सोमवार, 31 जुलाई 2017

आलेख

प्रेमचंद हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। अपने साहित्य में अपने समय का इतिहास लिखनेवाला, बेहतर समाज के लिए अपने समय की बुराइयों से लड़नेवाला, और समाज को भविष्य के खतरों से सचेत करनेवाला लेखक कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता। प्रेमचंद दृष्टिसंपन्न लेखक थे, क्या लिखना है, इसकी उन्हें स्पष्ट समझ थी। एक ओर सवर्ण हिंदुओं ने उन्हें ब्रह्मण विरोधी और देशद्रोही कहकर डराने का प्रयास किया तो दूसरी ओर मुसलमानों ने भी उन्हें अपना विरोधी करार दिया। उनका लेखन उनके लिए खतरों से भरा हुआ था। उन्हें डराने का प्रयास किया गया। इन बातों की तस्दीक उनके द्वारा 1934 में लिखे गये - ’साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ तथा  ’क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ लेखों से किया जा सकता है। प्राणों का भय एक सहजात मानवीय कमजोरी है, यह कमजोरी उनमें भी थी, परंतु मृत्यु के भय से वे विचलित नहीं हुए।

कबीर और प्रेमचंद का समय आज के समय से बेहतर रहा होगा। उनके समय के शासक, सामंत और जमींदार  आज के पूंजीपति वर्ग से बेहतर रहे होंगे, इसीलिए उन लोगों की हत्या नहीं हुई। उनके समय में कोई किसान आत्महत्या नहीं करता था। आज प्रेमचंदों और किसानों की हालत कैसी है, यह किसी से छिपी नहीं है।
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शनिवार, 29 जुलाई 2017

आलेख

साम्प्रदायिकता और संस्कृति   

प्रेमचंद

साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइये, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते है तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं तो हिन्दू भी अस्सी फीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाजी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालांकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।
फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना जोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की जरूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुर्खारू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, जमींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता  पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफसरों की निगाह में बड़ी इज्जत है, इनकी वे बड़ी खाातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं,  ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में खूब लड़े जाओ, खूब एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाये जाओ। उनके पास फरियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मजा यह है कि बाजों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये  जाते हैं। इस तरह की गलतहमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई जमाना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के जमाने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन जमानों को भूल जाइये। वह मुबारक दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह जमाना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न जरूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफिक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।
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आलेख

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?


टकेपंथी पुजारी, पुरोहित और पंडे हिन्दू जाति के कलंक हैं

प्रेमचंद

यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रंीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममंे बहुत थोड़े आदमियों में आयी है। लेकिन इतना जरूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रंीयता पर लम्बे-लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रंीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें जरूर यह जागृति आ गई है और वह जात-पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गईं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति-भेद का अंधकार छाया हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रंीयता दोनों में अमृत और विष का अन्तर है। यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं। हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है। हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिन्दू समाज पर प्रभुत्व बनाए रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव का धूल भी नहीं समझते। ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन-चैथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट क ंक है। हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिन्दू-जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते। हिन्दू-जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रंीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्रंीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य-भाव का दृढ़ होना। इसके बिना राष्ट्रंीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लूसीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिन्दू समाज कभी सचेत न होगा। और यह दल दस-पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है। उसका उद्यम यही है कि वह हिन्दू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके। मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है। अगर हिन्दू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार-शासन को मिटाना होगा। हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिन्दू ऐसा है, जो इस टकेपंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं। निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चैधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की जरूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिन्दू समाज को  अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रंीयता की हांक लगाकर भी भावी हिन्दू समाज को पुरोहितों पुजारियें ही का शिकार बनाए रखना चाहते हैं। मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिन्दू-समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखे खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ब्राह्मण-द्रोही बताते हैं, वह सब उन्हीं पत्रिकाओं में छपी थी, जिनके सम्पादक स्वयं ब्राह्मण थे। मालूम नहीं ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय जरा भी आपत्ति न की थी। वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते। हम उनका गला तो दबा न सकते थे। मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता। ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापी, कि वे भी हिन्दू समाज को टकेपंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते। हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है। 

हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं। ब्राह्मण क्या इसे पसन्द कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले-भाले हिन्दुओं को ठगकर, बात-बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरे। यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसन्द आ सकता है, जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अध स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बन्द हैं। आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगंेगे। 

हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहित कुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपए साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया। आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा। ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो। सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, स. पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानन्द हैं। वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए - ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश-पूजा और गौरी पूजा और अल्लम-गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वाान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के श्रृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मन्दिरों में मखमली गाव तकिये लगाये वेश्याओं का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं।
हिन्दू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहंीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है। और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख-धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाए रखता है। और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्टंवादी हैं। राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं। और हम जिस राष्ट्रंीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगें, या सभी हरिजन होंगे।

कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निन्दा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की संभावना भी नहीं रहती। इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच-नीच, पवित्र-अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की जिन्दगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायंे। 

‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है। उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चैबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास-द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है। ऐसे चैबों को देखना हो, तो काशी या वृन्दावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम स्वराज्य संघ में चले जाइये, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे। और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई-बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे। हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि जरूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है।

निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिन्दू समाज से कितने विरक्त हो जाएंगे। हम पूछते हैं कि महात्मा गंाधी के हरिजन आन्दोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिन्दुओं ने कुचल रखा था। हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिन्दू समाज में इसी तरह के पुजारिया, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे। निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते। हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है। ऐतिहासिक सत्य चुप-चुप करने से नहीं दब सकता। 

साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य। इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिन्दू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूतों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाए हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता। इस अधोगति की दशा सुधार करना है। इसके प्रति घृणा फैलाइये, प्रेम फैलाइये, उपहास कीजिए या निन्दा कीजिए सब जायज है और केवल हिन्दू-समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिन्दू-जाति को डुबोए डालता है। हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, उसकी सच्ची दशा हम लिखें, तो शायद निर्मल जी को तो न आश्चर्य होगा, क्योंकि वह उसी समुदाय के एक व्यक्ति हैं, लेकिन हिन्दू समाज की जरूर आंखें खुल जाएंगी, मगर यह हमारी कमजोरी है कि बहुत सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है। शायद इस साम्प्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय। 

निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं। आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उन पर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बन्द कर ली जाय। आदर्शवाद का जीता-जागता उदाहरण हरिजन-आन्दोलन हमारी आंखों के सामने है। निर्मल जी जबान में तो इस आन्दोलन के विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं रखते, लेकिन उनके दिल में घुसकर देखा जाय तो मंदिरों का खुलना और मन्दिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, उन्हें जहर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?

निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बता कर संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने हमें हिन्दू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है। तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें, जिस तरह पुरोहितांे और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिन्दू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंची है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है। मुसलमान हिन्दू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐठने की फिक्र नहीं करता। फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है। हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है। हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के सामने रखो, चाहे हिन्दू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो। इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनक आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है। और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साम्प्रदायिकता और यह अंधविश्वास हम में से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा। 

हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं। उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रंीयता हैं। अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों के करारदाद की, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निन्दा करे, तो मुझे जरा भी बुरा न लगेगा। कोई हमारी बुराई दिखाए और हमदर्दी से दिखाए, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता। मिस मेयो ने जो बुराइयां दिखाई थीं उनमें उसका दूषित मनोभाव था। वह भारतीयों को स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करने के लिए प्रमाण खोज रही थी। क्या निर्मल जी मुझे भी ब्राह्मण-द्रोही, हिन्दू-द्रोही की तरह स्वराज्य-द्रोही भी समझते हैं। अन्त में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करुंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व के दिन अब बहुत थोड़े रह गए हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रंीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है। इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महन्तों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रंीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट-प्रेमियों की दृष्टि में गिर जाते हैं। आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं।
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शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

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समाज तथा राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण : डॉ. रमन सिंह
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मुख्यमंत्री ने शिक्षक दिवस पर किया दो हजार शिक्षकों का सम्मान

लगभग 26.34 करोड़ के विकास कार्यों का लोकार्पण-भूमिपूजन

सेवानिवृत्त विज्ञान शिक्षकों को मिलेगी संविदा नियुक्ति

पेंशनरों का डी.ए. 58 से बढ़कर होगा 65 प्रतिशत


साहित्य के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए अध्यापक श्री कुबेर सिंह साहू को गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार 

     रायपुर, 05 सितम्बर 2012

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने आज शिक्षक दिवस के अवसर पर जिला मुख्यालय राजनांदगांव के स्टेट हाई स्कूल में आयोजित जिला स्तरीय शिक्षक सम्मान समारोह में मंच से नीचे शिक्षकों के बीच पहुंचकर उन्हें शॉल, श्रीफल, पुष्पगुच्छ और प्रशस्ति पत्र भेंट कर सम्मानित किया। मुख्यमंत्री के हाथों इस मौके पर जिले के दो हजार शिक्षक सम्मानित हुए । डॉ. रमन सिंह ने समरोह में प्रदेश सरकार की ओर से यह भी ऐलान किया कि स्कूलों में विज्ञान शिक्षकों की कमी को देखते हुए अब सेवानिवृत्त हो रहे या हो चुके विज्ञान शिक्षकों को संविदा नियुक्ति दी जाएगी। मुख्यमंत्री ने प्रदेश के सभी सेवा निवृत्त शासकीय कर्मचारियों (पेंशनरों) का डी.ए. 58 प्रतिशत से बढ़ाकर पैंसठ प्रतिशत करने की भी घोषणा की।

