शनिवार, 17 जून 2017

आलेख

भाषा और उसकी शुद्धता


1. शिष्ट और शालीन भाषा भी मारक और विचारोत्तेजक होती है। अतः भाषा में शिष्टता और शालीनता, का पालन तो होना ही चाहिए, चाहे कोई स्वान्तः सुखाय के लिए ही क्यों न लिखे। भाषा की शुद्धता अलग चीज है, इसका संबंध व्याकरण के नियमों से है। भाषा लोक द्वारा सृजित होती है। कालांतर में लोक द्वारा व्यव्हृत संस्कृत, शिष्ट समाज द्वारा व्यव्हृत संस्कृत से भिन्न रही होगी जो निश्चित रूप से अशुद्ध रही होगी, जिसका संकेत आपने भी अपने प्रश्न में किया है, लेकिन लोक व्यव्हृत इसी अशुद्ध संस्कृत से पालि और प्राकृतों का निर्माण हुआ और प्राकृतों से आज की उत्तर भारत की तमाम बोलियाँ और भाषाएँ अस्तित्व में आईं। भाषा के अशुद्ध प्रयोग से ही नई भाषाओं का सृजन होता है लेकिन यह काम लोक पर छोड़ देना चाहिए। साहित्य की जिन विधाओं में विभिन्न प्रकार के पात्र होते वहाँ पात्रों के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए भाषा की अशुद्धता उचित है परंतु किसी भी साहित्यिक की भाषा शुद्ध ही होनी चाहिए। भाषा की शुद्धता भाषा की संप्रेषणीयता को प्रभावित करती है। 
2. साहित्यकार या लेखक केवल स्वान्तः सुखाय के लिए ही साहित्य नहीं रचता। ऐसा कथन लेखक की चतुराई के अलावा और कुछ नहीं है।
3. संसार की क्लिष्ट भाषाओं में से हिंदी भी एक है। सामान्यजन की बात छोड़ दीजिए बहुत सारे लेखकों और कवियों (जिनमें मैं शामिल हूँ) की भाषाओं में, राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं की भाषाओं में, ढेरों व्याकरणिक अशुद्धियाँ होती हैं। लेखकों-कवियों की इन व्याकरणिक अशुद्धियों से किसी नयी भाषा का सृजन नहीं होनेवाली है। भाषा का सृजन करना कभी भी साहित्य का उद्देश्य नहीं होता। यह तो लोक और समाज का काम है।
4. भाषाई शुद्धता का आशय केवल व्याकरणिक शुद्धता से होनी चाहिए। आपका कहना पूर्णतः उचित है। भाषाई शुद्धता के नाम पर हिन्दी के प्रचलित शब्दों को भाषा के आधार पर छाँट-छाँटकर अलग कर दे तो अंत में हिंदी के पास कुछ बचनेवाला नहीं है। किसी विदेशी भाषा के शब्दों के प्रयोग से भाषा कभी भी अशुद्ध नहीं होती है।
5. अंत में भाषा की प्रवृत्तियों पर भी गौर कर लेना चाहिए कि आखिर भाषा क्या है - 
1. भाषा की अवधारणा विस्तृत है। इसे परिभाषित करना कठिन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा उच्चरित रूढ़ ध्वनि संकेतों की एक व्यवस्थित प्रणाली है। भाषा ’भाष्’ धातु से बनी है जिसका अर्थ होता है ’बोलना’। इससे मनुष्य अपने भावों और विचारों का परस्पर विनिमय करता है। मनुष्येत्तर प्राणी भी ध्वनि उच्चरित करते हैं, परन्तु वहाँ विचारों का अभाव होता है। भाषाविज्ञान में केवल मनुष्य की भाषा का संदर्भ लिया जाता है। शारीरिक, सांकेतिक अथवा कूट भाषा भी होती है परन्तु यह भी भाषाविज्ञान का विषय नहीं है।
2. भाषा माध्यम नहीं है।
यह अवधारणा बनी हुई है कि भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। विचार करें, आपको शाला जाना है। आपके पास शाला तक पहुँचने के लिए कई माध्यम हो सकते हैं जैसे - बस, टैक्सी, आटो, रिक्शा, मोटर सायकिल, सायकिल, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, पैदल आदि। माध्यम के विकल्प हो सकते हैं। यदि आप सामथ्र्य-हीन हों तो ये सभी विकल्प बेकार हैं। सोचें - भाषा का क्या विकल्प है? यदि बोलने की शक्ति आप में न हो तो क्या आप जीवित कहे जा सकते हैं?
