शनिवार, 23 मई 2015

व्यंग्य

कानून अभी जिन्दा है

उन्होंने पहले बलात्कार किया। फिर उसका गला घोंटा।
चमचे ने कांपते हुए कहा - ’’साहब! बहुत बुरा हुआ। अब क्या होगा?’’
साहब ने पहले ठहाका लगाया। फिर अजीब तरह का मुँह बनाया। पच्च से उसके चेहरे पर थूँका, मानों गटर का पानी मुँह में चला गया हो। और सहज भाव से कहा - ’’साला कुत्ता! भूल गया बे, इस देश में कानून अभी जिन्दा है।’’
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kuber

सोमवार, 18 मई 2015

कविता

ऐसा क्यों है?

वह समय का पाबंद है
पल भर इधर न उधर
न वह किसी के लिए रुकता है,
और न ही वह किसी की प्रतीक्षा करता है।

और प्राच्य-क्षितिज के किसी उस सुनहरे गवाक्ष से
नियत समय पर उसके सुनहरे कदमों की आहट आने लगी
उसके खिलखिलाहट की मधुर रश्मि-ध्वनियाँ भी -
क्षितिज में बिखरने लगी
और गूँजने लगी उसकी मनुहार
प्यार और दुलार-भरी पुचकार,
एक आह्वान गीत की तरह।

अपने दोनों पंख फैला दिये,
आसमान की ओर स्वागत में
और समवेत् हर्ष-निनाद किया,
सुषुप्तावस्था त्याग, अभी-अभी उठे,
आँखें मलते, अलसाये, अंकुरित होते बीजों ने।

उसके स्वागत के लिए आतुर दरख्तों ने
झूम-झूमकर जीवन-गीत गाये
चंचल हवाओं ने साथ दिया,
और उन सुंदर गीतों को अपने
सुरभित-मधुर, शीतल-सुकोमल, संगीत से सजाये।

नन्हीं पक्षियों ने भी अपने पंख खोले
और खेलने लगे सुंदर जीवन-नृत्य का खेल
गाने लगे प्रेम के अमर गीत
निःसृत होता है जो
प्रेमियों के अनुराग भरे,
निःश्छल हृदय की, अनंत गहराइयों से;
और फिर उड़ चले वे
आसमान की ऊँचाइयों को नापने
संकल्प और सफलता का संदेश लेकर।

उसने हर्षित होते हुए कहा -
’’ठहरो! साथियों, मैं भी आ रहा हूँ
बड़े प्यारे, और -
बहुत सुंदर लगते हो तुम लोग मुझे।

तुम्हीं हो, तुम्हीं तो हो 
जिनके बीच रहने की,
जिनके जीवन का संगीत सुनने की
अनंत अभिलाषा थी मेरी
जो जय-उद्घोष है, जीवन के पूर्णता की।

हाँ! तुम्हीं हो, तुम्हीं हो
जिनके जीवन-नृत्य देखने
कब से तरसती थीं मेरी आँखें
जिसे देख रुकते नहीं हैं मेरे पैर
झूम-झूम उठती है मेरी आत्मा
और तब!
सारी आकुलता और सारी व्याकुलता
हो जाती हैं तिरोहित,
जाने कहाँ, सदा-सदा के लिए।

हाँ! हाँ! तुम्हीं हो वे लोग
जिनके प्रेम-गीत सुनने के लिए
जाने कब से तरसता था मेरा हृदय
जो उतर जाती है,
शीतलता का स्पर्श देते हुए
हृदय की अतल गहराइयों में
अमरता का संदेश लेकर।’’

पर जल्द ही वह चैक उठा
उसका उत्साह, उसकी खुशी, जाती रही
जब उसने आस-पास कहीं नहीं देखा, कोई मनुष्य।

उसने अपने दोनों हाथ ऊपर लहराते,
झूमते, मस्ती में गाते,
अंकुरित होते, बीजों से पूछा -
’’हे! नन्हे प्यारे साथियों!
मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता?’’

नन्हें अंकुरों के खिले चेहरे मुरझा गये
उन्होंने खेत की ओर जाते -
किसी मुरझाये,
उदास-हताश-निराश किसान को देखा
देखा तो उनके पैरों ने थिरकना बंद कर दिया
कंठ ने गीत गाने से इंकार कर दिया
सब ने एक समवेत आह भरी,
और समवेत स्वर में ही उन्होंने कहा - ’’मनुष्य?’’

उसने भी देखा
उस उदास-हताश-निराश किसान को
उसे यह दृश्य बड़ा अजीब लगा
उसनें अंकुरों से पूछा -
’’यह इतना उदास-हताश और निराश क्यों है?’’

अंकुरों ने एक दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा
और उन्होंने भी समवेत स्वर में प्रश्न किया -
’’हाँ! हाँ! भला क्यों है यह
इतना उदास-हताश और निराश?’’

उसने दरख्तों के साथ जीवन का गीत गाते
उन गीतों को मधुर संगीत से सजाते, हवाओं से पूछा -
’’हे! जीवन-संगीत के सर्जकों
यह तो बताओ, मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता?’’

