोटी,
तुदूरी के बदला अंगाकर रोटी खवाना हे।

मंझनिया तात पेज,  संग म  अमारी भाजी,
रात म दार-भात  अउ इड़हर   के कड़ही,
बिहिनिया  नास्ता म  आमा के अथान संग,
दही बरा के बदला, दही-बासी खवाना हे।

कुर्सी के बदला मचोली, टेबल के बदला पिड़हा,
प्लेट के  बदला बटकी,  कप के बदला कटोरी,
बेयरा ल बस्तर के, बस्तरिहा पगड़ी पहिराना हे।

न  कोई  कपाट-बेड़ी,  न कोई छेंका-फरिका,
छकत ले खाओ संगी, अउ जी ल जुड़ावव जी,
जनता के होटल,  जनता के द्वारा, जनता बर
होटल के आगू अइसने साइन बोर्ड लगाना हे।
0
कुबेर
email - kubersinghsahu@gmail.com

सोमवार, 4 नवंबर 2013

पथरा

पथरा

संगी हो!
पथरा तो पथरा होथे
फेर विही ह जिनगी के अटघा घला होथे।

जानइया मन बर विहिच म प्रेम हे
धरम-करम-नेम हे
दया-मया अउ पीरा हे
जिनगी ल गढ़े बर अनमोल हीरा हे
जिये-मरे के सीख हे
फेर अड़हा मन बर
करिया आखर भंइस बरोबर
सबो एकेच् सरीख हे।

ये हर सच आवय, कि -
मंदिर पथरा से बनथे,
मंदिर के सिढ़िया पथरा से बनथे
मंदिर के भगवान पथरा से बनथे
बांध पथरा से बनथे
मकान पथरा से बनथे
मरे पीछू मठ पथरा से बनथे
रस्ता-सड़क सब पथरा से बनथे।

बिगड़े काम घला पथरच् से बनथे।

जउन पथरा से ये सब बनथे
वो सबो एके जइसे होथे क?

पथरा के न कोनों माथ होवय
न हाथ होवय
न किस्मत के कोई रेखा होवय
न कोनों जात-पेखा होवय।

पथरा के जात
अउ औकात ल आदमी ह बनाथे,
पथरा के किस्मत ल आदमी ह लिखथे।

पथरा ल भगवान, आदमी बनाथें
पथरा ल बांध, आदमी बनाथें
पथरा ल मकान, आदमी बनाथें
पथरा से रस्ता, आदमी बनाथें
पथरा से काम घला आदमिच् बनाथें।

पथरा ह सबले बड़े हथियार ए
हमर जिनगी के रखवार ए
पथरा के भीतर आगी लुकाय रहिथे
पथरा के भीतर जिनगी लुकाय रहिथे
येला जानिन तउन मन आदमी बनिन
मंदिर अउ भगवान गढ़िन।

संगी हो पथरा के ताकत ल परखव
येकर अंतस म लुकाय जिनिस मन ल देखव
अउ मन म गांठ बाँध लव, कि -
पथरा ले आगी,
सोना, चाँदी अउ हीरा आदमिच् ह निकालथे।

वो पथरा
जउन ह आदमी के मुठा म बँधा जाथे
जउन ल ताकत भर के फेंक देथे वो ह
समय रूपी अगास के वो पार
वो ह बजुर बन जाथे
वोकरे भीतर ले निकलथे चिन्गारी
पैदा होथे आगी
अउ विही म लिखा जाथे इन्कलाब
सिरजथे घरम-करम,
सभ्यता, संस्कृति अउ संस्कार
विही पथरा से लिखाथे
नवा जुग के नवा इतिहास
अउ बनथे सब काम।

वो पथरा ह सबले अलग होथे
मंदिर के भगवान ले घला अलग।

संगी हो!
हमला अपन काम बनाना हे
रस्ता, बांध अउ मकान बनाना हे
तब?
मुठा म पथरा तो धरेच् ल पड़ही
पथरा ल समय रूपी अगास के वो पार
मारेच् ल पड़ही।

काम सधाय बर,
रस्ता बनाय बर
वो पथरा ह का काम के
जउन ह मंदिर म माड़े रहिथे?

वो पथरा के जरूरत हे
जउन म इन्कलाब लिखाय रहिथे

संगी हो!
आज जेखर हाथ म पथरा नइ होही
वो ह खुद पथरा बन जाही।
0

शनिवार, 2 नवंबर 2013

मंगलमय हो

दीपावली की अशेष शुभकामनाएँ


मंगलमय हो


जग-जीवन सारा मंगलमय हो,
यशमय हो, लाभमय हो,
भावरस से सिक्त-सिक्त हो-
    जीवन सारा रसमय हो।

भाव शेष पर, अभाव निःशेष हो,
अक्ष-पक्ष-लक्ष्य विशेष हो,
जन-परिजन, मीत-सुमीत से-
सहज, साकार, सुविचार निवेश हो।
    हर पल, हर क्षण हर्षमय हो।

’दी’ से दिल और दिमाग का,
’वा’ से वाद-विवेक, विचार का
’ल’ से लाभ संचित लय तन-मन का,
दीवाली के ’ई’ ईमान का-
इन्सानियत से ताल-लय हो।
    परिवार, वार-तिथि, अभय-अभय हो।

ज्ञान-ज्योति का अवतरण हो,
अज्ञान-अंध का अव-हरण हो,
निज का जग से भावकरण हो,
स्व, सहकार में विलय-विलय हो।
    लक्ष्य-क्षेत्र में विजय-विजय हो।

जग-जीवन सारा मंगलमय हो,
यशमय हो, लाभमय हो,
भावरस से सिक्त-सिक्त हो-
    जीवन सारा रसमय हो।
        000

कुबेर