सोमवार, 30 सितंबर 2013


प्रसिद्ध प्रगतिशील समालोचक डाॅ. गोरे लाल चंदेल की कुबेर की चर्चित (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) ’भोलापुर के कहानी’ की यह समीक्षा ’विचार वीथी’ नवंबर 10 - जनवरी11 में प्रकाशित हुआ था।
लोक की कहानी
(’भोलापुर के कहानी’ प्रथम संस्करण की समीक्षा; विचार वीथ्ी, नव्रबर 10 - जनवरी 11)
  डाॅ. गोरे लाल चंदेल

आंचलिक भाषा पर कहानी लिखने की हमारी परंपरा बहुत लंबी है। इंशा अल्ला खाँ की ’रानी केतकी की कहानी’ यों तो हिन्दी खड़ी बोली की कहानी मानी जाती है पर उस कहानी में आंचलिकता बोध स्पष्ट दिखाई देता है। रेणु की ’परती परिकथा’ बिहार की लोक बोली के रस से सराबोर दिखाई देती है। उनकी कहानियों में भी इस आंचलिक रंग को आसानी से देखा जा सकता है। बहुत से हिन्दी कहानियों में भी आंचलिक भाषा के प्रयोग से कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाया गया है। किन्तु यह भी सही है कि आंचलिकता के नाम पर बहुत सतही कहानियाँ भी लिखी गई है। और उन सतही रचनाओं के बलबूते पर आंचलिक लेखक का तमगा लगाकर सामाजिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले तथाकथित रचनाकारों की भी कमी नहीं है। ऐसे रचनाकार आंचलिकता को जीते नहीं केवल भुनाते हैं। जब तक आंचलिक भाषा की रचनाओं में अंचल के लोक जीवन की संवेदनाओं को पकड़ने, उनके भीतर की ऊर्जा और जीवनी शक्ति को तलाशने तथा लोक की संघर्षशील चेतना को पकड़ने में रचनाकार कामयाब नहीं होंगे तब तक आंचलिक रचनायें केवल सतही या मस्ती की रचनायें ही हो सकती हैं। उनमें रचनात्मक गहराई का अभाव दिखाई देगा। ऐसी रचनाओं का आंचलिक साहित्य के विकास में कोई योगदान नहीं होता। रचना का समाज शास्त्र विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ दिखायी देगा।
हम छत्तीसगढ़ी पर लिखी आंचलिक रचनाओं की परंपरा की ओर देखें तो यह परंपरा खींच-तानकर धर्मदास तक जाती है। वैसे धर्मदास की रचनाओं को विशुद्ध छत्तीसगढ़ी कहने पर भी प्रश्न उठाये जा सकते हैं किन्तु ध्र्मदास से लेकर सन 2000 तक छत्तीसगढ़ी में जितनी रचनाएँ लिखी गई उससे कई गुना अधिक 2000 से 2010 के बीच लिखी गई। स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ी राज्य के गठन के बाद छत्तीसगढ़ी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई, इस बाढ़ से छत्तीसगढ़ी की संस्कृति, संस्कृति का आधार, उसका विचार पक्ष, सब कुछ बह जाने के दुख में आज भी आँसू बहाते हुए दिखायी दे सकते हैं। अधिकांश छत्तीसगढ़ी रचनायें ’ठेठरी’ और ’खुरमी’, ’चीला’ और ’फरा’, ’लुगरा’ और ’पोलखा’, ’पंछा’ और ’पटका’ में सिमटकर रह गयी। लोक जीवन की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानने में नाकाम रही।
कुबेर छत्तीसगढ़ी के एक संभावनाशील कथाकार हैं। कथाकार की दृष्टि न केवल लोक की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानती है वरन् उसके भीतर के जीवन मूल्यों को तलाशती भी है। उनकी कहानियाँ सांस्कृतिक मूल्यों की ऊपरी कलेवर पर ही नहीं टिकती वरन् संस्कृति को व्यापक समाजिक जीवन के भीतर से देखती है। यदि कुबेर गाँधीवादी आदर्श के आग्रह से मुक्त होकर, कठोर सामाजिक यथार्थ से रूबरू होकर, लोक मूल्यों को पकड़कर कहानी लिखे तो एक मुकम्मल कहानीकार के रूप में उनका विकास हो सकता है। हालाकि ’’भोलापुर के कहानी’’ संग्रह की कुछ कहानियों में इस आदर्श से बाहर निकलने की छटपटाहट उनमें स्पष्ट दिखाई देती है जिससे उनमें  अच्छे कहानीकार की संभावनाएँ दिखाई देती है। ’घट का चैंका कर उजियारा’ ,’चढ़ोŸारी के रहस’, ’पटवारी साहब परदेसिया बन गे’, ’अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ’, ’मरहा राम के जीव’ कहानियों में कुबेर के आदर्श से बाहर निकलने की कश्मकश को देखा जा सकता है और यथार्थ की ठोस जमीन पर डरते झिझकते हुए नहीं वरन् पूर्ण आत्मविश्वास के साथ, मजबूती से कदम रखते हैं। धर्म और धार्मिक कार्यों के भीतर छुपे हुए यथार्थ को पकड़ने में उनकी दृष्टि कहीं चूकती नहीं, चाहे कबीर पंथी संत का यथार्थ हो अथवा ’पेटला महराज’ या बनारस का कथावाचक हो। हमारी सामाजिकता को रौंधते हुए अर्थ तंत्र की धड़कन पहचानने में कुबेर कोई गलती नहीं करते। आम आदमी के धार्मिक शोषण के रहस्य को भी वे समझ जाते हैं और संत या कथावाचक को हास्यास्पद बना देते हैं। नौकरशाही के चरित्र को ’पटवारी’ और ’बबुआ’ के माध्यम से, कड़ुए यथार्थ के भीतर से देखते हैं। मंगलू राम के विरोध की चेतना शोषित-पीड़ित व्यक्ति की संघर्षशील चेतना का ही प्रतिफलन है। रतनू राम को पटवारी परेशान करता है। वह कोई और नहीं, उनके अपने ही व्यक्ति है, छŸाीसगढ़िया है। नौकरशाह के चरित्र को परखने में कुबेर कहीं चूकते नहीं।
कुबेर के यहाँ छत्तीसगढ़ी का गाँव है; एक समूचा गाँव, जहाँ गाँव की अच्छाई भी है और बुराई भी; और हैं दोनांे को जीते हुए लोग। गाँव में अंधविश्वास का एक मजबूत जाल होता है जिसमें हर आदमी फंसा होता है और जाने अनजाने उसे जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। यह अंधविश्वास कुछ चालाक लोगों के प्रतिशोध का अस्त्र भी होता है और कुछ लोगों के जीवन यापन का साधन भी। ’’पेटला महराज के बाप ह तरिया के कुंडली बनाथे’’(राजा तरिया)। वे यह भी कहते हैं - ’’जजमान मोर बात ला धियान दे के सुनिहव। दुनों तरिया मन के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ माड़य।’’ (राजा तरिया)। तालाब की गाँव वालों द्वारा बेटी वाले और बेटा वाले, दो ग्रुप में बँाटकर ’लद्दी’ निकालकर सफाई की जाती है। पानी भरने का मुख्य कारण यह है जिस ओर संकेत करके कुबेर अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं। छŸाीसगढ़ के हर गाँव में पेटला महराज और उसकी पीढ़ी को देखा जा सकता है। पेटला महराज का दूसरा रुप कबीर पंथी संत और तीसरा रुप कथावाचक और बरन (चढ़ौतरी के रहस) में देखा जा सकता है। वास्तव में इनकी पूरी जमात होती है जो गाँव के लोगों का सांस्कृतिक शोषण करती है और अपनी थैली भरती है। लोक जीवन धार्मिक कार्यों के प्रति बहुत संवेदनशील होती है और उसी संवेदनशीलता को शोषण का आधार बनाया जाता है। एक दूसरे तरह के लोग ’संपत’ और ’मुसवा’ जैसे होते हैं (लछनी काकी) जो अंधविश्वास को प्रतिशोध का हथियार बनाते हैं। घना मंडल के सामाजिक जीवन का गाँव के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को समाप्त कर अपना अस्तित्व और कमाई को बदस्तूर जारी रखने के लिय,े घना मंडल को बदनाम करने के लिये, षडयंत्रपूर्वक इसी अंधविश्वास का सहारा लिया जाता है और संपत, मुसवा और नानुक सुंदरू को साम, दाम, दण्ड और भेद से इस बात के लिये राजी कर लेते हैं कि भरी पंचायत में वह लछनी पर टोनही होने का आरोप लगाये और उसकी पत्नी पर टोना करने का दोष मढ़े। किन्तु उनका खेल गावँ के ही, मेडिकल कालेज का छात्र रघ्घू बिगाड़ देता है और पंचायत में जाँच रिपोर्ट पढ़कर बता देता है कि फुलबासन को एड्स है। कुबेर अंध-दृष्टि और वैज्ञानिक-दृृष्टि की द्वन्द्वात्मकता दिखाकर समाज में अंधविश्वास के विरुद्ध चेतना जागृत करते हैं।
कथाकार की सहज दृष्टि में बड़ी सजगता हर कहानी में दिखाई देती है इसलिये समाज विरोधी तत्वों परंपराओं और रिवाजों का वे प्रतिरोध करते हैं। उनका यह प्रतिरोध रचनात्मक प्रतिरोध है; प्रतिरोध के लिये प्रतिरोध नहीं है- चाहे वह संपत और मुसवा का प्रतिरोध हो या नंदगहिन द्वारा कबीर पंथी संत का व्यंग्यात्मक प्रतिरोध हो (घट का चैंका कर उजियारा) अथवा मरहा राम का प्रतिरोध हो (मरहा राम के जीव) या फिर मंगलू का प्रतिरोध हो (अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ)। इन प्रतिरोधों का संग्रह ही कहानी में एक सामाजिक चरित्र बनता है, जो चेतना के समाजशास्त्र को प्रभावित करता है और चेतना के विकास की दिशा तय करता है। प्रतिरोध का यह स्वर कभी दबा हुआ रहता है तो कभी मुखर। मजे की बात यह है कि मुखर स्वर रघ्घू, जगत आदि नई पीढ़ी के लोगों में दिखाई देता हैं (सरपंच कका, लछनी काकी)। कहानीकार की दृष्टि नई पीढ़ी के भटकाव को भी पकड़ने में सफल दिखाई देती है। (डेरहा बबा) नई पीढ़ी का यह भटकाव न केवल लोक जीवन को अशांत करता है वरन् उनके अपने जीवन में भी अंधेरे का विस्तार करता है। 21वीं सदी का उत्सव (डेरहा बबा) नई पीढ़ी के सांस्कृतिक भटकाव को रेखांकित करता है। यह बात अपनी परंपरा और इतिहास से कटी हुई पीढ़ी की त्रासदी की ओर इशारा करती है और कहानीकार का यह इशारा हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। किन्तु मंगलू के प्रतिरोध की चेतना एक दूसरी तरह की चेतना है (अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ)। वह अपनी प्रतिरोध की चेतना को अपने अफसर के प्रिय विदेशी पौधे पर कुल्हाड़ी चलाकर व्यक्त करता है। मरहा राम की चेतना फेन्टेसी में फंसी होने के बाद भी मुकम्मल प्रतिरोधी चेतना के रूप में दिखई देती है (मरहा राम के जीव)। नंदगहिन की विरोधी चेतना बड़ी मासूमियत और विनम्रता से भरी हुई चेतना है। ’’बने कहिथस साहेब। हम मूरख अज्ञानी। दारू-मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन। आप मन गुरू हव, गियानी-धियानी हव, तउन पायके जानथव।’’ (घट का चैंका कर उजियारा)। मासूमियत और विनम्रता में लिपटी यह चेतना तिलमिला देने वाली है। कहानी ने विरोध की चेतना के मूक रूप को भी दिखाया है। रतनू के मूक विरोध में भी बड़ी ताकत दिखार्द देती है, चाहे वह ’पटवारी साहेब परदेसिया बन गे’ में पटवारी के प्रति हो या ’साला छŸाीसगढ़िया’ में दुकानदार के प्रति। मूक विरोध होकर भी यह प्रभावशाली ढंग से उभर कर सामने आता है। ’मरहा राम के जीव’ कहानी में मरहा राम के मिथ और फेन्टेसी में जाने के पूर्व के चरित्र को भी विरोध की चेतना के रूप में देखा जा सकता है।
 ’भोलापुर के कहानी’ रिश्तों की सामूहिकता में बंधी हुई कहानियों का भी संग्रह है। समूह की चेतना लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है; जहाँ हर आदमी रिश्तों की डोर में बंधा हुआ दिखाई देता है। गाँव के विरोधी तत्वों के बीच भी इस बंधन में कोई झोल दिखाई नहीं देता, चाहे सुकारो दाई का नंदगहिन से रिश्तों का बंधन हो या उनकी अपनी बहु से। अछूत समझे जाने के बाद भी पेटला महराज से डेरहा बबा का रिश्ता, रघ्घू और जगत का सरपंच कका, मुसवा, संपत और नानुक के रिश्तों का बंधन; रतनू उसका बेटा और उसकी पत्नी का बंधन; नंदगहिन का गुरुदेव संत साहेब से रिश्ता, न जाने कितने-कितने रिश्तों का बंधन। न जातिवाद की बाधा न सम्प्रदायवाद की। ऊँच की न नीच की। वहाँ केवल सामूहिकता की अविरल धारा है। बूँदों का विलय ही धारा का अस्तित्व है और यही लोक जीवन का भी अस्तित्च है। मरहा राम का संघर्ष और राजा तरिया कहानियों में सामूहिकता के दो अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। एक में समूह की शक्ति उत्सव की पृष्ठभूमि में दिखाई देती है तो दूसरी में यह प्रतिरोध की शक्ति के रूप में दिखाई देती हैं। दोनों लोक की सामूहिकता के दो अलग-अलग रंग हैं।
साहित्य में मिथ का उपयोग करते समय रचनाकार का सावधान रहना आवश्यक है। मिथ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। उसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व हैं। किन्तु कालक्रम से उसकी व्यंजना को परिवर्तित करना आवश्यक होता है। ’मरहा राम के जीव’ में कुबेर ने यमराज, यमलोक, यमदूत तथा श्री हरि या भगवान और भगवान के लोक के मिथ पर जो फंतासी रचते हैं वह रोेचक होने के साथ ही साथ नकारवादी न होकर सकारवादी है। भवसागर और वैतरणी जैसे मिथों का यमदूत द्वारा व्याख्या हमारे अपने सामाजिक चेतना को विकसित कर मिथ को एक अलग संदर्भ में देखने-समझने की दृष्टि देती है। मरहा राम प्रतिरोधी शक्तियों से अकेला संघर्ष करते हुए मारा जाता है; बल्कि उनकी हत्या की जाती है। पूंज्ीवादी शोषक व्यवस्था में कई मरहा रामों की हत्याएँ हो चुकी है। हिंसा, हत्या, आतंक यह सब तो इस व्यवस्था का चरित्र ही है। ’मरहा राम के  संघर्ष’ कहानी के प्रारंभ में अपनी जमीन न छोड़ने का मूक संघर्ष है किन्तु कहानी के अंतिम अंशों में यह संघर्ष प्रबल विरोध में रूपान्तरित होता है। कहानीकार ने शायद मूक विरोध को प्रबल मुखर विरोध में बदलने के लिये ही मिथ और फंतासी का उपयोग किया है। यह प्रयोग कहानी को बहुत ऊपर उठा देता है। यदि कहानी के ऐसे अंशों को, यथा - ’’छत्तीसगढ़िया के निर्णय भगवान हा करही’’, ’’लदलद लदलद कांपना’’ जैसी बातों को विलोपित कर दिया जाय तो यह और भी प्रभावशाली कहानी बन सकती थी। मरहा राम के संघर्ष को हाशिये पर रखकर भगवान के आदेश से संघर्ष की परिकल्पना कहानी को नाटकीय ढंग से यथार्थ से दूर हटा देती है जबकि कहानी का कलेवर यथार्थवादी जमीन पर विकसित होती है। छत्तीसगढ़िया लोगों के भोलेपन का फायदा चालाक लोग उठाते हैं, यह सत्य है। उनकी चालाकी और उनकी बाहुबलियों से छत्तीसगढ़ियों के भयभीत होने में भी यथार्थ की झलक है पर छत्तीसगढ़ के लोग कमजोर नहीं हैं, वह हर परिस्थिति में जीने की क्षमता रखता है, उनकी इस क्षमता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। यह क्षमता मरहा राम में भी है और रतनू में भी और डेरहा बबा में भी है। यही क्षमता उनकी ताकत है। फिर भी यह कहानी शक्तिशाली शोषकों के विरुद्ध जंग के एलान की  कहनी बन जाती है और लोक में प्रतिरोध की चेतना का विकास करती है।
कहानी के शिल्प पर विचार किया जाय तो कहानी बुनने की कला तो कुबेर में है ही कथानक का विकास भी इस तरह करते हैं कि कथाक्रम में कहीं व्यतिरेक दिखाई नहीं देता। लोक-भाषाओं में यों ही बड़ी मिठास होती है। लयात्मकता तो लोक-भाषा का प्राण ही है पर यह सब तभी संभव है जब लोक की शैली में इसका प्रयोग हो। यदि लोक शैली को नजरअंदाज कर लोक-भाषा का प्रयोग किया जाय तो भाषा बोझिल हो जाती है और स्वभाविकता समाप्त हो जाती है। कुबेर ने ठेठ लोक शैली में कहानी लिखी है। लोक मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोक व्यवहार के शब्दों का कुबेर ने ऐसा प्रयोग किया है कि कहानी का शिल्प-सौंदर्य प्रभावशाली बनता ही है, पाठक को डुबा भी देता है। कुबेर तो यमदूत, यमराज और भगवान से भी छत्तीसगढ़ी में बात करवा देते हैं। विषयानुकूल छत्तीसगढ़ी के शब्दों का चयन आसान काम नहीं है, उसके लिये अध्ययन से अधिक अनुभव की आवश्यकता पड़ती है। कुबेर के पास भाषा का ठेठ अनुभव है, इसीलिये बहुत प्रभावशाली भाषा का उपयोग करने में वे सफल होते हैं।
कुबेर की कहानियों में अधिकांश पात्र प्रतिनिधि पात्र बनते-बनते रह जाते हैं। एक अजीब तरह के गाांधियन हृदय परिवर्तन का भी कहानीकार सहारा लेते हैं। गाँधी-युग के बाद हिन्दी कहानी की जमीन गाँधियन आदर्श से हट गई है और ठोस यथार्थ की जमीन पर हिन्दी कहानी फल-फूल रही है। ऐसे समय में गाँधीवादी हल देना कहानीकार की भावुकता ही मानी जा सकती है। जब-जब कुबेर गाँधीवादी भावुकता से बाहर निकलते हैं, कहानी बहुत प्रभावशाली बन जाती है - चाहे ’घट का चैंका कर उजियारा ’ हो, ’सुकवारो दाई’ हो ’पटवारी साहेब परदेसिया बन गे’ हो ’अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ’ हो या ’मरहा राम के जीव’ हो। इन कहानियों में सामाजिक विसंगतियों का यथार्थपरक रूप सामने आता है। कुबेर में कहानी बुनने की बहुत अच्छी कला है, अच्छी भाषा है और वे विषयवस्तु का चुनाव करने में सक्षम हैं। यदि भावना के प्रवाह में बहने के प्रति सचेत अथवा सजग रहें तों वे बहुत अच्छी आंचलिक कहानियाँ दे सकते हैं। हिन्दी साहित्य में अच्छी आँचलिक कहानियों की कमी कुबेर की कहानियों से पूरी हो सकती है।
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                                       दाऊ चैंरा’, खैरागढ
                जिला - राजनांदगाँव (छ. ग.)
                        मो. - 9425560759
’विचार वीथी’ (अंक नवंबर 10 - जनवरी11) से  साभार
कुबेर

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम -     कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह)
लेखक का नाम -    कुबेर
प्रकाशक     -     प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर
समीक्षक -     मिलिंद साव

आज हमारे प्रदेश का निर्माण हुए लगभग 11 वर्ष होने जा रहा है, फिर भी मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य को आम जनता में जो स्थान मिल जाना चाहिए था, वह अभी तक नहीं मिल पाया है। विशेषकर गद्य के क्षेत्र को। साहित्यकारों द्वारा लिखी गई कवितायें तो गीतों और कवि-सम्मेलनों के माध्यम से लोगों तक पहुँच जाती हैं, पर कहानियों, उपन्यासों के साथ ऐसा नहीं हो पाता। ऐसे में जब इस प्रकार के आयोजनों के माध्यम से कुबेरजी जैसे प्रतिभावान साहित्यकारों की रचनायें जनता के सामने लाई जाती है, तब निश्चित रूप से यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की बड़ी सेवा होती है और इसके विकास में यह एक सशक्त कदम होता है।

जहाँ तक मेरी बात है, पुस्तकें पढ़ना मेरी पहली रूचि में शामिल है। इसीलिए जब मुझे कुबेरजी की पुस्तक ‘भोलापुर के कहानी‘ मिली थी, मैंने इसे तुरंत पढ़ा और इसने मुझे काफी प्रभावित किया था। बाद में जब मुझे इनकी अगली पुस्तक ‘कहा नहीं‘ मिली, तब इसे पढ़ने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पाया। इस कहानी संग्रह से मैं इतना अभिभूत हुआ कि मैंने तुरंत कुबेरजी को फोन पर बधाई दी।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है, भाषा की सहजता। इसकी भाषा बड़ी सहज, सरल और बोधगम्य है। छत्तीसगढ़ी भाषा के विषय में कुछ लोगों में यह भ्रम है कि यह बोलने में तो बड़ी सरल है, पर लिखने और पढ़ने में उतनी सरल नहीं है। बल्कि कष्टसाध्य है। यह पुस्तक इस भ्रम का पूरी तरह से निवारण करती है। इस कहानी संग्रह की किसी भी कहानी को पढ़ने में मुझे किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई। हो सकता है यह लेखक की कलम का जादू हो! पर, इस पुस्तक ने यह तो सिद्ध कर ही दिया है कि छत्तीसगढ़ी पढ़ने और लिखने में उतनी ही सरल है, जितनी कि बोलने में!

इस कहानी संग्रह की सभी कहानियाँ मुझे बड़ी ही पसंद आई। फिर भी उनमें से दो कहानियों की संक्षिप्त चर्चा आज मैं यहाँ करना चाहूँगा। एक तो है- कहा नहीं; जिससे इस पुस्तक के शीर्षक को नवाजा गया है। इस कहानी का क्षेत्र मस्तिष्क नहीं बल्कि हृदय है। इसीलिए यह हृदय को छू जाती है। इस कहानी ने संवेदना के सभी आयामों को स्पर्श किया है। कुछ लोगों को यह कहानी नायिकाप्रधान लग सकती है। पर, मुझे तो यह कहानी नायकप्रधान लगी। कहानी का नायक एक सद्चरित्र, नैतिक व्यक्ति है। पर, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसी घड़ी आती ही है, जब भावना के नाजुक क्षण में वह खड़ा नहीं रह पाता, बहने लगता है। नीति-अनीति, देह-आत्मा, प्यार-वासना में वह अंतर नहीं कर पाता। ऐसा ही कुछ इस कहानी के नायक बाबू के साथ होता है, जब वह अंिनंद्य सुंदरी नायिका चंपा के प्यार में पागल हो उठता है और एक क्षण के लिए प्यार और वासना में अंतर करना भूल जाता है। पर, दूसरे ही क्षण चंपा का रणचण्डी रूप उसे उसकी भूल का अहसास करा देता है और वह पश्चाताप की अग्नि में झुलसने लगता है। कहानी का अंत भी बड़ा मनोवैज्ञानिक है, जब चंपा, बाबू को यह अहसास दिलाती है कि प्यार अपवित्र नहीं होता, वासना अपवित्र होती है। वह अभी भी उसे प्यार करती है। लेखक ने एक बड़े ही नाजुक मसले पर कलम चला कर बड़े ही साहस का परिचय दिया है। अंचल की प्राचीन लोककथा- ‘शिवनाथ-सतवंतिन‘ के तार इस कथा की मूलभावना से जोड़ने का जो प्रयास किया गया है, वह निश्चित ही प्रशंसनीय है। परन्तु, मेरे विचार से इस लोककथा का विस्तारित वर्णन कहानी को बड़ा लंबा कर देता है। इसे सीमित किया जा सकता था।

दूसरी कहानी जिसकी चर्चा मैं करने जा रहा हूँ, वह रोचक और प्रेरक दोनों ही है। यह छोटी सी कहानी है- ’दू रुपिया के चांउर और घीसू-माधव: जगन! इस कहानी में एक पढ़े-लिखे बेरोजगार आम युवक की व्यथा का चित्रण है जो कोई काम न मिलने पर रिक्शा का हैंडिल थाम लेता है। भाषा की सहजता और सामयिक परिवेश इस कहानी की विशेषता है।

सरकार द्वारा गरीब लोगों को दिया जा रहा दो रूपये किलो चावल आज तथाकथित बड़े लोगों की टिप्पणी का विषय बन चुका है। वे इसे गरीबों को अलाल बनाने का साधन निरूपित कर रहे हैं। पर, वास्तविकता क्या है, इसका खुलासा कहानी का नायक जगन रिक्शावाला सभी के सामने करता है। इसी प्रकार रिक्शावालों, फलवालों जैसे छोटे व्यवसाय करने वालों को उनके व्यवसाय, सामान आदि के नाम से पुकारना लोगों की आदत बन चुकी है। मानों, वे कोई जड़ वस्तु हों। जैसे- ऐ रिक्शा! ऐ केला! इत्यादि। इस अपमानजनक सम्बोधन से जगन पीड़ित है। और दूसरी पीड़ा है- शोषण की। बाजार में लोगों की यह आदत सी बन चुकी है कि वे जब तक सब्जी वाले से सब्जी के दाम दो रूपये कम न करा ले, रिक्शेवाले से किराया पाँच रूपये कम न करा ले, उनकी आत्मा को संतोष ही प्राप्त नहीं होता है। इस शोषण का खूबसूरत चित्रण इस कहानी में किया गया है। हास्य-व्यंग के पुट से यह कथा रोचक बन पड़ी है।

कुबेरजी की इस पुस्तक में छत्तीसगढ़ी के आम बोलचाल के शब्दों के प्रयोग ने पुस्तक में जान डाल दी है। अंत में यही कहना चाहूंगा कि कुबेरजी की यह पुस्तक निश्चित ही पठनयोग्य है। इसे छत्तीसगढ़ के प्रत्येक व्यक्ति के हाथ और हमारे सभी पुस्तकालयों की शोभा जरूर बननी चाहिए।

मिलिन्द साव
19/13, विवेकानंद नगर
राजनांदगाँव
म् उंपस रू  उपसपदक14/ीवजउंपसण्बवउ

रविवार, 22 सितंबर 2013


आलेख
लोकसाहित्य में लोक जीवन की अभिव्यक्ति

एक बहु प्रचलित बोध कथा है -

एक प्रकाण्ड पण्डित था। शास्त्रार्थ में वह कभी किसी से पराजित नहीं होता था। अपनी पंडिताई पर उसे बड़ा अभिमान था। यात्रा के दौरान वह सदैव अपनी किताबों और पोथियों को साथ लेकर चलता था। एक बार वह नाव से नदी पार कर रहा था। उसने नाविक से पूछा - ’’क्या तुम वेद-शास्त्रों के बारे में जानते हो?’’ नाविक ने कहा कि नाव और नदिया के अलावा वह और कुछ नहीं जानता। पंडित ने उस नाविक को लंबा-चैड़ा उपदेश दिया और कहा कि तुम्हारा आधा जीवन तो व्यर्थ चला गया।
तभी मौसम ने अचानक अपना मिजाज बदला। आसमान पर काले-काले बादल घिर आए। बड़ी तेज आँधियाँ चलने लगी। नाव का संतुलन बिगड़ने से वह बुरी तरह डगमगा रही थी और वह किसी भी झण डूब सकती थी। नाव को डूबते देख नाविक ने पंडित जी से पूछा - ’’महात्मन्! क्या आप तैरना जानते हैं, नाव डूब रही है।’’ पंडित जी मृत्यु भय से कांप रहा था, बोल भी नहीं निकल रहे थे। मुश्किल से उसने कहा ’’नहीं।’’

नाविक ने कहा - ’’महात्मन! तब तो आपकी पूरी जिंदगी बेकार चली गई।’’

मित्रों! इस छोटी सी बोधकथा में प्रकृति और प्राणियों के बीच के अंतर्संबंधों का रहस्य उद्घाटित होता है। प्रकृति अपनी असीम शक्तियों के द्वारा प्राणियों को जन्म देती है, पालन करती है और अंत में उसका संहार भी करती है। जो प्राणी स्वयं को प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के अनुकूल समर्थ बना पाता है, वही अपने अस्तित्व की रक्षा करने में सक्षम हो पाता है। डार्विन ने इसे समर्थ का जीवत्व कहा है।

एक और लोककथा है जो सरगुजा अंचल में कही-सुनी जाती है। वह इस प्रकार है -

वृक्ष के कोटर में पक्षी ने एक अंडा दिया। समय आने पर उसमें से चूजा निकला। मां दाना चुगने गई थी तभी उस चूजे पर एक भयंकर सांप की नजर पड़ गई। वह चूजे को खाने के लिये लपका। चूजे ने कहा - ’’हे नागराज! अभी तो मैं बहुत छोटा हूँ। मुझे खाकर आपको तृप्ति नहीं मिलेगी। कुछ दिनों बाद जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तब आप मुझे खा लेना।’’ सांप को चूजे की बात जंच गई।

सांप रोज आता और उस चूजे को खाने के लिये लपकता। चूजा रोज इसी तरह अपनी जान बचाता। एक दिन सांप ने फिर कहा - ’’अब तुम बड़े हो चुके हो। आज तो मैं तुम्हें खाकर ही रहूँगा।’’ चूजे ने कहा - ’’तो खा लो न, मैं कहाँ मना कर रहा हूँ।’’ इतना कहते ही वह फुर्र से उड़ गया। सांप हाथ मलते रह गया।

मित्रों, यह लोककथा कोई मामूली कथा नहीं है। जिस किसी भी लोक ने इसे सृजित किया होगा, उसे जीवन और जगत् के बीच के अंतर्संबंधों का सहज-अनुभवजन्य परंतु विशद् ज्ञान रहा होगा।

मित्रों! जिन दो कहानियों का उल्लेख मैंने आभी किया है, उनके अभिप्रायों पर गौर कीजिये। ये दोनों कहानियाँ कहीं न कहीं प्रकृति और प्राणियों के बीच चलने वाले जीवन संघर्षाें को, कार्यव्यवहारों को रेखांकित करती हैं। जीवन संघर्ष में जीत सदैव सबल व समर्थ की होती है। प्रकृति और प्राणियों के बीच का संघर्ष शास्वत है। सृष्टि के विकास की यह एक अनिवार्य तात्विक व रचनात्मक प्रक्रिया है। इसी से सृष्टि विकसित होती है, सुंदर और समरस बनती है। इसी संघर्ष में विश्व की विषमता की पीड़ाओं से मुक्ति का रहस्य भी छिपा है। छायावाद के महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इसी ओर इशारा करते हुए कहा है -

विषमता की  पीड़ा  से व्यस्त  हो  रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुःख-सुख, विकास का सत्य यही, भूमा का मधुमय दान।
                      (श्रद्धा सर्ग)
स्पर्धा  में जो उत्तम  ठहरे, वे रह जावें।
संसृति का कल्याण करें, शुभ मार्ग बतावें।
                (संघर्ष सर्ग)
समरस थे, जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती,  आनंद अखंड घना था।।
                        (आनंद सर्ग )
संघर्ष का सीधा संबंध शक्ति से है। प्रथम प्रस्तुत बोधकथा के अभिप्राय पर जरा गौर करें। यहाँ पर प्रकृति के साथ संघर्षों के लिये तीन बातें जरूरी बताई गई हैं -

1. प्रकृति के कार्यव्यवहारों का ज्ञान,
2. जीवन का व्यवहारिक ज्ञान, और
3. शारीरिक रूप से शक्तिशाली होना।

दूसरी लोककथा के अभिप्रायों पर गौर करें तो निम्न तथ्य सामने आते हैं -
1. मुसीबत से डरकर नहीं, निर्भयता से उसका सामना करने पर ही उससे छुटकारा मिल सकती है।
2. अपने से सबल के साथ शरीर बल से नहीं बल्कि बुद्धिबल से लड़ना चाहिये।
3 परिस्थितियाँ अनुकूल होने की प्रतीक्षा करें।
4 जहाँ शारीरिक बल काम न आये वहाँ चतुराई बरतना अति आवश्यक है।

शास्त्रों में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, ये चार प्रकार के पुरुषार्थों का वर्णन है। अर्थ, धर्म और काम से गुजरे बिना क्या मोक्ष संभव है? यह शास्त्रों की स्थापनाएँ हैं, इस पर शास्त्रार्थ होते रहे हैं, आगे भी होते रहेंगे। लोक की भी अपनी स्थापनाएँ हैं। उपर्युक्त कथाओं में इन स्थापनाओं को देखा जा सकता है। जीवन संघर्ष के लिये तीन तरह की शक्तियों की आवश्यकता होती है - तन की शक्ति, मन की शक्ति, और बुद्धिबल (मानसिक शक्ति)।

इन कथाओं के आलोक में हम समस्त छत्तीसगढ़िया अपनी क्षमताओं पर गौर करें, आंकलन करें। फिर अपनी स्थितियों का आंकलन करें कि वर्तमान में हमारी स्थिति क्या है, और यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य में हमारी क्या स्थिति होने वाली है?
हमारे छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने विपुल प्राकृतिक संसाधनों से नवाजा है, फिर भी संपूर्ण हिन्दुस्तान में हमसे ज्यादा गरीब और कोई नहीं है। हम अमीर धरती के गरीब लोग कहे जाते हैं। हमारी संसाधनों का दोहन हम नहीं करते, उस पर हमारा अधिकार नहीं हैं। परंतु दिगर जगह से आकर यहाँ बसने वाला पाँच साल में ही कार और बंगलों का मालिक बन जाता है।

राजनीति में हमारे बीच के लोगों की हमेशा उपेक्षा की गई है।

राज्य सेवाओं की, शासकीय नौकरियों की, प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे टिक नहीं पाते हैं क्योंकि उच्चशिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षाकेन्द्रों से अब तक हमें वंचित रखा गया है। हमारे बच्चों में भी डाॅक्टर, कलेक्टर, एस.पी. और मजिस्ट्रेट बनने की योग्यता है, पर वे नहीं बन पाते।

हम अपने बच्चों के लिये क्या कर रहे हैं? रामचरितमानस की प्रतियोगिताओं में उन्हें पेन और कापी पकड़ा कर, और इन मंचों के लिये बच्चों की मंडलियाँ बनाकर हम उनमें कौन सी सेस्कार विकसित कर रहे है? क्या इससे वे कलेक्टर और डाॅक्टर बनेंगे?