हवाओं ने कुछ दूर किसी कारखाने की
आसमान में काली लकीरें बनाती चिमनियों को देखा
और फिर वहाँ से निकलकर आते,
सड़क पर घसीटते-चलते,
मरियल-मटियल, मजदूरों के दल को देखा
और गहरी साँसे लेते हुए कहा - ’’मनुष्य?’’

उसने भी देखा
सड़क पर घसीट कर चलते,
मरियल-मटियल, मजदूरों के झुण्ड को
उसे आश्चर्य हुआ, यह दृश्य देखकर
उसनें हवाओं से पूछा -
’’जीवन-संगीत देने वाले साथियों, बताओंगे? -
ये इतने अशक्त, इतने मरियल, इतने मटियल क्यों है?’’

जीवन-संगीत रचने वाले हवाओं ने भी कहा -
’’हाँ! हाँ! ये इतने अशक्त,
इतने मरियल, इतने मटियल क्यों है?’’

अंत में उसने हताश स्वरों में
जीवन गीत गाते,
मस्ती में झूमते दरख्तों से पूछा -
’’जीवन-गीत गाने वाले मित्रों! आखिर बताओगे?
मनुष्य कहीं क्यों नहीं दिखता यहाँ?’’

दरख्तों ने घाट पर एक दिव्य व्यक्तित्व की ओर देखा
दिव्य मंत्रोंच्चार के साथ जो मस्त था, आरती करने में।
स्वर्ण आभूषणों से आभूषित
किसी दिव्य वाहन में सवार एक परिवार की ओर देखा।
और सहमते हुए कहा - ’’मनुष्य,
मित्र! मनुष्य आते तो हैं यहाँ, पर कभी-कभी,
सदियों बाद।’’

उसने कहा -
’’मनुष्य क्या इतने दुर्लभ हो गये हैं?

दरख्तों ने निराश स्वरों में कहा -
’’हाँ मित्र! मनुष्य इतने दुर्लभ हो गए हैं।


नन्हीं-नन्हीं पक्षियाँ भी सुन रही थी,
समझ रही थी ओर गुन भी रही थी
उसके और दरख्तों की बातों को
सबने फुदकना बंद कर दिया
और अचानक सबने एक साथ कहा -
’’हाँ, हाँ, मित्र! मनुष्य बड़े दुर्लभ हो गए हैं
सदियों बाद ही दिख पाता है कोई...’’

और सबने अपने-अपने पंख खोले
हवा में लहराए,
आश्चर्य में अपने-अपने सिर हिलाए
और आसमान का सीना चीरने लगे
उड़ते हुए सबने फिर एक साथ कहा -
’’पर, पता नहीं क्यों?’’
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kuber

शुक्रवार, 15 मई 2015

कविता

अपनी वही तो दुनिया है।

ये सुख फुदकती चिड़िया है।
दुख तो उफनती दरिया है।
इनसे परे भी दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

मजहब की अपनी दुनिया है।
यहाँ धर्म की भी दुनिया है।
इनसे परे जो दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

यहाँ प्यार में तो बंधन है।
नफरत जलन है, उलझन है।
इनसे परे जो दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।

इतनी तो उनकी दुनिया है।
और वो तुम्हारी दुनिया है।
दुनिया, जो सबकी दुनिया है।
अपनी वही तो दुनिया है।
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kuber

गुरुवार, 14 मई 2015

समीक्षा

हकीकत से मुँह मोड़ने वाले

(समाज के बदी पक्ष की नग्न सच्चाई - फूलो)
कुबेर की चर्चित कहानी ’फूलो’ की समीक्षा
समीक्षक - यशवंत


