शुक्रवार, 30 जून 2017

आलेख

sansmaran
मोर स्कूल के गुरूजी: खुमान सर
यशवंत


समझ-समझ के बात हे, कतको मन काव्य-साहित्य-संगीत ल आनंद के जिनिस समझथें। त ’’गायन म निःशब्द लयात्मकता या लयबद्धता अउ नाद के विविध गुणमन के समन्वय होथे, अउ कतको। गायन म एक-एक कण्ठ स्वर के पहिचान हो जाथे। गायन म साहित्य या काव्य के आनंद ह घलो अभिन्न रूप ले जुड़े हे।’’1 पक्का होथे के लोककला के जम्मों विधा म कला के संगेसंग साहित्य तत्व घला हावे। एकर खोज शोधार्थी मन ल करनच् परही। भारतीय चैसठ कला म भाषा ज्ञान, विद्या, गायन, वादन, नर्तन, नाट्य, आलेखन विशेष महत्व के हावे के येकर बगैर लोक संस्कृति परंपरा ह कायम नइ हो सकय जइसे जुड़ा बिना नांगर ह नइ चल सकय। मतलब लोक के ललित विधा मन ले साहित्य के भिन्न विधामन आगी म तप के प्रगट होय हे, जेमा गायन, वादन, नाट्य, नृत्य ल लेके लोक सांस्कृतिक मंच के आज अड़बड़ेच् विस्तार होय हे; जेमा लोक के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक अउ सांस्कृतिक दृश्य ह चटक चंदेनी असन सुघ्घर दिखत हे। जइसे संझा बेरा के सुकवा हर रेंगहार ल अपन अंजोर म वोकर ठिकाना तक पहुँचा देथे। समाज के मनखेमन ल उचित दिशा म रेंगायबर रस्ता बतइया कुछेक लोककला संस्थामन के नाव ह अइसन हावे - 1. चंदैनी गोंदा, 2. सोनहा बिहान, 3. लोक नाट्य (नाचा-रहस), 4. पंथी नृत्य मंडली, 5. छत्तीसगढ़ देहाती कला मंडल। गाँव-गाँव म अउ कतरो हें।

समाज ल उचित रस्ता देखाय के उदिम करइया लोककला मंच म अव्वल हे - चंदैनी गोंदा। चंदैनी गोंदा म दू शब्द हें- चंदैनी $ गोंदा, जिहाँ - चंदैनी = तारा, चाँदनी, चंदैनी नाव के मछरी घला होथे (तारा मछली या ैजंतपिेी); अउ गोंदा = गोंदा फूल, मित्रता के भाव, मितान बदना।
सूरदास के प्रसिद्ध दोहा हावय -
विधना यह जिय जान के, सेषहिं दिये न कान।
धरा मेरु सब डोलते, तानसेन की तान।।

ये दोहा ल तानसेन के गायन के खातिर कहे गे हे। ग्वालियर के शासक मुहम्मद शाह आदिल, जउन हर 1549 ई. ले 1556 ई. तक ग्वालियर म राज करिन; ल तानसेन हर अपन गुरू मानय। आदिल के अरथ होथे न्यायिक। अबुल फज़ल ह अपन आइने अकबरी म लिखे हें - ’’तानसेन ह ग्वालियर के रहवइया रिहिस अउ अइसन गवइया पाछू एक हजार बरिस म भारतवर्ष म नइ होइस।’’2 तानसेन ल संगीत के क्रियापक्ष-शास्त्रपक्ष के उत्तम ज्ञान रिहिस हे। एकरेबर एन आगस्टस विलार्ड ह केहे हाबे - ’तानसेन के हिंदुस्तानी संगीत ल ऐतिहासिक क्रम म बरस-बरस तक ले नइ भुलाय सकन।’ माने तानसेन ह गायन के कला ल अपन चेलामन अउ चेला के चेलामन ल सौंपिस, जइसे दाई ह बेटा-बहू के मउर सौंपथे; जे ह जिनगी ल कभू साधारण दशा में तोड़ेच् नहीं। त तानसेन ह संगीत कला अउ गायन कला ल आगू बढ़ाय के उत्तम नायक आय।