3. भाषा एक चेतना है। 
जन्म लेते ही बच्चा यदि न रोए तो? 
मृत्यु का क्षण आते समय आपकी भाषा का क्या होता है?
4. भाषा एक व्यवस्था है।
भाषा एक व्यवस्था है इसीलिए इसकी ध्वनियाँ रूढ़ होती हैं। हिन्दी में जिस द्रव्य को हम पानी कहते हैं, उसे ही संस्कृत में जल, अंग्रेजी में वाटर और उर्दू में आब क्यांे कहा जाता है?
5. भाषा व्यक्तित्व होती है। 
भाषा हमारे व्यक्तित्व को व्यक्त करती है।
6. भाषा एक प्रतीक है।
7. भाषा एक अर्जित संपत्ति है। इसका निर्माण मनुष्य ने किया है।
8. मनुष्येत्तर प्राणियों के पास भी भाषा होती है पर वे सभ्य नहीं बन सके क्योंकि उनकी भाषा सहजात होती हैं, न कि निर्मित। मनुष्य की भाषा सृजित है। इसमें निरंतर विकास होता है। इसमें सृजनात्मक क्षमता होती है, इसीलिए मनुष्य में सभ्यता का विकास हुआ।
9. भाषा में सृजनात्मक क्षमता होती है। इससे ज्ञान का सृजन का, सभ्यता और संस्कृति का सृजन होता है।
10. इससे ज्ञान का, सभ्यता और संस्कृति का सृजन होता है। अतः यह एक वांग्मय है।
11. भाषा न तो कभी पूरी होती है और न ही यह कभी अधूरी होती है। इसमें प्रवाह होता है। यह निरंतर विकसित, परिवर्धित और संशोधित होती रहती है।
12. अंक भी भाषा की संपत्ति है। 
13. भाषा पुनर्सृजन का साधन है।
भाषा केवल अनुकरण के द्वारा नहीं सीखी जाती। यह पुनर्सृजन की प्रवृत्ति के द्वारा सीखी जाती है अतः यह पुनर्सृजन का साधन है।
14. भाषा सीखी नहीं जाती, रटी नहीं जाती, अर्जित की जाती है। 
प्रत्येक की अर्जन क्षमता भिन्न-भिन्न होती है इसीलिए सबकी भाषायी योग्यता भी भिन्न-भिन्न होती है।
इसका क्रम इस प्रकार होता है:- 
अधिगम (प्राप्ति) अथवा शिक्षण - अर्जन - सीखना।
(Teaching - Acqaring - Learing)
अर्जन करने और सीखने में अंतर -
अर्जन स्वायत्त और अनौपचारिक होता है।
सीखना औपचारिक।
15. अर्जन और सृजन क्षमता के अभाव में भाषा नहीं सीखी जा सकती।
16. मातृभाषा सीखना अन्य भाषा सीखने से अधिक कठिन होता है, क्योंकि इससे तीन चीजें एक साथ अर्जित की जाती हैं, एक साथ तीन चीजों का विकास होता है:-
अ. भाषिक विकास
ब. सामाजिक (सांस्कृतिक) विकास
स. संज्ञानात्मक विकास
ये तीनों चीजें केवल मातृभाषा में ही संभव होती है।
अन्य भाषा सीखते हुए हम केवल भाषा सीखते हैं।
17. भाषा के बारे में जानना और भाषा को व्यवहृत करना, दोनों भिन्न-भिन्न बातें हैं।
18. भाषा जल और जमीन के साथ मिलकर शोषण भी करती है।
19. शब्द को ब्रह्म कहा गया है।
शब्द (भाषा) आपका निर्माण करते हैं इसलिए यह ब्रह्म है।

20. भाषा और लिपि का कोई संबंध नहीं है। कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है और दुनिया की सभी भाषाएँ किसी एक ही लिपि में लिखी जा सकती हैं।
21. दुनिया की कोई भी भाषा जैसी लिखी जाती है, वैसी ही पढ़ी नहीं जाती।
22. व्यक्ति में एक जन्मजात भाषिक क्षमता होती है।
23. भाषा एक नियम संचालित अमूर्त तंत्र के रूप में होती है।
दुनिया की सारी भाषाओं की संरचना में समानता पाई जाती है. जैसे - ध्वनियों की संख्या 25 से 80 तक होती हैं।
- व्यंजन (Consonent) और स्वर (vocalic) ध्वनियों का समान पैटर्न पाया जाता है जिसे CVCV पैटर्न कहते है।
24. भाषा का अस्तित्व और विकास समाज के बाहर संभव नहीं है।
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