कफन पर डाॅ. धर्मवीर भारती (आई. ए. एस.) की विवादित टिप्पणी है - ’बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था।’ जबकि प्रेमचंद की कथा में ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है, किसे आंशिक सहमति हो सकती है? मनुष्य के पास दो भूख प्रबल होते हैं, पेट की और पेट के नीचे की। पैसे वालों के अंदर पेट की भूख नहीं, पेट के नीचे की भूख उफनती है। भूख से बिलबिलाते व्यक्ति के लिए धर्म और ईमान की बातें गौण हो जाती हैं। घीसू-माधव ठहरे अकामी व्यक्ति। जीवित रहकर बुधिया ने परिवार चलाया। इसे घीसू-माधव का अत्याचार कहें? गरीबों की विवशता का लाभ उठाने, कृपालु और सम्मानित मालिक टपकते लार के साथ ताक पर बैठे ही रहते हैं। घीसू-माधव यहाँ ठहर पाते हैं? शरण कुमार लिंबाले को पिता का नाम नहीं मिला। पाटेल (गाँव का संभ्रान्त मुखिया) अपने बच्चे को समाज के सामने अपना नहीं सका। लिंबाले की माँ उसी पाटेल के यहाँ काम करती थी। माँ सब जानती थी; जाति, समाज और धर्म, इन्सान और इन्सानियत से उच्च होकर, मनुष्य को गैरबराबरी की गहराई में पटक देते हैं। तमिल लेखक पेरुमल मुरगन के उपन्यास ’माधोरूभगन’ में ’’माँ की प्रेरणा से पोन्ना पहाड़ी पर जाती है। वह उस पुरुष का चेहरा देखने के लिए मुड़ती है, जिसने उसकी बाँह पकड़ी थी। वह एक मुस्कान के साथ तैयार खड़ा एक युवक था। उसने ध्यान से देखा, वह एक युवक था, ईश्वर नहीं।’’83 गरीब पेट के लिए और अमीर शरीर के लिए अपने-अपने भूख मेें बराबर होते हैं। चंपा की कहानी (कहा नहीं) में बाबू पात्र का चरित्र स्मरण करें। इसीलिए खलील जिब्रान ने कहा है - ’’अमीर और गरीब का फर्क कितना नगण्य है। एक ही दिन की भूख और एक ही घंटे की प्यास, दानों को समान बना देती है।’’ ऐसा बुधिया और लिंबाले की माँ के साथ हुआ होगा? इसीलिए शायद कुबेर जी ’फूलो’ की कथा में जनश्रुति मिथक का समावेश कर कथा बुनते हैं, जैसा कि पेरुमल मुरगन के उपन्यासों में भी होता है। जनश्रुति तो यहाँ तक है कि डोली उठने से पहले उसकी नथ पटेल, संभ्रान्त, मुखिया, मालगुजार, राजा उतार लेते थे। जनश्रुति ईश्वर लीला नहीं होती और मिथकों के सच, किंवदंतियों के सच बहुआयामी और कालजयी होते हैं। एक ही कहानी का चेतना पक्ष (भौतिक रूप) अलग होगा। अवचेतन (अप्रत्यक्ष) उपमान स्वरूप कथा का अलग पक्ष होगा। कथाकार का कमाल अप्रत्यक्ष का परदा खोलकर समझ-संकेत को प्रत्यक्ष करना होता है। ’फूलो’ ऐसे ही सामूहिक अवचेतन की प्रतीकात्मक कथा है; जहाँ कल्पना में यथार्थ और जनश्रुति के महत्व को तर्कदर्शन से गुंजायित किया गया है, जिससे मिथक-कल्पना में यथार्थ अपने शिखर तक पहुँच जाता है और परम्परागत शोषण की अन्तर्वस्तु उत्सर्ग कर गई। उत्तरभोगवादी आधुनिक समय में विकृत स्वच्छन्दता को रोकने की नैतिक मदद भी मिली जब फूलो का पिता विवाह पर नाचने लगता है। हमप्याला-हमनिवाला की खाल भी दिखाई गई। बिना रंग के रंग गई। सीधे नहीं पर मिथकीय छाया में ’फूलो’ कथा चलती है, जैसे कामायनी का रूपकात्मक काव्य चलता है। जीवनयापन के संसाधनों पर मालिकों, माक्र्सवादी भाषा में पूजीपतियों का कब्जा होने पर नौकरों, कर्मशील श्रमिकों का नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक परिशोषण निश्चित हो जाता है। जब ’पथरा के देवता, हाले नहीं डोले वो, हाले नहीं डोले’ तब लाचारी मनुष्य की होगी? या शारीरिक बल-बुद्धि वालों की? दोनों ताकतें फगनू के पास है पर धन नहीं - ’’जहाज के पंछी आखिर जाही कहाँ?’’84 इसीलिए फगनू पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने के दिनों में मालिक का चरवाहा बन गया। आक्रोश तेवर में कमी नहीं थी। छत्तीसगढ़ी कहावत है - ’’हावय कोदई हावय सगा, नइ हे कोदई नइ हे सगा,’’ धन के महत्व को चरितार्थ करती है। कोदई नहीं रहने से मालिक मुताबिक फगनू को अपना ब्याह करना पड़ा। एक पंथ दो काज, एक तीर में अनेक निशाना साधा मालिक ने। चरवाहा के साथ चरवाहिन मिल गई। 

फगनू की बेटी जन्म आई। नाम रखा गया ’फूलो’। फकफक ले पंडरी। मालिक ने फगनू का विवाह अपनी रखैल से ही तो नहीं कर दिया था? वह असंवैधानिक संबंधों वाली लड़़की नहीं थी। ’’जनम के अँखफुट्टा आय हरामी ह, गाँव  म काकर बहू-बेटी के इज्जत ल बचाय होही?’’85 फगनू की मालिक के प्रति यह टिप्पणी कथा की संपूर्ण अन्तर्वस्तु समझा देती है। तो डाॅ. धर्मवीर ने क्या गलत कहा - बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा था? आक्रोश से विद्रोह की चेतना। ’’इज्ज्त बेच के जीना घला कोई जीना ये,’’86 अतिसंवेदनशीलता को कथाकार ने सामने लाया है। फगनू फूलो को देखता नहीं। हिम्मत से बेटी का लालन-पालन करता है। फूलो को माली जैसा तोड़ता नहीं, खिलाता है। ये हौसला सामंतों में नहीं। सामन्तशाही मालिकों का नैतिक पतन भी है।
अट्ठारह वर्ष पश्चात फूलो की शादी, फगनू के बहनोई, फूलो के फूफा-फूफी तथा गाँव वालों के सहयोग से निपट जाती है। कथा में यहाँ ग्राम्य संस्कृति की एकता दिखाई तो देती है परन्तु ऐसी ही एकता-सहयोग शोषण के विरुद्ध कर्मयोगी स्वरूप में क्यों नहीं होता? गाँव समाज में कहीं न कहीं कमजोरी है। अमीर घर की बेटी लाओ और गरीब घर बेटी ब्याह करो, में ही भारतीयता की ग्रामीयता से उज्ज्वल पहचान निखरती-खिलती है। समानता में भेद नहीं करती? ’’बनिहार के घर काला देखे बर जाबों सगा, हमूँ बनिहार, तहँू बनिहार।’’87 में उच्चस्तरीय समता है। 