लोक रहय कि परलोक, गायन विधा ह बड़ सुघ्घर विधा परंपरा आय। गाय के रंभाना ल सुनके बछरू ह दउड़त अपन दाई तीर ओध जाथे। गायन म ध्वनि, आकार, सपर्श, रंग, गंध, रूप अउ रस के बिलौना मथनी होथे जेकर ले लेवना अउ घीव के स्वाद आथेच्। गायन म नाद के बहुत-बहुत गुन होथे। सब ह एकमयी रहिथय। मतलब इही एकमयी म गायक के अउ बजनिया के क्रमशः सुर अउ ताल-माल के लय म अभिन्न होय के घलो अलग-अलग सुनाथे। जेहर एकता-समता, बंधुत्व के नदिया के धार बरोबर हावय। ध्वनि ले शब्उ अउ शब्द ले वाक्य .... अउ अइसने तालमेल ले कवितामन के रचना होथे। इही वाक्य ल संगीबद्ध करके गायन के प्रयास म गायक अउ वादकमन प्रयत्नशील रहिथे। मतलब साहित्य के गद्य-पद्य रचना के साहित्यिक विधामन ल प्रमुख रूप म कविता (गीत, प्रगीत आदि) अउ नाटक एकांकी ल संगीतबद्ध, स्वरबद्ध करे के, सुन के, देख के अलगेच् बात आघू आथे। मात्र आनंदेच् नइ आय। याने रसिकमन के घलो जरूरत होथे। अइसने रसिक हें खुमान सावजी। गुरुवर खुमान साव सर। गुरुवर कन्हैया लाल श्रीवास्तवजी, जब्बार खाँ जी, अउ भारत सर जी ले अलग हटके।

तानसेन के एकठन प्रसंग हावे - ग्वालियर के घटना हरे। एकझन सन्यासी ह खाध म एकतारा ओरमा के आवत रहय। गरमी अउ पियास ले वोहर बाय-ब्याकुल रहय। तभे वोला एकझन रेंगहार आवत दिखिस। सन्यासी ह वोला पूछिस - ’भइया! इहाँ पानी कतेकरा मिलही?’ रेंगहार ह एक डहर अंगरी के इसारा करिस अउ संगेसंग यहू किहिस - ’ये डहर थोरिक दुरिहा म एकठन फुलवारी हे। विहिंचे तुँहला पानी मिल सकथे। फेर ......।’ ’फेर भइया, फेर का?’ एकतारावाले बाबा हर पूछिस। ’बाबा! वो फुलवारी म एक ठन बघवा रहिथे। येकर सेती उहाँ जाना उचित नइ हे।’ अइसे कहिके वो रेंगहार ह चल दिस। सन्यासी हर सोचे लगिस - ’ग्वालियर, अउ वहू म फुलवारी म बघवा? येमा जरूर कोनों रहस्य हे। तब तो उहाँ जायेच् बर पड़ही।’ सन्यासी हर फुलवारी कोती चलदिस। नजीक जाय म सहिच् म वोला बघवा के गरजना सुनाई देय लगिस। सन्यासी ह लहुटे के बिचार करे लगिस। तभे कुछ सोच के वो ह रुक गे। बघवा के गरजना ह एक डहर ले अउ सरलग आवत रहय। सन्यासी ह वो बघवा ल देखेबर आगू बढ़िस। सन्यासी बाबा ह देखिस - एकठन झाला म एकझन दस-बारा साल के लइका हर बघवा के गरजना करत रहय। सन्यासी बाबा ह देखके चकरित खा गे। पूछे म वो लइकाहर बताइस - ये डहर कोनों आ के फूलफुलवारी के नुकसान झन करे, कहिके मंय ह ये उदिम करथंव बाबा। लइका के प्रतिभा ल देख के सन्यासी बाबा ल अपार खुशी होइस। वो सन्यासी बाबा ह अउ कोन्हों नइ रिहिस, वो समय के महान संगीतज्ञ हरिदास रिहिस; अउ वो लइका के नाव रिहिस - तनसुख। इही तनसुख ह आगू चल के बाबा हरिदस के संगत म महान गायक तानसेन के नाम ले प्रसिद्ध होइस।