     शिक्षक सम्मान समारोह को सम्बोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि समाज तथा राष्ट्र के निर्माण और विकास में शिक्षकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। नई पीढ़ी के निर्माण का महत्वपूर्ण दायित्व उन पर होता है। डॉ. रमन सिंह ने कहा कि महान दार्शनिक और देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती आज हम सब शिक्षक दिवस के रूप में मना रहे हैं, जो स्वयं एक आदर्श शिक्षक थे। यह शिक्षक समुदाय के लिए गर्व की बात है। हमारे शिक्षकों में समाज को सही दिशा देने की आंतरिक शक्ति होती है। उन्हें अपनी इस शक्ति को पहचानने की जरूरत है। डॉ. रमन सिंह ने सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस की बधाई और शुभकामनाएं दी। मुख्यमंत्री ने कहा कि मैं आज जो कुछ भी हूं अपने शिक्षकों की बदौलत हूॅ, जिनके आशीर्वाद और मार्गदर्शन से मुझे जीवन में आगे बढ़ने और जनता की सेवा करने का मौका मिला है। मुख्यमंत्री ने इस मौके पर अपने शिक्षकों श्रीमती वैष्णव और स्वर्गीय श्री ताराचन्द झा को बड़ी विनम्रता और भावुकता के साथ याद किया।  मुख्यमंत्री ने शिक्षक सम्मान समारोह में शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए शिक्षक श्री चुन्नूराम साहू को डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया, वहीं उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए अध्यापक श्री कुबेर सिंह साहू को गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार और आंचलिक लोक-कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए अध्यापक डॉ. पीसी लाल यादव को डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र स्मृति पुरस्कार से सम्मानित कर बधाई और शुभकामनाएं दी। तीनों अध्यापकों को मुख्यमंत्री ने ग्यारह-ग्यारह हजार रूपए की सम्मान राशि के साथ प्रशस्ति पत्र भेंट किया।

डॉ. रमन सिंह ने राजनांदगांव में आयोजित कार्यक्रम में आज लगभग 26.34 करोड़ रूपए के विभिन्न निर्माण और विकास कार्यों का लोकार्पण तथा भूमिपूजन किया। इनमें शहर की गरीब बस्तियों के लिए भागीरथी नल-जल योजना के तहत स्वीकृत आठ हजार परिवारों के नल कनेक्शन भी शामिल हैं। मुख्यमंत्री ने शहर के कौरिनभाठा  में इसका शुभारंभ किया। इस योजना के तहत गरीब परिवारों को नि:शुल्क नल कनेक्शन देने के लिए लगभग ढ़ाई करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। डॉ. रमन सिंह ने गुरूनानक उच्चतर माध्यमिक शाला परिसर में आयोजित कार्यक्रम में शहर के विकास के लिए विभिन्न निर्माण कार्यो का लोकार्पण और भूमिपूजन किया। उन्होंने विद्युत सुविधाओं के विकास और विस्तार के लिए लगभग 16 करोड़ 50 लाख रूपए के निर्माण कार्यों का भी भूमिपूजन और शिलान्यास किया। उन्होंने शहर की 85 सड़कों के डामरीकरण कार्य का भी शुभारंभ किया, जिस पर लगभग सात करोड़ 76 लाख रूपए की लागत आएगी। इस मौके पर आवास एवं पर्यावरण मंत्री तथा जिले के प्रभारी श्री राजेश मूणत, राजनांदगांव के लोकसभा सांसद श्री मधुसूदन यादव, राज्य नागरिक आपूर्ति निगम के अध्यक्ष श्री लीलाराम भोजवानी, पाठय पुस्तक निगम के अध्यक्ष श्री अशोक शर्मा, विधायक सर्वश्री रामजी भारती और खेदूराम साहू, 20 सूत्रीय कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के उपाध्यक्ष श्री खूबचंद पारख, नगर निगम महापौर श्री नरेश डाकलिया तथा कलेक्टर श्री अशोक अग्रवाल सहित अनेक जनप्रतिनिधि और बड़ी संख्या में नागरिक उपस्थित थे।

क्रमांक- 2374/स्वराज्य

Date:  05 Sep 2012

बुधवार, 26 जुलाई 2017

आलेख

हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास लिखनेवाले प्रथम साहित्यकार - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी 

’’हिंदी साहित्य के इतिहास को आलोचनात्मक ढंग से समझाने का श्रेय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (राजनांदगाँव के यशश्वी साहित्यकार तथा सरस्वती के संपादक) को है जिन्होंने संवत् 1980 में ’हिन्दी साहित्य विमर्श’ नामक 196 पृष्ठ की पुस्तक लिखी। यह पुस्तक वस्तुतः उसके हिंदी साहित्य के सांस्कृतिक विकास के संबंध में लिखे गये कुछ निबंधों का संग्रह है। ........ इन निबंधों में साहित्य की विविध प्रवृत्तियों का पाण्डित्यपूर्ण विभाजन और मूल्यांकन किया गया है तथा कवियों और लेखकों के साहित्यगत व्यक्तित्व पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। .... इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रकार आलोचनात्मक विवेचन एक क्रम में पहली बार किया गया।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संवत् 1986 में एक ’हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखा। ..... अभी तक लिखे हुए इतिहासों में इस इतिहास को सर्वश्रेष्ठ कहना चाहिए।’’
संदर्भ:- हिंदी साहित्य का आलोचनात्म इतिहास - राम कुमार वर्मा) 