फूलो की अप्रत्यक्ष कथा अपने अप्रत्यक्ष पक्ष में अनेक अन्तरविषयों की इन्द्रधनुषी छटा बिखेरती है। कथा इसलिए अपनी लोक बुनावट कथा की दशा में गुंफिंत होकर भी अलग महत्व प्रदान करती है। विवाह प्रथा नैतिक जिम्मेदारी से जीवन भर पति-पत्नी को जीवन चलाने-निभाने का उत्तम संस्कार है। पर बेटी की बिदाई का दुख, गहरे दुख में तब बदलता है जब प्रथा में बेटी को श्रृँगार का मंहगा सामान देना पड़ता है; जो आज ’दहेज प्रथा’ में रूढ़ हो गई है।  उच्चवर्गीय विचार-व्यवहार से श्रमशील परिवारों पर प्रभाव पड़ेगा ही। यहाँ पर ग्रामीयता की एकता नदारत है। सब कुछ बेटी के दाई-ददा को हाड़-मांस बेचकर भी पूरा करना पड़ता है; मेहनत की कमाई तो जाती ही है। 

फूलो की दाई ने फगुआ से जब कहा - ’’बेटी ल बिदा करबे त एकठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे। एक ठन संदूक ल नइ लेबे। नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे। सोना-चांदी ल बनिहार आदमी का ले सकबोन, बजरहू ल तो घला दे, लइका ह काली ले रटन धरे हे।’’88 

जिसे उच्च-सभ्य कहा जाता है, वह बनावटी, दिखावटी, बाजारू समेटू, लूट-खसूट करने वालों का ऐसा जमावड़ा है जो लोक समाज को शक्तिहीन, गतिहीन बनाये रखता है। फलतः परलोक गृह प्रवेश में गमन करता है। बजरहू अर्थात नकली सोना-चांदी या गोटा चांदी से जब श्रमिकों का काम चल जाता है तो सभ्य समाज जो धनपति, मध्यवर्ग हे, इससे कुछ सीख पाता है? 

गरीबों को लोग पतियाते नहीं, रहन हेतु फगनू के पास कुछ था नहीं। करे भी तो क्या करे? थक-हार कर मालिक का भरोसा कर उसके पाय गया। मालिक ने कहा - ’’जा! अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना है, वोला भेज देबे। मिल जाही पइसा।’’89 इसे फगनू ने घरवाली को बताकर सिर पकड़कर बैठ गया। मालिक के एक-एक शब्द कामुकता दर्शाता है। 

तब मालिक ने अपनी बेटी बराबर फूलो से दुष्कर्म किया? तभी पैसा मिला। छिपा तथ्य और प्रश्न फगनू की पत्नी से भी कुकर्म किया? बेटी को छोड़ा होगा? यह अनैतिकता की चरम सीमा है। ब्रह्मा से सरस्वती-कर्म क्या था?

फगनू में बगावत का रस नहीं जागा, परन्तु होगी; भविष्य में जरूर होगी, कथा में इसका संकेत अवश्य है - ’संभाषण-वार्तालाप फूलो में समाज के प्रच्छन्न, रूढ़ घृणात्मक संस्कृति को समझने में महत्वपूर्ण योगदान करता है। मालिक का उपर्युक्त कथन विवादपूर्ण है? जहाँ लेखकीय ईमानदारी में कोई समझौता नहीं की गई है। सनातन संस्कृति का परम्परागत सौन्दर्य तोड़ा गया है, जिसका माला निरंतर जपने की क्रिया अब तक निभाया गया है। कुबेर जी ने जो देखा, परखा, सुना, जाना उस विषयवस्तु को फूलो में पल्लवित किया। समाज क्या कहेगा? बेपरवाह कौन हाथियार उठायेगा? उठाये तो भी पत्थर का जवाब गोली से दागा और मुक्तिबोध के ’पार्टनर तुम किस ओर हो’ को भी झिंझोड़ दिया जो अक्सर उत्प्रेक्षा की लहरों में लहराता है। तो कहें, ग्रामीयता को उज्ज्वल पहचान मिलती है। समानता में भेद नहीं करती। डाॅ. अरुण प्रकाश के शब्दों पर ध्यान दें - ’’कलाकार की चेतना समाज का दर्पण है।’’90 फूलो में सामाजिक चेतना को मुस्तैदी से रखा गया है। दबंगों का चाहे साहित्य में या समाज में, उनकी दखल दबाने की रही है। ’’सादा, सजावट मृृत्यु है। सदाचार मृत्यु, दुराचार मृत्यु है। फाँसी पर टंगे रहती है।’’91 