अइसने खुमान सर के घला एकठन प्रसंग हे, जेकर ले प्रेरित होके वोमन अपन जिनगी ल लोकसंगीत बर समर्पित कर  दिन। खुमान सर ह बताथें कि - मंय ह एक दिन खेत गेंव। उहाँ एक झन कमेलिन ह काम करत-करत ’चल-चल-चल मेरे साथी, वो मेरे हाथी’, गीत ल सुघ्धर अकन मन लगा के गावत रहय। मंय ह सोच म पढ़ गेंव कि गाँव के अनपढ़, खेत कमइया माइलोगिन, जउन ल सुवा-ददरिया गाना चाहिए, वो ह अपन संस्कृति ल कइसे भुलागे अउ फिल्मी गीत गाय के शुरू कर दिस? विही दिन मंय ह परन करेंव कि हमर छत्तीसगढ़ी लोकगीत मन के संग कुछ अइसे काम करे जाय कि गाँव के मनखेमन फिल्मी गीत सरिख फिर से वोला खेत-खार म गाय-गुनगुनाय के शुरू कर देवंय।

खुमान सर ह अपन संकल्प ल पूरा करे म कतका सफल होइन, येकर बखान करे के जरूरत नइ हे। 2015 के भारत सरकार के ’संगीत अउ नाटक अकादमी’ पुरस्कार ह येकर प्रमाण हे।

कतको झन मन खुमान सर के बनाय गीत मन ल फिल्मी गीत के धुनमन के छत्तीसगढ़ी संस्करण कहिके उँकर आलोचना करथें। मोला उँकर आलोचना म दम नइ लगय। काबर कि प्रकृति के नकल करना तो मनखे के सुभाव होथे। फिल्मी दुनियावालेमन ह खुद भारतीय लोकगीत, लोकसंगीत के चोरी करके अपार लोकप्रियता अउ धन कमाय हें अउ आजो कमावत हें। तभो ले फिल्मी दुनिया के कलाकारमन ह आम जनता ले अलग-बिलग अउ हट के होथें। जबकि लोकगीतमन ह लोक ल अपन स्थानीयता ले, जमीन ले जोड़ के राखे रहिथे। ’’कलाकार मन समाज ले कटे मनखे नइ होवंय चाहे वोमन ये भ्रम म विश्वास करत रहंय कि कला अउ कलाकारमन के अपनेच् दुनिया होथे।’’3 लोककलाकारमन समाज ले कइसे जुड़े रहिथें, खुमान सर ह येकर उदाहरण आवंय। फिल्मी दुनियावालामन ह लोकगीत अउ लोकसंगीत ल विकृत करके वोला कहाँ ले कहाँ पहुँचा दिन हे, येला हर संगीत प्रेमी ह जानथे। फेर लोकगीत अउ लोकसंगीत ले जुड़े कलाकारमन ह फिल्म संगीत के धुनमन ल नइ बिगाड़ें, बल्कि लोकसंगीत के रस म पाग के वोला अउ निखार देथें। येकर बर ’मोर संग चलव रे’, ’पता देजा रे पता ले जा रे गाड़ीवाला’ अउ कतरो गीतमन के उदाहरण दिये जा सकथे। खुमान सर के बनाय गीतमन म उँकर कल्पनाशीलता अउ सृजनात्मक प्रतिभा के मौलिकता देखे जा सकथे। खुमान सर ह अपन छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति ल गजब के जोड़ के राखे हावंय। लोककलाकार के कला के लोक म पकड़ अपन संस्कृति के कारण संभव हो पाथे। येला हम मौलिक कला कहिबो।