शनिवार, 22 जुलाई 2017

समाचार

(प्रंजॉय गुहा ठाकुरता इकोनमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) पत्रिका के संपदक थे। उन्होंने पत्रिका में अडानी के विषय में आर्टिकल लिखा था उसके बाद उन्हें स्तीफा देना पड़ा। स्तीफै का कारण उन्होंने नहीं बताया। इसी मुद्दे पर आज के देशबंधु के संपादकीय पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध पत्रकार चिन्मय मिश्र का एक लेख छपा है। लेख का शीर्षक है - खतरनाक होती पत्रकारिता। यह लेख अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके खतरों की पड़ताल करता है। इस लेख के कुछ अंश इस प्रकार हैं -)
...... ’’ठाकुराता ने पहली बार किसी बड़े उद्योगपति के खिलाफ लिखा हो या प्रकाशित किया हो, ऐसा नहीं है। ..... बात समझ से परे है कि आपके साथ अन्याय हुआ और आप सार्वजनिक तौर पर उसका प्रतिकार नहीं करना चाहते। ........... गौर तलब है, नाॅम चामस्की ने कहा है - ’वे (व्यापारी वर्ग) बहुत पहले ही समझ चुके हैं कि केवल जनमानस ही निजी नियमों के लिए एक गंभीर खतरा है।’ इसलिए उन्होंने अब तकरीबन पूरा मीडिया ही अपने कब्जे में कर लिया है। वहीं इसके ठीक विपरीत जनमानस भी हमारे साथ नहीं है। वजह हमसे बेहतर कौन जान सकता है। क्योंकि हम तो जनता की नब्ज़ जानने का खोखला दावा लगातार करते आये हैं। तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद हम पूरे देश में तीस ऐसे पत्रकार नहीं छाँट पाते जो कि किसान व किसानी की समस्या को समझते हों और समझाने का माद्दा रखते हों।....... अधिकांश ऐसे अखबार जो कि अपने मास्ट हेड पर बड़ी-बड़ी बातें लिखते हैं और देश बदलने और सच के सबसे बड़े हिमायती होने के भ्रम से ग्रसित हैं, उन अखबारों में अब पार्षद के खिलाफ भी नहीं लिखा जाता तो वे प्रधानमंत्री पर क्या टिप्पणी करेंगे। ....... देश के प्रधानमंत्री तीन वर्षों में एक भी पत्रकार वार्ता नहीं करते परंतु दीवाली पर भोज देते हैं और....?

रविवार, 16 जुलाई 2017

समाचार

साहित्य समाचार 

’साकेत’ का 18 वाँ वार्षिक सम्मेलन संपन्न


16 जुलाई, 2017 रविवार को नगर पालिक निगम, राजनांगाँव, के सभागार में ’साकेत साहित्य परिषद् सुरगी’ का 18 वाँ वार्षिक साहित्य सम्मेलन, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ शासन तथा छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग, के सहयोग से संपन्न हुआ। तीन सत्रों में आयोजित इस सम्मेलन के प्रथम सत्र में ’छत्तीसगढ़ी लोककला मंचों का सांस्कृतिक अवदान’ विषय पर परिचर्चा हुई तथा ’साकेत स्मरिका’ का विमोचन किया गया जिसमें दुर्ग, बालोद एवं कवर्धा जिले के साहित्यकार बड़ी संख्या में उपस्थित थे। सत्र का संचाालन साहित्यकार कुबेर सिंह साहू ने किया।  

अपने आधार वक्तव्य में श्री यशवंत ने कहा कि - कुछ दशक पहले तक लोकसंस्कृति धन अर्जित करने का साधन अथवा आजीविका का साधन कभी नहीं रही है। और तब तक यह लोक की अभिलाषाओं और आकाक्षाओं को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करके लोक अस्मिता को सुदृढ़ करती रही है। लोक को जीवनी शक्ति देती रही है। परंतु अब, जबकि इसमें ह्रास और विकृति पैदा करनेवाली, आज के लोककलाकारो की पीढ़ी, यश और धन की चाह में परंपरा से अर्जित लोक संस्कृति को, लोक साहित्य को बाजार के हाथों बेचने पर उतारू हुई है, अपसंस्कृति का दौर शुरू हुआ है। या तो इस परिवर्तन को परिवर्तनशील समाज की इच्छा मानकर मौन साध लें अथवा अपसंस्कृति पैदा करनेवाली बाजार निर्मित सेल्फी संस्कृति से बचने का कुछ तो प्रयास करें। सत्र को सभी साहित्यकारों ने छत्तीसगढ़ी भाषा में संबोधित किया। 