लोक-जगत में विवाह का नेग-जोग एक दिन पूर्व होता है। दूसरे दिन लगन। फूलो और उसकी दाई नेग के दिन ही बाजार चले गये हैं। फूलों के लिए श्रृँगार का सामान जो खरीदना है। इधर मंडप में आश्चर्य का साम्राज्य पसरा हुआ है -  ’’अइ! बड़ बिचित्र हे दाई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।’’92 कहा जाता है, सम्राट अकबर औरतों के लिए चूड़ियों का बाजार लगवाता था? दाई, फूलो को किस बाजार में, किस मेले में लेकर गई होगी? अप्रत्यक्ष का वास्तविक तथ्य स्वयं प्रकाशित हो रहा है। इसे पूर्व के नथ उतारने के संदर्भ-प्रसंग लेकर समझ बनाई जा सकती है।  मालिक ने ही फूलो की नथ उतारी होगी? इसी ने तो उसकी दाई को भी गोभा लिया था। ’’सारे कलजुग ह सिरतोन खरा गे हे,’’93 (कहा नहीं) से जान सकते हैं, जहाँ वासना चरम पर है। पेट की भूख और उसके नीचे की भूख का अंतर दूसरे तथ्य में भूख न होने पर भी उसे भुखर्रा करना पड़ता है। दाई मन मार कर गई होगी तो उसके मन में भी कुछ रहा होगा, क्या इस सड़ी-गली, विकृत संस्कृति के प्रति विरोध-प्रतिरोध नहीं रहा होगा? पतझड़ में पत्ते गिरते हैं, गिरकर सड़ते हैं। सड़कर खाद बनते हैं, जहाँ श्रमवीर उत्पादन करते हैं, उसी खाद का रस सौन्दर्यशास्त्र के वैशिष्ट्य में आनंदवाद को मालिक भोगते हैं; जबकि सौन्दर्य; सत्ता, धर्म, अर्थ, काम में निमजज्जित नहीं होता; जिसे मालिक पूर्ण दबंगता, निर्भीकता और निर्लज्जता के साथ करता है। यहाँ पुरूष देह मुक्त है? या नारी देह? विचार तो करना ही होगा। गाय होना; स्त्री, दलित, या धार्मिक पहचान होने से कही अधिक सुरभित है। मनुष्य रूप स्त्री होना कोई गुनाह तो नहीं है? गरीबी को पैरों तले रौंदने से रोकने का कोई उपकरण 1971 से आज तक तैयार नहीं हो सका। और आज हम मंगल ग्रह पर बस्ती बसाने जा रहे हैं। अमांगलिक कार्य से अमांगलिक प्रसंग-प्रयोजन में धन बरस गये। नथ गई? जो नथ गई, वही नये रंग-रोगन के साथ नाक में चढ़ गई और हिलने लगी; कान में झूलने लगी, पैरों में झनकने लगी और फूलो सरग (स धन रग) की परी लगने लगी। रग-रग का रक्त मैला होकर सरग मिले तो किस काम का? किसके काम का? 

फगनू सब समझता है। सुबह सरग की परी सी बेटी को देख कर उसका मन, असकी आत्मा, उसका हृदय क्षोभ से भर जाता है। गम गलत करने के लिए वह पी लेता है। पीकर खूब नाचता है, बेसुध हो जाता है। लोग उसका दुख क्या जानें, कह रहे हैं - ’’बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते? जतका मुँहू वोतका गोठ।94 कफन में भी घीसू-माधव नाच-नाचकर बेसुध हो जाते हैं। कफन 1935-36 की कहानी है और फूलो 2011 की। बीते हुए इन 75 सालों में क्या बदला, कितना बदला? डाॅ. धर्मवीर की मानें तो घीसू-माधव का बेसुध होना और कुबेर की मानें तो देर नहीं करें, फगनू भी बेसुध। बुधिया मरणासन्न अवस्था में है। फगनू की पत्नी होश में है पर उसकी आत्मा क्या बची होगी? कफन में एक नारी और दो पुरुष पात्र हैं, फूलो में एक पुरुष और दो नारी पात्र हैं। दोनों में 75 साल के समय अन्तराल के बाद भी, समय अन्तराल के अलावा है और कुछ भी अंतर? शोषण का निरंतर प्रवाह, और देहभोग-भूखभोग का यथार्थ जहाँ का तहाँ है। फगनू के बेसुध होने का सुध ले तो क्या कबीर के शब्दों में सुख है? -
’’कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये  कोय।
आप ठग्याँ सुख उपजै, और ठग्याँ दुख होय।’’95

स्वयं के ठगे जाने में सुख है, दूसरों को ठगने से दुख मिलता है।95 बिलकुल नहीं। फगनू को ठगे जाने की गहरी चोट लगी है। जितने मुँह, उतनी बातें में कौए के कान ले जाने वाली बात नहीं है। कानोकान किसी को खबर नहीं हुई और फगनू ठग लिया गया। फूलो के चंदा जैसे चेहरे में चांद का मुँह तो टेढ़ा नजर आयेगा ही; दागदार चांद का समना करने की हिम्मत किसे है?