हमें, हमारी संस्कृति और हमारी भाषा को इस हद तक हेय समझा गया है कि हमारे अंदर आज केवल हीन भावनाएँ ही भरी हुई है, और स्वयं को छत्तीसगढ़िया कहलाने में अथवा छत्तीसगढ़ी बोलने में हम हीनता का अनुभव करते हैं।
मुझे स्वामी विवेकानंद के उपदेश याद आते है। एक अंग्रेज सज्जन गीता के उपदेशों और गूढ़ रहस्यों को समझने के लिये काफी दिनों से उसके पीछे पड़ा हुआ था। एक दिन स्वामी जी ने कहा कि वे आज फुटबाॅल के मैदान पर मिलें, वही पर चर्चा होगी। अंग्रेज सज्जन जब नियत समय पर फुटबाॅल के मैदान पर पहुँचा तो स्वामी जी पूरे मनोयोग से फुटबाॅल खेलने में व्यस्त थे। अंग्रेज सज्जन ने कहा, ये क्या कर रहे हैं आप? स्वामी जी ने कहा - गीता के रहस्यों को समझ रहा हूँ। आओ आप भी समझो।

मित्रों, ध्यान रहे, सफलता का कोई विकल्प नहीं होता। जीत जीत है, और हार हार है। दुनिया उगते हुए सूरज को प्रणाम करती है। धर्म आचरण का विषय है, शास्त्रों का नहीं। निर्णय हमें करना है कि हम अपनी ऊर्जा को अपने राजनीतिक हकों को प्राप्त करनें में लगायें, हमारे प्रदेश में ही हमारे बच्चों के लिये आई. आई. टी और आई. आई. एम. जैसी उच्चशिक्षा के संस्थान खुलवाने में लगायें, उसमें अपने बच्चों को दाखिले के योग्य बनने में लगायें या पूरे साल रामायण प्रतियोगिताएँ और इसी तरह की प्रतियोगिताओं को संपन्न करने में लगायंे।

धन्यवाद।
कुबेर
9407685558



आलेख
लोक-साहित्य में मिथक

कुबेर
 ’’लोक साहित्य में मिथक’’। यहाँ पर तीन शब्द हैं। - लोक, साहित्य और मिथक, जिनके बारे में उपस्थित विद्वान विस्तार से हमें बताएँगे। वैसे भी, सुरगी वालों के लिए ये शब्द अपरिचित नहीं हैं। मिथक से तो सुरगी का सदियों पुराना रिस्ता है। नौ लाख ओड़िया और नौ लाख ओड़निनों के द्वारा एक ही रात में, इस गाँव में छः आगर छः कोरी तालाब खोदे जाने की कहानी यहाँ भला कौन नहीं जानता? विषय से संबंधित कुछ बातंे, जैसा मैं सोचता हूँ, संक्षेप में आपके समक्ष रखना चाहूँगा।    

लोक का क्या अर्थ है?

यदि समष्टि में हम अपने समाज को देखें तो लगभग दो तिहाई लोग गाँवों में बसते है।, केवल एक तिहाई आबादी शहरों और कस्बों में निवास करती है। गाँवों में निवास करने वाले, और कुछ अंशों में शहरों में भी निवास करने वाले वे लोग जो अपढ़ या निक्षर होते हैं, परंपरागत व्यवसाय करने वाले मेहनतकश होते हैं और आधुनिक सभ्यता तथा आधुनिक सभ्यताजन्य मनोविकारों से अछूते होते हैं, लोक कहे जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में निवास करने वाले पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी लोग जो आधुनिक सभ्यता के संपर्क में जीते हैं, शिष्ट वर्ग कहे जाते हैं।
                                                                                       यहाँ पर मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि यद्यपि लोक पढ़ा-लिखा नहीं होता है, पर वह अज्ञानी या मूर्ख कदापि नहीं होता। लोक और शिष्ट का अपना-अपना ज्ञान-क्षेत्र होता है। लोक का ज्ञान उसके अनुभवों और परंपराओं से आता है जबकि शिष्ट का ज्ञान किताबी ज्ञान ही अधिक होता है। एक महापंडित और नाविक की कहानी आप सभी जानते है। नदी पार करते समय अचानक तूफान और फिर मूसलाधार बारिश होने से नाव पलट जाती है। नाविक तैर कर अपनी जान बचा लेता है, परन्तु महापंडित बाढ में बहकर मर जाता है क्योंकि उसे तैरना नहीं आता था। वह उस नाविक का अनुभवजन्य ज्ञान ही था जिसने उसकी जान बचाई।

एक दूसरी कहानी है - एक किसान गाँव के पुरोहित को नदी में नहाते वक्त गले तक पानी में खड़े होकर ध्यान लगाते रोज देखा करता था। उत्सुकतावश एक दिन वह पुरोहित से पूछ बैठा कि ऐसा करने से क्या होता है? पुरोहित ने बड़े ही उपेक्षापूर्वक ढंग कहा कि इससे भगवान मिलता है।

उस किसान के मन में भी भगवान को पाने की इच्छा हुई। दूसरे दिन वह भी नदी के बीच धार में ध्यान लगाकर खड़ा हो गया। तभी अचानक बरसात शुरू हो गई। बाढ़ आ जाती है। बाढ़ का पानी उस किसान के सिर के ऊपर से बहने की स्थिति में पहुँच जाता है, पर उसका ध्यान नहीं टूटता क्योंकि अभी तक भगवान का आगमन जो नहीं हुआ था। भगवान ने सोचा, मेरी वजह से बेचारा किसान अकाल मारा जायेगा, दर्शन तो देना ही पड़ेगा। भगवान प्रगट हुए। पुरोहित ने भगवान से पूछा कि भगवन! मैं तो रोज ही आपका ध्यान लगाता हूँ मुझे तो आपने कभी दर्शन नहीं दिया, और इस गँवार किसान के सामने प्रगट हो गये? भगवान ने कहा - पंडित जी! यह किसान गाँवार है, अपढ़ है, वेद-शास्त्र को नहीं जानता; पर इसके मन में किसी प्रकार का अहंकार, किसी प्रकार के विकार और किसी प्रकार के विचार भी नहीं हैं, इसका मन और इसका हृदय दोनों ही निर्मल है। आप में और इसमें यही अंतर है।
                                                                          
ज्ञानी और भक्तों, दोनों का ही अंतिम लक्ष्य होता है - निःअहंकार होना, निर्विकार होना और निर्विचार होना; लोक में यह विशेषता देखी जा सकती है।

साहित्य क्या है?

बहुत सरल शब्दों में कहें तो, गीत, कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास - यही तो साहित्य हैं। वे गीत और वे कहानियाँ जो लोक की वाचिक परंपरा में होते हैं लोक-साहित्य कहलाते हैं। विचार करें तो हमारे वेद, जिन्हंे हम ’श्रुति’ कहते हैं, आरंभ में वाचिक परंपरा के ही साहित्य रहे हैं। लिखा हुआ साहित्य शिष्ट साहित्य है। हर समाज का, हर देश का और हर बोली और भाषा का अपना-अपना लोक-साहित्य होता है।

मिथक क्या हैं?

किसी गाँव में रात में एक हाथी आया और गलियों से होता हुआ आगे जंगल की ओर चला गया। धूल में उसके पैरों के निशान पड़ गए। उस गाँव के किसी भी व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी हाथी नहीं देखा था। सुबह हाथी के पैरों के निशान देख कर सबकी मति चकरा गई कि आखिर रात में यहाँ कौन सा जीव आया होगा। सबने खूब सोचा पर किसी को कुछ न सूझा। सबने कहा - लाल बुझक्कड़ को बुलाओ, हमारे गाँव में एक वही बुद्धिमान आदमी है। वही इस पहेली को सुलझा सकता है। लाल बुझक्कड़ को बुलाया गया। उसने खूब सोचा। उसे अपनी इज्जत जाती दिखी। इज्जत तो बचाना ही था, अंत में उसने कहा -

’’लाल बुझक्कड़ बूझ के, और न बूझो कोय।
पैर में चक्की बांध के, हिरना कूदो होय।’’

शुरू मे मैंने सवा लाख, कहीं-कहीं कुछ लोगों के अनुसार नौ लाख ओड़िया और नौ लाख ओड़निनों द्वारा सुरगी में एक ही रात में छः आगर छः कोरी तालाब निर्माण की कहानी की ओर इशारा किया था। बचपन में बुजुर्गों से हम सुनते आए हैं कि चन्द्रमा में दिखने वाला दाग मूसल से धान कूटती एक बुढ़िया का है या वह खरागोश का है। चन्द्र-ग्रहण और सूर्य ग्रहण धड़-हीन राहु-केतु द्वारा उन्हें निगल लिए लाने की वजह से होते हैं। पृथ्वी शेषनाग के सिर पर रखी हुई है, आदि-आदि ....। छत्तीसगढ़ी में एक लोक-कथा है - महादेव के भाई सहादेव। आप सभी जानते हैं। इसमें यह बताया गया है कि रात में सियार हुँआते क्यों हंै? एक चतुर सियार ने महादेव को खूब छकाया। अंत में पकड़ा गया। उसे सजा मिली। सजा से छुटकारा पाने के लिए उसने महादेव से वादा किया था कि रात में वह पहरा दिया करेगा। रात में चार बार हँुआ कर वह लोगों को सचेत किया करेगा। उस सियार के बाद भी उसके वंशज  आज तक अपना वही वचन निभा रहे हैं।

झारखण्ड के आदिवासियों में भी इसी तरह की एक रोचक कथा प्रचलित है। सृष्टि के आरंभ में आसमान में सात सूरज हुआ करते थे। ये कभी अस्त न होते थे और खूब तपते थे। सारे जीव बहुत परेशान रहते थे। उसी समय जंगल में, किसी गाँव में सात आदिवासी भाई भी रहते थे। ये सातों बड़े तीरंदाज, बलिष्ठ और बड़े लडाके थे। इन लोगों ने सातों सूरज को मजा चखाने की ठानी। सातों ने अपनी-अपनी कमान पर तीर चढ़या। हरेक ने एक-एक सूरज पर निशाना साधा और एक साथ छोड़ दिये तीर। कुछ ही देर बाद पृथ्वी पर घुप अंधेरा छा गया। दूसरा दिन हुआ नहीं; एक भी सूरज नही निकला। सूरज का निकलना बंद हो गया। अब तो अंधेरे की वजह से लोगों पर आफत के पहाड़ टूटने लगे। मनुष्य सहित जंगल के सारे जीव-जंतुओं ने इस पर विचार किया कि अब क्या किया जाय? किसी ने कहा - सात सूरज में से केवल छः ही मरे हंै, मैंने देखा है कि एक भाई का निशाना चूक गया था और एक सूरज जिंदा बच गया था। लेकिन वह डरा हुआ है और पहाड़ के पीछे छिपा बैठा है। बुलाने पर वह आ सकता है। पर बुलाये कौन? मनुष्य से तो वह डरा हुआ था। राक्षसों और निशाचरों की तो बन आई थी। चिड़ियों ने कोशिश किया, खूब चहचहाये, पर वह सूरज नहीं निकला। तितलियों ने, भौरों ने, कौओं ने और अन्य प्राणियों ने भी कोशिश किया। छः दिनों तक लगातार कोशिशें जारी रही। सातवें दिन सब ने मुर्गे से कहा कि तुमने अब तक कोशिश नहींे किया है। तुम भी कोशिश करके देखो, शायद तुम्हारे बुलाने से सूरज निकल आए। मुर्गे ने कहा - कुकड़ू कूँ। और पूरब की ओर थोड़ा सा उजाला छा गया। सब के सब खुशी से झूम उठे। सब ने मुर्गे से फिर कहा - फिर से बुलाओ, वह आ रहा है। मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। सूरज ने पहाड़ के पीछे से सिर उठा कर झांका और उसकी किरणे धरती पर बिखरने लगी। सब ने मुर्गे से फिर कहा, देखो-देखो! पहाड़ के पीछे से वह लाल सूरज झांक रहा है, एक बार फिर बुलाओ। मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। तब तो छिपा हुआ वह सूरज पूरी तरह से निकल आया और आसमान में चढ़ने लगा। एक ही सूरज की तपन बड़ी प्यारी लग रही थी। लोग खुशी से झूम उठे। तभी से चलन हो गया है; मुर्गे की बांगने से ही सूरज निकलता है।

हमारे कई गाँवों में, भांठा में एक साथ, एक ही जगह पत्थर की ढेर सारी मूर्तियाँ पई जाती है। इनमें बहुत सारी मूर्तियाँ सैनिकों के होते हैं, कुछ घुड़सवार तो कुछ पैदल। कुछ तलवार लिए तो कुछ तीर-कमान लिए। लोग कहते हैं - एक राजा था। उसकी रानी बहुत सुंदर थी। उसी राज्य में एक जादूगर भी रहता था जो अपनी जादुई ताकत से कुछ भी कर सकता था। वह भी रानी की सुंदरता पर मुग्ध था। उसने एक दिन रानी का अपहरण कर लिया। गुप्तचरों से पता चलने पर राजा ने जादूगर से लड़ने की ठानी। उसने आक्रमण किया।  जादूगर ने अपनी जादू से पूरी फौज को पत्थर का बना दिया।

ये ही मिथक हैं।

मिथकों की स्वीकार्यता।

मिथकों का निर्माण कैसे हुआ होगा? जाहिर है, ऊपर के उदाहरणों में जैसा कि हमने देखा, मिथकों का निर्माण समाज के बौद्धिक वर्ग ने ही किया होगा। परंतु बौद्धिक वर्ग द्वारा रची गई कोई भी कहानी लोक-स्वीकार्यता और लोक-मान्यता प्राप्त करने के पश्चात् ही मिथक बन पाया होगा। हर समाज, हर भाषा, हर जाति, हर देश का अपना-अपना मिथक होता है। मिथकों की रचना समाज की मान्यताओं और परिस्थितियों के अनुसार ही हुआ होगा।

एक ही विषय से संबंधित भिन्न-भिन्न मिथक हो सकते है। हिन्दुस्तान में धरती शेष नाग के सिर पर रखी हुई है। शेष नाग साल में एक बार फन (गंड़री) बदलता है। भूकंप इसी का नतीजा है। युरोप में यही धरती हरक्यूलिस नामक एक शक्तिशाली देवता के कंधे पर रखी हुई है, हरक्यूलिस कभी भी कंधा नहीं बदलता। दुनिया नष्ट हो जाएगी।

लोक-साहित्य के मिथक और शिष्ट साहित्य के मिथक में क्या अंतर होता है?

ऊपर लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य के बहुत सारे मिथकों की हमने चर्चा की है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण की कथा हो, शेषनाग की कथा हो या हरक्यूलिस की कथा, ये शिष्ट साहित्य के मिथक हैं और सभी धार्मिक आस्था से जुड़े हुए हैं। हमारे सारे अवतार प्रगट होते हैं, माँ की कोख से जन्म नहीं लेते। हमारे सभी धर्मग्रन्थ भी ईश्वरीय होते हैं और ये भी प्रगट होते हैं, साहित्यकार द्वारा लिखे नहीं होते। इस संबंध में कुछ भी बोलना फतवे को आमंत्रित करना ही होगा। चुप रहने में ही बुद्धिमानी है। इसके विपरीत लोक के मिथक बड़े लचीले होते हैं। अलग-अलग अंचल में नये-नये रूपों में प्रगट होते हैं, क्योंकि ये लोक की संपत्ति होते हैं, धर्म की नहीं। लोक के मिथक या तो विशुद्ध मनोरंजन करते हुए प्रतीत होते हैं अथवा लोक-शिक्षण करते हुए। ये प्रकृति के रहस्यों की लोक-व्याख्या के रूप में भी प्रगट होते हैं। इस पर कोई भी फतवा जारी नहीं कर सकता।
कुबेर
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बुधवार, 18 सितंबर 2013

साहित्य की वाचिक परंपरा कथा-कंथली:
लोक जीवन का अक्षय ज्ञान कोश 


समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तोे वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रची गई थी। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोक मानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोक मानस पर राज करने वाले वाचिक परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित ही, और अविवादित रूप से, लोक-साहित्य ही हो सकता है।


लोक जीवन में लोक-साहित्य की परंपरा केवल मन बहलाव, मनोरंजन अथवा समय बिताने का साधन नहीं है; इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, मया-पिरीत, रहन-सहन, संस्कृति, लोक-व्यवहार, तीज-त्यौहार, खेती-किसानी, आदि की मार्मिक और निःश्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरण; नीति-अनीति का अनुभवजन्य तथ्यपरक अन्वेशण और लोक-ज्ञान का अक्षय कोश निहित होता है। लोक-साहित्य में लोक-स्वप्न, लोक-इच्छा और लोक-आकांक्षा की स्पष्ट झलक होती है। नीति, शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक-साहित्य लोक-शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और श्रम-जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंग, वर्ग, वर्ण और जाति की पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के दंश को अभिव्यक्त करने की, इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति विरोध जताने की शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है। जीवन यदि दुःख, पीड़ा और संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक-साहित्य इन दुःखों, पीड़ाओं और संघर्षों के बीच सुख का, उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक उपक्रम है। लोक-साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखित मर्मस्पर्षी अभिव्यक्ति है, जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती है, चमत्कृत कर देने वाली फंतासी भी होती है।


लोक-साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी, यह अनुमान और अनुसंधान का विषय है, परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति और विकास उतना ही प्राकृतिक, सहज, और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक-कथाएँ, लोक-गाथाएँ, लोक-गीत तथा लोकोक्तियाँ, लोक-साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक-साहित्य में लोक द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों का, पौराणिक पात्रों सहित ऐतिहासिक लोक-नायकों के अदम्य साहस, शौर्य और धीरोदात्त चरित्र का, अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह संक्रमण सहज और लोक ईच्छा के अनुरूप ही होता है। लोक साहित्य का नायक आवश्यक नहीं कि मानव ही हो; इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता है।


लोक-कथाओं की उत्पत्ति, उद्देश्य और अभिप्रायों को समझने के लिए यहाँ पर कुछ लोक-कथाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। आदिवासी अंचल में प्रचलित इस लोककथा की पृष्ठभूमि पर गौर करें -


चिंया अउ साँप


जंगल म बर रुख के खोड़रा म एक ठन सुवा रहय। ़़एक दिन वो ह गार पारिस। गार ल रोज सेवय। एक दिन वोमा ले ननाचुक चिंया निकलिस। सुवा ह चारा लाय बर जंगल कोती गे रहय। एक ठन साँप ह चिंया ल देख डरिस। चिंया तीर आ के कहिथे - ’’मोला गजब भूख लागे हे, मंय ह तोला खाहूँ।’’


चियां ह सोंचिस, अब तो मोर परान ह नइ बांचे। मोर मदद करइया घला कोनों नइ हें। ताकत म तो येकर संग नइ सक सकंव, अक्कल लगा के देखे जाय।


चिंया ह कहिथे - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव नाग देवता; तोर पेट ह नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’
साँप ल चिंया के बात ह जंच गे। वो ह वोकर बात ल मान तो लिस अउ वो दिन वोला छोड़ तो दिस फेर लालच के मारे वो ह रोज चिंया तीर आय अउ खाय बर मुँहू लमाय। चिंया ह रोजे वोला विहिच बात ल कहय - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव; तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’


अइसने करत दिन बीतत गिस। धीरे-धीरे चिंया के डेना मन उड़े के लाइक हो गे।
एक दिन साँप ह कहिथे - ’’अब तो तंय बड़े हो गे हस। आज तोला खा के रहूँ।’’


चिंया ह किहिस - ’’खाबे ते खा ले।’’ अउ फुर्र ले उड़ गे।


साँप ह देखते रहिगे।
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शिल्प, विषय, उद्देश्य और लोकसंम्पृक्तता की दृष्टि से छोटी सी यह लोककथा किसी भी शिष्ट कथा की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक और चमत्कृत कर देने वाली है। इस लोककथा में लोककथा के अभिप्रायों और संदर्भों का सूक्ष्मावलोकन करने पर अनेक प्रश्न पैदा होते है और इन्हीं अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर में कई अनसुलझे तथ्यों का खुलासा भी स्वमेव हो जाता है।


इस लोककथा में निहित निम्न बातें ध्यातव्य हैं -


1. इस लोककथा का नायक एक सद्यजात चूजा है जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली हैं। यहाँ पर नायक कोई धीरोदात्त मानव चरित्र नहीं है।


2. इस लोककथा का प्रतिनायक भी मानवेत्तर चरित्र है लेकिन वह नायक की तुलना में असीम शक्तिशाली है।


3. इस लोककथा में वर्णित घटना से पृथ्वी पर जैव विकास से संबंधित डार्विन के प्रसिद्ध सिद्धांत ’ओरजिन आफ द स्पीसीज बाई द मीन्स आफ नेचुरल सलेक्सन’ की व्याख्या भी की जा सकती है। ध्यातव्य है कि इस लोककथा का सृजन डार्विन के विकासवाद के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले ही हो चुकी होगी।


4. इस लोककथा में वर्णित घटना प्रकृति के जीवन संघर्ष की निर्मम सच्चाई को उजागर करती है। हर निर्बल प्राणी किसी सबल प्राणी का आहार बन जाता है। यह न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु प्रकृति द्वारा तय किया गया खाद्य श्रृँखला भी है।


5. प्रकृति में जीवन संघर्ष की लड़ाई प्राणी को अकेले और स्वयं लड़ना पड़ता है।


6. जीवन संघर्ष की लड़ाई में शारीर बल की तुलना में बुद्धिबल अधिक उपयोगी है।


7. विपत्ति का मुकाबला डर कर नहीं, हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ करना चाहिये।


8. जीत का कोई विकल्प नहीं होता। दुनिया विजेता का यशोगान करती है। इतिहास विजेता का पक्ष लेता है। विजेता दुनिया के सारे सद्गुणों का धारक और पालक मान लिया जाता है।


9. दुनिया का सारा ऐश्वर्य, स्वर्ग-नर्क, धर्म और दर्शन जीतने वालों और जीने वालों के लिए है। जान है तो जहान है। अतः साम, दाम, दण्ड और भेद किसी भी नीति का अनुशरण करके जीतना और प्राणों की रक्षा करना ही सर्वोपरि है।


इस लोककथा से कुछ सहज-स्वाभाविक प्रश्न और उन प्रश्नों के उत्तर भी छनकर आते है, जो इस प्रकार हैं -


1. ऐसे सार्थक और प्रेरणादायी कहानी के सृजन की प्रेरणा लोक को किस प्राकृतिक घटना से मिली होगी?


कथासर्जक ने अवश्य ही किसी निरीह चूजे को, किसी शक्तिशाली साँप का निवाला बनाते और अपनी प्राण रक्षा हेतु तड़पते हुए देखा होगा। इस धरती का हर प्राणी हर क्षण प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष की चुनौतियों से गुजर रहा होता है। इस लोककथा का सर्जक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसने साँप की जगह नित्यप्रति उपस्थित प्राकृतिक आपदाओं को, प्रकृति की असीम शक्तियों को तथा प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए स्वयं को, चूजे की जगह कल्पित किया होगा और परिणाम में इस प्रेरणादायी लोककथा का सृजन हुआ होगा।


2. विभिन्न लोक समाज में प्रचलित लोककथाओं की विषयवस्तु का प्रेरणा-स्रोत क्या हैं?


जाहिर है, लोककथा की विषयवस्तु अपने पर्यावरण से ही प्रेरित होती है। यही वजह है कि वनवासियों में प्रचलित अधिकांश लोककथाओं का नायक कोई मानवेत्तर प्राणी होता है। वहीं राजसत्ता द्वारा शासित लोक की लोककथाओं का नायक कोई राजा, राजकुमार अथवा राजकुमारी होती है। मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का दंश झेलने वाले लोक की लोककथाओं में इस व्यवस्था से प्रेरित शोषण के विरूद्ध प्रतिकार के प्रतीकात्मक स्वर सुनाई देते हैं। पुरूष प्रधान समाज में नारियों की स्थिति सदा ही करुणाजनक रही है। अतः नारी चरित्र प्रधान लोककथाओं में (अन्य लोक साहित्य में भी) नारी मन की अभिव्यक्ति और उनकी वेदनाओं का वर्णन प्रमुख होता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शोषण से शोषित लोक की कथाओं में शोषण तथा शोषक वर्ग के प्रति कलात्मक रूप में प्रतिकार के स्वर मुखर होते है।


3. लोककथा-सर्जक को क्या अशिक्षित मान लिया जाय?


लोककथा-सर्जक, आधुनिक संदर्भों में, अक्षर-ज्ञान से वंचित होने के कारण, जाहिर तौर पर अशिक्षित हो सकता है। परंतु पारंपरिक अर्थों में न तो वह अशिक्षत होता है और न ही अज्ञानी होता है। उसकी शिक्षा प्रकृति की पाठशाला में संपन्न होती है। लोककथा-सर्जक प्राकृतिक कार्यव्यवहार रूपी विशाल फलक वाली खुली किताब का जितना विशद् अध्ययन किया होता है, विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में वह सब संभव नहीं है। धर्म, दर्शन और नीतिशास्त्र, सबका उसे ज्ञान होता है।


धर्मोपदेशकों और धार्मिक आख्यानककारों द्वारा विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न संदर्भों में अक्सर एक बोध कथा कही जाती है जो इस प्रकार है -


’चार वेद, छः शास्त्र, अउ अठारहों पुरान के जानने वाला एक झन महापंडित रिहिस। वोला अपन पंडिताई के बड़ा घमंड रहय। पढ़े-लिखे आदमी ल अपन विद्या के घमंड होइच् जाथे, अनपढ ह का के घमंड करही? अब ये दुनों म कोन ल ज्ञानी कहिबे अउ कोन ल मूरख कहिबे? पढ़े-लिखे घमंडी ल कि सीधा-सादा, विनम्र अनपढ़ ल?


एक दिन वो महापंडित ह अपन खांसर भर पोथी-पुरान संग डोंगा म नदिया ल पार करत रहय। डोंगहार ल वो ह पूछथे - ’’तंय ह कुछू पढ़े-लिखे हस जी? वेद-शास्त्र के, धरम-करम के, कुछू बात ल जानथस?’’


डोंगहार ह कहिथे - ’’कुछू नइ पढ़े हंव महराज? धरम कहव कि करम कहव, ये डोंगा अउ ये नदिया के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव। बस इहिच् ह मोर पोथी-पुरान आय।’’


महापंडित - ’’अरे मूरख! तब तो तोर आधा जिंदगी ह बेकार हो गे।’’


डोंगहार ह भला का कहितिस?


डोंगा ह ठंउका बीच धार म पहुँचिस हे अउ अगास म गरजना-चमकना शुरू हो गे। भयंकर बड़ोरा चले लगिस। सूपा-धार कस रझरिझ-रझरिझ पानी गिरे लगिस। डोंगा ह बूड़े लागिस। डोंगहार ह महापंडित ल पूछथे - ’’तंउरे बर सीखे हव कि नहीं महराज? डोंगा ह तो बस अबक-तबक डूबनेच् वाला हे।’’


सामने म मौत ल खड़े देख के महापंडित ह लदलिद-लदलिद काँपत रहय; कहिथे - ’’पोथी-पुरान के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव भइया।’’


डोंगहार ह कहिथे - ’’तब तो तोर पूरा जिनगी ह बेकार हो गे महराज।’’


     ’’पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।’


पंण्डित और पोथियों के ज्ञान को अव्यवहारिक और असार सिद्ध करते हुए, प्रेम की सार्थकता को प्रतिपादित करने वाली कबीर की इस ऊक्ति का समर्थन करती यह कथा यद्यपि शिष्ट समाज में, शिष्ट साहित्य में समादृत है, पर इसकी विषयवस्तु, शिल्प और अभिप्रायों पर गौर करें तो वास्तव में यह लोककथा ही है। पोथी-पुराणजीवी पंडित वर्ग स्वयं अपना उपहास क्यों करेगा? सत्य को अनावृत्त करने वाली यह कथा निश्चित ही लोक-सृजित लोककथा ही है। यह तो इस लोककथा में निहित जीवन-दर्शन की सच्चाई की ताकत है, जिसने पंडित वर्ग में अपनी सार्थकता सिद्ध करते हुए स्वयं स्वीकार्य हुआ। यदि विभिन्न पौराणिक संदर्भों और पात्रों ने लोक साहित्य में दखल दिया है, तो पौराणिक और शिष्ट साहित्य में भी लोक साहित्य ने अपनी पैठ बनाई है। उपर्युक्त लोककथा इस बात को प्रमाणित करता है।


अपने पूर्वजों द्वारा संचित धन-संपति और जमीन-जायदाद को, जो कि धूप-छाँव की तरह आनी-जानी होती हैं, हम सहज ही स्वस्फूर्त और यत्नपूर्वक सहेजकर रखते हैं। लोककथाओं सहित संपूर्ण लोकसाहित्य भी हमारे पूवर्जों द्वारा संचित; ज्ञान, शिक्षा, नीति और दर्शन का अनमोल और अक्षय-कोश है। कंप्यूटर और इंटरनेट की जादुई दुनिया से सम्मोहित वर्तमान पीढ़ी स्वयं को इस अनमोल ज्ञान से वंचित न रखें।
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प्रेषक का परिचय

कथाकार - कुबेर
जन्मतिथि - 16 जून 1956
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा.ॅ रमन सिंह द्वारा
मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 से सम्मानित

प्रकाशित कृतियाँ
1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003
2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009
3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010
4 - कहा नहीं ((छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011
5 - (छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली ((छत्तीसगढ़ी) लोककथा संग्रह 2012)
प्रकाशन की प्रक्रिया में
1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह)
2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)
3 - अनदेखी की गई कहानियां (कहानी संग्रह)
4 $ ढाई आखर प्रेम के - अनुवादित कृति
संपादित कृतियाँ
1 - साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010
2 - शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ’नव-बिहान’ 2010, 2011
पता
ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441
मो. - 9407685557
       म्.उंपस रू ानइमतेपदहीेंीन/हउंपसण्बवउ
संप्रति
व्याख्याता,
शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.)
मो. - 9407685557
   
कहानियां - कुबेर
1  दादी! रियली, आप बहुत गंदी हो

दादी के हाथ से चाय का प्याला लेते हुए और बहुत इत्मिनान से दादी की जवानी को निहारते हुए, हाँ! दादी की जवानी को निहारते हुए, साथ ही साथ करीने से सजी हुई हाॅल के चारों ओर नजर घुमाते हुए सविता मेम ने दादी की प्रस्ंाशा की - ’’दादी! आपको देखकर; आपके घर की साफ-सफाई, व्यवस्था और अनुशासन को देखकर किसे ईष्र्या नहीं होती होगी? ..... भई! चाहे औरों को हो, न हो, मुझे तो होती है। हर सामान अपनी जगह पर करीने से रखा हुआ और सजा हुआ है; चाहे किचन में हो, चाहे बेडरूम में हो, चाहे हाॅल में हो, किसी भी सामान को ढूँढने की जरूरत नहीं पड़ती होगी; हाथ बढ़ाओ और सामान हाथ में।’’

’’नो! सविता मेम जी, ईष्र्या नहीं; ये सब तो अपनी-अपनी आदतें हैं, अपना निजी तहजीब है, रहने और जीने का ढंग है; और यदि किसी की कोई बात अच्छी लगे तो उससे सीखना चाहिए, न कि ईष्र्या करनी चाहिए। समझ रही हैं न आप। आप अपने चारों ओर, नेचर में झांक कर देखिये, उसके अनुशासन और उसकी तरतीबियती पर गौर कीजिये, आप हैरान रह जायेंगी। नेचर में हर चीज अपने-अपने नियमों का, तरतीबियती का, और डिसीप्लीन का पालन करते हुए नजर आयेगी। और यदि हम भी ऐसा करते हैं तो हम नेचर को ही सपोर्ट करते हैं न? और रह गई मुझसे ईष्र्या की बात, मेरे फिटनेस की बात, तो भाई! ये बात कुछ हजम नहीं हुई।’’

 हजम तो सविता मेम को नहीं हुआ, न तो दादी का यह उपदेश और न ही इस बेवा-बुढ़िया का, टीन एजर्स की तरह हमेशा सज- धज कर जवान दिखने और मटकते रहने की आदत। आदत! अपनी बला से; पर पड़ोसी-धर्म निभाना भी तो जरूरी है। कालोनी में घरों के अंदर, परदांे, के पीछे, बीते चैबीस घंटों के दरमियान क्या कुछ घटता है, यह जानना भी तो जरूरी है? दादी उनके लिए किसी न्यूज चैनल से कम नहीं हैं। लिहाजा खुशामद करने की हद तक विनम्र होते हुए सविता मेम ने कहा - ’’आप ठीक कहती हैं दादी, बिलकुल ठीक कहती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जिसे आप निजी तहजीब कहती हैं, वह और डिसीप्लीन की बहुत सारी बातें मैंने आप ही से सीखी है? पर सच मानिए अपनी उम्र से अभी भी आप, कम से कम बीस साल तो जरूर कम ही लगती हैं; इसका राज मैं अभी तक समझ नहीं पाई। ईष्र्या तो होगी ही न?’’