अपने उद्बोधन में लोककला के प्रकांड विद्वान तथा लोककला मंच ’दूध मोंगरा’ के संस्थापक-संचालक डाॅ. पीसी लाल यादव ने कहा कि छत्तीसगढ़ में स्थापित और संचालित सभी लोककला मंच, दाऊ रामचंद्र देशमुख द्वारा स्थापित प्रथम छत्तीसगढ़ी लोककला मंच ’चंदैनी गोदा’ से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। चंदैनी गोंदा द्वारा स्थापित आदर्श ही समस्त छत्तीसगढ़ी लोककला मंवों का आदर्श है। यह आदर्श छत्तीसगढी़ लोकनाट्य नाचा का आदर्श है जो उसकी आत्मा है। छत्तीसगढी़ लोकनाट्य नाचा का इतिहास छत्तीसगढ़ के रामगढ़ में स्थापित विश्व के प्रथम नाट्यशाला के इतिहास से भी प्राचीन है, क्योंकि रामगढ़ में स्थापित विश्व के प्रथम नाट्यशाला का इतिहास भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के बाद प्रारंभ होता है परंतु छत्तीसगढी़ लोकनाट्य नाचा तो लोक की कृति है और कहना न होगा कि लोक और उसकी परंपराएँ पहले आती है, शास्त्र बाद में। दुख की बात है कि वर्तमान में लोककला मंचों में द्विअर्थी संवादों और बाजार की संस्कृति ने प्रवेश करके इसे विकृत करना शुरू कर दिया है। समय के अनुरूप परिवर्तन मानकर इस अश्लील अपसंस्कृति को स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

इस सत्र के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के सदस्य आदरणीय डाॅ. गणेश सोनी ’प्रतीक’ ने कहा कि - केवल हमार ममतामयी, गुरतुर छत्तीसगढ़ी महतारी भाखाच् ह आज लोककला मंच मन ल अपसंस्कृति से बचा सकथे। येकर खातिर हम सब लोकलाकार अउ साहित्यकार मन ल येला चुनौती मान के, ईमानदारी के संग अउ संकल्प लेके के काम करे जरूरत हे। 

सत्र के अध्यक्ष प्रो. डाॅ. नरेश कुमार वर्मा ने कहा कि - छत्तीसगढ़ी लोककला मंचों के सांस्कृतिक अवदानों को रेखांकित करने का प्रयास पहले से चल रहा है परंतु इस संबंध में कोई उल्लेखनीय प्रगति दिखाई नहीं देती। आज ’साकेत साहित्य परिषद् सुरगी’ ने इस विषय को प्रमुखता के साथ साहियिक मंच पर उठाया है, इसके लिए यह परिषद् बधाई का पात्र है। इस सत्र में साहित्यकार आ. सरोज द्विवेदी, प्रसिद्ध कहानीकार कैलाश बनवासी, ’कलापरंपरा’ के संपादक डी. पी. देशमुख, तथा साहित्यकार दुर्गा प्रसाद पारकर ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

सम्मेलन के दूसरे, सम्मान, सत्र के मुख्य अतिथि राजनांदगाँव संसदीय क्षेत्र के पूर्व सांसद तथा नगर पालिक निगम राजनांगाँव के महापौर, जन-जन में लोक प्रिय, जन-जन के नायक, मधुसूदन यादव थे। सत्र में उनके उद्बोधन की साहित्यिक शैली से उनकी साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन हुए। महापौर मधुसूदन यादव ने कहा कि - आज जन सेवा के प्रतिमान बदल चुके हैं। जनता से कटकर आप जन सेवा नहीं कर सकते। साहित्य भी जन सेवा का ही साधन है। आप सब साहित्यकारों से अनुरोध है कि साहित्य को जनोपयोगी बनाने के लिए आप जन से जुडकर एक नये साहित्यिक प्रतिमान की स्थापना करें। इस सत्र में महापौर मधुसूदन यादव ने जिले के व्यंग्यकार गिरीश ठक्कर ’स्वर्गीय’, पत्रकार प्रकाश साहू ’वेद’ तथा लोककलाकार दिनेश साव को ’साकेत सम्मान’ से सम्मानित किया। सम्मेलन के अंतिम सत्र में उपस्थित कवियों ने काव्य पाठ किया। 
निवेदक - कुबेर
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शनिवार, 15 जुलाई 2017

आलेख

आलेख

लोक की सेल्फ संस्कृति और आज की बाजार निर्मित सेल्फी संस्कृति

कुबेर

संस्कृति की अवधारणा विराट है। लोक संस्कृति  में लोक साहित्य, लोक कलाएँ और लोक परंपराएँ, सब कुछ समाहित हैं। यह केवल लोक मनोरंजन का साधन न होकर लोकशिक्षण, लोक प्रतिरोध और लोक अभिव्यक्ति का माध्यम भी है। परंतु आज यह अपने इस मूल उद्देश्य से भटकी हुई दिखाई देती है। इस भटकाव के लिए काफी हद तक बाजार की संस्कृति और बाजार की ताकतें जिम्मेदार हैं।