चेतना संपन्न इस प्रतीकात्मक कथा में फूलो को माँ-बाप का नाम मिला मालिक के कूटनीतिक परिशोषण से। लिंबाले को पिता का नाम शोषण नीति के तहत नहीं मिलता। चरम स्तर पर भीष्म पितामह को मातृसत्ता से ’गंगापुत्र’ नाम मिला, पिता महत्वहीन रहा। कर्ण सूतपुत्र ही रहा; सूर्यपुत्र होकर समाज में प्रकाशित तो रहा, माता का नाम नहीं मिला, तड़पता रहा। माता कुन्ती गंगा जैसी निर्मलता कर्ण को प्रदान नहीं कर सकीं। द्वारिका प्रसाद चारुमित्र लिखते हैं - ’’मर्मवादी समाज में स्त्रियाँ पग-पग पर पीड़ित, अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैं, और जहाँ हर मिनट कहीं न कहीं किसी स्त्री का बलात्कार होता है। हमारे यहाँ शास्त्रों में संतान के लिए नियोग प्रथा का विधान है। सभी पाण्डव और कौरव नियोग प्रथा से ही जन्में थे। वेदों से लेकर रामायण, महाभारत तक ऐसी प्रथाओं का उल्लेख मिलता है जो आज की मूल्य व्यवस्था से मेल नहीं खाती। बदलते समाज के साथ मूल्यमानों में भी परिवर्तन सवाभाविक है। यौन नैतिकता पर भी यही बात लागू होती है। आज की प्रचलित मूल्य व्यवस्था के साथ अगर धर्म शास्त्रों और प्राचीन महाकाव्यों का मेल नहीं बैठता तो क्या उन्हें जला देना चाहिए?’’96 

लेकिन फूलो योग प्रथा से जन्मी। ’फूलो’ प्रश्न उठाती है - यौननैतिकता तो प्रचीनकाल से वर्तमान तक है? फूलो उद्वेग, जुगुप्सा और नफरत पैदा करती है तो वह गहरे काव्य की कहानी है। इसे जलाओगे या खारिज करोगे, कैसे? आनंदवर्धन के अनुसार महाभारत, युद्ध के खिलाफ कविता है तो ’फूलो’ समाज के दर्पण में एक खौफनाक और वीभत्स कालिख है, जहाँ रमाने-लुभाने वाले रसबोध के अवसान में मोहभंग हो रहा है। जिससे बगावत की चिंगारी धीरे-धीरे ही सही, धुआँ तो फैला रही है। आग लगने की देरी है, फिर तो ढेर ....। इसी समस्या पर कुबेर का कलम चेतना संपन्न होकर लिखती है - ’’जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।’’97 इसे बेईमान कैसे जान पायेंगे? ’फूलो’ में गरीबों का शोषण करने वाले कृपालु मालिक को विडम्बना स्वरूप रखते हैं जबकि यह हकीकत है। विडम्बना स्वरूप को डाॅ. पाठक एवं उसकी मित्र मंडली भले ही समर्थन दे, हम कैसे सहमत हो सकते हैं। हकीकत से मुँह मोड़ना विद्वता नहीं, न जाने पाठक जी हकीकत के पास कब विराजमान होंगे? अस्तु! आमीन!
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रविवार, 3 मई 2015

आलेख

(लोकसाहित्य म लोकप्रतिरोध के स्वर’ के संदर्भ)

21 मार्च 2015 के दिन साकेत साहित्य परिषद् सुरगी ह सोला बरस के हो गे। जीवन म सोलवाँ साल के विशेष महत्व होथे। इही उमर म मनखे के तन अउ मन ह सबल होय के शुरूआत होथे। बुद्धि अउ विचार ह पाके लागथे। नवा-नवा सपना देखे के अउ वोला सच करे के उदिम होय लागथे। ’समाज सेवा और साहित्य उत्थान’ के उद्देश्य अउ सपना ल ले के साकेत साहित्य परिषद् के जनम होइस अउ इही ल अपन आदर्श बना के परिषद ह अपन जीवन यात्रा के शुरूआत करिस। परिषद् के हर गतिविधि अउ क्रियाकलाप ह जनतांत्रिक ढंग ले जनता के बीच म होवत आवत हेे। परिषद् ह अपन उद्देश्य म कहाँ तक सफल हो पाइस यहू ह आपके सामने हे। सफलता के कोई विकल्प नइ होय, पन कोनों काम बर जी-परान दे के भिड़ जाना अउ सरलग भिड़ेच रहना, यहू घला छोटे बात नो हे। परिषद् ल इही बात के गुमान हे। पन यहू जरूरी हे कि आज परिषद् के हर सदस्य खुद ले इही सवाल घेरीबेरी पूछंय कि परिषद् ह अपन उद्देश्य म कहाँ तक सफल हो पाइस।