जवाब में दादी ने जोरों का ठहाका लगाया और काफी देर तक लगातार हँसती रहीं। हँसते हुए वे बिलकुल युवतियों की तरह शरमा भी रहीं थी। शरम के मारे उसका गेहँुआ चेहरा कानों तक लाल हो गया था, और इस उम्र में भी भरी हुई और कसी हुई उनकी छातियाँ गाऊन के भीतर बुरी तरह उछल रही थी, जैसे चोली के अंदर कैद होकर रहना उन्हें पसंद न हो। दादी का यह रूप देखकर सविता मेम को, जिनकी छातियाँ तीस की अवस्था में ही आम के चूसे हुए छिलकों की तरह रसहीन हो चुके थे, सचमुच ही ईष्र्या होने लगी थीं। संयत होकर दादी ने ही बात आगे बढ़ाया - ’’सविता मेम, आप भी बहुत मजेदार औरत हैं। मैं जानती हॅँू, अच्छी तरह जानती हूँ कि कालोनी की सारी औरतें हमेशा, मेरे बनने-संवरने की काफी आलोचना करती हैं, और यह भी कि आप भी उन्हीं औरतों की ओर खड़ी हुई हैं। एम आई राईट?’’

’’अब तो आप ज्यादती कर रही हैं दादी। मजाक करने का सचमुच आप में गजब का सेंस है।’’

’’ओ. के., सविता मेम जी! मैं तो अगले जन्म, पुनर्जन्म जैसी अवधारणाओं को कोरा बकवास ही मानती हूँ, सबकुछ वर्तमान ही है, जो हमारे हाथों में है। वर्तमान ही सच है। ईश्वर ने जिन्दगी दी है जीने के लिए, उत्सव मनाने के लिए; मनहूस सूरत बनाकर रोने-धोने और पास्ट-प्रेजेंट की शिकायत करते हुए जिन्दगी तमाम करने के लिए नहीं। उम्रदराज लोगों और विधवाओं को अच्छे लिबास नहीं पहनने चाहिए, मेकअप नहीं करने चाहिए, ऐसा कहने वाले साफिस्टीकेट लोगों से मुझे सख्त घृणा होती है। इन बातों को तो मैं बिलकुल भी नहीं मानती। सब दकियानूसी बातें हैं। मैं तो कहती हू.ँ कि चेहरे से हमेशा जिन्दादिली, और एजाइलनेस टपकनी चाहिए।... यही बातें मैं बेबी से भी कहा करती हूँ कि आपकी परर्सनैलिटी से झलकनी चाहिए कि यू आर अ सक्सैस परसन। एमन्ट आई राईट, मेम? ..... वर्तमान का पूरा आनंद लो।’’

’’बिलकुल ठीक फरमाती हैं दादी आप। पर आज बेबी कहीं दिख नहीं रही हैं। और हाँ, जिस काम के लिए यहाँ आई थी, वह तो बिलकुल ही भूले जा रही हूँ मैं। आपने बेबी के लिए ट्यूटर ढूँढने के लिए कहा था, तीन-चार अच्छे लोगों के बारे में मैंने पता किया है। आपने किसी को तय तो नहीं किया है न?’’

’’थैंक गाॅड! अगर ऐसा है तो आप नहीं जानती कि आपने मुझ पर कितना बड़ा अहसान किया है।’’

’’पर आपने यह नहीं बताया था कि किस प्रकार का ट्यूटर चाहिए; लेडीस या जेंट्स।’’

’’आफकोर्स जेंट्स सविता मेम, ओनली जेंट्स।’’

’’पर बेबी जैसी किशोरी के लिए मैं तो आपको लेडी ट्यूटर की ही सलाह दूँगी दादी। यही तो उम्र होती है जब लड़कियाँ अक्सर बहक जाया करती हैं।’’

’’आई डोंट थिंक सो मेम। लेडी टुयूटर! नो, नेभर। इन कमजाद औरतों को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। कमसिन लड़कियों को बहलाने और बिगाड़ने के मामलों में ये पुरूषों से मीलों आगे रहती हैं। सच मानो आप, लड़कियाँ जब तक खुद न चाहें, उनके अंगों को, खासकर कोमल और गुप्त अंगों को स्पर्श करने की, कोई भी पुरूष हिम्मत नहीं कर सकता। पर महिलाएँ? अपना महिला होने का फायदा उठाकर वे ऐसा बहुत आसानी से कर जाती हैं। समझी आप?’’

’’ओह, तो ये बात है?’’

’’दूसरी बात, इन कमबख्तों को घर जाने की बड़ी जल्दी रहती है। किसी को खाना बनाना होता है, किसी का बच्चा घर में अकेला पड़ा होता है, बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करना होता है या फिर देर हो जाने पर पति से पिटने का भय रहता है।’’

’’आप बिलकुल ठीक कहती हैं दादी, पर हमारे भारतीय समाज में महिलाओं के लिए सबसे बड़ी मजबूरी भी तो यही है न।’’

’’और फिर पर्सनैलिटी में जिस एजाइलनेस की बात मैं अभी-अभी कर रही थी, वह इन लोगों में होता भी है?’’

’’क्यों नहीं हो सकता?’’

’’चलिए, ऐसा कोई मिल भी जाय; पर क्या बेबी उसे बर्दास्त कर पायेगी? सच कहती हूँ मेम, जितना इगो बेबी में है, उतना मैंने और किसी लड़की में नहीं देखा। सुंदरता के मामले में हो, इंटेलिजेंसीं के मामले में हो, फ्रैंकनेस के मामले में हो या एजाइलनेस के मामले में ही क्यों न हो, बेबी अपने से ऊपर किसी को बर्दास्त कर ही नहीं पाती। इसीलिए कहती हूँ मेम कि मुझे बेबी के लिए केवल और केवल जेंट्स ट्यूटर चाहिए। एम आई राईट मेम?’’

’’राईट, दादी परन्तु, मैं फिर भी जेंट्स ट्यूटर के पक्ष में नहीं हूँ। आप सही कहती हैं, जब तक औरत न चाहे, किसी भी मर्द में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह उसका स्पर्श कर सके। पर क्या यह भी सच नहीं है कि लड़कियों में, बेबी की ही तरह की चैदह-पंद्रह साल की अवस्था वाली लड़कियों में, पुरूषों के प्रति आकर्षण सबसे अधिक होता है और पुरूषों को अपना शरीर सौंप देने की इच्छा भी सबसे प्रबल इसी उम्र में होती है?’’

’’बट मेम, बेबी भी तो नहीं चाहती न लेडी ट्यूटर।’’

’’यदि ऐसा ही है और जेंट्स ट्यूटर ही रखना है, तब तो ट्यूटर जरूर कोई उम्रदराज और रिटायर्ड आदमी होना चाहिए।’’

’’नो, नो मेम, मुझे, और बेबी को भी हताश-निराश और उदास लोग बिलकुल पसंद नहीं हैं। बच्चे जितना किताबों से सीखते हैं, उतना ही अपने टीचर परसानैलिटी से, उनके व्यक्तित्व से भी सीखते हैं। रह गई बहकने-बहकाने की बात, सेक्स के मामले में तो सारे मर्द एक जैसे ही होते हैं, उम्र चाहे जो हो। बल्कि बूढ़े लोगों से ही ज्यादा असुरक्षा रहती है। और मेम ध्यान रहे अच्छा टीचर वही होता है जो बच्चे को पूरी तरह कनविंस कर सके। ..... और हाँ, आपने बेबी के बारे में पूछा था, इस समय वह अपनी सहेली से मिलने गई है, बस आती ही होगी।’’
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बात तय हो गई। तय हुआ ट्यूटर बिलकुल वैसा ही है जैसा दादी चाहती थी, पचीस़़-तीस का नौजवान, एजाइल, एनर्जेटिक, और गुडलुकिंग। आज से वह काम शुरू करने वाला है। समय तय हुआ है सुबह आठ से दस। दस बजे बेबी का स्कूल बस आता है। दादी ने बेबी को पहले ही तैयार कर दिया है, और अब वह खुद ड्रेसिंग टेबल पर जमी हुई हैं।
बेबी को आश्चर्य हुआ, पूछा - ’’दादी, आप कहीं बाहर जा रही हैं?’’

’’नो।’’

’’फिर मेकअप क्यों कर रही हैं?’’

’’लड़कियों को हमेशा सभ्य, साफ-सुथरी और सलीके से रहना चाहिये, नहीं?’’

’’पर आप तो औरत हैं।’’

’’हर औरत पहले लड़की ही होती है। तुम क्या समझती हो, तुम कभी औरत नहीं बनोगी?’’

’’कैसे बनती है लड़कियाँ औरत?’’

’’जब शादी होगी, सब समझ जाओगी।’’

’’शादी होने से लड़कियाँ औरत बन जाती हैं?’’

’’शादी होगी, तुम्हारा हसबैंड तुम्हें अपने साथ ले जायेगा, तुम्हारे साथ सुहागरात मनायेगा और तुम औरत बन जाओगी।’’

’’कैसे?’’

’’अब बस भी करो, तुम्हारा टुयूटर आता ही होगा।’’

’’बताइये न, कैसे? आपके हसबैंड ने भी, आई मीन दादा जी ने भी आपके साथ सुहागरात मनाया था?’’

’’बहुत बदतमीज हो गई हो?’’

बेबी ने मचलते हुए कहा - ’’बताइये न?’’

अब तो दादी भी रंग में आ गई। सोफे पर बैठ कर उन्हीेंने बेबी को गोद में ले लिया और कहा - ’’ऐसे। रात कमरे में केवल तुम होगी और तुम्हरा पति होगा। वह तुम्हें अपनी गोद में बिठा लेगा, ठीक इसी तरह। फिर गुलाब की पंखुड़ियो के समान तुम्हारे इन गुलाबी-गुलाबी होठों पर अपने होंठ रख देगा, सिर्फ होठों को ही नहीं, वह तो तुम्हारे जीभ को भी चूसने लगेगा; ऐसे।’’

और फिर सुहाग रात में इसके बाद और क्या-क्या घटती हैं, बेबी को सारी बातेें समझा दी दादी ने।

’’नो, मैं उन्हें ऐसा नहीं करने दूँगी, हरगिज नहीं करने दूँगी।’’

’’पागल लड़की, जब तुम्हें भूख लगती है, खाने से खुद को रोक सकती हो क्या? नहीं न? यह भी तो एक भूख है; ऐसी भूख जिससे कोई बच नहीं सकता। और इसी में तो जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी, दुनिया के सबसे बड़े सुख का राज छिपा होता है। पर हाँ, ध्यान रहे, ऐसा सिर्फ और सिर्फ शादी के बाद; केवल अपने पति के साथ ही होना चाहिए। हिन्दुस्तानी लड़कियाँ अपना जिस्म केवल और केवल अपने पति को ही सौंपती है। एम आई राईट।’’
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एक दिन की बात है, किसी कारणवश स्कूल नहीं लग पाया और बेबी को तुरंत लौट आना पड़ा। रास्ते में सारा समय वह प्लानिंग करती रही कि दादी को सरपराइज देने के लिए किस प्रकार दबे पाँव घर में प्रवष्टि होना है और कुछ ऐसा करना है कि दादी को हमेशा याद रहे।

पर सरपराइज होने की बारी तो अभी बेबी की थी। मेन गेट अंदर से बंद था, सो तो ठीक है, हो सकता है दादी सो रही हों, हालाकि अभी उनके सोने का वक्त हुआ नहीं है। पर ट्यूटर महोदय के जूते अभी तक यहाँ कैसे? बेबी के मन में सवालों और शंकाओं के बवंडर चलने लगे। अपनी चाबी से गेट का ताला खोलकर वह भीतर आई, अमूमन दादी जिस सोफे पर बैठकर टी. व्ही. देखा करती हैं वह भी खाली पड़ी थी। किचन भी सूना था। मम्मी-पाप का बेडरूम, उनके जाने के बाद से ही हमेशा बंद रहता है; केवल साफ-सफाई के लिए दिन में एक बार सुबह खुलता है, वहाँ अभी भी बाहर से ताला लटक रहा था। तो क्या दादी अपने बेडरूम में होंगी? ट्यूटर महोदय कहाँ होंगे? उन्होंने चुपके से दरवाजे को पुश करके देखा, नहीं खुला। की होल से कान लगाकर उन्होंने भीतर की आवाज सुनने का प्रयास किया। अजीब तरह की आवाजें आ रही थी। पर जाहिर था, ये आवाजें उन्हीं दोनों की थी। की होल में चाबी नहीं लगी थी, उन्होंने की होल से वही सारा दृश्य देखा जिसका वर्णन दो माह पहले ट्यूटर के आने से पहले दादी ने किया था। वह सोचने लगी - तो क्या दादी दोबारा औरत बन रही हैं? हिन्दुस्तान की लड़कियाँ अपना जिस्म केवल और केवल अपने पति को ही सौंपती हैं, यही तो कहा था उसने, पर यह तो ट्यूटर है।
सवालों के दबाव में बेबी का दिमाग हैंग होने लगा। उसके अपरिपक्व मन ने कहा - कुछ भी हो, बेडरूम के भीतर जो भी हो रहा है, गलत हो रहा है।

बेबी चुपचाप सोफे पर पसर गई। भावनाओं का उद्रेक होने की वजह से उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, आँेंखें मुँदी हुई थी। मुँदी हुई आँखों में भी वही दृश्य चल रहा था जिसे अभी-अभी उसने की-होल से देखा था। दृश्य बदला। इस दृश्य में अब दादी नहीं हैं। दादी की जगह खुद बेबी आ गई हैं।

कुछ देर बाद दरवाजा खुला। वे दोनों बाहर आये। सोफे पर बेबी को देखकर दोनों की चीखें निकलते-निकलते बची। ट्यूटर महोदय ने अपनी राह ली। दादी अपराधियों की तरह चुपचाप खड़ी रहीं। बेबी ने मुँह बिचकाया और ड्रेस चेंज करने अपने कमरे में चली गई। उनकी आँखों में घृणा के भाव साफ-साफ झलक रहे थे।

बेबी का मन अब यहाँ बैठने को नहीं कर रहा था। वह बाहर जाने लगी। दादी ने पूछा - ’’क्या हुआ?’’

’’मैंने सब देख लिया है। आप बहुत गंदी हो। आई हैट यू। मैं सविता आँटी से मिलने जा रही हूँ।’’ बेबी ने कहा और तेजी से बाहर चली गई।
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दादी के चेहरे का रंग उड़ चुका था। जिन्दादिली, और एजाइलनेस की जगह वहाँ अब केवल क्षोभ और चिंता की मोटी परतें ही नजर आ रही थी। चिंता यह कि जाकर बेबी सविता आँटी को जरूर सारी बातें बता देंगी और देखते ही देखते बात पूरी कालोनी में फैल जायेगी।

उनकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। इस अंधेरे में जो दृश्य उभर रहे थे वे बड़े भयावह थे। कालोनी की सारी औरतें जुटी हुई थी और उसके प्रति लानतें भेज रही थी; और सारे मर्द उसे भोगने की नीयत से ललचाई, कामुक नजरों से लगातार घूरे जा रहे थे।

इन हालातों का क्या वह सामना कर पायेंगी?

दादी के मन ने कहा - करना तो पड़ेगा।

दूसरी सुबह ट्यूटर के आने से पहले ही दादी ने बेबी से यह कहकर कि वह दस बजे के बाद ही लौट पायेंगी, बाहर चली गई।
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दस बजे से बहुत पहले ही ट्यूटर महोदय स्टडी रूम से निकल आये। बाहर हाल में सोफे पर दादी बैठी हुई दिखी। दोनों की निगाहें मिली। निगाहों-निगाहों में ही कुछ बातें हुई, फिर वह चला गया।

दादी ने स्टडी रूम में जाकर देखा। बेबी अर्धनग्न हालत में डरी-सहमी बेड पर बैठी हुई है। उसके अंतर्वस्त्र और बेड रक्त से सने हुए हैं। वह दादी से नजरें नहीं मिला पा रही है।

दादी कुछ देर तक बेबी के चेहरे को निहारती रही और फिर एकाएक उसके चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी।

बेबी का सहमा हुआ चेहरा भी अब खिल उठा। दादी से लिपटते हुए बेसाख्ता उसके मुँह से निकल पड़ा - ’’रियली, आप बहुत गंदी हो।’’
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2  फूलो

फगनू के घर में शादी का मंडप सजा हुआ है। कल बेटी की बरात आने वाली है।

फगनू उस खानदान का वारिश है जिन्हंे विरासत में मिला करती हैं सिर्फ और सिर्फ गरीबी, असमानता, अशिक्षा और अपमान। इनके शिक्षा, समानता, संपत्ति, सम्मान आदि सारे अधिकार छीन लिये गये हैं; सदियों पहले, छल से या बल से। जिस दुनिया में उसने आँखें खोली हैं, वह उसका नहीं है, यहाँ उसका कुछ भी नहीं है, सब कुछ मालिकों का है। मालिकों के उसके हम उम्र बच्चे जिस उम्र में पालने के नीचे पाँव भी नहीं धरते हैं, फगनू मालिकों की चाकरी करता था।

मालिक का चेहरा उसे फूटे आँख भी नहीं सुहाता है। अँखफुट्टा और हरामी खानदान के इस वारिश ने गाँव में किस बहू-बेटी की आबरू बचाई होगी? किस मर्द के सम्मान को न कुचला होगा? किस किसान की जमीन को न हड़पा होगा?

फगनू सोचता है - वाह रे किस्मत, हमारी माँ-बहनों की इज्जत लूटने वालांे की ही हमें चाकरी करनी पड़ती है, बंदगी करनी पड़ती है। अरे पथरा के भगवान, गरीब को तूने क्यों इतना लाचार बनाया होगा? फिर सोचता है, भगवान को दोष देना बेकार है। न भगवान का दोष है, और न ही किस्मत का; अपनी ही कमजोरी है, अपनी ही कायरता है। सब कुछ जानते हुए भी सहते हैं हम। क्यों सहते हैं हम? इज्जत बेच कर जीना भी कोई जीना है?

गाँव में और बहुत सारे फगनू हैं, क्या सभी ऐसा ही सोचते होंगे? सब मिलकर इसका विरोध नहीं कर सकते क्या? कोई आखिर कब तक सहे? फगनू सोचता है - और लोग सहें तो सहें, वह नहीं सहेगा।

फगनू ने मन ही मन निश्चय किया - इस गाँव में नहीं रहेगा अब वह। बिहाव भी नहीं करेगा; पहले इज्जत और सम्मान की बात सोचना होगा।

सोचना सरल है, करना कठिन। जहाज का पंछी आखिर जहाज में ही लौटकर आता है।

बाप का चेहरा उसे याद नहीं है। ले देकर नाबालिग बड़ी बहन का बिहाव निबटाकर माँ भी चल बसी। फगनू अब अकेला है; उसकी न तो अपनी कोई दुनिया है, और न ही दुनिया में उसका कोई अपना है। दुनिया तो बस मालिकों की है।

मालिक बड़े शिकारी होते हैं; छल-प्रपंच में माहिर, बिलकुल बेरहम और शातिर। उसके पास बड़े मजबूत जाल होते हैं; सरग-नरक, धरम-करम, पाप-पुण्य और दीन-इमान के रूप में। कैसे कोई इससे बचे? लाख चालाकी करके भी गरीब आखिर इसमें फंद ही जाता है। कहा गया है - पुरूष बली नहि होत है, समय होत बलवान।

गाँव की आबादी वाली जमीन में मालिक ने फगनू के लिये दो कमरों का एक कच्चा मकान बनवा दिया है। बसुंदरा को घर मिल गया, और क्या होना? सजातीय कन्या से फगनू का बिहाव भी करा दिया। फगनू को घरवाली मिल गई और मालिक को एक और बनिहार।
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एक दिन फगनू बाप भी बन गया। जचकी कराने वाली दाइयों ने फगनू से कहा - ’’अहा! कतिक सुंदर अकन नोनी आय हे रे फगनू बेटा, फकफक ले पंड़री हे; न दाई ल फबत हे, न ददा ल, फूल सरीख हे, आ देख ले।’’

बाप बिलवा, महतारी बिलई, बच्ची फकफक ले पंड़री, और क्या देखेगा फगनू? उठ कर चला गया। दाइयों ने सोचा होगा - टूरी होने के कारण फगनू को खुशी नहीं हुई होगी।

बच्ची बिलकुल फूल सरीखी है, नाम रख दिया गया फूलो।

इसी फूलो की कल बरात आने वाली है।
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दो खोली का घर; शादी का मंड़वा सड़क के एक किनारे को घेर कर सजाया गया है। जात-गोतियार और गाँव-पार वालों ने पता नहीं कहाँ-कहाँ से बाँस-बल्लियों का जुगाड़ करके बिहाव का मड़वा बनाया है। बौराए आम और चिरईजाम की हरी टहनियों से मड़वा को सजाया है। बैसाख की भरी दोपहरी में भी मड़वा के नीचे कितनी ठंडक है? इसी को तो कहते हैं, हरियर मड़वा।
मड़वा के बाजू में ही चूल बनाया गया है, बड़े-बड़े तीन चूल्हों में खाना पक रहा है। भात का अंधना सनसना रहा है। बड़ी सी कड़ाही में आलू-भटे की सब्जी खदबद-खदबद डबक रहा है। साग के मसालों की खुशबू से सारा घर महक रहा है। आज जाति-बिरादरी वालों का पंगत जो है।

आज ही तेलमाटी-चुलमाटी का नेग होना है। तेल चढ़ाने का नेग भी आज ही होना है। तेल उतारने का काम बरात आने से पहले निबटा लिया जायेगा।  बरात कल आने वाली है। माँ-बाप की दुलारी बेटी फूलो कल पराई हो जायेगी, मेहमान बन जायेगी।

सज्ञान बेटी कब तक महतारी-बाप के कोरा में समायेगी? माँ-बाप का कोरा एक न एक दिन छोटा पड़ ही जाता है। दो साल पहले से ही फूलो के लिये सगा आ रहे थे। सरकारी नियम-कानून नहीं होते तो फगनू अब तक नाना बन चुका होता। फिर बेटी का बिहाव करना कोई सरल काम है क्या? हाल कमाना, हाल खाना। लाख उदिम किया गया, बेटी की शादी के लिये चार पैसे जुड़ जाय, पर गरीब यदि बचायेगा तो खयेगा क्या?

घर मंे शादी का मड़वा सजा हुआ है और फगनू की अंटी में आज कोरी भर भी रूपया नहीं है।

बहन-भाँटो का फगनू को बड़ा सहारा है। सारी जिम्मेदारी इन्हीं दोनों ने उठा रखी है। ढेड़हिन-ढेड़हा भी यही दोनों हैं, फूफू-फूफा के रहते भला कोई दूसरा ढेड़हिन-ढेड़हा कैसे हो सकता है? बहन-भाँटो बिलकुल बनिहार नहीं हैं, पुरखों का छोड़ा हुआ दो एकड़ की खेती है; साल भर खाने लायक अनाज तो हो ही जाता है, फिर रोजी मजूरी तो करना ही है। फूफू ने भतीजी की शादी के लिये काफी तैयारियाँ की हुई है। भाई की माली हालत तो जानती ही है वह। झोला भर कर सुकसा भाजी, काठा भर लाखड़ी का दाल, पैली भर उड़द की दाल और पाँच काठा चाँउर लेकर आई है। बाकी सगे-संबंधियों ने भी इच्छा अनुसार मदद किया है फगनू की। पारा-मुहल्ला वालों ने भी मदद की है; आखिर गाँव में एक की बेटी सबकी बेटी जो होती है। गरीब की मदद गरीब न करे तो और कौन करेगा। फगनू को बड़ा हल्का लग रहा है।

मुहल्ले के कुछ लड़कों ने बजनहा पर्टी बनाया हैं, अभी-अभी  बाजा खरीदे हैं और बजाना सीख रहे हैं। कल ही की बात है, लड़के लोग खुद आकर कहने लगे - ’’जादा नइ लेन कका, पाँच सौ एक दे देबे; फूलों के बिहाव म बजा देबों।’’

फगनू ने हाथ जोड़ लिया। कहा - ’’काबर ठट्ठा मड़ाथो बेटा हो, इहाँ नून लेय बर पइसा नइ हे; तुँहर बर कहाँ ले लाहू?’’
बजनहा लड़के कहने लगे - ’’हमर रहत ले तंय फिकर झन कर कका, गाँव-घर के बात ए, बस एक ठन नरिहर बाजा के मान करे बर अउ एक ठन चोंगी हमर मन के मान करे बर दे देबे; सब निपट जाही।’’

इसी तरह से सबने फगनू की मदद की। सबकी मदद पाकर ही उसने इतना बड़ा यज्ञ रचाया है।

भगवान की भी इच्छा रही होगी, तभी तो मनमाफिक सजन मिला है। होने वाला दामाद तो सोलह आना है ही, समधी भी बड़ा समझदार है। रिश्ता एक ही बार में तय हो गया।

पंदरही पीछे की बात है, सांझ का समय था। कुझ देर पहले ही फगनू मजदूरी पर से लौटा था। समारू कका आ धमका; दूर से ही आवाज लगाया - ’’अरे! फगनू, हाबस का जी?’’

समारू कका की आवाज बखूबी पहचानता है फगनू, पर इस समय उसके आने पर वह अकचका गया। खाट की ओर ऊँगली से इशारा करते हुए कहा - ’’आ कका, बइठ। कते डहर ले आवत हस, कुछू बुता हे का?’’

समारू के पास बैठने का समय नहीं था। बिना किसी भूमिका के शुरू हो गया - ’’बइठना तो हे बेटा, फेर ये बता, तंय एसो बेटी ल हारबे का? सज्ञान तो होइच् गे हे, अब तो अठारा साल घला पूर गे होही। भोलापुर के सगा आय हंे; कहितेस ते लातेंव।’’

फगनू का आशंकित मन शांत हुआ। हृदय की धड़कनें संयत हुई, कहा - ’’ठंउका केहेस कका, पराया धन बेटी; एक न एक दिन तो हारनच् हे। तंय तो सियान आवस, सबके कारज ल सिधोथस, कइसनों कर के मोरो थिरबहा लगा देतेस बाप, तोर पाँव परत हँव।’’
समारू कका फगनू को अच्छी तरह जानता है। बिरादरी का मुखिया है वह। सज्ञान बेटी के बाप पर क्या गुजरता है, इसे भी वह अच्छी तरह जानता है। ढाढस बंधाते हुए कहा - ’’होइहैं वही जो राम रचि राखा। सब काम ह बनथे बइहा, तंय चाय-पानी के तियारी कर, फूलो ल घला साव-चेती कर दे; मंय सगा ल लावत हँव।’’

समारू कका अच्छी तरह जानता है - चाय-पानी की तैयारी में वक्त लगेगा। बेटी को भी तैयार होने में वक्त लगेगा। इसीलिये सगा को कुछ देर अपने घर बिलमाये रखा। तैयारी के लिये पर्याप्त समय देकर ही वह मेहमानों को लेकर फगनू के घर पहुँचा। इस बीच समय केैसे बीता, फगनू को पता ही न चला। उसे समारू कका की जल्दबाजी पर गुस्सा आया, सोचा - कितनी जल्दी पड़ी है कका को, तैयारी तो कर लेने दिया होता? पर मन को काबू में करते हुए उसने मेहमानों का खुशी-खुशी स्वागत किया।

हाथ-पैर धोने के लिये पानी दिया गया। आदर के साथ खाट पर बिठाया गया। चाय-पानी और चोंगी-माखुर के लिये पूछा गया।
वे दो थे। फगनू ने अंदाजा लगाया; साथ का लड़का ही होने वाला दामाद होगा, बुजुर्ग चाहे उसका बाप हो या कोई और। मौका देखकर फगनू ने ही बात आगे बढ़ाई। मेहमानों को लक्ष्य करते हुये उसने समारू कका से पूछा - ’’सगा मन ह कोन गाँव के कका?’’