बाजार की संस्कृति शोषकों की संस्कृति है। शोषकों के मन में जिस दिन यह विचार आया कि मरे हुए चूहे को भी बेचकर धन कमाया जा सकता, उसी दिन से बाजार की संवेदनाओं का अवसान शुरू हो गया था।  आज बाजार की संस्कृति में संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। बाजार की नजरों में आज मनुष्य की स्थिति उस मरे हुए चूहे के सामान है, जिसे बेचकर अकूत धन पैदा किया जा सकता है। बाजार आज दुनिया की सर्व शक्तिमान ताकत है। दुनिया के किसी भी देश में, वहाँ चाहे जैसी भी शासन प्रणाली हो, सबका नियंत्रण आज बाजार के हाथों में आ चुकी है। 

यह कैसे हुआ? इसने अपनी जादुई ताकत से सामूहिक सम्मोहन पैदा करके सबसे पहले मनुष्य की चेतना पर कब्जा किया। और इसीलिए बाजार को अब वर्तमान मनुष्य की चेतना के स्तर को जानने के लिए, कि आज का मनुष्य क्या सोचता है, और कहाँ तक सोचता है, सर्वेक्षण कराने की जरूरत नहीं है। क्योंकि बाजार की संस्कृति आज हमें या तो सोचने का अवसर और अवकाश ही नहीं देती है या फिर हम जो भी सोचते हैं उसकी दिशा, विषय और तौर-तरीके बाजार के द्वारा पहले से ही तय किया हुआ होता है। अर्थात हम वही सोचते हैं, वही देखते हैं और वही करते हैं जो बजार चाहता है। बाजार हमारी हर कमजोरी और हर कमी, को अपने लाभ के लिए हमारे विरुद्ध प्रयोग करता है। 

समाज को सामूहिक सम्मोहन में जकड़नेवाली पहली शक्ति थी सांप्रदायिकता। सांप्रदायिकता हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। यह न तो हमें आदमी बनने देती है और न ही हमें आदमी की तरह रहने देती है। बाजार की ताकत ने इसे और भी शक्तिशाली और अपने अनुकूल बना लिया है। 

सांप्रदायिकता रूपी हमारी इस कमजोरी को और बाजार की बढ़ती हुई शक्ति को प्रेमचंद ने 1934 में ही समझ लिया था; तभी तो हमें सावधान करते हुए उन्होंने अपने निबंध ’सांप्रदायिकता और संस्कृति’ में लिखा है - ’’सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसीलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जावरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति; मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं।’’ कहना न होगा कि संवेदनाशून्य बाजार, संस्कृति और सांप्रदायिकता का आवरण ओढ़कर और भी क्रूर और हिंसक हो जाता है।  

बाजार की सर्वशक्तिमान, निरंकुश और संवेदनहीन ताकत ने साहित्य को भी प्रभावित किया है। लोक साहित्य हो या शिष्ट साहित्य, दोनों ही आज बाजार की ताकत की गिरफ्त में दिखाई देते हैं। इसका असर पठन और चिंतन पर भी हुआ है। आज की पीढ़ी छपी हुई सामग्री, चाहे वह साहित्य की किताबें हो या पत्रिकाएँ, के पठन के दायरे से बाहर हुई हैं। आज की पीढ़ी अपने स्मार्ट फोन के स्क्रीन पर या कंप्यूटर के स्क्रीन पर, घंटों समय व्यतीत करती है। जाहिर है, वहाँ वह कुछ न कुछ पढ़ती जरूर होगी। इस संस्कृति को प्रसिद्ध आलोचक अवधेश कुमार सिंह ने पट पाठ (screen text) की संस्कृति कहा है। साहित्यिक संस्कृति और बाजार नामक निबंध में वे लिखते हैं - ’’नई साहित्यिक संस्कृति को पट पाठ (screen text) ने काफी हद तक प्रभावित किया है। इसमें समस्या यह है कि पाठ साधना के लिए पाठ पर चिंतन-मनन की आवश्यकता होती है जिसके लिए अवकाश (space) जरूरी होता है।’’  पट पाठ (screen text) की गति और वातावरण (विज्ञापन और अन्य दृश्यावलियाँ) पाठक को कभी कोई अवकाश नहीं देता। पट पाठ (screen text) करते हुए पाठक का ध्यान भटकता है और वह एक साथ कई दिशाओं में क्रियाशील हो जाता है। अर्थात पाठक तब एक साथ एक से अधिक कार्य करने की स्थिति में आ जाता है। यह मल्टी टास्किंग (multi-tasking) की अवस्था होती है। ऐसी दशा में चिंतन और मनन की बात ही बेमानी लगती है। अवधेश कुमार सिंह आगे लिखते हैं - ’’पट पाठ (screen text)  के पठन की प्रकृति ऐसी है कि इसमें मल्टी टास्किंग (multi-tasking) करनी पड़ती है। .... मल्टी टास्किंग (multi-tasking) चिंतन विरोधी होता है। मल्टी टास्किंग (multi-tasking) पशु गुण है, क्योंकि पशु को खाने के साथ-साथ अन्य पशुओं और शिकारियों का ध्यान रखना होता है। पशु समाज से मनुष्य समाज की उत्क्रांति में मल्टी टास्किंग (multi-tasking) से सिंगल टास्किंग (single-tasking) की ओर बढ़ती प्रवृत्ति ने बड़ा योगदान किया, क्योंकि इसने चिंता से चिंतन, अतियोग से योग, और अति विचार से सुविचार की क्षमता विकसित करके अपनी भूमिका निभाई। मल्टी टास्किंग करती बया अभी भी अपना घोसला वैसे ही बनती है जैसे हजारों साल पहले।’’ 