साकेत साहित्य परिषद् सुरगी ह पीछू सरलग सोलह बरस ले अपन सालाना कार्यक्रम म कोनों न कोनों महत्वपूर्ण विषय ल ले के विचार गोष्ठी के आयोजन करत आवत हे। निर्धारित विषय ऊपर केन्द्रित स्मारिका के प्रकाशन घला करे जाथे। विषय विशेषज्ञ के रूप म आमंत्रित विद्वान मन गोष्ठी म विचार मंथन करथें। पीछू साल इही सिलसिला म 23 फरवरी 2014 म गंडई पंडरिया म छत्तीसगढ़ी हाना ल ले के विचार गोष्ठी के आयोजन करे गे रिहिस। गोष्ठी म डॉ. विनय पाठक, डॉ. गोरेलाल चंदेल, डॉ. जीवन यदु, डॉ. पीसी लाल यादव, डॉ. दादूलाल जोशी जइसे विद्वान मन के अनमोल विचार सुने बर मिलिस। गोष्ठी अउ ये मौका म प्रकाशित स्मारिका ह सब ल भाइस। एसो के, सोलहवाँ सालाना गोष्ठी के परिचर्चा के विषय हे- ’लोक साहित्य म लोक प्रतिरोध के स्वर’। ये मौका म प्रकाशित एसो के स्मारिका के मेड़वार घला, जेंकर चारों मुड़ा बिचार रूपी दौरी के बइला मन घूमहीं, इही विषय ल बनाय गे हे।

संगी हो! छत्तीसगढ़ ह लोकसाहित्य के मामला म समृद्ध हे। विभिन्न प्रकार के लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोक परंपरा म प्रचलित प्रतीक चिह्न अउ हाना, जम्मों ह लोकसाहित्य म समाहित हे। आप सबो झन जानथव कि साहित्य ह अभिव्यक्ति के माध्यम आय। हिरदे के प्रेम-विषाद्, हर्ष-उल्लास, सुख-दुख, के अभिव्यक्ति ल तो हम साहित्य के माध्यम ले करबे करथन, येकर अलावा घला मन के सहमति-असहमति अउ वो जम्मों गोठ, जम्मों काम, जउन ल हम क्रियात्मक रूप म नइ कहि सकन, नइ कर सकन, वो सब ल साहित्य के माध्यम ले कहिथन, करथन। अइसन तरह के अभिव्यक्ति करे के मामला म लोक अउ लोकसाहित्य के बराबरी कोनों साहित्य ह नइ कर सकय। लोकसाहित्य के माध्यम ले लोक ह अपन असहमति अउ विरोध ल अतका मारक ढंग ले पन अतका सुंदर अउ कलात्मक रूप म व्यक्त करथे कि वोकर मन के भड़ास ह घला निकल जाथे अउ सुनइया ल खराब घला नइ लगय। उदाहरण बर सुवा गीत ल ले सकथन। वइसे तो सुवा गीत के माध्यम ले नारी-मन के हर्ष-उल्लास के अभिव्यक्ति घला होथे फेर ये गीत ह प्रमुख रूप ले पुरूष प्रधान समाज द्वारा नारी उत्पीड़न के विरोध म नारी-मन के सामूहिक अभिव्यक्ति के गीत आवय। एक पद देखव -

’ठाकुर पारा जाइबे तंय घुम-फिर आइबे,
तंय घुम-फिर आइबे,
कि सेठ पारा झन जाइबे,
रे सुवा न, कि सेठ पारा झन जाइबे।
सेठ टुरा हे बदन इक मोहनी,
बदन इक मोहनी,
कि कपड़ा म लेथे मोहाय।
रे सुवा न, कि कपड़ा म लेथे मोहाय।’

विचार करव, सेठ वर्ग ल शोषक वर्ग के पर्याय माने जाथे। ये पद म शोषक वर्ग के प्रतिरोध जतका सौम्यता, शिष्टता अउ जउन कलात्मक सौन्दर्य के साथ करे गे हे वो ह कला अउ सौन्दर्य, दोनों के पराकाष्ठा नो हे? हमर लोकसाहित्य ह अइसनहे कतरो कलात्मक प्रतिरोध के स्वर ले भरे पड़े हे। एक हाना देखव - ’खेत बिगाड़े सोमना, गाँव बिगाड़े बाम्हना।’ ये ह लोक प्रतिरोध के स्वर नो हे त अउ काये? देवार मन अपन लइका-बच्चा के नाम रखथें - पुलिस, कप्तान, तहसीलदार, श्रीदेवी, आदि। सोचव, ये ह का आवय।

सुवा कहव के कहिनी, लोक साहित्य के सब्बो विधा म इही तरह ले लोक के  प्रतिरोध ह रचे बसे हे, इंकरे चिन्हारी करके वोला ये स्मारिका म साधे के कोशिश करे गे हे।
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यह लोककथा छत्तीसगढ़ में कही जाती है।

एक राजा था। (लोक में बड़ा जमीदार भी राजा ही होता है।) नौकरों या सेवकों की नियुक्ति वह अपनी शर्तों पर करता था। उसी राज्य में दो भाई रहते थे। वे बहुत गरीब थे। बड़ा भाई बहुत भोला और सीधा-सादा था। लोग उसे सिधवा कहते थे। छोटा भाई बुद्धिमान और चतुर था। वह खड़बाज के नाम से प्रसिद्ध था। बड़ा भाई, सिधवा राजा के यहाँ नौकर हो गया। नियुक्ति के समय राजा की शर्तों में ये शर्तें भी थी -

’सुबह-शाम केवल एक-एक पत्तल में, जो पाँच पत्तों का बना होगा, भोजन दिया जायेगा। भोजन की मात्रा उतनी ही होगी जितना पत्तल में आ सके। शर्तों का उल्लंघन करने पर या नियत अवधि से पूर्व नौकरी छोड़ने पर चेथी का मांस देना होगा।’