जवाब देने में बुजुर्ग मेहमान ही आगे हो गया, कहा - ’हमन भोलापुर रहिथन सगा, मोर नाँव किरीत हे।’’ अपने बेटे की ओर  इशारा करके कहा - ’’ये बाबू ह मोर बेटा ए, राधे नाँव हे; सुने रेहेन, तुँहर घर बेटी हे, तब इही बेटा के बदला बेटी माँगे बर आय हंव।’’

फगनू अनपढ़ है तो क्या हुआ, बात के एक-एक आखर का मतलब निकाल लेता है, बोलने वाले की हैसियत को तौल लेता है। मेहमान की बात सुनकर समझ गया, सगा नेक है; वरना लड़की मांगने आने वालों की बात ही मत पूछो; कहेंगे, ’गाय-बछरू खोजे बर तो आय हन जी।’ इस तरह की बातें सुनकर फगनू का, एड़ी का रिस माथा में चढ़ जाता है। बेटी को पशु समझकर ऐसी बात करते हैं क्या ये लोग? इस तरह के दूषित भाव यदि पहले से ही इनके मन में है तो पराए घर की बेटी का क्या मान रख सकेंग येे? कितना दुलार दे सकेंगे ये लोग? पर यह सगा ऐसा नहीं है। कहता है, बेटा के बदला बेटी मांगने आए हैं। कितना सुंदर भाव है सगा के मन में। लड़का भी सुदर और तंदरूस्त दिख रहा है। ठुकराने लायक नहीं हैं यह रिश्ता। फगनू ने मन ही मन बेटी को हार दिया। रह गई बात लड़की और लड़के की इच्छा की; घर गोसानिन के राय की। यह जानना भी तो जरूरी है।

सबने हामी भरी और रिश्ता तय हो गया।

लड़के के बाप ने कहा - ’’जनम भर बर सजन जुड़े बर जावत हन जी सगा, हमर परिस्थिति के बारे म तो पूछबे नइ करेस, फेर बताना हमर फरज बनथे। हम तो बनिहार आवन भइ, बेटी ह आज बिहा के जाही अउ काली वोला बनी म जाय बर पड़ही, मन होही ते काली घर देखे बर आ जाहू।’’

फगनू भी बात करने में कम नहीं है। बात के बदला बात अउ भात के बदला भात, कहा - ’’बनिहार के घर म काला देखे बर जाबो जी सगा, हमूँ बनिहार, तहूँ बनिहार। चुमा लेय बर कोन दिन आहू , तउन ल बताव।’’

इसी तरह से बात बनी और कल फूलों की बारात आने वाली है। आज फूलो की तेल चढ़ाई का रस्म पूरा किया जयेगा। एक-एक करके नेंग निबटाये जा रहे हैं।
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शाम का वक्त है। घर में सभी ओर गहमा-गहमी का माहौल है। कोई नाच रहा है तो कोई गा रहा है। फगनू चिंता में डूबा हुआ कुछ सोंच रहा है। ठीक ही तो कहती है फूलो की माँ - ’’बेटी ल बिदा करबे त एक ठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे? एक ठन संदूक ल घला नइ लेबे? नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे? सोना-चाँदी ल हम बनिहार आदमी का ले सकबो, बजरहूच् ल ले दे। लइका ह काली ले रटन धरे हे।’’

पर क्या करे फगनू? अंटी में तो पैसा है नहीं। कल से जुगाड़ में लगा हुआ है। किस-किस के पास हाथ नहीं फैलाया होगा? सेठ लोग कहते हैं - ’’रहन के लिये कुछ लाए हो?’’

रहन में रखने के लिए क्या है उसके पास? वह मेहनती है, ईमानदार है, सच्चा है सद्चरित्र है। पंडे-पुजारी और ज्ञानी-ध्यानी लोग मनुष्य के अंदर जितनी अच्छी-अच्छी बातों की अनिवार्यता बताते हैं; वह सब हैं फगनू के पास। और यदि इन ज्ञानी-ध्यानियों की बातों का विश्वास किया जाय तो ईश्वर भी फगनू के ही पास है, क्योंकि भगवान सबसे अधिक गरीबों के ही निकट तो रहता है। इस दुनिया में फगनू के समान गरीब दूसरा कोई और होगा क्या? पर ये सब बेकार की चीजें हैं, इसके बदले में फगनू को पैसा नहीं मिल सकता। मंदिर का भगवान भले ही लाखों-करोड़ों का होता है, पर जो भगवान उसके निकट है, दुनिया में उसका कोई मोल नहीं है। उसे रहन में रखने के लिये कोई तैयार नहीं है। इससे फूलो की बिदाई के लिये सामान नहीं खरीदा जा सकता। फूलो के लिये कपड़े और गहने नहीं मिल सकते हैं इसके बदले में।

पंडे-पुजारी और ज्ञानी-ध्यानी लोग मनुष्य के अंदर जितनी अच्छी-अच्छी बातों की अनिवार्यता बताते हैं; मालिक के पास उनमें से कुछ भी नहीं है। भगवान भी उसके निकट नहीं रहता होगा, फिर भी उसके पास सब कुछ है। पैसा जो है उसके पास। वह कुछ भी खरीद सकता है।

फगनू ने जीवन में पहली बार अपनी दरिद्रता को, दरिद्रता की पीड़ा को, दरिद्रता की क्रूरता को उनके समस्त अवयवों के साथ,  अपने रोम-रोम के जरिये, दिल की गहराइयों के जरिये, अब तक उपयोग में न लाये गए दिमाग के कोरेपन के जरिये, मन के अनंत विस्तार के जरिये, और आत्मा की अतल गहराइयों के जरिये महसूस किया।

थक-हार कर, आत्मा को मार कर, न चाहते हुए भी वह मालिक के पास गया था। उनकी बातें सुनकर फगनू का खून खौल उठा था। जी में आया, साले निर्लज्ज और नीच के शरीर की बोटियाँ नोचकर कुत्तों और कौंओं को खिला देेना चाहिये। कहता है - ’’तुम्हारी मेहनत और ईमानदारी का मैं क्या करूँगा रे फगनू। मैं तो एक हाथ से देता हूँ और दूसरे हाथ से लेता हूँ। जिसके लिये तुझे पैसा चाहिये, जा उसी को भेज दे, सब इंतिजाम हो जायेगा, जा।’’

फूलो की माँ को उसने अपनी बेबसी बता दिया है और सख्त ताकीद भी कर दिया है कि अब किसी के सामने हाथ फैलाने की कोई जरूरत नहीं है। लड़की कल तक जो पहनते आई है, उसी में बिदा कर देना है। लड़की को दुख ज्यादा होगा, थोड़ा सा और रो लेगी, माँ-बाप को बद्दुआ दे लेगी। रही बात दुनिया की, उसकी तो आदत है हँसने की, करोड़ों रूपय खर्च करने वालों पर भी हँसती है वह। वह तो हँसेगी ही।

फूलो को तेल चढ़ाने का वक्त आ गया है। ढेड़हिन-सुवासिन सब हड़बड़ाए हुए हैं। सब फूलो और उसकी माँ पर झुँझलाए हुए हैं। फूफू कह रही है - ’’अइ! बड़ बिचित्र हे भई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।’’
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आज फूलो की बरात आने वाली है। फगनू बेसुध होकर नाच रहा है। मंद-महुवा का कभी बास न लेने वाला फगनू आज सुबह से ही लटलटा कर पिया हुआ है। फूलो का मासूम और सुंदर चेहरा रह-रह कर उसकी नजरों में झूम रहा है। चाँद-सा सुंदर चेहरा है, नाक में नथनी झूम रहा है, कान में झुमका और पैरों में पैरपट्टी पहनी हुई है। सरग की परी से भी सुंदर लग रही है फूलो।

फूलो के लिये खरीदा गया बड़ा सा वह संदूक भी उसकी नजरों से जाता नहीं है, जो नये कपड़ों, क्रीम-पावडरों और साबुन-शेम्पुओं से अटा पड़ा है।

अब सबको बरात की ही प्रतीक्षा है। सब खुश हैं। सबको अचरज भी हो रहा हैं, सुबह से फगनू के मंद पी-पी कर नाचने पर। कोई कह रहा है - ’’बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस, आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते?’’

जितने मुँह, उतनी बातें।

फगनू अब नाच नहीं रहा है, नाचते-नाचते वह लुड़क गया है। कौन क्या कर रहा है, कौन क्या बोल रहा है, उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है। उसके कानों में तो मालिक की बातें पिघले शीशे की तरह ढल रही हैं - ’’तुम्हारी मेहनत और ईमानदारी का मैं क्या करूँगा रे फगनू। मैं तो एक हाथ से देता हूँ और दूसरे हाथ से लेता हूँ। जिसके लिये तुझे पैसा चाहिये, जा उसी को भेज दे, सब इंतिजाम हो जायेगा, जा।’’

फगनू सोच रहा है, जीवन में पहली बार सोच रहा है - ताकत जरूरी है; शरीर की भी और मन की भी। बिना ताकत सब बेकार है। ताकत नहीं है इसीलिये तो उसके पास कुछ नहीं है।

और उसकी नजरों में वह कुल्हाड़ी उतर आया जिसकी धार को उसने दो दिन पहले ही चमकाया था। वह सोच रहा था - आज तक कितने निरीह और निष्पाप पेड़ की जड़ों कोें काटा है मैंने इससे। क्या इससे अपनी जहालत और दरित्रता की जड़ों को नहीं काट सकता था?
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3  सावन का अंधा

चाहे कुछ भी होे, कितना भी जरूरी काम निकल आए, प्रत्येक रविवार को वसु अपने दोस्तों से मिलने जरूर जाता है। उन मित्रों से, जिनका हृदय इतना विशाल और इतना उदार होता है कि सारी  दुनिया उसमें समा जाय और जो फिर भी न भरे; दुनिया के पवित्रतम वस्तुओं से भी पवित्र, जिनसे मिलता है सच्चा प्यार और निःश्छल व्यवहार। ऐसे मित्रों से मिलने भला किसका मन आतुर न होता होगा?

आदत अनुसार उन्होंने अपनी बाइक उस दुकान के पास रोक दी जहाँ से वह हमेशा अपने मित्रों के लिए उपहार खरीदा करता है। दुकानदार मानो वसु की ही प्रतीक्षा कर रहा हो, दूर से ही उन्होंने वसु का जोशीला अभिवादन किया। मुस्कुराते हुए कहा ’’अहा! वसु जी आइये-आइये; आपको देखते ही पता नहीं क्यों, मन में एक विशेष उत्साह का संचार हो जाता है। मैंने आपका सामान पहले ही निकाल कर रख दिया है। चेक कर लीजिये, फिर मैं पैक कर देता हूँ। वसु ने भी दुकानदार से उसी मुस्कुराहट और उसी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उन्होंने सामानों की ओर देखा। हिसाब लगाया, प्रफुल्ल और प्रतीक को जो चाॅकलेट पसंद है, वह है। श्वाति और शुभ्रा की भी पसंदीदा चाॅकलेट रखा गया है। श्वाति और शुभ्रा का खयाल आते ही उन दोनों का चेहरा वसु की आँखों में उतर आया। पिछली बार विदा लेते समय उन दोनों ते बड़े भोले पन से मनुहार किया था - ’’वसु अंकल, अगले रविवार को क्या आप चाॅकलेट के बदले हमारे लिये गुड़िया ला देंगे?’’

ऐसे मनुहार पर तो दुनिया भी न्योछावर  किया जा सकता है।

जब एक-एक पल की प्रतीक्षा पहाड़ के समान बोझिल और मन को तोड़ कर किसी दृढ विश्वासी व्यक्ति को भी निराशा के गर्त की ओर ढकेलने वाला होता है, पता नहीं प्रतीक्षा का एक सप्ताह उन बच्चियों ने कैसे बिताया होगा? सोच कर वसु का मन वेदना से भर गया। मन की वेदना को हृदय की स्वभावगत तरलता से नम करते हुए वसु ने कहा - ’’सेठ जी, दो बार्बी डाॅल भी रख दीजिये।’’

वसु ने सामानों को फिर चेक किया। बाकी बच्चों के लिए भी टाॅफियों का एक डिब्बा रखा हुआ है।
और रोहित के लिये?

रोहित सबसे अलग, सबसे ज्यादा मासूम और सबसे ज्यादा प्यारा बच्चा है। न तो कभी वह खिलौनों के लिए जिद्द करता है, और न मिठाइयों के लिए। उसे तो बस बाइक की सवारी चाहिये। वसु अंकल के पीछे बाइक पर बैठ कर परिसर का चक्कर लगाना उसका प्रिय शगल है।

रोहित सबसे अलग है इसलिये उसका गिफ्ट भी सबसे अलग होना चाहिये।

और आकाश?

सबसे छोटा, सबसे प्यारा और सबका प्यारा आकाश। बाकी बच्चे तो केवल देखने में ही अक्षम हैं, पर आकाश?

आकाश चाहे देख न सकता हो, बोल न सकता हो, चल फिर भी न सकता हो, पर समझता तो सब कुछ है न? आँ.... करके और अपनी नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियों को नचा-नचा कर अपनी बातें साफ-साफ कह तो सकता है न? वसु उसके इशारों को और उसके मन की एक-एक बात को अच्छी तरह से समझता है। वसु को संतोष हुआ, सामानों की इस छोटी सी ढेर में उसका भी पसंदीदा सामान है।

वसु ने अपनी जेब को टटोल कर देखा; वह लिफाफा भी सही सलामत मौजूद है, जिसमें उसने रोहित के लिये प्यारी सी एक कविता लिख कर रखा हुआ है। हाँ, रोहित के लिये, उसके जन्म दिन की बधाई की कविता, ब्रेल लिपि में।
वसु ने इत्मिनान की साँस ली।

सामानों को पैक करते हुए दुकानदार ने पूछा - ’’आज जल्दी जा रहे हैं आप?’’
वसु - ’’हाँ, मैं चाहता हूँ कि आज वहाँ होने वाले फंक्शन से पहले ही मैं अपने मित्रों से मिल आऊँ।’’
’’फंक्शन?’’
’’हाँ, आपको पता नहीं , शुलभा जी का आज वहाँ सम्मान हो रहा है?’’

’’अच्छा, शहर क्लब का चेयर परसन, नगर सेठ की पत्नी, जिसे हाल ही में समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, वही शुलभा जी न?’’

हाँ वही, अँधों में काना राजा। जिनके पति जिले भर के शराब ठेकों का मालिक है; और अनाथ, निःशक्त बच्चों की इस संस्था को, और इस तरह की अन्य संस्थाओं को भी, हमेशा लाखों रूपयों का दान दिया करता है। इसी से शायद कहावत बनी होगी; गऊ मार कर जूता दान।’’

’’क्यों क्या हुआ? शुलभा जी तो बराबर उन निशक्त बच्चों के बीच जाती रहती हैं। अखबारों में भी तो खूब छपता है।’’

’’सेवा करने के लिये नहीं भाई साहब, केवल फोटो खिंचवाने के लिये; जिन्हें अखबारों में छपवाकर वाहवाही लूटी जा सके, और जिसकी एवज में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया जा सके। आप क्या समछते हैं, वह उन बच्चों से प्यार करती है?’’
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जितनी अधीरता बच्चों से मिलने के लिये वसु के मन में रहता है, उससे कहीं ज्यादा अधीरता बच्चों के मन रहता है, वसु से मिलने के लिये। यद्यपि सारे बच्चे नेत्रहीन हैं, पर वसु की उपस्थिति को पता नहीं वे कैसे भांप जाते हैं? इस रहस्य को वसु अब तक नहीं समझ सका है। विचारों में इसी गुत्थी को सुलझााने का प्रयास करता हुआ वह असक्त विद्यालय की ओर जाने वाले मार्ग पर अपनी बाइक सरपट भगाए जा रहा है।

वसु सोच रहा था; यह दुनिया, जो इन बच्चों को और इन जैसे लोगों को असक्त, अपाहिज या विकलांग कहकर इनका तिरस्कार करती है, उपहास उड़ाती है, और दया की दृष्टि से देखती है, वह कितनी स्वस्थ है? क्या मिलता है इन बच्चों को इस दुनिया और इस समाज से, अपमान और घृणा के सिवाय? ईष्र्या, द्वेष, छल-प्रपंच, और दूसरों को हीन समझने वाली दुनिया के पास जो कुछ भी होता है; चाहे ममता, करूणा और प्रेम ही क्यों न हो, सब कुछ दिखावे के लिये ही तो होता है। दुनिया अगर इनके प्रति सेवा-भाव, ममता करूणा और प्रेम दिखाती भी है तो केवल अपना स्वार्थ साधने के लिये ही तो। और आखिर शुलभा भी तो इसी समाज का अंग है; इसी दुनिया में रहती है और खुद को स्वस्थ-संपूर्णांग समझती हैं।

सोचते-सोचते वसु के मन में स्वार्थ और यश-लोलुपता के आवरण में छिपा शुलभा देवी का चित्र और चरित्र, दोनों उभर आया।
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लगभग छः महीने पहले की घटना है; अगस्त का महीना था, संस्था में पौधारोपण का कार्यक्रम रखा गया था। कार्यक्रम का चीफ गेस्ट नगर की सुप्रसिद्ध समाज सेविका और शहर क्लब की चेयर परसन शुलभा जी थी। सप्ताह भर पहले से ही कार्यक्रम  का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। क्यों न हो, शुलभा जी के साथ नगर क्लब की तमाम पदाधिकारी, उनकी सहेलियाँ भी तो आ रहीं थी।

पौधारोपण का कार्यक्रम प्रातः दस बजे तय किया गया था। शुलभा जी की कृपा से एक दिन पहले ही रोपणी के पौधे आ चुके थे, और उन्हें रोपने के लिये संस्था परिसर में गड्ढे भी खोदे जा चुके थे। नहीं आई थी तों बस शुलभा जी और उसकी फौज।
बेहद प्रतीक्षा के बाद शुलभा जी का काफिला आया। प्राचार्य  महोदय की सक्रियता देखते ही बनती थी। शुलभा जी की अहम कोें जरा भी स्पर्श करने का मतलब स्थानांतरण से लेकर निलंबन तक कुछ भी हो सकता था।

आते ही शुलभा जी ने प्राचार्य से दो टूक शब्दों में कह दिया था कि उनके पास समय नहीं है और किसी भी हालत में, दस मिनट में सारा काम निबट जाना चाहिये।

शुलभा जी की रूप-सज्जा, सुंदरता और रूतबा देखते ही बनता था। मंहगे परिधान और कीमती आभूषण से उनकी अमीरी सब पर भारी पड़ रहा था, पर साथ मे आई बाकी महिलाएँ भी किसी से कम नहीं थी। दुर्भाग्य यह था कि स्टाफ के कुछ सदस्यों के अलावा इस नजारे को देखने वाला वहाँ और कोई नहीं था। बच्चे यहाँ के देख नहीं सकते थे; वे देख सकते थे तो बस अपने मन की आँखों से, मन की सुंदरता को। महसूस कर सकते थे तो अपने हृदय की उदाŸा भावनाओं से हृदय की उदाŸा भावनाओं को और छू सकते थे तो बस अपनी आत्मा की पवित्रता से आत्मा की पवित्रता को।

शुलभा जी के पास ऐसा कुछ भी नहीं था।

तैयारियाँ चाक-चैबंद थी। रोपण हेतु खोदे गए प्रत्येक गड्ढे के पास रोपणी का पौधा लिये एक-एक छात्र तैयार खड़ा था। अतिथियों के नाम की पट्टिका युक्त ट्रीगार्ड भी गड्ढों तक पहुँचा दिये गए थे। रोपण के पश्चात् जल सिंचन हेतु हजारा लिए दूसरा व्यक्ति तैयार खड़ा था। हाथ धुलवाने के लिये मंहगे साबुन की टिकिया ट्रे में सजा कर फिर दूसरा व्यक्ति, तथा हाथ पोंछने के लिये भी स्वच्छ तौलिये का ट्रे लिये एक अन्य व्यक्ति तैयार खड़ा था।

शुलभा जी ने देखा, रोपण हेतु खोदे गए गड्ढों के आसपास रात में हुई बारिश के कारण कीचड़ हो गए हैं। कीचड़ देख कर उसकी नाक में सिलवटे पड़ गई। उचित जगह की तलाश करते हुए उनकी निगाहें कार्यालय के मेन गेट के पास की सूखी, पथरीली जमीन पर जाकर टिक गई। इससे अच्छी जगह उसे भला और कहाँ मिलती?

मुख्य अतिथि का इरादा भाँप कर प्राचार्य महोदय ने अपने कर्मचारियों को इशारा किया कि आॅफिस के गेट के पास पौधारोपण की तैयारी किया जाय। एक शिक्षक ने प्राचार्य के कान में कहा - ’’सर, वहाँ की जमीन तो पथरीली है और ऊपर रेत भी है।’’

प्राचार्य ने उसे बुरी तरह झिड़क कर चुप करा दिया।

आसपास की रेत की रेत को इकत्रित करके शुलभा जी को पौधरोपण कराया गया। पानी भी सींचा गया। हाथ हटाते ही पौधा एक ओर लुड़क गया।

 शुलभा जी के रेत सने गंदे हाथ धुलवाए गये।

इस बीच शुलभा जी का कैमरामैन हर एक क्षण को बड़ी तन्मयता के साथ अपने कैमरे में कैद कर रहा था।

अगला कार्यक्रम था बच्चों से मिलने का। शुलभा जी ने बच्चों की ओर देखा, और इसी के साथ इन विकलांग बच्चांे के प्रति उसके मन का छद्म प्यार उसके चेहरे पर उतर आया।

शुलभा जी ने सोचा होगा - ये दृष्टिहीन बच्चे उसके इस भाव को थोड़े ही देख सकेंगे; पर उसे क्या पता, बच्चे उसके चेहरे को पहले ही पढ़ चुके थे।

बच्चे बहुत ही शालीन और अनुशासित ढंग से कतार में खड़े थे। अपने व्हील चेयर पर आकाश भी इस कतार में शामिल था। बच्चे अनुशासन का पालन करते हुए खड़े जरूर थे पर उनके चेहरों की भाव शून्यता अपनी कहानी स्वयं कह रहे थे। बच्चों के चेहरो पर विŸाृष्णा के भाव स्पष्ट दियााई दे रहे थे।

शुलभा जी बड़े प्यार से बच्चों से मिल रही थी। किसी के साथ हाथ मिला रही थी, किसी के सिर पर हाथ फेर रही थी तो किसी को गले लगा रही थी। उसका कैमरा मैन इन क्षणों को बड़ी तन्मयता के साथ अपने आधुनिक डिजिटल कैमरे में कैद कर रहा था।

उनका यह सारा प्रेम कैमरे के आन रहते तक ही था। कैमरा बंद होते ही उनकी असलियत एक बार फिर उसके चेहरे पर तैरने लगी। अपने हाथों को वह ऐसे झटक रही थी मानो भूलवश उन्होंने किसी गंदी वस्तु को छू लिया हो। हाथ धुलाने वाला पास ही खड़ा था, उन्होंने पहल की; तभी शुलभा जी के सहायक ने उसके कानों में कुछ कहा। नाक-भौंह सिकोड़ते हुए शुलभा जी ने आकाश की ओर देखा, उसके चेहरे पर घृणा की अनेकों गहरी रेखाएँ उभर आई; पर काम जरूरी था, करना ही होगा।
आकाश को गोद में लेकर फोटो खिंचवाना निहायत जरूरी था।

चेहरे पर फिर ममता का मुखौटा लगाकर शुलभा जी ने आकाश को गोद में लेने का प्रयास किया। आकाश ने पूरे मनोयोग से, चिल्लाकर अपनी असहमति जताई।

फोटो खिंच जाने के बाद शुलभा जी के मन की घृणा और क्रोध एक साथ फूट पड़ा। आकाश को उसके व्हील चेयर पर लगभग फेंकते हुए वह हाथ धोने के लिये आगे बढ़ गई।

यह सब देख वसु का हृदय क्रोध से उबल पड़ा। मन में आया कि मन और हृदय, दोनों से ही विकलांग इस महिला को तुरंत परिसर से बाहर जाने का रास्ता दिखा देना चाहिये; पर उसके अधिकार में कुछ न था।

वसु इस संस्था का नियमित कर्मचारी नहीं है, परंतु इन बच्चोें से लगाव होने के कारण उन्होंने ब्रेल लिपि सीखी, संकेत की भाषा सीखी। वह इन बच्चों की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता है। संस्था के प्राचार्य ने वसु के इस मानवीय कर्तव्य के निर्वहन को सराहते हुए बच्चों से मिलने की उसे अनुमति दे रखी है। शुलभा जी से तकरार मोल लेकर वह अपने लिए इस परिसर का गेट हमेशा के लिए बंद नहीं करवाना चाहता था।

वसु ने शुलभा जी की तरह न तो कभी फोटो खिंचवाया और न ही प्राचार्य से किसी प्रकार का प्रशस्ति पत्र ही मांगा। उसे तो बस इन बच्चों से मिलना और उनके साथ खुशियाँ बाटना ही अच्छा लगता है।
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आज फिर वही सब कुछ होने वाला था। वह इस फंक्शन में किसी भी हालत में आना नहीं चाहता था। बच्चों की जिद्द और रोहित का जन्म दिन नहीं होता तो वह कदापि न आता। पर इसके लिए भी उसने रास्ता खोज लिया था; फंक्शन के पहले ही वह इन बच्चों से मिल कर लौट आयेगा।

वसु ने कई बार सोचा कि अचानक पहुँच कर हच्चों को सरपराइज किया जाय, पर अब तक वह सफल नहीं हो पाया है।
पहले उन्होंने सोचा था, बच्चे शायद आवाज से उन्हें पहचान जाते होंगे। पर नहीं, सरपराइज देने के लिये वह कई बार बिना कोई आवाज किये भी उनके बीच जाकर देख चुका है। पल भर देर से ही सही, वे पहचान जाते हैं। शायद बालों में लगाए गये तेल की गंध से पहचान जाते हों? उन्होेंने बिना तेल के और तेल बदल कर भी इस शंका का निवारण कर लिया है। फिर उन्होंने सोचा, शायद बाइक की दूर से आती आवाज से वे पहचान लेते होंगे। हाथ कंगन को अरसी क्या? आज इसकी भी जाँच कर लिया जाय।

वसु ने बहुत पहले ही अपनी बाइक छोड़ दी। पैदल चल कर उसने संस्था में प्रवेश किया। फंक्शन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था। रोहित सभा स्थल से दूर, हाथ में वाकिंग स्टिक लिये सबसे अलग, सबसे दूर खड़ा हुआ था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। दबे पाँव आकर वसु उससे कुछ दूरी पर खड़ा हो गया और उसके चेहरे पर उभर रहे भावों को पढ़ने का प्रयास करने लगा। क्षण भर बाद ही रोहित के चेहरे पर राहत और खुशी के मिलेजुले भाव तैरने लगे। उन्होंने पुकारा - ’’वसु अंकल?’

वसु अभी और परीक्षा लेना चाहता था, कुछ न बोला।

अब रोहित तेज कदमों से चलता हुआ आकर वसु से लिपट गया। कहा - ’’अंकल, आप बोलते क्यों नहीं, नराज हैं?’’

’’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू ।’’

अब तो बाकी दोस्त भी रोहित के पास आ गये और मिलकर ’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू’; गीत गाने लगे।

वसु ने कहा - ’’माय डियर, नाराजगी नहीं, सरपराइज, अंडरस्टैण्ड?’’

रोहित की खुशियों का ठिकाना न रहा।

वसु ने जन्म दिन की कविता रोहित के हाथ में रख दिया। पढ़कर रोहित पुनः वसु से लिपट गया। सभी मित्रों ने भी वह कविता पढ़ी -

’’मित्र! तुम सबसे अच्छे हो
हाँ मित्र!
इस दुनिया की सबसे अच्छी वस्तु से भी,
और तुम सबसे सुंदर भी हो
इस दुनिया की तमाम सुंदर वस्तुओं से भी।

मित्र!
तुम्हारा मन, सबसे अधिक उजला है
चाँद-तारों से भी अधिक,
और तुम्हारा हृदय -
बहुत गहरा और बहुत विशाल है
समुद्र और आसमान से भी अधिक
क्योंकि -
ईश्वर ने अपने ही हाथों,
पवित्र मन से, और -
सृजन के पवित्रतम पलों में तुम्हें बनाया है।

मित्र!
दुनिया की हर कठिनाई को
तुम जीत सकते हो,
क्योंकि -
शिकायतों और शर्तों से भरी इस दुनिया को
बिना शिकायत तुमने अपनाया है,
दुनिया में तुमने केवल मित्र बनाया है।’’
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बधाई पत्र पढ़कर बच्चे फिर चहक उठे।

बिदा होने का समय आ गया। पता नहीं कि रोहित को क्या सूझा। उसने पूछ लिया - ’’अंकल, सावन का अँधा क्या होता है?’’

वसु के मन में आया, कह दे कि शुलभा जैसे लोग ही सावन के अँधे होते हैं; पर उसका मन राजी न हुआ। निष्कपट बच्चों के मन में दुर्भावना का बीज बोना उचित नहीं था। उन्होंने कहा - ’’बच्चों, गलत चीजों को देख कर भी जो नहीं देखता, वही सावन का अँधा होता है।’’

वसु के विदा होते ही सावन के अँधों का काफिला पहुँच गया।
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4  मेमोरी कार्ड

यह कहानी उच्चवर्गीय अति संभ्रांत लोगों की एक कालोनी से संबंधित है, जिसे अत्याधुनिक ढंग से शहर की परिधि में सुरम्य और प्रदूषण रहित वातावरण में बसाया गया है। आधुनिक जीवन की हर  सुख-सुविधा और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रख कर विकसित किया गया यह कालोनी आधुनिक वास्तुशास्त्र का अनुपम उदाहरण है। सममित आकृति के होने के कारण यहाँ की सड़कंे, स्ट्रीट्स, बंगले और फ्लैट्स केवल नंबरो के द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं। इन बंगलांे और फ्लैट्स में रहने वाले साहब लोग भी अमूमन इन्हीं नंबरो से ही जाने-पहचाने जाते हैं - जैसे अमेरिका और भारत में हुए आतंकी हमलों को हम नाइन इलेवन और छब्बीस ग्यारह के नाम से जानते हैं।

विज्ञान की नवीनतम तकनिकी युक्त सुख-सुविधाओं और आधुनिक जीवन-शैली जीने वालों की पहचान अलग तो होनी ही चहिये।
यहाँ की दुनिया आम लोगों की दुनिया से दूर बसी हुई एक अलग ही दुनिया है। जरूरी काम से बुलाये गये कारीगरों और कामगारों के सिवाय यहाँ कोई भी आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता।

इस कालोनी के वेस्ट विंग के नाइन इलेवन बंगले में किसी साहब का परिवार रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी के अलावा एक पुत्री है जो अभी स्कूल में पढ़ रही है, नाम है श्रुति। नाइन इलेवन दंपति अर्थात श्रुति के माॅम एण्ड डैड, अलग-अलग मल्टी नेशनल कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं और सप्ताह के पूरे दिन अपने-अपने काम में व्यस्त रहते हैं। अपनी व्यस्तता में से कभी-कभी थोडा़ बहुत समय वे पुत्री के लिये भी निकाल लेते हैं, पूछ लेते हैं कि पढ़ाई कैसे चल रही है, किसी चीज की कमी तो नहीं है? आदि, आदि ....।

श्रुति इस तरह के औपचारिक वार्तालापों का अभ्यस्त हो चुकी है और यह औपचारिकता अब उसके अनुभव की सहजता भी बन गई है। श्रुति के माॅम-डैड श्रुति की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं। श्रुति को माँ-बाप से वे सभी सुख सुविधाएँ बिन मांगे मिलती हैं, जो उन्हें चाहिये; पर वह प्यार, वह परवरिश और वह देखभाल कभी नहीं मिली, जो जवान होती किसी किशोरी के लिये बहुत जरूरी होती है।  कभी-कभी माँ-बाप जब अनौपचारिक होने का प्रयास करते हैं, श्रुति असहज हो जाती है और तब माँ-बाप का यह अनौपचारिक रूप उसे बिलकुल किसी अजनबी के समान लगने लगता है।

इसके विपरीत जे. डी. साहब के परिवार से उनका रिश्ता अधिक अनौपचारिक हो गया है। जे. डी. साहब की पत्नी, जो हाउस-वाइफ है, से वह काफी घुली-मिली है और उसके घर उनका रोज आना-जाना लगा रहता है। श्रुति के माॅम-डैड इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं, और इसमें शायद उनकी मौन सहमति भी है, क्योकि जे.डी. दंपति श्रुति का होमवर्क करने में मदद जो करती है। 
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जे. डी. साहब का परिवार इसी स्ट्रीट पर, नाइन इलेवन के एकदम अपोजिट साइड पर, बंगला नंबर छब्बीस अपाॅन ग्यारह में रहती हैै। जे.डी. साहब विज्ञान के अध्यापक हंै। परिवार में पत्नी के अलावा जवान होता हुआ एक पुत्र है। माँ-बाप अपने इस इकलौते पुत्र को हर कीमत पर आई. ए. एस. में देखना चाहते हैं। पिछले लगभग एक साल से वह इसी का कोचिंग लेने बाहर गया हुआ है और इसी वजह से जे.डी. साहब को एक बार फिर नव विवाहित दंपति की तरह का सुख भोगने का मौका मिला हुआ है। आधी उम्र में भी जे. डी. साहब जवान ही लगते हैं। अभी दो दिनों के लिये पत्नी मायके गई हुई है और पत्नी बिछोह के गम में जे. डी. साहब पागल हुए जा रहे हैं।

आज रविवार है, पता नहीं दिन कैसे बीतेगा? वह कंप्यूटर में व्यस्त होने का प्रयास कर रहा है, पर उद्देश्य कुछ भी नहीं है। एकाकीपन और मन की व्यग्रता ने उसे और अधिक उद्देश्यहीन बना दिया है।

जे. डी. साहब को अपने उस मेमोरी कार्ड का ध्यान हो आया जिसमें मनोरंजन की बहुत सारी सामग्रियाँ रिकार्ड करके रखी गई है पर बदकिस्मती ही कहिये, हर संभावित जगह पऱ़, पिछले आधे घंटे से लगातार तलाश जारी है, और फिर भी वह मिल नहीं रहा है।

कंप्यूटर के स्क्रीन सेवर पर इस समय बहुत ही सुंदर और बहुत ही मासूम एक किशोरी का चित्र बार-बार उभर रहा है। यह श्रुति की तस्वीर है जिसे श्रुति ने ही सवयं कुछ दिन पहले लोड किया था।

उस दिन जे. डी. साहब ड्यूटी के लिये निकल ही रहे थे कि आती हुई श्रुति से गेट पर मुलाकात हो गई। देखकर जे. डी. साहब ठिठक गये। श्रुति ने नया ड्रेस पहना हुआ था, सफेद रंग का, बिलकुल परियों वाला, और इस ड्रेस में वह परियों की ही तरह गजब की सुंदर दिख भी रही थी। जे. डी. साहब की जबान से अनायास ही निकल पडा़ - ’’ओह! श्रुति मेडम? आज तो आप बिलकुल राज कपूर की हिरोइन लग रही हो। काश, वे जिंदा होते।’’

जे.डी. साहब का यह कमेंट बिलकुल ही अनायास और निष्प्रयोजन था; शायद इसीलिये वह श्रुति की प्रतिक्रिया देखे बगैर ही अपने काम पर तेजी से निकल गया। देखे होते तो पता चलता कि हृदय का सारा रक्त श्रुति के चेहरे पर किस तरह एकाएक दौड़ने लगा है और अनायास ही वे सब भाव भी आ गये हैं, जो एक योद्धा के चेहरे पर आ जाता है, दुश्मन को परास्त करने के बाद; उत्साह और गर्व के। क्यों न हो; पहली बार उसने किसी मर्द को अपनी ओर आकर्षित जो किया था; या यह कि पहली बार किसी मर्द से अपनी सुंदरता की तारीफ जो सुनी थी, या फिर यह कि पहली बार उसके हुस्न ने किसी मर्द को परास्त जो किया था?