समाज की अवधारण ही सामूहिकता की अवधारण है। समाज का निर्माण सामूहिकता की संस्कृति द्वारा होता है। एक ऐसी संस्कृति के द्वारा जो चेतना-पूरित होती है। मनुष्य समाज उत्सवधर्मी समाज है। उत्सव हो अथवा दुख और विपत्ति के क्षण, मनुष्य समाज में हर जगह सामूहिक चेतना के दर्शन होते हैं। इसके विपरीत आज की पट पाठ की संस्कृति ने आज की पीढ़ी को एकांतिकता की गहरी अंध कूप में ढकेला है जहाँ न तो समाज है, न ही जीवन और न ही चेतना। आपके मन में सवाल उठ सकते हैं - तो क्या आज की पट पाठ की संस्कृति और उसकी मल्टी टास्किंग की प्रक्रिया वर्तमान मनुष्य समाज को आदिम युग की ओर ढकेल रही है? मैं कह सकता हूँ कि यदि ऐसा हुआ है तो यह आदिम मानव समाज की स्थिति से भी बदतर स्थिति है। 

हमारी संस्कृति आत्मचिंतन की संस्कृति रही है। सर्वमंगल कामना इसकी आत्मा रही है। यह संस्कृति एक ऐसे परिवेश की मांग करती है जहाँ सघन ध्यान संभव हो सके। इसके लिए अवकाश अर्थात space की आवश्यकता होती है। परंतु आज हमारी यह आत्म self  संस्कृति सेल्फी selfie संस्कृति में बदल रही है जहाँ सघन ध्यान के लिए कहीं कोई जगह नहीं है।  सेल्फी संस्कृति बाजार की मंगलकामना करनेवाली संस्कृति है। यहाँ सर्व मंगलकामना की बात करना ही बेमानी है। आत्मचिंतन करनेवाला समाज समय की थाह लेनेवाला, समय के साथ संघर्ष करनेवाला, और समय को अपने अनुकूल बनानेवाला समर्थ और पुरुषार्थ करनेवालों का समाज रहा है और उसके इसी सामथ्र्य और पुरुषार्थ ने अब तक की सारी संभ्यताओं को जन्म दिया है। आज की सेल्फी संस्कृति विचारशून्य, संवेदनाशून्य और चेतनाशून्य लोगों की संस्कृति है। समय की धारा में बह जाना इसकी नियति है। 

बाजार की ताकत ने लोकसाहित्य को भी प्रभावित किया है। लोक की चेतना सामूहिक होती है। यह वाचाल और मुखर चाहे न होती हो पर यह प्रखर जरूर होती है। लोक की चेतना हर यथास्थिति को समझती और पहचानती है। यह अपने शासकों और शोषकों की नीयत को भी अच्छी तरह समझती और पहचानती है। उसने बाजार को भी समझा और पहचाना है। लोक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र प्रकृति का होने के बाद भी शासन की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश होता है। परंतु उसकी आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की प्रकृति उसे शासकों और शोषकों की चाटुकारिता से बचाती है। लोक साहित्य में शासकों और शोषकों के विरुद्ध प्रतिरोघ के स्वर भी होते है और उनके प्रति शुभकामनाएँ भी परंतु चाटुकारिता कदापि नहीं होती। लोक संस्कृति की परंपरा इसे अब से कुछ समय पहले तक निभाते आई है, चाहे लोकगीतों में हो, चाहे लोकगाथाओं में हो, लोकनाट्य नाचा में हो या फिर चाहे आज की आधुनिक लोककला मंचों में हो। परंतु वर्तमान में इस परंपरा में ह्रास और विकृति दिखाई देने लगी है। इस ह्रास और विकृति की चर्चाएँ और आलोचनाएँ भी हो रही हैं। पर निदान हमारे हाथों में नहीं है। यह दुखद स्थिति है। इस ह्रास और विकृति की पड़ताल करने पर पता चलता है कि ऐसा करनेवाली लोककलाकारों की वर्तमान पीढ़ी है, लोककलाकारों की वह पीढ़ी है जो बाजार की शक्तियों की गिरफ्त में आ चुकी है। यह वह पीढ़ी है जो पट पाठन और मल्टी टास्किंग की परंपरा से आ रही है और जिसने सेल्फ संस्कृति को त्यागकर सेल्फी संस्कृति को अपना लिया है। 