लोक कथाकार कहते हैं - सिधवा को भोजन परोसने के लिए राजा बबूल की पत्तियों से पत्तल बनवाता था। काम बेहिसाब लिया जाता था। जल्द ही बड़ा भाई सिधवा निर्बल और बीमार हो गया। जान है तो जहान है, उसने चेथी का मांस देकर अपनी जान बचाई।

सिधवा किसी तरह घर लौटा। खड़बाज ने बड़े भाई की दुर्गति देखी। राजा के इस अन्याय, छल और धूर्ततापूर्ण व्यवहार के कारण उसका खून खौलने लगा। उसके दिल में प्रतिशोध की आग दहकने लगी। उसे जल्द ही मौका भी मिल गया, जब राजा ने मुनादी कराई कि महल के लिए एक नौकर की सख्त जरूरत है।

राजा ने फिर वही शर्तें रखी जो सिधवा के समय रखी गई थी। खड़बाज ने कहा - महाराज! मेरी भी शर्त है। पत्तल मैं अपनी इच्छानुसार बनाऊँगा और भोजन मेरी रूचि का होना चाहिए। 

राजा को नौकर की सख्त जरूरत थी। उसने शर्तें मान ली।

भोजन के लिए खड़बाज ने पुराइन के पाँच पत्तों को जोड़कर एक पत्तल बनाया। पुराइन का पत्ता अपने आप में ही एक पत्तल के आकार का होता है। पाँच पत्तों को जोड़कर बनाये गए उस पत्तल का आकार बहुत बड़ा था। उसने पत्तल भरकर भोजन लिया। जितना खा सकता था खाया, बाकी को जानवरों के आगे डाल दिया। इससे किसी शर्त का उल्लंघन नहीं होता था, अतः राजा इसका विरोध नहीं कर सका। शर्त में काम के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया था, अतः खड़बाज हर काम अपनी मर्जी से करता था। भरपेट खाता और चैन की नींद सोता था। खड़बाज की हरकतों से राजा को कई तरह से नुकसान होने लगा। राजा अब और अधिक नुकसान सहने की स्थिति में नहीं था लेकिन वह कर भी क्या सकता था? खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब अपने चेथी का मांस देना था।

खड़बाज की हरकतों से राजा का इकलौता पुत्र भी मारा जाता है। उसे जन-धन की अपार हानि हाने लगी। उसकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान भी धूमिल होता गया। पर खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब था अपने चेथी का मांस देना। राजा के लिए ऐसा करना संभव नहीं था।

राजा अब खड़बाज के नाम से थर्राने लगा था। अंततः वह रानी के साथ गुप्त मंत्रणा करता है। रात के अंधेरे में गुप्त रूप से बेटी-दामाद के घर पलायन करने की योजना बनती है। खड़बाज को राजा की योजना का पता चल जाता है और वह उस झांपी के अंदर छिपकर बैठ जाता है जिसे रानी ने यात्रा के लिए जरूरी सामानों के साथ तैयार किया था।

बेटी के घर पहुँचकर भी खड़बाज की हरकते जारी रहती हैं। अंत में बेटी की समझाइश पर राजा अपने चेथी का मांस देकर खड़बाज से छुटकारा पाता है।
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इस लोककथा में राजा को सताने और उसका नुकसान करने के लिए खड़बाज कई तरह के मनोरंजक और हास्यास्पद काम करता है। बहुत सी हरकतें जुगुप्सा पैदा करने वाली भी होती है। उनकी हरकतों से खूब हास्य पैदा होता है। राजा की बेबसता और उनका मानमर्दन होने से श्रोताओं की आत्मतुष्टि होती है। उनका खूब मनोरंजन होता है। खड़बाज श्रोताओं की कल्पना का नायक बन जाता है। लोक कथाकार अपनी कल्पना से इन हरकतों का सृजन करता है। इस समय खड़बाज स्वयं लोक कथाकार के अंदर साकार हो उठता है और दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है।

लोकसाहित्य में निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। लोक प्रतिरोध की सबसे बड़ी विशेषता यही है। उपर्युक्त लोककथा केवल हास्य और मनोरंजन के लिए ही नहीं रची गई होगी। इसकी रचना शोषण और अपमान से ग्रस्त किसी खड़बाज ने ही शोषकों के विरूद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया होगा। समाज के ऐसे सारे खड़बाज अपनी परिथितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होते हैं। विकल्पहीन खड़बाजों (शोषितों) के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोकसाहित्य की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वे इसी का आश्रय लेते है। यही लोक का प्रतिरोध है, लोक प्रतिरोध के स्वर हैं। लोक प्रतिरोध के लिए लोकसाहित्य में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककथाएँ (लोकसाहित्य) शोषकों के बीच भी समान रूप से उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककथाओं का श्रवण अथवा कथन करते समय, लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए, स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। यही लोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तौर पर ऐसे लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, उसकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार नहीं तो और क्या है? जरूर इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव नहीं है।
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निवेदक
कुबेर
संरक्षक, साकेत साहित्य परिषद सुरगी
जिला - राजनांदगाँव
ई मेल -kubersinghsahu@gmail.com