श्रुति का वही चेहरा और चेहरे पर वही, विजेताओं वाला भाव आज कंप्यूटर माॅनिटर के स्क्रीन सेवर पर देख कर जे. डी. साहब चमत्कृत हुए जा रहे हैं। श्रुति के इस शरारत पर उन्हें प्यार भी आ रहा है।

कमरे की हवा में अलग ही परफ्यूम की महक से जे.डी. साहब को लगा, शायद कोई आया हो? पलट कर दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे की चैखट पर श्रुति खड़ी हुई थी; जिसे देख कर वह एकबारगी झेप-सा गया, मानो चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो। पता नही ये लड़की कब से यहाँ खड़ी है? सीने पर दोनों हाथों से किसी किताब को दबाये; ठीक उस दिन वाले सफेद ड्रेस में, जिस दिन उन्होंने उसे राजकपूर की हिरोइन कहा था, और जिसमें वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी, और अपनी जिस छवि को उन्होंने कंप्यूटर पर लोड कर रखा है, जो अभी भी कंप्यूटर माॅनिटर के स्क्रीन पर आ रहा है।
जे.डी. साहब से कुछ कहते नहीं बना। पर उनकी निगाहें पूछ रही थी - ’’कैसे?’’

जवाब में श्रुति ने भी कुछ नहीं कहा, पर निगाहों ने ही, निगाहों से शायद पूछ लिया था - ’’क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’’ और इजाजत की प्रतीक्षा में वह निगाहें झुकाकर दाएँ पैर की अंगूठे की नाखून से फर्स को कुरेंदने लगी।
जे.डी. साहब को श्रुति के चेहरे पर आज किसी किशोरी की मासूमियत नजर नहीं आ रहा था, बल्कि वहाँ उसे किसी नव-यौवना की उमड़ती हुई जवानी दिख रही थी; बिलकुल अषाड़ की उस नदी की तरह की जवानी, जो बाढ़ से उमड़ रही हो, उफन रही हो, और जो किसी भी मर्यादा को मानने से इन्कार कर रही हो।

जे.डी. साहब इस स्थिति के लिये तैयार नहीं थे, और शायद इसी कारण वे एकदम असहज हो गये थे; पर दूसरे ही पल उन्होंने अपने आप को किसी तरह संयत करते हुए कहा - ’’श्रुति मैम, तुम्हें पता है, तुम्हारी आंटी आज घर पर नहीं है?’’
जे.डी. साहब की इस सूचना का;  जिसका आशय शायद यह भी था कि आज वह लौट जाय और तब आये जब आंटी घर पर मौजूद हो; श्रुति के चेहरे पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपनी जगह पर वह उसी दृढ़ भाव से खड़ी रही। उनकी दृढ़ता शायद कह रही थी - ’’हाँ! मुझे पता है कि घर पर आज दिन भर आप अकेले हैं।’’ और लौटने के बजाय यह कहते हुए कि - ’’अंकल प्लीज! जरूरी होम वकर््स हैं, करा दीजिये न ... ’’आकर जे.डी. साहब के बगल में बैठ गई, जो अब तक कंप्यूटर टेबल से उठ कर सोफे पर बैठ चुके थे।

श्रुति की निगाहें अपलक जे.डी. साहब के चेहरे पर जमी हुई थी ऐसी निगाहें जिसके अंदर वासना की वह भयंकर आग सुलग रही थी जिसे भभकने के लिये बस एक चिंगारी की जरूरत थी; और इसीलिये उसे श्रुति की इस ढिठाई पर आश्चर्य भी नहीं हुआ। जे.डी. साहब नहीं चाहते थे कि कहीं से कोई चिंगारी फूटे और वासना की वह आग भड़क उठे, जिसकी लपटों से नैतिकता और मर्यादा के सारे बंधन जल कर खाक हो जाते हैं।

जे.डी. साहब ने समझाते हुए कहा - ’’बेबी! तुम्हें पता है? शास्त्रों में लिखा है कि रिश्तों की पवित्रता और मर्यादाओं की रक्षा के लिये जवान स्त्री और जवान पुरूष को एकांत से हमेशा बचना चाहिये, चाहे रिश्ता बाप-बेटी का हो, माँ-बेटे का हो या भाई-बहन का हो। एकांत में रिश्तों की सारी पवित्रता और मर्यादाओं के सारे बंधन टूटने लगते हैं और तब मर्द सिर्फ मर्द रह जाता है और औरत सिर्फ औरत, विपरीत आवेश से आवेशित किसी भौतिक वस्तु की तरह, जिसे मिलने से फिर कोई नहीं रोक सकता। इसीलिये कहता हॅँू कि अभी तुम चली जाओ।’’ 

श्रुति न तो कुछ सुन रही थी और न ही कुछ सुनना चाहती थी। कटे वृक्ष की तरह वह जे.डी. साहब की गोद में लुड़क गई। वह होश में नहीं थी।

जे.डी. साहब ने फिर कहा - ’’बेबी! जानती हो, जो हो रहा है वह न तो नैतिकता की दृष्टि से सही है और न ही कानून की दृष्टि से, इसीलिये कहता हूँ, गो टु योर रियल ड्वेल, घर चली जाओ।’’

जवाब में वह जे.डी. साहब से और लिपटती चली गई, बस लिपटती ही चली गई।

अब वह जी खोलकर, रह रह कर, अपने कौमार्य का धन जे.डी. साहब पर न्यौछावर किये जा रही थी, और अब जिसे जे.डी. साहब भी दिल खोलकर अपने दोनांे हाथों से लूटे जा रहे थे, बस लूटे जा रहे थे। अपनी चढ़ती जवानी की उद्दाम वासना की तेज लपटों सेे रह- रह कर वह जे.डी. साहब को झुलसाए जा रही थी और जे.डी. साहब भी जिसे अपने अनुभवी पुरूषत्व की शक्तिशाली झोकों से लगातार भड़काये भी जा रहा था और बुझाये भी जा रहा था, बस बुझाये जा रहा था।
और धीरे-धीरे वह क्षण भी आया जब आग पूरी तरह से बुझ गया, और फिर न तो वहाँ कोई लपट ही बची और न ही कोई धुआँ ही।
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कमरे को व्यवस्थित करके और खुद भी व्यवस्थित होकर जब श्रुति बाथरूम से बाहर आई तो उसके सौम्य चेहरे पर संतुष्टि की अथाह गहराई झलक रही थी, जिसमें सिर्फ सुख की छोटी-छोटी असंख्य लहरें ही हिलोरें मार रही थी।

जे.डी. साहब अभी भी इस बात पर कायम थे कि जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। अपराध बोध से वह दबे जा रहा था। उन्होंने कहा - ’’साॅरी श्रुति मेम, तुम्हारे साथ अच्छा नहीं हुआ।’’

जवाब में श्रुति मुस्कुराई, उसके कदमों पर झुकी, पैरों की धूल माथे पर लगाई और चली गई। जाते-जाते जैसे कह रही हो - ’’आप नहीं जानते अंकल, आपने मुझे कितनी बड़ी खुशी दी है। ऐसी खुशी, जिसे भूल पाना मेरे लिए जीवन भर संभव नहीं है।’’
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जी.टी. साहब भी सरकारी मुलाजिम है और जे.डी. साहब के घनिष्ठ मित्र हैं। वे बाहर रहते हैं और इस समय मित्र से मिलने आये हुए हैं। शाम होने को है, और दोनों मित्र बिलकुल ही अनौपचारिक ढंग से हँसी-मजाक में व्यस्त हैं।

कल ही की बात है, जी.टी. साहब किसीं काम से बाहर गये हुए थे, और ट्रेन से लौट रहे थे। डिब्बा शहर के किसी पब्लिक स्कूल की छा़त्राओं से भरा हुआ था, जो शायद एजुकेशनल ट्रिप से लौट रही थी। सामने वाली सीट पर निहायत ही खूबसूरत एक छात्रा बैठी हुई थी जो अपनी हम उम्र सहेलियों से कुछ बड़ी और मैच्योर लग रही थी। जाहिर है, अपने दल की वह नेता थी और सारी सहेलियाँ उनका आदेश मान रही थी। इस समय वह सहेलियांे से घिरी हुई थी। उस सुंदर लड़की के हाथ में सुंदर सा एक मोबाइल था और सभी लड़कियाँ उसमें चल रहे किसी रिकार्डिंग को देखने में व्यस्त थी।

दूर दूसरे सीट पर बैठी टीचर को इन छात्राओं की यह अनुशासन हीनता बर्दास्त नहीं हो रहा था और वहीं से वह कई बार इन लड़कियों को डाट चुकी थी। उसे इन लड़कियों की हरकतों पर रह-रह कर गुस्सा आ रहा था। आदेश का पालन नहीं होता देखकर अंततः वह तमतमाये हुए आ धमकी। डाटते हुए उन्होंने कहा - ’’क्या है? क्यों भीड़ लगाये हो? मोबाइल में क्या देख रही हो? लाओ इधर।’’

टीचर ने सभी लड़कियों की तलाशी ली लेकिन मोबाइल किसी के पास नहीं था। थक-हार कर वह अपने सीट पर लौट गई।
उस लड़की ने बड़ी चतुराई से टीचर की निगाहें बचा कर सीट के नीचे से मोबाइल उठाया, तब जिसे टीचर की निगाहों से बचाने के लिये बड़ी सफाई से उसने वहाँ सरका दिया था, मेमोरी कार्ड निकाला और छोटे से एक लिफाफे में उसे रख लिया। स्टेशन नजदीक आ रहा था और उन लोगों को शायद यहीं उतरना था।

उतरते वक्त वह लिफाफा सीट पर ही छूट रहा था।

जी.टी. साहब को लड़कियों की तमाम शरारतें बड़ी प्यारी और मासूम लग रही थी, और पूरे समय वह मन ही मन मुस्कुराये भी जा रहा था। उस छोटे से लिफाफे को सीट पर छूटता देख जी.टी. साहब ने कहा - ’’बेबी, लिफाफा छोड़े जा रही हो?’’

और उतनी ही लापरवाही पूर्वक उस लड़की का जवाब भी मिला - ’’अंकल! आप रख लीजिये न।’’

और तेजी से उतर कर वह आँखों से ओझल हो गई।

जी.टी. साहब ने उस लिफाफे को खोलकर देखा। उसमें एक मेमोरी कार्ड रखा हुआ था। उसे समझते देर नहीं लगी कि यह वही मेमोरी कार्ड है, जिसमंे रिकार्डेड प्रोग्राम का आनंद मोबाइल के स्क्रीन पर कुछ देर पहले वह लड़की अपने सहेलियों के साथ ले रही थी; और जिसे वह बड़ी चतुराई के साथ, भूलने का अभिनय करते हुए, जानबूझ कर इस लिफाफे के साथ छोड़ गई थी।

घर आकर जी.टी. साहब ने उस मेमोरी कार्ड में कैद फिल्मों का जी भर कर आनंद लिया और अब उसी आनंद को मित्र के साथ शेयर करने के लिये यहाँ आया हुआ है।

जी. टी. साहब से ट्रेन वाली इस यात्रा वृŸाांत को सुनने के बाद जे.डी. साहब ने कंप्यूटर आॅन करके वह मेमोरी कार्ड चला दिया। खुलते ही उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। यह वही मेमोरी कार्ड था जिसे आज सुबह से ढ़ूढ-ढ़ूढ़ कर वह परेशान हुए जा रहा था, और जिसमें केवल वयस्कों की फिल्में लोड थी।

कंप्यूटर से कार्ड रीडर को अलग करते हुए और नकली गुस्से का इजहार करते हुए उन्होंने जी. टी को डाट लगाई - ’’वाह बेटा, अब तूने चोरी करना भी शुरू कर दिया है ...।’’

आश्चर्यचकित होने की बारी अब जी.टी. की थी। कंप्यूटर माॅनीटर के स्क्रीन सेवर की ओर इशारा करते हुए उसने पूछा - ’’अबे! ये लड़की यहाँ कैसे? कौन है यह?’’

’’क्यों?’’

’’यही तो है, कल की टेªन वाली वह लड़की। कल इसी ने तो यह कार्ड ट्रेन में छोड़ा था।’’
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5: घट का चैंका कर उजियारा

हिन्दू पंचाग के अनुसार वह कार्तिक का महीना था, और उजले पाख की चैदहवीं तिथि थी। चैदह दिन पहले ही दीवाली मनाई गई थी। नंदगहिन काकी के घर उत्सव का माहौल था। आमंत्रित  रिश्तेदार, भाई-भतीजे, जान-पहचान वाले, सुख-दुख में साथ देने वाले, सभी जुटे हुए थे। बेटी-दामाद, नाती-नतनिनें सभी आए हुए थे। सुबह सात बजे ही घर की छानी पर पोंगा रख दिए गये थे। पोंगा बजाने वाले से काकी ने साफ-साफ कह दिया था कि भजन के अलावा और किसी प्रकार का गाना नहीं बजाना है।

घर के नाम पर मिट्टी की दीवारों से बने, सामने की ओर बरामदे में खुलने वाले दो कमरे हैं। घर में जब कोई मांगलिक काम संपन्न होना हो तो घर की साफ-सफाई लिपाई-पुताई तो जरूरी होता है। दीवारों को अभी, दीवाली के समय, सफेद छुई मिट्टी से पोता गया था, पीली छुई मिट्टी से खुंटियाया गया था। चमक अभी भी कायम है; फिर भी नेग के लिये पीली छुई मिट्टी से खुंटियाने का रस्म निभाया गया है। कच्चे फर्स को गोबर से लीपा गया है।

घर के सामने बहुत बड़ी खाली जगह है जिसे गोबर से लीप कर चिकनाया गया है। काफी बड़ा शामियाना लगाया गया है। एक कोने में रसोई बन रहा है। दार-चाँउर, नून-तेल, लकड़ी-फाटा आदि, की जिम्मेदारी सुकवारो काकी ने ले रखा है। सुकवारो काकी और नंदगहिन काकी की मिताई गाँव में प्रसिद्ध है। दोनों हम-उम्र हैं, एक ही साल गौना होकर आई हैं इस गाँव में। दोनों के ही सुहाग कम उम्र में उजड़ गए थे।

बेटी और दामाद, दोनों, मेहमानों और आमंत्रितों के स्वागत सत्कार मेें जुटे हुए हैं। सब काम ठीक-ठाक निबट रहा है, फिर भी नंदगहिन काकी को बड़ी चिंता है, कहीं जग हँसाई न हो; बार-बार कबीर साहेब से दुआ मांग रही है - ’हे साहेब! मोर लाज ह अब तोरेच् हाथ म हे। सहित रहिबे।’

इसी साल, अषाड़ की बात है। एक दिन सांझ के समय नंदगहिन काकी खेत से लौटी, और आते ही खाट पर पसर गई। सोई तो उठ नहीं पाई। बदन दर्द से टूट रहा था, और तवे के समान तप भी रहा था। घर भर का कंबल-कथरी ओढ़ कर भी वह लदलद-लदलद कांप रही थी। घर में और कोई होता तो कुछ करता। सुकवारो का ध्यान आया, दो घर छोड़कर उनका घर है; पर वहाँ तक भी जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। अपने अनुभव से उसने समझ लिया था कि यह मलेरिया का प्रकोप है।
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अंदर, रसोई में बहू रात का भोजन बनाने में व्यस्त थी। पोते को गोद में लेकर सुकवारो काकी आंगन में टहल रही थी। मन बेचैन हुआ जा रहा था; आखिर नंदगहिन को आज क्या हुआ, अब तक नहीं आई? जिंदगी में कभी, कोई ऐसा दिन बीता है, जब इस समय वह मिलने न आती हो? सोचते हुए वह बाहर, गली में निकल आई। निगाहें गली के उस ओर मुड़ गई जिधर नंदगहिन का घर पड़ता है। गली के दोनों ओर कतार में घर बने हुए हैं। सबके घर की छानी में से सफेद-नीले रंग के घुँए की लकीरें निकल कर ऊपर उठ रही थी। रात का भोजन बनाने का समय जो था; पर नंदगहिन के घर की छानी से बिलकुल भी धुँआ नहीं उठ रहा था। सुकवारो की चिंता और बढ़ गई। उसे मन में कुछ अनहोनी की आशंका होने लगी और उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई। महिलाओं का दिल वैसे ही कोमल और कमजोर हुआ करता है, परिस्थितियों की मार ने सुकवारो के दिल को और भी कमजोर कर दिया है। धड़कते दिल के साथ तेज कदमों से उसने नंदगहिन के घर की राह ली।
दरवाजे पर पहुँते ही उसने आवाज लगाई - ’नंदगहिन गोई?’

दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, और हाथ के हल्के दबाव से ही खुल गया। घबराई हुई सुकवारों ’नंदगहिन गोई’ की आवाज लगाते हुए घर के अंदर तक आ गई, जहाँ पर नंदगहिन की खाट पड़ी होती है। चादर-कथरियों में लिपटी सोई और बुरी तरह काँपती-कराहती नंदगहिन को देखकर सुकवारो की घिघ्घी बंध गई। दिल की धड़कने और तेज हो गई। आँखें डबडबा गईं। गालों पर बह आए आँसुओं को आँचल के कोर से पोंछते हुए उसने कहा - ’’तोला का हो गे मोर बहिनी? कइसे लागत हे? काबर सुते हस?’’

तेज बुखार की हालत में भी नंदगहिन सचेत थी, पैरों की आहट से सुकवारों के आगमन को भांप लिया था, कहा - ’’कुछू नइ होय हे मंडलिन, मलेरिया बुखार कस लागत हे। घंटा दू घंटा म उतर जाही।’’

पर सुकवारो कहाँ मानने वाली थी। तुरंत डाॅक्टर बुलाने के लए उसने अपने किसन बेटा को भेज दिया। एक अकेली बेचारी नंदगहिन, बेटी है जो अपने ससुराल में रहती है, यहाँ कौन हे नंदगहिन का उसके सिवाय?

गाँव के झोला झाप डाॅक्टर का इलाज शुरू हुआ। सप्ताह भर तक दोनों समय इंजेक्शन लगाए गये। टाॅनिक दी गई, गोलियाँ खिलाई गई, पर बुखार नहीं गया। गाँव के बैगा-गुनिया लोगों से झाड़-फंूक भी कराया गया, नंदगहिन फिर भी ठीक नहीं हुई। खबर पाकर बेटी-दामाद दोनों दूसरे दिन सुबह ही आ गये थे और सेवा-जतन में जी-जान से जुटे गए थे। अब तो इन्हें भी चिंता होने लगी थी। बीमारी बढ़ती ही जा रही थी। गाँव के झोला छाप डाॅक्टर ने जवाब दे दिया।

गाँव की नर्स बाई और सुकवारो काकी कब से जिद्द कर रही थी कि इसे तुरंत राजनांदगाँव के बड़े अस्पताल में भरती कर देना चाहिये, पर कोई मानता न था। आखिर उन्हीं की सलाह काम आई।
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बड़े सरकारी अस्पताल में दो दिन तक खून, पेशाब और कई तरह के जांच किए गये। तीसरे दिन सिस्टरों ने बताया कि मलेरिया का असर दिमाग तक पहुँच गया है। पीलिया और टाॅयफाइड अलग है। तुरंत खून चढ़ाना पड़ेगा, फिर भी अब केवल ऊपर वाले का ही सहारा है।

पंद्रह दिन तक नंदगहिन अस्पताल में भर्ती रही।

आधुनिक चिकित्सा और ऊपर वाले की ही कृपा थी कि नंदगहिन बच गई। और अब तो वह टंच भी हो गई है। जन्म से ही चुलबुली और हँसमुख स्वभाव की नंदगहिन, पाँव घर में कब थिराते हैं? पुराना रेवा-टेवा फिर शुरू हो गया। बीच-बीच में आकर दामाद बराबर खोज-खबर लेता रहता है। बेटी बराबर आती-जाती रहती है, चिंता हुई कि बदपरहेजी में और कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाय? एक दिन उन्होंने कहा -  ’’दाई, अब तोर गŸार खंगत आ गे हे। चल हमर संग। संग म रहिबे। इहां घर के सिवा अउ का रखे हे?’’

नंदगहिन निरक्षर है तो क्या हुआ, स्वाभिमानी है, दीन-धरम का उसे खयाल है, सामाजिक रीति-रिवाजों और मान-मयार्दा की सीमाओं को भी वह अच्छी तरह पहचानती है; कहा - ’’तुंहला खाली घर भर नजर आथे मोर बेटी-बेटा हो। बने कहिथव। घर म का रखे हे। आज हे, काली नइ रहही। फेर ये गांव म मोर सुख-दुख के बंटइया मोर संगी जहंुरिया हें। सबर दिन के संगवारी खेत-खार, नंदिया-तरिया, रुख-राई, धरसा-पैडगरी हें। मोर खरतरिहा के आत्मा हे। पुरखा मन के नाव-निसानी हे। इही अंगना म मोर डोला उतरे रिहिस। अब इहिंचेच ले मोर अरथी घला उठही। बेटी-बेटा हो, अपन घर, अपन देहरी, अपन गांव, अपन देस, अपनेच होथे ग। कइसे ये सब ल छोड़ के तुंहर संग चल देहूं? अउ फेर सुकवारो बहिनी के राहत ले इहां मंय ह अकेला नइ हंव। तुहंर अतकेच मया ह मोर बर गजब हे।’’

माँ की भावनाओं को समझते हुए बेटी ने कहा - ’’दाई, तंय बने कहिथस। फेर एक बात अउ हे। तंय बीमार रेहेस अस्पताल म भरती रेहेस, बांचे के कोनों आस नइ रिहिस तब मंय ह कबीर साहेब ल बदना बद परे रेहेंव कि ’हे साहेब, मोर दाई ल एक घांव बचा दे, तुंहर चांैका आरती कराहूँ।’ साहेब ह मोर बिनती ल सुन लिस। अब वचन ल पूरा करे बर परही।’’
भावविभोर होते हुए नंदगहिन काकी ने कहा - ’’तुंहर सेवा अउ साहेब के किरपा ले मंय नवा जनम धरे हंव बेटी। जउन बदना बदे हस, वोला पूरा करे म देरी झन कर। केहे गे हे कि काल करे सो आज कर।’’
इस तरह कार्तिक शुदी चैदस के दिन चैका आरती का होना तय हुआ था। और नियत तिथि के अनुसार आज नंदगहिन काकी के घर इसी की तैयारियाँ चल रही है।
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दस बजते-बजते महंत साहेब अपने दीवान साहेब और आधा दर्जन चेले-चपाटियों के साथ पहुँच गए। साहेब को स्वच्छ और सुंदर आसन पर बिठया गया। महंत साहब का चरण पखारने के पश्चात् पूरे परिवार सहित नंदगहिन काकी ने चरणामृत पान किया। आरती उतारा गया।

महंत रामा साहेब के नाम को इस इलाके में कौन कबीर-पंथी होगा जिसने नहीं सुना होगा? महंत रामा साहेब बहुत बड़े साधक हैं, बड़े ज्ञानी और तत्वदर्शी हैं, बीजक के एक-एक अक्षर की बड़ी विशद् व्याख्या करते हैं। जाने-माने प्रवचनकार हैं, पर वे उतने ही बड़े कर्मकाण्डी और नेम-धरम मानने वाले भी हैं। जिसके गले में तुलसी का कंठी न बंधा हो, उसके हाथ से वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते। नल और बोरिंग के पानी को हाथ भी नहीं लगाते; मोटर-पंपों में चमड़े, रबर या प्लास्टिक का वायसर जो लगा होता है। केवल नारियल के रेशे की रस्सी और धातु की बाल्टी से खींचा गया कुँए का पानी ही पीते है; प्लास्टिक की रस्सी-बाल्टी से खींचा हुआ नहीं।   

दामाद को पहले ही ताकीद किया जा चुका है, पूरी व्यवस्था इसी के अनुरूप की गई है।

साथ में आये हुए सारे चेले-चपाटी खंजेरी बजा-बजाकर निर्गुनिया भजन गाने में मस्त हैं। दीवान साहब चैंका पोतने में लगे हुए हैं। दामाद ने दी गई सूची के अनुसार, बाजार से खरीद कर लाया गया, चैके में काम आने वाला सारा समान बड़े से एक झोले में पहले ही दीवान साहब को सौंप दिया है। सील का नया बहरी, पान, सुपारी, नारियल, खारिक-बादाम सहित सभी प्रकार के मेवे, कपड़े, कपास, तेल, घी, आटा, गुड़, शक्कर सब है। थाली, लोटा, कोपरा, आम और केले की पत्तियाँ जैसे कई सामान अब भी जुटाए जाने हैं, इस काम में दामाद स्वयं लगा हुआ है; पता नहीं कब, किस सामान की जरूरत पड़ जाय?

कम पड़ने वाले सामानों के लिये दीवान साहेब जब तब आवाज लगाते ही रहते हैं। अब की बार तेल मंगाया गया था। कांच की बड़ी सी, सुंदर सी चैकोर शीशी में तेल लेकर नंदगहिन काकी स्वयं हाजिर हो गई। रख कर लौटने ही वाली थी तभी महंत साहब की वाणी सुनकर वह ठिठक गई।

बड़े कोमल और शांत भाव से महंत साहब पूछ रहे थे - ’’क्या लेकर आई हो माई?’’

’’तेल ताय साहेब।’’

’’किसमें लाई हो?’’

’’सीसी म तो लाय हंव साहेब।’’

’’किस चीज की शीशी है?’’

’’कांच के ताय साहेब, रस्ता म परे रिहिस हे। बने दिखिस त बीन के ले आय रेहेंव। चार साल हो गे हे। मंय अपढ़, का जानंव, का के होही?’’

घुड़कते हुए महंत साहब ने कहा - ’’माई! तुम केवल अपढ़ ही नहीं हो, मूर्ख और अज्ञानी भी हो। खुद का धरम तो नाश कर ही रही हो, गुरू को भी धर्मभ्रष्ट करने पर तुली हुई हो। दारू की बोतल में तेल देती हो?’’

दारू की बात सुनकर और गुरु को क्रोधित देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। हिम्मत जुटा कर बोली - ’’बने कहिथव साहेब। हम मूरख, अज्ञानी; दारू मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन साहेब। आप मन गुरू हव, ज्ञानी-धियानी हव, तउन पाय के जानथव।’’

यद्यपि नंदगहिन काकी ने ये बातें बड़ी सहजता, सरलता और विनीत भाव से कही थी, परंतु महंत साहब को चुभ गई। उनका शरीर क्रोध से कांपने लगा। कहा - ’’अरी पापन! एक तो पाप करती है, ऊपर से व्यंग्य वचन कह कर गुरू का अपमान करती है।’’

’’दारू ह नसा करथे कहिथें साहेब। चार साल हो गे, ये सीसी के तेल ल खावत, गोड़-हाथ म चुपरत। हमला तो आज ले नसा नइ होइस। तुंहला तो देखिच के नसा हो गे तइसे लागथे?’’

नंदगहिन काकी का जवाब सुन कर महंत साहब से कुछ कहते नहीं बना, परंतु क्षोभ और अपमान के आवेग में वह उठ खड़ा हुआ। शरीर क्रोध से जला जा रहा था।

गुरू का यह विकराल रूप देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। वह सोच रही थी, ’हे भगवान! पता नहीं किस जनम में कौन सा पाप मैंने किया था कि भरी जवानी में पति को खोया, सारी जिंदगी दुख भोगा। यह लोक तो मेरा बिगड़ा ही हुआ है, और अब गुरू को नाराज करके अपना परलोक भी बिगाड़ लिया।’ उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। उसे अपनी दुनिया में, लोक और परलोक में, केवल अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगा। उसने सोचा, अब तो गुरू की शरण में जाने में ही भलाई है। गुरू के पांवों में गिर कर बिलखते हुए उसने कहा - ’’हे गुरू, मंय जनम भर के पापिन, तुंहर अपमान करके मंय तो अउ पाप म बूड़ गेंव। मोर तो चारों खूंट ह, चारों जग ह अंधियारेच अंधियार हो गे। पाप ल छिमा करो साहेब।’’

महंत साहब का क्रोध अब शांत हो चुका था। काकी के सहज, निष्पाप और निश्छल व्यवहार ने, उसके इस आत्म-समर्पण ने उनके शुष्क हृदय को भावों की तरलता से भर दिया था। उनकी आँखें नम हो गई थी। कहा - ’’माई! उठो। तुम पापन नहीं हो। पाप तो मेरे अंदर भरा हुआ था। पाप के अंधकार में तो मैं ही डूबा हुआ था। कबीर साहब ने कहा है - ’अहंकार अभिमान विडारा, घट का चैंका कर उजियारा।’ तुम्हारा घर और तुम्हारा घट तो उजियारे से जगमगा रहा है। अहंकार का अंधियारा तो मेरे अंदर छाया हुआ था जिसे तुमने दूर कर दिया। तेरी देहरी में आकर तो मेरे सारे पाप ही धुल गए। तुम्हारे रूप में तो आज मैंने साक्षात गुरू को ही पा लिया है।’’
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6: गंध, खुशबू और बदबू

प्रातः के लगभग दस बजे थे। सड़कों पर सामान्य जिंदगी दौड़ने लगी थी। हाइवे के एक चैराहे पर मैं किसी की प्रतीक्षा में खड़ा था। पास ही चाय-भजिया की एक गुमटी थी। गुमटी का मालिक स्वयं चाय बनाने, भजिया तलने और साथ ही ग्राहकों को सर्व करने में व्यस्त था। यह उसके धंधे का समय था। एक महिला जो साफ-सुथरा कपड़े पहनी हुई थी और इतनी तो जरूर आकर्षक लग रही थी कि ग्राहकों का ध्यान पहली नजर में ही आकर्षित कर ले, एक कोने में उकड़ू बैठ कर मिर्च और प्याज काटने में तल्लीन थी। वह अपने काम में हद दर्जे तक निपुण लग रही थी। उनका पूरा ध्यान ग्राहकों पर था कि किसको क्या चाहिये, किससे कितना पैसा लेना है और यह भी कि कोई बिना पैसे दिए खिसक तो नहीं रहा है। प्याज की तीखी गंध की वजह से नाक के रास्ते बह कर आने वाले आँसू को वह बार-बार सुड़क भी रही थी। दस-ग्यारह साल की एक लड़की, जो अपेक्षाकृत छोटी साइज की मैली-सी फ्राक पहनी हुई थी, संभवतः जो किसी रईसजादी की उतरन हो, और इतनी तंग थी कि इस उम्र में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों को छिपा रखने में बिलकुल ही असमर्थ लग रही थी, जूठी प्लेटें और गिलास उठाने तथा धोने में व्यस्त थी। गुमटी के पीछे से शहर भर की गंदगी को समेट कर ढोने वाली नाली बह रही थी जिसके किनारे-किनारे कई तरह की और भी गुमटियाँ बनी हुई थी।

वह शहर की परिधि से लगा हुआ इलाका था।

हाइवे पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों के इंजनों से निकलने वाली इंधन के धुएँ की गंध, होटल की कड़ाही में जलते हुए तेल और मसालों की खुशबू तथा नाले में बह रहे गंदे पानी से उठने वाली बदबू के भभोके, तीनों के सम्मिश्रण से एक अजीब तरह का दमघोंटू वातावरण बन रहा था। धूल का गुबार अलग से आँखों में जलन पैदा कर रहा था। वैसे यहांँ हर किसी की आँखें किसी न किसी वजह से जल रही होती है और दिल गुंगवा रहा होता है।

हमें न तो धूल दिखता है और न ही धुआँ। गंध, खुशबू और बदबू में फर्क करना तो हम कब का भूल चुके हैं। हमारी घ्राणेन्द्रियाँ बड़ी घटिया किस्म की होती जा रही हैं। हम बड़े साधारण लोग जो ठहरे। लेकिन हमारे एक प्रोफेसर मित्र हैं। उन्हें सब कुछ दिखता है। उनकी घ्राणेन्द्रि और अन्य इन्द्रियाँ एकदम उच्च गुणवत्ता वाली हैं। वे अंतर्दृष्टि, दिव्यदृष्टि और दूरदृष्टि संपन्न सिद्ध पुरूष हैं। अपनी इन्हीं दृष्टियों के बल पर वे वर्तमान, भूत और भविष्य सब ओर ताक-झांक कर लेते हैं। पड़ोसी और पर-पड़ोसी ही नहीं पूरे मुहल्ले की खबर रखते हैं। लोग इन्हें ’अधजले जी’ के नाम से जानते हैं।

अधजले जी की बड़ी विचित्र माया है। उनकी डाॅक्टर बनने की बड़ी इच्छा थी। डाॅ. टंगियानी, एम.बी.बी.एस.; एम.डी.; डी.सी.एच.; एस.एस.पी.डब्ल्यू उनके आदर्श थे। डाॅ. टंगियानी जी की इस लंबी-चैड़ी डिग्री में डी.सी.एच. तक की उपाधि तो सबके समझ में आती थी परंतु आगे की उपलब्धि एस.एस.पी.डब्ल्यू किसी की समझ में न आती थी। उनके डाॅ. मित्रों के लिए भी यह एक रहस्यमय उपाधि थी। इस उपाधि के संभवतः वे शहर ही नहीं, दुनिया भर में अकेले धारक होंगे और इसी के बल पर आज उनके पास क्या नहीं है?