कुछ दशक पहले तक लोकसंस्कृति धन अर्जित करने का साधन अथवा आजीविका का साधन कभी नहीं रही है। और तब तक यह लोक की अभिलाषाओं और आकाक्षाओं को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करके लोक अस्मिता को सुदृढ़ करती रही है। लोक को जीवनी शक्ति देती रही है। परंतु अब, जबकि इसमें ह्रास और विकृति पैदा करनेवाली, आज के लोककलाकारो की पीढ़ी, यश और धन की चाह में परंपरा से अर्जित लोक संस्कृति को, लोक साहित्य को बाजार के हाथों बेचने पर उतारू हुई है, या तो इसे परिवर्तनशील समाज की इच्छा मानकर मौन साध लें अथवा बाजार निर्मित सेल्फी संस्कृति से बचने का कुछ तो प्रयास करें।
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गुरुवार, 13 जुलाई 2017

आलेख

प्रेमचंद की नजर में आज की संस्कृति

’’सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसीलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जावरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक ही संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति; मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं।’’
(निबंध - ’’सांप्रदायिकता और संस्कृति’’, 1934)

रविवार, 9 जुलाई 2017

आलेख

सभी गुरूजनों को प्रणाम

यहाँ (chhattisgarh ) एक आई. ए. एस. महोदय आये थे। शिक्षकों के वे परम विरोधी थे। वे खुले शब्दों में शिक्षकों को निकम्मा और अयोग्य कहकर अपमानित करते थे। उनके अनुसार वे केवल अपनी मेहनत के बल पर आई. ए. एस. बने हैं। उनके आई. ए. एस. बनने में किसी शिक्षक का कोई योगदान नहीं है।

अनेक अधिकारियों में ऐसी मनोवृत्ति पाई जाती है। 

रविवार, 2 जुलाई 2017

समीक्षा

गीतनाट्य

’सुकुवा - पहाती के’


शनिवार 01 जुलाई 2017 को नेहरू सांस्कृतिक केन्द्र, भिलाई, सेक्टर-1 में भिलाई के कलाप्रेमी दर्शकों के अलावा छत्तीसगढ़ प्रदेशभर के लोककलाकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और जनप्रतिनिधियों की विपुल उपस्थिति में ’कला परंपरा’ संस्था द्वारा दुर्गा प्रसाद पारकर लिखित गीतनाट्य ’सुकुवा - पहाती के’ का मंचन किया गया। 

’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ जैसे मुद्दों को नाटक के मूल उद्देश्य के रूप में प्रचारित किया गया था लेकिन कथानक में शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रचार-प्रसार की सघन उपस्थिति ने इस उद्देश्य को धक्का मार-मारकर मंचच्युत् कर दिया। लोक परंपरा में शासन की चापलूसी और स्तुतिगान कभी भी, कहीं भी नहीं है। लोक परंपरा में लोक-प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं, जिसे इस गीतनाट्य में नकारा गया है।

पूर्व प्रतिष्ठित लोककलामंचों की ही शैली में प्रस्तुत इस गीतनाट्य में नवीन कुछ भी नहीं है अपितु एकाधिक बार छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा और लोक संस्कृति की गलत छवियाँ अवश्य प्रस्तुत की गई हैं, यथा - यहाँ लाख प्रताड़ित होकर भी पत्नियाँ पति को ’’रोगहा, किरहा, तोर रोना परे,’ की गालियाँ नहीं देतीं। अपवादें जरूर होंगे, परंतु अपवादों से न तो परंपराएँ बनती है और न हीं संस्कृतियाँ। लेखक द्वारा इसे यदि नारी सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया होगा तो बात अलग है। 

गौरा-गौरी की झाँकियों में अंतर होता है। गौरी की झाँकी अलंकृत और छाजनयुक्त बनाई जाती हैं (गौरी (पार्वती) राजकन्या है, महलों में रहनेवाली हैं।) गौरा की झाँकी खुली और प्राकृतिक होती है। (गौरा (शिव) के पास महल नहीं है, वे तो हिमालयवासी हैं।) लोक की यह समझ स्तुत्य है। परंतु लोककला मंचों के कलाकारों के पास यह समझ नहीं है, पता नहीं क्यों? 

छत्तीसगढ़ ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महिला और पुरुष टीमों के बीच किसी प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ नहीं होती। गीतनाट्य में ऐसा दिखाया गया है। ’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ के लिए इस प्रकार के आयोजनों की शुरुआत यदि छत्तीसगढ़ से होने की शुभ आकांक्षा के साथ यह दृश्य रख गया हो तो यह स्वागतेय है।

इन बातों की यदि उपेक्षा कर दिया जाय तो प्रस्तुति निसंदेह सफल मानी जायेगी।
कुबेर
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