चंदैनी गोंदा के स्वरसाधना म लोक के व्यावहारिक पक्ष हे जेमा लोक-सौन्दर्यबोध होथे। लोक स्वतंत्रता ह बाधित नइ होवय। खुमान सर के संगीत कला के आलोचना ल कोनों संगीत मर्मज्ञ होही तउने ह कर सकथे, संगीत सौंदर्य ल फरिहा सकथे। फेर सामान्य समीक्षक ह लोकतंत्री होथे। अइसन समीक्षकमन के दृष्टि तर्ककला, अनुशासन ले रंजित होथे। येकरेसेती रमेश कुंतल मेघ ह केहे हे - ’समीक्षा संस्कृति के तर्कशास्त्र हावे।’ अउ चंदैनी गोंदा संस्कृति? जड़ता ले मुक्ति पाय के हे। मतलब खुमान सर ह लोककला के लोकतंत्रीकरण करथें। येकरे बर विक्टर ह्यूगो ह केहे हे - ’’संगीत ह अइसन भावनामन ल आवाज देथे जउन ल केहे नइ जा सकय अउ दिलचस्प ये हावय कि वोमन ल केहे बिना रहे भी नइ जा सकय। ये ढंग ले जिहाँ कलम ह चुप हो जाथे, संगीत ह विहिंचे ले शुरू होथे।’’ खुमान सर के संगीत सौन्दर्य ह अइसने हे।

दुख के बात हे, छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के केठन विद्यालय हावंय, जिहाँ छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत ल नवा-नवा रूप दे के जन-जन म बगाराय के उदिम हो सके? लोक संगीत म समावत फूहड़ता ल रोके जा सके? ’’संगीत कोनो घला देश अउ समाज के, सैकड़ों बरस के सौंदर्यबोध ले निर्मित, विकसित अउ परिस्कृत होथे। वोहर कलाकारमन के अनथक स्वरसाधना हावे जेकर संबंध जीवन के व्यावहारिक पक्ष ले घलो हे।’’4 खुमान सर जी के स्वर साधना म दैवीय वरदान कतका हे, पता नहीं, फेर इहाँ उँकर मेहनत, साधना अउ तपस्या ह साफ-साफ दिखथे।

पहिली मंय ह खुमान सर जी ल अलग हट के एक शिक्षक के रूप म देखेंव अउ जानेंव। अउ सर रिहिन। जब्बार सर ह धीरे-धीरे बोलइया, मारेबर स्लेटपट्टी ल बड़ जोर ले उठावंय फेर हथेली म गिरय त जनावय तको नहीं। विद्यार्थी मन ह सजा पा के घला गदगद्। गणित पढ़इया कन्हैया लाल सर ह, जेकर आघू के चारों दांत ह नइ रहय, सरल ल सलल कहय। सुन के हम विद्याार्थीमन के हँसी छूट जाय। फेर जउन लइका ह गणित ल नइ समझ सकय वोला वोहर अपन छड़ी के जोर म बेंदरा असन नचा डरंय। बाँकी छात्रमन कलेचुप। त कन्हैया सर के आशीरवचन ह शुरू हो जातिस - डामर, सड़कछाप, जोक्कर, डामिस, बदमाश .......। ये शब्दमन ल सुन के हम बाँकी छात्रमन के हँसी के फव्वारा छूट जावय। अउ भारत सर! वोला देख के लइकामन के - सर मंय, सर मंय ....शुरू हा जावय। कोनों छात्र ह वोला नइ घेपय। कभू-कभू भारत सर अबड़ गुस्सा जावय। वोकर गुस्सा ह आसमान म चढ़ जावय। फेर सजा देयबर छात्र तीर म जाय के बाद वोकर गुस्सा ह तुरते शून्य डिग्री म उतर जावय।

जब्बारसर, कन्हैया सर अउ भारत सर ले एकदम उल्टा रहय खुमान सर। खुमान सर के रौबदार चेहरा ल देख के सब छात्रमन कलेचुप हो जावंय। एक बार सातवीं कक्षा के परीक्षा लेयबर वोमन कक्षा म प्रवेश करिन। का विषय के परीक्षा रिहिस, मोला सुरता नइ हे। दुनों हाथमन ल बगल म दबाके, नरी ल तिरछा करके, तिरछा नजर ले देखत जब वो ह कक्षा म फेरा लगाय तब छा़त्रमन के सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाय। मंय समझथंव, खुमान सर के ये अदा के नकल अउ अभिनय कोनों अच्छा से अच्छा कलाकार मन घला नइ कर सकहीं। खुमान सर के ये अदा के कोनों तोड़ नइ हे। जइसे - उंकर बनाय येदे गाना के कोनों तोड़ नइ हे -
’वाह रे मोर पड़की मैना, तोर कजरेली नैना
मिरगिन कस रेंगना तोरे नैना।
तोरे नैना मारे वो चोखी बाण, हाय रे तोर नैना।’