विद्यार्थी जीवन में हमारे अधजले जी बड़े मेघावी थे। उनकी वह मेधा आज भी बरकरार है और इसी के बल पर वे एक दिन एस.एस.पी.डब्ल्यू. का रहस्य हल करने में कामयाब भी हो गए। तुरंत वे डाॅ. टंगियानी जी के क्लीनिक गए और चुपके से उनके कान में यह रहस्य उगल आए। सुनकर डाॅ. टंगियानी की टांगों की हालत, जो पहले अकड़ी-अकड़ी रहती थी, पतली होने लगी और वे अधजले जी के मुरीद हो गए।

फिर तो अधजले जी के मुँह में जब भी एस.एस.पी.डब्ल्यू की उबकाई आती, वे तुरंत डाॅ. अंगियानी जी के कानों में इसे उलट आते हैं।

बहुत मान-मनौवल और पूजा आरती के बाद एक दिन इस चेतावनी के साथ कि इस रहस्य को अन्यंत्र प्रकट करने का अंजाम बहुत ही बुरा होगा, उन्होंने मुझे एस.एस.पी.डब्ल्यू. का अर्थ बताया, ’सीधा स्वर्ग पहुंचाने वाला’।

अधजले जी का असली नाम लोग भूल चुके हैं। उसके इस निकनेम के अस्तित्व में आने की भी बड़ी दुखद कहानी है। बकौल उनके, पी.एम.टी. की परीक्षा में उनकी मेधा की, आरक्षण के गोबर दास ने हत्या कर दी और वहीं दफना कर कब्र के ऊपर लीपा-पोती भी कर दी। जितने भी ऐसे-वैसे थे सब डाॅक्टर बन गए। इसी विरह में हमारे ये साहब दिन-रात अपनी आँखें और दिल जला-जला कर अधजले जी हो गए हैं। कबीर दास ने यह पद जैसे इनके लिए ही लिखी हो -’’ मैं बिरही ऐसे जली कि कोयला भई न राख।’’

अधजले जी भी अपनी सनक के पक्के हैं। किसी भी हालत में डाॅक्टर बनना उनकी सनक है, अतः अब वे डाॅक्टर बनने के अहिंसक रास्ते अर्थात् साहित्य के रास्ते पर चल पड़े हैं। दिन-रात वे शोध कार्य में जुटे रहते हैं। उनके शोध का विषय है - ’’कवि प्रवर धुंधुआये जी के भविष्यकालीन काव्य में, धूप, धूल और धुएँ का भूत, भविष्य और वर्तमान के गंध, खुशबू और बदबू के साथ अंतर्संम्बंधों का मानव सभ्यता के उत्थान-पतन में योगदान: एक अनुशीलन।’’

स्नातकांत्तर के बाद अधजले जी दस वर्ष अपने गुंगुवाते हुए दिल की जलन को कम करने में खर्च कर डाले। दस वर्ष यह तय करने में बिता दिए कि उनके शोध के स्तर का साहित्यकार कौन हो सकता है। फिर दस वर्ष यह तय करने में लगा दिए कि उनके शोध का शीर्षक क्या हो ? डाॅ. टंगियानी जी की उपाधि से उन्हें अपने शोध का शीर्षक चयन करने में बड़ी सहायता और प्रेरणा मिली। अब वे विगत दस वर्षों से दिन-रात अपने शोध कार्य में डूब-उतरा रहे हैं। जब से मैं उनके संपर्क में आया हूं , मुझे भी डाॅक्टर बनने का कीड़ा काटने लगा है। अधजले जी मेरे लिये भी किसी विश्व कवि का चयन करने में लगे हुए हैं जिनके व्यंिक्तत्व और कृतित्व पर मुझे शोध करना होगा।

शोध जैसे जनहितकारी कार्य पर चिंतन करने के लिए हाइवे के इस चैराहे का वातावरण अधजले जी को खूब भाता है। वे रोज सुबह-शाम इसी गुमटी के पास हाइवे पर बने रपटे की जगत पर चाय की चुस्कियाँ लेते घंटों बैठे रहते हैं।
मैं उनका शागिर्द जो ठहरा। मुझे अधजले जी की ही प्रतीक्षा थी।

मेरे खाली दिमाग में अधजले जी के व्यंिक्तत्व व कृतित्व के क्रांतिकारी विचारों की धमाचैकड़ी मची हुई थी, तभी किसी के   संबोधन से मेरा ध्यान टूटा। पच्चीस-तीस साल का एक आदमी, जिसे युवक कहने में मुझे आत्मग्लानि हो रही थी, सामने खड़ा था और कुछ अस्पष्ट से शब्द मेरी ओर उछाल रहा था। मेरा अनुमान सही था, वह मुझे ही संबोधित कर रहा था। पता नहीं, आत्मिक शक्तिक्षीणता या शारीरिक कमजोरी के कारण, उनकी आवाज होठों तक आते-आते कहींे गुम हो जा रही थी। शायद आत्महीनता से। मुझे लगा कि उनके अंदर की यह आत्महीनता उन लोगों को देख-देख कर पैदा हुई होगी जिनके पास करने को कुछ काम चाहे न हों पर होटलों-ढाबों और बाजारों की सजी-धजी दुकानों में खर्च करने के लिए ढेर सारे पैसे होते हैं।
इस देश में शायद भूख से उतने लोग नहीं मरते जितनी आत्महीनता से मरते हैं। हर आम आदमी किसी न किसी हीनता का शिकार है। स्वाभिमान का मुखौटा लगाकर यह और भी खतरनाक हो जाता है। यही हीनताजन्य-स्वाभिमान यहाँ के आम लोगों की राष्ट्रीय बीमारी है। नेताओं और धर्माचार्यों द्वारा परोसी जा रही भाषण, आश्वासन और प्रवचन रूपी साग-भाजी खा-खा कर सारा देश आत्महीनता के दलदल में धँसता चला जा रहा है। हमारी महान सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक परंपरा इसी आत्महीनता के बोझ से दब कर छटपटाये जा रही है।

यहाँ आम व्यक्ति चाहे आत्महीनता से मरे या आत्मग्लानि से,  अधिकारियों, व्यापारियों और नेताओं को यह रोग कभी नहीं व्यापता।

मैंने उस व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक देखा। वह भी छटपटाता नजर आया। आत्महीनता के बोझ से दब कर झुका हुआ उसका सिर  मुझे देश का सिर लग रहा था। भ्रष्ट्राचार के दमघोंटू वातावरण में जैसे उसका दम घुटा जा रहा था। उसके शरीर की  हड्डियाँ उभरी हुई और पेट पिचका हुआ था। देश का भाग्य निर्माता सड़कांे पर भूखा मारा-मारा फिर रहा था। उसके इस हुलिये ने मुझे डरा दिया। डरा हुआ आदमी साहसी होने का दिखावा करता है। मैंने भी साहस बटोरकर उसे झिड़का - ’’क्या बात है?’’

अपनी आत्महीनता को पछाड़ते हुए उसने दो टूक कहा - ’’चाय पीना है, एक रूपिया चाहिए।’’

उनकी बेबाकी और बेबसी पर मुझे रोना आया। पर उसकी ईमानदारी का मैं कायल हो गया। चाय यहाँ एक रूपय में ही बिकती है। एकबारगी इच्छा हुई, दहाड़ें मार कर रोऊँ। पर किस बात पर? देश की युवा-पीढ़ी की अकर्मण्यता पर, देश की शिक्षा प्रणाली पर, सरकार की नीतियों पर या बढ़ती हुई भूखमरी और बेकारी पर।
   
फिर विचार आया, यहाँ पर लोग केवल मगरमच्छी आँसू बहाते हैं। दहाड़ें मार कर रोना हमारे राष्ट्रीय चरित्र के विरूद्ध है। क्यों न इसी मुद्दे पर सामने वाले को बढ़िया सा एक भाषण पिला दूँ। कहूँ - ’’चाय पियो, न पियो; पहले यह भाषण ही पी लो। पचपन साल से भाषण पी-पी कर पेट भरने वाले विचित्र प्राणी, चाय पीने की बात तुझे आज सूझी? इतनी हिम्मत तुझमें कहाँ से आई? आँख, कान, नाक सभी सलामत है, देश में फैल रही धूल, धुएँ और बदबू के प्रदूषण को सूंघ-सूंघ कर आत्मसंतुष्टि पाने वाले मूरख, अपनी महान परंपरा का निर्वाह क्यों नहीं करता? वादों, नारों और आश्वासनों की खुराक पर जिंदा रहने वाले, अब इससे पेट न भरता हो तो हाथ पैर तुम्हारे सलामत है, काम क्यों नहीं करता ? मांगते हुए शर्म नहीं आती? कबीर दास ने क्या कहा है, सुना नही; ’मांगन मरन एक समाना’। मांगना है तो सरकार से मांग। रोटी मांग, कपड़ा मांग, मकान मांग, काम मांग, पद मांग, कुर्सी मांग, विधान सभा और संसद मांग। अरे कुछ तो मांग। मांगने से न मिले तो छीन कर हासिल कर’’ आदि,आदि.......।

मुझे पक्का विश्वास था कि मेरे भाषण शुरू करते ही वह चुपचाप खिसक जायेगा और मेरा एक रूपिया बच जायेगा। अपने इस तरकीब पर मुझे गर्व हुआ। भाषण शुरू करने जा ही रहा था कि अंर्तआत्मा से आवाज आई, यदि सामने वाला जरूरत से ज्यादा सहनशील और चालाक निकला और कहे - ’जनाब ! काम से डरता कौन है? दीजिये न काम। इसी की तो मुझे तलाश है’ तब तेरी क्या इज्जत रह जायेगी। क्या यह तेरे गाल पर तमाचा नहीं होगा?

इस तमाचे के लिए मैं तैयार नहीं था। अब मेरे विचार और व्यवहार एकदम सरकारी हो गए। सरकारी दिमाग बड़ा असरकारी होता है। ऐसे ही तमाचों से बचने के लिए सरकार कभी रोजगार दफ्तर, कभी नौकरियों का विज्ञापन और कभी बेरोजगारी भत्ते का झुनझुना दिखाती है।

मेरी अंर्तआत्मा भय से कांपने लगी। इस कल्पना से कि कहीं सामने वाला यह व्यक्ति अधिकार प्राप्त करने की मेरेे ही बताये तरकीब का (यद्यपि अभी तक मैंने उसे कुछ भी नहीं बताया था।) मेरे ऊपर ही प्रयोग न कर दे। मुझे अपना जेब कंटता हुआ और हाथ का थैला छिनता हुआ महसूस हुआ।

मैंने कांपते हाथों से एक रूपय का सिक्का निकाल कर चुपचापसे बचा लिया। उसे भाषण पिलाने की अपेक्षा यह रास्ता मुझे अधिक निरापद लगा।

वह युवक पैसे लेकर तेजी से भीड़ में कहीं विलीन हो गया। न तो उसने धन्यवाद के कोई शब्द कहा और न ही उसके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव ही थे। मानों उसने अपना अधिकार छीन कर हासिल कर लिया हो।

क्या अधिकार छीनने की प्रक्रिया की शुरूआत ऐसे ही होगी?
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7: क्या वह रघुनाथ नहीं था

बीस-पचीस साल पहले की बात है।

गड्ढों से अटी-पड़ी, कच्ची सड़क पर बुरी तरह हिचकोलें खाती और पीछे धूल का बादल छोंड़ती हुई बस अंततः भोलापुर के बस अड्डे पर आकर रुकी। बस का यह अंतिम पड़ाव था और इसे यहीं पर रात्रि विश्राम करना होता था। अशोक ने अपना सामान समेटा और नीचे उतर आया। सामान के नाम पर कंधे पर लटकाकर चलने वाले एक बड़े बैग के सिवा और कुछ न था।

नवंबर का प्रथम सप्ताह था और चार दिन बाद ही दीपावली का त्यौहार आने वाला था। नीचे उतरते ही ठंडी हवाओं का एक झोंका आया और बदन को कंपा गया। उसने अपना स्वेटर ठीक किया, मफलर कंसा और बैग को कंधे पर लटकाते हुए आस-पास का मुआयना किया। अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा, पर रात के अंधेरे की वजह से वह समय नहीं पढ़ पाया। उन्होंने अंदाजा लगाया, आठ से ऊपर तो हो ही गया होगा।

कुछ ही कदमों की दूरी पर विमला का पान ठेला था। कुछ समीप जाकर उसने पान ठेले की दीवार पर टंगी दीवार घड़ी के डायल पर कांटों की स्थितियाँ देखी। आठ बजकर पंद्रह मिनट हो चुके थे। गाँव-देहात के हिसाब से काफी रात हो चुका था। यहाँ से डेढ़-दो किलोमीटर सुनसान और जंगली रास्ते पर पैदल चलकर गाँव तक पहुँचना आसान काम नहीं था; तब तो बिलकुल भी नहीं जब कोेई हमसफर भी न हो और रास्ते पर एक बरसाती नाला पड़ता हो जिसमें अभी भी घुटनों तक पानी बह रहा होगा; और एक मरघट पड़ता हो जहाँ महीने दो महीने में एक न एक चिता जरूर जलाई जाती हो, और जिसके बारे में भूत-प्रेत और ब्रह्म राक्षसों से संबंधित अनेक डरावनी कहानियाँ प्रचलित हो। उसे रघुनाथ पर क्रोध आया। हमेशा अपनी सायकिल लेकर सेवा में उपस्थित रहने वाले रघुनाथ ने आज अच्छा धोखा दिया था।

रघुनाथ उसी के गाँव का रहने वाला और उसके बचपन का मित्र है। अशोक पढ-़लिखकर शिक्षक हो गया है परंतु रघुनाथ अपनी गरीबी की वजह से प्रायमरी से अधिक पढ़ नहीं पाया और गाँव में ही कृषि-मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाता है। बहुत मेहनती, निडर और बहुत जिंदादिल इंसान है वह और बहुत रोचक बातें करता है। उसे पच्चीसों लोककथाएँ याद हंै। भूत-प्रेत की दसियों कहानियाँ भी उसे याद हैं। गाँव और आसपास की घटनाओं की अनेक रोचक संस्मरण भी याद हैं उसे। कहानियों और घटनाओं को प्रस्तुत करने का उनका अपना ही अंदाज है। अंदाज ऐसे कि कपोलकल्पित बातों को भी आप यथार्थ मानने के लिये मजबूर हो जायें। मजेदार इतनी कि हँस-हँसकर आप लोटपोट हो जायें। उसके साथ रहकर, उसकी बातें सुन-सुनकर कभी कोई बोरियत महसूस नहीं कर सकता। उनकी बातें सुनने के लिये तरसते हैं लोग। उनके साथ में होने से समय कैसे कटता है, रास्ता कैसे कटता है, पता ही नहीं चलता। पर आज अशोक को अकेले ही रास्ता तय करना था। उन्होंने बैग को कंधे पर लटकाया। गढ़माता मैया को मन ही मन स्मरण किया, छोटी सी यह यात्रा सकुशल पूरी हो जाय, इसके लिये मनौती मांगी और अंधरे, सुनसान, कच्ची सड़क पर गाँव की और चल पड़ा।

जंगल तो अब कट चुके हैं, जंगली जानवर के नाम पर अब तो एक लोमड़ी भी दिखाई नहीं देती; इनका कैसा डर? रह गई बात  श्मशान से बाबस्ता लोगों के बीच प्रचलित भूत-प्रेत की घटनाओं की; सो ये भी निरा कपोलकल्पित बातें ही होती है।
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चलते-चलते अशोक को पिछली बार की बातों का स्मरण हो आया। एक बार जब ऐसे ही रात में रघुनाथ उसे लेने आया था तब उसने कह था - ’’अशोक गुरूजी, भूत-प्रेत का होथे जी? कोनों देखे हें का? सब बनावल बात ए।’’

अशोक ने कहा था - ’’पिछले साल भोलापुर की मंडाई के दिन मरघट्टी के सेमल पेंड़ पर रात भर टोनही ’बरती’ रही, भय के मारे गाँव का कोई भी आदमी उस दिन नाचा देखने जा नहीं सका था। तुम कहते हो कि ये सब कपोलकल्पित बातें हैं?’’

अशोक की बातें सुनकर एक लंबा ठहाका लगाया था और काफी देर तक हँसता रहा था रघुनाथ। अशोक ने कहा - ’’अबे फोकू इसमें इतना हँसने की क्या बात है? सब जानते हैं इस घटना के बारे में कि सेमल की पेड़ पर उस रात घंटे भर तक टोनही ’बरती’ रही, आग के गोले उसके मुँह से निकल-निकल कर टपकते रहे, और तू हँसता है?’’

’’अरे मितान, पेड़ तीर जा के भला कोनों देखिन का, कि का जिनिस ह बरत हे? दुरिहच् ले देख के वोला टोनही कहि दिन।’’ हँसते-हँसते रघुनाथ ने कहा था।

अशोक ने कहा था - ’’वाह! ऐसे बोल रहे हो कि केवल तुम ही इसकी हकीकत जानते हो?’’

रघुनाथ - ’’अउ नइ ते का?’’ और फिर टोनही ’बरने’ की इस घटना के पीछे की हकीकत जो उन्होंने बताई तो हँस-हँसकर अशोक का भी बुरा हाल हो गया था। दरअसल, उस रात लोगों को डराने के लिये इन्होंने ही सायकिल की एक पुरानी टायर को जलाकर पेड़ पर लटका दिया था।

अशोक ने कहा - ’’सो तो ठीक है। मेरे साथ भी एक अजीबोगरीब घटना घटी है। बताओ भला वह क्या था?’’

रघुनाथ ने आतुरता पूर्वक पूछा - ’’का ह?’’

अशोक ने अपने साथ घटित उस अजीबोगरीब घटना के बारे में  बताना शुरू किया।
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जिस गाँव में मैं पदस्थ हूँ वहाँ शाला परिसर से लगा हुआ ही शिक्षकों के लिये क्वार्टर्स बने हुए है। आहाता विहीन इस परिसर के सामने की ओर खेल का बडा़ सा मैदान है, जहाँ शाला लगने के दौरान बच्चे खेला करते हैं। बाकी तीन ओर खेत और झाड़ियाँ हैं।  दूरस्थ अंचल स्थित, पहुँच विहीन इस गाँव में तास की पŸिायाँ ही मनोरंजन का एकमात्र साधन होती हैं। मैं अविवाहित था, अतः रात्रि भोजन के बाद अन्य शिक्षक साथी मेरे ही क्वार्टर पर तास खेलने के लिये जुट जाते थे। सितंबर-अक्टूबर का महीना रहा होगा। एक तो आसमान में हल्के-हल्के बादल थे और अमावस की रात थी, अतः बाहर अंधेरा कुछ अधिक ही घना था। झाड़ियों की ओर खुलने वाली खिड़की के पास ही मेरा बिस्तर लगा हुआ था जिसमें बैठकर हम चार मित्र लालटेन की धुंधली रोशनी में तास खेल रहे थे।

तास की पत्तियों को व्यवसिथत करते हुए मैंने बिड़ी की गड्डी में से चार बीड़ियाँ निकालकर दियासलाई से सुलगाया और साथियों की ओर बढा़ दिया। हम सब बीड़ियों का कश लेने लगे। एक मित्र ने कहा - ’’अबे, तुम्हीं लोग पियोगे, मुझे नहीं दोगे?’’

मैंने कहा - ’’अबे, तुझे भी तो दिया हूँ , मजाक क्यों करता है।’’

लेकिन सच यही था कि उसने बिड़ी नहीं ली थी। हमें आश्चर्य हुआ कि आखिर वह चैंथी बिड़ी गई कहाँ? किसने ली?

हमारी दिनचर्या और आदतें रूढ़ होकर मश़़्ाीनी हो जाती हैं। अगले दिन फिर वही महफिल सजी। मैंने फिर बिड़ी सुलगाई, लेकिन उस दिन मैं चैकन्ना था। बिड़ी बाँटते वक्त मैं बराबर निगरानी कर रहा था और कल वाली चालाकी को पकड़ना चाहता था। बाकी तीनों साथी इन बातों से बेखबर अपने-अपने पत्तों में व्यस्त थे। तभी एक हाथ पहाड़ी तरफ वाली खुली हुई खिड़की से अंदर आया। जाहिर था कि उसे भी बिड़ी चहिये थी। आश्चर्य के साथ मैंने खिड़की से बाहर खड़े उस आदमी की ओर ध्यान केद्रित किया। बाहर अंधेरा घना था और कमरे के अंदर जल रहे लालटेन की पीली, मद्धिम रोशनी में उस व्यक्ति को पहचानना संभव नहीं था। लेकिन सहसा उसके चेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देखकर मैं एक बारगी कांप गया। मैंने उसके हाथ पर सुलगी हुई एक बिड़ी रख दी। बिड़ी लेकर वह हाँथ और जलती हुई दोनों आँखे गायब हो गई।

स्कूल के आसपास रात में किसी जिन्न की उपस्थिति की चर्चा गाँव में अक्सर होती रहती थी, और इसी भय के चलते अंधेरा घिरने पर लोग इधर आने से भय खाते थे; और अक्सर हम लोगों को भी इस संबंध में हिदायतें देते रहते थे। खिड़की के अंदर बिड़ी के लिये आया किसी का हाथ और बाहर उसके वेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देख कर मेरे मस्तिष्क में उसी जिन्न का भय घर कर गया। मित्रों के अंदर भी यह भय व्याप्त न हो जाय, इसलिये उस वक्त इस घटना का जिक्र मैंने किसी से नहीं किया।

तथाकथित जिन्न के भय से उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया, यद्यपि रात में ऐसी-वैसी, और कोई घटना नहीं घटी। सुबह मित्रों से मिलने पर सबसे पहले मैंने इसी बात का जिक्र किया और एक दिन पहले बिड़ी गायब होने के रहस्य पर से परदा उठाया। मित्रों के चेहरों पर भय की रेखाएँ साफ दिखने लगी थी।

काफी सोच-विचार करने के बाद हम लोगों ने निर्णय लिया कि बात हम चारों के बीच ही रहे, इस घटना का जिक्र और किसी से न किया जाय, क्योंकि पहली बात - गाँव के लोग पहले ही इस स्कूल परिसर के आसपास इस तरह की घटना पर विश्वास करते आ रहे हैं, इससे उनका विश्वास पक्का हो जायेगा। अपने अंधविश्वास के चलते वे स्वभाविक रूप से भूत-प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास करने वाले होते हैं इसीलिय इससे गाँव में दहशत फैलने में समय नहीं लगेगा। या फिर दूसरी बात - हो सकता है हमें डराने के लिये किसी ने शरारत किया हो; और यदि एैसा हुआ तो हम सब उपहास का पात्र बनेंगे। कोई भी कदम उठाने के पहले घटना की हकीकत समझना जरूरी है।

घटना की हकीकत समझने के लिये अगली रात हम लोग पूरी तैयारी से बैठे। अन्य दिनों की तरह ही हमने खिड़की खोल दी। रोशनी की कमी को पूरा करने के लिये लालटेन की संख्या बढ़ा दी गई। जैसे ही मैंने बीड़ी जलायी, खिड़की से वह हाथ फिर अंदर आया। हम सबकी निगाहें खिड़की के बाहर खड़े उस व्यक्ति के चेहरे पर जम गई। काले खुरदुरे चेहरे के बीच उसकी जलती हुई आँखों को देखकर हमारे शरीर पर भय की झुरझुरी दौड़ गई, रोएँ खड़े हो गए। एक ने टाॅर्च उठा ली, परंतु मैंने उसे मना कर दिया। बिड़ी लेकर वह चला गया।

अब तो रोज इस घटना की पुनरावृŸिा होने लगी।

लगभग सप्ताह भर बाद की बात है। उस दिन हमारा एक साथी किसी काम से बाहर गया हुआ था और हम तीन लोग ही तास खेल रहे थे। सहसा हवा के झोंके की तरह वह आदमी खिड़की से होकर अंदर आया और चैथे साथी की जगह पर बैठ गया। सामान्य व्यक्ति इस तरह खिड़की से होकर अंदर नहीं आ सकता था क्योंकि उसके चैखटे पर लोहे की मजबूत सलाखें लगी हुई थी। उसके शरीर पर सफेद वस्त्र थे जो मटमैला हो गया था। आँखें रोज की तरह जल रही थी। इतना तो तय था कि वह मानव सदृष्य, कोई मानवेत्तर प्राणी था और कम से कम इस गाँव का रहने वाला नहीं था।

अब तक उसने हम में से किसी को भी किसी तरह का कोई  नुकसान नहीं पहुँचाया था अतः उसकी ओर से हमारे अंदर का भय काफी हद तक समाप्त हो चुका था फिर भी इस घटना के लिये हम में से कोई भी तैयार नहीं था और एक बार फिर हम सब अंदर तक कांप गए। डर के कारण हम बोल भी नहीं पा रहे थे। अगली बार उसे भी पत्ते बांटे गये। मैंने बीड़ी सुलगा कर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ’’आ गए काका?’’

मेरी बातों का उसने न तो कोई जवाब दिया और न ही उसके चेहरे पर किसी तरह के भाव ही आये। उस रात हमने अपना खेल जल्दी ही समेट लिया। वह व्यक्ति किसी से बिना कुछ कहे उसी खिड़की के रास्ते बाहर चला गया।

यद्यपि उसने अब तक हममें से किसी को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाया था, फिर भी इस तरह की घटना का जारी रहना उचित नहीं था। अगले दिन इस समस्या से निजात पाने के लिये हम लोगों ने काफी विचार-विमर्श किया।

निष्कर्श में जाहिर था कि वह कोई मनुष्येŸार प्राणी ही था, पर स्वभाव से भला था। गाँव वालों के अनुसार कुछ साल पहले गाँव के किसी व्यक्ति की अचानक मौत हो गई थी। उसी की आत्मा आसपास भटकती थी। यह वही हो सकता था। अंतिम निष्कर्श यह निकला कि उसे बिड़ी पीने की आदत है और बिड़ी की चाह में हम तक आता है।

एक मित्र ने कहा - ’’उसे ताश का भी शौक है। आप लोगों ने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, वह खिड़की के बाहर से ही हमें ताश खेलते हुए देखता रहता है।’’

एक मित्र ने उपाय सुझाया कि किसी तांत्रिक की मदद ली जाय और परिसर के चारों ओर मांत्रिक सुरक्षा कवच का घेरा बनवा दिया जाय।

मैं तांत्रिक के पक्ष में नहीं था क्योंकि स्कूल परिसर में इस तरह की हरकत से पढ़ने वाले बच्चों की मानसिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता और प्रशासन को इसकी भनक लगने से हम पर कार्यवाही भी हो सकती थी। अचानक मेरे मन में एक उपाय सूझी। मेैंने कहा - ’’क्यों न आज हम उस व्यक्ति की समाधि पर बिड़ी का कट्टा और माचिस अर्पित करके हाथ जोड़ ले।’’

तीनों मित्र मेरे इस उपाय पर सहर्ष सहमत हो गए।

दूसरे ने कहा - ’’साथ में ताश की एक गड्डी भी रख देंगे।’’

इस सुझाव पर भी हम सब सहर्ष सहमत हो गए।

शाम को हमने ऐसा ही किया।

हमारी तरकीब काम कर गई। उस रात वह नहीं आया। हमने राहत की सांस ली।

एक मित्र ने तर्क दिया कि बिड़ी खत्म होने पर वह फिर आ सकता है इसलिये बिड़ी चढ़ावे का यह क्रम हमें बनाये रखना चाहिये।

उसका यह सुझाव भी मान लिया गया और रोज शाम उस समाधि पर बिड़ी और माचिस-चढ़ावे का क्रम शुरू हो गया।
एक दिन गाँव के किसी व्यक्ति ने हमें उस समाधि पर बिड़ी चढ़ाते हुए देख लिया। उसने इसका कारण पूछा। विवश होकर उस दिन हमने उसे पूरी घटना के बारे में बता दिया। बात गाँव भर में फैल गई और उस दिन से उस समाधि पर गाँव वाले भी बिड़ी-माचिस चढ़ाने लगे।

उसे हमने फिर कभी नहीं देखा।
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रघुनाथ अशोक की बातों को पूरे समय तक पूरी एकाग्रता पूर्वक सुनता रहा। घटना सुनाने के बाद अशोक ने पूछा - ’’बताओ भला! यह क्या है?’’

रघुनाथ ने कहा - ’’लोगन रघुनाथ ल गप्पी कहिथें। तंय ह कब ले गप मारे के शुरू कर देस?’’

