रविवार, 2 जुलाई 2017

समीक्षा

गीतनाट्य

’सुकुवा - पहाती के’


शनिवार 01 जुलाई 2017 को नेहरू सांस्कृतिक केन्द्र, भिलाई, सेक्टर-1 में भिलाई के कलाप्रेमी दर्शकों के अलावा छत्तीसगढ़ प्रदेशभर के लोककलाकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और जनप्रतिनिधियों की विपुल उपस्थिति में ’कला परंपरा’ संस्था द्वारा दुर्गा प्रसाद पारकर लिखित गीतनाट्य ’सुकुवा - पहाती के’ का मंचन किया गया। 

’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ जैसे मुद्दों को नाटक के मूल उद्देश्य के रूप में प्रचारित किया गया था लेकिन कथानक में शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रचार-प्रसार की सघन उपस्थिति ने इस उद्देश्य को धक्का मार-मारकर मंचच्युत् कर दिया। लोक परंपरा में शासन की चापलूसी और स्तुतिगान कभी भी, कहीं भी नहीं है। लोक परंपरा में लोक-प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं, जिसे इस गीतनाट्य में नकारा गया है।

पूर्व प्रतिष्ठित लोककलामंचों की ही शैली में प्रस्तुत इस गीतनाट्य में नवीन कुछ भी नहीं है अपितु एकाधिक बार छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा और लोक संस्कृति की गलत छवियाँ अवश्य प्रस्तुत की गई हैं, यथा - यहाँ लाख प्रताड़ित होकर भी पत्नियाँ पति को ’’रोगहा, किरहा, तोर रोना परे,’ की गालियाँ नहीं देतीं। अपवादें जरूर होंगे, परंतु अपवादों से न तो परंपराएँ बनती है और न हीं संस्कृतियाँ। लेखक द्वारा इसे यदि नारी सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया होगा तो बात अलग है। 

गौरा-गौरी की झाँकियों में अंतर होता है। गौरी की झाँकी अलंकृत और छाजनयुक्त बनाई जाती हैं (गौरी (पार्वती) राजकन्या है, महलों में रहनेवाली हैं।) गौरा की झाँकी खुली और प्राकृतिक होती है। (गौरा (शिव) के पास महल नहीं है, वे तो हिमालयवासी हैं।) लोक की यह समझ स्तुत्य है। परंतु लोककला मंचों के कलाकारों के पास यह समझ नहीं है, पता नहीं क्यों? 

छत्तीसगढ़ ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महिला और पुरुष टीमों के बीच किसी प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ नहीं होती। गीतनाट्य में ऐसा दिखाया गया है। ’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ के लिए इस प्रकार के आयोजनों की शुरुआत यदि छत्तीसगढ़ से होने की शुभ आकांक्षा के साथ यह दृश्य रख गया हो तो यह स्वागतेय है।

इन बातों की यदि उपेक्षा कर दिया जाय तो प्रस्तुति निसंदेह सफल मानी जायेगी।
कुबेर
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