होही क ये गाना के कोनों तोड़? हाँ! तब मंय ह उत्तर पेपर म बोल-बोल के लिखत रहंव। खुमान सर ह एक-दू घाँव मोला बरजिस कि बोल-बोल के झन लिख। फेर रटन पद्धति ले रटल चीज ल बिना बोले लिखना मोर बस म नइ रिहिस। सातवीं कक्षा के तेरह साल के लइका के कतका बुघ, कइसे चुप रहितिस? वो ह तो अपन उत्तर लिखे म मगन रहय। खुमान सर ल गुस्सा आ गिस होही। वोकर तिरछा गरदन अउ तिरछा नजरवाले अदा के जेवनी हाथ के उल्टा झापड़ मोर गल म परिस। मोला अपन सातों जनम के सातों नानी मन के सुरता आ गे। वो समय खुमान सर के रौबदार, कड़कदार, सामंती- जमींदारवाले व्यक्तित्व ल देख के हम सब बिक्कट डरन। फेर आज जब कभू-कभू वोकर से मिलथंव तब मोला उँकर रौबदार, कड़कदार, सामंती-जमींदारवाले व्यक्तित्व के खाल्हे म प्रेम, मया, करुणा अउ दुलार के निर्मल झरना बोहावत दिखथे,  गुप्त सरसती कस। इही झरना के सुंदर धार ह, अउ ये धार के झरझर-कलकल के मधुर आवाज ह, तब ले अब तक उँकर गीत-संगीत म घला सरलग बोहावत आवत हे। छत्तीसगढ़ के लाखों सुनइया-गवइया के मन-मस्तिष्क ल शीतल करत आवत हे। जइसे -
लहर मारे लहर बुंदियाँ सगरो जमाना गोरी झाम डारे।
झुमर झामें मन मंदरिहा सगरो जमाना राजा नाच माते।

छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति म व्यावहारिक संस्कृति-संगीत के नवजागरण के पुरोधा, खुमान सर ल प्रणाम, ये शब्द मन ले -
जे तलक चंदैनी गोंदा दिखथे,
मेला-संस्कृति लोक चंदैनी दिखथे।

उत्ताधुर्रा चलत हंव कहय,
जम्मों कोती खुशबू गुदैनी दिखथे।

बिना चोंट कइसे हिरदे जख्मी होही,
चंदैनी गोंदा के चोंट-बान महमावतैनी दिखथे।

नइ सिराय ताउम्र जिनगी के सफर,
’साव-स्वर’ पड़ीस धरती म भुँइया चलैनी दिखथे।

अनेक रात के ठहरइ म का शिकायत,
स्वर-मुसाफिर ल समय थोरकैनी दिखथे।

मोती के रिहिस ’साव-स्वर’ के तमन्ना,
उदास दिल बर गोंदा-चंदैनी खुशमैनी दिखथे।
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संदर्भ:-
1. डाॅ. हिमांशु विश्वरूप, डाॅ. वीणा विश्वरूप - लक्षणगीतमन के विलक्षण विश्व, कला सौरभ, चतुर्दश अंक 2012, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, पृ.12।
2. प्रो. राधेश्याम जायसवाल - कलावंत अउ नायक तानसेन, कला सोैरभ, विश्वविद्यालय शोध पत्रिका, चतुर्दश अंक 2012, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, पृ.12।
3. वही।
4. भारतखंडे - पलुस्कर: शास्त्रीय संगीत का लोकतंत्रीकरण - रमाकांत श्रीवास्तव, अकार, अंक 46, संपादक - प्रियवंद, दिसंबर 16 - मार्च 17, पृ. 41।
5. वही, पृ. 32।
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पता:-
शंकरपुर, वार्ड 10, गली नं. 04
राजनांदगाँव (छ.ग.) 491441

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