अशोक ने कहा - ’’यह गप्पबाजी नहीं है, हकीकत है।’’

तब तक वे लोग घर पहुँच गये थे और बात वहीं अधूरी रह गई थी।
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बीच में पड़ने वाले नाले के पास पहुँच कर अशोक के विचारों का क्रम टूटा। अंधेरा पक्ष चल रहा था, अंधेरा घना था, परंतु उसके पास टार्च थी और उसे नाला पार करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। नाला पार करने के बाद अशोक पुनः यादों में खो गया।

रघुनाथ जब पिछली बार उसेे गाँव से भोलापुर छोड़ने आया था तब उसने पूछा था - ’’अब तो दिवारी तिहार आने वाला हे, के तारीख के आबे बता दे रहा, तोला लेगे बर आ जाहूँ।’’

अशोक ने कहा था - ’’अबे गप्पू, देवारी तिहार अभी डेढ़ महीना बचा है। पर हाँ इस साल तिहार के दिन हम दोनों एक जैसे कपड़े पहनेंगे। नांदगाँव से लाऊँगा, तेरे लिये और मेरे लिये,, जींस और टी शर्ट, बिलकुल एक जैसा।’’

’’कपड़ा लाबे कि झन लाबे, मिठाई जरूर लाबे भई। नांदगाँव के मिठाई ह गजब सुहाथे।’’ रघुनाथ ने कहा था।

चलते-चलते अशोक ने बैग में टटोल कर देखा, कपड़े भी थे और मिठाइयाँ भी थी।

दूर से ही श्मशान में दहक रहे चिते की अंगारों को देख कर अशोक का मन खिन्न हो उठा। गाँव में आज फिर किसी की मौत हुई थी। भरी दीवाली में पता नहीं किस परिवार के ऊपर वज्रपात हुआ था। श्मशान के नजदीक पहुँचने पर चिते की दहकते अंगारों की पीली रोशनी में उसने देखा, बीच सड़क पर कोई आदमी खड़ा है। और नजदीक पहुँचने पर अशोक ने उसे पहचान लिया, वह रघुनाथ ही था। अशोक ने सोचा, किसी वजह से उसे लेट हो गया होगा और वह भोलापुर तक नहीं पहुँच पाया होगा। उसने राहत की सांस ली; घर पहुँचने पर माँ की डाँट से अब वह बच सकता था। रात में इस तरह अकेले आने पर अशोक को हमेशा माँ की डाँट खानी पड़ती थी। अशोक ने कहा - ’’अबे गप्पू, आज लेट कैसे हो गया? तेरी सायकिल कहाँ है? और तूने अपनी ये कैसी हालत बना रखी है। इतनी ठंड में केवल गमछा लपेट कर चला आया है।’’

उसने कोई जवाब नहीं दिया।

बिड़ी सुलगा कर अशोक ने उसकी ओर बढ़ दिया। उसने चुपचाप बिड़ी ले ली और कश खींचने लगा।

उसने फिर हाथ बढ़ाया। अशोक समझ गया, अब उसे मिठाई चाहिये थी। उसने टटोलकर बैग से मिठाईयों का डिब्बा निकाला।

डिब्बा उसके हाथों में देते हुए उसने कहा - ’’अब कपड़े मत मांगना, वह तो तिहार कि दिन ही मिलेंगा।’’

चलते हुए अशोक ने कहा - ’’अब चलो भी, यहीं खड़े रहोगे।’’

उसने कुछ नहीं कहा और चुपचाप अशोक  के पीछे-पीछे चलने लगा। उसकी चुप्पी पर आज अशोक को हैरत हो रही थी। चलते-चलते उससे उसने बहुत सारे सवाल पूछे कि जल रही चिता किसकी है? फसल कैसी है? पर उसने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। केवल अशोक ही बकबक किये जा रहा था और वह चुपचाप सुने जा रहा था। उसकी चुप्पी पर अशोक को गुस्सा आ रहा था। उसे डाँटने के लिये उसने अगल-बगल देखा। अशोक को आश्चर्य हुआ, पता नहीं वह कब और कहाँ गायब हो गया था।

घर पर अशोक की ही प्रतीक्षा हो रही थी। पहुँचते ही माँ की डाँट शुरू हो गई कि कितनी बार कहा है, रात-बिकाल अकेले मत चला करो।

अशोक ने कहा - ’’अकेला कहाँ था माँ, रघुनाथ लेने गया था न।’’

रघुनाथ का नाम सुनते ही माँ नरम हो गई। उसने कहा - ’’काबर लबारी मारथस रे बाबू, वो बिचारा ह अब कहाँ ले आही?’’

’’का हो गे हे रघुनाथ ल? अभी तो मोर संग म आइस हे।’’ अशोक ने कहा।

’’मरघट्टी म चिता बरत होही, नइ देखेस बेटा।’’ माँ ने लगभग रोते हुए कहा।

तो क्या वह चिता रघुनाथ की है? अशोक सहम गया। उसको सहसा विश्वास नहीं हुआ। कुछ देर पहले देखा हुआ उसका खुला बदन, मौन और भावशून्य चेहरे पर उसकी जलती हुई आँखें उसकी नजरों में कौंध गई। निढाल होकर वह कुर्सी पर पसर गया। आँखों से आँसू बहने लगे।

रघुनाथ के मरने की सारी कहानी माँ ने उसे सुना दी।

दूसरे दिन सुबह अशोक ने भारी मन से उसके लिये खरीदी गई जींस और टी शर्ट को बैग से निकाला और उसकी बुझ चुकी चिता के पास रख आया।

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8: दो संतरे

उस साल इन्द्र देव की खूब कृपा हुई थी। ज्येष्ठ निकलने में सप्ताह भर बाकी था, तब बरसात शुरू हुई थी और अषाड़ का पहला पाख गुजर चुका था और बरसात उसी लय के साथ जारी थी। बरासात ने किसानों को खूब रुलाया था; धान बुआई का काम ले-दे कर पूरा हुआ था। 

सुदूर वनांचल बीच; जहाँ की पहाड़ों से अनेक सोते और नाले जन्म लेकर बीच-बीच में छोटे-छोटे झरनों का निर्माण करते हुए आगे बढ़ते हैं, आपस में मिलते हैं और नदियों का रूप लेते हुए मैदानों तक पहुँच कर बड़ी नदी में परिवर्तित हो जाते हैं; एक गाँव है - मड़ावी टोला। मड़ावी टोला के उत्तर पूर्व की ओर पहाड़ों का एक अटूट सिलसिला है। गाँव के दक्षिण-पश्चिम की ओर इन्हीं पहाड़ों से निकल कर एक बरसाती नाला बहता है जो कुछ ही दूर चल कर कोतरी नदी में जा मिलता है। नदी और नाले के बीच छोटा सा  समतल और उपजाऊ कछार है, जहाँ मड़ावी टोला के लोगों की खेती बाड़ी है।

मड़ावी टोला आदिवासियों की बस्ती है। यहाँ के अधिकांश आदिवासी मड़ावी गोत्र के है और शायद इसी वजह से इस बसाहट का नाम मड़ावी टोला पड़ गया होगा। इसी गाँव में रहता है, हेड़मू मड़ावी, अपनी पत्नी, बेटा और बहु के साथ। हेड़मू मड़ावी कब का साठ पूरी कर चुका है, फिर भी उनका शरीर मजबूत है; दिन भर खेत में काम करता है। उनकी हमउम्र पत्नी भी उन्हीं की तरह स्वस्थ है और खेत में हमेशा उनके साथ बनी रहती है। हेड़मू परिवार की जरूरतें बहुत सीमित हैं। हेड़मू अपनी खेती-बाड़ी में हमेशा खुश रहता है। किसी बात का दुख नहीं है उसे। उनको, दुख है तो बस एक ही बात का; बेटे की शादी हुए दस साल बीत गए हैं पर उन्हें अब तक औलाद नहीं हुई है। चिंता इस बात की थी कि बंस आगे कैसे चलेगा और फिर किस बुजुर्ग का मन नाती-पोतों के लिये नहीं मचलता होगा? अपने हिसाब से वह बैगा-गुनिया, तेला-बाती, झाड़-फूँक, दवा-दारू, सूजी-पानी सब करके देख लिया है। सब उदीम करके हार गया है हेड़मू मड़ावी। भगवान की मर्जी के आगे भला कोई क्या कर सकता है?
कछार में नाले से लगा हुआ, हेड़मू मड़ावी का आधा-पौन एकड़ का छोटा सा एक खेत है। खरीफ में वह खेत के एक हिस्से में  कुलथी और मड़िया तथा बांकी में साठिया धान की खेती करता है। साठिया धान जल्दी पकता है और पानी भी कम लगता है। साठिया धान के बाद बंगाला, मिरी, भाटा, मुरई, गोभी की सब्जियाँ लगाई जाती हैं। खेत के एक कोने में कुछ ऊँची जगह पर उनका झाला है। झाला के खदर की छानी में रखिया, तुमा और कुम्हड़ा भी खूब फलते हैं। खेत में कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के भी पेड़ हैं। अपने-अपने मौसम में ये भी खूब फलते हैं।

हेड़मू पत्नी सहित साल के बाराहों महीने और आठों पहर, बाड़ी में ही रहता है। झाला ही उनका घर है। बहू-बेटे रोज कहते हैं कि दिन में तो ठीक है पर रात बाड़ी म न रहा करें। आखिर यह वनवास क्यों? पर हेड़मू किसी की सुनता कब है? कहता है - गाँव में रखा ही क्या है? जो जमीन पेट भरने के लिये अनाज देती है, वही तो माँ है, उसी का कोरा अच्छा लगता है। घर में पल भर रहने का मन नहीं करता। यहाँ पर खेत है, बाड़ी है, आमा, लिमउ, संतरा, केरा, जाम के भाई जैसे पेड़ हैं; उसी की सेवा-जतन में दिन कँट जाता है।

बेटा का पैर न तो घर में ठहरता है और न ही खेत में। पता नहीं दिन भर कहाँ-कहाँ भटकता रहता है? क्या कमाता है? कहाँ कमाता है? पर कमाता जरूर है। तभी तो घर-गिरस्ती चल रहा है।

बहू सोला आना है। सुबह होते ही वह भी खेत आ जाती है। दो-दो जगह चुल्हा जलाना उचित नहीं है। चुल्हा यहीं जलता है, सुबह का भी और सांझ का भी। दोनों समय का भोजन यहीं बनता है। सांझ के समय सास-ससुर को भोजन कराने के बाद वह रात-मुंधियार होते तक घर लौट जाती है। जिस दिन पति बाहर रहता है, उस दिन दोनों का भोजन वह यहीं से ले जाती है।

बहु की सेवा जतन से हेड़मू का मन सदा प्रसन्न रहता है। कहता है - ’’कोनों जनम के बेटी होही, सेवा करे बर आय हे।’’
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यहाँ से दो-तीन कोस की दूरी पर एक बड़ा गाँव है, जहाँ प्रत्येक सनीचर के दिन साप्ताहिक बाजार लगता है। मानपुर, मोहला, नांदगाँव, दल्ली, बालोद के लिए बस भी यहीं से पकड़ना होता है। वहाँ तक जाने का रास्ता हेड़मू के खेत की मेंड़ से ही होकर जाता है। दिन भर लोगों की आवाजाही लगा रहता है। गाँव के संगी-साथी हेड़मू से मिले बिना, राम-रमउवा किये बिना, चोंगी-माखुर पिए बिना आगे नहीं बढ़ते। पाँच-छ कोस के आस-पास के सभी गाँव वाले इसी बाजार में सौदा-सुलफ के लिये आते हैं। सब इसी रास्ते से होकर आते-जाते हैं। हेड़मू-बाड़ी को सब जानते हैं। हेड़मू को भी सब जानते हैं।
खेत और जंगल से जो भी उपज, जैसे - लाख, महुआ, चिरौंजी, इमली इन्हें मिलती है, आस-पास के सारे बनवासी, बाजार से उसके बदले में चहापत्ती, गुड़, नून, माखुर, और साबुन-सोडा बदल लाते है। बीसवीं सदी के अंतिम दिनों में भी वस्तुविनिमय का यह चलन अव्यवहारिक जान पड़ता है, पर फिर भी यह यहाँ चल रहा है क्योंकि बाहर से व्यापार करने के लिये आने वाले व्यापारी इसी के बलबूते तो मौज कर रहे हैं।

 बाजार में नांदगाँव, दल्ली और बालौद तक के व्यापारी आकर यहाँ नमक, गुड़, सोने-चाँदी, कपड़े और बर्तन वगैरह की दुकानें लगाते हंै। पाँच साल पहले जो व्यापारी यात्री बस में एक चक्की गुड़ और एक टीपा तेल लेकर आता था, वह अब खुद की ट्रक और जीप से आता है।

बाजार करते-करते हेड़मू मड़ावी का अब चैथा-पन आ गया है। चार-पाँच साल में इन व्यापारियों के पास इतना पैसा कहाँ से आ जाता है? हेड़मू मड़ावी के लिये यह एक पहेली बना हुआ है। सब अपना-अपना भाग है, ज्यादा क्यों सोचे वह इस विषय पर?

भक्कल ऐसा नहीं मानता। वह सोचता है। इसीलिये कई बार वह इन व्यापारियों से उलझ चुका है। आज भी वह हेड़मू से कह रहा था - ’’ददा! आज तंय बाजार न जा। पानी-बादर के डर हे। चिखला-पानी में थक जाबे। का-का लाना हे बता दे, मैं ले आहूँ।’’

हेड़मू, भक्कल का स्वभाव जानता है। पै

दा किया है, पाल-पोस कर बड़ा जो किया है उसे। सोचता होगा, ’बुढ़गा आज फिर व्यापारियों के हाथों ठगा कर आयेगा।’ और फिर जवान है, इस उमर में घूमने-फिरने का मन भी तो करता होगा उसका। उनकी अपनी जरूरतें होंगी, बहू की जरूरतें होंगी। कैसे बतायेगा इन बातों को वह? ठीक ही तो कहता है। आज वही जायेगा बाजार।

पर कहीं लखमू आ गया तो? लखमू , हेड़मू का बचपन का साथी है। उमर बीत गई लखमू की, उसके बिना कभी वह बाजार नहीं जाता। आकर जिद्द करेगा। फिर तो वह उसे मना नहीं कर पायेगा, जाना ही पड़ेगा। बचपन का साथ छूटता है क्या? ठीक है, सौदा-सुलफ बेटा कर लेगा। पर संगवारी के साथ वह भी यूँ ही बाजार घूम आयेगा।

आधी रात से बरसात थमी हुई है। अब तो कहीं-कहीं से सूरज भी झांकने लगा है। लगता है आज मौसम खुला रहेगा। तब तो बाजार में खूब भीड़ होगी। दस नहीं बजा है, बजरहा लोग सिर पर सामानों की टोकरी लेकर और तुमा में पेज-पसिया धर-धरके बाजार जाने लगे हैं। हेड़मू झाला के अंदर माखुर बनाता हुआ खटिया पर बैठा हुआ है। आँखें रास्ते पर लगी हुई हैं। अपनों को देेेखकर, जान-पहचान वालों को देखकर, मन में उत्साह भर आता है। अब तक हेड़मू से कई लोग जय-जोहार कर चुके हैं, पर उसके मन में अपेक्षित उत्साह नहीं दिख रहा है, चेहरे पर चमक नहीं है।

तभी कमरा-खुमरी धारी एक आदमी आता दिखाई दिया। चलने का ढंग देखकर हेड़मू ने दूर से ही उसे पहचान लिया। लखमू के सिवा भला वह और कौन हो सकता है?

बाड़ी का राचर हटाकर अंदर आते हुए लखमू ने आवाज लगाई - ’’मड़ावी पारा कोनों हव जी?’’

खाट पर बैठने की जगह बनाते हुए हेड़मू ने कहा - ’’आ भइया! आ। जोहार ले। तोर दरसन करे बर तो आँखीं मन ह तरसत तिहिथें जी, जुड़ा गे।’’

लोटा में पानी रखकर पाँव पड़ते हुए बहु ने कहा - ’’गजब दिन म दिखेस ममा, ले गोड़ धो ले।’’

बहु की ममता भरी आवाज में अपने लिये ममा संबोधन सुनकर लखमू को माँ की याद आ जाती है। आसीस देते हुए कहा - ’’खुस रह दाई! खुस रह। आजी के दिन तो आय रेहेंव माता, कहाँ गजब दिन होय हे।’’

हेड़मू जब तक संगवारी की ओर माखुर की डिबिया बढा़ पाता, बहु गिलास में चहा लेकर आ गई। लखमू ने कहा - ’’ला न दाई, इही ह तो आजकाल के पेज आय। ..... आज भउजी ह नइ दिखत हे?’’

’’है न ममा, बखरी म साग सिल्होत हे।’’ कहती हुई वह भी बाड़ी अंदर चली गई।

लखमू ने बहु को लक्ष्य करके हेड़मू से कहा - ’’बिहाव होय दस बरिस ले जादा भइगे। दवा-दारू सब करके हार गेस। अउ कतका आस करबे? बाबू के दूसर बिहाव नइ कर देस।’’

हेड़मू - ’’मोरो मन म अइसने बिचार आथे। फेर दुनों झन के मया-परेम ल देखथंव; सग बेटी ह नइ करतिस तइसन सास-ससुर के सेवा करइ ल देखथंव, तहाँ मोर हिम्मत ह हार जाथे। बहु आय फेर बेटी ले बढ़ के हे। भगवान ह नइ चीन्हे तउन ल का करही बिचारी ह। का गलती हे येमा वोकर? तहीं बता; ये ह कोनों तोर बेटी होतिस तब अइसने गोठ करतेस का तंय ह?’’

लखमू - ’’बने केहेस रे भाई, मंय तो तोर मन लेवत रेहेंव। भगवान के जइसन मरजी। पाप के भागी हम काबर बनबोन?’’
बहु तब तक बाड़ी से बंगाला, मिरी और धनिया तोड़ कर लौट आई। कहती है - ’’चटनी पीसत हंव ममा। मोहलाइन पान म अंगाकर रोटी रांधे हंव, खा लेहू तब जाहू।’’

लखमू सोचता है - हाथ से थापकर बनाई गई चाँवल के आटे की मोटी रोटी को मोहलाइन अथवा केले के कच्चे पŸो से ढंक कर कंडे के अंगारे की धीमी आंच में जब पकाई जाती है, तो ऐसे पके हुए अंगाकर के स्वाद का मुकाबला छप्पनभोग भी नहीं कर पाता। और फिर बनाने वाली है कौन? अपनी चतुर और गुनी दसमो बहु। साथ में गुड़ और बंगाले की चटनी हो जाय तो फिर और क्या पूछना; स्वाद कई गुना बढ़ जाता है।
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चार बजते तक बजरहा लोग अपने-अपने घर लौट आए। दो बजे से ही मौसम फिर गढ़ाने लगा था। दक्षिण की और से कालेजामुन के समान काले-काले बादल आसमान को ढँकने लगे थे। सांझ नहीं हुआ था पर सांझ के छ बजे के समान अंधेरा छा गया था। ऐसा बादर तो पहले कभी नहीं छाया था। आसमान की ओर निहारते हुए हेड़मू ने कहा -  ’’आज तो बादर ह धरती म गिर जाही तइसे लागत हे।’’

भक्कल ने कहा - ’’ददा! आज तो तुमन घर चलो। नंगत पानी गिर जाही ते पुरा आ जाही। तुमन इहाँ छेंका जाहू। के दिन ले पूरा रही न के दिन ले। इहाँ कोन तुँहर सेवा-जतन करही?’’

बहु ने भी किलोली किया, भगवान का वास्ता दिया।

पर हेड़मू कब मानने वाला था। उसने कहा - ’’सालपुट तो पूरा आथे। नवा बात का हे? छेंकइच् जाबोन ते अभी रांधे-खाय के पुरती गत्तर ह चलत हे। तिपो के अलवा-जलवा खा लेबोन। सब जिनिस तो माड़े हे। फिकर काबर करथो?’’

’’झाला ह बूड़ जाही त कइसे करबे?’’

’’एको साल तो नइ बूड़े हे, एसोच् बूड़ जाही?’’

’’एसो जइसे पानी अउ कभू गिरे रिहिस हे?’’

बहू को सास-ससुर की ज्यादा चिंता है। लत्ते-कपड़े और सामानों की मोटरियाँ बनाकर उसने कहा - ’’चलो न ममा, जीव ह तुहँरे डहर लगे रही। काबर पेलियाही करथव?’’

’’कोनों किसम के फिकर झन कर बहू। ले जाव तुमन अब। पानी गिरने वाला हे।’’

हार मान कर भक्कल और दसमो बहु, दोनों डबडबायी आँाखों के साथ लौट आये। उनके घर पहुँचते ही रझरिझ-रझरिझ मूसलाधार बारिस शुरू हो गई। छानी-परवा एक हो गए। चारों ओर सफेदी छा गया। न पहाड़ दिखता था और न ही जंगल-झाड़ी दिखते थे। ऐसा लगता था मानों जंगल-पहाड़, पेड़-पौधे सब के सब अचानक गायब हो गए हों। गाँव के नाले में देखते ही देखते बाढ़ आ गई। घंटे भर की ही बरसात से बाढ़ का पानी नाले के किनारों की मर्यादा तोड़कर खेतों में बहने लगा। मानों बरसात नहीं हो रही थी बल्कि आसमान टूटकर कर धरती पर गिर रहा था।

भक्कल ने कहा - ’’कइसनो करके मंय ह बाड़ी जावत हंव। सियान मन ल धर के लाहूँ। अइसने पानी कहूँ गिरत रही त रात भर म कुछू नइ बाँचय। सियान मन ह कहिथें, हमर जनम नइ होय रिहिस तब बहुत साल पहिली अइसने पानी गिरे रिहिस, सात दिन अउ सात रात ले सरलग, कछार म बाँस भर पानी के धारी चले रिहिस हे। कछार के मेड़ खेत, सब एक हो गे रिहिस हे। रूख-राई सब बोहा गे रिहिन हे। गाँव के घला कतरो अकन घर-कुरिया ह बोहा गे रिहिन हे।’’ कहते-कहते भक्कल की आँखें छलछला गईं।

दसमो कुछ नहीं कह सकी। माँ-बाप के लिए उसकी भी चिंता कम न थी, पर उसे पति की भी चिंता थी। वह जानती थी कि पति जो भी कह रहा है, उसे कर पाना अब असंभव हो चुका है। कहाँ तो छाती-कमर इतना पानी में ही नाला पार करने में कई लोग बह चुके है; और अब तो उसमें दो-दो बांस पानी प्रचंड वेग से बह रहा है। उस पार जाना असंभव है। न डोंगा काम आ सकता है न मोरी। किसी तरह उस पार चले भी गए तो बुजुर्गों को लेकर वापस कैसे आया जायेगा? अनहोनी की आशंका से ही डर कर दसमों पति की छाती से लग गई।

तभी शरीर पर कमरा और कमरे के ऊपर सरकारी झिल्ली का मोरा लपेटे, सिर पर खुमरी लगाए, लाठी टेकता हुआ लखमू आ पहुँचा। उसे भी पता है कि हेड़मू नाले पार कछार में ही फंसा हुआ है। भावुकता और जवानी के जोश में भक्कल नाला पार करने की भूल न कर बैठे, इसी चिंता में; और बच्चों के मन को ढाढस भी तो देना है इसलिए भी, वह इस मूसलाधार बारिश में यहाँ तक चला आया।

बारिश में भींगते हुए भक्कल नाले तक जाकर कई बार लौट आया था। हर बार नाले का पानी गाँव की ओर और बढ़ आता था। नाले के किनारे पर खड़ा होकर उसने कई बार आवाज लगाई थी; यह जानने के लिए कि उधर सब खैरियत तो है? पर बारिश के इस शोर में उसकी आवाज वहाँ तक कैसे पहुँच सकती थी? अँधेरा होने से पहले तक उसे बाड़ी और बाड़ी में बना हुआ उसका झाला सुरक्षित दिख रहा था। भक्कल ने गढ़माता मैया को, तैतिस कोटि देवी-देवताओं को और अपने कुल देवी को कई बार याद किया, बदना बदी, दुआएँ मांगी। गाँव वालों ने भी गंगा मैया के प्रकोप को शांत करने के लिये, बाढ़ से गाँव को बचाने के लिए सोने-चाँदी सहित पंचधातु का मेल जल में प्रवाहित किये। उस रात न तो भक्कल से कुछ खाया गया और न ही दसमो से। रात भर उनकी निगाहें कछार की ओर लगी रहीं; बाड़ी में बने झाले की खैरियत टटोलती रहीं; पर रात के अँधेरे में कुछ भी दिख पाना संभव नहीं था।

चार पहर की रात चार युग की तरह बीता। सुबह होने तक बारिश थम चुकी थी पर इस दौरान बाढ़ ने सब कुछ लील लिया था। गाँव टापू बन चुका था। पूरा कछार बाढ़ में डूब चुका था। कछार के ऊपर से इतना पानी बह रहा था कि वहाँ के सारे पेड़ उसमें डूब चुके थे। भक्कल की पूरी दुनिया बाढ़ में बह चुकी थी।

तीन दिन बाद स्थिति सामान्य हुई। सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। झाले का नामोंनिशान भी नहीं बचा था। दो दिन तक नाले के किनारे लगे, नीचे की ओर के गाँवों में बूढ़े-बूढ़िया की तलाश की जाती रही। सरकारी राहत दल ने भी साथ दिया, पर हाथ कुछ भी नहीं आया। कोतवाल के माघ्यम से थाने को सूचित कर दिया गया।

कुछ दिन बाद थाने से भक्कल का बुलावा आया। दूसरे थाने के अंतर्गत कई कोस दूर, नाले के किनारे झाड़ियों में उलझे हुए, एक पुरूष की और एक महिला की सड़ी-गली अवस्था में लाश पाई गई थी। शिनाख्त नहीं हो पाने के कारण शवों को दफना दिया गया था, लेकिन तहकीकात  के लिये उनके वस्त्र इस थाने में भिजवाये गये थे। भक्कल से इन्हीं वस्त्रों की पहचान कराई गई। कपड़ों को देखते ही भक्कल पागलों की तरह रोने लगा।

घर आकर भक्कल ने सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार माँ-बाप का क्रिया-कर्म किया। उस दिन के बाद भक्कल ने कछार की ओर देखा भी नहीं।

बाढ़ ने धान के फसल को चैपट कर ही दिया था। पर क्वाँर का महीना लगते ही कछार में सब्जियों की बोआई-रोपाई का काम शुरू हो गया। लखमू ने भक्कल को कई बार समझाया कि ’जाने वालों के के लिये लोग जीना नहीं छोड़ देते। जिन्दा रहना पड़ता है; और जीने के लिये काम भी करना पड़ता है। सियान को बाड़ी से बड़ा लगाव था। बाड़ी का त्याग करने से उनकी आत्मा दुखी ही होगी। अच्छा होगा कि बाड़ी को फिर से आबाद किया जाय।’ पर भक्कल कुछ समझने के लिये तैयार ही नहीं था।

दीपावली का त्यौहर आया। नन्हें दीपकों से सब के घर रौशन हुए। पर भक्कल के घर का अँधेरा इतना घना था कि लाखों दीयों की रौशनी से भी वह दूर नहीं हो सकता था।

लखमू के बहुत समझाने-बुझाने और मान-मनौव्वल के बाद एक  दिन भक्कल और दसमो रापा-कुदाल लेकर कछार आये। साथ में लखमू भी था। हेड़मू मड़ावी के भाई समान कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ अपनी-अपनी जगह पर कायम थे परन्तु फल किसी में भी नहीं लगे थे। मानो मालिक के लिये ये भी दुखी हो। आमा के फलने का अभी मौसम नहीं आया था। कटहर के फूलने का समय था। परन्तु इस मौसम में खूब फलने वाले जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ों पर भी तो फल नहीं लगे थे। भक्कल और दसमो ने बारी-बारी से सभी पेड़ों के पास जाकर उनके पत्तों को, शाखों को और तनों को सहलाया। मानों माँ-बाप के स्पर्ष को अनुभव करना चाहते हों। फिर छः-सात फीट ऊँचे संतरे के पेड़ के पास आकर मेड़ पर दोनों बैठ गए। हेड़मू को रास्ते के किनारे आबाद इसी पेड़ से सर्वाधिक लगाव था। बाजार से खरीद कर लाये गये संतरे के फल से निकले बीजों से तैयार इस पेड़ में लगने वाले फल न तो संतरे के समान होते थे और न ही मौसम्बी के समान; पर स्वादिष्ट खूब थे।

बच्चों की उदासी को भांप कर लखमू भी वहीं पर आकर बैठ गया। भक्कल और दसमो की निगाहें पूरी तल्लीनता के साथ लगातार संतरे के इस पेड़ की शाखाओं और पत्तियों की ओर लगी हुई थी। मानों मन ही मन माँ-बाप की आत्मा को इन पत्तियों के बीच तलाश रहे हों। दसमो अचानक चहक पड़ी। पति को झकझोरते हुए कहा - ’’ऐ! देख तो कतका सुघ्धर पाका-पींयर फर फरे हे।’’

भक्कल ने पत्नि की इशारा करती हुई ऊँगली का अनुशरण किया और उसे भी वह फल दिख गया। परन्तु चहकने बारी अब भक्कल की थी। उसी फल के पास कुछ ऊँचाई पर पीला पका हुआ पहले वाले से कुछ बड़ा एक और फल था जिसे उसने देखा था।

भैया-भौजी के जाने के बाद लखमू ने पहली बार बच्चों के चेहरों पर खुशी देखी थी। कहा - ’’काला देखथो रे भइ! हमला नइ देखाव।’’

’’दू ठन संतरा फरे हे कका, पाका-पाका, पींयर-पींयर।’’ दसमो ने कहा।

लखमू - ’’कहाँ? कते करा फरे हे?ं’’

भक्कल ने ऊँगली से इशारा करते हुए बताया - ’’वो देख, अंगरी के सोझ म।’’

परन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी वे फल लखमू को दिखाई नहीं दिये। लखमू ने सोचा - जंगल के अतका बेंदरा- भालू, चिरई-चिरगुन, रद्दा रेंगइया हरहा-खुरखा, कोनों ल ये फर मन ह नइ दिखिनं, मुही ल काबर दिखही? जउन मन ल दिखना रिहिस हे, वो मन ल दिख गे। कहा - ’’सियाना आँखी रे भइ, हमला तो नइ दिखे। टोर के देखाहू ते देख लेबोन।’’

भक्कल ने एड़ी के बल खड़ा होकर उन दोनों फलों को तोड़ लिया। हथेलियों पर रख कर कका को दिखाया - ’’ले देख, अब दिखिस।’’

लखमू को फलों में भैया-भौजी की आत्मा की उपस्थिति का अनुभव हुआ। हाथों में लेकर माथे से लगाया और लौटाते हुए कहा - ’’ये रद्दा म रोज पचासों झन आदमी रेंगत हें। जंगल के बेंदरा-भालू हें, चिरई-चिरगुन हें, कोनों ल नइ दिखिस। तुँहिच् मन ल कइसे दिख गे? सियान मन के आसिरवाद समझ के अपन-अपन फर ल तुमन खा लेव।’’

ऐसा ही किया गया।

संतरे के वे दोनों फल भक्कल के लिये खुशियों का सौगात लेकर आए थे। अगले साल की दीपावली आते तक भक्कल के घर का सारा अँधेरा मिट चुका था। कुल को रोशन करने वाला कुल का दीपक जो आ गया था।

हेड़मू मड़ावी की बाड़ी अब फिर आबाद हो गई है। बह गए झाले की जगह पर नया झाला बन गया है। सब्जी की नई क्यारियाँ बन गई हैं। क्यारियों में सब्जियाँ खूब फलती हैं। पेड़ों पर भी खूब फल लगते हैं। भक्कल और दसमो दोनों, अपने सुंदर-सलौने बेटे को झाला में चारपाई पर लिटा कर बाड़ी में खूब लगन के साथ काम करते हैं।
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9: वे क्यों रोए

अजय साहब अपना सामान ट्रक में भर कर चले गए। कब गए किसी को पता नहीं चला। न कहीं कोई हलचल हुई और न ही कहीं कोई चर्चा।

विभाग के सबसे बड़े अधिकारी थे तो क्या हुआ, आदमी नहीं थे क्या? या इस कालोनी के लोग आदमी नहीं है? यहाँ उनका रहना, न रहना बराबर था। कौन जानता था उसे यहाँ? चैबीसों घंटे गले में अधिकारी की तख्ती लटकाये घूमते रहत थे; क्या मतलब? किसी से मिलने-जुलने की बात तो दूर, दुआ-सलाम से भी कोई मतलब नहीं। अरे! पता भी तो चले कि हम समाज में, सभ्य समाज में रह रहे हैं।

जैसा पति वैसी ही पत्नी और वैसे ही बच्चे। ऐसे अकड़ू और घमंडी परिवार के जाने का भला किसे गम होगा?

पर अब उसकी जगह पर आने वाले विकास साहब के बारे में ैसुनकर लोगों को अजय साहब की महŸाा का पता चला है। कहने लगे हैं, ’वही ठीक थे। यदि किसी का भला नहीं किया तो किसी का बुरा भी तो नहीं किया। किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचाया। हमेशा काम से काम रखा। उनकी ओर सेे बेफिक्री तो थी कम से कम।’ 

 विकास साहब के बारे में सुनकर यहाँ सब का ब्लडप्रेसर बढ़ा हुआ है। बेफिक्री गायब हो गई है। चिंता बढ़ गई है और लोग चिंतन की अवस्था में चले गए हैं।

चिंता का विषय यह नहीं है, कि वे बड़े रिश्वतखोर अधिकारी हैं, रहें! अपनी बला से। रिश्वत के मामले में कौन यहाँ दूध का धुला है? चिंता का प्रमुख कारण तो उनका तलाकशुदा होना, कँुवारों की तरह रहना, लुच्चाईपन और चरित्रहीनता है। लोग कहते हैं कि उनके शब्दकोश में औरतों के बारे में केवल एक ही शब्द है, औरत। माँ, बहन, बेटी अथवा विवाहिता, विधवा, जवान, प्रौढ़ा या वृद्धा जैसे शब्द है ही नहीं। छी, कितना चरित्रहीन होगा साला। तलाक का कारण भी तो उनकी इसी चरित्रहीनता को बताया जाता है। आज के जमाने में भला कौन पत्नी चरित्रहीन पति को बर्दाश्त करेगी? बेचारी के पास तलाक के अलावा और कोई रास्त बचा ही नहीं होगा।

संभ्रांत लोगों की इस कालोनी में साले इसी लुच्चे को आना था?

हर आस्तिक, जिसका अवतारवाद पर भरोसा होता है; का मानना होता है कि ईश्वर हमेशा अपने साथियों के साथ अवतरित होते हैं। उनके अवतार के पहले सारी भूमिकाएँ बननी शुरू हांेे जाती है। सारे शुभ लक्षण, प्रगट होने की होड़ में शामिल हो जाते है।

चाहे उल्टा होता हो, पर शैतान के मामले में भी ऐसा ही होता होगा। वरना विकास साहब नाम का शैतान इस कालोनी में अभी अवतरित ही नहीं हुए हैं और सारे बुरे लक्षण, क्यों प्रगट होने लगते?  

मुसीबत छप्पर फाड़ कर आती है। विकास साहब नाम की मुसीबत अभी आये ही नहीं हैं और कालोनी में छप्परों का फटना शुरू हो गया है; लोगों पर मुसीबतांे के पहाड़ टूटने लगे हैं। पहली मुसीबत रहमकर साहब के छप्पर को फाड़कर दनदनाते हुए घुँसी है; ट्रांसफर के रूप में। 

रहमकर साहब छोटे बाबू के रूप में नियुक्त हुए थे, और अब बाबुओं के बाबू हैं। कई साहब आये और गये, पर वे पिछले पच्चीस साल से जमे हुए हैं। उनका कभी ट्रांसफर न हुआ हो ऐसी बात नहीं है, कभी-कभी तो वे खुद ही कहीं आस-पास सुविधाजनक जगह देखकर अपना ट्रांसफर करवा लेते हैं ताकि सनद रहे, और फिर रुकवा भी लेते है।

ट्रांसफर के मौसम में ट्रांसफर रस का वे जमकर आनंद लेते है। इस रस के सामने सारे रस फीके हैं। खेल, व्यापार, व्यवहार, सब एक साथ हो जाता है; सेहत तो बनता ही बनता है, धाक भी जम जाता है। आधुनिक शब्दकोश में सेहत बनने का अर्थ, माली हालत और रुतबा में एकाएक बढ़ौतरी होना, होता है।

नीचे से ऊपर तक उनकी गोंटियाँ फिट है। पर इस बार वे बुरे फँसे हैं। उनकी सारी गोंटियाँ अनफिट हो गई हैं। सारे दाँव-पेंच निस्तेज हो गए हैं। अब की बार किसी को उन पर तरस भी तो नहीं आ रहा है। लगता है, जानी ही पड़ेगा। शहर में उनके दसियों प्रकार के कारोबार चल रहे हैं। पत्नी एन. जी. ओ. चलाती हैं। लड़कियाँ काॅलेज में पढ़ रही हैं। जमे-जमाये सारे काम को छोड़कर अब इतने रिमोट में जाकर कोई रहे भी तो कैसे?

रहमकर साहब के ट्रंसफर से काॅलोनी का हर व्यक्ति दुखी है। कोई नहीं चाहता कि वे चले जायें। उनका ट्रांसफर रुकवाने के लिये सब ने अपने-अपने टोटके आजमाए, पर सब के टोटके बेकार चले गए।

नीतिखोर साहब अभी जवान हैं और बांध और नहर बनाने वाले विभाग में एस. ई. है। उनके लिये सस्पैंड होना मामूली बात है। सात साल की नौकरी में सरकारी राशि में हेराफेरी के आरोप में वे तीन बार सस्पैंड हो चुके हैं। तीनों बार उनके ऊपर जाँच आयोग बैठाई गई। तीनों बार वे बेदाग साबित हुए और हर बार नये मान-सम्मान और अधिक ठसक के साथ उनकी निर्दोष वापसी हुई है। काॅलोनी में सबसे अधिक ठसन इन्हीं की है। पूरी तरह वातानुकूलित बंगले में रहते है। मंहगी कार में घूमते है। दो-दो फार्महाऊस हैं। अंदर की बातों के हिसाब से और न जाने क्या-क्या होंगे। पर कुछ भी काम नहीं आया। इस बार बात आगे बढ़ गई है। अब तो नौकरी बचाने के लाले पड़ गए हैं। जेल भी जाना पड़ सकता है। चेहरे की रंगत उड़ी हुई है।

अब मिसेज नीतिखोर के बारे में ज्याद कुछ बताने की क्या जरूरत? बस इतना जान लीजिये कि पति के विभाग के ही सबसे बड़े अधिकारी की बेटी हैं वे। बचपन से ही, उनका हर शौक ऊँचा है। आधुनिक और खुले विचारों की महिला हैं। खुलकर जीती हैं, खुलकर खेलती हैं, खुलकर खाती हैं। विस्तृत रकबे वाले शरीर से ही पता चलता है कि वे खाते-पीते घर की हैं। शरीर के लटकने वाले सारे अंग लटक चुके हैं। पाँच साल से दाम्पत्य जीवन जी रही हैं पर माँ बनने की स्थिति को बराबर टालती आ रहीे हैं। बकौल उनके; जल्दबाजी में बच्चा पैदा करके वे अपने फिगर को बिगाड़ना नहीं चाहती हैं। पर चर्चा है, कि शादी के पहले ही अप्राकृतिक गर्भस्खलन के कारण गर्भाशय को स्खलित होने की आदत पड़ गई है और अब वह गर्भधारण करने से इन्कार कर रही है। इलाज चल रहा है, पर डाॅ. जवाब दे चुके हैं।

कुछ भी हो, इस कालोनी की महिला मंडल की वे लीडर हैं और महिला मंडल की सारी गतिविधियाँ वे ही संचालित करती हैं।
हमेशा बनारसी और कोसे की साड़ियाँ पहनने वाली, आयातित सौदर्य प्रसाधनों का उपयोग करने वाली, हर समय चहकने-मटकने वाली और आधुनिक विचारों वाली यह उत्तरआधुनिक महिला, पति के ऊपर आए संकट की ओर से बेफिक्री का, ऊपर से चाहे जितना भी दिखावा कर रही हो, लेकिन अंदर की बात तो यह है कि आजकल इनकी भी रंगत उड़ी हुई है, चमक गायब है।

काॅलोनी में और लोगों पर भी मुसीबतें आई हुई हैं पर इन दोनों की मुसीबतों के सामने वे सब बड़े मामूली हंै।

बड़ी मुसीबत तो स्वयं विकास साहब ही हैं। विकास साहब का शासकीय आवास रहमकर साहब और नीतिखोर साहब के बंगलों के बीच में ही पड़ता है। मुसीबतों के पहाड़ भी इन्हीं दोनों पर अधिक टूटे हैं। दोनों के ही परिवार में जवान बीवी-बच्चे हैं। और साले इस लुच्चे को इन्हीं दोनों परिवारों के बीच में रहना है।

काॅलोनी पर अए इस मुसीबत से निपटने के लिए, भविष्य की रणनीति तय करना जरूरी है। काॅलोनी के मर्द अपने ढंग से रणनीति बनाने में लगे हुए हैं, और महिलायें अपने ढंग से। मुद्दे पर विचार विमर्श हेतु मिसेज नीतिखोर के बंगले पर इस काॅलोनी की महिला मंडल की आपात बैठक बुलाई गई है।

मिसेज रहमकर कब की आ चुकी हैं। हेमा, रेखा, जया और सुषमा मेडम भी समय पर पहुँच गई है। अन्य सदस्य महिलाएँ भी आ चुकी हंै। नहीं आई हैं तो मिसेज आरती। वैसे भी मिसेज आरती बैठकों में कम ही आती हैं। आती भी हैं तो अक्सर चुप ही रहती हैं। ऐसे बैठकों से उनकी विरक्ति के पीछे कारण हैं। पति की ऊपरी कमाई की बदौलत स्वर्गसुख भोग रही कालोनी की इन आत्म-प्रसंशक और अतिआभिजात्य महिलाओं के बीच उनकी अपनी अभावजन्य आत्महीनता उसे मुखर नहीं होने देता। उन्हें पता है कि उसे कोई तवज्जो नहीं मिलता। इन बातों से पहले उन्हें काफी दुख होता था। परंतु पति की दलीलें उन्हें जब से समझ में आने लगी हैं, उनकी पीड़ा कम होने लगी हैं।

इस बाबत मिस्टर आरती कहते हैं, ’भ्रष्ट आचरण द्वारा जनता और शासन को लूटकर धन कमाने वालों को जब अपने किये पर शर्मिंदगी नहीं होती है, तो हमारे पास शर्मिंदा होने का तो कोई भी कारण नहीं है।’ शहर के सुप्रसिद्ध स्कूल के वे माने हुए प्राचार्य हैं और यहाँ उनकी अपनी हैसियत है। कर्तव्यनिर्वहन की उनकी आत्मप्रेरित भावना और अनुशासन हमेशा इस शहर में असंदिग्ध और चर्चित रहा है।

बैठक का माहौल आज अपेक्षाकृत शांत है। सब के ऊपर गंभीरता का मोटा लबादा चढ़ा हुआ है, पर किसी के बनाव-श्रृँगार में कहीं भी, रŸाी भर की कोई कमी नहीं है। आज भी मिसेज नीतिखोर सब पर भारी पड़ रही हैं। सबके मुँह में खुजली है। निंदा रस की उबकाई सबको आ रही है, पर मातमी माहौल में कोई डांडिया कैसे करे? मिसेज आरती का, उनकी अनुपस्थिति मंें मखौल उड़ाकर हँसा भी तो नहीं जा सकता।

खिड़की में लगे, दिन और रात के हिसाब से अपनी पारदर्शिता की दिशा बदलने वाले काँच के बाहर, सड़क पर, मिसेज आरती को पैदल आते हुए देखकर अंदर बैठी हुई महिलाओं में कानाफूसी का दौर शुरू हो गया। कुछ तो मुँह को हथेलियों से ढंक कर हँसने भी लगी। हेमा ने कहा - ’’पैदल चलने का ठाठ तो देखो।’’

रेखा ने बात पूरी की - ’’जैसे शाही बघ्घी पर ब्रिटेन की महारानी आ रही हो।’’

मिसेज नीतिखोर भी चुप नहीं रह सकी, कहा - ’’उनकी ऐतिहासिक साड़ी को तो देखो।’’

जया ने कहा - ’’पुरातात्विक महत्व की धरोहरों पर किसे गर्व नहीं होगा?’’

फिर सभी समवेत स्वर में हँस पड़ी।

मिसेज आरती ने जब कमरे में प्रवेश किया, पुनः सबके चेहरों पर अवसादी मुखौटे चढ़ चुके थे।

बैठक में पूरे समय तक विकास साहब ही छाये रहे। मिसेज नीतिखोर ने यह रहस्योद्घाटन कर सबको चैंका दिया कि विकास साहब की पहुँच काफी ऊपर तक है, चाहें तो वे हम सबकी समस्या सुलझा सकते हैं। इसके बाद चाय-नाश्ते के अलावा और कोई विशेष बातें नहीं हो सकी और बैठक बेनतीजा खतम हो गया।
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विकास साहब को आये अब सप्ताह भर से अधिक हो गया है। लोग अब उसके प्रति बनाये अपनी पूर्व की अवधारणाओं को संशोधित करने में लग गए हैं। देखने में वे जितने सुदर्शन है, व्यवहार में भी उतने ही शिष्ट और शालीन हैं। छोटे-बड़े, सबसे प्यार से मिलते हैं। पद और प्रतिष्ठा का उनमें जरा भी अहम नहीं है। महिलाओं की ओर तो कभी आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं।

लेकिन काॅलोनी की महिलाओं का शंकालु मन इतनी जल्दी अपनी राय बदलने के पक्ष में नहीं है। अभी भी वे अपने-अपने घर के खिड़कियों-झरोखों से परदे की आड़ ले लेकर चोर निगाहों से आते-जाते उनकी गतिविधियों का बराबर निरीक्षण करती रहती हैं।

विकास साहब जानते हैं; काॅलोनी के लोगों के मन में उनके चरित्र के प्रति किस तरह की अवधारणा है; और यह भी जानते हैं कि काॅलोनी के हर घर की खिड़कियों-झरोखों से उन पर निगाहंे रखी जा रही है। अपने अनुभवों के आधार पर स्वप्रतिपादित इस सिद्धांत पर कि, ’किसी चरित्रहीन महिला के प्रति पुरुषों के मन में जो भाव होता है, वैसा ही भाव चरित्रहीन पुरुष के प्रति महिलाओं के भी मन में होता है,’ पर उन्हें पक्का विश्वास है।
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उस दिन नीतिखोर साहब के बंगले पर विकास साहब के स्वागत में भव्य डिनर पार्टी का आयोजन किया गया। पार्टी में व्यवस्था और कार्यपालिका से संबंधित कई बड़े सितारों की जमघट रही। नीतिखोर साहब एक बार फिर सारे आरोपों से मुक्त हो गये थे।

इस दिन से विकास साहब नीतिखोर साहब के घर के सदस्य की तरह हो गये हैं। मिसेज नीतिखोर, विकास साहब के गुण गा-गाकर अघाती नहीं हंै।

नीतिखोर साहब अब अपने पुराने ढर्रे पर फिर लौट आये हैं। अपनी बहाली पर किये गये खर्चे की भरपाई के लिये अब वे रात-दिन एक किये हुए हैं। अक्सर दौरे पर रहते हैं।

विकास साहब अब हेमा, रेखा, जया और सुषमा मेम साहबों के घर भी अक्सर चाय के लिये आमंत्रित होने लगे हैं।
 रहमकर साहब का ट्रांसफर नहीं रुक पाया है, पर उन्हें अब कोई चिंता नहीं है, अपनी मर्जी के मालिक हैं। विकास साहब की मेहरबानी की बरसात उस पर भी शुरू हो गई है। पत्नी की एन. जी. ओ. खूब फल-फूल रहा है। रहमकर साहब अब अपना सारा ध्यान और सारा समय, इसी पर केन्द्रित किये हुए हैं। विकास साहब का संरक्षण पाकर वे घर-परिवार से बेफिक्र हो गए हैं और दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगे हुए हैं। विकास साहब का गुणगान करते अब वे भी नहीं अघाते हैं।

विकास साहब अब इनके भी घर के सदस्य की तरह हो गये हैं।

काॅलोनी के अधिकतर लोगों की समस्याएँ विकास साहब ने बड़ी आसानी से हल कर दिया है।

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एक साल बीत गया। नीतिखोर और रहमकर दोनों अब कुछ तनाव में रहने लगे हैं। विकास साहब के चेहरे से उन्हें अब घिन होने लगी है। सामना होने पर सिर जरूर झुकाते हैं, पर पीछे मुड़कर पचास गालियाँ भी बकते हैं।

एक दिन विकास साहब ट्रक में अपना सामान लाद कर चले गये। पता चला कि उनका ट्रांसफर हो गया है। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। मिसेज नीतिखोर और मिसेज रहमकर को तो विश्वास ही नहीं हुआ। पर बात सही थी, समाचार सुनकर उन लोगों का दिल बुरी तरह बैठ गया। मिसेज नीतिखोर से उस दिन खाना भी नहीं खाया गया। उसकी उदासी का आलम यह है कि सप्ताह भर तक सौंदर्य प्रसाधनों को उन्होंने छुआ भी नहीं।

यही हालत मिसेज रहमकर की भी है। लेकिन सबसे बुरी दशा उनकी दोनों बेटियों की है, जो इन दिनों काॅलेज में पढ़ रही हैं। वे न ढंग से खाती-पीती हैं और न काॅलेज जाती हैं। खुद को कमरे में बंद करके दिन-रात आँसू बहाती रहती हैं।

विकास साहब के ट्रांसफर की बातें यद्यपि यहाँ किसी को पता नहीं थी, परंतु वहाँ पर, जहाँ वे जा रहे थे, पँद्रह दिन पहले ही उनके आगमन की बातें ठीक उसी तरह प्रचारित हो गई थी जैसे एक साल पहले यहाँ पर हुई थी।
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10: गाय पर एक निबंध

एक मित्र महानगर के संभ्रात कालोनी में सपरिवार निवास करते हैं। परिवार में एक अदद् पत्नी के अलावा एक पुत्री भी है। मित्र सरकारी प्रशासनिक अधिकारी हैं। पत्नी भी किसी मल्टीनेशनल कंपनी में अधिकारी हैं। वयःसंधि पार कर रही पुत्री पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं। सबकी अपनी-अपनी व्यस्तता है। उस दिन शाम के समय मैं उनके यहाँ एक घंटे के लिए मेहमान था।
मित्र इस बात के लिये मेरा बार-बार आभार मान रहे थे कि आज की शाम, चाहे एक घंटे के लिये ही सही; सिर्फ मेरी वजह से, अर्से बाद परिवार के सभी लोग एक साथ बैठ पा रहे हैं और इसलिये भी कि अपनी भाषा में बचपन से लेकर स्कूल तक की मस्तियों की चर्चा होगी, पुरानी यादें ताजा होंगी, अपनापन लौट आएगा।

चाय पर उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्री से मेरा परिचय कराया। पता चला कि उनके घर की भाषा अंग्रेजी है। वे एक दूसरे से अंगे्रजी में ही बातें कर रहे थे। मैंने उनकी पत्नी और पुत्री से औपचारिकता के कुछ वाक्य कहने की कोशिश की। मेरी भाषा देशी थी। उन लोगों ने जवाब अंगे्रजी में दिया। इस दौरान यद्यपि उन लोगों के चेहरोें पर औपचारिक मुस्कानें तैर रही थी परन्तु उनकी शारीरिक भाषा से साफ  जाहिर हो रहा था कि उन्हें मुझमें और मेरी भाषा में कोई रूचि नहीं है।

 मित्र महोदय और मैं अपनी देशी भाषा में लगातार गप्पें लड़ा रहे थे। बीच-बीच में ठहाके भी लग जाते थे। उन लोगों को शायद हम लोगों का इतना अनौपचारिक हो जाना और इस तरीके से ठहाके लगाना भी पसंद नहीं आ रहा था। अपनी झुंझलाहट और नापसंदगी जाहिर करने के लिये वे लगातार मौन धारण किये हुए थे; यद्यपि यदाकदा नौकर को आदेश-निर्देश देते समय उनकी यह मनोदशा जाहिर भी हो जाया करती।

मेहमान की वजह से मेजबान को किसी तरह की कोई तकलीफ हो, यह उचित नहीं था। और यह भी कि उन लोगों के मन में मेरी जितनी भी ऋणात्मक छबियाँ बनी होंगी, उन्हें मिटाना भी जरूरी था, अतः अब उन लोगों के साथ मैं अंग्रजी में बातें करने लगाा।

उनके चेहरों पर रौनक लौट आई।

मिसेज विनोद, अर्थात मित्र की पत्नी जिन्हें भाभी संबोधन शायद पसंद नहीं था, और बातों ही बातों में उन्होंने इस बात का संकेत भी दे दिया था; लगातार अपनी बेटी की इंटेलीजेंसी का बखान कर रही थी कि किस प्रकार वह न सिर्फ पढ़ाई में, बल्कि डिबेट्स, कल्चरल एक्टिविटीज और  अदर एक्टिविटीज में भी अपने क्लास और स्कूल  में हमेशा अव्वल रहती है, सबसे अधिक माक्र्स लेती है। अंग्रेजी में तो उनका कोई मुकाबला ही नहीं है। पर उन्होंने यह भी बताया कि उनके घर में और इस कालोनी में सबसे अच्छी हिन्दी उन्हीं की है। इस वजह से काॅलोनी में भी लोग उन्हें मानते हैं। स्वयं को सिद्ध करने के लिये उन्होंने उनकी पिछले सप्ताह के टेस्ट की कापी मेरे सामने रख दी।

कापी दस में दस अंकों के साथ जंची हुई थी और शिक्षक के साथ पालकों के द्वारा भी हस्ताक्षरित थी। उसमें गाय पर हिन्दी में निबंध लिखा हुआ था जिसका मजमून इस प्रकार था।

’गाय एक ग्लोबल एनिमल है। हमारे देश में यह सड़कों के किनारे अथवा मैदानों में इधर-उधर लावारिश हालत में घूमती हुई देखी जा सकती है। यह सड़कों पर पड़े हुए रद्दी पेपर, पाॅलीथिन और कचरों को खाती है। इनकी वजह से ट्रैफिक बुरी तरह से इफेक्टेड होती है। मोस्टली एक्सीडेंट इन्हीं की वजह से हुआ करती है। इनके बदबूदार डंग से इन्वायरनमेंट पाल्यूट और इन्फेक्टेड होता है। यद्यपि ये सीधी होती हैं पर इनके पाइन्टेड हाॅन्र्स टेरिबल होते हैं और इससे पब्लिक की जान को हमेंशा रिस्क रहता है।

गवर्नमेंट को चाहिये कि वह इनके रिहैबिलिटेशन के लिये काम करे।

इनकी कई व्हैरायटीज होती हैं। अच्छे किस्म की गायें विदेशों में पाई जाती है। वहाँ मांस और चमड़े के लिये इनकी फार्मिंग होती हैं। इनका मांस काफी न्यूट्रिसियश और डेलीसियस होती है। हमारे देश के स्लम एरियाज के अंडर पावर्टी लाईन के लोगों के माल न्यूट्रिशन प्राॅब्लम को इससे कन्ट्रोल किया जा सकता है। पर इसके लिये हमारे देश के गायों की नस्लों को सुधारने और इसकी वेल प्लान्ड फाॅर्मिंग की जरूरत है।

हमारे मदर्स-फादर्स मोस्टली हमारे घरों में हमारे साथ ही रहते हैं पर पता नहीं क्यों, हिंदू कम्यूनिटीज के लोग इन्हें गो माता कहते और इनकी वरशिप करते हैं। इनकी वजह से कभी-कभी हिन्दू और मुस्लिम कम्युनिटी में कम्यूनल राॅयट्स भी हो जाया करते हैं जिसमें सैकड़ों लोग मारे जाते हैं और हजारों इन्जर्ड होते हैं। गाय जैसे मोस्ट काॅमन और आवारा एनिमल के लिये कम्यूनल राॅयट्स न सिर्फ हमारे कंट्री के इकानोमी प्रोग्रेस के लिये एक बड़ा हर्डल है बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि हमारे देश के लोगों में कल्चरल अवेयरनेस की कमी है।’

मेरा मन हो रहा था कि इस निबंध को बार-बार पढ़ूँ पर मंैने देखा कि मित्र दंपति बार-बार अपनी कलाई घड़ी की ओर देख रही है।  संभवतः मेरे लिये आबंटित एक घ्ंाटे का निर्धारित अवधि समाप्त हो चुका था और मेरा विदा न लेना उनके लिये कष्टकर हो रहा था।
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11: मंत्री जी की सड़क

इस सड़क का उद्घाटन पिछले महीने ही बड़े मंत्री के पवित्र और सुकोमल करकमलों से हुआ था। उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था - ’’भाइयों, इस सड़क के बन जाने से अब आप भी राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गए हैं। राष्ट्र ही नहीं, बल्कि विश्व की मुख्य धारा से जुड़ गए हैं। आपकी आर्थिक समृद्धि के मार्ग खुल गए हैं। आधुनिकता और विकास की दौड़ में अब आप पीछे नहीं रहेंगे। बहुत जल्द हमारा-आपका यह गाँव, देश ही नहीं, विश्व का सबसे विकसित गाँव होगा।’’

इसी गाँव में मरहा राम नाम का एक आदमी रहता है। उसने गाँव में अब तक केवल आदमी ही देखा था। आदमी से मिलते जुलते कुछ और लोगों को भी देखा था। गाय, बैल, बकरी, आदि जानवरों को देखा था। एक बार खेत की ओर जाते वक्त उन्होंने लोमड़ी भी देखा था। बहुत पुरानी बात है, जब वह छोटा था, गाँव के मेले में एक बार सर्कस कंपनी आई थी; तब उसने वहाँ शेर भी देखा था। एकाध बार उसने पुलिस भी देखी थी। पर मंत्री किस नाक-नक्श का प्राणी होता है, उसने आज तक नहीं देखा था।

सड़क के उद्घाटन के दिन सुबह आठ बजे से ही चमचमाती हुई कई बसें आसपास के गाँवों की धूल और गड्ढों से भरी कच्ची सड़कों और रास्तों पर भांय-भांय दौड़ने लगी थी। मरहा राम को पता चला कि येे मंत्री के दर्शनार्थ लोगों को भर-भर कर ढो रहे हैं। उसके मन में भी मंत्री-दर्शन की परम इच्छा हिलोरें मार रही थी। अभागे ने गाँव के ही मंदिर के भगवान को अब तक नहीं देखा था। मरने के दिन आ रहे थे, चिंता होने लगी थी कि मोक्ष कैसे होगा? सोचा, शायद मंत्री के दर्शन से ही मोक्ष मिल जाय। इसीलिये डरते सहमते वह भी बस में चढ़ गया था।

मंत्री महोदय की बातें सुनकर, उसके साथ आए हुए देव दूत के समान अधिकारियों को देखकर, और मंत्री महोदय के दिव्य उड़न खटोले को देखकर मरहा राम का हृदय तृप्त हो गया था। उसे लगा था, मंत्री नहीं बल्कि साक्षात रामचंद्र भगवान ही, लंका से पुष्पक विमान में उड़कर आए हैं, राम राज्य लेकर।

मंत्री महोदय की मोक्षदायिनी मनमोहनी सूरत और आत्मा को तृप्त कर देने वाली बातें, मरहा राम के मन और आत्मा में आज भी रची-बसी है। इसी के सहारे उसका मोक्ष जो होने वाला है।
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माह भर की इस शिशु सड़क ने राजनीति में बहुत बड़ा उबाल ला दिया है। इसकी दुर्दशा ने विपक्ष को सरकार की छाती में मूँग दलने का सुनहरा अवसर दे दिया है। अखबार वाले भी कमर कसकर मैदान में उतर आये हैं। सड़क पर से डामर की परतें गधे की सींग की तरह गायब हो र्गइं हैं और उसकी जगह बड़े-बड़े गड्ढे उभर आए हैं। चलना दूभर हो गया है। इसे लेकर वे आए दिन कुछ न कुछ रोचक कार्यक्रम करते रहते हैं। पिछली बार कीचड़-पानी से लबरेज इन गड्ढों में इन लोगों ने धान-रोपाई और मछली पालन का कार्यक्रम चलाया था। गड्ढों में बाकायदा तख्तियाँ भी लगाई र्गइं थी।

देखने के लिए मरहा राम भी चला आया था। उसने सोचा, गड्ढों में लगी इन तख्तियों में जरूर वेद-शास्त्र की वाणियाँ लिखी होगी। स्कूल से भाग कर आया एक बच्चा भी वहीं पर बस्ते को कंधे पर लादे टहल रहा था। मरहा राम को इस बच्चे में भविष्य का नेता नजर आया। धान के पौधे रोपे गए एक गड्ढे पर लगे तख्ती की ओर इशारा करते हुए उसने उस बच्चे से पूछा - ’’बेटा, इस तख्ती में क्या लिखा है?’’

बच्चे ने मरहा राम को ऊपर से नीचे तक देखा। सोचा होगा, पता नहीं किस जमाने का आदमी है, पढ़ना भी नहीं आता। फिर तख्ती की ओर देखा। देर तक हिज्जा किया, वाक्य का हिसाब लगाया और बताया - ’’मत्र जी का खत।’’

मरहा राम समझ गया, तख्ती पर ’मंत्री जी का खेत’ लिखा होगा। सरकारी स्कूल का बच्चा है, इसलिये ऐसा पढ़ रहा है।
दूसरे गड्ढों पर छोटी-छोटी कुछ मछलियाँ तैर रही थी, बहुत सारी मरी पड़ी थी, उस गड्ढे पर लगी तख्ती को भी उस बच्चे ने पढ़ा और बताया - ’’मत्र जी की तलब।’’

मरहा राम फिर समझ गया, जरूर इस पर ’मंत्री जी का तालाब’ लिखा होगा। उसने बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर उसे शाबासी दी और पूछा - ’’बेटा किस कक्षा में पढ़ते हो?’’

बच्चे ने बड़े गर्व से बताया - ’’आठवीं।’’
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अखबार वालों की लेखनी-देवी के ऊपर थैलों का चढ़ावा चढ़ा कर बात को संभाल लिया गया था। पर विपक्ष का मुँह बंद नहीं हो पा रहा था। अतः मंत्री जी को जनता जनार्दन की शरण में जाना ही उचित लगा।

गाँव के बाहर बड़ा सा भांठा है। गाँव वाले बरसात भर यहाँ आँख और नाक पर रूमाल बांध कर दिशा-मैदान किया करते हैं। इस बार इसी जगह को साफ करके मंत्री जी के आगमन के लिये सजाया गया है। गाँव वाले खुश हैं। कह रहे हैं, ’जो काम सुअरों से नहीं हो पा रहा था, उसे सरकार ने कर दिखाया है।’

इस बार भी जनता के हितों का पूरा ध्यान रखा गया है। खाने-पीने की भरपूर व्यवस्था की गई है। बड़ी संख्या में लोगों को ढोया गया है। खाने-पीने की शाही दावत के लालच में मरहा राम इस बार भी चला आया है। अपने समय पर मंत्री जी पुनः उड़न खटोले सहित आसमान से उतरे। लोगों को संबोधित करते हुए उसने कहा - ’’भाइयों और बहनों, आपका सेवक आप सबको प्रणाम करता है। हमें अच्छी तरह पता है कि आपने हमें सेवा करने के लिये चुना है। आपकी तकलीफों का पता लगाने हमारी सरकार एक-एक व्यक्ति के पास आयेगी। हमारे पास धन की कोई कमी नहीं है। आपको मुफ्त में अनाज दिया जायेगा। मुफ्त में आपकी बीमारियों का इलाज कराया जयेगा। आपके जरूरत की सारी चीजें हमारी सरकार आपको मुफ्त में देने जा रही है। आपकी तकलीफ, आपका दुख और आपका दर्द मुझसे देखा नहीं जाता।’’

 तालियों की गड़गड़ाहट थमने के बाद उसने फिर कहा - ’’मुझे पता है, आप लोगों का मन दर्पण की तरह साफ है, हृदय गंगा की तरह पवित्र है। भले-बुरे को आप बखूबी पहचानते हैं। आप तो नेकी के रास्ते पर, सत्य के मार्ग पर चलने वाले लोग हैं। पुराणों में लिखा है, ऋषि-मुनियों ने कहा है और हमारे संत कवियों ने भी कहा है; ’सत्य का मार्ग बड़ा कठिन होता है। सत्य का मार्ग कांटों से भरा होता है।’ हमारा मार्ग सत्य का मार्ग है। विपक्ष वाले नहीं चाहते कि आप लोग सत्य के इस मार्ग पर चलें। नाहक ही वे आपके और इस मार्ग के पीछे पड़े हुए हैं। यह बात मुझसे देखी नहीं जाती। विपक्ष वाले आपके साथ जो कर रहे हैं, उसे देखकर मुझे तो रोना आता है।’’ इतना कहकर मंत्री जी सचमुच रोने लगे।

इस बीच उसके आस-पास खड़े, उसके अतिहितैशी लोग कई बार उसकी ओर रुमाल बढ़ा चुके थे, पर मंत्री जी इसकी तनिक भी परवाह नहीं कर रहे थे। मंत्री जी को अब तक रोना नहीं आ रहा था, यह देखकर अतिहितैशी लोगों की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। अब जाकर उनकी जान मेें जान आई। राहत की सांसें ली, ’अंत भला, सो सब भला’।

चारों ओर तालियों की गड़गड़ाहट फिर गूँज उठी। सभा समाप्त हुई।

लौटते हुए मरहा राम ने अपने साथियों से कहा - ’भाई हो, हम अनपढ़ हैं तो क्या हुआ। मुक्ति के मार्ग में और मंत्री जी के इस सड़क में क्या फरक है, नहीं जानते हैं क्या?
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